Wednesday, February 23, 2022

पापुलिज्म क्या है?

 

              

                                

हमारे समय की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में इस शब्द का प्रयोग फिलहाल प्रचुरता के साथ किया जा रहा है । इसका जिक्र नब्बे के दशक में सरकार के कल्याणकारी कदमों की निंदा के रूप में किया जाना शुरू हुआ । तब इसका हिंदी अनुवाद प्रभाष जोशी ने लोकलुभावनवाद किया था । हाल हाल तक विभिन्न पार्टियों के चुनावी घोषणा पत्रों में झूठे ही सही, वादे हुआ करते थे । उनमें जनता को थोड़ी राहत देने के सरकारी उपयों का सब्जबाग दिखाया जाता था । बाद में उन्हें जुमला बताया जाने लगा । नवउदारवादी सैद्धांतिकी की ओर से जनता की, टूटी फूटी ही सही पक्षधरता पर किया गया वैचारिक हमला इस शब्द को बदनाम करके सफलता के साथ संपन्न हुआ था । दक्षिणपंथ के साथ इस प्रवृत्ति की संलग्नता स्वयंसिद्ध है लेकिन इसकी सर्वव्यापकता को साबित करने के लिए वामपंथ के भीतर भी इसे चिन्हित करने की भरपूर कोशिश हो रही है । इसके अतिरिक्त जिन देशों में भी शासन के फ़ासीवादी रुझान प्रकट हो रहे हैं उनको पुराने, यानी तीस के दशक के फ़ासीवाद से अलगाने के लिए बहुधा इस धारणा का उपयोग बौद्धिक दुनिया में हो रहा है । ध्यातव्य है कि इस दौर में दक्षिणपंथी राजनीतिक उभार की सबसे ताजा दो घटनाओं के जिक्र सर्वाधिक हो रहे हैं । यूरोपीय संघ से ब्रिटेन को बाहर करने के सवाल पर हुए जनमत संग्रह में ब्रेक्सिट की जीत और ट्रम्प को अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर चुना जाना ऐसी घटनाएं थीं जिनको इस प्रवृत्ति लोकप्रियता से आगे बढ़कर सत्तातंत्र में जड़ जमाने की तरह देखा गया । माना यह गया कि किसी वजह से शासन के स्तर पर बनी उदारवादी राजनीतिक आम सहमति टूट गयी है और आम जनता अब इस सहमति के विरोध में मुखर होकर अपनी पसंद का इजहार कर रही है ।  

इसकी शुरुआत में विद्वानों में थोड़ा भ्रम रहा । पश्चिमी देशों में लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के प्रति मतदाताओं में उदासीनता नजर आती रही है । ऐसे में इस प्रवृत्ति के उभार को लोकतंत्र का विरोधी समझने की जगह राजनीति के प्रति आम जनता में लोकप्रिय रुचि की वापसी के रूप में भी देखा गया । लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति इसके वैरभाव को देखते हुए अधिकतर इसे चुनौती ही समझा गया । इसका सबूत 2005 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से जान लुकास की किताब ‘डेमोक्रेसी ऐंड पापुलिज्म: फ़ीयर & हैट्रेड’ के प्रकाशन से मिला । किताब की सीमा बताते हुए लेखक ने गोरे लोगों की अंग्रेजी भाषी दुनिया और यूरोप के ही अनुभव पर आधारित बताया । इसके अतिरिक्त किताब में भौतिक तत्व के मुकाबले मानसिक प्रवृत्तियों की छानबीन की गयी थी । कारण कि लेखक ने लोकतंत्र को भी भौतिक तत्व के मुकाबले सोच विचार पर आधारित माना है । इस वजह से भी विश्लेषण को उन्होंने अपने परिचित परिवेश तक ही सीमित रखना उचित समझा । तोकवीय ने डेढ़ सौ साल पहले अमेरिका में लोकतंत्र के बारे में लिखा था । लेखक का कहना है कि अब ढेर सारे मुल्कों में लोकतंत्र है और अब अमेरिका में लोकतंत्र की जगह अमेरिकी लोकतंत्र के बारे में लिखा जाना चाहिए । तोकवीय ने लोकतंत्र के अमेरिकी रूप के ही अनुकरण से सावधान किया था । उनका जोर रूप के मुकाबले अंतर्वस्तु पर था । दुर्भाग्य से लोकतंत्रीकरण के साथ ही दुनिया का अमेरिकीकरण भी हो रहा है । लग रहा है कि लोकतंत्र से संसार को सुरक्षित रखना होगा । तोकवीय ने अपनी किताब में कुछ सवाल उठाये थे जिन पर विचार करना जरूरी लग रहा है । उन्हें महसूस हुआ कि जनता का शासन होने की जगह जनता के नाम पर शासन को लोकतंत्र कहा जा रहा था । उसमें बहुसंख्या की प्रभुता को नियंत्रित करने के लिए उदारवाद का प्रवेश आवश्यक लगा था । साथ ही अल्पसंख्यकों और व्यक्तियों के विशेष अधिकारों की गारंटी की जरूरत थी । लोकतंत्र के भीतर इस तत्व के कमजोर होते ही राष्ट्रवादी पापुलिज्म का जन्म होने की आशंका थी । तोकवीय का विवेचन इस खतरे का बस संकेत करता है । उन्होंने इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया था लेकिन समस्या को पहचान लिया था । इसी तरह 2005 में वर्सो से फ़्रानसिस्को पनिज़ा के संपादन में पापुलिज्म ऐंड मिरर आफ़ डेमोक्रेसीका प्रकाशन हुआ । उनका मानना है कि हमारे चाहने या न चाहने के बावजूद आधुनिक राजनीति में पापुलिज्म का तत्व बना रहेगा । इसके अर्थ के बारे में मतभेद के बावजूद ऐसे मामलों पर मोटामोटी सहमति संपादक बनाना चाहते हैं जिससे ठोस आचरण का विश्लेषण हो सके ।  इसके लिए तीन मसलों पर स्पष्टता चाहिए । जनता कौन है, उसके लिए कौन बोल रहा है और नेता के साथ जनता खुद को कैसे एकरूप करती है । इससे पहले 2002 में पालग्रेव से येव्स मेनी और येव्स सुरेल के संपादन में ‘डेमोक्रेसीज ऐंड द पापुलिस्ट चैलेन्ज’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और भूमिका के अतिरिक्त किताब के तीन भागों में ग्यारह लेख हैं । पहले भाग के लेखों में पापुलिज्म को समझने की कोशिश की गई है । दूसरे भाग के लेखों में इस वैश्विक परिघटना के विभिन्न देशों की विशेषताओं का विश्लेषण है । तीसरे भाग के लेख इन देशी प्रतिफलनों की तुलना पर केंद्रित हैं ।

इस परिघटना को समझने के इन शुरुआती प्रयासों के बाद 2012 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से कस मुद्दे और क्रिस्टोबल रोविरा काल्टवाजेर के संपादन मेंपापुलिज्म इन यूरोप ऐंड द अमेरिकाज: थ्रेट आर करेक्टिव फ़ार डेमोक्रेसी?’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब में दस लेख संकलित हैं जिनमें पहला और आखिरी लेख संपादकों के ही हैं । भूमिका में उन्होंने आपसी सहयोग की बुनियाद के बारे में बताया है । दोनों की मुलाकात इंटरनेट पर हुई । मेल पर शुरुआती चर्चा के बाद 2009 में प्रत्यक्ष मुलाकात हुई तो  सहकारी परियोजनाओं की योजना बनी । इसी योजना के तहत यह पुस्तक तैयार हुई है । 2010 में बर्लिन में दोनों ने मिलकर कार्यशाला का आयोजन किया जिसमें किताब में शामिल लेखों के मसौदे प्रस्तुत किये गये । उन पर हुई चर्चा के आलोक में लेखकों ने उन्हें सुधारा । इन लेखों में अलग अलग देशों के हालात का विश्लेषण है । इनमें क्रमश: बेल्जियम, कनाडा, चेक गणराज्य, मेक्सिको, आस्ट्रिया, वेनेजुएला, पेरू और स्लोवाकिया के हाल का विवेचन है । असल में इस शब्द का इस्तेमाल जितना अधिक हो रहा है उसमें इसका अर्थ निश्चित होना मुश्किल है । कुछ लोग इसकी अनिश्चितता की वजह से इसे छोड़ देने की भी वकालत करते हैं । इसके कारण संपादकों ने परिभाषा के मुकाबले उसके अध्ययन के लिए उसके वास्तविक स्वरूप को ध्यान में रखा है । लोकतंत्र और पापुलिज्म के बीच तनावपूर्ण संबंध देखा गया है लेकिन उसका व्यावहारिक अध्ययन कम ही हुआ है । लोकतंत्र और पापुलिज्म दोनों ही भिन्न भिन्न प्रसंगों में प्रयुक्त होते रहे हैं । इसी वजह से उदार लोकतंत्र और पापुलिज्म को सैद्धांतिक स्तर पर समझने का प्रयास संपादकों ने सबसे पहले किया है ।      

इसके दोहरे स्वरूप की छानबीन के क्रम में 2015 में यूनिवर्सिटी प्रेस आफ़ केंटकी से कार्लोस डे ला टोरे के संपादन में ‘द प्रामिस ऐंड पेरिल्स आफ़ पापुलिज्म: ग्लोबल पर्सपेक्टिव्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना और कस मुद्दे के उपसंहार के अतिरिक्त किताब के दो भागों में कुल चौदह लेख संकलित हैं ।  पहले भाग में जनता और पापुलिज्म के रिश्तों को समझने की कोशिश है । दूसरे भाग के लेख पापुलिज्म की वैश्विक परिघटना को व्याख्यायित करते हैं ।

2016 में ब्लूम्सबरी से जान अब्रोमाइट के संपादन में ‘ट्रान्सफ़ार्मेशंस आफ़ पापुलिज्म इन यूरोप ऐंड द अमेरिकाज: हिस्ट्री ऐंड रीसेन्ट टेन्डेन्सीज’ का प्रकाशन हुआ । संपादन में ब्रिजेट मारिया चेस्टर्टन, गैरी मरोटा और यार्क नार्मन ने सहयोग किया है । संपादकीय प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में अठारह लेख शामिल हैं । इन्हें तीन भागों में सजाया गया है । पहले भाग के चार अनुभागों में पापुलिज्म के नये ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट किया गया है । दूसरे भाग में पापुलिज्म के ऐतिहासिक सिद्धांतों की चर्चा है । तीसरे भाग में लैटिन अमेरिका, यूरोप और अमेरिका में इसकी हालिया प्रवृत्तियों का विश्लेषण है । इस किताब की प्रेरणा भी एक सम्मेलन से मिली थी । अमेरिका में 2010 के मध्यावधि चुनावों में टी पार्टी के उभार से सम्मेलन की जरूरत महसूस हुई थी ।

2017 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से क्रिस्टोबल रोविरा काल्टवाजेर, पाल टैगार्ट, पालिना ओचोआ एस्पेजो और पियरे ओस्तिगाइ के संपादन में द आक्सफ़ोर्ड हैंडबुक आफ़ पापुलिज्मका प्रकाशन हुआ । किताब में कुल चौंतीस लेख संकलित हैं । इन्हें संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त चार भागों में लगाया गया है । पहले भाग के लेखों में इससे जुड़ी धारणाओं का विवेचन है । दूसरे भाग के लेखों में दुनिया के अलग अलग क्षेत्रों में इस प्रवृत्ति के स्वरूप की पड़ताल की गई है । तीसरे भाग के लेख इससे जुड़े विभिन्न मुद्दों का विश्लेषण करते हैं । आखिरी चौथे भाग के लेख कुछ महत्वपूर्ण बहसों की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं । इस तरह किताब इस राजनीतिक धारा को पूर्णता में समझने का अवसर उपलब्ध कराती है । सिद्ध है कि वैश्विक प्रवृत्ति होने के बावजूद इसके रूप अलग अलग देशों में अलग अलग प्रकट हो रहे हैं ।  

इसके रूपों की इसी विविधता को उजागर करते हुए 2017 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से कस मुद्दे और क्रिस्टोबल रोविरा काल्टवाजेर की किताब पापुलिज्म: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शनका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि वर्तमान सदी में इस नाम से लैटिन अमेरिकी देशों में वामपंथ को, यूरोप में दक्षिणपंथ को और अमेरिका में दोनों प्रवृत्तियों के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों को पहचाना जाता है । इसके कारण इसके अर्थ के बारे में काफी भ्रम रहता है । किताब में इस परिघटना को समझने और हाल के दिनों की राजनीति में इसके महत्व को उजागर करने की कोशिश की गई है । सबसे पहले लेखकों ने इसे उदार लोकतंत्र के संदर्भ में रखकर देखा है । इसके विरोध में ही इस विचार का उदय हुआ है । साफ है कि समय बीतने के साथ उसका लोकतंत्र विरोधी रुख पहचाना जाने लगा है । 

2018 में कोवाला, पालोनेन, रुतसलाइनेन और सारेस्मा के संपादन में ‘पापुलिज्म आन द लूज’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों का मानना है कि तीव्र सामाजिक बदलाव, बहुसांस्कृतिक परिवेश की चुनौती, सामाजिक विषमता तथा मीडिया द्वारा प्रचारित तमाम किस्म के खतरों के चलते ऐसे पापुलिस्ट विक्षोभ का जन्म हुआ है जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण की अपील की जाती है । इसमें आप्रवास विरोधी राष्ट्रवाद और देश के निवासियों को न्याय देने की बातें होती हैं । जितना भी शोध इस परिघटना के बारे में हुआ है उससे इसकी व्यापकता और अनेकार्थता का पता चलता है । इसीलिए संपादकों ने भी सांस्कृतिक, लैंगिक, राजनीतिक  और मीडिया अध्ययन के नजरिये से इस धारा को देखने का प्रयास किया है ।     

2018 में प्रोफ़ाइल बुक्स से चार्ल्स दुमास की किताब ‘पापुलिज्म ऐंड इकोनामिक्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत ही लेखक ने मजेदार तरीके से की है । इतिहास के पूर्वघोषित अंत के पचीस साल बाद नयी विश्व व्यवस्था का ही अंत होता हुआ नजर आ रहा है क्योंकि जिन क्षेत्रों में बहुतेरा रोजगार पैदा होता था उनमें बड़े पैमाने पर रोबोट ही काम किया करेंगे । सोवियत संघ के पतन के बाद लगा था कि लोकतंत्र और खुले बाजार पर आधारित अर्थतंत्र की जीत हुई है । इसके बाद तो पूंजीवाद और लोकतंत्र के गंठजोड़ को शाश्वत होना था । लेकिन वैश्वीकरण, मुक्त विश्व व्यापार और पूंजी प्रवाह का नतीजा सत्रह साल के बाद ही ऐसे संकट की शक्ल में सामने आया जिसे महामंदी के बाद का सबसे गम्भीर संकट माना गया ।    

2018 में रटलेज से मोयका पायनिक और बिर्गिट सावेर के संपादन में ‘पापुलिज्म ऐंड द वेब: कम्यूनिकेटिव प्रैक्टिसेज आफ़ पार्टीज ऐंड मूवमेंट्स इन यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब में दस लेख शामिल हैं ।

2018 में पालग्रेव मैकमिलन से हान्ज फ़ोरलान्डेर, माइक हेरोल्ड और स्टीफेन शालर की किताब पेगिडा ऐंड न्यू राइट-विंग पापुलिज्म इन जर्मनीका प्रकाशन हुआ ।

2019 में पालग्रेव मैकमिलन से बिर्ते सिम, अन्ना क्रास्तेवा और आइनो सारिनेन के संपादन में ‘सिटिज़ेन’स ऐक्टिविज्म ऐंड सोलिडरिटी मूवमेंट्स: कनटेन्डिंग विथ पापुलिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।

2019 में रटलेज से पाओलो कोसारिनी और फ़र्नान्दो वालेस्पिन के संपादन में ‘पापुलिज्म ऐंड पैशन्स: डेमोक्रेटिक लेजिटिमेसी आफ़्टर आस्टेरिटी’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब में शामिल दस लेख तीन भाग में संयोजित हैं । पहले भाग में राजनीतिक क्षेत्र की नयी व्यवस्था का विश्लेषण है । दूसरे भाग में राज्य के कल्याणकारी व्यय में कटौती के दौरान भावावेगी तर्क और विमर्श की छानबीन की गयी है । तीसरे भाग के लेखों में भावावेग और लोकतंत्र की वैधता पर विचार किया गया है । संपादकों के अनुसार पापुलिज्म सर्वव्यापी प्रतीत हो रहा है । ट्रम्प और ब्रेक्सिट के साथ इस परिघटना को नयी ऊंचाई मिल गयी है । दुनिया का शायद ही कोई ऐसा कोना होगा जहां इस किस्म की राजनीति न होती हो । सरकार के कल्याणकारी खर्चों में कटौती के दौरान यूरोप में तमाम तरह की पापुलिस्ट पार्टियों का उदय हुआ । इनमें वाम और दक्षिण के तमाम भेदों के बावजूद एक ही नाम का इस्तेमाल जारी रहा ।

2019 में ब्लूम्सबरी से अजय गुडावर्ती की किताब ‘इंडिया आफ़्टर मोदी: पापुलिज्म ऐंड द राइट’ का प्रकाशन हुआ ।

2019 में रटलेज से कार्स्टेन रेइनेमान, जेम्स स्टान्येर, तोरिल आलबेर्ग, फ़्रैंक एसर और क्लेस एच व्रीस के संपादन मेंकम्युनिकेटिंग पापुलिज्म: कम्पेयरिंग ऐक्टर परसेप्शंस, मीडिया कवरेज, ऐंड अफ़ेक्ट्स आन सिटिज़ेन्स इन यूरोपका प्रकाशन हुआ संपादकों की प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त किताब में शामिल दस लेख तीन हिस्सों में बांटे गये हैं पहले हिस्से में पापुलिज्म और संचारकर्ताओं, दूसरे हिस्से में मीडिया में पापुलिज्म तथा तीसरे हिस्से में पापुलिज्म और नागरिकों का विशेषण करने वाले लेख हैं

2019 में बेरगान बुक्स से ब्रूस काफ़ेरेर और दिमित्रियोस थियोदोसो पुलोस के संपादन में ‘डेमोक्रेसी’ज पैराडाक्स: पापुलिज्म ऐंड इट्स कनटेम्पोरेरी क्राइसिस’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में पांच लेख संकलित हैं ।

2019 में रटलेज से कार्लोस डे ला तोरे के संपादन में ‘रटलेज हैंडबुक आफ़ ग्लोबल पापुलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के छह भागों में तीस लेख संकलित हैं । सभी भागों की प्रस्तावना संपादक ने लिखी है । पहले भाग में पापुलिज्म के समकालीन सिद्धांतों का विवेचन है । दूसरे भाग में पापुलिज्म और राजनीतिक तथा समाज सिद्धांत की आपसदारी वर्णित है । तीसरे भाग में पापुलिज्म द्वारा विषमताओं और तफ़रकों के राजनीतिक इस्तेमाल पर विचार किया गया है । चौथे भाग में पापुलिज्म और मीडिया के रिश्तों का लेखा जोखा है । पांचवें भाग में इसे लोकतंत्रीकरण और निरंकुशता के बीच रखकर देखा गया है । छ्ठवें भाग में इसके क्षेत्रीय रूपों का विश्लेषण है ।  

2019 में  वनवर्ल्ड से साइमन टोर्मी की किताबपापुलिज्म: ए बिगिनरस गाइडका प्रकाशन हुआ । लेखक ने बताया है कि 1960 के दशक में इस शब्द को विकासशील देशों के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों, अमेरिका के खेतिहरों की पार्टियों और तरह तरह के तानाशाह आंदोलनों से जोड़कर देखा जाता था । जनता के विक्षोभ से पैदा होने वाले नए और मजबूत आंदोलनों से भय कोई नई बात नहीं है । राष्ट्रीय या आंतर्राष्ट्रीय राजनीति का यह स्थायी पहलू रहा है । फिर भी 2016 के साल की घटनाओं ने चौंका दिया था । ट्रम्प और ब्रेक्जिट से पहले फिलीपीन्स के चुनाव में राष्ट्रपति के पद पर ऐसे आदमी के चुने जाने से इसकी पहली आहट मिली थी जो कानून के प्रति अपनी नफ़रत का खुला इजहार करता था और छोटे अपराधियों को तुरंत मार देने का समर्थक था । उसने मानवाधिकारों के उल्लंघन की भी वकालत की । इसके लिए उसने अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ की भी परवाह न करने और नए दोस्त खोज लेने की घोषणा की । मई में इस चुनाव के बाद जून में ब्रेक्जिट हुआ । उसी समय अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार जोरों से चल रहा था । उसमें ट्रम्प की जीत हुई । इसके बाद इस प्रवृत्ति का सिलसिला ही शुरू हो गया । यूरोप में ग्रीस और स्पेन की वाम पार्टियों को छोड़कर बाकी देशों में दक्षिणपंथ का उभार नजर आया । हालैंड में इस्लाम का प्रभाव खत्म करने का वादा करने वाले प्रत्याशी की जीत हुई । फ़्रांस के चुनाव में ल पेन की पार्टी को नस्ली खिताब को गर्व से धारण करने की सलाह दी गई । जर्मनी में भी चरम दक्षिण की पार्टी ने बढ़त बना ली है ।     

2019 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से नादिया उर्बिनाती की किताब ‘मी द पीपुल: हाउ पापुलिज्म ट्रान्सफ़ार्म्स डेमोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका का कहना है कि लोकप्रियतावाद नई चीज नहीं है । उन्नीसवीं सदी में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया के साथ ही इसका भी उदय हुआ । जिन सरकारों को इसने चुनौती दी उनके स्वरूप का प्रतिबिम्ब इनके भीतर उभरता रहा है । इस सम नई बात केवल यह है कि इसकी तीव्रता और व्याप्ति बहुत अधिक हो गई है । समकालीन राजनीति की कोई भी समझ इसको छोड़कर नहीं बनाई जा सकती । अब तक इसे या तो फ़ासीवाद का एक रूप मानकर समझा जाता रहा है या वामपंथ के पक्ष में जनता का विक्षोभ बताया जाता रहा है ।

2019 में वर्सो से मार्को रिवेली की 2017 में छपी इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवाद द न्यू पापुलिज्म: डेमोक्रेसी स्टेयर्स इन्टू द एबिस प्रकाशित हुआ । अनुवाद डेविड ब्रोडेर ने किया है । लेखक ने वर्तमान समय के दक्षिणपंथ की जड़ें लोकलुभावनवाद में खोजने की कोशिश की है । इस दौर की यह खास परिघटना है । पहले इसका उभार परिधि के देशों में हुआ था लेकिन इस समय केंद्र के पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में इसकी तूती बोल रही है । ब्रेक्सिट से शुरू होकर इसका प्रसार लगभग समूची पश्चिमी दुनिया में हुआ और एक के बाद एक देशों में इस राजनीतिक प्रवृत्ति के नेताओं की सरकारें बनीं । इसका खास नारा परदेशी के प्रति भय पैदा करना है और मानवाधिकार तथा नागरिक अधिकारों से इसकी दुश्मनी है । इसे लोकतंत्र की चुनौती के रूप में समझना ठीक होगा । इन चुनौतियों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के सन्तुलन को गड़बड़ा दिया है । लगता है कि लोकतंत्र की संस्थाओं और उनको मिलने वाली इस सामाजिक चुनौती के बीच टकराव पैदा हो गया है । इस टकराव के नतीजे का अनुमान लगाना मुश्किल है । लोकतंत्र और पापुलिज्म का जन्म एक साथ हुआ है । ग्रीक के डेमोस और लैटिन के पापुलस का एक ही अर्थ है । इसीलिए लेखक ने पापुलिज्म को लोकतंत्र की किसी गम्भीर बीमारी का लक्षण माना है । लोकतंत्र के समकालीन स्वरूप के स्रोत को तलाशते हुए लेखक ने इसे शासन में जनता की भागीदारी के सपनों के ध्वंस के बाद आधुनिक समय में स्थापित एक समझौता माना है । इसमें जब भी लोगों को अपने प्रतिनिधित्व का अभाव नजर आया तो प्रतिक्रिया के बतौर पापुलिज्म का उभार हुआ । इसके तहत ही मताधिकार के विस्तार संबंधी अभियानों को समझा जाना चाहिए । तब बहिष्कृतों की ओर से लोकतंत्र पर लोकप्रिय दबाव पड़ा था । इस बार समाहित लोगों के एक समूह की ओर से यह दबाव आया है । पापुलिज्म के इस इतिहास के कारण इसे आधुनिक प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र की स्थायी छाया भी समझा गया है । इस परिघटना को परिभाषित करना बहुत मुश्किल है । स्थापित व्यवस्था के विरोध में उठे समस्त आंदोलनों को इसमें शामिल कर लिया जाता है । इसलिए लेखक का कहना है कि पापुलिज्म के बारे में सोचते हुए उसकी इस विविधता को ध्यान में रखना चाहिए । ऐतिहासिक रूप से इस समय के पापुलिज्म को इसका दूसरा या तीसरा संस्करण समझना होगा ।        

2019 में स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविड एच कामेन्स की किताब ‘ए न्यू अमेरिकन क्रीड: द एकलिप्स आफ़ सिटिजेनशिप ऐंड राइज आफ़ पापुलिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।

2020 में रटलेज से मार्को दमियानी की किताब ‘पापुलिस्ट रैडिकल लेफ़्ट पार्टीज इन वेस्टर्न यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के अनुसार वाम और पापुलिज्म का आपस में विरोध माना जाता है लेकिन इन दोनों को एक साथ देखना पश्चिमी यूरोप की हालिया स्थिति को समझने के लिए जरूरी हो गया है ।

2020 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से अहमद दावुतोग्लू की तुर्की में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘सिस्टेमेटिक अर्थक्वेक ऐंड द स्ट्रगल फ़ार वर्ल्ड आर्डर: एक्सक्लूसिव पापुलिज्म वर्सस इनक्लूसिव डेमोक्रेसी’ प्रकाशित गुआ । यह अनुवाद एंड्र्यू बूर्ड ने किया है । किताब की प्रस्तावना रिचर्ड फ़ाल्क ने लिखी है । लेखक तुर्की के पूर्व प्रधानमंत्री हैं ।

2020 में नोमोस से बेंजामिन क्रामेर और क्रिस्टीना होल्ट्ज़-बाका के संपादन में ‘पर्सपेक्टिव्स आन पापुलिज्म ऐंड द मीडिया’ का प्रकाशन हुआ । संपादक का कहना है कि इस विषय पर ढेर सारी किताबें पहले से मौजूद हैं । इसकी परिभाषा निश्चित न होने के बावजूद कहा जा सकता है कि इसमें जन और अभिजन के बीच अंतर किया जाता है, इसके उभार से उदार लोकतंत्र को खतरा पैदा हुआ है और इसके नेता टेलीविजन, प्रेस और इंटरनेट के माध्यमों के इस्तेमाल में बहुत कुशल होते हैं ।  

2020 में रटलेज से अन्ना शोबेर के संपादन में ‘पापुलराइजेशन ऐंड पापुलिज्म इन द विजुअल आर्ट्स: अट्रैक्शन इमेजेज’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में बारह लेख संकलित हैं । किताब में आजकल के तानाशाहों की आकर्षक तस्वीरों से मोह की परिघटना का विश्लेषण किया गया है । इससे पहले की गुमनामी की संस्कृति से इसे अलगाया जा रहा है ।

2020 में पालग्रेव मैकमिलन से माइकेल क्रानेर्ट के संपादन मेंडिसकर्सिव अप्रोचेज टु पापुलिज्म एक्रास डिसीप्लिन्स: द रिटर्न आफ़ पापुलिस्ट्स ऐंड द पीपुलका प्रकाशन हुआ । किताब के छह भागों में सोलह लेख संकलित हैं । पहले भाग में शैक्षिक और राजनीतिक विमर्श में पापुलिज्म की विवादग्रस्त धारणा पर संपादक ने दो लेख शामिल किये हैं । दूसरे भाग में पापुलिस्ट और राष्ट्रवादी विमर्श में सम्पर्क और तनाव का विश्लेषण दो लेखों में किया गया है । तीसरे भाग के चार लेख उत्तर सत्य और पापुलिज्म के संबंध की छानबीन करते हैं । चौथे भाग के एकमात्र लेख में जेंडर और यौनिकता के प्रसंग में पापुलिज्म को देखा गया है । इसी प्रकार पांचवें भाग के चार लेख पापुलिज्म के वामपंथी और दक्षिणपंथी विमर्श की चर्चा करते हैं । छठवें भाग के तीन लेख राजनीतिक फलक के भीतर पापुलिज्म की मौजूदगी को समझने की कोशिश करते हैं । 

2020 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से गेराल्ड एल न्यूमैन के संपादन में ‘ह्यूमन राइट्स इन ए टाइम आफ़ पापुलिज्म: चैलेन्जेज ऐंड रिस्पांसेज’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कुल ग्यारह लेख संकलित हैं जिनमें पहला और आखिरी लेख संपादक ने भूमिका और उपसंहार के बतौर लिखा है । किताब की पृष्ठभूमि दक्षिणपंथी उभार से बनी है ।

2020 में ट्रान्सक्रिप्ट से गैब्रिएल डाइट्ज़े और जुलिया राथ के संपादन में ‘राइट-विंग पापुलिज्म ऐंड जेंडर: यूरोपीयन पर्सपेक्टिव्स ऐंड बीयान्ड’ का प्रकाशन हुआ ।

2020 में यूनिवर्सिटी आफ़ पेनसिल्वानिया प्रेस से डोनाल्ड टी क्रिचलो की किताबइन डिफ़ेन्स आफ़ पापुलिज्म: प्रोटेस्ट ऐंड अमेरिकन डेमोक्रेसीका प्रकाशन हुआ ।

2020 में इमेराल्ड पब्लिशिंग से ओस्कर गार्शिया आगस्तीन की किताब ‘लेफ़्ट-विंग पापुलिज्म: द पोलिटिक्स आफ़ द पीपुल’ का प्रकाशन हुआ ।

2020 में स्प्रिंगेर से फ़ोल्केर कौल और अनन्या वाजपेयी के संपादन में ‘माइनारिटीज ऐंड पापुलिज्म- क्रिटिकल पर्सपेक्टिव्स फ़्राम साउथ एशिया ऐंड यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के अठारह लेख चार भागों में हैं । पहले भाग में दोनों संपादकों के एक एक लेख पापुलिज्म को समझने के बारे में हैं । दूसरे भाग में अल्पसंख्यकों के साथ पापुलिज्म के रिश्तों का विश्लेषण तीन लेखों में है । तीसरे भाग के आठ लेख मुस्लिम समुदाय का अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के रूप में विवेचन करते हैं । आखिरी चौथे भाग में पांच लेख हैं जिनमें अल्पसंख्यक समस्या के साथ लैंगिक और जातिगत सवालों की उलझन को स्पष्ट किया गया है ।

2020 में मेट्रोपोलिटन बुक्स से थामस फ़्रैंक की किताब ‘द पीपुल, नो: ए ब्रीफ़ हिस्ट्री आफ़ एन्टी-पापुलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने सबसे पहले इस शब्द को सही अर्थ दिया है । उनका कहना है कि अमेरिकी व्यवस्था में नीचे की आधी आबादी के आर्थिक विक्षोभ को पापुलिज्म कहा जा सकता है । यह ऐसा आंदोलन था जिसमें आम अमेरिकी लोग देश की विषमता को सामूहिक प्रयास से बदलने के बारे में सोचने को प्रवृत्त हुए । इससे पता चला कि लोकतंत्र के आदी लोग असहनीय और निर्मम पदानुक्रम के समक्ष किस तरह प्रतिक्रिया दे सकते हैं । उनका कहना है कि कुछेक साल पहले हम अमेरिकी लोग अपने कामों का मकसद जानते थे । इसके लिए हमारे विशेषज्ञ लगे हुए थे । जो शासक अच्छे थे उन पर धन की बरसात की जाती थी, जिन्हें बुरा कहा जाता था उन पर अर्थदंड लगाया जाता था । इसे अमेरिकी लोग लोकतंत्र के वैश्विक प्रसार का अभियान समझते थे ।    

2020 में पोलिटी से बेंजामिन मोफ़िट की किताबपापुलिज्मका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि इस सदी में विश्व राजनीति में पापुलिज्म सबसे अधिक चर्चित धारणा है । इसके भीतर तमाम तरह के नेताओं, पार्टियों और आंदोलनों को शामिल किया जाता है । ये चरम दक्षिणपंथी से लेकर वामपंथी तक हैं । इस धारणा के भीतर ब्रेक्सिट जैसी कुछ घटनाओं को भी गिना जाता है । कैम्ब्रिज शब्दकोश में इसे 2017 का वार्षिक शब्द घोषित किया गया । इसे स्थानीय के साथ वैश्विक परिघटना कहा गया । प्रवास, व्यापार, उदग्र राष्ट्रवाद और आर्थिक विक्षोभ के माहौल के साथ इसे जोड़ा गया ।    

2020 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविड एम रिकी की किताब ‘ए पोलिटिकल साइंस मेनिफ़ेस्टो फ़ार द एज आफ़ पापुलिज्म: चैलेंजिंग ग्रोथ, मार्केट्स, इनइक्वलिटी, ऐंड रिजेन्टमेन्ट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के अनुसार दुनिया के  तमाम बौद्धिक इस समय आशंकित हैं कि पापुलिज्म के चलते लोकतंत्र समाप्त हो जा सकता है । ये लोग मान रहे हैं कि जनता में बाजार आधारित अर्थतंत्र जनित वंचना के विरुद्ध गुस्सा है । 

2020 में पालग्रेव मैकमिलन से हैरी कोलिन्स, राबर्ट इवान्स, दारिन द्युरान्त और मार्टिन वेइनेल की किताब ‘एक्सपर्ट्स ऐंड द विल आफ़ द पीपुल: सोसाइटी, पापुलिज्म ऐंड साइंस’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का कहना है कि पश्चिम में पापुलिज्म के उदय से वैज्ञानिकों की विशेषज्ञता पर हमले बढ़े हैं । बहुलतावादी लोकतंत्र के विरोध के चलते ही ये लोग वैज्ञानिक विशेषज्ञता का भी विरोध करते हैं । चुनाव में हारे और सरकार के काम में रुकावट डालने वालों को गद्दार कहा जाता है । दूसरी ओर लोकतंत्र ने सरकार की ताकत पर रोकथाम के जरिए अल्पसंख्या को समायोजित करने का रास्ता अपनाया है । 

2020 में रटलेज से गिओर्गोस चरलम्बोस और ग्रेगोरिस इयानू के संपादन में ‘लेफ़्ट रैडिकलिज्म ऐंड पापुलिज्म इन यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त तीन भागों में दस लेख संकलित हैं । पहले भाग में क्रांतिकारी वामपंथ और लोकप्रियवाद के इतिहास को बताने वाले लेख हैं । दूसरे भाग के लेखों में समकालीन क्रांतिकारी वाम पार्टियों और लोकप्रियवाद का विवेचन किया गया है । तीसरे भाग में सामाजिक आंदोलनों, लोकप्रियवाद और समाजवादी रणनीति पर विचार किया गया है । संपादकों का कहना है कि यूरोप में विभिन्न समय और विभिन्न जगहों पर क्रांतिकारी वामपंथ और लोकप्रियवाद के बीच रिश्तों की छानबीन करना किताब का मकसद है । बीसवीं सदी में लोकप्रियवाद को वामपंथ के साथ जोड़कर नहीं देखा गया । वामपंथी लेखन और विचार में भी इसे जगह नहीं दी गई । लैटिन अमेरिका में 1950 दशक के बाद से वामपंथ का जो स्वरूप सामने आया उसके बाद इस रिश्ते पर विचार करने का मौका पैदा हुआ । वेनेजुएला में ह्यूगो शावेज को इस नई प्रवृत्ति का पुरस्कर्ता माना गया । सोवियत संघ के पतन और यूरोप में नवउदारवाद के प्रसार के बाद सदी के मोड़ पर लैटिन अमेरिका में ही वाम विचारों की मजबूत उपस्थिति नजर आई । उनके आधार पर बने ऐसे संगठन भी उभरे जो सामाजिक न्याय और जनता की लोकशाही जैसे आदर्शों को अमल में लाने के लिए प्रतिबद्ध थे । नई सदी में यूरोप में भी इस तरह की प्रवृत्ति का उभार नजर आया । यूरोप में दक्षिणपंथी लोकप्रियता के उभार के कुछ ही समय बाद यह नई चीज दिखाई पड़ी । 2008 के आर्थिक संकट के बाद तो इसमें इजाफ़ा ही हुआ ।     

2020 में बम्बार्डियेर से रयान जेम्स गिर्दुस्की और हर्लान हिल की किताब ‘दे आर नाट लिसेनिंग: हाउ द एलीट्स क्रियेटेड द नेशनलिस्ट पापुलिस्ट रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ ।

2021 में रटलेज से कैरोलीन नोबल और गोएट्ज़ ओटमान की संपादित किताब ‘द चैलेन्ज आफ़ राइट-विंग नेशनलिस्ट पापुलिज्म फ़ार सोशल वर्क: ए ह्यूमन राइट्स अप्रोच’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कुल सोलह लेख हैं जिनमें पहला लेख संपादकों की लिखी प्रस्तावना है ।

2021 में कैम्ब्रिज स्कालर्स पब्लिशिंग से मारिया शिया चांग और ए जेम्स ग्रेगोर की किताब ‘पोलिटिकल पापुलिज्म इन द ट्वेन्टी-फ़र्स्ट सेन्चुरी: वी द पीपुल’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब के तीन अध्याय ए जेम्स ग्रेगोर ने लिखे थे । उनके मरणोपरांत उनकी पत्नी ने शेष अध्याय लिखकर इस परियोजना को पूरा किया है ।

2021 में रटलेज से आयन स्कून्स, मार्क एडलमैन, सातुर्निनो एम बोरास जूनियर, लीदा फ़ेर्नान्दा फ़ोरेरो, रूथ हाल, वेंडी वोलफ़ोर्ड और बेन ह्वाइट के संपादन में ‘आथरिटेरियन पापुलिज्म ऐंड द रूरल वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ ।

2021 में प्लूटो प्रेस से मरीना प्रेन्तूलिस की किताब ‘लेफ़्ट पापुलिज्म इन यूरोप: लेसन्स फ़्राम जेरेमी कोरबीन टु पोदेमास’ का प्रकाशन हुआ । किताब तब लिखी गयी जब वाम पापुलिज्म का खात्मा हो रहा था और ब्रेक्जिट के सहारे दक्षिणपंथ का उभार हो रहा था इसलिए किताब पर तात्कालिक प्रभाव कम है ।

2021 में मानचेस्टर यूनिवर्सिटी प्रेस से ब्रायन इलियट की किताब ‘द रूट्स आफ़ पापुलिज्म: नियोलिबरलिज्म ऐंड वर्किंग-क्लास लाइव्स’ का प्रकाशन हुआ ।

2021 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से आर जे बी बासवर्थ की किताब ‘मुसोलिनी ऐंड द एकलिप्स आफ़ इटैलियन फ़ासिज्म: फ़्राम डिक्टेटरशिप टु पापुलिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।

2021 में रटलेज से कैरोलीन नोबल और गोएट्ज़ ओटमान की संपादित किताब ‘द चैलेन्ज आफ़ राइट-विंग नेशनलिस्ट पापुलिज्म फ़ार सोशल वर्क: ए ह्यूमन राइट्स अप्रोच’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कुल सोलह लेख हैं जिनमें पहला लेख संपादकों की लिखी प्रस्तावना है ।

2021 में रटलेज से राल्फ़ हावेर्ट्ज़ की किताब ‘रैडिकल राइट पापुलिज्म इन जर्मनी: एएफ़डी, पेडिगा, ऐंड द आइडेन्टिटेरियन मूवमेन्ट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक 2013 में एएफ़डी की स्थापना के साथ जर्मनी को उसकी अपनी दक्षिणपंथी पापुलिस्ट पार्टी मिल गयी । इस राजनीति में जर्मनी का प्रवेश थोड़ी देरी से हुआ । उस समय तक लगभग सभी पड़ोसी यूरोपीय देशों में पापुलिस्ट पार्टियों की आमद हो चुकी थी । कुछ तो सरकार में शामिल होने की हद तक सफल भी हो चुकी थीं । जल्दी ही यह पार्टी जर्मनी का मुख्य विपक्षी दल हो गयी । अन्य यूरोपीय देशों के राजनीतिक हालात के मेल में जर्मनी भी आ गया । जर्मनी के हिटलरी अतीत के चलते ऐसी किसी पार्टी की चुनावी सफलता आश्चर्य की बात है ।     

2021 में वेरनान प्रेस से निकोलस मोरीसन की किताब ‘रिलीजन ऐंड द पापुलिस्ट रैडिकल राइट: सेकुलर क्रिश्चियनिज्म ऐंड पापुलिज्म इन वेस्टर्न यूरोप’ का प्रकाशन हुआ ।

2021 में रटलेज से हावर्ड टम्बर और सिल्वियो वेइसबोर्ड के संपादन में ‘द रटलेज कम्पैनियन टु मीडिया डिसइनफ़ार्मेशन ऐंड पापुलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में बावन लेख संकलित हैं । इनमें पहला लेख संपादकों का ही है । शेष लेखों को पांच हिस्सों में रखा गया है । पहले में विषय की मुख्य धारणाओं का परिचय है, दूसरे में मीडिया की गलत सूचना और झूठ पर विचार है, तीसरे में भ्रम और झूठ की राजनीति का विवेचन है, चौथे में मीडिया और पापुलिज्म का विश्लेषण है और पांचवें हिस्से में भ्रम, झूठ और पापुलिज्म पर रुख के बारे में लिखे लेख शामिल किये गये हैं ।

2021 में द सिडनी सिम्पोजियम आफ़ सोशल साइकोलाजी से जोसेफ पी फ़ोर्गास, विलियम डी क्रानो और क्लाउस फ़ाइडलर के संपादन में ‘द साइकोलाजी आफ़ पापुलिज्म: द ट्राइबल चैलेन्ज टु लिबरल डेमोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल अठारह लेख चार हिस्सों में हैं । पहले हिस्से में पापुलिस्टों की इच्छा, दूसरे में उनके दिमाग, तीसरे में आधुनिकता से पहले की पहचानों और चौथे में उनके रचे आख्यानों और प्रचार से जुड़े लेख रखे गये हैं । कुछ ही दशक पहले जब फ़ुकुयामा ने इतिहास के अंत और पश्चिमी उदार लोकतंत्र तथा बाजार आधारित पूंजीवाद की अपरिहार्य विजय की घोषणा की थी तो कौन कह सकता था कि दुनिया भर में तानाशाह पापुलिस्ट आंदोलनों का उभार होने ही वाला है । हंगरी के तानाशाह उदार लोकतंत्र की जगह कोई अनुदार लोकतंत्र स्थापित करना चाहते हैं । इसी नाटकीय बदलाव को समझने के लिए राजनीतिशास्त्र और मनोविज्ञान के जानकारों ने यह किताब तैयार की है । प्रबोधनजन्य मानवतावाद, व्यक्तिवाद और तार्किकता के उदार मूल्यों को खारिज करके युगों पुरानी झुंड और मसीहाई की प्रवृत्तियों को लोगों ने अप्रत्याशित रूप से क्यों अपनाया? आखिर राजनीतिक व्यवस्था मानव प्रकृति और मनोविज्ञान की ही अभिव्यक्ति होती है । उदारवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता, स्वायत्तता और पसंद को राजनीतिक व्यवस्था की प्राथमिक बुनियाद बताता है । इसके विपरीत पापुलिज्म हमारी कबीलाई झुंडवादी प्रवृत्ति को उभारता है । इसका प्रभाव फिलहाल दक्षिण के साथ वाम पर भी देखा जा रहा है ।       

2021 में स्प्रिंगेर से जैकब श्वोरेर की किताब ‘द ग्रोथ आफ़ पापुलिज्म इन द पोलिटिकल मेनस्ट्रीम: द कनटेजियन इफ़ेक्ट आफ़ पापुलिस्ट मेसेजेज आन मेनस्ट्रीम पार्टीज’ कम्युनिकेशन’ का प्रकाशन हुआ । किताब में जर्मनी, इटली, आस्ट्रिया और स्पेन की मुख्यधारा की राजनीति पर चरम दक्षिणपंथी पापुलिज्म के बढ़ते प्रभाव का विश्लेषण हुआ है । इन दक्षिणपंथी पार्टियों के बारे में तो बहुत सारा शोध हुआ है लेकिन उनके बारे में मुख्यधारा की राजनीति के रुख पर कम ही बात हुई है । आम तौर पर इसे छूत की तरह मान लिया जाता है । इसकी जगह लेखक का कहना है कि मुख्यधारा की राजनीति में दक्षिण और वाम विचारों की खींचतान अब भी जारी है ।    

2021 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से केन्ट जोन्स की किताब ‘पापुलिज्म ऐंड ट्रेड: द चैलेन्ज टु द ग्लोबल ट्रेडिंग सिस्टम’ का प्रकाशन हुआ ।

2021 में रटलेज से डैनिएल अलबेर्ताज़ी और दाविद वाम्पा के संपादन में ‘पापुलिज्म ऐंड न्यू पैटर्न्स आफ़ पोलिटिकल कम्पेटीशन इन वेस्टर्न यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त किताब में कुल बारह लेख संकलित हैं । इन्हें दो हिस्सों में रखा गया है । पहले हिस्से के दो लेख क्रमश: यूरोप में पापुलिज्म और लोकतंत्र तथा राजनीतिक पार्टियों की रणनीति का विश्लेषण करते हैं । दूसरे हिस्से के शेष लेखों में विभिन्न देशों के ठोस उदाहरणों का विवेचन किया गया है ।  

2021 में रटलेज से डेविड कायला की किताब ‘पापुलिज्म ऐंड नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।

2021 में ब्रिल से सूक जोंग ली, चिन-एन वू और कौस्तुभ कांति बंद्योपाध्याय के संपादन में ‘पापुलिज्म इन एशियन डेमोक्रेसीज: फ़ीचर्स, स्ट्रक्चर्स, ऐंड इम्पैक्ट्स’ का प्रकाशन हुआ ।

2021 में रटलेज से पियरे ओस्तिगाइ, फ़्रांसिस्को पनिज़ा और बेंजामिन मोफ़िट के संपादन में ‘पापुलिज्म इन ग्लोबल पर्सपेक्टिव: ए पर्फ़ार्मेटिव ऐंड डिसकर्सिव अप्रोच’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त किताब में शामिल ग्यारह लेख दो हिस्सों में संयोजित हैं । पहले हिस्से में विषय के सैद्धांतिक पहलू के बारे में दो लेख संपादकों ने ही लिखे हैं । दूसरे हिस्से के नौ लेखों में वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पापुलिज्म की पहचान की गयी है । इसमें लैटिन अमेरिका से लेकर यूरोपीय मुल्कों तक में वामपंथी और दक्षिणपंथी पापुलिस्ट सत्ता और आंदोलनों का विवेचन हुआ है । असल में विगत कुछ वर्षों से लोकतंत्र की समाप्ति के लक्षण नजर आ रहे हैं और इसके साथ ही पापुलिस्ट नेताओं का बड़े पैमाने पर उदय हुआ है ।  

2021 में पोलिटी से पाओला बिगलियेरी और लुचियाना कडाहिया की किताब का अंग्रेजी अनुवादसेवेन एसेज आन पापुलिज्म: फ़ार रिन्यूड थियरेटिकल पर्सपेक्टिवका प्रकाशन हुआ अनुवाद जार्ज चिकारियेलो-माहेर ने किया है किताब की प्रस्तावना वेन्डी ब्राउन ने लिखी है । उनका कहना है कि इस समय पापुलिज्म शब्द का उपयोग गैर जिम्मेदार लफ़्फ़ाजों द्वारा जन विक्षोभ जनित कट्टर भावनाओं की दक्षिणपंथी गोलबंदी के लिए गम्भीर के साथ ही पत्रकारीय लेखन में भी हो रहा है । इसे उदारवाद के साथ ही संवैधानिकता, सार्वभौमिकता, राज्य के नियंत्रण और लोकतांत्रिक संस्थाओं का प्रचंड विरोधी समझा जा रहा है

2021 में पालग्रेव मैकमिलन से गुलियानो बोबा और निकोलस हुबे के संपादन में ‘पापुलिज्म ऐंड द पोलिटिसाइजेशन आफ़ द कोविड-19 क्राइसिस इन यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब में संकलित दस लेखों में पहला और अंतिम लेख संपादकों के लिखे हुए हैं । उनका कहना है कि पापुलिज्म और संकटों के बीच रिश्तों के बारे में तमाम किस्म की बातें हो सकती हैं । उनमें से बहुतों का मानना है कि संकटों के चलते लोकप्रिय गोलबंदियों की शुरुआत होती है । कोरोना का असर दुनिया भर में एक तरह का नहीं रहा लेकिन स्वास्थ्य और आर्थिक बदहाली द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इतने बड़े पैमाने पर देखने में नहीं आयी थी । राजनीति की दुनिया में इससे होनेवाले बदलाव प्रत्यक्ष नहीं हुए हैं लेकिन इसके लिए बहिरागतों पर दोषारोपण शुरू हो चुका है । संपादकों ने स्पष्ट किया है कि पापुलिज्म की परिभाषा के बारे में बहस जारी है । निश्चित नहीं कि इसे विचारधारा कहें, संप्रेषण की शैली कहें या रणनीति कहें ।  

2021 में रटलेज से पेतार स्तानकोव की किताब ‘द पोलिटिकल इकोनामी आफ़ पापुलिज्म: ऐन इंट्रोडक्शन’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही समाजार्थिक और पहचान के मुद्दों पर लोगों का ध्रुवीकरण होता रहा है । युद्धों और आर्थिक संकटों के समय यह ध्रुवीकरण तेज होता रहा है ।

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