Friday, April 23, 2021

क्रांतिकारी दुनिया

 

                              

2021 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविड मोटाडेल के संपादन में ‘रेवोल्यूशनरी वर्ल्ड: ग्लोबल अपहीवेल इन द माडर्न एज’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में दस लेख संकलित हैं जिनमें क्रमश: अटलान्टिक की क्रांतियों, 1848 की क्रांतियों, पेरिस कम्यून, प्रथम विश्वयुद्ध से पहले की संवैधानिक क्रांतियों, रूस की कम्युनिस्ट क्रांति, 1919 के विल्सनी उभारों, तीसरी दुनिया की क्रांतियों, इस्लामी क्रांति, 1989 की क्रांतियों और अरब देशों की हालिया क्रांतियों का विश्लेषण किया गया है । संपादक का कहना है कि क्रांतियों ने इतिहासकारों का ध्यान हमेशा खींचा है । शायद इसीलिए हेगेल ने फ़्रांसिसी क्रांति के वैश्विक महत्व के बारे में कहा कि इससे केवल एक देश नहीं पूरी दुनिया का इतिहास बदल जायेगा । उस समय के फ़्रांसिसी क्रांतिकारी भी इस बात को मानते थे । इसी तरह 1848 की क्रांतियों के समय मार्क्स और एंगेल्स ने सारी दुनिया के मजदूरों का क्रांति के लिए आह्वान किया था । लेनिन ने भी 1917 की क्रांति के बाद सारी दुनिया के उत्पीड़ित जनगण से एक होकर विश्वक्रांति करने का आवाहन किया था । 1989 की हलचलों के बाद फ़ुकुयामा को भी दुनिया का इतिहास बदलता हुआ प्रतीत हुआ था । आधुनिक युग की सभी क्रांतियों ने खुद को वैश्विक महत्व का माना और उन्हें मानव इतिहास का नया युग कहा । असल में इन क्रांतियों में सार्वभौमिक विचार तो मुखर हुए ही थे, उनकी भौगोलिक पहुंच भी एक देश तक सीमित नहीं रही । अधिकांश क्रांतियां देश की सीमा लांघकर पूरे इलाके या दुनिया में फैलीं ।

इस तरह की सबसे पहली क्रांतिकारी लहर का जन्म 1776 में अमेरिका में हुआ जो 1789 में फ़्रांस तक पहुंच गयी । आजादी के आदर्श से प्रेरित इन क्रांतिकारियों ने पुराने शासक कुलीनों और औपनिवेशिक प्रभुओं का तख्ता पलट दिया । फिर 1791 की हैती की क्रांति, 1798 की आयरलैंड की क्रांति और लैटिन अमेरिकी देशों में क्रांतिकारी युद्धों का सिलसिला शुरू हुआ । इसी दौरान हालैंड, बेल्जियम, पोलैंड और तुर्क साम्राज्य में भी ऐसी ही क्रांतिकारी लहर दौड़ पड़ी । 1848 की क्रांतियों की लहर तो इनसे भी अधिक घनिष्ठ रूप से आपस में जुड़ी हुई थी । समूचे यूरोप में उदारवाद और राष्ट्रवाद के विचारों से अनुप्राणित होकर क्रांतिकारियों ने तत्कालीन बादशाहत का मुकाबला करने के लिए बैरीकेड खड़े कर लिये । जनवरी में इटली से विद्रोह की शुरुआत हुई, फ़रवरी में फ़्रांस में उसका आगमन हुआ । फिर तो जर्मनी, हालैंड, डेनमार्क और आयरलैंड तक उसकी चपेट में आ गये । सैनिक शासन लगाकर हजारों को कत्ल करके अधिकांश देशों में इनको दबा दिया गया । आखिरकार यह क्रांतिकारी उथल पुथल यूरोप के समुद्र पार के उपनिवेशों तक जा पहुंची ।

एशिया में इसका परिणाम बीसवीं सदी के पूर्वार्ध की संवैधानिक क्रांतियों के रूप में प्रकट हुआ । जापान के हाथों रूस की पराजय ने 1905 की रूसी क्रांति को गति दी, फ़ारस में संवैधानिक क्रांति हुई और 1908 के आते आते तुर्की में युवा तुर्क क्रांति संपन्न हो गयी । इसी कड़ी में 1911 में चीन की क्रांति को भी देखना उचित होगा । रूस और जापान की लड़ाई में संविधान वाली एक एशियाई ताकत संविधानविहीन यूरोपीय ताकत को परास्त करने में सफल हुई । इसी वजह से एशिया के जो भी क्रांतिकारी कार्यकर्ता और सुधारक पुराने समाज और तानाशाही शासन प्रणाली का विरोध कर रहे थे उनके आदर्श के बतौर जापान की व्यवस्था नजर आयी । संवैधानिक क्रांति की लहर धुर पूरब से मध्य पूर्व होते हुए यूरोप पहुंची जहां ग्रीस और पुर्तगाल में संवैधानिक शासन कायम हुआ ।

रूसी क्रांति के असरात भी वैश्विक रहे । इसके प्रभाव में दुनिया भर के क्रांतिकारी व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में जुट गये । यूरोप के बाहर भी असंख्य आंदोलनों को इससे प्रेरणा मिली । इसी समय उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों की बाढ़ आ गयी । थोड़े समय बाद यह लहर शांत हो गयी और आजादी की उम्मीद पूरी नहीं हुई । फिर कुछ ही समय बाद उपनिवेशवाद विरोधी क्रांतिकारियों की सक्रियता शुरू हुई । शीतयुद्ध के दौरान तीसरी दुनिया की क्रांतियों ने एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका को हिलाकर रख दिया । विश्व क्रांति के मार्क्सवादी आवाहन ने अमेरिकी सत्ता की नींद हराम कर दी थी । विडम्बना यह रही कि शीतयुद्ध का खात्मा कम्युनिस्ट शासनों के विरुद्ध वैश्विक क्रांति से हुआ । पोलैंड से इसकी शुरुआत हुई, हंगरी, पूर्वी जर्मनी, बुल्गारिया और चेकोस्लोवाकिया होते हुए आखिर रोमानिया में चाउसेस्कू शासन के उन्मूलन से इसका अंत हुआ । इनके बाद की हालिया लहर अरब मुल्कों की क्रांति के साथ आयी थी । किताब का मकसद यही बताना है कि क्रांतियां आम तौर पर वैश्विक होती हैं ।

इनमें अंतर भी रहे हैं । अब तक इनके अध्ययन में अंतरों पर ही जोर दिया जाता रहा है । इसके बावजूद संपादक ने जोर दिया है कि इनकी सहकालिकता आपसी सम्पर्क को देखने के लिए मजबूर करती है । इन सम्पर्कों को उस समय के क्रांतिकारियों ने भी चिन्हित किया था । कुछ ऐसे भी सम्पर्क रहे हैं जो उस समय नहीं दिखायी देते थे लेकिन अब उन्हें इतिहासकार देख सकते हैं । असल में ये सम्पर्क कभी कभी परोक्ष भी होते हैं । बड़े युद्ध, वैश्विक आर्थिक संकट या साम्राज्यों के अंत जैसे कुछ संरचनागत बदलाव इन सबको एक साथ प्रभावित करते हैं । इनके कारण विभिन्न देशों में सत्ता के लिए संघर्ष लगभग एक ही समय शुरू हो जाता है । इसका एक ज्वलंत उदाहरण प्रथम विश्वयुद्ध है जिसके चलते 1917 से क्रांतिकारी विस्फोटों की झड़ी लग गयी थी । इसके अतिरिक्त देशों की सरहदों के आर पार क्रांतिकारी आंदोलनों का प्रत्यक्ष सम्पर्क भी हो सकता है । साम्राज्यवाद, व्यापार और वाणिज्य तथा संचार और परिवहन के आधुनिक साधनों से दुनिया भर के देशों में सम्पर्क घनिष्ठ हुआ है । जैसे जैसे यह एकीकरण बढ़ता गया वैसे ही वैसे क्रांतियों का वैश्विक होना भी तेज होता गया है ।

लगभग सभी क्रांतिकारी नेता घुमक्कड़ रहे हैं । उन्होंने तमाम देशों की यात्रा की । उन्होंने सहयोग और क्रांतिकारी सामाजिकता के नये सूत्र समूचे साम्राज्य में या पारदेशीय स्तर पर स्थापित किये । कभी कभी वे ऐसी सरकारों के साथ भी सम्पर्क बनाते थे जो क्रांति में मदद करने की इच्छा रखती थीं । जिन देशों में क्रांतिकारी सरकारें होती थीं वे अक्सर विदेश के क्रांतिकारी आंदोलनों को सैनिक या असैन्य सहायता देती थीं । इससे भी ज्यादा महत्व की बात क्रांतिकारी विचारों का प्रवाह थी । इनकी अनुगूंज अक्सर सीमाओं के आर पार सुनायी पड़ती थी । आधुनिक काल के अधिकांश क्रांतिकारियों ने गणतंत्र, संविधान, साम्यवाद या उदारवाद जैसे सार्वभौमिक दावे किये । उन्होंने पुराने शासकों को हटाकर लोकप्रिय किस्म की सरकारों का गठन करना चाहा । विदेश से क्रांतिकारी विचारों के आयात का व्यावहारिक पहलू उनका किसी अन्य देश में सफल होने का सबूत बन जाता था । इससे क्रांतिकारी समूह को किसी वैश्विक आंदोलन का अंग होने का गौरव बोध भी हासिल होता था । ये विचार जब एक से दूसरे देश में फैलते थे तो स्थानीय संदर्भों के मुताबिक राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में अंतर के चलते उनमें अर्थ परिवर्तन भी हो जाता था । इन क्रांतिकारी विचारों के प्रसार के लिए विविध माध्यमों का उपयोग किया जाता था । चिट्ठी, परचा, अखबार और किताबों के अतिरिक्त रेडियो, टेलीविजन, कंप्यूटर और मोबाइल फोन का भी इनके लिए इस्तेमाल होता रहा है । लेख, फोटो, गीत, कविता और तमाम कला रूप इनके प्रसार के माध्यम रहे हैं । विगत सदियों के दौरान इन विचारों को फैलाने के माध्यमों में भरपूर बदलाव आता रहा है । अटलांटिक क्रांतियों के जमाने में पानी के जहाजों पर वे समुद्र पार कर जाते थे । संचार के आधुनिक साधनों के आगमन के साथ उनके प्रसार की गति तेज हुई । संवैधानिक क्रांतियों के समय बेतार के तार के अलावे रेल और स्टीमर ने उन्हें घंटों में फैला दिया था । जैसे जैसे बीसवीं सदी आगे बढ़ी और तकनीकी विकास होता गया वैसे ही वैसे वैश्विक जन गोलबंदी में तकनीक की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती गयी ।

संपादक का मानना है कि विद्रोहों के प्रसार का अध्ययन करते हुए केंद्र से हाशिये की ओर प्रसार की धारणा को मान लेना भ्रामक होगा । अनेक मामलों में वैश्विक क्रांतिकारी आंदोलनों का गुरुत्व केंद्र यूरोप ही नहीं रहा है । हालांकि आधुनिक काल की अनेक क्रांतिकारी लहरों का जन्म यूरोप के भीतर हुआ लेकिन यूरोपीय क्रांतियों पर भी वैश्विक बदलावों का प्रभाव रहा है । उदाहरण के लिए अमेरिका की उपनिवेशवाद विरोधी क्रांति का यूरोप के सभी साम्राज्यी केंद्रों पर उल्लेखनीय असर पड़ा और उनके साम्राज्य के भीतर के जाल के सहारे स्वाधीनता के विचारों का प्रसार हुआ । असल में कोई एक केंद्र कभी रहा ही नहीं और अंतरण भी एकाधिक दिशाओं में होता रहा है क्योंकि सभी क्रांतिकारी आंदोलनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया है । क्रांतिकारी आवेग भी लहरों की तरह चलता रहा है । उसकी उठान आती है, उसके बाद बिखराव आता है तब उनका उतार हो जाता है । सहकालिक क्रांतियों में नेताओं या विचारों की यात्रा को छोड़कर भी सम्पर्क का एक और रास्ता होता है । एक जगह पर होनेवाली क्रांति दूसरे देश में समाजार्थिक या राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दे सकती है । उदाहरण के लिए अमेरिकी क्रांति में फ़्रांस का बहुत धन लगा जिससे फ़्रांस में आर्थिक संकट आने से फ़्रांसिसी क्रांति के हालात पैदा हुए ।

क्रांति की धारणा में भी काल और देश के अनुसार बदलाव आता रहा है । अलग अलग देशों में न केवल इसके लिए अलग शब्द होते हैं बल्कि उनके मतलब भी अक्सर एक समान नहीं होते । पश्चिमी दुनिया में जिस अर्थ में इसका प्रयोग किया जाता है उसमें दुनिया भर की हलचलों के बारे में जितना स्पष्ट होता है उतना अस्पष्ट रह जाता है । फ़्रांसिसी क्रांति से पहले इसका मतलब पुरानी राजनीतिक व्यवस्था में वापस पहुंचना हुआ करता था । पहले ग्रहों की गति से जुड़ी परिघटना के लिए प्रयुक्त इस शब्द को राजनीतिक शब्दावली में बाद में प्रवेश मिला । राजनीति में भी इसे चक्रीय गति की तरह ही समझा जाता था । इसके पीछे मान्यता थी कि पूरी नयी व्यवस्था का निर्माण सम्भव नहीं और प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की पूर्वनिर्धारित क्रमावधि है । तब मानव इतिहास को भी बहुत कुछ प्राकृतिक परिघटना समझा जाता था जिसमें मनुष्य के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं होती । हाब्स ने भी शासनों के एक चक्र के लिए ही इस शब्द का इस्तेमाल किया है । आज जिसे क्रांति कहा जाता है उसे उस समय विद्रोह या फ़साद कहा जाता था । इसके कारण ही हान्ना आरेन्ट का मानना था कि क्रांति का अस्तित्व आधुनिक युग से पहले नहीं था ।

प्रबोधन के समय इस शब्द का अर्थ बदलना शुरू हुआ । अब इसे मानव जनित क्रिया समझा जाने लगा । इसके साथ ही जनता की धारणा भी लोकप्रिय होना शुरू हुई क्योंकि क्रांतियों को सामूहिक प्रयास माना जाने लगा । यह भी माना जाने लगा कि क्रांतियों से पूरी तरह नयी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था का जन्म होता है । समय की भी चक्रीय समझ की जगह पर रेखीय समझ विकसित हुई । धीरे धीरे क्रांति के साथ मुक्ति और प्रगति की उम्मीद भी जुड़ती गयी । जब मार्क्स ने क्रांतियों को इतिहास का इंजन कहा तो प्रगति की इसी धारणा के तहत ऐसा माना । समझ में इस बदलाव के साथ शब्द में भी बदलाव आया और इसके लिए इंकलाब नामक अरबी शब्द लोकप्रिय हो गया । अटलांटिक क्रांतियों के बाद यही अर्थ दुनिया भर में मान्य हो गया । किताब में भी इसी अर्थ में क्रांति को समझा गया है ।

अतीत और वर्तमान के समाजों को समझने के लिए विद्वानों ने क्रांति की अलग अलग तरीके से व्याख्या की है । किसी भूभागीय राजनीतिक इकाई में शासक समूह में अचानक परिवर्तन से लेकर सामाजिक क्रांति की ऐसी धारणा तक जिसमें समाज, राजनीति और वर्गीय संरचना में तीव्र रूपांतरण हो जाता है, तमाम तरह की धारणाओं के सहारे इसे समझने की कोशिश होती है । कुछ लोग इसे शासन पर कब्जे के लिए दो समूहों की जन समर्थित होड़ के रूप में भी पेश किया है । इस किताब में किसी देश में सत्ता पर शासक की दावेदारी के विरोध में बहुसंख्यक लोगों के उठ खड़े होने से पैदा त्वरित और अक्सर हिंसक बदलाव को क्रांति के रूप में समझा गया है । साथ ही क्रांति के जन समर्थित गम्भीर प्रयासों को भी इसमें शामिल किया गया है । तख्तापलट या बाहरी हस्तक्षेप से शासक बदलने को ऐसी परिघटना नहीं माना गया है । क्रांति की परिभाषा के राजनीतिक होने के बावजूद उनका सांस्कृतिक आयाम भी प्रकट होता रहा है । राजनीतिक संस्कृति, सामाजिक वातावरण, भाषा और विश्वदृष्टि को आकार देने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । भय या उम्मीद जगाने में भी इन्होंने योग दिया है ।

क्रांतियों के दीर्घकालीन और तात्कालिक कारणों का दसियों साल तक अध्ययन किया जाता है । उनके कारक, लक्ष्य, साधन और गतिपथ के लिहाज से निजी सिविल नाफ़रमानी के सामूहिक अवज्ञा में बदलने तक और सरकारी ढांचे के नियंत्रण में बदलाव से लेकर पुराने शासकों की विश्वदृष्टि की जकड़बंदी टूटने तक इतिहास में तमाम रूप प्रकट होते रहे हैं । उनकी प्रकृति में मौजूद इस विविधता के चलते क्रांतियों का विश्व इतिहास लिखना मुश्किल है लेकिन इससे उनकी प्रकृति को समझने में मदद मिलती है ।

Tuesday, April 20, 2021

इतिहास की सीख

 

                

1992 में रटलेज से रोजर एस गाटलिएब की किताबमार्क्सिज्म 1844-1990: ओरिजीन्स, बिट्रेयल, रीबर्थका प्रकाशन हुआ । किताब के नौ अध्याय चार हिस्सों में हैं । पहले हिस्से में शुरुआत, दूसरे में विश्वासघात, तीसरे में पुनर्जन्म और चौथे में वर्तमान तथा भविष्य के प्रसंगों का विश्लेषण है । खास बात कि विश्वासघात के मामले में यूरोप की सामाजिक जनवाद की धारा के साथ ही सोवियत संघ के मार्क्सवाद को भी शामिल किया गया है । इसी तरह पुनर्जन्म के प्रकरण में पश्चिमी मार्क्सवाद और समाजवादी नारीवाद को विवेचित किया गया है । वर्तमान और भविष्य के प्रसंग में समकालीन पूंजीवाद, हालिया उत्तर मार्क्सवादियों और आध्यात्मिकता को विश्लेषित किया गया है । किताब समकालीन समाज और सभ्यता के समक्ष चुनौती पेश करती है । इस चुनौती के मूल में मनुष्य के कष्टों की गहन अनुभूति और इस जानकारी से उपजा प्रचंड विक्षोभ है कि इन कष्टों से बचा जा सकता है । बेघर और भूखे होने, स्त्रियों और बच्चों का बलात्कार और यौन उत्पीड़न, मेहनत और जमीन की चोरी तथा उम्मीद और स्वाभिमान के हनन को क्रांतिकारी लोग ईश्वर की करतूत नहीं मानते । उनको यकीन है कि इनका कारण अन्याय, शोषण, हिंसा और संगठित क्रूरता हैं जिन्हें दूर किया जा सकता है । अगर हम समता, न्याय और मनुष्य की खुशी को सामाजिक ढांचे का लक्ष्य बनायें तो वर्तमान की क्रूरता के स्थान पर भौतिक सुरक्षा, सामाजिक समरसता और आकांक्षा के साकार होने की राह खुलेगी । सुधारवादी और परोपकारी लोग भी इन चिंताओं में शरीक होते हैं लेकिन उनके मुकाबले क्रांतिकारी लोग अन्याय की समूची व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं । इस व्यवस्था के तहत खास लोगों को अपमानित किया जाता है, उनके अधिकार छीन लिये जाते हैं और उन पर अनुचित नियंत्रण रखा जाता है । इस अन्यायी तंत्र में मुट्ठी भर लोग अमीर होते जाते हैं और ज्यादातर लोग गरीबी या आर्थिक असुरक्षा का सामना करते हैं । भाग्यशाली लोग विशेषाधिकारों का उपभोग करते हैं जबकि अधिकतर लोग अपमानित होते हैं । अनंत उपभोग की हमारी आदत के चलते प्रकृति में जहर घुलता जाता है । सत्ताधारी लोगों को इससे मुनाफ़ा मिलता है जबकि इनका दोष इनके शिकार लोगों पर ही मढ़ दिये जाते हैं । इन सबके चलते लोगों की तकलीफ का कोई दीर्घकालीन समाधान व्यवस्थागत होना लाजिमी है । दमन और बहिष्करण की इस व्यवस्था ने सरकारों और अर्थतंत्र, परिवार और संस्कृति तथा विज्ञान और मनोविज्ञान को आकार दिया है । इसके कारण क्रांतिकारी लोग आंशिक सुधार पर आधारित सपनों की जगह रोज ब रोज के संघर्ष में सत्ता के समुचित वितरण, मानव गरिमा और मनुष्य के जीने लायक पर्यावरण पर जोर देते हैं । उनका मानना है कि आधुनिक अर्थतंत्र को लोकतांत्रिक नियंत्रण में लाकर उसे मुनाफ़े की जगह मनुष्य की जरूरत पूरा करने में लगाया जा सकता है, संपत्ति और सत्ता में भारी अंतर मिटाया जा सकता है और धरती को बरबाद करने की जगह उसे संरक्षित किया जा सकता है । उनका दावा है कि असली लोकतंत्र में सामान्य लोग केवल मतदान केंद्र जाने की जगह राजनीतिक और आर्थिक नीतियों को बनाने में सक्रिय भागीदारी करते हैं । इन बुनियादी बदलावों को अमल में लाने के लिए क्रांतिकारियों ने राजनीतिक पार्टी बनाने से लेकर विद्रोह संगठित करने तक तमाम तरीके अपनाये । इसके लिए व्यापक जन समूह की भागीदारी जरूरी है । नौकरशाही की ओर से क्रांति के साथ विश्वासघात रोकने का एकमात्र रास्ता शुरू से खुली बहस, आपसी सम्मान और सामूहिक सबलीकरण की आदत डालना है । कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास से यही सीख मिलती है ।                      

बहुत सारे लोग मानते हैं कि क्रांतिकारी विचार अव्यवहार्य सपना है । लेकिन अगर इस सपने को छोड़ दिया जाये तो मानवता को वर्तमान तकलीफ में ही रहने देना होगा । केवल प्रतीकात्मक सुधार होते रहेंगे । क्रांतिकारियों का यकीन है कि बुनियादी तौर पर अलग और मुक्तिकारी जीवन पद्धति के निर्माण की क्षमता मनुष्यों में है । बेहतर दुनिया का सपना तो हमेशा ही लोगों ने देखा था लेकिन अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध से कुछेक संगठित समूहों ने सामाजिक जीवन की व्यवस्थित सैद्धांतिक आलोचना शुरू की । इस आलोचना को उन्होंने ऐसे राजनीतिक आंदोलनों में साकार किया जिनका मकसद तत्कालीन आर्थिक मालिकाने और राजनीतिक नियंत्रण की व्यवस्था को उखाड़ फेंकना था । अमेरिकी क्रांतिकारियों ने सबके अनुल्लंघनीय अधिकारों को मान्यता दी और फ़्रांसिसी क्रांतिकारियों ने समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की बात की । उसके बाद मार्क्सवादी, समाजवादी, नारीवादी, राष्ट्र मुक्ति, नागरिक अधिकार, स्त्री पुरुष समलिंगी मुक्ति और पारिस्थितिकी आंदोलनों का जन्म हो चुका है । सबने पहले के आंदोलनों की उपलब्धियों का लाभ उठाया, उनकी सीमाओं की आलोचना की और नयी जमीन तोड़ी । कभी कभी इन सभी आंदोलनों से भारी गलतियां हुईं और उन्हें विफलता भी मिली । आज वे अधिक प्रत्यक्ष हैं । समाजवादी खेमे का अंत हुआ और शीतयुद्ध में अमेरिका की जीत हुई । पूंजीवाद और मुक्त बाजार का बोलबाला कायम हुआ । जो लोग कभी कम्युनिस्ट या समाजवादी कहलाते थे वे विदेशी पूंजी निवेश और आर्थिक सलाह के लिए होड़ लगाये हुए हैं ।

इसके बावजूद इन आंदोलनों को कुछ सफलता भी हासिल हुई । क्रांतिकारियों ने बेहतरी की दिशा में सामाजिक जीवन को बदला । मूलभूत आजादियों, अधिकारों और आधुनिक जीवन की भौतिक सुविधाओं के लिए ये क्रांतिकारी ही लड़े । आठ घंटे काम और यूनियन बनाने का अधिकार, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और नस्ली भेदभाव का विरोध, युद्ध विरोध और बेरोजगारी भत्ता जैसी चीजों को हासिल करने में क्रांतिकारी आगे बढ़कर लड़ते रहे । उनकी समझ के चलते जिन समस्याओं के कारण अलग अलग नजर आते थे उनमें आपसी रिश्ता नजर आने लगा । उन्होंने यह बताया कि स्त्री के प्रति यौन व्यवहार और पारिस्थितिकी विध्वंस का मूल समान है । उन्होंने निजी संपदा और विस्तारवादी विदेश नीति का आपसी सम्पर्क स्पष्ट किया । उन्होंने परिवार, कारखाने, सेना और सरकार में नियंत्रण की एक ही व्यवस्था का प्रसार सिद्ध किया ।

उनकी विफलता का कारण यह भी था कि कई बार वे उतने क्रांतिकारी नहीं रहे जितना उन्हें होना चाहिए था । वे यथोचित रूप से समावेशी और ईमानदार नहीं रहे और यह देखने को तैयार नहीं हुए कि कैसे क्रांतिकारी राजनीतिक कार्यक्रम और उनका सामूहिक आचरण दमनकारी और अन्यायी समाज का पुनरुत्पादन कर रहा है । इनकी भारी विफलताओं से पता चलता है कि क्रांतिकारी विचार को व्यापक समाज की आलोचना तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, उसे आत्मालोचन की आदत भी डालनी चाहिए । यह प्रक्रिया क्षुद्र संकीर्ण छिद्रान्वेषण में पतित न हो जाये इसके लिए इसे अतीत से सीखकर भविष्य को संवारने की कोशिश बनाना होगा । उदाहरण के लिए उत्पीड़ितों के बीच एकजुटता कायम करने की कोशिश के दौरान इस विरोधाभास का पता चला कि कोई व्यक्ति दमन की किसी एक व्यवस्था का शिकार रहते हुए भी दूसरे मामले में दमनकारी की भूमिका निभा सकता है । लेखक को आशा है कि क्रांतिकारी बदलाव और निरंतर आत्म परीक्षण में उनकी किताब मदद करेगी । इस समय इसकी जरूरत बहुत अधिक है ।