आम तौर पर
मजदूर की बात करते हुए पुरुष तक ही बात सीमित रह जाती है । इस लिहाज से 2020 में ब्लूम्सबरी पब्लिशिंग से हेलेन मैकार्थी की किताब ‘डबल लाइव्स: ए
हिस्ट्री आफ़ वर्किंग मदरहुड इन माडर्न ब्रिटेन’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका ने पिछले
150 सालों से काम करने वाली माताओं का अध्ययन किया है जिसमें उनकी सामाजिक स्थिति
के विश्लेषण पर खास ध्यान दिया गया है । इसी बात को और भी स्पष्ट करने के लिए 2012 में आटोनोमीडिया से प्रकाशित सिल्विया फ़ेडेरिची की किताब ‘रेवोल्यूशन ऐट प्वाइंट
ज़ीरो’ का महत्व यह है कि इसमें
स्त्रियों के घरेलू काम को वेतन योग्य काम मानने की बात की गई है और इसीलिए लेखिका
के मुताबिक रोजमर्रा के जीवन में क्रांति की संभावना तलाशना इस किताब का मकसद है ।
इस किताब का दूसरा संस्करण पी एम प्रेस से 2020 में छपा है । इस संस्करण के लिए लेखिका ने नयी
भूमिका लिखी है ।
इस समय के मजदूर आंदोलन की ओर ध्यान खींचने के मकसद से 2022 में
प्लूटो प्रेस से राब मैकेन्ज़ी की पैट्रिक डन के साथ लिखी किताब ‘अल गोल्पे: यू एस
लेबर, द सी आई ए, ऐंड द कू ऐट फ़ोर्ड इन मेक्सिको’ का प्रकाशन हुआ । मजदूर आंदोलनों
पर केंद्रित पुस्तक श्रृंखला के तहत इसे छापा गया है । समकालीन पूंजीवाद में मजदूर
आंदोलन लगातार हो रहे हैं । बीसवीं सदी के मजदूर आंदोलनों का जुझारूपन इनमें भी
नजर आ रहा है ।
2021 में हेमार्केट बुक्स से अवीवा
चोम्सकी और स्टीव स्ट्रिफ़लर के संपादन में ‘आर्गेनाइजिंग फ़ार पावर: बिल्डिंग ए
ट्वेन्टी-फ़र्स्ट सेन्चुरी लेबर मूवमेन्ट इन बोस्टन’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की
प्रस्तावना और एरिक लूमिस के उपसंहार के अतिरिक्त किताब के ग्यारह लेख दो हिस्सों
में हैं । पहले हिस्से के लेख बोस्टन में श्रमिक, विषमता और सत्ता का विश्लेषण हैं
। दूसरे हिस्से के लेखों में इस सदी का मुकाबला करने की बोस्टन के मजदूरों और यूनियनों
की कथा बतायी गयी है ।
मजदूर वर्ग की बात ट्रेड यूनियन के बिना अधूरी है । 2020 में वर्सो से लेन मैकक्लुस्की की किताब ‘ह्वाइ यू शुड बी ए ट्रेड यूनियनिस्ट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक खुद भी एक ट्रेड
यूनियन के साथ पचास साल पहले जुड़े थे । तब उनकी उम्र अठारह साल थी । काम पर जाते
ही उन्हें किसी ने ट्रेड यूनियन की सदस्यता का आवेदन पत्र भरवाया था । उनके परिवार
के बुजुर्ग मजदूरी करते थे इसलिए वे ट्रेड यूनियनों की बाबत जानते थे ।
ट्रेड यूनियन आंदोलन की एक बड़ी विशेषता मजदूरों का आपसी सहयोग है । इसे उजागर
करते हुए 2020 में पालग्रेव मैकमिलन से बेंग्त फ़ुराकेर और बेंग्त लारसन की किताब ‘ट्रेड यूनियन कोआपरेशन इन यूरोप: पैटर्न्स, कंडीशन्स, इशूज’ का प्रकाशन हुआ ।
ट्रेड यूनियन आंदोलन की ताकत में गिरावट से मजदूरों की हैसियत में भी
गिरावट आई । 2020 में हेमार्केट बुक्स से टोनी गिलपिन की किताब ‘द लांग डीप ग्रज:
ए स्टोरी आफ़ बिग कैपिटल, रैडिकल लेबर, ऐंड क्लास वार इन द अमेरिकन हार्टलैंड’ का
प्रकाशन हुआ । लेखक ने घर में बहुत नजदीक से ट्रेड यूनियन की गतिविधियों को देखा
है । उनके पिता ने जीवन भर मजदूरों के सवालों पर संघर्ष किया था । 1970 दशक तक
यूनियनों की ताकत को सत्ता के गलियारों तक महसूस किया जाता था । नेताओं को उस समय
ही आगामी समय की मुश्किलों का अनुमान होने लगा था । बीसवीं सदी का अंत आते आते
मजदूर आंदोलन में उतार आना शुरू हो गया । इसके साथ ही मजदूरों के जीवन स्तर में भी
गिरावट आने लगी ।
मजदूर वर्ग के सवाल पिछले सौ सालों से मौजूद रहे हैं और उनके इर्द गिर्द कुछ संस्थानों का भी जन्म हुआ । उनमें से एक संस्थान की सौ साल की कहानी के बतौर 2020 में पालग्रेव मैकमिलन से स्तेफ़ानो बेलुच्ची और होल्गर वेइस के संपादन में ‘द इंटरनेशनलाइजेशन आफ़ द लेबर क्वेश्चन: आइडियोलाजिकल एन्टागोनिज्म, वर्कर्स मूवमेंट्स ऐंड द आइ एल ओ सिन्स 1919’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के बाद मजदूर प्रश्न के वैश्विक आयामों तथा मुद्दों के बारे में कई लेखों में विचार किया गया है । उसके बाद इस सवाल के महाद्वीपीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय इतिहासों का विवेचन करने वाले लेख हैं । इसके बाद अंत में सबका समाहार दर्ज किया गया है । संपादकों ने याद दिलाया है कि यह साल मजदूरों के पहले अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की स्थापना का शताब्दी वर्ष है । पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद की विश्वव्यापी टकराहट से इस दौर के मजदूर संगठनों और संघर्षों का इतिहास भरा हुआ है । सौ साल पहले एकाधिक मजदूर संगठनों का निर्माण हुआ था । किताब में इनके जन्म के कारणों और कार्यस्थिति तथा जीवन स्थिति पर इनके प्रभाव का विश्लेषण करने की कोशिश है । इसी तरह की किताब 2018 में स्प्रिंगेर से मारीज़ियो अतज़ेनी और इमानुएल नेस के संपादन में ‘ग्लोबल पर्सपेक्टिव्स आन वर्कर्स’ ऐंड लेबर आर्गेनाइजेशंस’ का प्रकाशन हुआ । किताब के संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त नौ लेख दो भागों में हैं । पहले भाग के पांच लेखों में शहरों में जीवन के पुनरुत्पादन पर विचार है । दूसरे भाग के शेष चार लेख उद्योगों में मूल्य उत्पादन की प्रक्रिया का विश्लेषण करते हैं । संपादकों का कहना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बड़े पैमाने के उत्पादन, उपभोग और रोजगार के चलते संपदा में बढ़ोत्तरी हुई और इसके आधार पर कई दशकों तक अनेक देशों में कल्याणकारी व्यवस्था कायम रही । इसके चलते सोच विचार की दुनिया में औद्योगिक मजदूर वर्ग की प्रमुखता बनी रही । उस माहौल की जगह अब वित्तीकरण और संसाधनों के दोहन पर आधारित आक्रामक और विषमतामूलक नई व्यवस्था बनी है जिसमें लोकतंत्र का विनाश हो रहा है । मजदूर आंदोलन के अतीत पर विचार करते हुए 2019 में हेमार्केट बुक्स से किम मूडी की किताब ‘ट्रैम्प्स ऐंड ट्रेड-यूनियन ट्रावेलर्स: इंटर्नल माइग्रेशन ऐंड आर्गेनाइज्ड लेबर इन गिल्डेड एज अमेरिका, 1870-1900’ का प्रकाशन हुआ । 1970 दशक के मध्य के बाद से ही नव उदारवाद का आगमन हुआ और यातायात और संचार से जुड़े नवाचार की तीव्र प्रक्रिया ने दुनिया के सामाजिक परिदृश्य को बदल डाला । मजदूर वर्ग के संगठनों के साथ एक धारणा सामूहिक सौदेबाजी की है जिसके तहत उनके संगठन सभी मजदूरों के लिए प्रबंधन के साथ सौदेबाजी करते हैं । लोकतंत्र के साथ इस प्रक्रिया का संबंध निरूपित करते हुए 2020 में हार्परकोलिन्स से जेन मैकअलेवी की किताब ‘ए कलेक्टिव बार्गेन: यूनियंस, आर्गेनाइजिंग, ऐंड द फ़ाइट फ़ार डेमोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका के अनुसार यूनियनों के साथ बहुत सारी अंदरूनी दिक्कतें हैं इसके बावजूद लोकतंत्र के लिए उनकी अपरिहार्यता अमेरिका के लोगों को समझ आ रही है । इनकी ही 2012 में वर्सो से छपी किताब ‘रेजिंग एक्सपेक्टेशंस(ऐंड रेजिंग हेल): माइ डीकेड फ़ाइटिंग फ़ार द लेबर गवर्नमेन्ट’ का प्रकाशन हुआ ।
2019 में यूनिवर्सिटी आफ़ इलिनोइस प्रेस से तोबियास हिग्बी की किताब ‘लेबर’स माइंड: ए हिस्ट्री आफ़ वर्किंग-क्लास
इंटेलेक्चुअल लाइफ़’ का प्रकाशन हुआ ।
लेखक ने शिकागो शहर को इस किताब की प्रेरणा बताया है । इस नगर में उन्हें मजदूर
वर्गीय सार्वजनिक जगहों का परिचय मिला और वे खाड़ी युद्ध के विरोध में होने वाले
प्रदर्शनों में शरीक रहे । सामूहिक सौदेबाजी के लिए चले एक दस साला अभियान से भी
वे जुड़े रहे । इससे उन्हें सामाजिक आंदोलनों और प्रत्यक्ष लोकतंत्र का अनुभव मिला
। इस काम में कुछ अन्य अनुभवी आंदोलनकारियों ने भी लेखक की मदद की । किताब के कुछ
अध्याय पहले पत्रिकाओं में छपे थे । मजदूर आंदोलनों के साथ हमेशा से तमाम कामगारों
की एकजुटता रही है । इस तथ्य को उजागर करते हुए 2019 में वर्सो से एरिक ब्लांक की
किताब ‘रेड स्टेट रिवोल्ट: द टीचर’स स्ट्राइक वेव ऐंड वर्किंग क्लास पोलिटिक्स’ का
प्रकाशन हुआ । लेखक ने बताया है कि 2018 के वसंत के दिनों में लाखों शिक्षकों ने अमेरिका में बेहतर वेतन और स्कूल के
सरकारी अनुदान को बढ़ाने की मांग पर हड़ताल की और विजय हासिल करके इतिहास पर अपनी अमिट
छाप छोड़ी । शिक्षकों का मीडिया, निर्वाचित नेताओं और गवर्नर तक ने मजाक उड़ाया लेकिन उनके संघर्ष के दौरान उन्हें
हाड़तोड़ परिश्रम करने वाले अनजान लोगों से अप्रत्याशित समर्थन मिला । शिक्षकों की हड़ताल
को भी मजदूरों की हड़तालों से प्रेरणा मिली थी । ये हड़तालें रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक
प्रांतों तक में फैल गयीं ।
2018 में पालग्रेव मैकमिलन से बेन क्लार्के और निक
हबल के संपादन में ‘वर्किंग-क्लास राइटिंग: थियरी ऐंड प्रैक्टिस’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त
किताब के दो भागों में तेरह लेख संकलित हैं । पहले भाग में सिद्धांत संबंधी लेख तो
दूसरे भाग में व्यवहार संबंधी लेख हैं । संपादकों ने ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा
मे की ओर से मजदूर वर्ग के साथ संवाद बनाने की कोशिश का उल्लेख किया है । उन्होंने
यह भी कहा कि उनकी सरकार संपत्तिशाली लोगों की जगह साधारण लोगों को वरीयता देगी । अपनी
कंजर्वेटिव पार्टी के सम्मेलन में भी उन्होंने बढ़ती विषमता से परेशान मजदूर वर्ग के
मतदाताओं से साहसिक अपील की और कहा कि सामान्य मजदूर वर्ग के पक्ष में पलड़ा झुकाने
की कोशिश होगी । इस कथनी के विपरीत उनकी सरकार ने मुट्ठी भर लोगों के बरक्स मजदूर वर्ग
का साथ नहीं दिया । उनके भाषणों से केवल यह पता चला कि 2008 की मंदी के बाद मजदूर वर्ग को अनदेखा करना सम्भव
नहीं रह गया ।
2018 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से माइकेल रोजेन के संपादन में
‘वर्कर’स टेल्स: सोशलिस्ट फ़ेयरी टेल्स, फ़ेबल्स, ऐंड एलेगोरीज फ़्राम ग्रेट ब्रिटेन’
का प्रकाशन हुआ ।
2017 में स्टाकहोम यूनिवर्सिटी प्रेस से जान लेनन और माग्नुस नील्सन के संपादन में ‘वर्किंग क्लास लिटरेचर(स): हिस्टारिकल ऐंड इंटरनेशनल पर्सपेक्टिव्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब में संपादकों की भूमिका
और उपसंहार के अतिरिक्त छह लेख संकलित हैं जिनमें क्रमश: रूस, अमेरिका, फ़िनलैंड, स्वीडेन, मेक्सिको और इंग्लैंड के मजदूर वर्ग के साहित्य
पर विचार किया गया है । इसी पहलू को ध्यान में रखते हुए 2015 में सेन्स पब्लिशर्स
से दी मिचेल, जैकलीन ज़ेड विल्सन और वेरिटी आर्चर के संपादन में ‘ब्रेड ऐंड रोजेज:
वायसेज आफ़ आस्ट्रेलियन एकेडमिक्स फ़्राम द वर्किंग क्लास’ का प्रकाशन हुआ ।
2018 में मंथली रिव्यू प्रेस से माइकल डी येट्स की किताब ‘कैन द वर्किंग क्लास चेन्ज द वर्ल्ड?’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने सबसे पहले अपना
जन्म मजदूर वर्ग में होने का दावा किया है । परिवार के सभी लोग मजदूरी करके पेट
पालते थे । लेखक ने बारह साल की उम्र से मजदूरी करना शुरू किया और पत्रिका या
किताब संपादन का काम अब भी करते रहते हैं । इसके साथ ही वे यूनियन में भी सक्रिय
रहे और मजदूरों की राजनीतिक कक्षाओं का भी संयोजन किया । कानूनी विवादों के समाधान
और सामूहिक मोलतोल में भी यूनियनों की सहायता की । अध्यापन में भी श्रम के
अर्थशास्त्र और पूंजी तथा श्रम के बीच संबंध का क्षेत्र चुना । इस क्रम में उन्हें
कामगारों और उनके मालिकान के बीच चौड़ी होती खाई का अनुभव हुआ । उन्हें दिखाई पड़ा
कि यूनियनों में संगठित होकर और गम्भीर राजनीतिक संघर्ष करके मजदूर बेहतर वेतन,
काम के कम घंटे और काम के हालात में सुधार की लड़ाई जीत सकते हैं । इन साधनों से
उन्होंने दुनिया के लगभग प्रत्येक मुल्क में बहुत कुछ हासिल भी किया है । बहरहाल
पूंजीवाद बेहद लचीली व्यवस्था है और उसके कामकाज पर नियंत्रण रखने वाले लोग लगातार
इस कोशिश में मुब्तिला रहते हैं कि मजदूर संगठित न हों तथा यूनियनों और राजनीतिक
संगठनों के जरिए उन्होंने जो भी हासिल किया है उसे वापस छीन लिया जाए । कुछेक
अपवादों को छोड़ दें तो आम तौर पर पूंजी की ताकत ही जीतती रही है । जीतों की वापसी
हुई है और विजयी क्रांतियों को अपने कदम वापस भी खींचने पड़े हैं । लेखक ने इन सभी अनुभवों
के आधार पर नतीजा निकाला है कि बुनियादी और क्रांतिकारी बदलाव तब तक नहीं लाया जा सकता
जब तक मजदूर वर्ग और उसके सहयोगी सभी मोर्चों पर पूंजीवाद और उसके दमन पर सीधे हल्ला
न बोल दें । किताब की यही अंतर्निहित मान्यता है । मालिकों, सरकार, मुख्य धारा की मीडिया, स्कूलों के संचालकों, पुलिस, जेल, नस्लवाद, पितृसत्ता, पर्यावरण का नाश करने वालों, धर्म के ठेकेदारों, फ़ासीवाद, साम्राज्यवाद और तमाम व्यक्तियों तथा संस्थाओं
के विरुद्ध समन्वित संघर्ष जरूरी हो गया है । इस किस्म के चौतरफा हमले से ही पूंजीवाद
को इतिहास के कूड़ेदान में फेंका जा सकता है । ऐसे संघर्ष के आधार पर ही ऐसा नया समाज
बनाया जा सकता है जिसमें जमीनी लोकतंत्र, आर्थिक योजना, टिकाऊ पर्यावरण, संतोषजनक काम और जीवन के सभी पहलुओं में सार्थक
समानता की उम्मीद होगी ।
मजदूर वर्ग के संघर्षों के साथ हड़ताल बहुत
ही जरूरी गतिविधि की तरह जुड़ा हुआ है । चूंकि उसके श्रम से ही मुनाफ़ा तैयार होता
है इसलिए उसे अपने श्रम की ताकत का अहसास होता रहता है । पूंजीपति के साथ पगार के
लिए मोलभाव में भी उसकी इस अनुभूति का पता चलता है । हड़ताल उसकी इस अनुभूति का
विस्तार होती है । इस सिलसिले में 2018 में हेमार्केट बुक्स से फ़ान शिगांग की चीनी
किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘स्ट्राइकिंग टु सर्वाइव: वर्कर’स रेजिस्टेन्स टु फ़ैक्ट्री रीलोकेशंस इन चाइना’ का प्रकाशन हुआ । 2009 में एम ई शार्पे से आरों ब्रेन्नेर, बेंजामिन डे और इमानुएल नेस के संपादन में ‘द एनसाइक्लोपीडिया आफ़ स्ट्राइक्स इन अमेरिकन
हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ । इसी
क्रम में 2014 में पी एम प्रेस से जेरेमी ब्रेचर की किताब ‘स्ट्राइक!’ का संशोधित, परिवर्धित और नवीकृत संस्करण प्रकाशित हुआ ।
मजदूर वर्ग के संघर्षों के साथ मई दिवस की
संबद्धता इतनी गहरी है कि हिटलर ने भी मई दिवस का अवकाश घोषित करने के बाद मजदूर
वर्ग के नेताओं की गिरफ़्तारी की थी । आज भी उस दिन की विरासत को विश्वकर्मा दिवस
आदि जैसे प्रयासों के जरिए विकृत करने की कोशिश होती है । 2018 में रेमंड विलियम्स
के संपादन में और ओवेन जोन्स की प्रस्तावना के साथ ‘मे डे मेनिफ़ेस्टो 1968’ का प्रकाशन हुआ । मूल रूप से यह 1967 में
छपा था । पेंग्विन से प्रकाशन के लिए संशोधित होने के क्रम में मूल का दोगुना हो
गया था । जोन्स ने प्रस्तावना में बताया है कि फ़्रांस में 1968 के मई और जून के
महीने विद्रोह, क्रांति, संघर्ष, धरनों और हड़तालों के महीने थे । चारों ओर हवा में
पुरानी व्यवस्था के नष्ट होने और नई दुनिया बनाने की सम्भावना की उम्मीद लहरा रही
थी । कारखानों पर लाल झंडे फहरा दिए गए, प्रदर्शनकारी इंटरनेशनल गा रहे थे और
फ़्रांस के राष्ट्रपति को टेलीविजन पर आकर प्रदर्शनकारियों को देश और समाज का
दुश्मन घोषित करना पड़ा । लंदन में वियतनाम युद्ध विरोधी प्रदर्शन में शामिल हजारों
लोगों ने अमेरिकी दूतावास पर जोरदार धावा बोल दिया । इटली में विश्वविद्यालयों पर
कब्जा कर लिया गया । थोड़े दिनों बाद ही वहां मजदूरों की हड़तालों की लहर उठी ।
यूरोप व्यापी इसी उथल पुथल के बीच यह घोषणापत्र जारी हुआ था । उसी समय की याद करते
हुए 2018 में प्लूटो प्रेस से मिचेल एबिडोर की किताब ‘मे मेड मी: ऐन ओरल हिस्ट्री आफ़ द 1968 अपराइजिंग
इन फ़्रांस’ का प्रकाशन हुआ ।
नव उदारवाद की आर्थिकी में सेवा क्षेत्र का
घनघोर विकास हुआ । इस क्षेत्र के आगमन को मजदूर वर्ग के अवसान की तरह प्रस्तुत
किया गया । 2018 में प्लूटो प्रेस से जेक अलीमुहमद-विल्सन और इमानुएल नेस के
संपादन में ‘चोक प्वाइंट्स: लाजिस्टिक्स
वर्कर्स डिसरप्टिंग द ग्लोबल सप्लाई चेन’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब में पंद्रह लेख
शामिल हैं जो चार भागों में संयोजित हैं । पहले भाग में आपूर्ति की वैश्विक
प्रणाली में रुकावट डालने में सक्षम मजदूरों की ताकत और एकजुटता का विवेचन है ।
दूसरे भाग में इन श्रमिकों के प्रतिरोधों का जिक्र है । तीसरे भाग में नवउदारवाद
के चलते दुनिया भर के बंदरगाहों के रूपांतरण का विश्लेषण किया गया है । आखिरी चौथे
भाग में आपूर्ति क्षेत्र में संगठन बनाने की नई रणनीतियों का खुलासा किया गया है ।
नव उदारवाद की
आर्थिकी के साथ वैश्वीकरण ने कामगारों की एक नए तरह की फौज का सृजन किया । उसकी
समस्याओं पर 2017 में पालग्रेव मैकमिलन से जूलियट वेबस्टर और कीथ रैंडल के संपादन
में ‘वर्चुअल वर्कर्स ऐंड द ग्लोबल लेबर मार्केट’ का प्रकाशन हुआ । किताब के तीन
भाग हैं । पहला संपादकों की प्रस्तावना है । दूसरे भाग के पांच लेख आभासी दुनिया
के काम, उसकी प्रक्रिया और इसके श्रम बाजार की तैयारी के बारे में हैं । तीसरे भाग
के छह लेखों में आभासी काम की स्थितियों और अनुभवों का विवेचन किया गया है । इसके
तहत नकली नाम अपनाने से लेकर विदेशी उपभोक्ताओं की धमकियों तक का विश्लेषण है ।
कामगारों के इसी नए समूह के बारे में 2017 में पालग्रेव मैकमिलन से एन्डा ब्राफी
की किताब ‘लैंग्वेज ऐट वर्क: द मेकिंग आफ़ द ग्लोबल काल सेंटर वर्कफ़ोर्स’ का
प्रकाशन हुआ । इसी तरह के एक और समूह के बारे में 2017 में पोलिटी से ट्रेबोर
शोल्ज़ की किताब ‘उबेरवर्क्ड ऐंड
अंडरपेड: हाउ वर्कर्स आर डिसरप्टिंग द डिजिटल इकोनामी’ का प्रकाशन हुआ । किताब ऐसे क्षेत्र में
शोषण को उजागर करती है जहां आम तौर पर लोगों की निगाह नहीं जाती ।
इसी तरह के कामगारों
के एक और समुदाय का जायजा लेने के लिए 2017 में पालग्रेव मैकमिलन से अना सोफ़िया एलास, रोजालिन्ड गिल और क्रिस्टीना शार्फ़ के संपादन
में ‘ऐस्थेटिक लेबर: रीथिंकिंग ब्यूटी पोलिटिक्स इन नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों का कहना है कि शरीरों
का निर्माण होता है और वे वर्ग, लिंग, भूगोल, अर्थतंत्र तथा आकांक्षा के हिसाब से ऐतिहासिक
समय में बनाए जाते हैं । परिवार में सबसे पहले शरीर का जन्म होता है तथा निगाह और बरताव
शरीर के बारे में हमारे रुख को तय करते हैं । कोई भी शरीर सर्वथा स्वतंत्र नहीं होता
बल्कि अन्य शरीरों के संदर्भ से उसका निर्माण किया जाता है ।
2017 में द
यूनिवर्सिटी आफ़ नार्थ कैरोलाइना प्रेस से शेरोन मैककोनेल-सिडोरिक की किताब ‘सिल्क
स्टाकिंग्स ऐंड सोशलिज्म: फिलाडेल्फ़िया’ज रैडिकल होजियरी वर्कर्स फ़्राम द जाज़ एज
टु द न्यू डील’ का प्रकाशन हुआ । सबसे पहले 1869 में फिलाडेल्फ़िया में 25 नवम्बर
को सात लोगों के एकत्र होने का जिक्र है जिसका महत्व देश के कामगारों के लिए बहुत
अधिक सिद्ध होने वाला था । उन लोगों ने नाइट्स आफ़ लेबर नामक संगठन की स्थापना की ।
ये सभी कपड़ों की कटाई करने वाले कामगार थे लेकिन संगठन का विस्तार बड़ी तेजी से शहर
भर में तमाम तरह के उद्योगों में हुआ । छह साल के भीतर पचासी स्थानीय शाखाओं का
गठन हो चुका था जिनमें सत्तर अकेले फिलाडेल्फ़िया में थीं । वस्त्र उद्योग से जुड़े
तमाम तरह के कामगार खास तौर पर संगठित हुए । 1886 तक आते आते सभी कामगारों को
संगठित करने के रास्ते पर यह संगठन चल पड़ा । इसमें अश्वेत और स्त्री कामगारों की
तादाद भी काफी थी । किताब में इन्हीं कामगारों के वैचारिक और सक्रिय वंशजों के
दोनों विश्वयुद्धों के बीच की अवधि के क्रियाकलाप की छानबीन की गई है । इसके जरिए
इतिहास में उनके दाय को भी पहचानने का प्रयास होगा । इसके साथ ही कांग्रेस आफ़ इंडस्ट्रियल
आर्गेनाइजेशंस की स्थापना, न्यू डील और ‘कामगार नारीवादी’ आंदोलन की महत्वपूर्ण लेकिन अनसुनी कहानी भी
सुनाई जाएगी ।
2017 में प्लूटो
प्रेस से पीटर कोल, डेविड स्ट्रदर्स और केन्योन ज़िमर के संपादन में ‘वोब्लीज आफ़ द
वर्ल्ड: ए ग्लोबल हिस्ट्री आफ़ द आइ डब्ल्यू डब्ल्यू’ का प्रकाशन हुआ । किताब में
इंडस्ट्रियल वर्कर्स आफ़ द वर्ल्ड (विब्लीज) के वैश्विक इतिहास को पहली बार
प्रस्तुत करने का दावा है । दुनिया भर के बीस लेखकों ने इस संगठन को वैश्विक
परिघटना मानकर उसके बारे में लिखा है । इसकी सदस्य संख्या कभी बहुत अधिक नहीं रही
लेकिन 1905 से लेकर 1920 दशक तक इसका प्रभाव प्रचुर रहा । अराजकतावाद और
संघाधिपत्यवाद का यह वैश्विक उभार रूसी क्रांति से पहले बेहद लोकप्रिय था । 2014 में पी एम प्रेस से इमानुएल नेस की किताब ‘न्यू फ़ार्म्स आफ़ वर्कर आर्गेनाइजेशन: द सिंडिकलिस्ट ऐंड आटोनामिस्ट रेस्टोरेशन आफ़
क्लास-स्ट्रगल यूनियनिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।
वैश्वीकरण के साथ
मजदूरों में प्रवासी कामगारों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई । इसके साथ ही दुनिया के
दक्षिणी गोलार्ध में मजदूरों की नई गोलबंदी भी सामने आई ।2016 में प्लूटो प्रेस से इमानुएल नेस की किताब ‘सदर्न इनसर्जेन्सी: द कमिंग आफ़ द ग्लोबल वर्किंग क्लास’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कुल छह अध्याय हैं
जिन्हें दो हिस्सों में बांटा गया है । आखिरी छठवां अध्याय उपसंहार है । किताब की शुरुआत
में प्रस्तावना के बाद पहला हिस्सा पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के बारे में है । इसके
दो अध्यायों में दक्षिणी गोलार्ध के औद्योगिक सर्वहारा और मजदूरों की रिजर्व सेना के
रूप में प्रवासी मजदूर समुदाय का विश्लेषण है । दूसरा हिस्सा ठोस उदाहरणों का विवेचन
है जिसके तहत भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका
के प्रवासी मजदूरों का अध्ययन किया गया है । समसामयिक दुनिया में मजदूर आंदोलनों का
तुलनात्मक विवेचन किताब का उद्देश्य है । लेखक को इस बात के पर्याप्त सबूत मिल रहे
हैं कि वैश्विक पूंजी, अंतर्र्राष्ट्रीय उत्पादन
और बिक्री के वैश्विक संजाल तथा नवउदारवादी राज्य के दमन उत्पीड़न का मुकाबला करने में
मजदूर आंदोलन सक्षम नहीं रह गया है ।
इसी प्रसंग में 2002 में रटलेज से जेफ़री हैरोड और राबर्ट ओ ब्रायन
के संपादन में ‘ग्लोबल यूनियंस?: थियरी ऐंड स्ट्रेटेजीज आफ़ आर्गेनाइज्ड लेबर इन
द ग्लोबल पोलिटिकल इकोनामी’ का प्रकाशन हुआ । काम के वैश्विक होने से श्रमिकों का अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप
उभरा है । इसी के साथ वैश्विक यूनियनों के जन्म की संभावना भी पैदा हुई है ।
पूंजी के हमलावर होने
के साथ मजदूर वर्ग की लड़ाइयों का स्वरूप भी बदला है । 2017 में एशिया मोनिटर रिसर्च सेन्टर से फ़हमी पानिम
बांग के संपादन में ‘रेजिस्टेन्स आन द कंटीनेन्ट
आफ़ लेबर: स्ट्रेटेजीज ऐंड इनिशिएटिव्स
आफ़ लेबर आर्गेनाइजिंग इन एशिया’ का प्रकाशन हुआ । किताब में संपादक की भूमिका के अतिरिक्त पंद्रह लेख शामिल
किए गए हैं । इन लेखों को दो भागों में बांटा गया है । पहला भाग श्रमिक प्रतिरोध के
उदीयमान रूपों पर केंद्रित है । इसके तहत ग्यारह लेख हैं । शेष चार लेख दूसरे भाग में
हैं जो इन आंदोलनों के बीच बननेवाले संश्रयों के बारे में है ।
2016 में डबलडे से
तमारा द्राउत की किताब ‘स्लीपिंग जायन्ट:
हाउ द न्यू वर्किंग क्लास विल ट्रान्सफ़ार्म अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका ने नितांत निजी
प्रसंग से अपनी बात शुरू की है । पिता स्टील के कारखाने में काम करते थे और
डेट्राइट के दीवालिया घोषित होने के कुछ महीने बाद ही मर गए । ऐसे मेहनती लोगों की
बदौलत ही दुनिया में अमेरिकी उद्योग की तूती बोलती थी । वह मजदूर वर्ग अब समाप्त
हो गया है लेकिन मजदूर वर्ग का खात्मा नहीं हुआ है । अब उसका रूप बदल गया है ।
किसी कारखाने तक सीमित रहने की बजाय वह हमारी समूची जिंदगी में व्याप्त हो गया है
। इसकी सर्वत्र मौजूदगी के बावजूद इसके बारे में जानकारी बहुत कम है । इसके जीवन की
समस्याओं के बारे राजनेता बात नहीं करते, न ही अखबारों की सुर्खियों में इनका जिक्र होता है ।
जो नए हालात पैदा हुए
हैं उनमें पुराने की भी घनघोर मौजूदगी है । 1997 में वर्सो से किम मूडी की किताब ‘वर्कर्स इन ए लीन वर्ल्ड: यूनियन्स इन द इंटरनेशनल इकोनामी’ का प्रकाशन हुआ । इसके बाद 1998, 1999 और 2001 में इसको फिर से छापा गया । शुरू में लेखक का
कहना है कि तीन अध्यायों में वैश्वीकरण की प्रक्रिया की छानबीन करने के बावजूद यह किताब
वैश्वीकरण के बारे में नहीं है । इसमें न तो वैश्वीकरण की व्यापकता समझाई गई है न ही
उसके शिकारों की व्यथा कही गई है । इसमें जोर उसके प्रतिरोध पर है । इसमें वैश्वीकरण
की संस्थाओं की क्रूरता का वर्णन तो है लेकिन उनमें सुधार के उपाय नहीं सुझाए गए हैं
। किताब का असली विषय मजदूर वर्ग है । यह समझने की कोशिश की गई है कि वैश्विक औद्योगिक
पुनर्समायोजन के बाद उसे लकवा क्यों मार गया है, अपने ही संगठनों को प्रभावित करने में उसे किन
कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, नस्ली, नृजातीय और लैंगिक संरचना
में आए बदलावों से वह दिशाहीन क्यों हो गया है, विश्व बाजार की गलाकाट प्रतियोगिता के चलते उसका
पतन क्यों हो गया है और इन हालात से वह कैसे जूझ रहा है । ट्रेड यूनियनों और मजदूर
वर्ग के खात्मे की भविष्यवाणियों के बीच मेहनतकश जनसमुदाय फिर से बहस के केंद्र में
है । था तो वह यहीं लेकिन समाज का बोध बनानेवाली मीडिया की निगाह से ओझल हो गया था
। लेखक का परिचय दुनिया भर के सैकड़ों ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं से रहा है । लेखक के
अनुसार अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक एकीकरण की असलियत को समझने के लिए वैश्वीकरण के बारे
में ढेर सारे लेखन से अधिक उपयोगी इन कार्यकर्ताओं के अनुभव हैं ।
1994 में जब लेखक ने इस किताब पर काम शुरू किया था
तो विरोध की आवाज सुनना मुश्किल था । लेकिन फिर उसी साल की दो घटनाओं ने लेखक का यकीन
मजबूत किया । पहली थी नाइजीरिया में मजदूरों की आम हड़ताल । नाइजीरिया में निर्मम सैनिक
शासन था । मजदूर यूनियन के नेताओं और कार्यकर्ताओं के इस अविश्वसनीय साहस ने उन्हें
इस घटना को ठीक से देखने की प्रेरणा दी । वे कुछ कर पाते उससे पहले ही सरकार ने हड़ताल
को कुचल डाला । उसी समय अमेरिका में जनरल मोटर्स के मजदूरों की हड़ताल की खबर मिली ।
नाइजीरिया की हड़ताल से तेल उद्योग को चोट पहुंची थी तो इस हड़ताल ने एक पारदेशीय कंपनी
को ठप कर दिया था । दोनों ही कोशिशों को कुचल दिया गया लेकिन इनके जरिए मजदूरों की
जुझारू मौजूदगी की आहट मिली थी । अमेरिकी मजदूरों की हड़ताल में प्रबंधन ने बताया
कि अगर मजदूर जुझारू यूनियन के साथ रहते हैं तो यह कंपनी कारखाने को बंद कर देगी ।
नतीजतन यूनियन के अगले चुनाव में पालतू नेता चुने गए । बहरहाल कंपनी ने कारखाना
बंद कर दिया । इससे सबक मिला कि पारदेशीय निगमों में फैसले कहीं और होते हैं ।
उनके फैसलों पर मजदूरों की नमनीयता से कोई अंतर नहीं पड़ता ।
1996 में कैम्ब्रिज
यूनिवर्सिटी प्रेस से लोगी बैरो और आयन बुलाक की किताब ‘डेमोक्रेटिक आइडियाज ऐंड द
ब्रिटिश लेबर मूवमेन्ट, 1880-1914’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का मानना है कि इतिहास
में श्रमिक आंदोलन की शाखा के बारे में जो लोग बहुत नहीं जानते उन्हें यह किताब
बेहद आसान लगेगी और अचरज होगा कि विशेषज्ञों के लिए ये बातें नई हैं । पिछले कुछ
समय से ही इस विषय पर अध्ययन शुरू हुए हैं लेकिन उनमें भी बिखरी बातें सामने आई
हैं । कभी किसी संगठन विशेष का अध्ययन हुआ तो कभी यह कि कन्जरवेटिव पार्टी के
विकल्प के रूप में लिबरल की जगह लेबर पार्टी किस प्रक्रिया में उभरी । कभी कभी
क्रांतिकारियों के समाजवादी और गैर समाजवादी खेमों में अंतर पर जोर दिया गया । इस
किताब में इन सब चीजों के साथ ही श्रमिक आंदोलन को समाजवादी संगठनों और ट्रेड
यूनियनों के सहारे समझा गया है ।
लेखक को अपना समय
लोकतंत्र के रूपों और प्रकृति के बारे में गम्भीरता से सोचने के लिए सबसे उपयुक्त
लगता है क्योंकि अमेरिका के चुनावों में मतदान का अनुपात घट रहा है, यूरोपीय संघ
में लोकतंत्र की कमी महसूस हो रही है, मध्य और पूर्वी यूरोप में लोकतांत्रिक
ढांचों के खड़ा होने से पहले ही निरंकुश राष्ट्रवाद की हवा बहने लगी है तथा दक्षिण
अफ़्रीका में रंगभेद की समाप्ति के बाद अनिश्चय का वातावरण बना हुआ है । ब्रिटेन
में 1970 दशक के उत्तरार्ध से ही सार्वजनिक सेवाओं की अनुपलब्धता और नागरिकता की
धारणा पर सवाल उठने के साथ ही समाज की धारणा पर भी हमले हो रहे हैं । इस हमले के
पीछे नया दक्षिणपंथ है जिसमें खुले बाजार के प्रेम के साथ शांति व्यवस्था कायम
रखने की निरंकुशता भी प्रत्यक्ष है । इन सब बातों के बावजूद लेखक को असली चिंता
प्रतिरोध की कमजोरी को लेकर है । आखिर वामपंथ लोकतंत्र और सबलीकरण का सवाल पूरी
मजबूती से उठा क्यों नहीं रहा है । आज लोकतंत्र के सवाल पर उसे बोलने में जो भी
हिचक हो रही हो लेकिन उसके आरम्भिक दिनों में यह सवाल उसके लिए बेहद महत्व का हुआ
करता था । इसका कारण था कि वाम में रूसी क्रांति के बाद से सुधारवादियों और क्रांतिकारियों
के बीच खेमेबंदी हो गई थी । क्रांतिकारी खेमा सांविधानिक लोकतंत्र का विरोधी हो
गया । बहुत कुछ इसके कारण भी इस समय ब्रिटिश सरकार पश्चिमी दुनिया की सबसे कम
लोकतांत्रिक सरकार है । बहरहाल यह गतिरोध 1980 के बाद से टूटना शुरू हुआ ।
हड़तालों के ही प्रसंग
में हावर्ड ज़िन, डाना फ़्रैंक और रोबिन
डी जे केली की किताब ‘थ्री स्ट्राइक्स: माइनर्स, म्यूजीशीयन्स, सेल्स गर्ल्स, ऐंड द फ़ाइटिंग स्पिरिट आफ़ लेबर’स लास्ट सेंचुरी’ का प्रकाशन बीकन प्रेस से 2001 में हुआ । 2002 में इसका इलेक्ट्रानिक संस्करण आया । इसी क्रम
में 2014 में बेवुड पब्लिशिंग कंपनी से राबर्ट फ़ोरान्ट और जुर्ग साइगेनथालेर के
संपादन में ‘द ग्रेट लारेन्स टेक्सटाइल स्ट्राइक आफ़ 1912: न्यू स्कालरशिप आन द
ब्रेड & रोजेज स्ट्राइक’ का प्रकाशन हुआ ।
मजदूर वर्ग के भीतर
आये बदलाव को समझने के लिहाज से 1997 में कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस से लारेन्स बी
ग्लिकमैन की किताब ‘ए लिविंग वेज: अमेरिकन वर्कर्स ऐंड द मेकिंग आफ़ कनज्यूमर
सोसाइटी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि जीवित रहने लायक वेतन पुराने जमाने
की बात हो चुकी है जब एक आदमी की कमाई से पूरे परिवार का खर्च चल जाता था । अब तो
कम वेतन और कम लाभ पर लोग अधिक समय तक काम करने लगे हैं ।
1999 में मैकमिलन प्रेस लिमिटेड से रोनाल्डो मुन्क
और पीटर वाटरमैन के संपादन में ‘लेबर वर्ल्डवाइड इन द एरा आफ़ ग्लोबलाइजेशन: अल्टरनेटिव यूनियन माडेल्स इन द न्यू वर्ल्ड
आर्डर’ का प्रकाशन हुआ । किताब
को छह भागों में बांटा गया है । पहला भाग मुन्क ने सन्दर्भ को स्पष्ट करते हुए लिखा
है । दूसरे भाग में तीन लेख हैं जिनमें विषय का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य समझाया गया
है । तीसरा भाग पूरब और पश्चिम के श्रमिकों का लेखा जोखा लगाता है और इसमें चार लेख
संकलित हैं । चौथे भाग के तीन लेखों में दक्षिण के मजदूरों के बारे में बताया गया है
। पांचवें भाग में तीन लेख हैं जिनमें प्रमुख मुद्दों की पड़ताल की गई है । आखिरी छठवां
भाग दूसरे संपादक ने विषय के परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है ।
2000 में यूनिवर्सिटी आफ़ इलिनोइस प्रेस से मेलविन
दुबोफ़्सकी की किताब ‘हार्ड वर्क: द मेकिंग आफ़ लेबर हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ ।
2001 में ऐशगेट से
अना सी दिनेरस्टाइन और माइकेल नीरी के संपादन में ‘द लेबर डीबेट: ऐन इनवेस्टिगेशन इन्टू द
थियरी ऐंड रियलिटी आफ़ कैपिटलिस्ट वर्क’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और एकाधिक लेखों के अतिरिक्त
किताब में आठ विद्वानों के लेख संकलित हैं ।
2002 में रटलेज से जेफ़री हैरोड और राबर्ट ओ ब्रायन
के संपादन में ‘ग्लोबल यूनियंस?: थियरी ऐंड स्ट्रेटेजीज आफ़ आर्गेनाइज्ड लेबर इन
द ग्लोबल पोलिटिकल इकोनामी’ का प्रकाशन हुआ । काम के वैश्विक होने से श्रमिकों का अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप
उभरा है । इसी के साथ वैश्विक यूनियनों के जन्म की संभावना भी पैदा हुई है ।
2002 में ओपेन यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविड वेनराइट
और माइकेल कालनान की किताब ‘वर्क स्ट्रेस: मेकिंग आफ़ ए माडर्न
एपिडेमिक’ का प्रकाशन हुआ । पूंजीवाद
के इस नए दौर ने जिस तरह मनुष्य की शारीरिक सीमाओं का उल्लंघन करते हुए कामगारों को
रात दिन मुनाफ़े के लिए काम में जोत रखा है उसके नतीजे व्यापक रूप से स्नायविक-मानसिक तनाव और रक्तचाप, कैंसर तथा डायबेटीज जैसी बीमारियों की व्यापकता
तथा उनके चलते होनेवाली मौतों में दिखाई देना शुरू हो चुका है । लेखक ने विद्वत्ता
के साथ इस पहलू को उजागर करते हुए यह किताब लिखी है ।
2002 में ब्लैकवेल पब्लिशिंग से क्रिस बेन्नेर की
किताब ‘वर्क इन द न्यू इकोनामी: फ़्लेक्सिबल लेबर मार्केट्स इन सिलिकान वैली’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब एक पुस्तक श्रृंखला
के तहत छपी है जिसका नाम द इनफ़ार्मेशन एज सिरीज है ।
2002 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से लियोपाल्ड
एच हैमसन और चार्ल्स टिली के संपादन में ‘स्ट्राइक्स, वार्स, ऐंड रेवोल्यूशंस इन ऐन इंटरनेशनल पर्सपेक्टिव: स्ट्राइक वेव्स इन द लेट नाइंटीन्थ ऐंड अर्ली
ट्वेंटीएथ सेन्चुरीज’ का प्रकाशन हुआ । किताब
को पांच हिस्सों में बांटा गया है । पहला हिस्सा दोनों संपादकों की अलग अलग लिखी भूमिकाओं
का है । दूसरा हिस्सा माडलों और वास्तविकताओं का है जिसमें परिचय के बतौर लियोपाल्ड
हैमसन ने एक लेख एरिक ब्रायन के साथ मिलकर लिखा है । इसके अलावा इस हिस्से में सात
और लेख हैं जिनमें हड़ताल की धारणा के अतिरिक्त अलग अलग देशों और समयों पर हड़तालों की
लहरों का विवेचन किया गया है । दूसरा हिस्सा धातु उद्योगों के कामगारों के बारे में
विशेष रूप से विचार करता है और इसमें तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य अपनाया गया है । इस हिस्से
में भी लियोपाल्ड हैमसन के एक लेख समेत सात लेख हैं । तीसरे हिस्से में थोड़े वक्त के
विचलन का असर देखा गया है और इस हिस्से का परिचय चार्ल्स टिली ने लिखा है । लियोपाल्ड
हैमसन का भी एक लेख इस हिस्से में शामिल है।इनके अतिरिक्त चार और लेख इस हिस्से में
संकलित हैं । अंत में पांचवां हिस्सा उपसंहार के रूप में लियोपाल्ड हैमसन ने लिखा है
।
2002 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से जूडिथ स्तेपान-नोरिस और मारिस ज़ाइटलिन की किताब ‘लेफ़्ट आउट: रेड्स ऐंड अमेरिका’ज इंडस्ट्रियल यूनियन्स’ का प्रकाशन हुआ ।
2003 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से मारिया
के फ़ालास की किताब ‘वर्किंग क्लास हीरोज: प्रोटेक्टिंग होम, कम्यूनिटी, ऐंड नेशन इन ए शिकागो नेबरहुड’ का प्रकाशन हुआ । किताब अमेरिका में संघर्षों
के दौरान मजदूर वर्ग की मौजूदगी के आभास और संगठन के नए तरीकों के सिलसिले में नई जानकारी
देती है ।
2003 में कैम्ब्रिज
यूनिवर्सिटी प्रेस से बेवर्ली जे सिल्वर की किताब ‘फ़ोर्सेज आफ़ लेबर: वर्कर्स’ मूवमेंट्स ऐंड ग्लोबलाइजेशन सिन्स 1870’ का प्रकाशन हुआ ।
2003 में टेम्पल
यूनिवर्सिटी प्रेस से नेल्सन लिचटेंस्टाइन की किताब ‘लेबर’स वार ऐट होम: द सी आइ ओ इन वर्ल्ड वार॥‘ के नए संस्करण का प्रकाशन नई भूमिका के साथ
हुआ । पहली बार 1981 में यह किताब कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी थी ।
ऊपर से देखने पर लगता
है कि मध्य वर्ग का विस्तार हो रहा है लेकिन सच यह है कि कामगार तबके का विस्तार
हुआ है । इसी तथ्य को ठीक से उजागर करते हुए 2012 में कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस
से माइकेल ज़्वाइग की किताब ‘द वर्किंग क्लास मेजारिटी: अमेरिका’ज बेस्ट केप्ट
सीक्रेट’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ । पहली बार यह किताब 2000 में छपी थी । अमेरिका
में मजदूर वर्ग के इस संघर्ष को रेखांकित करते हुए 2005 में पेंग्विन बुक्स से
ब्रूस वाटसन की किताब ‘ब्रेड ऐंड रोजेज: मिल्स, माइग्रैन्ट्स, ऐंड द स्ट्रगल फ़ार द
अमेरिकन ड्रीम’ का प्रकाशन हुआ ।