2019 में मंथली रिव्यू प्रेस से माइकेल हाइनरिह
की 2018 में छपी जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘कार्ल मार्क्स ऐंड द बर्थ आफ़ माडर्न सोसाइटी: द लाइफ़ आफ़
मार्क्स ऐंड डेवलपमेन्ट आफ़ हिज वर्क: वाल्यूम1: 1818-1843’
का प्रकाशन हुआ । इसका अनुवाद अलेक्जेंडर लोकाशियो ने किया है ।
लेखक ने सबसे पहले माफ़ी जैसा मांगते हुए मार्क्स के कुलेगमान को लिखे एक पत्र का
उल्लेख किया है जिसमें मार्क्स ने जीवनी लिखने के प्रति अपनी अरुचि को जाहिर किया
है । इंटरनेशनल में अपने काम के लिए भी सम्मानित किए जाने की प्रत्येक कोशिश को
उन्होंने हतोत्साहित किया ।
शायद इसीलिए इस किताब को लेखक ने व्यक्ति पूजा से
दूर कहा है । इसमें उस प्रक्रिया का विवेचन है जिसने मार्क्स जैसे व्यक्ति, सिद्धांतकार, राजनीतिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी को जन्म दिया । इस प्रक्रिया में
मार्क्स ने भी न केवल विश्लेषण और टिप्पणियों के प्रकाशन के जरिए बल्कि अखबारों की
स्थापना और कम्युनिस्ट लीग तथा इंटरनेशनल जैसे संगठनों को आकार देने के जरिए
हस्तक्षेप किया । जीवन के आखिरी दशक में उनके लेखन और काम की जो अंतर्राष्ट्रीय
चर्चा शुरू हुई वह आज भी जारी है । बीसवीं सदी की कई क्रांतियों और उनसे उपजी
सत्ता ने बुर्जुआ पूंजीवादी संबंधों को उलट देना चाहा और इसे मार्क्स के
सिद्धांतों से जोड़ा । आपस में लड़ने वाले बहुतेरे राजनीतिक दल और समूह भी खुद को ‘मार्क्सवादी’ कहते थे । समर्थकों या विरोधियों ने इस
चक्कर में उन्हें देवता या शैतान बना डाला । दोनों ने उनके लेखन से पसंदीदा
चुनिंदा हिस्सों का ही उपयोग किया ।
जीते जी जो कुछ भी प्रकाशित हुआ वह उनके समग्र
लेखन का बेहद छोटा हिस्सा था । बीसवीं सदी में धीरे धीरे उनका लेखन प्रकाश में आया
। इसके चलते उनके ‘समग्र’
के ढेर सारे संस्करण उपलब्ध हैं । इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में मेगा
के नाम से सचमुच उनका ‘समग्र’ छपना
शुरू हुआ है । इसके भी सभी खंड अभी नहीं छपे हैं ।
मार्क्स खुद मानते थे कि बौद्धिक उत्पादन कालबद्ध
होता है लेकिन उनके लेखन को अक्सर उसके संदर्भों से काटकर शाश्वत सत्य की तरह पेश किया
जाता है । मार्क्स की सीखने की प्रक्रिया,
जिसके चलते बार बार नई सैद्धांतिक शुरुआतें हुईं और अनेकानेक संधोधन
भी हुए, तथा सबसे आगे बढ़कर उनके काम की अपूर्णता पर सचमुच ध्यान
नहीं दिया गया । इसके बरक्स पिछले कुछ दिनों से उनके लेखन को ऐतिहासिक संदर्भ में देखने
की कोशिशें शुरू हुई हैं । लेकिन इसमें भी एक घपला है । कोशिश होती है कि वर्तमान के लिए
उनकी प्रासंगिकता को खारिज कर दिया जाए । उनकी जीवनियों को देखने से लगता है जैसे
उनके बारे में राय पहले बना ली गई और जीवन संबंधी विवरण इस राय को पुख्ता करने के
काम आएंगे । इसके विपरीत लेखक ने पिछले अनेक वर्षों से इस जीवनी पर काम करने के
दौरान उनके बारे में उपलब्ध सामग्री के आलोक में अपनी राय बदली ।
किताब एकाधिक खंडों में छपनी है । इस पहले खंड
में त्रिएर, बान और बर्लिन
में उनकी युवावस्था का वर्णन है । उनके शोध को पहला लेखन माना गया है । अन्य
जीवनियों में इस शुरुआती जीवन को एकाध अध्यायों में समेट लिया जाता है लेकिन लेखक
को इस शुरुआती समय का गहरा रिश्ता 1830 दशक की प्रशियाई राजनीति और बौद्धिक बहसों
से महसूस होता है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस शुरुआती जीवन में परवर्ती जीवन के बीज हैं, उनके परवर्ती जीवन में ढेर सारे बदलाव आए लेकिन विद्यार्थी जीवन के
अनुभवों और पढ़ाई के तरीके का संबंध परवर्ती पत्रकारिता से है । जीवनी लिखने में
विषय तो ऐतिहासिक होता ही है, लेखक भी अपने समय के सवालों से
पर्याप्त प्रभावित होता है । इस सिलसिले में लेखक ने भाषा की सीमा का जिक्र किया
है । उस समय और इस समय भी भाषा में पुल्लिंग को सार्वभौमिक माना जाता है । इसलिए
लेखक ने सचेत रूप से सामाजिक आंदोलनों के संदर्भ में स्त्रियों की भूमिका को
रेखांकित किया है । विगत आठ सालों से लेखक दुनिया के विभिन्न देशों में आयोजित
सम्मेलनों में जाते रहे । इस अनुभव के अतिरिक्त उन्होंने खुद विभिन्न अनुशासनों और
क्षेत्रों में कार्यरत लोगों के साथ सलाह मशविरा किया ।
किताब की शुरुआत ‘पूंजी’ की पांडुलिपि प्रकाशक को
सौंपने के लिए की गई यात्रा के वर्णन से होती है । किताब ने उनकी ‘सेहत, खुशी और परिवार’ की बलि
ले ली थी । कुछ समय बाद सितम्बर 1867 में किताब छप गई । इस पर काम की शुरुआत तेईस
साल पहले 1844 में हुई थी । 1845 में एक प्रकाशक के साथ दो खंडों में छपाई का
अनुबंध भी हो गया था । लेकिन फिर मित्र एंगेल्स के साथ मिलकर एक नया ही काम शुरू
कर दिया था । नब्बे साल बाद ‘जर्मन विचारधारा’ के नाम से उसका प्रकाशन हुआ । अर्थशास्त्र संबंधी छिटपुट लेखन जारी था
लेकिन जो लिखा जाना था उसे स्थगित रखा । 1848 की क्रांति के समय तो गम्भीर
सैद्धांतिक लेखन का माहौल ही नहीं था ।
क्रांति के विफल हो जाने के बाद अन्य अनेक
राजनीतिक शरणार्थियों की तरह वे भी लंदन चले आए । उनके और परिवार का जीवन एंगेल्स
की सहायता से गुजरा । वहीं रहते हुए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सांगोपांग विश्लेषण
शुरू हुआ । पूंजीवाद का केंद्र होने के चलते लंदन में वांछित सामग्री मिलने की
गुंजाइश थी । पहले केवल दो अध्याय ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ के रूप
में 1859 में छपे । इससे उनके साथियों को भी निराशा हुई । योजना इसकी निरंतरता में
अगली किताब लिखने की थी लेकिन अब योजना पूरी तरह से बदल गई । अब चार किताबों की
योजना बनी । पिछली किताब से सबक लेकर इस किताब में सैद्धांतिक हिस्से को लोकप्रिय
और सुबोध बनाया । आठ साल बाद पांडुलिपि को छपाई के लिए अंतिम रूप दिया जा सका था ।
इसमें माल और मुद्रा के साथ पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया, कारखाने
का जीवन, मजदूरों के पारिवारिक जीवन की दुर्दशा तथा काम के
घंटों को कम करने का संघर्ष भी शामिल था । अब उस पर अमूर्त और जटिल होने का आरोप
लगाना थोड़ा मुश्किल था । कुछ राजनीतिक बदलाव भी हुए थे । 1864 में इंटरनेशनल की स्थापना के बाद मजदूर संघों और ट्रेड यूनियनों का विकास लगातार
हो रहा था । इससे उम्मीद उपजी थी कि पिछली किताब के मुकाबले इसके प्रसार में सुविधा
होगी । उनके जीवन का एकमात्र मकसद पूंजीवाद का उन्मूलन था । इसके लिए उन्होंने पूंजीवादी
उत्पादन संबंधों के वैज्ञानिक विश्लेषण की राह चुनी । यही उनका सबसे कारगर हथियार था
। बहरहाल इसे भी बहुत सफलता नहीं मिली । हजार प्रतियों के बिकने में चार साल लग गए
। शेष खंडों को भी पूरा करना सम्भव न हुआ । मार्क्स के देहांत के बाद एंगेल्स ने अधूरी
पांडुलिपियों की मदद से दूसरे और तीसरे खंड 1885 और
1894 में छपवाए ।
शेष अधूरी रचनाओं के प्रकाशित होने में दशकों लगे
। इसके बावजूद उनके विचारों का बौद्धिक के साथ ही जैसा राजनीतिक प्रभाव पड़ा वैसा प्रभाव
दो तीन सौ साल पहले के किसी चिंतक का नहीं पड़ा था । पिछले सौ सालों में कई बार उनकी
मृत्यु की घोषणा हो चुकी है लेकिन ये घोषणाएं ही उनके जीवन का सबूत हैं । इसके बाद
वे यह सवाल उठाते हैं कि आखिर क्यों बार बार मार्क्स के सिद्धांत का ऐसा प्रभाव पैदा
होता है । वैसे तो हाल में प्रकाशित मार्क्स की कुछ जीवनियों में उनको उनके समय में
बांध देने की कोशिश हुई है । इन जीवनियों का तर्क है कि उनके जमाने को हम पीछे छोड़
आए हैं । असल में उनकी प्रासंगिकता पर बात करने के लिए उन्नीसवीं सदी और इस समय की
राजनीतिक आर्थिक हलचलों के बीच संबंध पर विचार करना होगा । आजकल प्रत्येक बीस साल बाद
एक नए युग की घोषणा हो जाती है । उपभोक्ता समाज या सेवा अर्थतंत्र आदि इन तमाम नामों
के बावजूद संकट और बेरोजगारी के उभार से स्पष्ट है कि युग उतना नहीं बदला है जितना
बदलने का दावा किया जा रहा है । अक्सर लोग भूल जाते हैं कि तमाम बदलावों के बावजूद
तमाम बुनियादी समाजार्थिक संरचनाएं या तो कायम हैं या अपेक्षित दिशा में ही विकसित
हुई हैं । आधुनिक यूरोपीय समाजों और आधुनिक पूंजीवाद की ढेरों तकनीकी, समाजार्थिक
और राजनीतिक बुनियादों का निर्माण 1780 से लेकर 1860 तक के उथल पुथल भरे समय में
हुआ था । 1860 की दुनिया यूरोप और अमेरिका की आज की दुनिया के बहुत निकट है जबकि
इन क्षेत्रों की 1780 की दुनिया में बेतार का तार और भाप के इंजन नहीं थे, जमीन पर
घोड़ा और समुद्र में जहाज ही आवागमन के प्रमुख साधन थे, कुटीर उद्योग ही उत्पादक
गतिविधि का केंद्र था, दिहाड़ी मजदूर ही पगारजीवी श्रमिक हुआ करते थे और अधिकांश
आबादी देहात में रहती थी । इसके बाद बदलाव बहुत तेजी के साथ हुए । देहात की विशाल
आबादी उजड़कर शहरों में बसने लगी, शहरों में कामगारों की संख्या तो बढ़ी ही राजनीतिक
भागीदारी की मांग के साथ उनके तमाम संगठन पैदा हो गए, कामगारों में औरतों की तादाद
बढ़ने लगी, बादशाहों के दैवी अधिकारों पर संदेह उठने लगे और धर्म की भी सामाजिक पकड़
कमजोर होने लगी । जनता की संप्रभुता और सार्वभौमिक मताधिकार की बातें फैलने लगीं ।
पहले अखबार तो निकलते थे लेकिन मुट्ठी भर शिक्षितों के लिए अनियमित तरीके से छपते
थे । बाद के दिनों में उनका रूप दैनिक हुआ, वितरण बढ़ा और वे जनसंचार के शुरुआती
नमूने बने । उनमें न केवल खबरें होतीं, बल्कि वे महत्वपूर्ण राजनीतिक बहसों के भी
मंच साबित हुए ।
1860 के बाद हालात तो बदले हैं लेकिन बहुत अधिक
नहीं । उस समय की तरह के कपड़े अब भी पहने जाते हैं । उस समय के आदमी के लिए
इंटरनेट को समझना उतना मुश्किल न होगा क्योंकि बेतार का तार आ गया था । रेल का भाप
का इंजन भी आ गया था इसलिए बिजली वाले इंजन को देखकर अचम्भा नहीं होगा । सही है कि
उद्योग बड़े हुए हैं और उनमें मशीनों का इस्तेमाल बढ़ा है । जनसंचार में अखबारों से
आगे बढ़कर बात रेडियो और टेलीविजन तक पहुंची है । जनता की संप्रभुता और सार्वभौमिक
मताधिकार अब कोई क्रांतिकारी राजनीतिक धारणा नहीं माने जाते बल्कि दुनिया के ढेर
सारे देशों में लागू हैं । कहा जा सकता है कि 1780 से 1860 के बीच की उथल पुथल
युगांतकारी थी । इस बीच अर्थतंत्र पर आधुनिक पूंजीवाद का दबदबा न केवल व्यापार
बल्कि उत्पादन पर भी अधिकाधिक कायम होता गया । इसके साथ ही उन्नीसवीं सदी में
प्रचुर भौतिक विषमता के बावजूद नागरिकों की औपचारिक समता और निजी स्वतंत्रता की
मान्यता समेत धर्मनिरपेक्ष समाज का उदय पश्चिमी दुनिया में हुआ । वर्तमान पूंजीवाद
और राजनीति में तमाम विविधता के बावजूद समकालीन समाजार्थिक हालात के लिए यह
युगांतर निर्णायक साबित हुआ था ।
मार्क्स इसी युगांतर की उपज थे और अपने
समय के बारे में उनके विचार बेहद आकर्षक थे । अक्सर अपने समय को प्राक पूंजीवादी
समय से अलगाने के लिए वे ‘आधुनिक समाज’ पद का इस्तेमाल करते थे । ‘पूंजी’ की
भूमिका में उन्होंने इसका मकसद आधुनिक समाज की आर्थिक गति के नियमों का उद्घाटन
घोषित किया था । आधुनिक समाज के सिलसिले में इसके अतिरिक्त उनके अन्य शोध अपूर्ण
अवस्था में रह गए थे । किताब में इस प्रसंग में मार्क्स के लेखन की जांच परख करते
वक्त देखा गया है कि वे कितना यूरोप केंद्रित रहे और किस हद तक वे इस सीमा से
मुक्त हो पाए । उन्होंने देखा कि व्यापार के क्षेत्र में पूंजीवाद बहुत समय से
मौजूद रहा था, उत्पादन के क्षेत्र में उसका दबदबा नई बात थी इसलिए उन्होंने
पूंजीवादी उत्पादन संबंधों पर मुख्य रूप से ध्यान दिया ।
उनको महसूस हुआ कि इस उत्पादन संबंध के
उदय के बाद तेजी से उसका विस्तार हुआ और सभी प्राक पूंजीवादी संबंधों पर वह छा गया
। लेकिन विस्तार की इस प्रक्रिया का नतीजा सर्वत्र एक समान नहीं रहा । अपनी स्थिति
मजबूत करने के क्रम में वह केवल स्वतंत्र पगारजीवी श्रमिक पर निर्भर नहीं रहा,
बल्कि गुलामी से भी उसने लाभ उठाया और उनका लगातार पुनरुत्पादन किया । राजनीतिक
व्यवस्था के मामले में भी अच्छी खासी विविधता नजर आई । संसदीय प्रणाली से लेकर
फ़ासीवाद तक ने पूंजीवादी हितों की सेवा की । संक्षेप में वैश्विक लिहाज से देखें
तो आधुनिक पूंजीवाद को एकसम नहीं कहा जा सकता ।
‘पूंजी’ में मार्क्स ने आधुनिक पूंजीवाद
की बुनियादी संरचनाओं की परीक्षा की । जिस तरह आज के अर्थशास्त्र में उसे महज
आर्थिक नजरिए से देखते हैं उस तरह नहीं बल्कि ऐसे सामाजिक संबंध के बतौर देखा जो
वर्ग संबंधों तथा सामाजिक और राजनीतिक वर्ग संघर्षों की बुनियाद होता है ।
पूंजीवाद की ये बुनियादी संरचनाएं आज के अधिकांश समाजों के लिए महत्वपूर्ण बनी हुई
हैं । उनका विश्लेषण बुनियादी संरचना का उद्घाटन करता है इसलिए हमारे वर्तमान समाज
के लक्षणों को भी उजागर करता है । उनके विश्लेषण का मकसद पूंजीवाद की कार्यपद्धति
को उजागर करना ही नहीं था, वे मानव मुक्ति के भी आकांक्षी थे । उन्होंने ऐसे
सामाजिक संबंधों का सपना देखा जहां स्वतंत्रता, समानता, एकजुटता और न्याय की
प्राप्ति हो सके । पूंजीवाद और उसके समर्थक सिद्धांतकारों के लिए स्वतंत्रता और
मुक्ति की सम्भावना मुक्त बाजार और चुनाव के जरिए निर्भरता और विशेषाधिकार के
सामंती संबंधों के अतिक्रमण तक सीमित थी । बाजार में धन पैदा करने के संयोग और
नापसंद सरकार को चुनाव में हरा सकने की सम्भावना ही पूंजीवाद के लिए व्यक्ति की
मुक्ति और समाज की राजनीतिक स्वतंत्रता का सार है । इस बुर्जुआ उदारवाद के विपरीत
मार्क्स मानते हैं कि प्राक पूंजीवादी संबंधों से मुक्ति ही मानव मुक्ति नहीं है ।
पुराने समय में दमन के निजी संबंध थे जिनकी जगह आधुनिक समय में दमन के निर्वैयक्ति
रूप कायम हो गए हैं । इसके तहत आर्थिक संबंधो की खामोश मजबूरी छा गई है और सामंती
जबर्दस्ती की जगह बुर्जुआ राज्य ने ले ली है ।
मार्क्स ने पत्रकार और संपादक के रूप में,
कम्यूनिस्ट लीग के संगठक के रूप में और इंटरनेशनल की गतिविधियों के जरिए लेकिन
सबसे अधिक पूंजीवाद की बुनियादी आलोचना के जरिए राजनीतिक घटनाक्रम पर निगाह रखी और
उसे प्रभावित किया । बीसवीं सदी में तो अधिकांश मजदूर आंदोलन तथा तमाम विपक्षी
समूह और पार्टियों ने उनके विचारों से प्रेरणा ली । किसी भी गम्भीर बहस के लिए
उनके विचारों से टकराना अनिवार्य हो गया था । लेखक ने इसके साथ ही बीसवीं सदी में
सोवियत समाजवाद को उनके विचारों का साकार रूप मानने की प्रवृत्ति का जिक्र करते
हुए इस धारणा से असहमति जताई है । बहरहाल उसके पतन के साथ कुछ समय के लिए लगा कि
पूंजीवाद की मार्क्सी आलोचना भी समाप्त हो चली है । कहा जाने लगा कि अब इस
व्यवस्था के विकल्प की तमाम कोशिशों की असफलता निश्चित है । जल्दी ही विजयी
पूंजीवाद के स्थायी अभिलक्षण युद्ध और संकटों के रूप में प्रकट होने लगे तो उसकी
मार्क्सी आलोचना पर लोगों को भरोसा होना शुरू हुआ है ।
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