Tuesday, August 29, 2023

अश्वेत अध्ययन के पक्ष में

 

                           

                                                       

2023 में हेमार्केट बुक्स से कोलिन कापेर्निक, रोबिन डी जी केल्ली और कीनांगा-यामाता टेलर के संपादन में आवर हिस्ट्री हैज आलवेज बीन कोंट्राबैंड: इन डिफ़ेन्स आफ़ ब्लैक स्टडीजका प्रकाशन हुआ । कोलिन कापेर्निक ने किताब की भूमिका लिखी है । संकलित लेखों को तीन हिस्सों में रखा गया है । पहले में वर्तमान स्थिति का विश्लेषण किया गया है । इसमें रोबिन केल्ली और कीनांगा-यामाता टेलर के लेख हैं । दूसरे हिस्से में संघर्ष के इतिहास के दस्तावेज और तीसरे में हमले का मुकाबला करने की रणनीतियों का बयान है । किताब की शुरुआत ही 1963 में जेम्स बाल्डविन के एक उद्धरण से होती है जिसमें वे अपने समय को खतरनाक कहते हैं । भूमिका लेखक कापेर्निक के अनुसार उनकी यह बात वर्तमान समय के लिए भी सही है ।

साफ नजर आ रहा है कि पुलिसिया आतंकवाद से अश्वेत समुदाय को भौतिक खतरा तो है ही, जेल और उद्योग के व्यापक परिक्षेत्र ने भी इसी समुदाय को निशाना बनाया है । इसके अलावे पाठ्यक्रम में से अश्वेत समुदाय और उसके इतिहास को बाहर करके अश्वेतों की प्रतिभा और प्रतिरोध को ओझल किया जा रहा है । अश्वेत समुदाय के विरुद्ध अमानवीय हमले कोई नयी बात नहीं हैं लेकिन सरकारी शिक्षा के इलाके में गोरों की श्रेष्ठता की पुनर्स्थापना का हालिया अभियान बहुत कुछ सोचने विचारने की मांग करता है । 2021 में ही हाई स्कूल के पाठ्यक्रम पर हुई बहस में फ़्लोरिडा के गवर्नर ने कहा कि अफ़्रीकी-अमेरिकी अध्ययन का कोई शैक्षिक महत्व ही नहीं है । ऐसा कहने से उन्होंने गोरों की श्रेष्ठता का समर्थन तो किया ही, अन्य गवर्नरों को भी ऐसा ही करने का संकेत दिया । इससे नस्लभेद की व्यवस्था तथा अमेरिका की स्थापना के अत्यंत हिंसक इतिहास के बीच का रिश्ता छिपा ले जाने की उन्हें उम्मीद रही होगी । फिलहाल फ़्लोरिडा समेत कम से कम सत्रह प्रांतों में नस्ल या नस्लवाद के शिक्षण पर येन केन प्रकारेण रोक लगी हुई है । किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि यह रोक महज अश्वेत अध्ययन या अश्वेत समुदाय पर हमला है । असल में तो यह हमला सामाजिक न्याय के सभी किस्म के आंदोलनों पर ही है । जो लोग भी बेहतर, आजाद और न्यायपूर्ण समाज बनाने की कोशिश में शामिल हैं उनके प्रयासों को गलत साबित करने का यह व्यवस्थित अभियान है । अश्वेत समुदाय के भविष्य, उसकी कहानी और मनुष्यता को तय करने का अधिकार गोरों को किसी भी सूरत में नहीं दिया जा सकता । इस अवसर का उपयोग गोरों की श्रेष्ठता संबंधी वैचारिकी को खाद पानी देने वाले समूचे माहौल को बदल देने के लिए करना होगा ।

यह किताब विभिन्न व्यक्तियों, संगठनों और समूहों के संयुक्त परिश्रम का नतीजा है । इसमें विद्यार्थियों के संगठनों की विशेष भूमिका रही है । किताब में शामिल अतीत और वर्तमान के लेखों का इस्तेमाल अश्वेत इतिहास की सामूहिक समझ को गहराने के लिए करना चाहिए । शोध और अध्ययन के इस गतिशील क्षेत्र की जड़ें पश्चिमी चिंतन और अमेरिकी विश्वविद्यालयों की व्यवस्था के प्रतिरोध में निहित हैं । यह प्रतिरोध समूची बीसवीं सदी को परिभाषित करने वाली परिघटनाओं में प्रमुख रहा है । रोबिन डी जी केल्ली ने हाल में लिखा भी है कि अश्वेत अध्ययन ने इसे देखने और समझने में मदद की है कि कैसे कला, साहित्य, सामाजिक आंदोलन और विचारों के जरिये अश्वेत समुदाय ने अपने संसार को गढ़ा । यह किताब भी इसी प्रक्रिया को तेजी प्रदान करने के लिए तैयार की गयी है ।

पहले ही कहा जा चुका है कि इस किताब को तीन हिस्सों में बांटा गया है । पहले हिस्से के लेखों में वर्तमान को समझने के लिए जरूरी ऐतिहासिक ढांचा तैयार किया गया है । उस संचित दमन और प्रतिरोध का बयान इसमें है जिससे वर्तमान की शक्लो सूरत तय हुई है । दूसरे हिस्से में अश्वेत इतिहास के लिहाज से महत्वपूर्ण लेखन का संग्रह किया गया है । तीसरे हिस्से में गोरों की श्रेष्ठता और उसके प्रतिरोध के इतिहास की शैक्षणिक जरूरत को उजागर किया गया है । अंधकार घना होने के समय यही इतिहास बताया जाना परम आवश्यक हो जाता है । इस किताब से अश्वेत संघर्ष के अतीत और वर्तमान के बीच पुल बनाना आसान होगा और सामूहिक प्रतिरोध के इस इतिहास से प्रेरणा मिलेगी । गोरों की श्रेष्ठता पर गर्व करने वाले संसार में अश्वेत इतिहास प्रतिबंधित ही होगा । इसके बावजूद इन कहानियों को किसी भी कीमत पर बचाया जाना चाहिए । भविष्य के निर्माण के लिए इसे संरक्षित रखना ही होगा ।

दूसरे संपादक रोबिन डी जी केल्ली ने भी फ़्लोरिडा की घटना से ही बात शुरू की है । अश्वेत अध्ययन से जुड़े मुद्दों को शैक्षणिक दुनिया से बाहर निकालने के लिए ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन द्वारा कानून के उल्लंघन का हवाला दिया गया था । यह भी कहा गया कि जिन लेखकों को पाठ्यक्रम में पढ़ाने की बात की जा रही है वे अध्येता होने की जगह मूल रूप से मार्क्सवाद के प्रचारक हैं । अश्वेत अध्ययन पर प्रतिबंध की मांग करने वाले लोग बच्चों और कर्मचारियों को सुरक्षित रखने का तर्क दे रहे थे । असल में 2022 में पारित एक कानून के मुताबिक ऐसी चीजें पढ़ाने पर प्रतिबंध है जिससे शर्म, पीड़ा या अन्य किस्म की मानसिक व्यथा हो । इसका ही सहारा लेकर नस्ल, लिंग, जेंडर या यौनिकता से जुड़ी चीजों को पढ़ाने से रोका जा रहा है । विद्यार्थियों या समाज की ओर से इन्हें पढ़ाने की मांग पर शिक्षा विभाग राजनीतिक दबाव के सामने न झुकने का तर्क दे रहा है! शिक्षा विभाग के हित गवर्नर के साथ जुड़े हुए हैं । यद्यपि सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने उक्त कानून के ऐसे प्रावधानों पर रोक लगा दी जिनसे सरकारी कालेजों और विश्वविद्यलयों की शैक्षणिक स्वतंत्रता पर आंच आती हो लेकिन निजी शिक्षण संस्थाओं पर यह आदेश लागू नहीं होता ।     

इस संशोधित पाठ्यक्रम को मंजूर कर लेने की जगह विद्यार्थियों, अध्यापकों, विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लड़ने का फैसला किया और शिक्षा विभाग की भर्त्सना करते हुए अश्वेत अधयन का पक्ष लिया । इसका असर हुआ और शिक्षा विभाग ने भूल सुधार की घोषणा की । अश्वेत अध्ययन पर वर्तमान हमलों के उत्तर में यह किताब तैयार की गयी है । इसकी जरूरत न केवल तमाम तरह के दक्षिणपंथी झूठ और अमेरिकी इतिहास को गोरों का इतिहास साबित करने की दृष्टि का मुकाबला करने के लिए थी बल्कि अश्वेत अध्ययन के अर्थ, उद्देश्य और महत्व के बारे में आम लोगों में व्याप्त भ्रम का निराकरण करने के लिए भी थी । असल में अश्वेत अध्ययन का पाठ्यक्रम केवल अश्वेत विद्यार्थियों के लिए नहीं होता । इसे सभी विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है । इस किताब में संग्रहित लेखों से पता चल जायेगा कि अश्वेत अध्ययन भी श्रमसाध्य बौद्धिक अनुशासन है । इसकी जगह सामाजिक गवेषणा के हाशिये पर होने की जगह उसके केंद्र में है ।

इस किताब को विद्यार्थियों, शिक्षकों और नीति निर्माताओं के लिए तैयार किया गया है । जिन सामान्य पाठकों को इस विषय में रुचि हो उनके लिए भी लाभकारी है । आलोचनात्मक शिक्षा पर हालिया हमलों की राजनीति भी इससे स्पष्ट होगी । इसमें ऐसे लेखकों को रखा गया है जिन्हें शिक्षा विभाग के पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है । इस विषय के अंतरअनुशासनिक और वैश्विक होने के बावजूद इसमें अमेरिका और पूर्व-औपनिवेशिक अफ़्रीका के इतिहास पर जोर दिया गया है । जान बूझकर इसमें साहित्य, राजनीति, कानून, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, जेंडर और यौनिकता, क्वैर और नारीवाद के साथ ही इतिहास को भी शामिल किया गया है । जिन लेखकों के लेखन को इसमें शामिल किया गया है उनकी सूची पर नजर डालने से पता चलता है कि हमारे जीवन को शासित करने वाले तंत्र की समझ तथा उसमें बदलाव के लिए अंतरअनुशासनिक नजरिये की बेहद जरूरत है । विद्रोही अश्वेत बौद्धिकों के लेखन को प्रमुखता दी गयी है । उनके लेखन से मुक्ति की राह तलाशने में मदद मिलती है ।

अश्वेत अध्ययन का अपना इतिहास भी आंतरिक टकरावों और सैद्धांतिक बहसों का है । इसकी जानकारी के लिहाज से भी कुछ लेख शामिल किये गये हैं । अश्वेत अध्ययन का दक्षिणपंथी विरोध समझ में आने लायक है । साठ के दशक में जब इसकी नींव रखी जा रही थी तबसे ही इस पर हमले होते आये हैं । और भी पीछे मुड़कर देखें तो 1829 के बाद से गुलाम अश्वेतों को पढ़ने लिखने से रोकने वाले प्रांतीय कानून बने । कारण यह था कि डेविड वाकर की एक किताब गुलामी पर हमला करते और उसे बनाये रखने के अमेरिकी पाखंड का भंडाफोड़ करते हुए छपी थी । जिसके पास भी वह किताब पायी जाती उसे गिरफ़्तार करके सजा दी जाती थी । अब अश्वेत अध्ययन का वह बुनियादी पाठ है । नस्लभेद के दिनों में अश्वेत शिक्षकों की नौकरी चली जाती थी अगर वे अश्वेत इतिहास की बात करते थे । इसके विरोध में स्वतंत्रता के स्कूल खोले गये और उनमें अश्वेत इतिहास से संबंधित किताबों का दान लेकर स्वतंत्रता पुस्तकालय चलाये गये । इन पुस्तकालयों को अक्सर गोरे आतंकवादी आग के हवाले कर देते थे ।

लेखक का सवाल है आखिर अश्वेत अध्ययन से डरता कौन है । उत्तर में बताते हैं कि गोरों की श्रेष्ठता में यकीन करने वाले, फ़ासीवादी और शासक वर्ग, यथास्थितिवादी और कुछ उदारपंथी भी इससे डरते हैं । मतलब यह नहीं कि अश्वेत अध्ययन में सब कुछ विद्रोही और समाज व्यवस्था को चुनौती देने वाला ही है । अन्य सभी अनुशासनों की तरह इसमें भी तीखे विभाजन और मतांतर मौजूद हैं । लेकिन अन्य अनुशासनों के विपरीत अश्वेत अध्ययन का विकास मुक्ति के लिए संघर्ष और बदलाव के लिए दुनिया को समझने की आंच से हुआ है । अध्ययन इस बात का किया जाता है कि किन संरचनाओं के कारण अश्वेतों की अकाल मौतें होती हैं,  किन विचारधाराओं के चलते अश्वेतों को मनुष्य से कमतर समझा जाता है । इसमें आधुनिकता के उदय में उपनिवेशवाद और गुलामी की भूमिका की भी छानबीन की जाती है । इन अध्ययनों से राजनीति और नैतिकता के सामने बुनियादी सवाल उठ खड़े होते हैं । इसमें विचारों, कलाओं और सामाजिक आंदोलनों के सहारे मानवता हेतु सुरक्षित भविष्य की कल्पना का दीर्घकालीन संघर्ष हमेशा मौजूद रहता है । इस तरह राष्ट्रीय सीमाओं के आरपार यह बौद्धिक के साथ ही राजनीतिक प्रकल्प के बतौर पैदा हुआ । सेड्रिक जे राबिन्सन ने अश्वेत अध्ययन को पाश्चात्य सभ्यता की आलोचना के रूप में परिभाषित किया है ।

इस आलोचना का प्रमुख रूप इतिहास की व्याख्या है । इतिहास के शिक्षण में जो संघर्ष होते रहे हैं वे कभी महज बौद्धिक विवाद नहीं रहे । गुलामी और नस्लभेद जैसी चीजें तो लम्बे समय से स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा रही हैं । पीढ़ी दर पीढ़ी विद्यार्थियों ने सीखा कि गोरे लोग निर्जन में बसते रहे और खून के प्यासे मूलवासियों से उन्होंने जायज तरीके से जमीन ली क्योंकि ये मूलवासी जमीन का उपयोग जानते ही नहीं थे । इन्हीं गोरों ने उत्तरी अमेरिका और शेष दुनिया में सभ्यता और लोकतंत्र की नयी रोशनी फैलायी । बीसवीं सदी के अधिकतर हिस्से में बताया जाता रहा कि गुलामी में ये अश्वेत संतुष्ट रहे । बाद में वे रिपब्लिकन पार्टी के बहकावे में आ गये । तमाम इतिहास के ग्रंथ यही झूठ दोहराते रहे थे । कू क्लक्स क्लान को पुनर्निर्माण की बुराइयों से अमेरिका को बचा लेने वाला भी कहा जाता रहा था । अश्वेत विद्वानों ने लगातार इस कहानी का प्रतिवाद किया । इसका सबसे बड़ा सबूत ड्यु बोइस का लेखन है जिसमें उन्होंने वस्तुनिष्ठता की आड़ में जारी वैचारिक युद्ध का पर्दाफ़ाश किया ।   

ड्यु बोइस इतिहास लेखन के क्षेत्र में नाम कमाने के मकसद से यह सब नहीं कर रहे थे । वे यूरोप और अमेरिका में फ़ासीवाद की जड़ को समझना चाहते थे । उन्होंने इतिहास की व्याख्या पर खूनी लड़ाई सड़कों पर, दफ़्तरों में, अदालतों में और अखबारों में दशकों तक होते देखा था । 1915 में कू क्लक्स क्लान का दूसरा उभार ही पुनर्निर्माण के इतिहास को मिटा देने के राष्ट्रीय अभियान से प्रेरित था । इसी साल अमेरिका के उदय के बारे में ग्रिफ़िथ की एक नस्ली किताब छपी । उसी साल एक अश्वेत इतिहासकार ने नीग्रो जीवन और इतिहास के अध्ययन के लिए एक मंच की स्थापना की । ग्रिफ़िथ ने अपनी किताब में गोरे आतंकियों द्वारा अनपढ़ अश्वेतों को काबू में रखने का बखान किया और दक्षिणी प्रांतों के साथ समूचे देश में लोकतंत्र के लिए अश्वेतों के संघर्ष पर पानी फेर दिया । समाज में सम्मानित गोरों की संस्थाओं ने गुलामी प्रथा के रक्षकों के स्मारक पूरे इलाके में बनाने का अभियान चलाया । ध्यान देने की बात है कि यह अभियान पुनर्निर्माण के तुरंत बाद नहीं बल्कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में शुरू हुआ । इसकी वजह यह थी कि गोरों के आतंकवाद, राजनीतिक हत्या, भीड़हत्या, मताधिकारविहीन करने और केंद्र सरकार की मदद से मजदूर आंदोलन को कुचलने के तीस साल बाद ही गोरों की श्रेष्ठता को स्थापित किया जा सका । ड्यु बोइस ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में जिस प्रचार को चिन्हित किया था वही प्रचार सार्वजनिक स्मारकों के जरिये हो रहा था ।                          

इसके बाद उन्होंने आलोचना नस्ल सिद्धांत के बारे में दक्षिणपंथियों के कुत्सा अभियान की छानबीन की है । उनका कहना है कि दुष्प्रचार से असलियत एकदम अलग है । इस सिद्धांत के तहत चालीस साल से इस सवाल को समझने की कोशिश हो रही है कि क्यों भेदभाव विरोधी कानून ढांचागत नस्लभेद का समाधान तो नहीं ही करते, नस्ली विषमता को और मजबूत बनाते हैं । उनके अनुसार नस्लवाद कोई निजी पूर्वाग्रह नहीं है बल्कि वह कानून व्यवस्था में निहित सामाजिक राजनीतिक निर्मिति है । दक्षिणपंथ ने इसे भयप्रद विचार में बदल डाला है । इस तरह नस्लभेद विरोधी शिक्षण को गोरे विद्यार्थियों को खुद से, अपने देश से और अपनी नस्ल से नफ़रत सिखाने वाले कथित नस्ली षड़यंत्र में बदल दिया गया । इस प्रचार के पुरोधा ने फ़्लायड की हत्या के बाद भड़के विरोध प्रदर्शनों को आलोचना नस्ल सिद्धांत की उपज बता दिया । नस्लभेद विरोधी विद्रोह को खलनायक साबित करने और उसको बदनाम करने के लिए आलोचना नस्ल सिद्धांत की इस तोड़ मरोड़ पर उन्हें कोई पछतावा नहीं हुआ । उन्होंने माना कि इस सिद्धांत से उसकी सही छवि छीनकर उसे समस्त समस्याओं का स्रोत साबित करना उनकी योजना का अंग था । उनकी योजना जल्दी ही राष्ट्रपति ट्रम्प की नीति बन गयी । उन्होंने ट्रम्प के इस बेहूदा आदेश को तैयार करने में मदद की जिसके मुताबिक अमेरिका के क्षितिज पर ऐसी वाम विचारधारा के बादल मंडरा रहे हैं जो देश की बुनियादी संस्थाओं को संक्रमित कर देगी । इस कथित विचारधारा को मार्टिन लूथर किंग के सपने के लिए हानिकारक कहा गया । इस दुष्प्रचार की वजह से देश भर में नस्लभेद विरोधी अध्ययन को रोकने का अभियान चल पड़ा । इसका असर देश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले लगभग आधे विद्यार्थियों पर पड़ा ।

इस प्रचार के निशाने पर सांस्कृतिक बहुलता की समूची उदारपंथी विचारधारा थी । इसके घेरे में अश्वेत अध्ययन, मूलवासी अध्ययन, जेंडर अध्ययन और वे तमाम आधुनिक शैक्षिक अनुशासन लपेट लिये गये जो नस्ल और जेंडर के सवाल को थोड़ा सा आलोचनात्मक निगाह से देखते हैं । इसके असर में जो आदेश निर्गत किये गये उनकी भाषा में भयानक समानता थी क्योंकि उनको तैयार करने के काम में समान दक्षिणपंथी चिंतकों का गिरोह शामिल था । विडम्बना यह थी कि पक्षपाती चिंतकों की शह पर तैयार ये कानून और आदेश शिक्षा को राजनीति से मुक्त रखने और शक्षणिक स्वतंत्रता की रक्षा करने का दम भरते थे! इसे वे विभाजनकारी धारणाओं के अध्यापन को रोकने का पावन कर्तव्य बताते थे । उनका कहना था कि अध्यापन के दौरान किसी भी विद्यार्थी को अपनी नस्ल या सेक्स की वजह से शर्मिंदा नहीं महसूस करवाना चाहिए । यह कहते हुए ध्यान ही नहीं दिया गया कि अब तक अश्वेत समुदाय के विद्यार्थियों को कितना शर्मिंदा करवाया जाता रहा है । कहने की जरूरत नहीं कि कोई भी विद्वान नहीं मानता कि व्यक्ति अपनी नस्ल या जेंडर के कारण नस्लवादी या उत्पीड़नकारी सेक्सवादी होता है । असल में तो नस्लभेद विरोधी शिक्षा में इसके विपरीत बात ही बतायी जाती है । अश्वेत अध्ययन की मान्यता है कि नस्ल स्थिर या जैविकीय होने की जगह सामाजिक निर्मिति होती है । नस्ली वर्गीकरण की आधुनिक कोटियों का जन्म प्रबोधनकालीन इस यूरोपीय मान्यता से हुआ कि नस्ली समूहों में कुछ अंतर्निहित चारित्रिक समानताएं होती हैं । अश्वेत अध्ययन में ऐसे झूठे दावों को खारिज किया जाता है ।

अश्वेत अध्ययन में माना जाता है कि किसी भी व्यक्ति के नस्ल, जेंडर, वर्ग या यौनिकता संबंधी विचार और व्यवहार अंतर्निहित नहीं वैचारिक होते हैं । उनमें गतिशीलता होती है इसलिए बदल भी सकते हैं । जिनको यकीन है कि नस्ल और जेंडर संबंधी ऊंच नीच अंतर्जात विशेषताओं पर आधारित है उनका यह भोला विश्वास ही गोरों की श्रेष्ठता और पितृसत्ता का स्रोत बन जाता है । ऐसी ही विचारधाराओं का उपयोग दूसरे लोगों पर जीत हासिल करने, उन्हें विस्थापित करने, गुलाम बनाने तथा उनसे छुआछुत बरतने के लिए होता रहा है । इसी किस्म की सोच के चलते औरतों और अश्वेतों को मताधिकार से वंचित रखा गया तथा नस्ल और जेंडर के आधार पर पगार में भेदभाव किया गया । जनकल्याणकारी और आवासी नीतियों तथा विवाह और परिवार संबंधी कानूनों के निर्माण में ये मान्यताएं हावी रहती हैं तथा स्त्रियों को उनके शरीर पर अधिकार को मान्यता देने के विरोध में भी काम आती हैं । अश्वेत अध्ययन ने साक्ष्य आधारित शोध से साबित किया है कि नस्ली, वर्गीय और जेंडर आधारित विषमता को बढ़ाने वाली नीतियों को बनाने वालों का बहुधा ऐसा इरादा नहीं होता और किसी भी नस्ल का व्यक्ति नस्लभेद का विरोधी हो सकता है । इसने यह भी बताया कि संपत्ति अक्सर दूसरों के श्रम और जमीन से एकत्र की जाती है । मुट्ठी भर लोगों के हाथ में केंद्रित संपदा का निर्माण मूलवासियों की अधिग्रहित जमीन, गुलामों के अधिग्रहित श्रम तथा कम पगार पर काम करने वाले आप्रवासी, स्त्री और बाल श्रमिक के शोषण पर हुआ है ।    

नस्लभेद के विरोध को गलत साबित करने के लिए तर्क दिया जाता है कि अतीत के अन्यायों के लिए वर्तमान गोरे मनुष्यों को जिम्मेदार मानना सही नहीं है । यह तर्क गुलामों के शोषण की भरपाई की मांग के विरोध में दिया जाता है । भरपाई की मांग करने वालों का कहना है कि गुलामी, जमीन दखल और पगार को हड़पने तथा आवास के मामले में भेदभाव का नतीजा मुट्ठी भर लोगों के पास संपत्ति के संकेंद्रण के बतौर सामने आया है तथा यह समृद्धि पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है । नस्ली पूंजीवाद ने पगार को कम रखा और इसका नुकसान सभी कामगारों को उठाना पड़ा । थैलीशाहों को ही लाभ पहुंचाने के लिए श्रमिक विरोधी कानून बने और यूनियनों का दमन किया गया । इससे दक्षिणी प्रांतों के अश्वेत श्रमिकों के साथ गोरे श्रमिकों को भी नुकसान उठाना पड़ा ।

अश्वेत अध्ययन को शिक्षा जगत से बहिष्कृत करने के लिए शासन को शिक्षा की स्वायत्तता पर ही हमला करना पड़ा । फ़्लोरिडा में तो कालेज के प्रबंधन का समूचा अधिकार गवर्नर ने कब्जा लिया तथा विविधता, समता और समेकन की हल्की गंध वाले भी सभी पाठ्यक्रमों को हटा दिया गया । पाठ्यक्रमों के बदलाव के अतिरिक्त अध्यापकों और कर्मचारियों को इनकी वकालत से रोक दिया गया । उनकी राजनीतिक या सामाजिक सक्रियता पर भी बंदिश लगा दी गयी । अध्यापकों के चयन में विषय विशेषज्ञों के मुकाबले गवर्नर द्वारा नामित प्रशासकों को वरीयता दी गयी । पक्की नौकरी वाले अध्यापकों के भी स्थायित्व की समीक्षा का अधिकार प्रशासकों को दे दिया गया । इसके पीछे उच्च शिक्षा को व्यावसायिक हितों के मुताबिक ढालने की सनक थी । इसके लिए शोध का उद्देश्य कमाई बढ़ाना घोषित किया गया ताकि देश और प्रदेश में पूंजी निवेश आकर्षित किया जा सके ।

इन सारे उपायों के निशाने पर नस्लभेद का विरोध है । ट्रम्प ने देशभक्तिपूर्ण इतिहास को बढ़ावा देने और अमेरिका की महानता का बखान करने के लिए एक आयोग की स्थापना की । आयोग के सदस्यों ने अध्यापकों और विद्वानों पर आरोप लगाया कि वे सही इतिहास नहीं प्रस्तुत करते और नागरिकों में विभाजन, संदेह तथा नफ़रत फैलाने वाले पाठ तैयार करते हैं । उनका कहना था कि शहरों में जारी हिंसा के पीछे की बौद्धिक ताकत ऐसे ही विचारों की लोकप्रियता है । उन्हें लगा कि इनसे देश के गौरव के प्रतीकों और मूर्तियों की क्षति होती है । गुलामी, उपनिवेशवाद और नस्ली हिंसा के प्रतीकों पर हमलों को इस आयोग ने समस्या माना । अमेरिकी इतिहास की ऐसी व्याख्या को खतरनाक और अपाठ्य माना गया जिसमें आधिकारिक से भिन्न कहानी पेश की गयी हो । कुछ लोगों का गम्भीरता से मानना है कि अमेरिका का निर्माण नस्ली गुलामी, कपास के प्लांटेशनों, अटलांटिक के रास्ते उपभोक्ता व्यापार तथा मनुष्यों की खरीद बिक्री, उनको बंधक रखने तथा बीमा पर आधारित औपनिवेशिक अर्थतंत्र से हुआ है । ऐसे लोगों को पढ़ाने पर रोक लगा दी गयी । इस आयोग ने अपनी एकमात्र रपट ट्रम्प की विदाई के कुछ ही समय बाद जारी की । उसमें देशभक्तिपूर्ण इतिहास की वकालत तो थी ही, अश्वेत अध्ययन और तमाम आलोचनात्मक अनुशासनों पर राजनीतिक हमले की प्रचुर सामग्री भी मौजूद थी । उस दस्तावेज में लोकतंत्र का मखौल उड़ाया गया था, गुलामी के इतिहास पर परदा डाल दिया गया था, मूलवासियों के विस्थापन का कोई जिक्र नहीं था और प्रगतिशीलता और अस्मिता की राजनीति को अमेरिकी मूल्यों के विरुद्ध बताया गया था । कहा गया था कि अमेरिका के संस्थापकों ने वर्गीय टकराव तथा बहुमत के आतंक को गणतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था इसलिए देश के लिए लोकतंत्र की कटौती जरूरी है । गुलामी के मुद्दे पर इसमें झूठ बोला गया था कि उसकी समाप्ति का संघर्ष अमेरिका में शुरू हुआ और इसकी प्रेरणा अमेरिका के संस्थापकों ने दी । कहा गया कि वे लोग गुलामी के विरोध में थे लेकिन अमेरिका को एकताबद्ध रखने की व्यावहारिक जरूरत के चलते गुलामी काफी समय तक जारी रही ।

इस रपट में सबसे बड़ा छल मार्टिन लूथर किंग के साथ किया गया । कहा गया कि उनके संघर्ष का मकसद व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समान अवसर और रंगभेद से परहेज था । दावा किया गया कि उनकी हत्या के बाद इन लक्ष्यों को समूह के अधिकार, अल्पसंख्या हेतु वरीयता और अस्मिता की राजनीति के बतौर गलत तरीके से परिभाषित किया गया । यह सब उनके घोषित वक्तव्यों के साथ सीधा छल था । इतिहास की ऐसी तोड़ मरोड़ की सम्भावना मार्टिन लूथर किंग को भी थी । ड्यु बोइस की शताब्दी के मौके पर अपने भाषण में उन्होंने इस बात का जिक्र भी किया था । उनके मुताबिक सामान्य रूप से इतिहास में पुनर्निर्माण के समय को कुशासन और भ्रष्टाचार का दौर माना जाता है लेकिन ड्यु बोइस ने उस समय को दक्षिणी प्रांतों में लोकतंत्र की मौजूदगी का एकमात्र दौर कहा । इतिहास में यह झूठ इसलिए बोला जाता है क्योंकि अन्यथा उन्हें अश्वेतों की शासन क्षमता और गोरों के साथ रचनात्मक संबंध बनाकर बेहतर देश बनाने के यकीन को मान्यता देनी पड़ती । ड्यु बोइस के सावधान पाठक होने के कारण किंग को मालूम था कि इतिहास की किताबों में झूठ क्यों बोला जाता है । बहुनस्ली लोकतंत्र ही दक्षिणी प्रांतों के शासक समुदाय के लिए सबसे बड़ा खतरा था । आज भी यही बात सही है और इसीलिए ट्रम्प तथा उनके सभी सिपहसालार इस समय अश्वेत और जेंडर अध्ययन पर हमला करते वक्त अमेरिकी इतिहास की सकारात्मक छवि की दुहाई देते हैं । अगर यही करना है तो प्रत्येक व्यक्ति को आजादी और सुरक्षा के लिए संचालित आंदोलनों का अध्यापन सबसे बेहतर होगा । अगर देशभक्तिपूर्ण इतिहास में आजादी और लोकतंत्र शामिल हैं तो इनके लिए लड़ने वालों का अध्यापन जरूरी है । लोकतंत्र के अध्येताओं को पता होना चाहिए कि कैसे पहले के गुलामों ने गुलामी वाले प्रांतों की सत्ता को चकनाचूर किया, दक्षिणी प्रांतों को लोकतांत्रिक बनाया और लिंचिंग करने वाले गोरे आतंकी गिरोहों का सामना किया । कि कैसे मताधिकार के लिए लड़ने वालों और संगठित मजदूरों ने लोकतंत्र को विस्तारित किया और काम के हालात में सुधार ले आये ।

वर्तमान नव फ़ासीवादी माहौल में दक्षिणपंथी बहुनस्ली लोकतंत्र में अपने अविश्वास के चलते उसे प्रगतिशीलता कहते हैं और नस्लभेद विरोध को अस्मिता की राजनीति कहकर उसका विरोध करते हैं । उनके कथनानुसार नस्लभेद के विरोध से अमेरिका की महान परम्परा को धक्का पहुंचता है । इसलिए ही नस्लभेद के विरोधियों की किताबों पर प्रतिबंध लगाया जाता है, उन्हें विध्वंसक लेखन में गिना जाता है । इसके मुकाबले नस्लभेद को बढ़ावा देने वाली किताबों को प्रतिबंधित करने का कोई ठोस आंदोलन नहीं मौजूद है । ऐसी किताबों के अनेक लेखक बहुत सम्मानित विचारक रहे हैं । इस समूचे अभियान का मकसद नस्लभेद के विरोधियों को हमलावर और गोरों को उत्पीड़ित साबित करना है । सचमुच के उत्पीड़ित गोरों को बताया जाता है कि जब तक नस्लभेद के विरोधियों का उदय नहीं हुआ था तब तक बहुत बेहतर माहौल था । उन्हें समझाया जाता है कि उनकी आमदनी को अश्वेतों और आप्रवासियों पर उड़ा दिया जा रहा है । उनकी निगाह में गोरे राष्ट्रवादी समूहों को नायक बनाया जाता है, नस्लभेद के विरोधियों को खलनायक साबित किया जाता है, लोकतंत्र को आजादी का दुश्मन दिखाया जाता है और स्त्री तथा अश्वेत को उसकी औकात बतायी जाती है ।

इन हमलों को सांस्कृतिक युद्ध समझना भूल है । यह लड़ाई राजनीतिक है । यह समूचा हमला लोकतंत्र, स्त्री अधिकार, श्रमिक, पर्यावरण, जमीन और पानी की हकदारी, शरणार्थी, कागजविहीन, बेघर, गरीब और अश्वेत समुदाय पर जारी दक्षिणपंथी हमलों का अभिन्न अंग है । फ़ासीवादी समूह अमेरिकी मूल्यों को बचाने का मुद्दा बना रहे हैं और अमेरिका को महान बनाने की रुकावटों को दूर करने की योजना में संलग्न हैं । जो लोग अश्वेत अध्ययन का विरोध करते हैं वे लिंगभेद का समर्थन करते हैं, गर्भपात के भी  कट्टर विरोधी हैं और बंदूकों की खुलेआम बिक्री का समर्थन करते हैं । स्कूलों में बंदूक चलाकर हत्या करने के विरोध में आयोजित प्रदर्शन में भागीदारी के चलते जन प्रतिनिधियों को विधायी संस्थाओं से भी बर्खास्त किया जा रहा है और नस्लभेद के विरोधी कार्यकर्ताओं की हत्या करने वालों को माफ़ी दी जा रही है । लेखक ने फ़ासीवाद के वर्तमान उभार के दौर में संघर्ष की अपनी दीर्घकालीन परम्परा को याद रखने की जरूरत बतायी है । विरोध, विद्रोह, दावेदारी और गहन अध्ययन ही अश्वेत समुदाय को अब तक हासिल अधिकारों को पाने का रास्ता रहा है । जब तक नस्लभेद, लिंगभेद, पितृसत्ता, वर्गीय उत्पीड़न और औपनिवेशिक दमन कायम है तब तक आलोचनात्मक विश्लेषण को अपराध ही कहा जाएगा ।                      

तीसरे संपादक कीनांगा-यामाता टेलर का कहना है कि पिछले पचास सालों से अमेरिका के कालेजों और विश्वविद्यालयों में अश्वेत समुदाय की संस्कृति, राजनीति और इतिहास का अध्ययन किसी न किसी रूप में होता रहा है । अश्वेत विद्यार्थियों के एक राष्ट्रीय विद्रोह के फलस्वरूप शैक्षिक अनुशासन के रूप में इसकी जगह बनी ।अश्वेतों का नागरिक अधिकार आंदोलन विद्यार्थियों की सांगठनिक क्षमता के भरोसे चला और इसका लक्ष्य भोजन की कतार, सिनेमा हाल, तरण ताल और बस अड्डों पर उनके साथ भेदभाव की समाप्ति था । उसके बाद पढ़ाई के लिए पहुंचे विद्यार्थियों ने कक्षा में अपने जीवन और इतिहास की मौजूदगी की मांग की और अश्वेत अध्यापकों की नियुक्ति का सवाल भी उठाया । इसे इतिहासकारों ने शिक्षा परिसरों की अश्वेत क्रांति का नाम दिया । साठ के दशक के अश्वेत मुक्ति आंदोलन से पहले भी अश्वेत शिक्षा संस्थानों में उनके जीवन और संस्कृति का अध्ययन होता था लेकिन अश्वेत मुक्ति आंदोलन महज अश्वेत अध्ययन की स्थापना तक ही सीमित नहीं था । शिक्षा और पाठ्यक्रम के साथ साथ यह मांग राजनीति और संघर्ष का विस्तार भी थी । पुलिस की क्रूरता और बदतर आवासीय व्यवस्था से सड़क पर रोज ही जूझने वाले कार्यकर्ता यही जुझारूपन लेकर शिक्षा संस्थानों में आये थे और उनका मकसद शिक्षा रूपी हासिल संसाधन का इस्तेमाल मजबूत सामुदायिक आंदोलन खड़ा करने के लिए करना था । अश्वेत अध्ययन के सहारे वे केवल नया शक्ति केंद्र खड़ा नहीं करना चाहते थे बल्कि इसके जरिये वे अश्वेत समुदाय को उनकी संस्कृति, राजनीति और इतिहास में शिक्षित करके उनके राजनीतिक संघर्ष को मजबूत बनाना चाहते थे । इसी वजह से ये सभी पाठ्यक्रम शुरुआती दिनों में राजनीतिक, क्रांतिकारी और विद्रोही थे ।   

अश्वेत अध्ययन में इस राजनीतिक भावना और शैक्षिक महत्व के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है । जो भी शिक्षक हैं वे अश्वेतों का इतिहास बताते हुए दमन और शोषण का बयान करते समय जब प्रतिरोध और बदलाव की क्षमता का जिक्र करते हैं तो उनके विद्यार्थियों में गौरव का भाव पैदा होता है तथा और भी जानने की उत्सुकता का जन्म होता है । साठ और सत्तर के दशक में युवाओं को अश्वेत अध्ययन बदलाव का एक जरूरी औजार महसूस होता था । बाद के दशकों में इस क्रांतिकारी उत्साह में कमी आयी और सक्रियता में भी गिरावट देखी गयी । ऐसे माहौल में राजनीतिक हमलों के बावजूद अश्वेत अध्ययन गायब नहीं हुआ । अमेरिका में अश्वेतों के अनुभव की गहरी समझ के लिए इसे उपयोगी माना गया । पहले वाला उत्तेजक माहौल तो नहीं रहा लेकिन नस्लवाद और साम्राज्यवाद की आलोचना तथा प्रवासी सृजन, संस्कृति और प्रतिरोध की तलाश इसमें सम्भव थी । आज भी अश्वेत अध्ययन तमाम शैक्षिक संस्थानों में मौजूद है । ढेर सारे विभाग इसके लिए खुले हैं और उनका नेतृत्व विद्वान अश्वेत शिक्षकों के हाथ में है । बहुत जगहों पर इसकी शुरुआती धार कुंद पड़ गयी है और अश्वेत अध्ययन भी शैक्षिक यथास्थिति का अंग बनता जा रहा है । अश्वेत समुदाय की संस्कृति, राजनीति और इतिहास की पढ़ाई तनिक भी विवादास्पद नहीं रह गयी है । यह हाल फिलहाल तक था ।                                       

ज्यों ही अमेरिका में अश्वेत समुदाय की मौजूदगी के चार सौ सालों के समारोह मनाने की घोषणा हुई अचानक अश्वेत अध्ययन पर हमलों की बाढ़ आ गयी । इसकी शुरुआत बुजुर्ग गोरे इतिहासकारों द्वारा अमेरिका की स्थापना और समृद्धि में अश्वेत गुलामों के योगदान पर आपत्ति से हुई । इसके बाद पुलिसिया क्रूरता और नस्लवाद के विरुद्ध जब सड़कों पर लाखों बहुनस्ली प्रदर्शनकारी उतरे तब ट्रम्प ने आलोचनात्मक नस्ल सिद्धांत के विरोध में जहर उगलना शुरू किया । चुनाव प्रचार के दौरान ही उन्होंने इसके तथा अमेरिकी इतिहास के बारे में झूठ पर आधारित ऐसा अभियान चलाया कि सामाजिक स्तर पर अमेरिका को एकजुट रखने वाले बंधन ढीले पड़ते नजर आये । उन्होंने अश्वेत अध्ययन को एक पूर्वाग्रहयुक्त विचारधारा कहा और इसमें समस्त शिक्षण को प्रतिबंधित करने की मांग की । उन्होंने एकता का एकमात्र रास्ता अमेरिकी पहचान पर बल बताया और देशभक्तिपूर्ण शिक्षा की वकालत की । कुछ ही समय बाद अमेरिकी इतिहास में नस्लभेद पर विचार विमर्श और उसका शिक्षण बदनामी के हवाले हो गया । नस्ली उत्पीड़न और शोषण का जिक्र पाठ्यक्रमों से हटाया जाने लगा । चौवालीस प्रांतों ने किसी न किसी तरह से अश्वेत और स्त्री अध्ययन पर रोक लगाने का प्रयास किया । अठारह प्रांतों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया तथा गुलामी और नस्लभेद के अध्यापन पर रोक लगा दी ।   

लेखक का कहना है कि यह हमला कोई नयी बात नहीं है हालांकि इसके वर्तमान विस्फोट का संदर्भ नया है । 1974 में ही राबर्ट एल एलन ने अश्वेत अध्ययन पर हमले की राजनीति पर विचार किया था । इस लेख के अंश इस किताब में भी शामिल हैं । उस लेख में अश्वेत अध्ययन पर रोक को अश्वेत आंदोलन पर व्यापक हमले का ही अंग समझा गया था । उनका मत था कि अमेरिका की आर्थिक अस्थिरता और बदहाली का बोझ गरीबों पर डाला जा रहा है तथा इसका शिकार अश्वेत अध्ययन हो रहा है । जिन गोरों को संदेह हो रहा है उन्हें समझाने के लिए अश्वेतों की कल्याणकारी योजनाओं का बहाना बनाया जा रहा है । कहा जा रहा है कि इसके बावजूद वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने की वकालत करते रहते हैं । उन अश्वेतों के कारण ही गोरों की राजनीतिक और आर्थिक हालत बुरी बनी हुई है । इसी वैचारिकी से तमाम कल्याणकारी मदों में कटौती हो रही है, शिक्षा और आवास से उन्हें महरूम किया जा रहा है । शिक्षा में नस्ली सोच के मुताबिक अश्वेत समुदाय के लोग उच्च शिक्षा के लायक ही नहीं हैं । एलन ने इस लेख में बताया कि अश्वेत अध्ययन के विरोधियों के अनुसार यह अनुशासन शैक्षिक से अधिक राजनीतिक है । आरोप लगा था कि अश्वेत इतिहास के नाम पर उसमें अश्वेत मनोवृत्ति का महिममंडन होता है । यह भी कहा गया कि अश्वेत अध्ययन भी एक तरह का नस्लभेद ही है । लगभग पचास साल बाद यही तर्क दुहराया जा रहा है जब कहा जाता है कि अश्वेत अध्ययन से गोरे विद्यार्थियों के मन में अपराध बोध पैदा होता है ।

2020 में जब प्रदर्शनकारियों ने सड़कें घेर लीं तो ढांचागत नस्लभेद का सवाल फिर से उठा । फ़्लायड की हत्या और कोरोना से अश्वेतों की बड़े पैमाने पर होने वाली मौतों ने अमेरिकी समाज में इस नासूर की मौजूदगी को साबित कर दिया । इससे भरपाई की पुरानी मांग भी सामने आयी । कोरोना ने पुरानी विषमता को भी दुरुस्त करने की जरूरत को उभार दिया । लगा कि अगर ढांचागत नस्लभेद की बात सही है तो उससे उत्पन्न विषमता के समक्ष भरपाई की अश्वेतों की मांग भी जायज है । इस ऐतिहासिक और व्यवस्थाबद्ध बीमारी के इलाज के लिए सरकारी योजना की मांग भी जायज प्रतीत होने लगी । इन मान्यताओं से दोनों ही पार्टियों के आका सहमत नहीं होंगे जो सामाजिक कल्याण पर सरकारी खर्च को बर्बादी मानते हैं और इसके प्राप्तकर्ताओं को निकम्मा समझते हैं । अमेरिका को बनाने में गुलामों के योगदान की भरपाई को हमेशा ही अकल्पनीय बताया जाता रहा है । डेमोक्रेटिक पार्टी में अश्वेतों के साथ सहानुभूति रखने वाले प्रतिनिधियों की तादाद बढ़ने के बावजूद बाइडेन प्रशासन ने कोरोना के समय की सरकारी राहत को जारी रखने इनकार कर दिया है ।

दक्षिणपंथ ने जिस तरह शिक्षा में अश्वेत अध्ययन पर हमला किया है उससे गोरों के रूपांतरण की सम्भावना से उनका भय जाहिर होता है । नौजवान मतदाताओं के उनसे दूर होने से उनके संदेह को पुख्ता आधार मिलता है । उदारवादी नजरिये को वे इसका जिम्मेदार मानते हैं । इसीलिए प्रतिक्रियावादियों ने अश्वेत इतिहास को प्रतिबंधित करके ही चैन नहीं लिया, वे इसकी जगह अमेरिकी इतिहास की अपनी व्याख्या भी आरोपित करना चाहते हैं । इसके लिए ट्रम्प ने एक आयोग का भी गठन किया । वे अमेरिकी जीवन में गुलामी और नस्लभेद की पुनर्व्याख्या करना चाहते हैं । नस्ल की पढ़ाई को वे विभाजनकारी और एकांगी मानते हैं जिससे उनके अनुसार अमेरिका की महानता पर आंच आती है ।

अश्वेत अध्ययन पर उनका यह हमला प्रत्येक नागरिक के समान अधिकार के नाम पर किया जा रहा है । अश्वेत अध्ययन को शिक्षा से अधिक राजनीति बताने के पीछे उनका मकसद अश्वेतों के राजनीतिक अधिकारों को भी कुचलना है । शिक्षा के साथ राजनीति जुड़ी होती ही है । सवाल तो यह है कि कौन सी राजनीति चलाने के पक्ष में ये बातें की जा रही हैं । अश्वेत अध्ययन को हटाना भी राजनीति ही है । अश्वेत अध्ययन को अराजनीतिक बनाने की कोशिश का जवाब उसे लोकतांत्रिक राजनीति के साथ जोड़ने में ही निहित है । 2020 के प्रदर्शनों में सड़कें उन इलाकों में भी जाम हुईं जहां अश्वेत आबादी नगण्य है । वजह कि इसके साथ गोरे युवा भी खड़े हो गये थे । उनका भविष्य भी पर्यावरणिक तबाही, सरकारी कर्ज, कम वेतन और उबाऊ श्रम के कारण अनिश्चित हुआ जा रहा है । गोरे कामगारों की जीवन प्रत्याशा में गिरावट आ रही है । इन्हीं कारणों से वे समाजवादी राजनीति की ओर खिंच रहे हैं । हमारे जीवन में नस्लभेद और विषमता की मौजूदगी को समझने के क्रम में उनकी सहानुभूति अश्वेत समुदाय के प्रति जाग रही है । इन्हीं युवाओं को रिझाने के लिए दक्षिणपंथी लोग गोरों की श्रेष्ठता का झूठा राग अलाप रहे हैं और उन्हें पीड़ित बता रहे हैं ।

इसके विपरीत अश्वेत अध्ययन ने अमेरिकी समाज में नस्लभेद की मौजूदगी की सही समझ को पेश किया है । इससे मुक्ति के लिए विरोध, विद्रोह और प्रतिरोध का इतिहास भी उसने प्रस्तुत किया है । अश्वेत अध्ययन से हमारे जीवन को समझने की नयी निगाह मिलती है और मौजूदा समाज व्यवस्था को सही साबित करने वाले तर्कों की जांच परख की राह खुलती है । सही बात है कि इससे यथास्थिति की ताकतों को चुनौती मिलती है । अश्वेत अध्ययन की बुनियाद अश्वेतों के जीवनानुभव में है इसलिए इससे अमेरिकी साम्राज्यवाद को सही ठहराने वाले झूठ को भारी चोट पहुंचती है । इससे अमेरिकी की विशिष्टता के भ्रम को बनाये रखने में भी परेशानी पैदा होती है । सबसे बड़ी बात कि इससे अमेरिकी लोगों में दुनिया भर के उत्पीड़ितों के साथ खड़ा होने की क्षमता आती है । गोरे कामगारों की दुरवस्था का कारण जिस तरह अश्वेतों को साबित किया जा रहा था उस तर्क को अश्वेत अध्ययन से मारक हानि होती है । अश्वेत अध्ययन से प्रतिरोध और संघर्ष की उस परम्परा को बल मिलता है जिसके भरोसे नया सामाजिक आंदोलन कल्पित किया जा सकता है जिसका लक्ष्य कामगारों की जान लेने वाली व्यवस्था का खात्मा होगा । इसी मकसद से इस संग्रह को तैयार किया गया है ।                                                                                                                            

 

Tuesday, August 15, 2023

अधिग्रहण और प्रतिरोध की दास्तान

 

   

                                                                             

2023 में मंथली रिव्यू प्रेस से इयान आंगुस की किताब ‘द वार अगेंस्ट द कामन्स: डिसपजेशन ऐंड रेजिस्टेन्स इन द मेकिंग आफ़ कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । पिछले पांच सौ सालों से लोगों की जमीन और मेहनत की जो लूट जारी है उससे जूझने की गरीबों की रणनीतियों का इतिहास इस किताब में वर्णित है । पूंजीवाद का विकास लोगों को उनकी आजीविका के लिए जरूरी जमीन से बेदखल करने का इतिहास रहा है । इस बेदखली के जरिये पूरी तरह संपत्तिहीन बनाया गया मेहनतकश समुदाय अपनी आजीविका के लिए जमीन और पूंजी के मालिकान के पास काम करने को मजबूर हो गया था । सबसे पहले लेखक ने स्पष्ट किया है कि मानव अस्तित्व के लगभग समूचे कालखंड में हम सभी आत्मनिर्भर रहे हैं । इस दीर्घकाल में पड़ोसियों के साथ मिल जुलकर हम रहते थे, खेत में एक साथ काम करते थे, भोजन भी एकत्र और तैयार करते थे तथा घर, औजार और कपड़े भी खुद ही बनाते थे ।

उनके अनुसार इतिहास में अधिकांश समय ऐसा गुजरा है जब छोटे छोटे समुदायों में रहते हुए मनुष्य जाति साझी जमीन पर अन्न उपजाती थी और स्थानीय स्तर पर उसका उपभोग करती थी । इसके उलट फिलहाल हम सभी लोग दूसरों के लिए काम करते हैं । हमारा जीवन ही हमारी पगार और रोजगार पर निर्भर हो गया है । समूची उत्पादक संपदा के मालिक मुट्ठी भर कुछ व्यक्ति या कारपोरेशन हो गये हैं और उनको अपनी कार्यक्षमता की बिक्री किये बिना हमें रोटी भी नहीं मिलती । यही पूंजीवादी व्यवस्था है और हम इसके इस कदर अभ्यस्त हो गये हैं कि अब यह स्वाभाविक सा लगने लगा है । हालात ये हैं कि अन्याय और विषमता के अत्यंत कटु आलोचक भी मालिकों और नौकर, नियोक्ता और कर्मचारी के विभाजन के बारे में शायद ही कभी सवाल उठाते हैं । इस मामले में अक्सर हम भूल जाते हैं कि पूंजीवाद की उम्र कुछ सौ सालों की है जबकि मनुष्य का इतिहास तीन लाख साल का है । और कुछ नहीं तो मेसोपोटामिया की सभ्यता भी कम से कम छह हजार साल पुरानी है ।

यह तो सही है कि पहले के समाजों में भी पगार पर कुछ लोग काम करते रहे हैं लेकिन पगारजीवी श्रमिक की ऐसी सार्वभौमिक मौजूदगी विगत कुछेक सौ सालों का ही कारनामा है । इस भारी बदलाव को मानव समाज पर अतिशय बर्बरता और निर्दयता के साथ थोपा गया है । मानव स्वभाव के साथ इसका कोई लेना देना नहीं है । इस नयी व्यवस्था की विजय के लिए लोगों की आत्मनिर्भरता को समाप्त करना बहुत जरूरी था । इस खात्मे की शुरुआत 1400 में इंग्लैंड से हुई । इसके लिए जमीन के साझा इस्तेमाल की रवायत को खत्म किया गया और संसाधनों पर अब तक के साझा अधिकार के जरिए गरीबों की भी जीवनरक्षा करने में सक्षम भरण पोषण की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया । भोजन के लिए शिकार या मछली मारने, जंगलात से लकड़ी या वनोपज एकत्र करने, फसल की कटाई के बाद बचा अन्न बीनने और चरागाहों में ढेरों गायें चराने के अधिकार छीन लिये गये और धरती की समस्त संपदा के इस्तेमाल का अधिकार चंद मालिकान तक सीमित रह गया ।

इस तरह जोर जबर्दस्ती और छल कपट से साझी संपदा का निजीकरण किया गया । साझे की जमीन को छोटे छोटे निजी टुकड़ों में बांटकर उसको चारदीवारी से घेर दिया गया और आम लोग अपना जीवन चलाने के लिए इन मालिकान के पास काम करने  के लिए मजबूर कर दिये गये । अधिकांश लोगों को उनकी आजीविका के साधनों से जबरन अलगा दिया गया  तथा श्रम के बाजार में पूरी तरह अधिकारविहीन अवस्था में सर्वहारा के बतौर अरक्षित और खुला छोड़ दिया गया । कृषि उत्पादक जनता की जमीन से बेदखली इस समूची प्रक्रिया का आधार बनी ।

इस तरह नयी सामाजिक व्यवस्था का स्थायी लक्षण हुआ सदियों से लोगों की आजीविका का साधन रही जमीन से उनका अलगाव और जिंदा रहने के लिए अपनी मेहनत को दूसरों के हाथ बेचना । पूंजी पर आधारित संबंध को सर्वव्यापी होने के लिए श्रम और स्वामित्व के बीच सम्पूर्ण अलगाव परमावश्यक था । पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में इस अलगाव को बरकरार रखने के साथ और भी बड़े पैमाने पर पुनरुत्पादित किया जाता है । इसी प्रक्रिया को कार्ल मार्क्स ने अपने ग्रंथपूंजीके पहले अध्याय में आदिम पूंजी संचय कहा है । दुनिया के अलग अलग देशों में इस प्रक्रिया को अलग अलग रूपों में संचालित किया गया ।

बेदखली की यह प्रक्रिया तो आज भी जारी है लेकिन लेखक ने इस किताब में खेती से कामगार की बेदखली की मूल प्रक्रिया को ही देखा है । उनका मत है कि कार्ल मार्क्स से पहले इस बात पर किसी ने इतनी गहराई से न तो शोध किया था और न ही इस तरीके से इसकी व्याख्या की थी । पूंजीवाद के उदय में जिसकी भी दिलचस्पी हो उसके लिए मार्क्स का यह विवरण देखना अनिवार्य है । उनके लेखन के बाद से बहुतेरी नयी सूचनाएं भी हासिल हुई हैं । इन नयी सूचनाओं की रोशनी में लेखक ने उस प्रक्रिया को फिर से देखा है । इसमें उनका जोर बेदखली से अधिक उसके प्रतिरोध पर रहा है जिसमें कामगारों ने बेदखली से संघर्ष भी किया और अपनी जिंदगी को दूसरों के पास सौंपने की जगह उस पर काबू भी पाया ।

बेदखली की यह प्रक्रिया कभी एकतरफ़ा नहीं रही । इसमें शुरू से ही तीक्ष्ण वर्ग संघर्ष के तत्व मौजूद रहे थे । 1400 से 1850 तक की अवधि का ही वर्णन इस किताब में किया गया है । इसके पहले भाग में 1400 से 1660 तक बेदखली और प्रतिरोध की घटनाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है । इसमें पूंजीवाद के आकार लेने के साथ जुड़ी घेरेबंदी और बेदखली की पहली लहर से लेकर इंग्लैंड की क्रांति तक का विवेचन किया गया है । शुरू में साझा संपत्ति की व्यवस्थित चोरी और उसके प्रतिरोध के वर्णन के साथ ही भूमिहीन मजदूर वर्ग के उदय और सरकार की ओर से श्रम अनुशासन लादने की प्रक्रिया को भी इसमें उजागर किया गया है । इस दौरान वैकल्पिक समाज बनाने के एक सपने का जिक्र भी इस भाग में हुआ है ।

दूसरे भाग में 1660 से 1860 तक जारी घेरेबंदी और अधिग्रहण की दूसरी लहर का विश्लेषण हुआ है जिसमें अफ़्रीका के गुलामों की मुफ़्त की मेहनत और भारत की औपनिवेशिक लूट ने निर्णायक भूमिका निभायी । दूसरी ओर जमींदारों और व्यापारियों ने राजसत्ता पर कब्जा जमाकर शेष बचे लोगों को भी उनकी संपत्ति से जबरन बेदखल किया । गरीबों को भोजनार्थ अन्न उपजाने या शिकार करने पर पाबंदी थी । पहली लहर में जो प्रक्रिया इंग्लैंड में पूरी की गयी थी उसे इंग्लैंड के बाद स्काटलैंड में भी पूरा कर लिया गया ।

किताब के तीसरे भाग में सदियों से जारी इस बेदखली के नताइज की चर्चा है । अध्याय 10 में इस दावे की छानबीन की गयी है कि घेरेबंदी की प्रक्रिया से उत्पादन बढ़ा, भुखमरी कम हुई और औद्योगिक क्रांति को मदद मिली । 11वें अध्याय में दिखाया गया है कि मालिकों ने जान बूझकर भुखमरी पैदा की ताकि खेतिहर मजदूरों की अबाध आपूर्ति जारी रहे । 12वें अध्याय में मार्क्स और एंगेल्स के क्रांतिकारी कार्यक्रम में देहात और शहर के बीच भेद की समाप्ति की प्रमुखता को रेखांकित गया है । अध्याय 13 में वर्तमान समय में बेदखली और प्रतिरोध की निरंतरता का वर्णन है ।

किताब के परिशिष्टों में सबसे पहले मार्क्स की आदिम पूंजी संचय की धारणा को स्पष्ट किया गया है । उसके बाद रूसी किसान कम्यूनों की क्रांतिकारी सम्भावना के बारे में मार्क्स-एंगेल्स की राय का उल्लेख और विश्लेषण हुआ है । फिर इस समय जारी बेदखली और घेरेबंदी का विरोध करने वाले किसान संगठनों का घोषणापत्र प्रस्तुत किया गया है । इसके बाद किताब में वर्णित घटनाओं की कालानुक्रमणिका प्रस्तुत की गयी है ।

लेखक के मुताबिक किताब में वर्णित यह कहानी पूंजीवाद के उदय के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है । कामगार लोगों को उनकी आजीविका के सारे साधनों, खासकर जमीन से डकैती, हिंसा और छल के हथियारों से निर्मतापूर्वक बेदखल किया गया । गरीबों को खेतों, खदानों और कारखानों में काम करने के लिए मजबूर करने हेतु भुखमरी के अमानवीय अस्त्र का इस्तेमाल किया गया । गरीब लोग इस धोखाधड़ी और जबर्दस्ती को सिर झुकाकर बर्दाश्त करने के मुकाबले उससे सभी सम्भव हथियारों को लेकर लड़े । इस तरह जबरन बेदखली और संघर्ष की यह समूची कहानी मार्क्स के शब्दों में खून और आग की इबारत से लिखी हुई है ।                                    

 

Saturday, August 5, 2023

चीन और अफीम के बारे में अमिताभ घोष

 

2023 में 4थ एस्टेट से अमिताभ घोष की किताब ‘स्मोक ऐंड ऐशेज: ए राइटर’स जर्नी थ्रू ओपियम’स हिडेन हिस्ट्रीज’ का प्रकाशन हुआ । सबसे पहले उन्होंने अपने जीवन में चीन की मौजूदगी का जिक्र किया है । उनका जन्म कलकत्ता में हुआ था जहां चीनी लोगों की ठीक ठाक आबादी है । इसके बावजूद चीन के इतिहास, भूगोल या संस्कृति में उनकी रुचि न पैदा हो सकी । दिल्ली के मुकाबले चीन की दूरी कम होने के बावजूद कभी यात्रा भी नहीं की । अफीम सागर के लेखन की तैयारी के दौरान चीन जाने की जरूरत महसूस हुई लेकिन जाना नहीं हो सका । जिस जमाने की कहानी उसमें थी उस समय समुद्र के रास्ते भारत से पश्चिम के मुकाबले चीन के कैंटन को आवागमन अधिक होता था । जिज्ञासा पैदा हुई कि नाविकों को उस शहर से इतनी दोस्ती कैसे हुई ।

चीन की इस निकट मौजूदगी के बावजूद उत्सुकता या जानकारी न होने की वजह न केवल भारतीय बल्कि अमेरिकी और यूरोपीय चेतना में भी चीन की ऐसी छवि है जो विश्व इतिहास से उसे गायब कर देती है । जैसे जैसे चीन का उभार हो रहा है वैसे वैसे भारत और अमेरिका में चीन की यह रूढ़ छवि पुख्ता होती जा रही है । इस मुद्दे के बारे में सोचने पर पता चलता है कि हम दुनिया को किस तरह देखते और समझते हैं । भारत के लोग तो चीन के बारे में सोचते हुए 1962 की पराजय से मुक्त ही नहीं हो पाते हैं । उस समय लेखक की उम्र महज छह साल थी । इसके बावजूद उन्हें याद है कि माता ने सोने के कंगन युद्ध में मदद के लिए दान किये थे । पिता ने मोर्चे पर भेजने के लिए कम्बल एकत्र किया था । सभी लोग इस हार के कारणों के बारे में उत्तेजना के साथ बहस किया करते थे । उस सवाल पर आज भी कोई सर्वसम्मति नहीं बन सकी है । अधिकांश लोग नेहरू की अदूरदर्शिता को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं । हो सकता है उस दुर्भाग्यपूर्ण युद्ध के बारे में पूरा सच कभी पता न चले । जो भी हो तय है कि उस युद्ध में दिमागी हिमालय की बड़ी भारी भूमिका रही ।

जिन सवालों को लेकर वह युद्ध हुआ वे अब भी हल नहीं हो सके हैं । भारत चीन सीमा पर लगातार झड़पें होती रहती हैं । हल होने के कोई आसार भी नहीं हैं क्योंकि चीन आक्रामक होता जा रहा है और भारत भी अपनी जगह से हिलना नहीं चाहता । इन सारी झड़पों ने चीन के प्रति भारत के रुख में भय, विक्षोभ और शत्रुता को भर दिया है । चीन के विरुद्ध जैसी शत्रुता अमेरिका में उपजी है वैसी ही शत्रुता भारत में बहुत समय से व्याप्त है । शत्रुता तो पाकिस्तान के साथ भी है लेकिन उसकी वजह से पाकिस्तान में हमारी रुचि कम नहीं होती । भारत और पाकिस्तान को एक दूसरे की राजनीति, संस्कृति, इतिहास, खेल और अन्य चीजों में बहुत अधिक रुचि रहती है । ऐसा होता भी है । अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला होने के बाद अरबी जानने की उत्सुकता बढ़ गयी । जिन देशों (इराक और अफ़गानिस्तान) से उसका युद्ध हुआ उनके बारे में तमाम साहित्य और सिनेमा पैदा हुआ । 1962 के बाद भारत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । उत्सुकता की जगह झेंप, शंका और भय का वातावरण बना रहा ।

भारत में रहने वाले चीनी लोगों का इतिहास अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध से शुरू होता है जब कलकत्ता के निकट उनकी बस्ती बनी । उन्होंने स्कूल खोले, मंदिर बनवाये और अखबारों से जुड़े । उनमें से बहुतेरे तो कभी चीन गये भी नहीं और कम्युनिस्ट विरोधी रहे । इसके बावजूद 1962 के युद्ध के बाद वे सरकार की निगाह में संदिग्ध हो गये । हजारों चीनियों को भारत छोड़ना पड़ा और बहुतेरे शरणार्थी हुए । हजारों को सालों साल बिना मुकदमा चलाये कैद में रहना पड़ा । जब उनकी रिहाई हुई तो पता चला कि उनके घर और व्यवसाय जब्त हो चुके हैं । सालों साल प्रति माह उन्हें थाने में हाजिरी लगानी पड़ती । संदेह इतना गहरा था कि चीन के अनेक भारतीय अध्येता भी परेशान किये गये । कलकत्ते के चीनी लोगों की तादाद आधी रह गयी । उन्हें पुरानी रिहाइश छोड़कर नयी जगह बसना पड़ा । नुकसान चीनी समुदाय को ही नहीं हुआ, कलकत्ते को भी हुआ । चीनी समुदाय अपने व्यावसायिक उद्यम के कारण भी विदेशी धन के आगमन का स्रोत हो सकता था और तब कलकत्ते का जो कायाकल्प होता वह इस पलायन की भेंट चढ़ गया । लेखक को इसका अंदाजा तब हुआ जब वे एक बार मकाऊ में होटल में रुके थे जिसके मालिकान कलकत्ते के रहने वाले थे लेकिन भागकर वहां आ गये थे । वे चीनी भाषा की जगह बांग्ला अधिक सहज ढंग से बोल समझ रहे थे ।

बाद में लेखक जब चीन गये तो लौटकर महसूस हुआ कि रोज के जीवन में चीन कितना मौजूद है । सबसे पहले चाय, उसके पीने के लिए बने चीनी मिट्टी के बरतन और घोलने के लिए चीनी के रूप में चीन तो था ही, मूंगफली के लिए चीनियाबादाम का नाम भी चीन से जुड़ा होना चाहिए । इसी तरह आधुनिक इलेक्ट्रानिक सामानों के रूप में भी चीन हमेशा हमारे साथ रहता है । इसके बावजूद उसकी अनुपस्थिति की वजह वस्तुओं के संप्रेषण को ग्रहण करने में हमारी अक्षमता है । चाय नामक इस पेय की उपस्थिति के जरिये उन्होंने कुछ अन्य पहलुओं को भी उजागर किया है । मनुष्य के मुकाबले पेड़ पौधों के अधिक महत्व के पीछे के विश्वास का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया है कि पेड़ धरती के ऊपर होने के साथ उसके नीचे भी पसरे होते हैं । पादप विज्ञानी इस विश्वास को जानते हैं जिसके अनुसार पेड़ धरती को जकड़कर स्थिर रखते हैं ।

चाय नामक यह पौधा ब्रिटिश राज को सबसे अधिक राजस्व प्रदान करने वाली चीज था । दुनिया के अनेक हिस्सों में होने वाले युद्धों का खर्च चाय पर लगे आयात शुल्क से निकलता था । इसकी भरपूर आपूर्ति इतनी जरूरी समझी गयी कि ईस्ट इंडिया कंपनी को साल भर की आपूर्ति के लिए माल बचाकर रखने का शासनादेश दिया गया । चाय पीने की आदत को फैलाने के लिए जो विज्ञापन किया गया वह उपभोक्ता वस्तुओं को लोकप्रिय बनाने के लिए होने वाले विज्ञापनों की प्रवृत्ति का जनक साबित हुआ । चाय के लिए चीन पर ब्रिटेन की एकांगी निर्भरता शासक समूह के लिए चिंताजनक थी । इसके लिए चीन को सोना जैसी कीमती धातु देनी पड़ती थी । सोने की कमी को दूर करने का रास्ता अमेरिकी महाद्वीप में सोने की खुदाई से खुला । इसका कारण यह था कि पश्चिम की चीजों की खपत चीन में नहीं थी । भारत का सूती वस्त्र भी चीन को चाय के बदले निर्यात किया जाता था ।

चाय के लिए चीन पर निर्भरता को कम करने के लिए भारत और श्री लंका में चाय की खेती शुरू की गयी और चाय के बदले चीन को देने के लिए अफीम का इस्तेमाल शुरू किया गया । यह इस्तेमाल यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों ने ही शुरू किया था । अफीम के  पौधे के चिकित्सकीय गुणों के बारे में लोगों को जानकारी बहुत पहले से थी इसलिए बुखार आने, पेट खराब होने या कभी नशे के लिए भी इसको धूम्रपान या द्रव की तरह ग्रहण किया जाता था । व्यावसायिक इस्तेमाल डच लोगों ने शुरू किया और उनसे अंग्रेजों ने सीखा । फिर तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसके उत्पादन और व्यापार पर एकाधिकार कायम कर लिया । किसानों को इसे उगाने के लिए मजबूर किया गया । अन्य फसलों के उत्पादन लायक जमीन पर इसकी खेती के लिए पट्टा दिया जाता था । इसमें पानी का खर्च बहुत होता है । धीरे धीरे इसकी फसल का रकबा बढ़ाया गया । नतीजे के तौर पर अकाल की बारम्बारता बढ़ी । इसका उत्पादन इतना जरूरी था कि इसके लिए अलग महकमा खोला गया । इस महकमे का आला अफ़सर सबसे अधिक वेतन पाता था । फसल के समय वह इलाके के दौरे पर निकलता था तो उसके साथ समूचा कार्यालय चलता था । इससे बचे समय में उसे कोई काम नहीं होता था । उत्पादन के लिए दो कारखाने खोले गये । इनमें से पटना वाला कारखाना बंद हो चुका है लेकिन गाजीपुर का कारखाना अब भी औषधीय उपयोग के लिए अफीम का उत्पादन करता है ।

इन कारखानों में मशीन का प्रयोग नहीं होता था और सारा काम हाथ से ही किया जाता था । अफीम इतनी कीमती थी कि कामगारों के शरीर पर भी उसके चिपके होने का संदेह किया जाता था इसीलिए कई बार उन्हें कारखाने से बाहर निकलने से पहले नहलाया भी जाता था । जिन किसानों को पौधे उगाने का पट्टा दिया जाता था उनकी भी निगरानी जरूरी थी क्योंकि अंग्रेजों के मुकाबले अन्य सभी यूरोपीय कंपनियां बेहतर दाम देती थीं और अंग्रेजों की निर्धारित कीमत से किसान की लागत भी नहीं निकलती थी । ऐसे में किसान चोरी चोरी अन्य कंपनियों को भी फसल बेच सकते थे । इसे रोकने के लिए भारी गणित किया जाता था । इसका हिसाब रखा जाता था कि किसान को जितने बड़े खेत में फसल उगाने का ठेका दिया गया उतने में उगने लायक फसल की अफीम उसने कारखाने को बेचा है या नहीं । जाहिर है इसमें भ्रष्टाचार बहुत होता था । इस महकमे का प्रत्येक कर्मचारी रिश्वत लेता था ।

पटना और गाजीपुर के इन कारखानों के साथ जुड़ी सबसे महत्व की बात यह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और उससे लगे बिहार में अफीम की खेती बहुत होती थी । इस खेती ने इन इलाकों की अर्थव्यवस्था को जो स्थायी हानि पहुंचायी बहुत कुछ उसके कारण आज भी इन क्षेत्रों को बीमारू माना जाता है । अफीम अन्य क्षेत्रों में भी तैयार की जाती थी लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी का जैसा एकाधिकार इस क्षेत्र की खेती पर था वैसा अन्य जगहों पर नहीं था । पूरा औपनिवेशिक अर्थतंत्र जोर जबर्दस्ती, लूट खसोट और गुलामी पर आधारित था लेकिन उसकी छवि एकदम अलग तरीके की पेश की जाती थी । छवि निर्माण की इस परियोजना का उदाहरण वे तस्वीरें हैं जिन्हें पेशेवर चित्रकारों ने इंग्लैंड के दर्शक समूह के लिए बनाया । इन तस्वीरों में ये कारखाने प्रगति के मानदंड की तरह नजर आते हैं । उन कारखानों में काम करने वाले मजदूरों के हालात या कार्यस्थल की गंदगी छिप जाती है । ये कारखाने किलों की तरह अभेद्य हुआ करते थे । जिस एक तस्वीर का विस्तार से लेखक ने जिक्र किया है उसमें अफीम के ढोके पर ‘चीन के लिए’ लिखा है । इससे अंग्रेजी शासन के मातहत इलाकों की श्रेष्ठता और चीन की हीनता का संदेश जाता है । सच यह था कि अफीम की खपत केवल चीन में नहीं होती थी ।

अफीम का उत्पादन केवल इन्हीं इलाकों में नहीं होता था । मालवा में भी इसका उत्पादन होता था । जिन इलाकों की अफीम पर ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार था उनसे मालवा क्षेत्र की स्थिति अलग थी । वहां किसान अपनी उपज किसी के भी हाथ बेचने के लिए आजाद थे । उसके उत्पादन के लिए भी किलेबंद कारखाने की जगह छोटे छोटे शेड बनाये गये थे । इन दोनों जगहों की फसल के फूल में भी अंतर होता था । गाजीपुर और बिहार के पौधों में सफेद फूल आते थे तो मालवा इलाके के पौधों में तमाम रंगों के फूल खिलते थे । उस इलाके में शासन भी देशी राजाओं का था इसलिए उन्हें कम से कम अफीम के भ्रष्ट अंग्रेजी महकमे से निजात मिली हुई थी । चीन के साथ अफीम का व्यापार ब्रिटिश शासन की धोखाधड़ी का स्पष्ट सबूत है । चीन के शासक इस नशे के खतरनाक नतीजों से परेशान थे इसलिए उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगा रखा था । ऐसे हालात में ईस्ट इंडिया कंपनी इसे सीधे चीन में नहीं बेचती थी बल्कि वह इसे अफीम के तस्करों को बेचती थी जो फिर चीन में इसका अवैध व्यापार करते थे । ढिठाई देखिए कि जब चीनी शासन ने इस अवैध तस्करी के विरोध में कदम उठाया और अवैध अफीम को जब्त करके नष्ट कर दिया तो स्वतंत्र व्यापार के नाम पर उसके विरोध में अफीम युद्ध छेड़ दिया गया ।

अफीम से हमारे देश के शहरों का बहुत गहरा रिश्ता है । अंग्रेजों ने पहले मद्रास को बसाया लेकिन अफीम के व्यापार के कारण ही बम्बई और कलकत्ता उससे बहुत आगे निकल गये । ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार जिस अफीम पर था उसे कलकत्ता के रास्ते बाहर भेजा जाता था । मालवा की अफीम बम्बई के रास्ते बाहर जाती थी । अफीम के इन दोनों इलाकों में जो अंतर है उसकी वजह अफीम संबंधी प्रशासन का अंतर था । जिस इलाके में ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार था वहां की सारी कमाई अंग्रेजों की जेब भरने के काम आती थी जबकि जहां उत्पादन पर प्रतिबंध नहीं था वहां से होने वाली कमाई उसी इलाके में रहती थी । इसने दोनों के निर्यात के केंद्रों में भी अंतर डाल दिया । बम्बई के आर्थिक केंद्र होने में इस अंतर का योगदान है । इसे विडम्बना की तरह लेखक ने नोट किया है कि अर्थतंत्र तो बम्बई के हिस्से आया जबकि अर्थशास्त्री बंगाल में हुए । उन्होंने यह भी चिन्हित किया है कि बंबई के व्यापारी समुदाय में मौजूद भारी सामाजिक विविधता के पीछे भी इस व्यापार पर एकाधिकार न होने का योगदान है । इसी प्रसंग में लेखक ने एक महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया है । उनका कहना है कि आधुनिक इतिहास के बारे में सोचते हुए हम अंग्रेजी राज पर इतना अधिक ध्यान देते हैं कि देशी राजाओं के इलाकों की हलचलों पर बात ही नहीं करते । तथ्य यह है कि अनेक मामलों में ये देशी राजे अंग्रेजों से अधिक आधुनिक थे और अपने इलाकों में सामाजिक सुधार तथा शिक्षा की पहल अंग्रेजों से बहुत पहले की । मालवा इलाके के सभी तरह के व्यापारियों की अफीम के व्यापार में दक्षता का रिश्ता कलकत्ते में मारवाड़ियों की भारी उपस्थिति से भी है । इन व्यापारियों को अफीम की आपूर्ति के स्थानीय सम्पर्क जाल के बारे में अच्छी तरह पता था । राजस्थान में अफीम की उपस्थिति बहुतेरे सामाजिक समारोहों तक पायी जाती है । राजपूत परिवारों के विवाहों में अफीम बंटने की कहानी का पता सबको जसवंत सिंह के पुत्र के विवाह में इसके वितरण से चला था । लेखक ने बताया है कि बंबई बंदरगाह से चीन को अफीम की आपूर्ति से पारसी, मारवाड़ी, आर्मेनियाई और गुजराती लोग जुड़े हुए थे ।   

चीन ने अफीम के व्यापार पर रोक की तरह इन व्यापारियों को रहने के लिए कैंटन में बंदरगाह के नजदीक बहुत थोड़ी सी जगह दी थी और उनके ऊपर बहुत सारे प्रतिबंध लगाये । एक प्रतिबंध यह था कि ये व्यापारी अपने साथ परिवार नहीं ला सकते । इसके पीछे जड़ जमने का अंदेशा रहा होगा । इस प्रतिबंध के चलते लगभग सभी व्यापारियों ने चीन में भी पत्नियां रखीं । उनके परिवारों से इन पत्नियों के अस्तित्व को छिपाकर रखा जाता था । इन पत्नियों से जो बच्चे पैदा हुए वे भी इस व्यापार में शामिल कर लिये गये । इनमें पारसियों की मौजूदगी सबसे प्रभावी थी । उनका अलग कब्रिस्तान भी था जिसका इस्तेमाल 1923 तक होता रहा । हांग कांग में इन पारसियों की मौजूदगी तमाम नामों में नजर आती है । आबादी तो बहुत कम रह गयी है लेकिन विरासत और अवशेष अब भी बने हुए हैं । इनमें से एक ने हांग कांग विश्वविद्यालय की स्थापना में भी योगदान किया था । चीन के अफीम व्यापार से पारसी लोगों ने केवल धन ही नहीं कमाया । वहां रहते हुए उनका सम्पर्क पश्चिमी देशों के व्यापारियों से हुआ जिसके कारण वे नये नये क्षेत्रों में व्यापार और उद्यम का साहस जुटा सके । इस धन से उन्होंने तरह तरह के नवाचार किये । रंगमंच और सिनेमा से उनका जुड़ाव सभी लोग जानते हैं । अभी हाल में कोरोना के टीके के सिलसिले में सबने एक पारसी, अदार पूनावाला का नाम सुना । लम्बे समय तक मराठा शक्ति द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिरोध और बंबई के रास्ते मालवा की अफीम की चीन को आपूर्ति के बीच भी रिश्ता देखने का प्रयास लेखक ने किया है । बंबई के पूरे विकास में ही अफीम के इस व्यापार का योगदान है । न केवल बम्बई बल्कि, सिंगापुर, हांग कांग और शांघाई जैसे शहरों का विकास भी इसी अवैध व्यापार का नतीजा है । शहरों को छोड़िए, एचएसबीसी नामक बैंक भी इसी व्यापार को सुविधा प्रदान करने के क्रम में सामने आया । लेखक का निष्कर्ष है कि वैश्विक पूंजीवाद के साथ जुड़ी प्रत्येक परिघटना इस अवैध व्यापार के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई है जिसे मुक्त व्यापार के नाम पर सरकारी संरक्षण में चलाया गया और जिसके मुनाफ़े का आधार ही नशे की लत थी ।

चीन के साथ अफीम के व्यापार में अंग्रेजों के बाद अमेरिकी घुसे । कुल बीस साल ही वे इसमें रहे लेकिन इसकी छाप अमेरिका में मौजूद है । कम से कम तीस शहरों के नाम में कैंटन लगा हुआ  है । एक पूरा संग्रहालय ही चीन को समर्पित है । इसके विपरीत अंग्रेजों के व्यापार का समय बहुत लम्बा रहा । इस सम्पर्क के असरात इतने गहरे हैं कि नजर ही नहीं आते । चीन के साथ चलने वाले अमेरिकी व्यापार में अफीम के जिक्र से इतना परहेज किया जाता है कि उसको चीनी व्यापार कहा जाता है । सही बात है कि अमेरिकी लोग केवल अफीम का व्यापार चीन से नहीं करते थे लेकिन उनके सभी आपसी आदान प्रदान अफीम की कमाई पर आश्रित थे । अमेरिका ने चीन के साथ लेन देन का आर्थिक इतिहास सुरक्षित रखा है । बहुतेरे लोगों को लगता है कि चीन के साथ अमेरिका का घनिष्ठ रिश्ता हालिया बात है । इस भ्रम का खंडन करते हुए लेखक ने बताया है कि चाय की मार्फ़त बहुत पहले से ही चीन के साथ अमेरिकी रिश्ते कायम हो चुके थे । अमेरिकी लोगों की दिक्कत यह थी कि चाय पर ईस्ट इंडिया कंपनी कब्जा करके बैठी थी । इस कब्जे का विरोध भी अमेरिकी स्वाधीनता संघर्ष का कारण बना । बोस्टन टी पार्टी का नाम ही इसका बड़ा सबूत है । संयोग से अफीम के व्यापार में शामिल अधिकांश अमेरिकी बोस्टन के कुछ खानदानों से थे इसलिए किसी ने उस समूह को बोस्टन के ब्राह्मण समुदाय का नाम दिया ।

अंग्रेजों की तरह ही अमेरिकी लोगों का चीन के साथ व्यापार चाय से शुरू तो हुआ लेकिन उनके सामने भी वही समस्या आयी जो अंग्रेजों के सामने आयी थी । चाय के बदले चुकाने के लिए धीरे धीरे अफीम को आजमाया गया । जब अमेरिकी लोग इस व्यवसाय में घुसे तो उन्होंने अनेक बदलाव किये । सबसे पहले तुर्की होते हुए चीन जाने का नया रास्ता उन्होंने खोजा । अफीम की तस्करी के लिए उसके भंडारण हेतु पानी के जहाजों को तैयार किया । फिर नये किस्म की जहाजों का निर्माण किया जो बहुत ही कारगर निकलीं । इनके सहारे किसी भी मौसम में आया जाया जा सकता था । नतीजे के तौर परअफीम की आवाजाही सालों भर होने लगी । इस व्यापार में गति का महत्व था । जो जितनी जल्दी माल पहुंचाता उसे उतनी बेहतर कीमत मिलने की सम्भावना थी । अब भारत और चीन के बीच एक ही जहाज दो या कभी कभी तीन चक्कर लगाने लगा । बहुतेरी अमेरिकी कंपनियों की एकाधिक जहाजें एक साथ समुद्र में यात्रा पर होतीं । इन्हीं जहाजों पर पहले गुलाम ढोये जाते थे, फिर गिरमिटिया मजदूरों को ढोया जाने लगा था ।

समुद्री जहाजों के भरोसे व्यापार ने अमेरिका को ऐसी जगहों पर विस्तार की प्रेरणा दी जो समुद्र के किनारे थीं । इन नये इलाकों के मूलवासियों को उनकी जमीन से जबरन भगाकर गोरों के कब्जे का विस्तार किया गया । लेखक ने कोलम्बिया और अलास्का को इसके ठोस उदाहरण के बतौर गिनाया है । चीन के साथ इस व्यापार से हासिल धन का निवेश बड़े पैमाने पर ढेर सारी शैक्षिक और शोध संस्थाओं में तो हुआ ही, रेल के निर्माण और विस्तार के पीछे भी चीन से हासिल मुनाफ़े का योगदान बहुत हद तक एक अनजानी कहानी है । एक बात और भी इससे जुड़ी है कि कैंटन नामक अधिकांश नगर समुद्री तट के पास ही बसे हुए हैं ।

लेखक का अनुमान है कि फौजी छावनियों के लिए कैंटूनमेंट नाम का रिश्ता कैंटन की इस बसावट से जुड़ा होना चाहिए । खास तरह के लोगों की बसावट जिससे स्थानीय सम्पर्क सीमित हों ऐसी धारणा कैंटन के विदेशी व्यापारियों की बसावट से आयी होगी । इन विदेशी व्यापारियों की भाषिक भिन्नता ने उनको बहुभाषिक बनाया होगा । तमाम जगहों की बहुभाषिकता के मूल उस बस्ती में होना सम्भव हैं । इसके अतिरिक्त लेखक का मत है कि बागवानी की संस्कृति का भी रिश्ता चीन से जुड़ा हुआ है । यहां तक कि विदेशी व्यापारियों ने चीन से तमाम ऐसे पौधे भी एकत्र किये जिन्हें बाद में अपने घरों या बगीचों में बड़े शौक से उगाया ।  

अफीम के इस व्यापार के खात्मे की जो कहानी सुनायी जाती है उसमें पश्चिमी देशों की नैतिकता सबसे प्रबल नजर आती है । लेखक ने एक अन्य प्रसंग से वैकल्पिक नजरिया प्रदान किया है । उनका कहना है कि अश्वेत मुक्ति के हालिया अभियान से जो तथ्य सामने आये उससे पहले नस्लभेद और रंगभेद के अंत की कहानी में गोरे लोगों की धार्मिक नैतिकता की भूमिका ही दिखायी देती थी । अश्वेत मुक्ति के इस अभियान के कारण बौद्धिक दुनिया में अश्वेत समुदाय के अपने प्रयासों को जगह मिली । उसी तरह लेखक ने अफीम व्यापार के खात्मे के प्रसंग में दादा भाई नौरोजी, पंडिता रमाबाई और रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रयासों को केंद्रीय जगह दी है । पंडिता रमाबाई की तो अमेरिका यात्रा ही अफीम व्यापार विरोधी एक अमेरिकी संस्था के बुलावे पर हुई थी । सही है कि अमेरिकी व्यापारियों के मन में इस व्यापार से होने वाले मुनाफ़े के बारे में दुविधा बनी रही थी लेकिन आर्थिक लाभ के सामने यह संकोच कभी कारगर ही नहीं हो सका था ।