Saturday, August 27, 2022

लेनिन हेगेल और पश्चिमी मार्क्सवाद

 

                                  

                                                                             

2022 में ब्रिल से केविन बी एंडरसन की किताब ‘लेनिन, हेगेल, ऐंड वेस्टर्न मार्क्सिज्म: ए क्रिटिकल स्टडी’ के नये संस्करण का प्रकाशन हुआ । लेखक ने किताब की शुरुआत इस सवाल से की है कि सोवियत संघ के पतन के बाद और मंदी के चलते नये वाम आंदोलनों के उभार के बाद भी आखिर लेनिन के विचारों पर बात करने की जरूरत क्या है । स्लावोज़ ज़िज़ेक ने लेनिन के बारे में वाम बौद्धिकों की दुबिधा का जिक्र किया है । उनके मुताबिक फिलहाल तो लोकतांत्रिक समाजवाद की बातें हो रही हैं जिनके तहत पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार का ही काम होना है । इस किस्म की राजनीति का विकल्प लेनिन के साथ गहरे जुड़ा है । साम्राज्यवाद के खात्मे, पुरानी सरकारी मशीनरी के ध्वंस और सुधार के विरोध में क्रांति का तत्व लेनिन के साथ सबसे अधिक संबद्ध है । इसके अलावे लेनिन को विद्वत्ता तक सीमित करना आज भी सम्भव नहीं है । मार्क्स को तो फिर भी पूंजीवाद की आलोचना के नाम पर बर्दाश्त कर लिया गया लेकिन लेनिन के वर्ग संघर्ष और सत्ता पर कब्जे की बात को पचा पाना मुश्किल रहा है । इन बौद्धिकों के बारे में ज़िज़ेक का मानना है कि वे अमेरिकी पूंजीवाद की दीर्घकालीन स्थिरता पर भरोसा किये बैठे हैं । इसके विपरीत ज़िज़ेक न केवल महामंदी की सम्भावना पर यकीन करते हैं बल्कि इन बौद्धिक क्रांतिकारियों और नवउदारवाद से शोषित और उत्पीड़ित लोगों के विक्षोभ के बीच संवादहीनता का भी उल्लेख करते हैं । ध्यान देने की बात है कि लेनिन के निर्माण में निर्णायक मौका तब आया जब प्रथम विश्वयुद्ध में बड़ी मार्क्सवादी पार्टियों ने अंतर्राष्ट्रवाद से गद्दारी करते हुए युद्ध का विरोध करने की जगह अपनी अपनी सरकारों के साथ खड़े होने का रास्ता चुना । ऐसे में नयी राह तलाशने और उस पर चलने का साहस लेनिन को हेगेल से मिला । लेनिन की वकालत में ज़िज़ेक ने स्तालिन तक को जायज ठहराया है । उनका कहना है कि कुछ हद तक लेनिन के चलते भी क्रांतिकारी धारा में अराजकतावाद को प्रतिष्ठा मिली । उनके कारण रोजा का कद भी ऊपर उठा ।

बहरहाल लेखक का मानना है कि लेनिन को पूरी तरह खारिज करने के ढेर सारे नुकसान भी हैं । उनको इस तरह खारिज करने से क्रांति के बाद हासिल सत्ता को लोकतांत्रिक बनाये रखने की समस्या पर गम्भीर विचार मुश्किल होता गया । लेनिन पर ही सारा दोष मढ़ देने से लगा कि लेनिनेतर क्रांतिकारी प्रवृत्तियों में यह समस्या आ ही नहीं सकती, जबकि यह बात सही नहीं है । इसके कारण ही दूसरे इंटरनेशनल से अराजकतावादियों के निष्कासन की लेनिनीय आलोचना को अनदेखा किया गया । लेनिन की इस आलोचना के कारण भी तीसरे इंटरनेशनल के साथ अराजकतावादी लोग बने रहे । एक अन्य प्रकरण में भी लेनिन के साथ गलत आचरण का जिक्र करते हुए लेखक ने बताया है कि ज्यादातर लोगों ने रोजा द्वारा लेनिन की आलोचना पर तो खूब ध्यान दिया लेकिन उनकी आपसी सहमतियों पर बात नहीं की । इन सब बातों के चलते लेखक को लेनिन के सिद्धांत और व्यवहार की उपेक्षा आत्मघाती प्रतीत होती है । वे यह भी प्रस्तावित करते हैं कि लेनिन को लेनिनवाद से अलगाया जाना चाहिए । वे मार्क्सवादी परम्परा के ऐसे अत्यंत मौलिक चिंतक थे जिन्होंने हेगल और द्वंद्ववाद का नया पाठ प्रस्तुत किया, साम्राज्यवाद और राष्ट्रीय मुक्ति का बेहद रचनात्मक सिद्धांत विकसित किया तथा राज्य और क्रांति की बेहद मूल्यवान धारणा तैयार की । लेनिन के बारे में इस किस्म की समझ के लिए वे लेनिन को उनके समय में  अवस्थित करने का मोह त्यागने की अपील करते हैं । लेनिन के ऐसे तमाम गम्भीर, कालजयी और सार्वभौमिक सिद्धांतों को महज कार्यनीतिक चाल नहीं माना जा सकता । उनके सैद्धांतिक काम को ऐसा समझा जाता है जैसे वे जर्मन मार्क्सवाद को रूसी संदर्भ में लागू करने तक ही सीमित रहे हों लेकिन ऐसा करना भी लेखक को अनुचित लगता है । लेखक को लेनिन के सैद्धांतिक लेखन का इतना गम्भीर महत्व लगता है कि अगर लेनिन ने मार्क्सवादियों के नेतृत्व में घटित अब तक की सबसे महत्वपूर्ण क्रांति को न भी संपन्न किया होता तो भी उनके लेखन के गम्भीर अध्ययन, उस पर बहस और उसकी आलोचना वर्तमान समय की जरूरत प्रतीत होती है । अपने समय के अधिकतर मार्क्सवादियों से लेनिन की यही भिन्नता है कि उन्होंने हेगेल और द्वंद्ववाद को अपने सैद्धांतिक लेखन में अच्छी तरह आत्मसात किया है । ऐसा कहते हुए लेखक ने साम्राज्यवाद और राष्ट्रीय मुक्ति अथवा राज्य और क्रांति संबंधी उनके चिंतन की कहीं से भी अवमानना नहीं की है ।

पचीस साल पहले जब यह किताब पहली बार छपी थी तो लेनिन को हेगेल के साथ जोड़ने में भारी हिचक बरकरार थी । लेनिन संबंधी शुरुआती लेखन में इसका जिक्र भी नहीं होता था, हुआ भी तो लेनिन की दार्शनिक टीपों का महज उल्लेख किया जाता था । आज स्थिति पूरी तरह अलग है । दूसरे इंटरनेशनल के पतन के बाद क्रांतिकारी मार्क्सवाद की प्रतिष्ठा के प्रयास में हेगेल संबंधी उनके अध्ययन के महत्वपूर्ण योगदान को स्वीकार किया जाने लगा है । द्वंद्ववाद के उनके अध्ययन को साम्राज्यवाद और राज्य संबंधी उनके विश्लेषण से भी जोड़कर देखा जाने लगा है । किताब का पहला संस्करण अगर धक्के की तरह था तो वर्तमान संस्करण उसकी मान्यताओं की व्यापक स्वीकार्यता का है । इसका अर्थ है कि आंग्ल भाषी दुनिया में मार्क्सवाद और लेनिन को देखने में यांत्रिक भौतिकवादी नजरिये से परहेज किया जाना शुरू हो गया है । उनको अनुभववाद और प्रत्यक्षवाद तक सीमित करने की आदत में कमी आयी है । इस स्वीकार के बावजूद लेनिन के हेगेल के साथ जुड़ाव को थोड़ा बहुत घुमा फिराकर नकारा भी जा रहा है । इसे लेनिन की समझ में बदलाव की तरह नहीं माना जाता या कहा जाता है कि इसके चलते एंगेल्स या प्लेखानोव के मुकाबले लेनिन की विशेषता को रेखांकित नहीं किया जा सकता । लेनिन की इस विशेषता को बताने के लिए लेखक ने उनके द्वारा 1914 के बाद विकसित द्वंद्ववाद के कुछ मुद्दों का उल्लेख किया है ।

हेगेल की लेनिनीय पढ़ाई से उनकी सोच में आये बदलाव का सबूत इससे पहले के अनुभवसिद्ध आलोचना के दार्शनिक लेखन से उनके विच्छेद में मिलता है । लेनिन ने प्लेखानोव के चिंतन में मौजूद अनगढ़ भौतिकवाद की पहचान अब जाकर अच्छी तरह की । मार्क्स की पूंजी के पहले खंड के आरम्भिक अध्याय को हेगेल के चिंतन की रोशनी में पढ़ने का महत्व अब ठीक से समझ आया । वस्तु की जड़पूजा की धारणा में हेगेल की पद्धति को उन्होंने पहचाना । उनकी इस बात को दूसरे इंटरनेशनल की यांत्रिक समझ के विरोध के रूप में भी देखा जाता है ।

हेगेल के अध्ययन से लेनिन को विचार और यथार्थ का द्वंद्वात्मक संबंध पूरी तरह से स्पष्ट हुआ । उन्होंने माना कि मनुष्य की चेतना प्रदत्त यथार्थ का क्रांतिकारी और सकारात्मक तरीके से अतिक्रमण भी कर सकती है । इसी प्रसंग में उन्होंने कहा कि मनुष्य की चेतना संसार को महज प्रतिबिम्बित नहीं करती, उसका सृजन भी करती है । दुनिया को बदलने और क्रांति के साथ इसका रिश्ता जोड़ते हुए उन्होंने लिखा कि अपने आसपास की दुनिया से मनुष्य संतुष्ट नहीं होता और उसे अपनी गतिविधि के जरिये बदलने का फैसला करता है । उनका यह रुख हेगेल को भी एकदम नयी निगाह से देखने के समान था जिसमें सैद्धांतिक विचार से ऊंची जगह व्यावहारिक विचार को प्राप्त हो जाती है । बाद के बहुतेरे मार्क्सवादियों ने भी सिद्धांत और व्यवहार की एकता के मार्क्सी सूत्र को समझने के लिए इसका उपयोग किया । लेनिन ने पहचाना कि हेगेल भी परम विचार को व्यावहारिक और सैद्धांतिक की एकता के रूप में दिखाते हैं । लेनिन ने हेगेल के भीतर भौतिकवाद के भी तत्व खोज निकाले । यही नहीं, उन्होंने भौतिकवादी नजरिये से हेगेलीय द्वंद्ववाद के व्यवस्थित अध्ययन की अपील भी दुनिया भर के मार्क्सवादियों से की । लेनिन ने साम्राज्यवाद का जो विश्लेषण किया उसमें साम्राज्यवाद के नकार के बतौर राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों का चित्रण था । यह चित्रण भी लेनिन के द्वंद्ववाद से गहरे जुड़ा हुआ है । हेगेलीय द्वंद्ववाद के भौतिकवादी मित्रों का समूह गठित करने का भी उन्होंने सुझाव दिया ।

इस किताब में लेखक ने यांत्रिक भौतिकवाद से लेनिन की दूरी को रेखांकित करने के अतिरिक्त उनकी दुविधा का भी उल्लेख किया था । इस दुविधा का सबसे मजबूत सबूत यह है कि 1914 के बाद भी प्लेखानोव को उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन का महत्वपूर्ण स्रोत कहा और अनुभवसिद्ध आलोचना की अपनी किताब को 1920 में बिना किसी टिप्पणी के दुबारा छपने दिया । हेगेल संबंधी टिप्पणियों में प्लेखानोव को जो उन्होंने भोंड़ा भौतिकवादी कहा वह बहुत हद तक सार्वजनिक नहीं था इसलिए द्वंद्ववाद और हेगेल संबंधी उनकी नयी समझ सामने नहीं आ सकी थी । इसके बावजूद लेखक को लगता था कि मार्क्सवाद में मौजूद अनगढ़ भौतिकवाद से मुक्ति के लिए लेनिन के क्रांतिकारी चिंतन के इस पहलू को जरूर ही उभारा जाना चाहिए ।

1 comment:

  1. बढ़िया ज्ञानप्रद समीक्षा।

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