Thursday, May 30, 2019

मार्क्सवाद की नवीनता


          
                           
(जयपुर में जलेस की ओर से आयोजित कार्यशाला में बोलना साहित्य और विचारधारा पर था लेकिन पिछले कुछ वर्षों से मार्क्सवाद पर जारी काम के चलते बोला मार्क्सवाद के उतार चढ़ाव पर । बोलने के बाद कुछ चर्चा भी हुई जिसके आलोक में कुछ सुधार किया गया है । मूल वक्तव्य की अनौपचारिकता को भी कम कर लिया गया है । बोले को लिखे में सलमान ने बदला है । इसके बाद संपादन हुआ ।)
सोवियत संघ के पतन के बाद कहा जाने लगा कि मार्क्सवाद समाप्त हो गया है । लेकिन इक्कीसवीं सदी की बदलती हुई परिस्थितियों में ढेर सारा नया काम हो रहा है । इस सिलसिले में याद रखना होगा कि मार्क्स ने जो कहा कि दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की व्याख्या की है लेकिन सवाल तो उसे बदलने का है । तो मार्क्स के इस कथन की व्याख्या इस तरह की जाती है जैसे व्याख्या करना कोई बुरी बात हो । असल में इसका मतलब है- इस तरह की व्याख्या जो बदलने की प्रेरणा दे । मार्क्सवाद व्याख्या का निषेध नहीं करता । इस संदर्भ में देखना होगा कि बदले हुए समय की व्याख्या मार्क्सवाद कर पा रहा है या नहीं और कि इस व्याख्या से हम बदलाव के उपकरण तलाश कर पा रहे हैं या नहीं ।
मार्क्सवाद के बारे में आम धारणा है कि वह पुराने जमाने की बात हो गया है । इसे हम सब अपनी सभाओं में बुजुर्गों की बहुतायत से समझ सकते हैं । लेकिन पिछले दिनों तमाम नए लोग सामने आए हैं जो नए समय की चुनौतियों के समक्ष बदलाव की सम्भावना के लिए लगातार काम कर रहे हैं । कहने का मतलब यह है यह जो नया समय है इसको व्याख्यायित करने में, इसको समझने में और मूलतः इसको बदलने में मार्क्सवाद कोई उपकरण उपलब्ध करा रहा है कि नहीं इस दृष्टि से पिछले दिनों मैंने कुछ एक चीज़ों का अध्ययन किया । इस सिलसिले में हमें सफलता को पैमाना बनाने की जगह प्रयास को पैमाना बनाना होगा । नागार्जुन ने तो लिखा ही है ‘जो नहीं हो सके पूर्णकाम उनको प्रणाम’ तो कहने का मतलब है कि सफलता से अधिक महत्व प्रयास का है क्योंकि यह जो व्यवस्था है बनाई हुई पूंजीवाद की उसमें सफल लोग हमेशा मुठ्ठी भर ही हो सकते हैं, ज्यादातर लोग वंचित ही होते हैं, हारे हुए ही होते हैं । इसके मद्देनजर यह भी कि पिछले दिनों चुनावी क्षेत्र में जो परिवर्तन आया उसके समक्ष बहुत सारे लोगों ने बहुत सारी बातें कहीं लेकिन उस राजनीतिक परिवर्तन से सबसे बड़ी सीख जो हमें लेनी चाहिए वह यह कि डट करके काम करना होगा । पिछले दिनों का जो राजनीतिक परिवर्तन है उसने और कुछ बताया हो या न बताया हो यह तो बताया ही है कि अगर टिक कर के, एड़ी टिकाकर के काम करते रहते हैं तो फिर अनुकूल परिस्थितियों में बदलाव आता है ।
इसके मद्देनजर मुझे यह लगा कि मार्क्सवाद के सिलसिले में नए समय में क्या हो रहा है उसे देखा जाए और इस पूरे मामलें में यह सामान्य सी लगती बात अच्छी तरह से समझ में आई कि

मार्क्सवाद कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो बहुत स्थिर रहने वाली वस्तु हो या वह एक ही जगह टिककर रह जाए बल्कि उसमें निरंतर विकास भी होता रहा है, बदलाव भी आते रहे हैं क्योंकि वह एक जीवन्त रचना है । वह ऐसा दर्शन नहीं है जिसे प्राप्त कर लिया गया है और फिर सुरक्षित बचा हुआ है जिसे समय समय पर प्रकट कर देना है । बल्कि चूंकि समाज से आने वाले लोग ही मार्क्सवाद की ताकत होते हैं और यह समाज अपनी तरह से उन लोगों का निर्माण करता रहता है । इसीलिए हर एक दौर में उसे नये तरह से व्याख्यायित भी किया जाता है क्योंकि जब मनुष्य बदलता है तो सब कुछ बदलता है । परिस्थितियों के बदलने से हमारी पार्टियों में, लेखकों में समाज से आने वाले लोगों की मानसिकता भी आती है और उसके हिसाब से बहुत कुछ बदलता जाता  है । स्पष्ट है कि मार्क्सवाद एक जीवन्त दर्शन है इसलिए वह कहीं जाकर स्थिर हो गया है ऐसा हमें नहीं मानना चाहिए ।
इसके मद्देनजर आप ध्यान दीजिएगा तो दिखेगा कि बीसवीं सदी का जो मार्क्सवाद था और यह जो नये समय का मार्क्सवाद है इसमें कुछ फर्क है । इक्कीसवीं सदी का मार्क्सवाद के नाम से बाकायदा वेनेजुएला में यूगो शावेज ने इसे चलाया था । मतलब कि इक्कीसवीं सदी का मार्क्सवाद यह एक पद है जो बताता है कि इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद नये किस्म का है, जो बीसवीं सदी से थोड़ा भिन्न किस्म का  है । उसकी जो भिन्नता है उसमें एक तो यह कि साहित्य की दृष्टि से बीसवीं सदी के मार्क्सवाद में, सोवियत मार्क्सवाद में भी और उसके समानांतर जो पाश्चात्य मार्क्सवाद विकसित हुआ उसमें भी, साहित्य की एक बहुत गहरी भूमिका रही है । सोवियत मार्क्सवाद में भी लगातार साहित्यकारों का जिक्र किया जाता था और जो पश्चिमी मार्क्सवाद है, जो पाश्चात्य मार्क्सवाद है जिसको वेस्टर्न मार्क्सिज्म बोलते हैं उसमें भी साहित्यकारों की बड़ी उपस्थिति रही है । साहित्य से जुड़े जो लेखक थे वे भी बहसों में उदाहरण के बतौर सामने आते रहे हैं । उस दौर के मुकाबले महसूस किया जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद के भीतर साहित्य की उपस्थिति थोड़ी कम हो गई है । इस प्रसंग में यह ध्यान दीजिएगा कि उन्नीसवीं सदी में, मार्क्स के समय में भी साहित्य की उपस्थिति उतनी ज्यादा नहीं थी तो इसका मतलब यह है कि कुछ ऐसे दौर होते हैं जब शायद दूसरे बड़े सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं और सारी वैचारिक ऊर्जा उनको समझने में खपानी पड़ती है । तो संभवतः इसी कारण से कुछ लोगों का यह कहना है कि इस दौर में मार्क्सवाद का जो उभार हुआ है उसमें साहित्यिक प्रसंग की उपस्थिति थोड़ी कम है बीसवीं सदी के मुकाबले में और उसके मुकाबले  दूसरे सवालात ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं । जो दूसरे सवालात ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं उसका कारण यह है कि बहुत से लोगों को यह लग रहा है कि यह जो हमारा पूंजीवाद है, जो हमारे समय का सबसे बड़ा यथार्थ है वह पूंजीवाद भी अपने उन्नीसवीं सदी के दिनों में लौट रहा है । जैसे जैसे निजीकरण बढ़ रहा है, जैसे जैसे अस्थायित्व बढ़ रहा है, वैसे वैसे एक तरह से वह अपने पुराने रूप में लौट रहा है । यह जो पूंजी के चरित्र में बदलाव आ रहा है उसके इर्द गिर्द जो दूसरे सवाल हैं, व्यापक सवाल हैं वे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं और शायद उसी कारण से साहित्य का प्रसंग थोड़ा पीछे रह गया है ।
दूसरा जो आमतौर पर लोगों का कहना है वह यह कि बीसवीं सदी में  दोनों, फिर मैं कह रहा हूं सोवियत मार्क्सवाद के भीतर भी और उसके समानांतर जिसे आप पश्चिमी मार्क्सवाद कहते हैं उसके भीतर भी, एक तरह से मार्क्सवाद का एकेडमाईजेशन हो गया था । कहने का मतलब यह कि वह जीवंत प्रसंगों के मुकाबले एक तरह से पढ़ने लिखने की चीज़ ज्यादा हो गया था और फिर पाश्चात्य मार्क्सवाद  में जिन भी व्यक्तियों का आप नाम सुनेंगे वो कहीं न कहीं किसी न किसी विश्वविद्यालय से जुड़े हुए थे और सोवियत मार्क्सवाद के भीतर भी यही हालत थी । उसके मुकाबले इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद में जो जनांदोलन है इन जनांदोलनों ने अपनी ऊर्जा दी हुई है और जनांदोलनों के साथ संवाद करते हुए मार्क्सवाद के नये नये क्षेत्र खुल रहे हैं । आम तौर  पर ये दो फर्क बीसवीं सदी के मार्क्सवाद से  इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद में महसूस किये जा रहे हैं । देखा जा रहा है कि जो एकेडमाईजेशन था  मार्क्सवाद का, उसके मुकाबले वह इस दौर में जनांदोलनों से ज्यादा संवाद करता हुआ नज़र आ रहा है । एक तरह से कह लीजिए तो मार्क्सवाद के लिए यह अच्छा ही है अच्छा इसलिए है कि क्योंकि इस क्रम में वह लगातार समकालीन हो रहा है ।
यह एक विकास  हो रहा है मार्क्सवाद का । अच्छा अब आप ध्यान दीजिएगा इस समय की स्थिति के बारे में तो बहुत सामान्य तौर पर भी देखने से एक चीज़ समझ में आ रही है कि सोवियत संघ के खिलाफ पूंजीवाद के पास सबसे बड़ा वैचारिक अस्त्र  क्या था सोवियत संघ के खिलाफ, पूंजीवाद के पास सबसे बड़ा वैचारिक अस्त्र था ‘लोकतंत्र’ और आप यह भी ध्यान दीजिएगा कि लोकतंत्र के नाम पर ही अमेरिका ने सेनाएं भेजी थीं । कारण कि लोकतंत्र एक ऐसा विचार था जिसके बारे में पूंजीवादी बुद्धिजीवी कहते थे कि वह सोवियत संघ में नहीं है । लोकतंत्र पश्चिमी देशों के पूंजीवादी बौद्धिकों के पास वह सबसे बड़ा डंडा था जिससे जब चाहे सोवियत संघ और मार्क्सवाद वालों को पीट दिया करते थे । अब हुआ यह है कि ऊपर से भी देखने पर नज़र आ रहा है कि लोकतंत्र खुद पश्चिमी देशों में गायब हो रहा है । खुद पश्चिमी देशो में यह महसूस किया जा रहा है कि लोकतंत्र गायब हो रहा है । जैसे जैसे पश्चिमी देशों में लोकतंत्र गायब हो रहा है वैसे वैसे उसके बरक्स मार्क्सवाद के भीतर जो लोकतंत्र की दृष्टि थी उसको समझने की नये ढंग से कोशिश की जा रही है । क्योंकि पूंजीवाद का यह दावा था कि हमारे लोकतंत्र की जड़ है निजी संपत्ति । इससे पता चलता है कि यह अर्थतंत्र वाला सवाल उतना गैर वाजिब नहीं है । लोकतंत्र के बारे में तमाम उदारवादी चिंतकों का यही कहना था कि उसकी पैदाइश होती है निजी संपत्ति से क्योंकि संपत्ति आपके पास है तो आप एक तरह से अधिकारसंपन्न हैं । इस समय जो लोकतंत्र गायब हो रहा है वह केवल इस अर्थ में गायब नहीं हो रहा कि लोगों को अहसास हो रहा है कि उनके वोट का महत्व नहीं रह गया है, वे वोट कहीं भी दें, चुने वही लोग जायेंगे जो वाल स्ट्रीट की पसंद हैं  बल्कि इसके समानांतर आर्थिक क्षेत्र में भी यही होता दिखाई दे रहा है । आर्थिक क्षेत्र में इस दौर में बहुत ही लोकप्रिय ढंग के नारे में अमेरिका में इस बात को कहा गया । अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता जोसेफ स्तिग्लित्ज़ ने इस द्वैत को सामने लाया कि निन्यानबे पर्सेंट बनाम एक पर्सेंट, यानी जो संपत्ति का विभाजन है वह एक तरह से आबादी को निन्यानबे प्रतिशत बनाम एक प्रतिशत में विभाजित करना चाहता है । स्पष्ट है कि जो लोकतंत्र का क्षरण हो रहा है वह सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में अभिव्यक्त नहीं हो रहा बल्कि वह संपत्ति के क्षेत्र में भी दिखाई देता है कि संपत्ति का संकेद्रण होता जा रहा है । तेजी से संपत्ति का संकेद्रण होता जा रहा है और उसी के बरक्स हमें यह दिखाई दे रहा है कि एक तरह से लोकतंत्र गायब हो रहा है ।‌ इसके लिए किसी ने एक शब्द ही दिया ‘डालरोक्रेसी’ यानी डेमोक्रेसी डालरोक्रेसी हो गया है । अर्थात जो राजनीतिक दुनिया है उस राजनीतिक दुनिया में पैसा बोलने लगा है । असल में एक व्यक्ति एक वोट कोई एक ऐसी चीज़ नहीं थी जो मंत्र की तरह थी बल्कि यह है कि सबको बराबर अधिकार है लेकिन धीरे-धीरे कानून के स्तर पर भी तब्दीली हो गई है जैसे कि अमेरिका ने कहा कि जो कारपोरेट है उसके भी चंदे को व्यक्ति का चंदा माना जाएगा । इसका मतलब कि अगर वह व्यक्ति का चंदा हो गया तो व्यक्ति का अधिकार कारपोरेट को मिलने लगा । साफ है कि पूंजीवाद का जो स्वतंत्रता का मुलम्मा था उसके भीतर से धन की जो वास्तविक सत्ता है वह सामने चली आई है । इसके कारण जो लोकतंत्र है उसका क्षरण हो गया है । वो गम्भीरतापूर्वक क्षरित हुआ है । नये नये मुहावरे सामने आए हैं जो इस परिघटना को अभिव्यक्त कर रहें हैं । इनसे पता चलता है कि कैसे जो बहुजन है, जो जनता है वह अधिकार विहीन होती जा रही है और संपत्ति की तरह ही अधिकारों का भी संकेंद्रण हो रहा है । तो ऊपर से ही देखने में यह दिखाई दे रहा है, जैसा मैंने कहा कि इसका राजनीतिक पहलू भी है, एक तरह से कानूनी पहलू भी है और आर्थिक पहलू भी है । यह सब दिखाई पड़ रहा है लोकतंत्र के क्षरित होने में ।
यह जो बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ है उसके बरक्स देखा जा रहा है कि मार्क्सवाद कैसे लोकतंत्र को देखता है । मार्क्सवाद में जो लोकतंत्र का सवाल है उसमें सबसे पहली बात यह है कि इसमें वह सवाल सामाजिक है । अब यह भी एक पहलू है इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद के प्रसंग में कि राजनीतिक की बजाए सामाजिक का महत्व बढ़ा है । बीसवीं सदी में राजनीतिक पहलू की जो प्रधानता हो गई थी उसकी बजाए इस दौर में सामाजिक की प्रधानता पर जोर दिया जा रहा है । इस प्रसंग में ध्यान दीजिएगा कि खुद मार्क्स के चिंतक और उनके लेखन में सामाजिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है । उनके लेखन में सामाजिक क्रांति शुरू होती है, सामाजिक वर्गों  का टकराव होता है तो वहां सामाजिक बहुत महत्वपूर्ण है । यहां तक कि अर्थतंत्र को भी वह समाज के मातहत ले आना चाहते थे । तो यह जो लोकतंत्र है  मार्क्सवाद के भीतर वह समाज के वंचितों की अधिकारसंपन्नता के लिए है, वह समाज के विभिन्न तबकों की हिस्सेदारी से व्याख्यायित होता है । लोकतंत्र का सवाल उनके यहां सिर्फ प्रतीकात्मक या औपचारिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व के रूप में नहीं है बल्कि सामाजिक अधिकारसंपन्नता के अर्थ में है । लोकतंत्र के सवाल पर जैसे जैसे पूंजीवाद में लोकतंत्र का क्षरण हुआ है वैसे वैसे खुद मार्क्सवाद के भीतर लोकतंत्र जिस रूप में मौजूद है उसको लोग देखने की कोशिश कर रहे हैं, लोकतंत्र को समझने की कोशिश कर रहे हैं ।
इस प्रसंग में एक और ठोस संदर्भ से बात करना उचित होगा । हमने बुर्जुआ लोकतंत्र की ताकत को महसूस किया है । हमने देखा है कि वह समाज के विभिन्न तबकों के भीतर पैदा होने वाली आकांक्षाओं से खूब अच्छी तरह समायोजन बिठाने में सफल रहा है । समाज के वंचित समुदायों की आकांक्षा को स्वर देने वाले प्रतिनिधियों ने चुनावों की व्यवस्था को बहुरंगी बनाया है । इस क्रम में जिन तबकों का स्वाभाविक नेतृत्व वामपंथ के पास होना चाहिए था या जिन अगुआ तत्वों की पहली पसंद वाम को होना चाहिए था वे स्थापित राजनीतिक दलों के सहारे या नए दल बनाकर संसद में प्रवेश पाते रहे । इसे बुर्जुआ लोकतांत्रिक व्यवस्था की क्षमता के बतौर स्वीकार करना होगा । पिछले दिनों लोकतंत्र का जो क्षरण हुआ उसके साथ ही व्यवस्था की इस क्षमता में भी गिरावट आई है । इसके साथ खुद इन तबकों के उभरने वाले कार्यकर्ताओं के भीतर वाम के प्रति आकर्षण बढ़ा है । दूसरी ओर जब बुर्जुआ वर्ग लोकतंत्र को मटियामेट करने पर आमादा है तो वामपंथ को इसकी औपचारिकता को सार्थक बनाने की जिम्मेदारी निभानी होगी । मार्क्सवाद में मौजूद लोकतांत्रिकता को पहचानकर इस आपसी समृद्धि को संपन्न किया जा सकता है । नये समय के सवालों को संबोधित करने के मामले में तमाम नए लोगों को यह दृष्टिकोण ज्यादा कारगार प्रतीत हो रहा है यानी सामाजिक पर जोर देने से आज जो सामाजिक उभार हो रहें हैं उनके साथ संवाद करने के लिए आपको एक जगह मिल जा रही है । यह एक पहलू है जो इस बीच बदला है ।
कुछ लोग कहते हैं मार्क्सवाद के तीन स्रोत और तीन घटक तत्व हैं । यह बहुत लोकप्रिय है । लेनिन ने  तो लेख ही लिखा है- थ्री सोर्सेज आफ मार्क्सिस्म । इस प्रसंग में कहा जा रहा है कि भाई ये स्रोत तो मार्क्स के पहले के थे, जिन्होंने मार्क्स को कांट्रीब्यूट किया था यानी मार्क्स ने इनमें से चीज़ों को लिया और उन्हें एक नई शक्ल दे दी- ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र, फ़्रांसिसी समाजवाद और जर्मन दर्शन । कहते हैं कि ये तीन स्त्रोत हैं मार्क्सवाद के, लेनिन ने लिखा है कि ये तीन स्रोत हैं जिनसे मार्क्स ने लिया और जिसे उन्होंने नई शक्ल दे दी । कुछ लोगों का कहना है कि उसके बाद कुछ और विकास नहीं हो सकता है? क्योंकि अगर उसके बाद कांट्रीब्यूशन नहीं हो सकता है तो आप यह मान लेंगे कि वह तो स्थिर हो गया है मार्क्सवाद । लेकिन हम मानते हैं कि मार्क्सवाद एक जीवंत रचना है, व्यवहार से जुड़ी हुई चीज़ है तो इसका मतलब व्यवहार के दरमियान कुछ तो जुड़ेगा । इस बात को मैं थोड़ा मुक्तिबोध के हवाले से कहना चाहता हूं । मुक्तिबोध ने कहा कि जब आप रचना को ढालते हैं, अन्तिम शब्दों में तब तक भी बदलाव चलते रहते हैं । कहने का मतलब यह है कि अगर यह व्यवहार का सिद्धांत है, व्यवहार को गाइड करने वाला सिद्धांत है तो फिर यह जहां पर था वहां पर स्थिर कैसे रह सकता है ! सिद्धांत को लागू करने के दौरान, व्यवहार के दौरान उसमें और भी समृद्धि आ सकती है अगर वह जीवित मनुष्य के बीच होने वाला काम है तो ।
अब उस लिहाज़ से लोगों का कहना है कि साठ के दशक में कुछ ऐसे आंदोलन चले, जिन्हें उस समय और बाद के बहुत दिनों तक भी मार्क्सवाद से एक तरह की विरोधिता में देखा जाता था । उनमें से तीन आंदोलनों का विशेष रूप से ज़िक्र करना ठीक होगा । एक है जिसको हम सब लोग जानते हैं ‘नारीवाद’ । दूसरा जिससे बहुत हद तक हमारे देश के दलित साहित्य को भी प्रेरणा मिली यानी अमेरिका का ‘ब्लैक मूवमेंट’ । तीसरा पर्यावरण का सवाल । ये तीन ऐसे सवाल थें जो साठ के दशक में बहुत ही मजबूती से उठे पश्चिमी देशों में । इतिहास की अनेक तरह की विडम्बनाएं होती हैं उन विडम्बनाओं में से यह भी एक बात थी कि उस समय और बाद के बहुत दिनों तक इन इन आंदोलनों को मार्क्सवाद के विरोधी के रूप में देखा जाता था । बहुत दिनों तक यह प्रक्रिया चलती रही ।‌ इन्हें नव सामाजिक आंदोलन भी कहा गया । यह साठ के दशक में उभरा और बहुत दिनों तक लगा कि यह मार्क्सवाद के विरोधी विचार हैं लेकिन पिछले दिनों हालात में बदलाव आए हैं । कुछ इन आंदोलनों के भीतर की आत्म-समीक्षा के चलते, कुछ व्यापक समाजार्थिक और राजनीतिक बदलाव के चलते और कुछ मार्क्सवादियों की नई पौध के आने के चलते- इन तीनों ही आंदोलनों के साथ मार्क्सवाद का एक संवाद बना है और धीरे-धीरे यह संवाद आगे बढ़ा है । इन आंदोलनों में भी, उदाहरण के तौर पर पर्यावरण को लीजिए तो पर्यावरण आंदोलन के सभी लोग एक दौर तक मानते रहे, जब तक उनको पश्चिमी देशों में लोकतंत्र के भीतर अवसर दिखता रहा, कि कोई नई पार्टी बना लेने से इस व्यवस्था में चुनाव लड़के बदलाव किये जा सकते हैं । धीरे-धीरे नवउदारवाद का जब मानवभक्षी स्वरूप उभरा तब पर्यावरणवादियों को भी लगा कि पूंजीवाद के खिलाफ पूरी तरह से युद्ध किये बगैर पर्यावरण के सवाल को हल नहीं किया जा सकता । तब सवाल उठा कि पूंजीवाद से लड़ने के लिए सबसे कारगार कौन सी विचारधारा है । तो उसका जवाब मिला मार्क्सवाद ।
मार्क्सवाद के बारे में आप जानते ही हैं कि पूंजीवाद आया तो उसके विरोध में तरह तरह की विचारधाराएं सामने आईं । कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र पढ़िए तो उसमें भी लिखा है ‘भांति-भांति के समाजवाद’ । तो उस समय कई तरह के समाजवाद आए थे जिनके साथ वैचारिक होड़ करते हुए मार्क्सवाद ने अपनी बरतरी बनाई । इसी कारण इन पर्यावरणवादियों को भी लगा कि पूंजीवाद से लड़ने के लिए सबसे  मजबूत वैचारिक अस्त्र मार्क्सवाद के पास ही हैं । उसी तरह से स्त्री आंदोलन का भी मामला समझिए । स्त्री प्रश्न पर भी जो लोग लगातार काम कर रहे हैं उनको यह महसूस हुआ कि पूंजीवाद ही पितृसत्ता का सबसे बड़ा पुनरुत्पादक स्रोत है और वे भी इसीलिए मार्क्सवाद के साथ निरंतर संवाद कर रहे हैं और लगातार उस दिशा में विचार विमर्श जारी है । इसके अतिरिक्त जिस तीसरे आंदोलन का जिक्र मैंने किया उसके बारे में आप सब जानते ही होंगे । अमेरिका का अश्वेत आंदोलन अभी पिछले दिनों काफी चर्चित रहा क्योंकि वहां विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की नई फ़ौज निकली थी । हमारे अपने देश की तरह उन लोगों में भी समूचे अमेरिकी सामाजिक जीवन पर सचेत हस्तक्षेप करने की प्रेरणा थी ।   नस्लभेद के विरोध में जो आंदोलन वहां चला था, उसके बाद दूसरे दौर का उभार माना जा रहा है यह ब्लैक मूवमेंट । समझ बनती जा रही है कि वहां पर जो राजसत्ता है वह एक तरह से रेसिस्ट किस्म की है और उसके खिलाफ जो आंदोलन उभरे तो नये नये नारे सामने आए- ‘ब्लैक लाईव्स मैटर’ मतलब कि जो काले लोग हैं उनकी भी जिंदगी का महत्व है । बात सिर्फ इस तरह से ही नहीं है, वह इस तरह से भी है कि जैसे पिछले दिनों हमारे यहां पर लड़कियों ने सवाल उठाया कि रात को बाहर हम क्यूं नहीं घूम सकते, क्या जरुरत है कि हम सिर्फ सब्जी खरीदने के लिए जाएं, सड़क हमारी भी है, उसी तरह से ब्लैक लाईव्स मैटर का मतलब है कि कहीं भी ब्लैक रह सकता है । इस तरह वे मौजूदा सामाजिक वातावरण में अपनी सम्मानपूर्ण उपस्थिति की मांग करते हैं । साफ है कि यह सामाजिक लोकतंत्र से जुड़ता हुआ सवाल है । इस प्रसंग में इस आंदोलन के लोग इस इतिहास को फिर से देखने की कोशिश कर रहे हैं कि खुद मार्क्स ने गृहयुद्ध के समय अब्राहम लिंकन को चिट्ठी लिखी थी इंटरनेशनल की ओर से उनको समर्थन देते हुए । पूरी दुनिया में इंटरनेशनल नाम के संगठन की चर्चा उसी समय हुई जब अब्राहम लिंकन ने उस चिट्ठी का जवाब भेजा था जो लंदन में अमरीका के राजदूत ने जाकर सौंपा था मार्क्स को । कहने का मतलब यह है कि ब्लैक समस्या का मार्क्स को ज्ञान था । वहां से जोड़कर मार्क्सवाद के साथ ब्लैक आंदोलन का क्या रिश्ता रहा है इस पर गंभीरतापूर्वक विचार हो रहा है और यह भी देखा जा रहा है कि ब्लैक मूवमेंट का जो इतिहास है उसमें मार्क्सवाद की कितनी उपस्थिति रही है, वह मार्क्सवाद को नई शक्ल देने में क्या क्या मदद कर सकता है- इस पर भी विचार हो रहा है ।
इस तरह से इस नए दौर के लिए ये तीनों आंदोलन हैं साठ के दशक में जो पैदा हुए, जिनके साथ मार्क्सवाद की एक समय तक विरोधिता समझी जाती रही थी और अब उनके साथ मार्क्सवाद का संवाद शुरू हुआ है । इस क्रम में ये आंदोलन भी बदल रहे हैं तथा खुद मार्क्सवाद भी नए तरह से देखा जा रहा है, नई तरह से समझा जा रहा है । आप सब लोग जानते ही हैं कि मार्क्स ने भी कई बार सोचा कि क्रांति बस आ ही रही है लेकिन फिर एक दौर के बाद उनको लगा कि अब ज्यादा गहरे सैद्धांतिक कामों पर अपनी ऊर्जा को  केंद्रित किया जाए । कहने का मतलब है कि एक दौर में आपको ठहरकर तैयारी करने की जरूरत होती है । मार्क्सवाद के साथ नए हालात का यह संवाद चल रहा है, एक गहरा संवाद चल रहा है और एक नई कल्पना रखी जा रही है । कहा ही जाता है कि सभी एक्सपेरीमेंट एक ही बार में पूरे नहीं होते । पहला एक्सपेरिमेंट पेरिस कम्यून का था जो सत्तर दिन चला । दूसरा एक्सपरीमेंट था रूस जो सत्तर साल चला‌ । इनसे सीखते हुए एक नई परंपरा बनाने की जरूरत पड़ सकती है । नए समाज में उस नई परंपरा को गढ़ने के लिए इन आंदोलनों के साथ संवाद के जरिए एक नया स्वरूप गढ़े जाने की बात चल रही है । इसका एक कारण प्रतिक्रिया की आक्रामकता से भरा हमारा समय भी है ।
अंतिम बात जो मैं कह रहा था वह यह कि यह जो समय है उसमें सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पश्चिमी देशों में भी फासीवाद का गहरा उभार देखा जा रहा है और यह जो फासीवाद का गहरा उभार देखा जा रहा है इस सिलसिले में कई तरह के झमेले खड़े हो गए हैं । अभी थोड़े दिनों पहले राजनीतिशास्त्री कार्ल बाग्स ने एक किताब लिखी । उन्होंने लिखा कि हम लोग जब फासीवाद के बारे में बात करते हैं तो हमारे सामने सिर्फ हिटलर और मुसोलिनी की सत्ता होती है, हम देखते हैं कि इन्होंने राजसत्ता में रहते हुए क्या किया । यह हमारे दिमाग मे रहता है । सच है कि केवल ये ही फासिस्ट नहीं थे, अन्य रूप भी फासिस्म के । इसके अलावे जैसे हम लोग अपने अतीत के एक्सपेरिमेंट से सीखकर नई नई कल्पनाएं गढ़ते हैं उस तरह से हमारे विरोधी भी करते हैं । वे भी अपने पुराने एक्सपेरीमेंट से सीखते हैं और वे भी अपने आप को बदलते हैं । इसलिए इस दौर में फासिस्म के बारे में अगर आपकी यह धारणा है कि वह हिटलर वाला ही होना चाहिए तभी हम उसे फासीवाद कहेंगे । यह रुख मुझे ठीक नहीं लगता । एक उपन्यास था कामू का प्लेग । आप लोगों ने पढ़ा होगा तो उसमें उन्होंने कहा है कि जब जब प्लेग प्रकट होता है तो वह अपने रूप बदल लेता है, और वह इस तरह रूप बदल लेता है कि डाक्टर भी नहीं समझ पाते हैं कि यह प्लेग ही है । उसी तरह फासीवाद भी जब सामने आता है तो वह नए दौर में अपना रूप बदल लेता है । इसीलिए इस दौर में जो फासीवाद आया है वो एक तरह से नए रूप में सामने आया है । इस सिलसिले में आप ध्यान दीजिएगा कि जो हिटलर का उभार था या मुसोलिनी का भी उभार था, वह नाटकीय तरीके से हुआ था और इसीलिए नाटकीय तरीके से उसकी समाप्ति भी हो गई । यहां पर जो फासीवाद आया है उसने लम्बे दौर में अपने लिए जगह बनाई है और इसीलिए बहुत संभव है कि इसको परास्त करने की लड़ाई भी लम्बी होगी ।
शुक्रिया ।


Wednesday, May 29, 2019

साक्षात्कार संदीप मील



1 सबसे पहले तो यही तय करना होगा कि किस समय को समकालीन कहा जाय । तमाम विवादों के बावजूद कहा जा सकता है कि पिछली सदी के आखिरी दशक से दुनिया में जो बदलाव शुरू हुए उनकी निरंतरता में हम मौजूद हैं । इस लिहाज से विगत लगभग तीस साल का समय समकालीन कहा जा सकता है । हालांकि वर्तमान समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे विगत तीस सालों की इस दुनिया के चरम परिणामों से हमारा साबका पड़ रहा है लेकिन यही मानना उचित होगा कि सोवियत संघ के पतन के बाद की नवउदारवादी वैचारिकी के प्रभुत्व का समय हमारा समकाल है । स्वाभाविक है कि इस समय के सवालों से जूझते हुए ही मार्क्सवाद का विकास हो रहा है । सोवियत संघ के खात्मे के दौरान और उसके तुरंत बाद अकादमिक दुनिया में उत्तर आधुनिकता का बोलबाला था । आज उसका कोई नामलेवा भी नहीं है । बहसें उन सैद्धांतिक कोटियों में चल रही हैं जिन्हें मार्क्सवादी विद्वानों ने लोकप्रिय बनाया था । सबसे पहले तो खुद मार्क्स का लेखन ही विराट शोध का विषय हो चला है । उनके समग्र लेखन के संपादन और प्रकाशन की परियोजना से संसार भर के चालीस से अधिक मार्क्स विशेषज्ञ जुड़े हुए हैं । प्रस्तावित योजना के अनुसार 140 खंडों में उनके समग्र का प्रकाशन होना है । सभी जानते हैं कि उनके जीवनकाल में लिखित का बहुत थोड़ा हिस्सा ही प्रकाशित हो सका था । देहांत के बाद एंगेल्स ने अनछपी पांडुलिपियों से निकालकर कुछ और प्रकाशित कराया । बचा हिस्सा जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर में उपेक्षित पड़ा रहा था । रूस में क्रांति के बाद समग्र छापने का काम डेविड रियाज़ानोव के संयोजन में शुरू हुआ । कुछ आंतरिक राजनीति में रुक गया । जर्मनी में रखे दस्तावेजों पर हिटलरी उभार के चलते खतरा पैदा हुआ । उन्हें एम्सटर्डम भेज दिया गया । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिर काम शुरू हुआ तो रूस में ही उलटफेर हो गया । इस बार उनके बचे हुए दस्तावेजों का अध्ययन और संपादन करके जो प्रकाशन हो रहा है तो मार्क्स के लेखन में मौजूद खुलेपन को लक्षित किया जा रहा है । उनके प्रकाशित लेखन के साथ इस अप्रकाशित सामग्री को मिलाकर देखने से उनकी धरणाओं के निर्माण की प्रक्रिया का पता चल रहा है । इसके साथ वर्तमान दुनिया के अध्ययन के लिए जो मार्क्सवादी कोटियां कारगर सिद्ध हो रही हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यवाद नामक कोटि है ।
2 पूंजी के वर्तमान आक्रामक स्वरूप को वित्तीय साम्राज्यवाद के रूप में ग्रहण किया जा रहा है । मार्क्स ने बताया था कि पूंजी के निर्माण की प्रक्रिया में ही उसके नाश के तत्व निहित होते हैं । मुनाफ़े के लिए ही इसका निवेश होता है लेकिन मुनाफ़े को साकार करना लगातार कठिन होता जाता है । जब पूंजी के केंद्र में मुनाफ़ा कमाना कठिन हो जाता है तो पूंजी उन क्षेत्रों की ओर भागती है जहां प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रम सुलभ और सस्ता हो । इसी क्रम में दुनिया के गैर पूंजीवादी आर्थिक परिक्षेत्र के साथ उसके साम्राज्यवादी संबंध बनते हैं । वास्तविक साम्राज्यवादी संबंध का अनुगमन सांस्कृतिक साम्राज्यवाद भी करता है । इसे फिलहाल के भाषाई परिदृश्य के विश्लेषण के जरिए अच्छी तरह समझा जा सकता है । जिस अंग्रेजी को आधुनिक दुनिया में दाखिल होने का टिकट समझा जा रहा है उसे किसी जमाने में अत्यंत तुच्छ समझा जाता था । अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को पब्लिक स्कूल इसीलिए कहा जाता है कि वहां सामान्य जनता की संतानों को शिक्षा मिलती थी । अन्यथा श्रेष्ठता तो कानवेन्ट की स्कूली शिक्षा में हुआ करती थी जिनका संचालन चर्च की ओर से होता था । अंग्रेजी ही नहीं लगभग सभी यूरोपीय भाषाओं का विकास लैटिन के इस दबदबे से लड़कर हुआ लेकिन साम्राज्यवाद की स्थापना के साथ ये यूरोपीय भाषाएं खुद ही श्रेष्ठता निर्माण के इसी तंत्र का अंग बन गईं । आधुनिक काल में लोकप्रिय संचार माध्यमों में भाषा के दबदबे में आनेवाले बदलावों को देखें तो पूंजी की माया स्पष्ट हो जाती है ।
3 मार्क्स के समय भी सर्वहारा चेतना पर तमाम तरह के परदे थे । उस समय मताधिकार का सवाल बहुत बड़ा सवाल था । आप जानते हैं कि चार्टिस्ट आंदोलन बहुत कुछ मताधिकार के विस्तार के लिए होनेवाला आंदोलन था । मजदूरों को मतदान का अधिकार मिल जाने से उनकी सरकार नहीं बन जाती लेकिन उनके भीतर राजनीतिक सत्ता को हासिल करने की आकांक्षा जरूर पैदा हुई । इसी तरह तकनीक हमेशा से दुधारी तलवार रही है । उसने शुरू में अवश्य लोकतांत्रिक प्रसार का भ्रम पैदा किया लेकिन ध्यान दें तो मार्क्स ने पूंजीवादी समाज के सिलसिले में उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और अधिग्रहण की इजारेदारी का जो अंतर्विरोध उजागर किया था वह अंतर्विरोध क्रमश: प्रकट होता जाता है । इसी अंतर्विरोध को काबू में रखने के लिए और बिना किसी समस्या के अधिकाधिक मुनाफा कमाने के लिए पूंजीवाद को लगातार क्रांतिकारी बदलाव करते रहना पड़ता है । हमारे चाहने से पूंजीवाद अपने आपको बदलना बंद नहीं कर देगा । बस यह है कि प्रत्येक नया समाधान आगामी संकट से बाहर निकलने का एक और रास्ता बंद कर देता है । उस समय फिर अब तक न आजमाए गए किसी अन्य तरीके को आजमाना पड़ता है । इसीलिए पूंजी का प्रत्येक नया संकट पिछले संकट से अधिक गम्भीर होता है । इस सिलसिले में याद रखना होगा कि पूंजीवाद के स्वभाव में अस्थिरता होने के बावजूद उसे समाप्त करने के सचेत मानव प्रयास के बिना अपनी ही गति से उसके विनाश की आशा व्यर्थ है । इसी मामले में मार्क्स के सारे प्रयासों के केंद्र में पूंजीवादी शासन को उखाड़ फेंकने वाले कर्ता के रूप में शोषित दमित कामगार मजदूर अवस्थित है और इसके लिए उसकी अपनी पहलकदमी को खोल देने का महत्व समझा जा सकता है । इस कामगार की उनकी धारणा लचीली और व्यापक थी ।
4 आवारा पूंजी का एक महत्वपूर्ण अंतर्विरोध राष्ट्र-राज्य के साथ होता है । इसके बावजूद आंदोलनों के दमन के लिए उसे इसी राज्य की जरूरत पड़ती है । इससे राज्य का वर्गीय चरित्र स्पष्ट होता जाता है । राज्य के सिलसिले में ध्यान देने की बात यह है कि धर्म और पूंजी की तरह ही राज्य भी मनुष्य की ऐतिहासिक रचना होने के बावजूद अपने आपको वर्गों के विभाजन से ऊपर उठा लेता है और समग्र समाज के हितों के प्रतिनिधित्व का भ्रम पैदा करने लगता है । इसलिए जनता के दिमाग में उसके बारे में भी गलतफ़हमी पैदा हो जाती है । कामगारों की राजनीतिक चेतना की उन्नति की दिशा में राज्य के वर्ग चरित्र का रहस्योद्घाटन जरूरी काम होता है । अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की सेवा में जनता के आंदोलनों का दमन करके राज्य अपने आपको अधिकाधिक नंगा करता जाता है । इसके चलते मजदूर वर्ग के लिए राष्ट्रवाद की आकांक्षा का नेता बनना भी सम्भव हो जाता है । राष्ट्रवाद आम तौर पर बुर्जुआ वर्ग के हितों की सेवा करता है लेकिन चीन, वियतनाम और क्यूबा जैसे देशों में कमयुनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलनों ने राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद किया । लेकिन मजदूर वर्ग का राष्ट्रवाद बुर्जुआ राष्ट्रवाद से भिन्न होता है । उसमें साम्राज्यवाद विरोधी और लोकतांत्रिक रंग अधिक गहरा होना लाजिमी है ।
5 सबसे पहली बात कि मार्क्सवाद के प्रभाव में सांस्कृतिक-साहित्यिक मोर्चे पर जो पहल हुई उसमें जनवाद और आधुनिकता दोनों का असर था । उसने साहित्य संस्कृति को जनता के सृजन के रूप में पेश किया और उस पर शासक समुदाय के मुकाबले जनता का दावा ठोंका । दूसरे विश्वयुद्ध से पहले फ़ासीवाद विरोधी गोलबंदी के दौरान की वह समूची रचनात्मक प्रतिरोध की संपदा हमारी विरासत है । इस विरासत को और अधिक समृद्ध करना हमारा दायित्व है । इस दौर में पूंजी के संकट के चलते दुनिया भर में जो फ़ासीवादी उभार आया है उसके चलते सभी समाजों की पुरानी शासक ताकतों के हाथ में समाज की बागडोर जाने के विरोध में केवल मजदूर नहीं बल्कि उनके समर्थक अन्य बहुत सारे तबके खड़े हो रहे हैं । इसमें अग्रिम मोर्चे पर स्त्रियों के आंदोलन हैं । इसके अतिरिक्त अमेरिका में अश्वेत समुदाय के भीतर भी अलगाव की भावना बढ़ी है । उनके साथ होनेवाले व्यवस्थित अन्याय के विरोध में उठे आंदोलनों ने नए नेतृत्व को जन्म दिया है । इसी तरह स्थानीय निवासियों के आंदोलन भी सामने आए हैं । इन सबकी अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का उभार जारी है । भारत के मामले में इसका अनुवाद स्त्री लेखन, दलित लेखन और आदिवासी लेखन के रूप में हुआ है । इसके कारण बहुत लम्बे समय के बाद साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में आंदोलनों का जिक्र शुरू हुआ है और सृजन की सामाजिक धारणा और व्याख्या बल पकड़ रही है ।
6 न केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया में मजदूर आंदोलन एक नए दौर से गुजर रहा है । जिस तरह पूंजी का पुनर्गठन हो रहा है उसी तरह मजदूर आंदोलन का भी पुनर्गठन जारी है । असल में ये दोनों एक दूसरे के न केवल विरोधी हैं बल्कि एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं । पूंजी का हित मजदूरों के असंगठित होने में है । इसके विपरीत मजदूर एकताबद्ध होकर ही पूंजी के सभी तरह के हमलों का मुकाबला कर सकता है । पूंजी ने मुनाफ़ा न हो पाने की स्थिति में शोषण के नए नए क्षेत्र खोजे हैं और इस प्रक्रिया में नए किस्म में मजदूर पैदा किए हैं । मजदूर वर्ग के भीतर इन मजदूरों की आमद अभी नई है । इनमें से प्रौद्योगिकी क्षेत्र के कामगार तो बहुतेरा अपने को पारम्परिक मजदूरों से अलग समझते हैं । इसी तरह मजदूर वर्ग की कतार में सबसे बड़ी आमद महिला कामगारों की है । उनके साथ भी तालमेल बनाने में पारम्परिक मजदूर वर्गीय संगठनों को समय लग रहा है । अभी इन तबकों के विक्षोभ पूरी तरह से राजनीतिक रूप में सामने नहीं आ रहे हैं लेकिन इनका राजनीतीकरण बहुत तेजी से हो रहा है । वैसे भी बदलाव रोज रोज दिखाई देनेवाली प्रक्रिया नहीं होता लेकिन जारी रहता है ।  
7 न केवल हमारे देश में बल्कि समूची दुनिया में शोषक वर्गों के अबाध शासन के लिए ऊंच-नीच की सामाजिक व्यवस्था मौजूद रही है । आधुनिक बुर्जुआ समाज के आगमन के साथ सामाजिक गतिशीलता बढ़ने से वह अप्रासंगिक होती गई । उदाहरण के लिए गोल्डस्मिथ या शूमेकर जैसे नाम उनके पेशों से आए हैं लेकिन वर्तमान समाज में उनका कोई उपयोग नहीं रह गया । हमारे देश में भी उद्योगीकरण के साथ जाति व्यवस्था ढीली पड़ी लेकिन फिर समाज के सामंती यथार्थ ने उसे और अधिक मारक रूप में पुनर्जीवन दिया । इसे समझने ले लिए मार्क्स के इस सूत्र से भी सहायता मिलती है कि बुर्जुआ वर्ग को अपना शासन चलाने के लिए न केवल उत्पादन के साधनों और राज्य पर कब्जे की जरूरत पड़ती है बल्कि विचारों की दुनिया में भी शासक वर्गीय प्रभुत्व की स्थापना आवश्यक होती है । मार्क्स ने विचारधारा के क्षेत्र में संघर्ष को भी वास्तविक संघर्ष का ही हिस्सा माना और कहा कि बुनियादी ढांचे के सवालों को ऊपरी ढांचे के क्षेत्र में लड़ा और निपटाया जाता है । जातिवाद को ब्राह्मणवादी चिंतन पद्धति टिकाए रखती है और जनता को असंगठित रखने तथा सस्ते मानव श्रमिक की उपलब्धता के लिए इसे आधुनिक बुर्जुआ समाज ने भी अंगीकार कर लिया । औपनिवेशिक काल में सत्ता ने इसका पुनरुत्पादन किया और आज उसका नया दक्षिणपंथी उभार भारतीय समाज में मौजूद जो कुछ भी आधुनिक बोध है उसे मटियामेट करने के लिए प्रतिक्रांति की शक्ल में हुआ है । खुशी की बात उसका जोरदार प्रतिरोध है । जातिवाद के विरोध में इतना गहरा और व्यापक प्रतिरोध पहले कभी नहीं हुआ रहा होगा । यह प्रतिरोध किसी स्थापित राजनीतिक पार्टी की ओर से नहीं हो रहा बल्कि व्यापक सामाजिक आलोड़न का अंग है । शायद हमारे समाज के समस्त पुरातनपंथी अवशेषों का यह संगठित उभार लोकतांत्रिक समाज पर आधारित नए देश के निर्माण की ओर ले जाएगा ।
8 डाक्टर आंबेडकर हमारे देश में क्रांतिकारी जनवादी सोच का प्रतिनिधित्व करते थे । उन्होंने सामाजिक बदलाव को स्वाधीनता आंदोलन की कार्यसूची में जगह दिलाने में कामयाबी हासिल की । इस सिलसिले में एक बात पर गौर करना जरूरी है । मार्क्स के चिंतन में भी सामाजिक तत्व का महत्वपूर्ण स्थान था । वे हमेशा सामाजिक क्रांति और सामाजिक बदलाव की बात करते थे । इस्तवान मेजारोस ने कहा कि बीच के दिनों में मार्क्सवादी चिंतन में यह तत्व कमजोर पड़ा था और सारा जोर राजनीतिक तत्व पर दिया जाने लगा था । इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद के लिए उन्होंने समग्र सामाजिक रूपांतरण का परिप्रेक्ष्य फिर से वापस लाने पर बल दिया । भारत में किसी भी बुनियादी सामाजिक बदलाव का अभिन्न अंग जातिवाद का उच्छेद होगा । आंबेडकर ने इसके लिए जिस अंतर्जातीय विवाह का रास्ता सुझाया था वह जीवन साथी के चुनाव के मामले में स्त्री स्वतंत्रता की ओर भी ले जाता है । भूसंपदा पर सामंती जकड़बंदी तोड़ने के लिए जमीन का राष्ट्रीकरण उनकी ऐसी मौलिक सोच थी जिसके निहितार्थ प्रकट होने बाकी हैं । मार्क्स और आंबेडकर के आपसी सहकार के लिए सामाजिक बदलाव के आंदोलन में दोनों का पुनर्पाठ आवश्यक है ।
9 इस बात से अक्सर इन्कार किया जाता है कि पूंजीवाद के अस्तित्व के साथ संकट लगे रहते हैं । यह पूंजीवादी समाज अपने एक सिरे पर चरम समृद्धि और दूसरे सिरे पर भारी दरिद्रता का उत्पादन करता है । समाजार्थिक विषमता का निरंतर विकास पूंजीवाद की विशेषता है । लोकतंत्र को वह तब तक ही सहन कर पाता है जब तक हालात सामान्य रहते हैं । संकट के हल के लिए पिछली बार उसने युद्ध का सहारा लिया था । युद्ध भी पूंजीवाद के साथ लगे हुए हैं । सबसे पहले तो पूंजी को राजनीतिक संरक्षण देने के क्रम में सरकारें लड़ाई में मुब्तिला होती हैं । इस अर्थ में वह लगातार युद्धरत रहता है । लेकिन युद्ध में राष्ट्रवाद की भावना भड़काकर जनता के विक्षोभ को दबाया जाता है और सैनिक साजो सामान की खपत के चलते अर्थतंत्र में तात्कालिक तेजी आती है । 2008 के संकट के बाद दुनिया के विभिन्न देशों में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद का उभार हुआ है । इसे फ़ासीवाद के विश्वव्यापी उभार का नया दौर कहना उचित होगा । इसने शरणार्थियों की विराट फौज को जन्म दिया है । मजदूर वर्ग की वर्गीय एकजुटता को नस्ल, लिंग, भूभाग, भाषा, धर्म आदि के आधार पर विभाजित करके बुर्जुआ शासन के इस दौर को कायम रखने की कोशिश की जा रही है । इसके साथ ही नए तरह की एकजुटता भी उभर रही है । असल में पूंजी का प्रत्येक नया हमला एक ओर जनता की ताकतों को पीछे धकेलता है तो दूसरी ओर विक्षुब्धों की नई फौज भी पैदा करता है ।
10 हमारे देश में कल्याणकारी राज्य की ओर से जो भी कदम उठाए गए उन्होंने पहले की पारम्परिक सत्ता संरचना को नया जीवन दिया । खेती में पूंजीवादी विकास का कोई भी प्रयास सामंती जकड़ को चुनौती देने की जगह उसे ही मजबूत बनाने के काम आया । इससे ग्रामीण जीवन में भारी विकृतियों का जन्म हुआ है । अब खेती पर नया हमला कारपोरेट पूंजी का हुआ है । पारम्परिक सूदखोरों की जगह ग्रामीण बैंकों के राजनीतिक रसूखदार लोगों ने ले ली । भू स्वामित्व के ढांचे में क्रांतिकारी बदलाव न आने के चलते समूचे समाज में विकास अवरुद्ध पड़ा हुआ है । कोई भी नई चीज स्थापित शक्ति संरचना को बलशाली बनाने के काम आती है । उदाहरण के लिए शिक्षा के चलते सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा मिलना चाहिए था लेकिन शिक्षा के लिए सम्पत्ति की आवश्यकता ने गारंटी कर दी कि शिक्षित लोगों में ऊंची जाति के लोगों की बहुतायत रहे । इसने शिक्षा संस्थानों को लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण के बजाय उसका गला घोंटने वाले संस्थानों में बदल दिया । तभी आरक्षण के विरोध में उच्च शिक्षाप्राप्त लोग बहुत अधिक नजर आते हैं ।
11 अंग्रेजी औपनिवेशिक देशों में भारत सबसे महत्वपूर्ण देश था । मार्क्स इंग्लैंड की राजधानी लंदन में रह रहे थे । कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र में ही पूंजीवादी प्रसार की विडम्बना को मार्क्स-एंगेल्स ने लक्षित किया था । वे न केवल पूंजीवाद के बल्कि उसके औपनिवेशिक विस्तार के भी विरोधी थे । उनका भारत संबंधी प्रचुर लेखन ढेर सारी अंतर्दृष्टियों से भरा हुआ है । 1857 के समय न्यू यार्क ट्रिब्यून के लिए लिखे लेखों का तो संग्रह भी उपलब्ध है । इस विद्रोह से चार साल पहले 1853 में ही उन्होंने रेल के प्रसंग में कहा कि इसका लाभ भारतीय लोग तभी ले सकेंगे जब या तो वे अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकें या इंग्लैंड में सर्वहारा का शासन स्थापित हो जाए । उसी समय उन्होंने अंग्रेजी शासन के खात्मे की बात कह दी थी जबकि अस्सी साल बाद जाकर पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित हो सका । अब तो अप्रकाशित पांडुलिपियों की उपलब्धता के बाद उनके लेखन में उपनिवेशिक यथार्थ और खासकर हमारे देश जैसे भारी महत्व के उपनिवेश के उल्लेख उम्मीद से ज्यादा मिलने लगे हैं । मशहूर अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक का अनुमान है कि दादा भाई नौरोजी की मुलाकात हिंडमैन के जरिए मार्क्स से हुई रही होगी । क्योंकि मार्क्स के लेखन में मौजूद उपनिवेशवाद विरोधी लेखन की भाषा अनेक जगहों पर नौरोजी से काफी मिलती जुलती है । जिस प्रथम इंटरनेशनल के केंद्र में मार्क्स रहे थे उसे कलकत्ते से कुछ लोगों ने पत्र लिखा और उसकी भारतीय साखा के गठन के संबंध में दिशा निर्देश मांगा था । सम्पर्क करने वाले अंग्रेज रहे होंगे क्योंकि इंटरनेशनल की जनरल कौंसिल की बैठक में पत्र पर विचार करने के बाद स्थानीय मजदूरों को लेकर शाखा बनाने की सलाह दी गई थी । पूंजीवादी विकास के गैर यूरोपीय रास्ते की सम्भावना की तलाश के प्रसंग में भी तमाम यूरोपेतर समाजों के साथ भारत का जिक्र भी अवश्य होना चाहिए ।
12 प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी रणधीर सिंह कहते थे कि मार्क्सवाद के लगभग प्रत्येक विरोधी ने मार्क्स से पहले के समता विरोधी विचारकों के तर्कों को ही दुहराया है । न केवल समता विरोध बल्कि एक हद तक भौतिकवाद विरोध का भी उत्थान मार्क्सवाद के विरोध के साथ हुआ है । इसका अर्थ यह कि मार्क्सवाद का विरोध अलोकतांत्रिक सोच की ओर तो ले ही जाता है उसके साथ ही इहलौकिक चेतना का भी क्षरण होता है । धान दीजिए कि बहुत पहले रोजा ने समाजवाद का विकल्प बर्बरता को बताया था । इस समय तो पूंजीवाद न केवल मानव समाज के लिए बल्कि मनुष्यों के रहने लायक एकमात्र ग्रह धरती के लिए भी विनाशकारी साबित होता जा रहा है ।                                      
13 सही बात तो यह है कि मजदूर की श्रम शक्ति के चलते सारी सम्पदा का सृजन हुआ है । इस बात को कहना या समझना आज जितना आसान है उसकी एकमात्र वजह कार्ल मार्क्स का ग्रंथ कैपिटल ही है । अर्थशास्त्र में तमाम किस्म के तर्कजाल से इस सच्चाई को झुठलाने की चेष्टा की जाती रही है । कार्ल मार्क्स ने अर्थशास्त्र की आलोचना करते हुए इसी रहस्य को उजागर किया । तमाम कच्चा माल और बेशकीमती मशीन मिलकर भी पूंजी का सृजन नहीं कर सकते । पूंजी का सृजन तभी होता है जब वह जीवित मनुष्य का खून चूसती है । इसी तथ्य को बोधगम्य बनाने के लिए मार्क्स को वह ग्रंथ लिखना पड़ा । हीलब्रोनेर का कहना है कि मार्क्स से पहले के किसी अर्थशास्त्री के लिए मजदूर सक्रिय कर्ता था ही नहीं मार्क्स के लेखन में पहली बार अपनी श्रम शक्ति के मालिक के रूप में वह मोलभाव करता हुआ नजर आता है । मार्क्स से पहले के लोग मजदूर की हालत में सुधार करने के लिए अन्य सामाजिक ताकतों से अपेक्षा करते थे । मार्क्स के लेखन में उसकी स्वतंत्र ऐतिहासिक भूमिका उभरती है । मार्क्स के चिंतन की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसे बौद्धिक व्यायाम के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता । इस दुनिया को बदलने के संघर्ष में ही उसका संरक्षण और विकास सम्भव है । वह जीवित मनुष्यों के हाथ में अपने हालात को काबू करने का अस्त्र है । खुद कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र की भूमिका में लेखकद्वय ने कहा कि इसकी बिक्री से उस देश के मजदूर आंदोलन का अनुमान लगाया जा सकता है ।
14 पूंजीवाद के स्वरूप में आनेवाले प्रत्येक बदलाव से संघर्ष के लिए मुश्किल बढ़ती है लेकिन अपने खात्मे के लिए पूंजीवाद हमारा काम आसान नहीं करेगा । शोषण के क्रम में मेहनतकश जनसमुदाय की हालत बुरी होती जाती है । इन परिस्थितियों से जूझने के क्रम में ही मनुष्य इस मशीन की बारीकियों को समझता है । आखिर इन तमाम गूढ़ चीजों का निर्माण मनुष्य ने ही तो किया है । पूंजी और श्रम दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय परिघटनाएं हैं । शायद इसीलिए मजदूरों की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक पार्टी भी एक अंतर्राष्ट्रीय परिघटना है । पूंजी का शासन राष्ट्र-राज्य की मशीनरी के सहारे चलता है इसलिए उसका प्रतिरोध राष्ट्रीय स्तर पर विकसित होता है लेकिन धीरे धीरे उसका अंतर्राष्ट्रीय आयाम विकसित होता जाता है ।
                                  

Monday, May 20, 2019

डिजिटल दुनिया और मार्क्सवाद


                   
                                             
क्रांति के नाम पर फिलहाल जिस क्रांति की धारणा बनती है उसके साथ डिजिटल शब्द गहरे जुड़ा हुआ है । सूचना-संचार के क्षेत्र में तमाम बदलाव तकनीक के आधार पर या उसका सहारा लेकर आए । देश और दुनिया के इस दौर को व्याख्यायित करने वाले सोवियत संघ के पतन से पहले ही इसके आगमन ने एक हद तक जीवन और सोच में बदलाव लाना शुरू कर दिया था । इस बदलाव को एक हद तक गहरा मानते हुए 2018 में पोलिटी प्रेस से फ़ेलिक एस स्टाल्डेर की जर्मन में 2016 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद द डिजिटल कंडीशनका प्रकाशन हुआ । यह अनुवाद वैलेन्टाइन ए पाकिस ने किया है । लेखक की ओर से अंग्रेजी संस्करण के लिए अलग भूमिका लिखी गई है । लेखक के मुताबिक पश्चिमी यूरोप के लोग फिलहाल अपने को नए हालात में पा रहे हैं । इन्हीं को लेखक ने डिजिटल हालात कहा है क्योंकि कंप्यूटरों के जाल ने जीवन के लगभग सभी पहलुओं को काबू कर लिया है । इस बदलाव की जड़ें इतिहास में तो उन्नीसवीं सदी के अंत तक जाती हैं लेकिन इस परिस्थिति का आगमन साठ दशक के उत्तरार्ध में हुआ । इसके पहले के सांस्कृतिक राजनीतिक हालात को आकार देने वाले ढांचे को मैकलुहान के शब्दों में गुटेनबर्ग गैलेक्सी का नाम लेखक ने दिया है । इस पुराने ढांचे के संकट में आने से निजी और सामूहिक अभिरुचि और संगठन के नए रूपों की जरूरत पड़ी जिन्हें इन हालात ने आकार दिया । दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया और ढांचागत रूपांतरणों के पीछे कोई सचेत मंशा नहीं थी । इसके बावजूद लेखक का मानना है कि इस बदलाव की प्रक्रिया इतना मनमानी नहीं है कि राजनीति की पकड़ से बाहर हो जाए । ऐसा नहीं कि समकालीन गति में भविष्य के किसी विकल्प की अभिव्यक्ति ही नहीं हो रही । पुराने ढांचों के बिखराव से जो शून्य पैदा हुआ है उसे भरने के मकसद से तमाम नए आर्थिक और राजनीतिक प्रकल्प और उनके लिए हितकर नई संस्थाओं का जन्म लगातार हो रहा है । किताब लिखने की वजह भी इन सबकी पहचान और विश्लेषण है ।
राजनीति के क्षेत्र में जो बदलाव आए हैं उन्हें लेखक ने ‘लोकतंत्रोत्तर’ कहा है । इसके जरिए वे बताना चाहते हैं कि निर्णय लेने की प्रक्रिया का भागीदारी से संबंध विच्छेद हो चुका है इसलिए सामूहिक भागीदारी की जरूरत बढ़ गई है । जरूरत पैदा होने से इसकी सम्भावना का भी विस्तार हुआ है । इस मामले में नियंत्रण के ऐसे परिक्षेत्र सामने आए हैं जिन पर मुट्ठी भर लोगों का एकाधिकार है । फ़ेसबुक और गूगल जैसे जन संचार के नए व्यावसायिक मंच इसके ठोस उदाहरण हैं । लेकिन इसके साथ ही विपरीत प्रक्रिया भी जारी है जिसे आजकल ‘कामन्स’ का नाम दिया जा रहा है । इसमें उदारवादी लोकतंत्र की औपचारिक प्रातिनिधिकता के बरक्स भागीदारी को सार्थक और निर्णायक बनाने की कोशिश हो रही है । इसका उदाहरण विकीपीडिया जैसे जानकारी के सर्व सुलभ स्रोत हैं । उनके अनुसार इन दोनों प्रक्रियाओं का संघर्ष डिजिटल दुनिया तक ही सीमित नहीं है बल्कि सामाजिक जीवन के अन्य तमाम क्षेत्रों तक इनका प्रसार हो रहा है । असल में उदारवादी लोकतंत्र का उम्मीद से अधिक तेजी से विघटन हो रहा है और उसकी जगह लेने की होड़ भी तेज हुई है । इस होड़ में एक ओर राष्ट्रवादी उन्माद से संचालित तानाशाही राजनीति खड़ी हो रही है तो दूसरी ओर विद्रोही नगरों का भी उत्थान हुआ है जो समुदाय आधारित सामाजिक आंदोलनों के जरिए उच्च पदों पर अपनी पसंद के प्रत्याशी चुनकर भेजने में कामयाब हो पा रहे हैं । साफ है कि यह दौर भी व्यापक सामाजिक प्रक्रियाओं और अंतर्विरोधों तथा उनसे उत्पन्न तनावों से अछूता नहीं है । इसमें भी एकाधिकार और भागीदारी की आकांक्षा में आपसी टकराव जारी हैं । इसके साथ ही यदि प्रतिनिधिमूलक लोकतांत्रिक प्रणाली का क्षरण हुआ है तो लोकतंत्र के नए परिसर भी पैदा हो रहे हैं ।                      
इस क्रांति ने दुनिया को ऐसी जगह ला खड़ा किया है कि विवेक और तर्क के लिए खतरा पैदा हो गया है । इस विचित्र हाल को समझने के लिहाज से 2018 में ही वर्सो से जेम्स ब्रिडल की किताब न्यू डार्क एज: टेकनोलाजी ऐंड द एन्ड आफ़ द फ़्यूचरका प्रकाशन हुआ ।  लेखक का कहना है कि पिछली सदी ने तकनीकी त्वरण के जरिए हमारी धरती, हमारे समाज और हम सबको बदल डाला है लेकिन इन चीजों के बारे में हमारी समझ को बदलने में अभी कामयाबी नहीं मिली है । आज के समय की सबसे बड़ी चुनौतियों के साथ तकनीक जुड़ी हुई है । वर्तमान नियंत्रणविहीन अर्थतंत्र धनी और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर रहा है । विश्व स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक सर्वसम्मति के टूट जाने से अंध राष्ट्रवाद, सामाजिक विभाजन, टकराव और छायायुद्ध की बाढ़ आ गई है । इसके अतिरिक्त तापवृद्धि से सबके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं । विज्ञान और समाज, राजनीति और शिक्षा, युद्ध और वाणिज्य के क्षेत्रों में नई तकनीकें हमारी क्षमता को ढाल रही हैं । इस प्रक्रिया में सार्थक भागीदारी के लिए इनके बारे में विस्मय या श्रद्धा की जगह आलोचनात्मक विवेक अपनाने की जरूरत है । अगर हम जटिल तकनीकों की कार्यपद्धति, उनकी अंतर्सम्बद्धता और उनकी अंत:क्रिया को नहीं समझेंगे तो उनमें निहित सम्भावना पर स्वार्थी कुलीन और बेचेहरा कारपोरेशन आसानी से कब्जा कर लेंगे । चूंकि ये तकनीकें अप्रत्याशित और अक्सर विचित्र तरीके से न केवल आपस में जुड़ी रहती हैं, बल्कि उनके साथ हम भी उलझे होते हैं इसलिए उनकी व्यावहारिक समझ से ही काम नहीं चलेगा, उनकी उत्पत्ति और संसार में उनके लगभग अदृश्य तथा अंतर्सम्बद्ध कार्य सम्पादन की जानकारी जुटानी पड़ेगी । लेखक इस मामले में समझ से अधिक साक्षरता की जरुरत महसूस करते हैं ।    
इसी प्रसंग में न केवल तर्क और विवेक बल्कि लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप के भी संकट को उजागर करते हुए 2018 में वन वर्ल्ड से मार्टिन मूर की किताबडेमोक्रेसी हैक्ड: पोलिटिकल टर्मायल ऐंड इनफ़ार्मेशन वारफ़ेयर इन डिजिटल एजका प्रकाशन हुआ । लेखक ने 1974 के चुनावों में अपने पिता के राजनीतिक प्रचार के तरीकों से अपनी बात शुरू की है । उस समय सभी प्रत्याशी घर घर जाकर मतदाता से मिलकर उनकी बात सुनते थे और अपनी पार्टी के बारे में बताते थे । राजनीति की उस दुनिया का नामोनिशान भी नहीं बचा है । मध्यमार्गी पार्टियों का सुस्थापित लोकतंत्र लुप्त हो चुका है । अब तो राजनीतिक चुनाव अभियान को पहचानना ही मुश्किल है । इस समय चुनाव अभियान की मशीनरी मतदाताओं के आंकड़ों के जखीरे पर भरोसा करती है, इन आंकड़ों का बड़े पैमाने पर विश्लेषण करके तय किया जाता है कि किस मतदाता के पास किस तरह का संदेश भेजा जाए । आपके लिए चुने गए संदेश का निर्धारण आपकी खरीदारी, आपकी आमदनी, पढ़ने और देखने में आपकी रुचि, आपकी जान पहचान और आपके सरोकारों की जानकारी के आधार पर किया जाता है । इन संदेशों का असर हम पर पड़ता है और हम मतदाता की जगह अंध समर्थक में बदलते चले जाते हैं । इस प्रक्रिया ने लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर दिया है । राजनीतिक चेतना पैदा करने में बुनियादी भूमिका निभाने वाले समाचार के पारम्परिक साधन समाप्त हो चुके हैं और उनकी जगह गूगल, फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे मंचों ने ले ली है । ये मंच हमारी राजनीति को गढ़ रहे हैं, मौजूदा संस्थाओं को लील जा रहे हैं और नागरिक की भूमिका को परिभाषित कर रहे हैं । इस माहौल में नियम, कानून और स्थापित आचरण को दरकिनार करके राजनीतिक विकृति की प्रतिष्ठा की जा रही है । इस माहौल में अगर सामान्य जनता की आवाज को मुखर बनाना है तो इस व्यवस्था को समझने की गम्भीर कोशिश करनी होगी ।   
लोकतंत्र और समाज के समक्ष उपस्थित इन चुनौतियों के मद्देनजर मानवता के पक्ष में 2018 में अटलांटिक बुक्स से एंड्र्यू कीन की किताब हाउ टु फ़िक्स द फ़्यूचर: स्टेइंग ह्यूमन इन द डिजिटल एजका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि इस समय मानवता की बात करने के चलते उन्हें लुडाइट समझा जाता है । असल में पश्चिमी देशों में मशीनों के आगमन के विरोध में जो शुरुआती प्रतिरोध हुआ था उसमें पुराने कामगार इन मशीनों को तोड़ दिया करते थे । इस आंदोलन को उसके नेता के नाम पर लुडाइट कहा जाता है । इस किताब के लेखक ऐसे लेखकों के समूह के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे जो इंटरनेट को समाज के लिए लाभकारी मानने का विरोध करते थे । एक समय था जब इनकी आवाज अनसुनी कर दी जाती थी लेकिन सर्वव्यापी निगरानी तंत्र की स्थापना, आंकड़ों की जखीरेबाजी, इंटरनेट से जुड़े भीड़तंत्र की प्रचंड बेवकूफी, इंटरनेट कंपनियों के खरबपति मालिकान, झूठी खबर के नुकसानदेह प्रभाव, सामाजिकता से दूर करनेवाले सोशल मीडिया, भारी बेरोजगारी, इंटरनेट की लत जैसी चीजों को देखते हुए इंटरनेट के आलोचकों की तादाद बढ़ रही है । इन सबके चलते मानवीय भविष्य पर सोचने की जरूरत पैदा हो गई है । किताब में लेखक ने दुनिया भर में मनुष्य की हस्तक्षेपकारी भूमिका उभारने की कोशिशों का जायजा लिया है ।         
2017 में वर्सो से आदम ग्रीनफ़ील्ड की किताब रैडिकल टेकनोलाजीज: द डिजाइन आफ़ एवरीडे लाइफ़का प्रकाशन हुआ । किताब में फोन, इंटरनेट, बिटक्वाइन, स्वचालन, धन के लेन देन के डिजिटल तरीकों, मशीन और कृत्रिम बुद्धि जैसी तकनीकों के चलते हमारे जीवन में आए अनजाने और बुनियादी बदलावों का विवेचन किया गया है ।  यह मजेदार किताब पेरिस के एक सामान्य दिन के वर्णन से शुरू होती है । लोग ए टी एम के सामने कतार में खड़े हैं । लगभग पूरे शहर में सभी लोग अपने किसी न किसी काम में व्यस्त हैं लेकिन अगर उनके पास मोबाइल फोन है तो उसे चालू करें या न करें, उनके फोन में जी पी एस हो या न हो, उनकी भौगोलिक मौजूदगी का पता है । लोगों के समस्त लेनदेन के आंकड़े जमा हो रहे हैं । उनकी प्रत्येक आवाजाही दर्ज हो रही है । सैर करने वालों के बारे में भी समय, दूरी और गति का पता है । पहले इन सभी गतिविधियों की न तो कोई खबर होती थी, न किसी को इनसे कोई मतलब होता था । समय इतना बदल गया है कि इनमें से किसी एक भी हरकत को आदि से अंत तक खोजा जा सकता है । नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करने की तमन्ना रखने वाले लोगों के लिए बड़ी सुविधा हो गई है । आंकड़ों के संग्रह और विश्लेषण में सक्षम उपकरणों की हमारे जीवन में मौजूदगी के चलते यह सब सम्भव हुआ है । इन सबको आपस में जोड़ने वाला एक अदृश्य जाल है जो हिलते डुलते किसी भी व्यक्ति की समूची खबर रखता है ।
डिजिटल यथार्थ की इस नई दुनिया को समझने की गम्भीर कोशिश के तहत 2017 में प्लूटो प्रेस से केट ओरिओर्दन की किताब अनरीयल आब्जेक्ट्स: डिजिटल मैटीरियलिटीज, टेक्नोसाइंटिफ़िक प्रोजेक्ट्स ऐंड पोलीटिकल रियलिटीजका प्रकाशन हुआ । लेखक कहते हैं कि अवास्तविक वस्तु अंतर्विरोधी धारणा है । हमारे समय का यही सच है । यथार्थ अंतर्विरोधी और प्रतियोगी हो चला है । तमाम तरह के तकनीकी उपकरण इस दुनिया में स्वभाव की तरह शामिल हो गए हैं । ये वस्तुएं मनुष्य, ज्ञान और संसार की दिशा निर्धारित कर रही हैं । मानव जीवन पर वस्तुओं की इस जकड़न को ढीला करना इस किताब का घोषित मकसद है । एक और किताब में भी यह कोशिश हुई है । 2017 में इमेराल्ड पब्लिशिंग से विनसेन्ट मोस्को की किताब बिकमिंग डिजिटल: टुवर्ड ए पोस्ट-इंटरनेट सोसाइटीका प्रकाशन हुआ । किताब डिजिटल दुनिया के ऐसे पहलुओं के बारे में है जो हमारे जीवन का अंग हो चुके हैं लेकिन उन पर हमारा ध्यान नहीं जाता है । लेखक का मानना है कि इस नए किस्म की दुनिया में भी बड़े छोटे का अंतर समाप्त नहीं हुआ है ।
विषमता की इस परिघटना को स्पष्ट करने के लिए 2017 में पोर्टफ़ोलियो/पेंग्विन से स्काट गैलोवे की किताब द फ़ोर: द हिडेन डी एन ए आफ़ अमेज़न, एपल, फ़ेसबुक, ऐंड गूगलका प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक पिछले बीस सालों के दौरान इन चार तकनीकी महाबलियों ने जितना ध्यान खींचा उतना कभी किसी ने नहीं खींचा था । इस क्रम में इन कंपनियों में मालदार रोजगार भी पैदा हुआ है । करोड़ो लोगों के जीवन में इनके उत्पाद और सेवाओं की घुसपैठ हो चुकी है । इसी पहलू से 2017 में लिटिल, ब्राउन ऐंड कम्पनी से जोनाथन टैपलिन की किताबमूव फ़ास्ट ऐंड ब्रेक थिंग्स: हाउ फ़ेसबुक, गूगल, ऐंड अमेज़न कार्नर्ड कल्चर ऐंड अंडरमाइंड डेमोक्रेसीका प्रकाशन हुआ । लेखक का इरादा संस्कृति के क्षेत्र में जारी लड़ाई के बारे में लिखने का था । इस लड़ाई में अगर एक पक्ष इंटरनेट के परम स्वछंदतावादी खरबपति मालिकान हैं तो दूसरी ओर संगीतकार, पत्रकार, छायाकार, लेखक और फ़िल्मकार हैं जो इंटरनेट के इस जमाने में जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं । किताब के लेखक भी संगीत निर्माण के धंधे से जुड़े हुए हैं । उनका कहना है कि 1995 के बाद कला के क्षेत्र में जिन कलाकारों का काम इंटरनेट के जरिए प्रसारित हुआ उन्हें छोड़कर प्रयासरत शेष लोगों के बारे में कोई चर्चा नहीं होती । इंटरनेट ने कला जगत को जिस तरह बुनियादी रूप से बदला है उसके चलते किसी भी नए कलाकार को नए हालात का ध्यान रखते हुए ही कला की दुनिया में कदम रखना होता है । कलाकारों के सामने खड़ी चुनौतियों का सीधा संबंध इंटरनेट की इजारेदारी से है और अब इस इजारेदारी का प्रभाव केवल कला की दुनिया तक सीमित नहीं रह गया है । इसका प्रसार हमारे सम्पूर्ण जीवन और विश्व अर्थतंत्र तक हो रहा है फिर भी इनके फैसलों के मामले में हमारी पसंद का कोई अर्थ नहीं होता । ये फैसले गूगल, फ़ेसबुक और अमेज़न के इंजीनियर और पदाधिकारी लेते हैं तथा बिना किसी जांच परख के इन्हें जनसमुदाय पर थोप दिया जाता है । इसके चलते पश्चिमी जगत नियम कानून विहीन जंगल के समान हो गया है और प्रत्येक नागरिक के जीवन में अपराधियों, कारपोरेट घरानों और सरकारों का बेरोकटोक हस्तक्षेप मुमकिन हो गया है । लोकतंत्र पर भी इसका असर देखा जा रहा है । अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में ट्विटर और फ़ेसबुक पर भारी मात्रा में झूठी खबरें फैलाई गईं और इनसे ट्रम्प को जीतने में मदद मिली । इसका बड़ा कारण था कि फिलहाल 44 प्रतिशत अमेरीकियों के लिए सही समाचार का प्रथम स्रोत फ़ेसबुक हो चला है । कई लोग तो मानते हैं कि सोशल मीडिया के बिना ट्रम्प का जीतना सम्भव ही नहीं था । अखबार में छपने से पहले समाचार की कुछ न कुछ छानबीन होती है लेकिन फ़ेसबुक के लिए जांच परख की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है । सच पूछिए तो इंटरनेट को नियंत्रित करनेवाले स्वच्छंदतावादी खरबपतियों को लोकतांत्रिक राजनीति या समाज में कोई विश्वास नहीं होता । इन कंपनियों के मालिकान अल्पतंत्र में गम्भीरता से विश्वास करते हैं जिसके तहत कुछेक धनकुबेरों और तथाकथित प्रतिभाशाली लोगों के हाथ में हमारा भविष्य छोड़ देना उचित समझा जाता है । इनमें से एक सज्जन का लेखक ने उदाहरण दिया है जो पेपाल नामक भुगतान कंपनी के संस्थापक हैं । उनका मानना है कि अमेरिकी समाज की सबसे बड़ी समस्या बेवकूफ वोटरों की भीड़ है । उनका यह भी कहना है कि आबादी के केवल 2 फ़ीसद वैज्ञानिक, उद्यमी और निवेश का जोखिम उठानेवाले पूंजीपति इस देश की हालत को समझते हैं और बाकी 98 प्रतिशत जनता को कुछ पता नहीं होता । उनकी बात से किताब के लेखक को लगा कि जिसे वे संस्कृति के खित्ते की लड़ाई समझ रहे थे वह तो असल में आर्थिक युद्ध है । जिस तरह इंटरनेट की दुनिया में उसी तरह आर्थिक क्षेत्र में भी प्रतियोगी पूंजीवाद के दिन बीत गए हैं और अब इजारेदारी का ही बोलबाला कायम है । असल में यह सब आगामी समय में उभरनेवाले पूंजीवाद की झांकी है । इसके कारण चिंता जाहिर की जा रही है कि कुछेक दैत्याकार कंपनियों के हाथ में समूची आबादी के बारे में जानकारी आखिर कितनी सुरक्षित रहेगी । इजारेदारी, आंकड़ों पर नियंत्रण और कारपोरेट कंपनियों की सरकार में घुसपैठ- ये सवाल ही कलाकारों और इंटरनेट के मालिकों के बीच जंग की जड़ में हैं । लेखक का कहना है कि मौजूदा दमघोंटू माहौल से यह लड़ाई आज कलाकार लड़ रहे हैं लेकिन कल जल्दी ही हम सबको यह कठिन लड़ाई लड़नी होगी । संगीतकार और लेखक मुहाने पर पहले पड़ गए क्योंकि उनके सृजन उद्योग का इंटरनेटीकरण सबसे पहले हुआ है लेकिन इस प्रक्रिया का भक्ष्य हमारी जानकारियों के साथ हम सबके रोजगार भी जल्दी ही होंगे ।
डिजिटलीकरण की इस परिघटना के साथ ही बिग डाटा नामक नई विद्या का उदय भी हुआ है । इस प्रसंग में 2017 में आइकन बुक्स से ब्रायन क्लेग की किताबबिग डाटा: हाउ द इनफ़ार्मेशन रेवोल्यूशन इज ट्रान्सफ़ार्मिंग आवर लाइव्सका प्रकाशन हुआ । वर्तमान समय की इस सबसे बड़ी और जटिल परिघटना को लेखक ने लोकप्रिय तरीके से पतली सी इस किताब में प्रस्तुत किया है । लेखक का कहना है कि अखबारों और अन्य संचार माध्यमों में इस शब्द का इतना जिक्र हुआ है कि इसकी उपेक्षा असंभव है । इसका संबंध व्यवसाय से तो है ही अन्य काम भी इसके सहारे सम्पादित हो रहे हैं । नई तकनीकों की मदद से बड़ी कंपनियों और सरकारों के लिए हमारे बारे में बहुत कुछ जानना संभव हो गया है । इस जानकारी के आधार पर कंपनी को सामान बेचने और सरकार को नियंत्रण कायम करने में सुभीता हो रहा है । लेखक को लगता है कि यह चीज हमारी जिंदगी से गायब नहीं होने जा रही है इसलिए इसके खतरों और फायदों के बारे में जानना उचित होगा । इस परियोजना के तहत इस कदर भारी मात्रा में सूचना एकत्र और विश्लेषित की जाती है कि बिना कंप्यूटर के ऐसा करना असंभव हो जाता है । वैसे तो मानव समाज के आरम्भ से ही आंकड़े हमारे जीवन के अंग रहे हैं । लेखन और खाता बही के आने के बाद ये मानव सभ्यता की रीढ़ बन गए थे । सत्रहवीं-अठारहवीं सदी से ही इनके सहारे भविष्य में झांकने की कोशिश होती रही है । लेकिन उपलब्ध आंकड़ों की मात्रा कम होने और उन्हें विश्लेषित करने की हमारी क्षमता सीमित होने के चलते इसकी पहुंच कम हुआ करती थी । अब यह प्रक्रिया एक नए धरातल पर पहुंच गई है ।
इस शुरुआती परिचय के बाद लेखक ने स्पष्ट किया है कि बहुत पहले से ज्ञान का आधार आंकड़े रहे हैं । इन आंकड़ों के सहारे सूचना का निर्माण होता है । सूचनाओं की दुनिया में आपस में जुड़े हुए तमाम आंकड़े होते हैं और इनके जरिए हम संसार के बारे में बहुत सारी सार्थक बातें जान समझ पाते हैं । इसी जानकारी और समझ के सहारे फिर हम सूचनाओं की अपने और समाज के लिए उपयोगी व्याख्या करते हैं । वे कहते हैं कि मूल तौर पर आंकड़े संख्याओं का संग्रह होते हैं । इस समूची प्रक्रिया को एक उदाहरण के जरिए स्पष्ट करने के लिए वे बताते हैं कि यदि हमें किसी खास क्षेत्र में पानी में घंटे के हिसाब से मछलियों की मौजूदगी का पता हो तो इसके आधार पर मछली मारने के बेहतरीन समय का ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।     
बहुतेरे लोग तकनीक की महिमा से आक्रांत होने के चलते उसको समाज की परिस्थितियों से स्वतंत्र समझते हैं । इसके विरोध में 2016 में न्यू इंटरनेशनल से बाब ह्यूज की किताबद ब्लीडिंग एज: ह्वाइ टेकनोलाजी टर्न्स टाक्सिक इन ऐन अनइक्वल वर्ल्डका प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना डैनी डोर्लिंग ने लिखी है । वे तकनीक को निष्पक्ष मानते हैं । उनके अनुसार व्यावहारिक जरूरतों के लिए ज्ञान को अनुकूलित करके इसका निर्माण होता है । यह तो निरपेक्ष है लेकिन इनके स्वामी कारपोरेशन और इनके बारे में फैसला लेने वाले राजनेता निष्पक्ष नहीं होते । स्वचालित मशीन के चलते दुनिया में असमानता नहीं पैदा हुई । हमने इस असमान दुनिया का निर्माण किया है और 1970 दशक के बाद से नए तरह की दासता की ओर बढ़े जा रहे हैं । किताब के लेखक बाब ह्यूज इतिहास और तकनीक के जानकार हैं इसीलिए वे बता सके कि विषमता पर आधारित मानव समाज में तकनीक विध्वंसक भूमिका निभा रही है । इसके उलट जिन समाजों में विषमता कम है वे तकनीक का बेहतर मकसद के लिए इस्तेमाल करते हैं । ऐसे समाजों में जैव विविधता के संरक्षण और संवर्धन के लिए उसका प्रयोग किया जाता है । इस भिन्नता को देखते हुए बाब ह्यूज का कहना है कि प्रतिबंधित नुकसानदेह वस्तुओं की तरह ही विषमता से भी परहेज बरतना चाहिए । जब हम इसे कम कर सकते हैं तो इसे प्रोत्साहित या बरदाश्त करने को मानवता के साथ अपराध घोषित किया जाना चाहिए । मनुष्य को उपभोक्ता बनाने से लेकर ड्रोन हमलों में उसके संहार तक तकनीक के आपराधिक इस्तेमाल को देखते हुए बाब के प्रस्ताव समुचित प्रतीत होते हैं । बाब का यह भी मानना है कि नए और मौलिक विचारों का अधिग्रहण जब ऐसे संगठन कर लें जो ऊंच नीच पर आधारित होते हैं तो प्रगति की रफ़्तार सुस्त पड़ जाती है । ऐसे संगठनों के मालिकान विषमता को कायम रखने के लिए विकल्पहीनता का हल्ला मचाते हैं । सच्चाई यह है कि कम्प्यूटर का इतिहास विकल्पों से भरा हुआ है और कोई भी नई चीज विकल्प के रूप में पहले से मौजूद रहती है और समय पाकर सामने आती है । उसके बाद असमान दुनिया के धनी देश उस पर कब्जा जमाकर नवोन्मेष का रास्ता रोक देते हैं । नवोन्मेष की जगह उनका लक्ष्य मुनाफ़ा कमाना ही होता है इसलिए वे जल्दी बेकार हो जाने वाले सामानों के उत्पादन पर जोर देते हैं । लेखक का मत है कि विषमता को और  स्थायी बनाने के लिए सहयोग और सहकार को अपराध बना दिया जाता है । हालात को समझकर ही उसे बदलने के लिए कोशिश की जा सकती है ।               
2016 में ब्रिल से क्रिश्चियन फ़ुश और विनसेन्ट मोस्को के संपादन में मार्क्स इन द एज आफ़ डिजिटल कैपिटलिज्मका प्रकाशन हुआ । किताब में कुल सोलह लेख संकलित हैं । पहला लेख भूमिका के रूप में संपादकद्वय ने लिखा है । शेष लेखों में से दो इन संपादकों के ही हैं । पहला लेख मार्क्स की वापसी पर केंद्रित है । मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के जर्मन प्रकाशक का कहना है कि 2005 के बाद इनकी किताबों की बिक्री तीन गुना बढ़ गई है । इसी के साथ उनके विश्लेषण की इस खासियत को पहचाना जा रहा है कि पूंजीवाद ने किस तरह निर्जीव वस्तुओं को वास्तविकता, शक्ति और कर्तापन प्रदान कर दिया है । साथ ही सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अर्थतंत्र की भूमिका को भी उनकी तर्ज पर रेखांकित किया जा रहा है । सरकारों के नीति निर्माता भी पूंजीवाद की संकट पैदा करने की अंतर्निहित प्रवृत्ति को समझने के लिए मार्क्स के लेखन का सहारा ले रहे हैं । ऐसा लगता है कि विश्व पूंजीवाद के संकट के साथ ही हम एक नए मार्क्सी समय में प्रविष्ट हो गए हैं । मार्क्स के लेखन में रुचि से केवल यह संकेत मिलता है कि पूंजीवाद, वर्ग संघर्ष और संकट अभी खत्म नहीं हुए हैं । पूंजीवादी अखबार तो मार्क्स को पूंजीवाद के रक्षक के रूप में पेश करने की कोशिश में लगे हुए हैं । इस सिलसिले में ध्यान रखना होगा कि उन्होंने महज पूंजीवाद का विश्लेषण नहीं किया, बल्कि वे इसके घनघोर आलोचक थे । उन्होंने लिखा था कि मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध प्रत्येक क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन कम्यूनिस्ट हमेशा करते हैं । इन सभी आंदोलनों में वे संपत्ति के सवाल को सामने लाने की चेष्टा करते हैं । सभी देशों में वे लोकतांत्रिक पार्टियों की एकता और उनमें सहमति बनाने का प्रयास करते हैं । वे खुलेआम घोषित करते हैं कि उनके लक्ष्य मौजूदा सामाजिक हालात को बलपूर्वक बदलने से ही हासिल हो सकते हैं । 35 साल पहले डलास स्मिथ ने लिखा था कि पश्चिमी मार्क्सवाद ने पूंजीवाद में संचार की जटिल भूमिका पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया था । आज नवउदारवाद के उदय के बाद सामाजिक वर्गों और पूंजीवाद में बौद्धिक रुचि घट गई है । अब वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकता और इतिहास का अंत जैसी धारणाओं की शब्दावली में अधिकतर बात की जाती है । एक ओर मार्क्स की लोकप्रियता बढ़ रही है तो दूसरी ओर उसके प्रति विरोध भी जारी है । समस्त सामाजिक विज्ञानों में मार्क्सवाद बदनुमा धब्बा समझा जाता है । अगर सामाजिक विश्लेषण में किसी ने खुलकर मार्क्सवादी रुख अपनाया तो उसके लिए अकादमिक जगत में अकेले पड़ जाने की संभावना बढ़ जाती है । प्रकाशित होनेवाले लेखों की सांख्यिकी से पता चलता है कि 1988 से 2007 तक के बीस सालों में मार्क्स से जुड़े गंभीर लेखन में गिरावट आई थी । यही समय था जब नवउदारवाद और उपभोक्तावाद जोरों पर थे और सामाजिक विज्ञानों में उत्तर आधुनिकता और संस्कृतिवाद का बोलबाला था । 2008 के बाद मार्क्स से जुड़े इस लेखन में फिर से बढ़ोत्तरी आई है । चुनौती यह है कि इस रुचि को कैसे टिकाया जाए और सांस्थानिक बदलावों में इसे कैसे लगाया जाए ।
2015 में प्लूटो प्रेस से टिम जोर्डन की किताब इनफ़ार्मेशन पोलिटिक्स: लिबरेशन ऐंड एक्सप्लायटेशन इन द डिजिटल सोसाइटीका प्रकाशन हुआ । ज्ञातव्य है कि टिम जोर्डन इस पहलू के बारे में सदी की शुरुआत से ही लिख रहे हैं । एक पुस्तक श्रृंखला के तहत इसे छापा गया है । श्रृंखला के संपादक का मानना है कि संकट और टकराव से मुक्ति के अवसरों का जन्म होता है । वर्तमान सदी के आंदोलनों में आभासी या डिजिटल और वास्तविक या असली के बीच की सीमा समाप्त हो गई है । डिजिटल संस्कृति जनता को आपस में जोड़ रही है लेकिन साथ ही उनकी निगरानी या विज्ञापन के लिए उनके उपयोग का रास्ता भी खोल रही है । लेखक के अनुसार इस सदी में शोषण और मुक्ति की राजनीति में सूचना केंद्रीय तत्व हो चला है । इंटरनेट के साथ जुड़ी गतिविधियों की खबरों से स्पष्ट है कि सूचना की राजनीति हमारे जीवन का सार हो चुका है । इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण विकीलीक्स की ओर से अमेरिकी सरकार की सूचनाओं को खोल देना और बदले में मास्टरकार्ड की ओर से उसे सेवा देने से इनकार करना है । इसके बाद मास्टरकार्ड की वेबसाइट बंद कर दी गई । इंटरनेट की दुनिया में प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों के विरोध में ढेर सारे लोगों ने अपने पेज काले कर लिए । इससे जुड़े लोगों ने ट्यूनीशिया और अरब देशों के विरोध प्रदर्शन के आपसी संचार के लिए सुरक्षित तरीके निकाले । सूचना के क्षेत्र में युद्ध के नगाड़े सुनाई पड़ने लगे ।  
डिजिटल दुनिया और निजी गोपनीयता का द्वंद्व भी मुखर हुआ है । लोकतंत्र का आधार नागरिकों की निजी जिंदगी पर उनका अबाध अधिकार है । डिजिटल दुनिया में निजी सूचनाओं का कोई अर्थ नहीं रह गया है । उपभोक्ता के बतौर उनसे जुड़ी सूचना बाजार के लिए उपयोगी है तो मतदाता के रूप में उनकी रुचि का राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सकता है । इन जरूरतों के चलते नागरिकों की निजी सूचनाओं के संग्रह और विश्लेषण का भारी तंत्र बन गया है । इसी को उजागर करने के लिए 2015 में नेशन बुक्स से राबर्ट शीयर की सारा बेलादी के साथ लिखी किताब दे नो एवरीथिंग एबाउट यू: हाउ डाटा-कलेक्टिंग कारपोरेशन्स ऐंड स्नूपिंग गवर्नमेन्ट एजेन्सीज आर डेस्ट्राइंग डेमोक्रेसीका प्रकाशन हुआ ।
इस क्षेत्र में मार्क्सवादी शब्दावली के इस्तेमाल का उदाहरण 2015 में प्लूटो प्रेस से निकडायर-विदेफ़ोर्ड की प्रकाशित किताबसाइबर-प्रोलेतारिएत: ग्लोबल लेबर इन द डिजिटल वोर्टेक्समें मिलता है । आज की डिजिटल दुनिया में श्रम के तरीके में बदलाव आने के साथ मूल्य में भी बदलाव आया है । 2015 में पालग्रेव मैकमिलन से एरान फ़िशर और क्रिश्चियन फ़ुश के संपादन मेंरीकंसिडरिंग वैल्यू ऐंड लेबर इन द डिजिटल एजका प्रकाशन हुआ ।
वैसे इस पहलू पर सबसे अधिक विचार उर्सुला हुव्स ने किया है । 2014 में मंथली रिव्यू प्रेस से उनकी किताबलेबर इन द ग्लोबल डिजिटल इकोनामी: द साइबेरिएट कम्स आफ़ एजका प्रकाशन हुआ । किताब विश्व अर्थतंत्र के सबसे हालिया रूप का विश्लेषण करती है और उसे भी पूंजीवाद का ही एक नया रूप मानकर उसके उत्पादकों को सर्वहारा मानते हुए उनके शोषण को उजागर करती है । किताब में ज्ञान आधारित अर्थतंत्र के कामगारों के बारे में 2006 से 2013 के बीच लिखे उनके लेख संकलित हैं । यह समय पूंजीवाद के इतिहास और श्रम संगठन के लिहाज से उथल पुथल भरा समय था । इससे पहले भी एक किताब उन्होंने लिखी थी जिसमें उनकी मान्यता थी कि पूंजीवाद नए माल पैदा करके संकटों से पार पा जाता रहा है । जैसे ही इसका विस्तार ऐसे विंदु पर पहुंचता है जहां लगता है कि इसके लिए बाजार और मुनाफ़े की संभावना समाप्त होती महसूस होती है वहीं वह जीवन के नए क्षेत्रों को अपनी जद में ले आता है, नई वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के नए रूपों को जन्म देता है और फिर उनके लिए बाजार का सृजन करता है । इस तरह के किसी भी दौर में नई तकनीक का व्यापक प्रसार होता है । उदाहरण के लिए बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बिजली के प्रसार के साथ घरेलू श्रम (वैक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन या फ़्रिज) या लोकप्रिय मनोरंजन (रेडियो, सिनेमा या ग्रामोफोन) पर आधारित नई वस्तुओं की बाढ़ आई थी । इस प्रक्रिया में उत्पादन और उपभोग के नए रूपों का भी जन्म हुआ था । अधिकाधिक मजदूर अपने रोजमर्रा के जीवन में इन वस्तुओं पर निर्भर होते गए थे । उन्हें इतनी आमदनी की जरूरत पड़ी जिससे इन वस्तुओं को खरीदा जा सके और उनके जीवन पर पूंजीवाद की पकड़ भी इसी के मुताबिक बढ़ी । सबको अपने जीवन में इन्हें अपनाना ही पड़ा । इनके नएपन में इनका आकर्षण था । इनकी कीमत सस्ती होती गई । समय और श्रम की बचत तथा सुविधा का तत्व भी इनके साथ जुड़ गया । इसके अतिरिक्त इनकी मौजूदगी से हैसियत में भी बढ़ोत्तरी होती थी ।
इस पहलू के साथ मार्क्सवाद के जुड़ाव को व्यक्त करते हुए 2014 में रटलेज से क्रिश्चियन फ़ुश की किताबडिजिटल लेबर ऐंड कार्ल मार्क्सका प्रकाशन हुआ । कंप्यूटर, इंटरनेट और सोशल मीडिया के समय में श्रम में आनेवाले बदलावों का अध्ययन करना इस किताब का मकसद है । लेखक सोशल मीडिया के प्रोफ़ेसर हैं । लेखक ने भूमिका में इस अध्ययन की जरूरत बताने के साथ मार्क्स के गायब और फिर से प्रकट होने के हालात पर विचार किया है । इसके बाद पहले भाग में इस अध्ययन की सैद्धांतिक बुनियाद बनाने के लिए चार अध्यायों में क्रमश: कार्ल मार्क्स की श्रम सैद्धांतिकी, सांस्कृतिक अध्ययन और कार्ल मार्क्स, डलास स्मिथ के भोक्ता श्रमिक सिद्धांत तथा पूंजीवाद के साथ सूचना समाज के रिश्तों पर चर्चा की गई है । दूसरे भाग में कुछेक मुल्कों के इन श्रमिकों तथा इस काम के विभिन्न आयामों का ठोस अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । तीसरे भाग में उपसंहार के रूप में इनके संघर्ष के नए रूपों को चिन्हित किया गया है ।
डिजिटल यथार्थ संबंधी इस साहित्य सर्वेक्षण से प्रकट है कि नई तकनीक का आगमन खास सामाजिक संदर्भ में हुआ है । उसने लोगों की जिंदगी में भारी बदलाव किए हैं । इसे जिंदगी में आए बदलावों का उत्पाद भी समझा जा सकता है । यह तकनीक समाज की तरह इतिहास से भी स्वतंत्र नहीं है । इसने वैश्वीकरण की आंधी के साथ मिलकर श्रमिकों का नया वैश्विक विभाजन किया है । इसके सहारे पूंजीवाद की अंतर्निहित समस्याओं से मुक्ति नहीं मिल सकती । इसकी जगह इसने पूंजीवादी संकट को और गहरा तथा तीखा बनाया है । मूल्य के सामूहिक उत्पादन और उसके निजी अधिग्रहण के बुनियादी अंतर्विरोध की मौजूदगी इसके भीतर भी बनी हुई है । दूसरी ओर तकनीक ने एकाधिकार को तोड़ने की ऐतिहासिक सम्भावना को भी जन्म दिया है लेकिन इसके चलते ही इस सम्भावना की भ्रूण हत्या के संगठित प्रयास भी हो रहे हैं । ढेर सारे आधुनिक चिंतक इस दुनिया में नए विकल्पों की तलाश भी कर रहे हैं ताकि मानवता की सामूहिक मेधा से उत्पन्न इस लाभकर स्थिति को समाज में सुख और समृद्धि के प्रसार में बदला जा सके ।