Saturday, October 26, 2019

अरुण माहेश्वरी के मार्क्स


                      
                                           
कार्ल मार्क्स के जन्म को दो सौ साल पूरे हो चुके हैं दुनिया भर में इस अवसर पर तमाम किस्म के आयोजन हुए लेकिन आयोजनों के अतिरिक्त मार्क्स को प्रासंगिक साबित करने में पूंजीवाद के संकट का योगदान कम महत्व का नहीं था मार्क्सवाद का निर्माण ही पूंजीवाद की कब्र खोदने के अस्त्र के रूप में हुआ था मार्क्स का समूचा जीवन और लेखन पूंजीवाद को मटियामेट करने में सक्षम शक्ति और साधन की खोज में बीता था कहने की जरूरत नहीं कि पूंजीवाद के संकट मार्क्सवाद के लिए संजीवनी का काम करते हैं मुक्तिबोध के शब्दों मेंजो तुम्हारे लिए विष है, वह मेरे लिए अन्न है इसके अतिरिक्त पश्चिमी दुनिया तथा अन्य ढेर सारे देशों के नव उदारवाद विरोधी आंदोलनों ने भी उसे जीवंत बनाए रखने में भरपूर मदद की चरम निराशा के दौर में लैटिन अमेरिकी देशों के वाम उभार ने भी उम्मीद को जिंदा रखा तमाम देशों में अति दक्षिणपंथ या फ़ासीवादी विचारों की विजय के बावजूद बीच बीच में किसी किसी मुल्क से जनता के जागरण की खबर आती ही रहती है   
सोवियत संघ के पतन, चीन के तिएन आन मेन की घटना और बर्लिन की दीवार गिरने से मार्क्सवाद के अवसान का जो शोर मचा हुआ था उस पर हाल के दिनों में कुछ विराम लग गया है फिर से मार्क्स की बात होने लगी है प्रचंड विरोधियों को भीमार्क्सवाद का अर्धसत्यलिखना पड़ रहा है ऐसे में सूर्य प्रकाशन मंदिर से इसी साल प्रकाशितबनना कार्ल मार्क्स काके लेखक अरुण माहेश्वरी ने इस किताब के लेखन के जरिए बहुत ही सार्थक हस्तक्षेप किया है किताब में अलग अलग लेखों के जरिए मार्क्स के बचपन, शिक्षा, युवा हेगेल के साथ संवाद तथा हेगेलपंथी समूह से अलग होकर स्वतंत्र सैद्धांतिक राह बनाने की कहानी है लेखक अरुण माहेश्वरी लेखन के साथ पत्रकारिता से भी जुड़े हुए हैं इसलिए उनकी भाषा में प्रचुर संप्रेषणीयता है । लेखक की भाषा के अतिरिक्त पुस्तक की प्रस्तुति भी बेहद सृजनात्मक है । लगभग सभी पृष्ठों पर उस प्रसंग से जुड़े किसी चित्र या संदर्भित किताब की तस्वीर लगाए गए हैं जो प्रसंग उस पृष्ठ पर वर्णित है । इससे पाठक को लिखित के साथ दृश्य का सुख भी मिलता चलता है ।
मार्क्स के बारे में किसी भी लेखन को कड़ी आलोचना से गुजरना लाजिम है । खुद मार्क्स वर्तमान की ऐसी निर्मम आलोचना के पक्षधर थे जो न तो शासन के कोप से और न अपने निष्कर्षों से सकुचाए । ऊपर से तो लगता है कि समय बुनियादी रूप से बदल गया है इसलिए पुरानी खेमेबंदियों पर भी विराम लग गया होगा । इस सवाल पर भी मार्क्स हमारी मदद करते हैं । उनका कहना था कि चीजें जितना बदलती हैं उतना ही पुराने के समान होती जाती हैं । विषमता या शोषण जैसे तथ्य उसी तरह की चीजें हैं जो तमाम तकनीकी, राजनीतिक, समाजार्थिक और सांस्कृतिक बदलावों के बावजूद समाप्त नहीं हुए । परिवर्तन के साथ निरंतरता की संलग्नता उनकी द्वंद्ववादी पद्धति की जान है । इसीलिए कुछ विद्वान इस दौर में भी शीतयुद्ध की निरंतरता देख रहे हैं । मशहूर मार्क्सवादी रणधीर सिंह एक कविता के सहारे कहते थे कि मार्क्स के अनुयायी भले बदल गए हों लेकिन उनके दुश्मनों में कोई बदलाव नहीं आया है । कुल मिलाकर यह कि मार्क्स के बारे में अतीत की दलबंदियों का खात्मा अब भी नहीं हुआ है । अगर इसके बारे में कोई भी संदेह हो तो जान लें कि हाल में लंदन में उनकी समाधि पर तोड़ फोड़ की गई । उनकी प्रासंगिकता के बारे में इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि दो सौ साल बाद भी कब्र में उनकी मौजूदगी नाकाबिले बर्दाश्त समझी गई ।   
सोवियत संघ के ढहने के बाद दुनिया भर में मार्क्स के अप्रासंगिक होने का जो शोर पैदा हुआ वह थोड़े ही दिनों के बाद बंद हो गया क्योंकि चुनौती न रहने से पूंजीवाद ने अपना मानवभक्षी रूप जाहिर करना शुरू कर दिया । संसार को शांति की आशा थी लेकिन उसकी जगह लगातार चलने वाले युद्धों का आदी बनना पड़ा । ऐसे में आहिस्ता आहिस्ता मार्क्स की चर्चा शुरू हुई । इसकी शुरुआत उनकी जीवनियों से हुई । नए समय की इन जीवनियों पर उनकी निंदा अभियान का असर था । उन्हें आर्थिक चिंतक मानने से भी परहेज करने वाली जीवनियों का प्रकाशन शुरू हुआ । उनको मानवीय साबित करने के लिए चिंतक की जगह व्यक्ति मार्क्स पर ध्यान केंद्रित किया गया । ठीक सदी के मोड़ पर फ़्रांसिस ह्वीन की लिखी जीवनी प्रकाशित हुई । इसके बाद जोनाथन स्पर्बर की लिखी जीवनी में तो कहा ही गया कि उन्हें उनके समय में अर्थात उन्नीसवीं सदी के संदर्भ में समझा जाना चाहिए । इसी क्रम में गारेथ स्टेडमान जोन्स की प्रकाशित हुई जीवनी से लेखक ने अधिकतर तथ्य और उनकी व्याख्या ली है । इस जीवनी में भी व्यक्ति मार्क्स को स्थापित करने पर जोर था । उससे मदद लेने के चलते आरम्भिक अध्यायों में मार्क्स कवि और प्रेमी के बतौर मुख्य रूप से नजर आते हैं ।  
असल में मार्क्स के किसी भी जीवनी लेखक के लिए यह बहुत बड़ी दुविधा होती है कि वह मार्क्स के भीतर राजनीतिक कार्यकर्ता को उभारे या अध्येता को । अगर वह अध्येता मार्क्स पर जोर दे तो आज के ज्ञानानुशासनों में से उन्हें किसमें अवस्थित करे । यह मुश्किल मार्क्स की नहीं थी, वे तो इनके बीच कोई बुनियादी भेद नहीं मानते थे । यह समस्या उनके जीवनी लेखकों की है जो न केवल मार्क्सवाद विरोधी शोरोगुल के शिकार हैं, बल्कि ज्ञानानुशासनों के कठोर विभाजन के माहौल में दीक्षित हैं ।
असल में मार्क्स को कवि या प्रेमी के बतौर चित्रित करने में सबसे बड़ी समस्या यह है कि मार्क्स को उनके समर्थक और विरोधी कवि या प्रेमी होने के नाते नहीं मिले । जिन्होंने उनके विचारों को अपनाया उन्होंने पूंजीवादी समाज व्यवस्था के उन्मूलन का रास्ता उनके लेखन में पाया । इसी तरह जिन्होंने उन पर लगातार कोलतार पोतने की कोशिश की, कब्र तक में उन्हें चैन से नहीं रहने दे रहे हैं, वे उनके विचारों के क्रांतिकारी असर को समाप्त करने पर आमादा रहे हैं । दुरूह होने के बावजूद मार्क्स के आर्थिक विश्लेषण ने ही उन्हें पूंजीवाद के विरोधियों और समर्थकों के लिए प्रासंगिक बनाए रखा है । पहले एक समय मार्क्स को युवा और परिपक्व में बांटा जाता था । युवा मार्क्स के समर्थक उन्हें आर्थिक निर्धारणवाद से मुक्त बताते । लेकिन हाल के दिनों के शोध और लेखन ने इस कृत्रिम विभाजन को भी अमान्य कर दिया है । दिखाई पड़ा है कि शुरुआती लेखन के बहुत सारे सरोकार अंत तक बने रहे और परवर्ती लेखन में भी हेगेलीय दर्शन का परिप्रेक्ष्य कायम रहा । डेविड हार्वे या मार्चेलो मुस्तो जैसे लेखकों ने जोर दिया है कि उनका आर्थिक लेखन उन्हें वर्तमान के लिए प्रासंगिक बनाता है । यहां तक कि अभी 2019 में प्रकाशित माइकेल हाइनरिह की लिखी मार्क्स की जीवनी में व्यक्ति मार्क्स को प्रतिष्ठित करने वाली अन्य जीवनियों के बारे में वाजिब सवाल उठाते हुए मार्क्स के निर्माण की प्रक्रिया को उजागर करने की कोशिश है । संयोग से उसके पहले खंड में भी मार्क्स के जीवन के उसी काल का विवेचन है जिसे अरुण माहेश्वरी ने अपनी किताब में उठाया है । लेखक ने मार्क्स की जीवनियों की इस आलोचना को नहीं देखा इसलिए मार्क्स के आर्थिक चिंतन के पहलू को कम छुआ है ।
किताब में जीवन के अतिरिक्त विचार का विवेचन करते हुए लेखक ने एकदम शुरुआती समय पर ध्यान दिया है । इस क्षेत्र में उनका भरोसा डगलस मोगाच पर अधिक रहा है । किताब के शीर्षक के अनुरूप ही उन्होंने मार्क्स के वैचारिक निर्माण को उठाया है । इस मामले में हेगेल के असर और फिर उस असर से छुटकारे की कहानी कही गई है । किताब फ़ायरबाख के बारे में मार्क्स के मशहूर सूत्रों के विवेचन के साथ खत्म होती है । फ़ायरबाख से उनके वैचारिक अलगाव को लेखक ने स्वतंत्र विचारक के बतौर मार्क्स के उदय का लक्षक माना है । इस कहानी को भी विस्तार से अनेक लेखकों ने समझने की कोशिश की है । खासकर डेविड लियोपाल्ड की किताबद यंग कार्ल मार्क्ससे उन्हें कुछ अलग किस्म की कहानी मिल सकती थी । असल में मार्क्स के बौद्धिक विकास का यह चरण उनकी अधिकतर जीवनियों में वर्णन की तरह आता है । उनके बौद्धिक विकास की व्याख्या ठीक से नहीं हो पाती । उदाहरण के लिए हेगेल के प्रति उनके लगाव का जिक्र तो होता है लेकिन उसकी कोई संतोषजनक व्याख्या नहीं मिलती । दार्शनिकों के उस देश में हेगेल ने विद्यार्थियों के इस समूह को किस वजह से आकर्षित किया । हेगेल के चिंतन में निहित क्रांतिकारी संदेश को अधिकांश जीवनियों में स्पष्ट नहीं किया जाता । खुद मार्क्स ने बताया है कि प्रशियाई शासक समूह ने हेगेल को घिनौनी चीज की तरह छोड़ दिया था । ज्यादातर लोग उन्हें भाववादी मानकर उनका जिक्र सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि मार्क्स ने उनके दर्शन को उलटकर खड़ा कर दिया था । युवा हेगेपंथियों को यह नाम दिया ही गया क्योंकि वे युवा हेगेल का पुनराविष्कार कर रहे थे और उनकी परवर्ती समझौतापरस्ती के विरोध में उनके ही विद्रोही तेवर को सामने रख रहे थे ।
मार्क्स के वैचारिक विकास का वह काल निश्चय ही महत्वपूर्ण था तभी इतने सारे विद्वानों ने उस समय को विवेचन-विश्लेषण के लिए चुना । माहेश्वरी जी ने मार्क्स के पेरिस प्रवास तक के शुरुआती हिस्से को अपनी किताब के लिए रखा । इसी दौर में हेगेलपंथियों से मार्क्स का अलगाव होने लगा था लेकिन यह अलगाव किसी निजी चिढ़ का नतीजा नहीं था, वरन वे जिस मार्ग पर बढ़ रहे थे उसके सूझने के साथ पुराने झाड़ झंखाड़ की सफाई जरूरी हो गई थी । मतलब कि किसी सकारात्मक विकास की दिशा में आगे जाने में पुरानी सोच बाधा बन रही थी इसलिए उसकी आलोचना जरूरी हो गई थी । वे अगर कुछ छोड़ रहे थे तो कुछ अपना भी रहे थे । अखबार के संपादन के क्रम में ही उन्हें आर्थिक सवालों पर ध्यान देने की जरूरत महसूस हुई थी । माहेश्वरी जी ने इस पहलू को उठाया होता तो विचार पक्ष के स्पष्टीकरण में अमूर्त उलझनों से बच सकते थे । वैसे जितना सीमित क्षेत्र उन्होंने अपने लिए चुना है उसमें मार्क्स की वैचारिक विकास यात्रा को खोलने में वे सफल हुए हैं ।
धर्म का सवाल उस समय भी बेहद तीखे वाद-विवाद का केंद्र बना हुआ था इसलिए अत्यंत स्वाभाविक था कि माहेश्वरी जी उस पर अधिक ध्यान देते । यह सवाल हमारे अपने समय के लिए भी बेहद जरूरी हो गया है । हताशा में बहुतेरे मार्क्सवादी सोचते हैं कि धर्म से मनुष्य का छुटकारा असम्भव है । इसके उलट कुछ और लोग सोचते हैं कि नास्तिकता ही वर्तमान की समस्याओं से छुटकारा दिला सकती है । ऐसे में मार्क्स के धर्म संबंधी विवेचन को समझना बहुत जरूरी है । वे मानते थे कि धर्म कुछ खास परिस्थितियों की उपज है । वह इस अन्यायपूर्ण समाज में मनुष्य की आवश्यकता है । इसलिए इस समाज को बदलने से ही मनुष्य के इस अलगाव को समाप्त किया जा सकता है । मार्क्स के जन्म की दो सौवीं सालगिरह में ऐसी ढेर सारी किताबों की जरूरत पहले से बहुत अधिक है ताकि कार्यकर्ताओं की नई खेप उनके विचारों से परिचित हो सके । फिलहाल दक्षिणपंथी उभार का जैसा शोर मीडिया में मचा हुआ है उसमें यह तथ्य दबा दिया जाता है कि तमाम किस्म के अनाचार और अत्याचार के समग्र विरोध की जैसी लहर चल रही है वैसा उभार बहुत कम देखने में आता है । राजनीति में मध्यमार्गी विकल्प की जगह सिकुड़ रही है और अगर इस खाली जगह को दक्षिणपंथ भरता दिखाई पड़ रहा है तो वामपंथ भी अपने को नई परिस्थितियों के आलोक में नवीकृत करता हुआ उसके पीछे चला आ रहा है । आंदोलनों की नई लहर से ढेर सारे नए कार्यकर्ता पैदा हो रहे हैं । उनके शिक्षण के लिहाज से किताब बेहद उपयोगी है ।                                      

Wednesday, October 16, 2019

मार्क्स और आधुनिक समाज


                  
                                         
2019 में मंथली रिव्यू प्रेस से माइकेल हाइनरिह की 2018 में छपी जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवाद कार्ल मार्क्स ऐंड द बर्थ आफ़ माडर्न सोसाइटी: द लाइफ़ आफ़ मार्क्स ऐंड डेवलपमेन्ट आफ़ हिज वर्क: वाल्यूम1: 1818-1843’ का प्रकाशन हुआ । इसका अनुवाद अलेक्जेंडर लोकाशियो ने किया है । लेखक ने सबसे पहले माफ़ी जैसा मांगते हुए मार्क्स के कुलेगमान को लिखे एक पत्र का उल्लेख किया है जिसमें मार्क्स ने जीवनी लिखने के प्रति अपनी अरुचि को जाहिर किया है । इंटरनेशनल में अपने काम के लिए भी सम्मानित किए जाने की प्रत्येक कोशिश को उन्होंने हतोत्साहित किया ।
शायद इसीलिए इस किताब को लेखक ने व्यक्ति पूजा से दूर कहा है । इसमें उस प्रक्रिया का विवेचन है जिसने मार्क्स जैसे व्यक्ति, सिद्धांतकार, राजनीतिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी को जन्म दिया । इस प्रक्रिया में मार्क्स ने भी न केवल विश्लेषण और टिप्पणियों के प्रकाशन के जरिए बल्कि अखबारों की स्थापना और कम्युनिस्ट लीग तथा इंटरनेशनल जैसे संगठनों को आकार देने के जरिए हस्तक्षेप किया । जीवन के आखिरी दशक में उनके लेखन और काम की जो अंतर्राष्ट्रीय चर्चा शुरू हुई वह आज भी जारी है । बीसवीं सदी की कई क्रांतियों और उनसे उपजी सत्ता ने बुर्जुआ पूंजीवादी संबंधों को उलट देना चाहा और इसे मार्क्स के सिद्धांतों से जोड़ा । आपस में लड़ने वाले बहुतेरे राजनीतिक दल और समूह भी खुद को मार्क्सवादीकहते थे । समर्थकों या विरोधियों ने इस चक्कर में उन्हें देवता या शैतान बना डाला । दोनों ने उनके लेखन से पसंदीदा चुनिंदा हिस्सों का ही उपयोग किया ।
जीते जी जो कुछ भी प्रकाशित हुआ वह उनके समग्र लेखन का बेहद छोटा हिस्सा था । बीसवीं सदी में धीरे धीरे उनका लेखन प्रकाश में आया । इसके चलते उनके समग्रके ढेर सारे संस्करण उपलब्ध हैं । इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में मेगा के नाम से सचमुच उनका समग्रछपना शुरू हुआ है । इसके भी सभी खंड अभी नहीं छपे हैं ।
मार्क्स खुद मानते थे कि बौद्धिक उत्पादन कालबद्ध होता है लेकिन उनके लेखन को अक्सर उसके संदर्भों से काटकर शाश्वत सत्य की तरह पेश किया जाता है । मार्क्स की सीखने की प्रक्रिया, जिसके चलते बार बार नई सैद्धांतिक शुरुआतें हुईं और अनेकानेक संधोधन भी हुए, तथा सबसे आगे बढ़कर उनके काम की अपूर्णता पर सचमुच ध्यान नहीं दिया गया । इसके बरक्स पिछले कुछ दिनों से उनके लेखन को ऐतिहासिक संदर्भ में देखने की कोशिशें शुरू हुई हैं । लेकिन इसमें भी एक घपला है । कोशिश होती है कि वर्तमान के लिए उनकी प्रासंगिकता को खारिज कर दिया जाए । उनकी जीवनियों को देखने से लगता है जैसे उनके बारे में राय पहले बना ली गई और जीवन संबंधी विवरण इस राय को पुख्ता करने के काम आएंगे । इसके विपरीत लेखक ने पिछले अनेक वर्षों से इस जीवनी पर काम करने के दौरान उनके बारे में उपलब्ध सामग्री के आलोक में अपनी राय बदली ।
किताब एकाधिक खंडों में छपनी है । इस पहले खंड में त्रिएर, बान और बर्लिन में उनकी युवावस्था का वर्णन है । उनके शोध को पहला लेखन माना गया है । अन्य जीवनियों में इस शुरुआती जीवन को एकाध अध्यायों में समेट लिया जाता है लेकिन लेखक को इस शुरुआती समय का गहरा रिश्ता 1830 दशक की प्रशियाई राजनीति और बौद्धिक बहसों से महसूस होता है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस शुरुआती जीवन में परवर्ती जीवन के बीज हैं, उनके परवर्ती जीवन में ढेर सारे बदलाव आए लेकिन विद्यार्थी जीवन के अनुभवों और पढ़ाई के तरीके का संबंध परवर्ती पत्रकारिता से है । जीवनी लिखने में विषय तो ऐतिहासिक होता ही है, लेखक भी अपने समय के सवालों से पर्याप्त प्रभावित होता है । इस सिलसिले में लेखक ने भाषा की सीमा का जिक्र किया है । उस समय और इस समय भी भाषा में पुल्लिंग को सार्वभौमिक माना जाता है । इसलिए लेखक ने सचेत रूप से सामाजिक आंदोलनों के संदर्भ में स्त्रियों की भूमिका को रेखांकित किया है । विगत आठ सालों से लेखक दुनिया के विभिन्न देशों में आयोजित सम्मेलनों में जाते रहे । इस अनुभव के अतिरिक्त उन्होंने खुद विभिन्न अनुशासनों और क्षेत्रों में कार्यरत लोगों के साथ सलाह मशविरा किया ।
किताब की शुरुआत पूंजीकी पांडुलिपि प्रकाशक को सौंपने के लिए की गई यात्रा के वर्णन से होती है । किताब ने उनकी सेहत, खुशी और परिवारकी बलि ले ली थी । कुछ समय बाद सितम्बर 1867 में किताब छप गई । इस पर काम की शुरुआत तेईस साल पहले 1844 में हुई थी । 1845 में एक प्रकाशक के साथ दो खंडों में छपाई का अनुबंध भी हो गया था । लेकिन फिर मित्र एंगेल्स के साथ मिलकर एक नया ही काम शुरू कर दिया था । नब्बे साल बाद जर्मन विचारधारा के नाम से उसका प्रकाशन हुआ । अर्थशास्त्र संबंधी छिटपुट लेखन जारी था लेकिन जो लिखा जाना था उसे स्थगित रखा । 1848 की क्रांति के समय तो गम्भीर सैद्धांतिक लेखन का माहौल ही नहीं था ।
क्रांति के विफल हो जाने के बाद अन्य अनेक राजनीतिक शरणार्थियों की तरह वे भी लंदन चले आए । उनके और परिवार का जीवन एंगेल्स की सहायता से गुजरा । वहीं रहते हुए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सांगोपांग विश्लेषण शुरू हुआ । पूंजीवाद का केंद्र होने के चलते लंदन में वांछित सामग्री मिलने की गुंजाइश थी । पहले केवल दो अध्याय राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदानके रूप में 1859 में छपे । इससे उनके साथियों को भी निराशा हुई । योजना इसकी निरंतरता में अगली किताब लिखने की थी लेकिन अब योजना पूरी तरह से बदल गई । अब चार किताबों की योजना बनी । पिछली किताब से सबक लेकर इस किताब में सैद्धांतिक हिस्से को लोकप्रिय और सुबोध बनाया । आठ साल बाद पांडुलिपि को छपाई के लिए अंतिम रूप दिया जा सका था । इसमें माल और मुद्रा के साथ पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया, कारखाने का जीवन, मजदूरों के पारिवारिक जीवन की दुर्दशा तथा काम के घंटों को कम करने का संघर्ष भी शामिल था । अब उस पर अमूर्त और जटिल होने का आरोप लगाना थोड़ा मुश्किल था । कुछ राजनीतिक बदलाव भी हुए थे । 1864 में इंटरनेशनल की स्थापना के बाद मजदूर संघों और ट्रेड यूनियनों का विकास लगातार हो रहा था । इससे उम्मीद उपजी थी कि पिछली किताब के मुकाबले इसके प्रसार में सुविधा होगी । उनके जीवन का एकमात्र मकसद पूंजीवाद का उन्मूलन था । इसके लिए उन्होंने पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के वैज्ञानिक विश्लेषण की राह चुनी । यही उनका सबसे कारगर हथियार था । बहरहाल इसे भी बहुत सफलता नहीं मिली । हजार प्रतियों के बिकने में चार साल लग गए । शेष खंडों को भी पूरा करना सम्भव न हुआ । मार्क्स के देहांत के बाद एंगेल्स ने अधूरी पांडुलिपियों की मदद से दूसरे और तीसरे खंड 1885 और 1894 में छपवाए ।
शेष अधूरी रचनाओं के प्रकाशित होने में दशकों लगे । इसके बावजूद उनके विचारों का बौद्धिक के साथ ही जैसा राजनीतिक प्रभाव पड़ा वैसा प्रभाव दो तीन सौ साल पहले के किसी चिंतक का नहीं पड़ा था । पिछले सौ सालों में कई बार उनकी मृत्यु की घोषणा हो चुकी है लेकिन ये घोषणाएं ही उनके जीवन का सबूत हैं । इसके बाद वे यह सवाल उठाते हैं कि आखिर क्यों बार बार मार्क्स के सिद्धांत का ऐसा प्रभाव पैदा होता है । वैसे तो हाल में प्रकाशित मार्क्स की कुछ जीवनियों में उनको उनके समय में बांध देने की कोशिश हुई है । इन जीवनियों का तर्क है कि उनके जमाने को हम पीछे छोड़ आए हैं । असल में उनकी प्रासंगिकता पर बात करने के लिए उन्नीसवीं सदी और इस समय की राजनीतिक आर्थिक हलचलों के बीच संबंध पर विचार करना होगा । आजकल प्रत्येक बीस साल बाद एक नए युग की घोषणा हो जाती है । उपभोक्ता समाज या सेवा अर्थतंत्र आदि इन तमाम नामों के बावजूद संकट और बेरोजगारी के उभार से स्पष्ट है कि युग उतना नहीं बदला है जितना बदलने का दावा किया जा रहा है । अक्सर लोग भूल जाते हैं कि तमाम बदलावों के बावजूद तमाम बुनियादी समाजार्थिक संरचनाएं या तो कायम हैं या अपेक्षित दिशा में ही विकसित हुई हैं । आधुनिक यूरोपीय समाजों और आधुनिक पूंजीवाद की ढेरों तकनीकी, समाजार्थिक और राजनीतिक बुनियादों का निर्माण 1780 से लेकर 1860 तक के उथल पुथल भरे समय में हुआ था । 1860 की दुनिया यूरोप और अमेरिका की आज की दुनिया के बहुत निकट है जबकि इन क्षेत्रों की 1780 की दुनिया में बेतार का तार और भाप के इंजन नहीं थे, जमीन पर घोड़ा और समुद्र में जहाज ही आवागमन के प्रमुख साधन थे, कुटीर उद्योग ही उत्पादक गतिविधि का केंद्र था, दिहाड़ी मजदूर ही पगारजीवी श्रमिक हुआ करते थे और अधिकांश आबादी देहात में रहती थी । इसके बाद बदलाव बहुत तेजी के साथ हुए । देहात की विशाल आबादी उजड़कर शहरों में बसने लगी, शहरों में कामगारों की संख्या तो बढ़ी ही राजनीतिक भागीदारी की मांग के साथ उनके तमाम संगठन पैदा हो गए, कामगारों में औरतों की तादाद बढ़ने लगी, बादशाहों के दैवी अधिकारों पर संदेह उठने लगे और धर्म की भी सामाजिक पकड़ कमजोर होने लगी । जनता की संप्रभुता और सार्वभौमिक मताधिकार की बातें फैलने लगीं । पहले अखबार तो निकलते थे लेकिन मुट्ठी भर शिक्षितों के लिए अनियमित तरीके से छपते थे । बाद के दिनों में उनका रूप दैनिक हुआ, वितरण बढ़ा और वे जनसंचार के शुरुआती नमूने बने । उनमें न केवल खबरें होतीं, बल्कि वे महत्वपूर्ण राजनीतिक बहसों के भी मंच साबित हुए ।
1860 के बाद हालात तो बदले हैं लेकिन बहुत अधिक नहीं । उस समय की तरह के कपड़े अब भी पहने जाते हैं । उस समय के आदमी के लिए इंटरनेट को समझना उतना मुश्किल न होगा क्योंकि बेतार का तार आ गया था । रेल का भाप का इंजन भी आ गया था इसलिए बिजली वाले इंजन को देखकर अचम्भा नहीं होगा । सही है कि उद्योग बड़े हुए हैं और उनमें मशीनों का इस्तेमाल बढ़ा है । जनसंचार में अखबारों से आगे बढ़कर बात रेडियो और टेलीविजन तक पहुंची है । जनता की संप्रभुता और सार्वभौमिक मताधिकार अब कोई क्रांतिकारी राजनीतिक धारणा नहीं माने जाते बल्कि दुनिया के ढेर सारे देशों में लागू हैं । कहा जा सकता है कि 1780 से 1860 के बीच की उथल पुथल युगांतकारी थी । इस बीच अर्थतंत्र पर आधुनिक पूंजीवाद का दबदबा न केवल व्यापार बल्कि उत्पादन पर भी अधिकाधिक कायम होता गया । इसके साथ ही उन्नीसवीं सदी में प्रचुर भौतिक विषमता के बावजूद नागरिकों की औपचारिक समता और निजी स्वतंत्रता की मान्यता समेत धर्मनिरपेक्ष समाज का उदय पश्चिमी दुनिया में हुआ । वर्तमान पूंजीवाद और राजनीति में तमाम विविधता के बावजूद समकालीन समाजार्थिक हालात के लिए यह युगांतर निर्णायक साबित हुआ था ।
मार्क्स इसी युगांतर की उपज थे और अपने समय के बारे में उनके विचार बेहद आकर्षक थे । अक्सर अपने समय को प्राक पूंजीवादी समय से अलगाने के लिए वे ‘आधुनिक समाज’ पद का इस्तेमाल करते थे । ‘पूंजी’ की भूमिका में उन्होंने इसका मकसद आधुनिक समाज की आर्थिक गति के नियमों का उद्घाटन घोषित किया था । आधुनिक समाज के सिलसिले में इसके अतिरिक्त उनके अन्य शोध अपूर्ण अवस्था में रह गए थे । किताब में इस प्रसंग में मार्क्स के लेखन की जांच परख करते वक्त देखा गया है कि वे कितना यूरोप केंद्रित रहे और किस हद तक वे इस सीमा से मुक्त हो पाए । उन्होंने देखा कि व्यापार के क्षेत्र में पूंजीवाद बहुत समय से मौजूद रहा था, उत्पादन के क्षेत्र में उसका दबदबा नई बात थी इसलिए उन्होंने पूंजीवादी उत्पादन संबंधों पर मुख्य रूप से ध्यान दिया ।
उनको महसूस हुआ कि इस उत्पादन संबंध के उदय के बाद तेजी से उसका विस्तार हुआ और सभी प्राक पूंजीवादी संबंधों पर वह छा गया । लेकिन विस्तार की इस प्रक्रिया का नतीजा सर्वत्र एक समान नहीं रहा । अपनी स्थिति मजबूत करने के क्रम में वह केवल स्वतंत्र पगारजीवी श्रमिक पर निर्भर नहीं रहा, बल्कि गुलामी से भी उसने लाभ उठाया और उनका लगातार पुनरुत्पादन किया । राजनीतिक व्यवस्था के मामले में भी अच्छी खासी विविधता नजर आई । संसदीय प्रणाली से लेकर फ़ासीवाद तक ने पूंजीवादी हितों की सेवा की । संक्षेप में वैश्विक लिहाज से देखें तो आधुनिक पूंजीवाद को एकसम नहीं कहा जा सकता ।
‘पूंजी’ में मार्क्स ने आधुनिक पूंजीवाद की बुनियादी संरचनाओं की परीक्षा की । जिस तरह आज के अर्थशास्त्र में उसे महज आर्थिक नजरिए से देखते हैं उस तरह नहीं बल्कि ऐसे सामाजिक संबंध के बतौर देखा जो वर्ग संबंधों तथा सामाजिक और राजनीतिक वर्ग संघर्षों की बुनियाद होता है । पूंजीवाद की ये बुनियादी संरचनाएं आज के अधिकांश समाजों के लिए महत्वपूर्ण बनी हुई हैं । उनका विश्लेषण बुनियादी संरचना का उद्घाटन करता है इसलिए हमारे वर्तमान समाज के लक्षणों को भी उजागर करता है । उनके विश्लेषण का मकसद पूंजीवाद की कार्यपद्धति को उजागर करना ही नहीं था, वे मानव मुक्ति के भी आकांक्षी थे । उन्होंने ऐसे सामाजिक संबंधों का सपना देखा जहां स्वतंत्रता, समानता, एकजुटता और न्याय की प्राप्ति हो सके । पूंजीवाद और उसके समर्थक सिद्धांतकारों के लिए स्वतंत्रता और मुक्ति की सम्भावना मुक्त बाजार और चुनाव के जरिए निर्भरता और विशेषाधिकार के सामंती संबंधों के अतिक्रमण तक सीमित थी । बाजार में धन पैदा करने के संयोग और नापसंद सरकार को चुनाव में हरा सकने की सम्भावना ही पूंजीवाद के लिए व्यक्ति की मुक्ति और समाज की राजनीतिक स्वतंत्रता का सार है । इस बुर्जुआ उदारवाद के विपरीत मार्क्स मानते हैं कि प्राक पूंजीवादी संबंधों से मुक्ति ही मानव मुक्ति नहीं है । पुराने समय में दमन के निजी संबंध थे जिनकी जगह आधुनिक समय में दमन के निर्वैयक्ति रूप कायम हो गए हैं । इसके तहत आर्थिक संबंधो की खामोश मजबूरी छा गई है और सामंती जबर्दस्ती की जगह बुर्जुआ राज्य ने ले ली है ।
मार्क्स ने पत्रकार और संपादक के रूप में, कम्यूनिस्ट लीग के संगठक के रूप में और इंटरनेशनल की गतिविधियों के जरिए लेकिन सबसे अधिक पूंजीवाद की बुनियादी आलोचना के जरिए राजनीतिक घटनाक्रम पर निगाह रखी और उसे प्रभावित किया । बीसवीं सदी में तो अधिकांश मजदूर आंदोलन तथा तमाम विपक्षी समूह और पार्टियों ने उनके विचारों से प्रेरणा ली । किसी भी गम्भीर बहस के लिए उनके विचारों से टकराना अनिवार्य हो गया था । लेखक ने इसके साथ ही बीसवीं सदी में सोवियत समाजवाद को उनके विचारों का साकार रूप मानने की प्रवृत्ति का जिक्र करते हुए इस धारणा से असहमति जताई है । बहरहाल उसके पतन के साथ कुछ समय के लिए लगा कि पूंजीवाद की मार्क्सी आलोचना भी समाप्त हो चली है । कहा जाने लगा कि अब इस व्यवस्था के विकल्प की तमाम कोशिशों की असफलता निश्चित है । जल्दी ही विजयी पूंजीवाद के स्थायी अभिलक्षण युद्ध और संकटों के रूप में प्रकट होने लगे तो उसकी मार्क्सी आलोचना पर लोगों को भरोसा होना शुरू हुआ है ।                                                                                     

Wednesday, October 9, 2019

‘गोरा’ में खचित समय की व्याप्ति


              
                                 

              ‘गोरामें खचित समय की व्याप्ति

                                

(इस लेख मेंगोरा’ के सभी उद्धरण साहित्य अकादमी से प्रकाशित अज्ञेय के हिंदी अनुवाद से हैं ।)

रवींद्रनाथ ठाकुर जैसा बेचैन रचनाकार किसी भी भाषा, देश और समाज को सदियों में संयोग से मिलता है उनकी रचनाओं से देश तो समृद्ध हुआ ही, बांग्ला भाषा का गौरव भी बढ़ा आज इस बात को याद करना अधिक जरूरी है क्योंकि भारत जैसे बहुभाषी देश में किसी एक भाषा को राजकीय प्रश्रय देना सभी भाषाओं को दरिद्र बनाएगा । उनमें आपसी सहकार की जगह संदेह पैदा होगा । भारत की भाषाओं के  आपसी सहकार के चलते ही रवींद्रनाथ ठाकुर के इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद हिंदी के प्रसिद्ध कवि अज्ञेय ने किया । उनके अनुवाद की गुणवत्ता के चलते भी उपन्यास हिंदी में सुबोध हो गया है ।

यह उपन्यास 1907 से 1910 तक प्रबासी नामक पत्रिका में क्रमबद्ध प्रकाशित हुआ और 1910 में बांग्ला में छपा । किताब के बतौर छपाई के समय रवींद्रनाथ ने कुछ संपादन भी किया था । उनके मन में इस किताब की कल्पना 1904 में आई जब सिस्टर निवेदिता को उन्होंने यह कथा सुनाई थी । कथा में गोरा और सुचरिता का मिलन नहीं हुआ था । जो कहानी उन्होंने सुनायी थी उसमें गोरा के आयरिश मूल का पता चलने पर सुचरिता ने उससे विवाह करने से इनकार कर दिया था । इसे सुनकर सिस्टर निवेदिता नाराज हुईं और कहा कि जो असल जीवन में न हो उसे कथा में तो होता दिखाया जा ही सकता है । उपन्यास जब प्रकाशित हुआ तो दोनों का मिलन चित्रित हुआ । प्रकाशित कथा में गोरा के जन्म का समय 1857 का है । उसके वयस्क होने को तीस साल की उम्र मानें तो कथा 1880 की ठहरती है । कहानी के इस समय को ध्यान में रखें तो उन्नीसवीं सदी की आखिरी चौथाई की समूची समाजी और राजनीतिक हलचल का साक्ष्य इस उपन्यास से हासिल होता है । वह समय बहुमुखी और बहुस्तरीय बदलावों का था । ऐसे समय को रवींद्रनाथ ने केवल तारीख के रूप में नहीं दर्ज किया । उपन्यास विधा के सभी विद्वान मानते हैं कि उपन्यास से ऐतिहासिक समय को कथा में दर्ज करने की शुरुआत होती है । यह ऐतिहासिक समय आम तौर पर सामाजिक हलचलों के सहारे व्यक्त किया जाता है । इस तरह की अभिव्यक्ति तो इस उपन्यास में है ही, एक और तरह का बदलाव भी इसमें बखूबी उभरा है । इसे इस समय पर्यावरण की चेतना कहा जाता है । समूचे पर्यावरण को पहचानते हुए वे समय के इस बदलाव को देखते और दर्ज करते हैं । उस समय के कलकत्ता का हालउस समय कलकत्ता की गंगा और गंगा का किनारा वणिक सभ्यता की लाभ-लोलुप कुरूपता से जल-थल पर आक्रांत नहीं हुआ था; किनारे पर रेल की पटरी और पानी पर पुल की बेड़ियाँ नहीं पड़ी थीं । उन दिनों जाड़ों की संध्या में शहर के नि:श्वासों की कालिख आकाश पर इतनी घनी नहीं छा जाती थी ।यह वर्णन लेखन का समय है और जिस माहौल की याद की जा रही है वह कथा का समय है । लेखन के समय और कथा में वर्णित समय को इस तरह से अलगाना आज भी बेहद संवेदनशीलता की मांग करता है ।

इस उपन्यास के जरिए रवींद्रनाथ ठाकुर ने बांगला साहित्य में वैचारिक उपन्यास की एक नयी विधा को जन्म दिया । आज भी यह उपन्यास अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है । असल में उपनिवेशवादी हस्तक्षेप और उसके प्रतिरोध की विभिन्न धाराओं को जिस समझ के साथ उकेरा गया है उसकी जरूरत आज भी बनी हुई है । उपन्यास की वैचारिकता के लिए याद रखना होगा कि रवींद्रनाथ ठाकुर 1905 के बंग भंग के विरोध में हुई गोलबंदी में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे । उनकी इस सक्रियता से हासिल अनुभव ने भी उपन्यास को गहन वैचारिक पृष्ठभूमि प्रदान की है । उपन्यास में उठाये गये तमाम गम्भीर सवालों पर स्वदेशी आंदोलन की सफलता या असफलता की छाया है । साफ है कि उस समय जिन प्रवृत्तियों की जद्दो जहद हुई थी उनकी निरंतरता से हमारा समय भी ग्रस्त है । देश के स्वाधीनता आंदोलन का यह भी एक पक्ष है कि बंग भंग के विरोध का एक पहलू हिंदू पुनरुत्थान भी था । स्वदेशी आंदोलन के साथ मुस्लिम समुदाय नहीं था क्योंकि कलकत्ते में अधिकतर अनुपस्थित हिंदू जमींदार रहते थे जबकि पूर्वी बंगाल में बहुलता खेतिहर मुसलमानों की थी ।     

एकदम आरम्भ में ही उपन्यास अपनी विवेच्य वस्तु का पता दे देता है । इसकी कथाभूमि का शहर कलकत्ता है । अगर आपने प्रेमचंद का उपन्यासगबनदेखा हो तो याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उसकी कथाभूमि इलाहाबाद और कलकत्ते की है । हिंदी क्षेत्र में औपनिवेशिक आधुनिकता का प्रवेश इलाहाबाद से हुआ तो उत्तर भारत में उसका प्रवेश कलकत्ते से हुआ था । आधुनिकता का एक अन्य लक्षण विभिन्न सभाओं और संस्थाओं की मौजूदगी भी उपन्यास में प्रचुरता से प्रकट हुई है । यहां तक कि अखबार और पुस्तकें भी महत्वपूर्ण तरीके से मौजूद हैं । मतलब किगोराकी कथा में औपनिवेशिक आधुनिकता और उसके दबाव से पैदा सामाजिक हलचल महत्वपूर्ण तत्व हैं । आधुनिकता के साथ ही जुड़ी परिघटना नौकरशाही है जिसने मुट्ठी भर अंग्रेजों का शासन कायम रखने में मदद की थी । ऐसे हिंदुस्तानियों के बारे में बात करते हुए रवींद्रनाथ समय के संदर्भ विशेष से अलग होकर उस समय निर्मित उत्पीड़क व्यवस्था में मौजूद व्यक्ति के अमानवीकरण की प्रक्रिया की भी पड़ताल करते हैं । इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए सुचरिता से गोरा कहता है ‘---नौकरी के फंदे अंग के गहने होते जा रहे हैं और आजकल के डिप्टियों (भारतीयों) के लिए भी देश के लोग कुत्ते-बिल्ली के समान हुए जा रहे हैं । और इस तरह तरक्की पाते रहने से जो उनकी केवल अधोगति हो रही है, इस बात की अनुभूति भी उनकी चली जा रही है ।’         

इस दबाव से जो बदलाव आ रहे हैं उनमें स्वाधीनता की आकांक्षा से लगे लिपटे जाति व्यवस्था और स्त्री की सामाजिक स्थिति के मामले में उलटफेर जैसे प्रश्न कथा के एकदम शुरू में ही नजर आने लगते हैं । स्त्री का प्रसंग स्वदेश प्रेम से जुड़ा हुआ है । इस सवाल पर विनय और गोरा के विचारों का टकराव तब नजर आता है जब विनय कहता है ‘हम भारतवर्ष को केवल पुरुषों का देश मानकर देखते हैं, स्त्रियों को बिलकुल देखते भी नही ।’ उत्तर में गोरा कहता है ‘तो तुम शायद अंग्रेजों की तरह घर में और बाहर, जल-थल और आकाश में आहार-विहार और कर्म में, सब जगह स्त्रियों को देखना चाहते हो?’ इसके परिणाम की भयावहता की ओर संकेत करते हुए कहता है ‘उसका नतीजा यही होगा कि पुरुषों से स्त्रियों को अधिक मानना होगा- उससे भी देखने में सामंजस्य नहीं रहेगा ।’ विनय का इसके बाद का कथन तत्कालीन देशभक्ति की इस प्रचंड सीमा का उद्घाटन करता है ‘—तुम्हारी राय में देश मानो नारी-हीन ही है ।’ असल में मुख्य मामला स्त्री की सार्वजनिक उपस्थिति का है ‘गृहस्थी के काम-काज से बाहर अगर हम देश की स्त्रियों को देख पाते तो हम स्वदेश के सौंदर्य और संपूर्णता को देखते ।’ कहने की जरूरत नहीं कि राष्ट्र के भीतर के तनावों को इसमें अभिव्यक्त देखा जा सकता है । सुचरिता के प्रेम में पड़ने के बाद इस मामले में गोरा भी बदलता है । उसके अनुभव को दर्ज करते हुए रवींद्रनाथ ने लिखा ‘जब तक भारतवर्ष की नारी उसकी अनुभव गोचर नहीं हुई थी, तब तक उसकी भारतवर्ष की उपलब्धि कितनी अधूरी थी, यह वह इससे पहले नहीं जानता था । गोरा के लिए नारी जब तक अत्यन्त छायामय थी, तब तक देश के संबंध में उसका कर्तव्य-बोध कितना अधूरा था !’

रवींद्रनाथ के स्त्री चित्रण की विशेषता का स्रोत बंगाल का समाज तो हो ही सकता है लेकिन उनके समय की भूमिका की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती । कहने की जरूरत नहीं कि उस समय के समूचे भारतीय कथा साहित्य में किसान और स्त्री की उपस्थिति अलग से पहचानी जा सकती है । रवींद्रनाथ की स्त्रियों में फैसला लेने की क्षमता बहुस्तरीय है । बुजुर्ग स्त्रियां पारिवारिक जीवन में भी अपनी स्वतंत्र जगह कायम रखते देखी जा सकती हैं तो युवतियों की दुनिया तो और भी अधिक स्वाधीनता का पता देती है । जो भी मौका उन्हें उपलब्ध है उसमें वे न केवल अपने बारे में फैसले लेती चित्रित की गयी हैं बल्कि विनय को गोरा के सम्मोहन से मुक्त करने में ललिता के प्रयास के माध्यम से रवींद्रनाथ ने स्त्री के माध्यम से इस चारित्रिक स्वाधीनता को पुरुष के भीतर भी जगाने का संदेश दिया है । उनकी सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का कमाल स्त्री के इस स्वायत्त संसार के भी लगभग प्रामाणिक वर्णन से प्रकट होता है ।          

इतने बड़े सामाजिक फलक का यह उपन्यास विधा की शर्तों पर भी पूरी तरह से खरा उतरता है । इसमें पात्रों के बीच विचार विमर्श के साथ ही उनके जीवन की निजी हलचलें भी चलती रहती हैं । पूरे उपन्यास में रोचकता कहीं कम नहीं होने पाती । आखिरी पन्ने तक रोमांच बना रहता है । सुचरिता और गोरा के रिश्ते की परिणति का रोमांच तो आखिरी पंक्ति तक बनाए रखने में रवींद्रनाथ सफल हुए हैं । निराला को शायद इसी से कुल्ली के समलैंगिक होने के तथ्य को अंत तक छिपाए रखने की कला मिली होगी । पाठक को बीच बीच में गोरा के सिलसिले में कुछ रहस्य का संकेत मिलता रहता है लेकिन रहस्य अंत में खुलता है । उसके हिंदू पुनरुत्थान का नेता होने और आयरिश माता-पिता की संतान होने की विचित्रता इस हिंदू पुनरुत्थान के यूरोपीय मूल का इशारा पूरी विडम्बना के साथ करता है । जब उसके समक्ष सचाई खुलती है तो मानो उसकी मुक्ति हो जाती है । इस मुक्ति को स्वर देते हुए गोरा कहता है आज मैं सारे भारतवर्ष का हूँ । मेरे भीतर हिन्दू, मुसलमान, ख्रिस्तान किसी समाज के प्रति कोई विरोध नहीं है । आज इस भारतवर्ष में सबकी जात मेरी जात है, सबका अन्न, मेरा अन्न है ।इससे पहले भी उसके हिंदू और मनुष्य होने के बीच का टकराव चित्रित हुआ है । जब उसके अविनाश जैसे अनुयायी प्रचार के लिए उसका उपयोग करना चाहते हैं तो उसका क्षोभ जाहिर होता है । इसके अतिरिक्त भी शहर से बाहर देहात में उसके अनुभव उसे कट्टरता से ऊपर उठा देते हैं ।  

उपन्यास को प्रेम कथा के रूप में भी पढ़ा जा सकता है । कम से कम दो जोड़े तो हैं ही जिनके आपसी भावनात्मक संबंधों की उठापटक पूरे उपन्यास में व्याप्त है । गोरा और सुचरिता तथा विनय और ललिता के प्रेम की कहानी उपन्यास का मुख्य कथासूत्र है । दोनों स्त्रियां ब्राह्म परिवार की हैं । इस तरह प्रेम के साथ ही ब्राह्म और हिंदू समाज का टकराव भी उभर आता है । इन दोनों ही समाजों के कट्टरों के साथ गोरा को जिन्होंने अपनाया उन आनंदमयी और सुचरिता के पालन पोषण करने वाले परेश बाबू ऐसे पात्र हैं जिनके समक्ष कट्टरता परास्त हो जाती है । हिंदू और ब्राह्म के बीच यह टकराव किस स्तर का था इसका पता चलता है जब हम ललिता के प्रसंग में सुनते हैं कि ‘ललिता के मन में ब्राह्म-परिवार का संस्कार बहुत दृढ़ था, जिन स्त्रियों को आधुनिक ढंग की शिक्षा नहीं मिली और जिन्हें वह हिन्दू घर की औरतें कहकर जानती थीं, उनके प्रति ललिता में सम्मान नहीं था ।’ प्रसंग आनंदमयी के समक्ष इस अहंकार के टूटने का है । संप्रदाय का यही विभाजन परेश बाबू के शब्दों में सुनिए ‘संप्रदाय ऐसी चीज है कि लोगों को यह जो सबसे सीधी बात है कि इंसान इंसान है, यही भूला देता है । इंसान ब्राह्म है कि हिन्दू, समाज की गढ़ी हुई इस बात को विश्व-सत्य से बड़ा बनाकर एक झमेला खड़ा कर देता है ।’ इस भावना की ही प्रतिध्वनि आनंदमयी के कथन में मिलती है ‘तुम्हारा ब्राह्म समाज भी क्या मनुष्य को मनुष्य से मिलने नहीं देगा? ईश्वर ने जिनको भीतर से एक बनाया है, तुम्हारा समाज बाहर से उन्हें अलग कर रखेगा?’ इसी प्रेम ने गोरा के मन में हिंदू धर्म की उदार भावना की जगह बनाई । सुचरिता से वह कहता है ‘—दुनिया में केवल हिन्दू धर्म ने मनुष्य को मनुष्य कहकर जाना है, केवल दल का व्यक्ति नहीं समझा । हिन्दू धर्म मूढ़ को भी मानता है, ज्ञानी को भी मानता है- और ज्ञान की भी केवल एक मूर्ती को नहीं मानता, उसके अनेक प्रकार के विकास को मानता है ।इसी हिंदू धर्म की कमजोरी विनय को तब महसूस होती है जब उसने ललिता से विवाह करने का निश्चय किया । गोरा से वह कहता हैजिस समाज में ज़रा-सा धक्का लगने से ही टूट आ जाती है और हमेशा के लिए रह जाती है, उस समाज में मनुष्य के लिए अपनी इच्छा से चलने-फिरने या काम-काज करने में कितनी कठिनाइयाँ हो जाती हैं, यह भी तो सोचना चाहिए ।हिंदू धर्म की इस समस्या को परेश बाबू ने व्यक्त करते हुए कहा किहिन्दू समाज मनुष्य का अपमान करता है, निषेध करता है, इसलिए आजकल के ज़माने में उसके लिए आत्मरक्षा कर सकना प्रतिदिन कठिनतर होता जाता है, क्योंकि अब वह और ओट में नहीं रह सकता- अब दुनिया में चारों ओर रास्ते खुल गए हैं, चारों ओर से लोग उस पर चढ़े जा रहे हैं- अब शास्त्र-संहिता के बाँध बनाकर या दीवारें खड़ी करके वह अपने को किसी तरह भी दूसरों के संपर्क से अछूता नहीं रख सकता । अब भी अगर हिन्दू समाज अपने भीतर संग्रह करने की शक्ति नहीं जगाता और क्षय-रोग को ही प्रश्रय देता चलता है, तो बाहर के लोगों का यह संपर्क उसके लिए एक सांघातिक चोट हो जाएगा ।कहीं कहीं उनकी आलोचना अंबेडकर की चिंतनधारा से संवाद करती हुई महसूस होती है । देहात के बारे में गोरा की राय देखिए ‘—इन देहातों में समाज के बंधन पढ़े-लिखे भद्र समाज से कहीं अधिक कड़े हैं । हर घर के खान-पान, उठने-बैठने और हर काम-काज पर समाज की अपलक आँखें मानो दिन-रात निगरानी रखती थीं ।--इन लोगों में ऐसा कोई ऐक्य नहीं था, जो सुख-दु:ख और विपत्ति में उन्हें कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़ा कर सके ।धार्मिक उथल पुथल इस उपन्यास की केंद्रीय विषयवस्तु है । हिंदू और ब्राह्म के बीच विभाजन की जटिलता से लगभग सभी पात्र रंगे हुए हैं । दोनों धर्मों के बीच की उग्र सांप्रदायिकता और उदार पालनकर्ताओं के बीच द्वंद्व से उपन्यास का तानाबाना बुना गया है । साथ ही धर्म की भूमिका भी उस दौर में नये तरीके से तय हुई । इस गहन मंथन को भी रवींद्रनाथ ने इस उपन्यास के पात्रों के माध्यम से रचनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है ।                   

गोरा जन्म से आयरिश है इस तथ्य के उल्लेख से रवींद्रनाथ मामले की जटिलता को और बढ़ा देते हैं । सभी जानते हैं कि इंग्लैंड का पहला उपनिवेश आयरलैंड ही था । इसी गोरा के सहारे रवींद्रनाथ पाठक को उस बंगाल से परिचित कराते हैं जो तत्कालीन बौद्धिक समुदाय की निगाह से ओझल था । यह प्रकरण प्रकारांतर से स्वाधीनता आंदोलन के इर्द गिर्द जारी वैचारिक मंथन की हदों की आलोचना भी है । गोरा न केवल विनय जैसे पढ़े लिखे नौजवानों के संसर्ग में रहता है बल्कि हम उसे इस सीमा को बार बार अनेक स्तरों पर तोड़ते और पार करते देखते हैं । पाठक के लिए गोरा का व्यवहार ऐसी खिड़की बन जाता है जिससे झांककर वह उस समय की बेचैनी की व्यापकता को देख पाता है । कहीं न कहीं उस समय की यह बेचैनी लेखक के भीतर की भी रही होगी जिसका कथात्मक प्रक्षेपण उन्होंने इस अद्भुत पात्र के जरिए किया है । इस पात्र की विचित्रता ने रवींद्रनाथ को तत्कालीन समाज और बौद्धिक जगत की गहरी और तीखी आलोचनात्मक समीक्षा का औजार उपलब्ध करा दिया है जिसे भारत के ही किसी अन्य पात्र के सहारे करना कदाचित अविश्वसनीय होता । गोरा जिन लोगों के बीच नियमित रूप से जाता है उन्हें निम्न श्रेणी का कहा गया है । उनमें नंद नामक बाइस साल का एक बढ़ई था जो बाप की दुकान में लकड़ी के बक्से तैयार करने के अतिरिक्त मैदान में शिकार भी खेलता था जिसमें उसके बराबर बंदूक का निशाना साधनेवाला कोई नहीं था । इसके अलावे क्रिकेट के खेल में गेंद फेंकने में भी वह अद्वितीय था । इतना जीवंत चित्रण मानो गोरा ने रवींद्रनाथ को अपने अनुभव स्वय सुनाए हों ।

गोरा को पता चला कि वही स्वस्थ लड़का सहसा मर गया । मौत का कारण धनुष्टंकार था जिसे नंद की माता भूत लगना समझकर ओझा से झड़वाती रही थी । इससे दुखी होकर गोरा कहता है ‘जब तक लोग मिथ्या-भय से जकड़े रहेंगे, तब तक हमारे शिक्षित लोग भी इसके प्रभाव से बच नहीं सकते’ । इससे सीख मिली कि ‘नीचे के लोगों का निस्तार किए बिना तुम्हारा यथार्थ निस्तार कभी नहीं होगा’ । जनता की तकलीफ से दूरी बनाकर रहने वाले मध्यवर्ग के लिए आज भी गोरा की यह सीख बहुत अर्थवान है । न केवल इतना बल्कि चारों ओर फैले विपरीत वातावरण के गाढ़े अंधकार से जूझने की हिम्मत को एक रूपक के जरिए गोरा व्यक्त करता है ‘अँधेरा बड़ा होता है और दीये की शिखा छोटी । पर इतने बड़े अंधकार से इतनी छोटी-सी शिखा पर ही मैं अधिक आस्था रखता हूँ’ । कहने की जरूरत नहीं कि यह विश्वास केवल गोरा का नहीं है । इसे गोरा में रवींद्रनाथ ने प्रतिष्ठित किया है । शासन की ओर से आज जब अंधविश्वास को मान्यता मिल रही हो तो उससे जूझने का यह माद्दा और उसका ऐसा उद्घोष प्रेरणा देने वाला है । यह वैज्ञानिक चेतना हमारे देश की आजादी की आजादी की लड़ाई का एक और विशेष पहलू था । इसी समझ के बल पर रवींद्रनाथ ने भूकम्प को दैवी कोप कहने पर गांधी का विरोध प्रेमचंद के साथ किया था । कोई संदेह न रहे इसलिए गोरा से कहलवाते हैं ‘--हमारा यह देश मुक्त होगा ही, अज्ञान उसे हमेशा जकड़े नहीं रहेगा और अंग्रेज़ भी उसे अपनी व्यापार की नौका के पीछे-पीछे साँकल से बाँधे हुए नहीं ले जा सकेगा’ ।

उस समय हिंदू धर्म के क्षेत्र में जो नयापन आया उसने देश के स्वाधीनता संग्राम के भीतर ऐसे विराट व्यक्तित्वों की जगह बनायी जिन्होंने धर्म को मनुष्य के कल्याणोन्मुखी बनाया । इसने रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि अरविंद से लेकर गांधी तक विचारकों की भरी पूरी श्रृंखला को जन्म दिया जिन सबके  कारण एक ओर अंधविश्वास के खात्मे की प्रेरणा आयी तो धर्म का स्वरूप सामाजिक भेदभाव के विरोध का समर्थक बना लिया गया । यह बदलाव कुछ हद तक इस्लाम के भीतर भी आया और बौद्ध धर्म को तो समता के प्रतीक के बतौर ही स्थापित कर दिया गया । उपन्यास की यह दुनिया भी हमारे समय तक चली आयी है ।                            

पूरे उपन्यास में जो भी प्रेम के प्रसंग हैं उनके चित्रण में उनकी उपन्यास कला की क्षमता का पता चलता है । प्रेमी और प्रेमिका के मन में उपजे लेकिन अव्यक्त या कहे न गये प्रेम से उन्हें सार्वजनिक आचरण में जो असहजता महसूस होती है उस परिस्थिति को वे अपनी ओर से कहते नहीं बल्कि संवादों और स्थितियों के वर्णन से प्रकट होने देते हैं । इस मामले में उनकी कला बेहद आकर्षक है और दुनिया के बड़े कलाकारों से तुलनीय है । मनुष्य की अंतरात्मा में घुसकर उन्होंने सामाजिक संबंधों की उलझी हुई दुनिया में अपने पात्रों के भीतर की उलझनों और उनके सामाजिक आचरण का बेहद कुशल अंकन किया है । इन हालात की अभिव्यक्ति में भाषा का उनका बरताव मूल में तो जैसा होगा उसे बताना मुश्किल है लेकिन इस मामले में उनकी अपार क्षमता अज्ञेय के हिंदी अनुवाद में भी रह रहकर चमक उठती है ।

समूचे व्यक्तित्व को आपाद मस्तक हिला डालने की रहस्यमय शक्ति वाले प्रेम का वर्णन रवींद्रनाथ ने गोरा के ही प्रसंग में किया है । कट्टर पुनरुत्थानवादी गोरा के मन में जब ब्राह्म कन्या से प्रेम का प्रवेश होता है तो उसे जीवन में पहली बार प्रकृति की सुंदरता और उसके आकर्षण का पता चलता है । असर इतना गहरा है कि इस खिंचाव से मुक्ति पाने के मकसद से गोरा कुछ समय के लिए घर छोड़कर अकेला निकल जाता है ।

कलकत्ते के शहरी माहौल से गोरा का यह निष्क्रमण उसके लिए और उसके सहारे पाठक के लिए बंगाल के तत्कालीन ग्रामीण यथार्थ का दिग्दर्शन बन जाता है । रवींद्रनाथ इसके जरिए उस समय के हिंदू बहुल मध्यवर्ग में व्याप्त धार्मिक सांप्रदायिक सोच का भी प्रतिवाद करना चाहते रहे होंगे । यह प्रतिवाद वे सभी अन्य मामलों की तरह मानववाद के सहारे खड़ा करते हैं । गोरा को वहां हिंदू परिवार किसी मुसलमान लड़के का पालन पोषण करता मिला । उसकी कहानी पाठक के सामने अंग्रेजी राज के निलहे साहबों की वह क्रूर दुनिया उघाड़ देती है जिनके अत्याचार ने दीनबंधु मित्र से नीलदर्पण जैसा प्रतिबंधित नाटक लिखवाया था । नील का यह प्रसंग तब आया है जब गांधी का चंपारण सत्याग्रह शुरू नहीं हुआ था । इसे साहित्यकार की भविष्यद्रष्टा संवेदना का भी सबूत माना जा सकता है । इस प्रसंग को साहित्य के स्रोत और उसकी सामाजिक भूमिका से पैदा होने वाली शासकीय असुविधा की निरंतरता के लिए भी देखा जाना चाहिए ।

नीलहा अंग्रेजों का जिक्र आते ही उपन्यास का गुरुत्व केंद्र बदल जाता है । अब तक की कहानी कुछ घरों और व्यक्तियों के इर्द गिर्द घूम रही थी लेकिन इसके बाद सहसा उन्हीं व्यक्तियों के बहाने शासन तंत्र और सार्वजनिक मामलों का प्रवेश धड़धड़ाकर होता है । घूमते हुए गोरा जिस गांव पहुंचता है उस घोषपुर गांव के मुस्लिम किसानों के सरकश नेता फ़रू के जरिए विद्रोहियों की हिम्मत और सरकारी तंत्र की क्रूरता का साक्षात पाठक को होता है । गोरा का भी मानो कायाकल्प हो जाता है और उसके भीतर से अन्याय से टक्कर लेने वाला नायक उभरकर सामने आ जाता है । जिस अंग्रेज जनता को लोकतांत्रिक होने का अभिमान था उसकी भारत के लोगों में छवि राजा की है । गोरा का सहपाठी वकील कहता है कि प्रत्येक अंग्रेज राजा है उसे मारना ही राज-विद्रोह है तथा घोषपुर के किसानों ने यह काम किया है इसलिए उनकी रिहाई कठिन है । बहरहाल गोरा भी यही अपराध कर बैठता है और जेल चला जाता है और रिहा होने से साफ इनकार कर देता है । उसकी पेशी मजिस्ट्रेट के सामने होती है । मजिस्ट्रेट ने उसे एक मास कैद की सजा सुना दी । मजिस्ट्रेट के घर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम था । आज ही ऐसा नहीं हुआ है कि शासन और सत्ता संस्कृति को पालतू बनाने का प्रयास करें । इस प्रयास की भी औपनिवेशिक विरासत है और इसकी गवाही रवींद्रनाथ जैसे विद्रोही से बेहतर कौन दे सकता था । सांस्कृतिक कार्यक्रम के दो भागीदारों का स्वाभिमान जागता है और वे कार्यक्रम छोड़कर कलकत्ते चले आते हैं । रास्ते में उनमें एक दूसरे के प्रति कोमल भाव पैदा होते हैं । विद्रोहियों के बीच बंधुता की यह संभावना दिखा पाना भी उपन्यास के चित्रण का एक अन्य आकर्षक पक्ष है । गोरा के साथ इस घटना के बहाने रवींद्रनाथ ने औपनिवेशिक शासन की गहरी पड़ताल की है । इससे उस शासन के विभिन्न अंगों की भूमिका का पता चलता है । उनकी यह भूमिका आज भी बनी हुई है । तत्कालीन न्याय व्यवस्था की परख उन्होंने पीड़ित के पक्ष से की ‘एक आदमी को जेल भेजने में कितने निरपराध लोगों को कितनी कठोर सज़ा दी जाती है, यह बात अगर दंडदेने वाले अपने अंत:करण में अनुभव कर सकते, तो किसी को जेल भेजना ऐसा सहज अभ्यास का काम कभी न होता’ । एक बार लगता है कि अगर रवींद्रनाथ इस समय होते तो निश्चय ही उन्हें भी जेल भेजा जा चुका होता ।

नीलहा किसानों और गोरा की सजा के इस सार्वजनिक हस्तक्षेप के बाद उपन्यास फिर से पात्रों की घरेलू दुनिया में लौटता है लेकिन अब उनकी निजी दुनिया भी इस बाहरी प्रसंग से मानो पूरी तरह बदल गयी है । घरेलू दुनिया के इस बदलाव का संकेत लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की एक कोशिश से मिलता है जो सामाजिक विरोध के कारण फलीभूत नहीं हो पाता । घरेलू पात्र भी पहले के परिचित संबंधों से अब दूसरे तरह के संबंधों में प्रवेश करना शुरू करते हैं जिसमें आपसी आकर्षण भी समूचे सामाजिक परिवेश में भारी हलचल का कारक बन जाता है । पहले भी हमने जिक्र किया कि उपन्यास के स्त्री पात्र अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व जाहिर करते हैं और इसमें युवतियों के साथ बुजुर्ग भी शामिल हैं । इस मामले में तो सचमुच लेखक की पर्यवेक्षण की क्षमता अनुपम है ।   

प्रेम के उनके चित्रण की खूबी यही है कि एक ओर वह धार्मिक और सांप्रदायिक संकीर्णता को पार कर जाता है तो दूसरी ओर परिवार के भीतर व्यक्ति की स्वायत्तता की प्रेरणा को जन्म देता है । व्यक्ति की स्वाधीनता के लगभग घोषणापत्र की तरह रवींद्रनाथ ने एक महत्वपूर्ण पात्र से कहलवाया है ‘समाज के लिए मनुष्य को संकुचित होकर रहना पड़े यह कभी ठीक नहीं हो सकता, समाज को ही मनुष्य के लिए अपने को बराबर प्रशस्त करते चलना होगा’ । बहुत स्वाभाविक है कि यह बात अज्ञेय को पसंद आयी होगी और उनकी मान्यता की रोशनी में देखने से सही भी लगेगी लेकिन इस बात को संदर्भ के साथ देखने से इसके मूलगामी महत्व को समझना आसान होगा । यह एक ऐसी पुत्री के पिता का कथन है जो बिना धर्म बदले दूसरे धर्म के लड़के के साथ विवाह को मान्यता दे रहे हैं । कहने की जरूरत नहीं कि विवाह आज भी ऐसा कर्मकांड है जिसमें पुरानी रीति का पुनरुत्थान सबसे अधिक हो रहा है । निजी होते हुए भी यह सर्वाधिक सामाजिक घटना है इसलिए इसमें परम्परा को तोड़ना सबसे कठिन होता है । उस समय के पारिवारिक ढांचे के भीतर स्त्री और पुरुष के स्वतंत्र होकर जीवनसाथी चुनने की धारणा की प्रतिष्ठा कितने प्रवादों को जन्म देती रही होगी और उसके लिए संबंद्ध व्यक्तियों को कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ती रही होगी इसकी झलक पाने के लिए भी इस उपन्यास को देखना उपयोगी होगा । इस मामले में यह निश्चय ही हमारे देश के सामाजिक जीवन में आधुनिकता के प्रवेश संबंधी दबावों और तनावों का कुछ हद तक प्रामाणिक दस्तावेज बन गया है । साहित्य के प्रति इस नजरिए को उसके सौंदर्य के लिए जितना भी ध्यान भटकाने वाला समझा जाए सामाजिक हलचल का एक सबूत साहित्य भी रहेगा । समाज और व्यक्ति के टकराव में उपर्युक्त द्वंद्व को और अधिक तीखे ढंग से जिस लड़के का विवाह हो रहा है उस विनय के मुख से रवींद्रनाथ ने कहलवाया ‘समाज नामक राक्षस को प्रतिदिन मनुष्य-बलि देकर उसे खुश रखना होगा और जैसे भी हो उसी के शासन की फाँसी गले में डाले रहना होगा, चाहे प्राण रहें या न रहें-यह मैं किसी तरह नहीं स्वीकार कर सकूँगा’ । जिस कलात्मक तरीके से इस उथल पुथल का चित्रण रवींद्रनाथ ने व्यक्ति और समूह के सिलसिले में किया है उसके लिए मूल उपन्यास में प्रयुक्त कला को उपन्यास का कोई भी विश्लेषण पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर सकता ।

सामाजिक आचरण में हिंदू समाज का सबसे भयानक रूप दहेज में नजर आता है और बंगाल जैसे स्त्री प्रमुखता वाले समाज में भी इसकी मौजूदगी अचरज में डालने वाली है । हिंदू धर्म के पक्ष में गाहे बगाहे उठ खड़ा होने वाले भी इस समस्या से शिकायत करते मिलते हैं ‘हमारे समधी जितने वज़न की लड़की लेंगे, उससे कुछ अधिक सोना लिए बिना नहीं छोड़ेंगे; क्योंकि वह जानते हैं कि मनुष्य तो नश्वर पदार्थ है, सोना उससे अधिक दिन टिकता है’ । इसी तरह हिंदू समाज की उनकी इस आलोचना में अंबेडकर की प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है ‘हिन्दू समाज समूची मानव जाति का समाज नहीं है- केवल उन्हीं का समाज है, जो दैवयोग से हिन्दू होकर जन्म लेते हैं’ । अन्य धर्मों से हिंदू धर्म की भिन्नता को भी रवींद्रनाथ ने लगभग उन्हीं प्रकरणों में चिन्हित किया है जिनमें अंबेडकर ने बाद में चिन्हित किया । गोरा ने महसूस किया कि ‘यह समाज मनुष्य को जरूरत पड़ने पर सहायता नहीं देता था, विपत्ति आने पर सहारा नहीं देता था, केवल दंड देकर उसे नीचा दिखाकर विपन्न ही करता था’ । आज उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने के लिए कितनी आसानी से तर्क मिल जाते ! उपन्यास का अंत हिंदू पुनरुत्थान के उग्र समर्थक गोरा के आयरिश साबित होने से मनुष्य मात्र रह गये नायक और ब्राह्म होकर भी प्रेम के हाथों धार्मिक संकीर्णता से मुक्त नायिका सुचरिता और उसके उदारमना पिता के आपसी सौहार्दपूर्ण ऐक्य से होता है । रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे विश्व कवि ही संकीर्णता को खारिज करते हुए मनुष्य मात्र के हृदय में उठने वाले प्रेम की इस साझा भूमि की प्रतिष्ठा कर सकते थे ।                                              

उपन्यास के बीच बीच में रवींद्रनाथ का कवि कलाकार भी बेहिचक आता रहता है । उदाहरण के लिए कविता की आवृत्ति के बारे में ‘कविता की आवृत्ति में अच्छी आवृत्ति करने वाला श्रोता के मन में एक विशेष मोह उत्पन्न करता है । कविता का भाव उसे पढ़नेवाले को एक महिमा प्रदान करता है, वह मानो उसके कंठ-स्वर उसकी मुख-श्री और उसके चरित्र में जटिल होकर दीखता है । फूल जैसे पेड़ की डालों को विशेष शोभा प्रदान करते हैं, वैसे ही कविता की आवृत्ति करनेवाले को ।’ यह पूरा वर्णन विनय के सामने ललिता की खूबी के प्रकट होने का है लेकिन क्या उतना ही! मुक्त छंद की कविता के सौंदर्य के प्रकाश में आवृत्ति के महत्व की निराला की धारणा को इससे मिलाया जा सकता है । समूचे उपन्यास में मनोभावों के सूक्ष्म वर्णन में पात्रों की देहभाषा का जैसा रूपकात्मक वर्णन हुआ है उसकी थोड़ी झलक अनुवाद के बावजूद पाठक को मिलती रहती है ।