Monday, May 20, 2019

डिजिटल दुनिया और मार्क्सवाद


                   
                                             
क्रांति के नाम पर फिलहाल जिस क्रांति की धारणा बनती है उसके साथ डिजिटल शब्द गहरे जुड़ा हुआ है । सूचना-संचार के क्षेत्र में तमाम बदलाव तकनीक के आधार पर या उसका सहारा लेकर आए । देश और दुनिया के इस दौर को व्याख्यायित करने वाले सोवियत संघ के पतन से पहले ही इसके आगमन ने एक हद तक जीवन और सोच में बदलाव लाना शुरू कर दिया था । इस बदलाव को एक हद तक गहरा मानते हुए 2018 में पोलिटी प्रेस से फ़ेलिक एस स्टाल्डेर की जर्मन में 2016 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद द डिजिटल कंडीशनका प्रकाशन हुआ । यह अनुवाद वैलेन्टाइन ए पाकिस ने किया है । लेखक की ओर से अंग्रेजी संस्करण के लिए अलग भूमिका लिखी गई है । लेखक के मुताबिक पश्चिमी यूरोप के लोग फिलहाल अपने को नए हालात में पा रहे हैं । इन्हीं को लेखक ने डिजिटल हालात कहा है क्योंकि कंप्यूटरों के जाल ने जीवन के लगभग सभी पहलुओं को काबू कर लिया है । इस बदलाव की जड़ें इतिहास में तो उन्नीसवीं सदी के अंत तक जाती हैं लेकिन इस परिस्थिति का आगमन साठ दशक के उत्तरार्ध में हुआ । इसके पहले के सांस्कृतिक राजनीतिक हालात को आकार देने वाले ढांचे को मैकलुहान के शब्दों में गुटेनबर्ग गैलेक्सी का नाम लेखक ने दिया है । इस पुराने ढांचे के संकट में आने से निजी और सामूहिक अभिरुचि और संगठन के नए रूपों की जरूरत पड़ी जिन्हें इन हालात ने आकार दिया । दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया और ढांचागत रूपांतरणों के पीछे कोई सचेत मंशा नहीं थी । इसके बावजूद लेखक का मानना है कि इस बदलाव की प्रक्रिया इतना मनमानी नहीं है कि राजनीति की पकड़ से बाहर हो जाए । ऐसा नहीं कि समकालीन गति में भविष्य के किसी विकल्प की अभिव्यक्ति ही नहीं हो रही । पुराने ढांचों के बिखराव से जो शून्य पैदा हुआ है उसे भरने के मकसद से तमाम नए आर्थिक और राजनीतिक प्रकल्प और उनके लिए हितकर नई संस्थाओं का जन्म लगातार हो रहा है । किताब लिखने की वजह भी इन सबकी पहचान और विश्लेषण है ।
राजनीति के क्षेत्र में जो बदलाव आए हैं उन्हें लेखक ने ‘लोकतंत्रोत्तर’ कहा है । इसके जरिए वे बताना चाहते हैं कि निर्णय लेने की प्रक्रिया का भागीदारी से संबंध विच्छेद हो चुका है इसलिए सामूहिक भागीदारी की जरूरत बढ़ गई है । जरूरत पैदा होने से इसकी सम्भावना का भी विस्तार हुआ है । इस मामले में नियंत्रण के ऐसे परिक्षेत्र सामने आए हैं जिन पर मुट्ठी भर लोगों का एकाधिकार है । फ़ेसबुक और गूगल जैसे जन संचार के नए व्यावसायिक मंच इसके ठोस उदाहरण हैं । लेकिन इसके साथ ही विपरीत प्रक्रिया भी जारी है जिसे आजकल ‘कामन्स’ का नाम दिया जा रहा है । इसमें उदारवादी लोकतंत्र की औपचारिक प्रातिनिधिकता के बरक्स भागीदारी को सार्थक और निर्णायक बनाने की कोशिश हो रही है । इसका उदाहरण विकीपीडिया जैसे जानकारी के सर्व सुलभ स्रोत हैं । उनके अनुसार इन दोनों प्रक्रियाओं का संघर्ष डिजिटल दुनिया तक ही सीमित नहीं है बल्कि सामाजिक जीवन के अन्य तमाम क्षेत्रों तक इनका प्रसार हो रहा है । असल में उदारवादी लोकतंत्र का उम्मीद से अधिक तेजी से विघटन हो रहा है और उसकी जगह लेने की होड़ भी तेज हुई है । इस होड़ में एक ओर राष्ट्रवादी उन्माद से संचालित तानाशाही राजनीति खड़ी हो रही है तो दूसरी ओर विद्रोही नगरों का भी उत्थान हुआ है जो समुदाय आधारित सामाजिक आंदोलनों के जरिए उच्च पदों पर अपनी पसंद के प्रत्याशी चुनकर भेजने में कामयाब हो पा रहे हैं । साफ है कि यह दौर भी व्यापक सामाजिक प्रक्रियाओं और अंतर्विरोधों तथा उनसे उत्पन्न तनावों से अछूता नहीं है । इसमें भी एकाधिकार और भागीदारी की आकांक्षा में आपसी टकराव जारी हैं । इसके साथ ही यदि प्रतिनिधिमूलक लोकतांत्रिक प्रणाली का क्षरण हुआ है तो लोकतंत्र के नए परिसर भी पैदा हो रहे हैं ।                      
इस क्रांति ने दुनिया को ऐसी जगह ला खड़ा किया है कि विवेक और तर्क के लिए खतरा पैदा हो गया है । इस विचित्र हाल को समझने के लिहाज से 2018 में ही वर्सो से जेम्स ब्रिडल की किताब न्यू डार्क एज: टेकनोलाजी ऐंड द एन्ड आफ़ द फ़्यूचरका प्रकाशन हुआ ।  लेखक का कहना है कि पिछली सदी ने तकनीकी त्वरण के जरिए हमारी धरती, हमारे समाज और हम सबको बदल डाला है लेकिन इन चीजों के बारे में हमारी समझ को बदलने में अभी कामयाबी नहीं मिली है । आज के समय की सबसे बड़ी चुनौतियों के साथ तकनीक जुड़ी हुई है । वर्तमान नियंत्रणविहीन अर्थतंत्र धनी और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर रहा है । विश्व स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक सर्वसम्मति के टूट जाने से अंध राष्ट्रवाद, सामाजिक विभाजन, टकराव और छायायुद्ध की बाढ़ आ गई है । इसके अतिरिक्त तापवृद्धि से सबके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं । विज्ञान और समाज, राजनीति और शिक्षा, युद्ध और वाणिज्य के क्षेत्रों में नई तकनीकें हमारी क्षमता को ढाल रही हैं । इस प्रक्रिया में सार्थक भागीदारी के लिए इनके बारे में विस्मय या श्रद्धा की जगह आलोचनात्मक विवेक अपनाने की जरूरत है । अगर हम जटिल तकनीकों की कार्यपद्धति, उनकी अंतर्सम्बद्धता और उनकी अंत:क्रिया को नहीं समझेंगे तो उनमें निहित सम्भावना पर स्वार्थी कुलीन और बेचेहरा कारपोरेशन आसानी से कब्जा कर लेंगे । चूंकि ये तकनीकें अप्रत्याशित और अक्सर विचित्र तरीके से न केवल आपस में जुड़ी रहती हैं, बल्कि उनके साथ हम भी उलझे होते हैं इसलिए उनकी व्यावहारिक समझ से ही काम नहीं चलेगा, उनकी उत्पत्ति और संसार में उनके लगभग अदृश्य तथा अंतर्सम्बद्ध कार्य सम्पादन की जानकारी जुटानी पड़ेगी । लेखक इस मामले में समझ से अधिक साक्षरता की जरुरत महसूस करते हैं ।    
इसी प्रसंग में न केवल तर्क और विवेक बल्कि लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप के भी संकट को उजागर करते हुए 2018 में वन वर्ल्ड से मार्टिन मूर की किताबडेमोक्रेसी हैक्ड: पोलिटिकल टर्मायल ऐंड इनफ़ार्मेशन वारफ़ेयर इन डिजिटल एजका प्रकाशन हुआ । लेखक ने 1974 के चुनावों में अपने पिता के राजनीतिक प्रचार के तरीकों से अपनी बात शुरू की है । उस समय सभी प्रत्याशी घर घर जाकर मतदाता से मिलकर उनकी बात सुनते थे और अपनी पार्टी के बारे में बताते थे । राजनीति की उस दुनिया का नामोनिशान भी नहीं बचा है । मध्यमार्गी पार्टियों का सुस्थापित लोकतंत्र लुप्त हो चुका है । अब तो राजनीतिक चुनाव अभियान को पहचानना ही मुश्किल है । इस समय चुनाव अभियान की मशीनरी मतदाताओं के आंकड़ों के जखीरे पर भरोसा करती है, इन आंकड़ों का बड़े पैमाने पर विश्लेषण करके तय किया जाता है कि किस मतदाता के पास किस तरह का संदेश भेजा जाए । आपके लिए चुने गए संदेश का निर्धारण आपकी खरीदारी, आपकी आमदनी, पढ़ने और देखने में आपकी रुचि, आपकी जान पहचान और आपके सरोकारों की जानकारी के आधार पर किया जाता है । इन संदेशों का असर हम पर पड़ता है और हम मतदाता की जगह अंध समर्थक में बदलते चले जाते हैं । इस प्रक्रिया ने लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर दिया है । राजनीतिक चेतना पैदा करने में बुनियादी भूमिका निभाने वाले समाचार के पारम्परिक साधन समाप्त हो चुके हैं और उनकी जगह गूगल, फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे मंचों ने ले ली है । ये मंच हमारी राजनीति को गढ़ रहे हैं, मौजूदा संस्थाओं को लील जा रहे हैं और नागरिक की भूमिका को परिभाषित कर रहे हैं । इस माहौल में नियम, कानून और स्थापित आचरण को दरकिनार करके राजनीतिक विकृति की प्रतिष्ठा की जा रही है । इस माहौल में अगर सामान्य जनता की आवाज को मुखर बनाना है तो इस व्यवस्था को समझने की गम्भीर कोशिश करनी होगी ।   
लोकतंत्र और समाज के समक्ष उपस्थित इन चुनौतियों के मद्देनजर मानवता के पक्ष में 2018 में अटलांटिक बुक्स से एंड्र्यू कीन की किताब हाउ टु फ़िक्स द फ़्यूचर: स्टेइंग ह्यूमन इन द डिजिटल एजका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि इस समय मानवता की बात करने के चलते उन्हें लुडाइट समझा जाता है । असल में पश्चिमी देशों में मशीनों के आगमन के विरोध में जो शुरुआती प्रतिरोध हुआ था उसमें पुराने कामगार इन मशीनों को तोड़ दिया करते थे । इस आंदोलन को उसके नेता के नाम पर लुडाइट कहा जाता है । इस किताब के लेखक ऐसे लेखकों के समूह के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे जो इंटरनेट को समाज के लिए लाभकारी मानने का विरोध करते थे । एक समय था जब इनकी आवाज अनसुनी कर दी जाती थी लेकिन सर्वव्यापी निगरानी तंत्र की स्थापना, आंकड़ों की जखीरेबाजी, इंटरनेट से जुड़े भीड़तंत्र की प्रचंड बेवकूफी, इंटरनेट कंपनियों के खरबपति मालिकान, झूठी खबर के नुकसानदेह प्रभाव, सामाजिकता से दूर करनेवाले सोशल मीडिया, भारी बेरोजगारी, इंटरनेट की लत जैसी चीजों को देखते हुए इंटरनेट के आलोचकों की तादाद बढ़ रही है । इन सबके चलते मानवीय भविष्य पर सोचने की जरूरत पैदा हो गई है । किताब में लेखक ने दुनिया भर में मनुष्य की हस्तक्षेपकारी भूमिका उभारने की कोशिशों का जायजा लिया है ।         
2017 में वर्सो से आदम ग्रीनफ़ील्ड की किताब रैडिकल टेकनोलाजीज: द डिजाइन आफ़ एवरीडे लाइफ़का प्रकाशन हुआ । किताब में फोन, इंटरनेट, बिटक्वाइन, स्वचालन, धन के लेन देन के डिजिटल तरीकों, मशीन और कृत्रिम बुद्धि जैसी तकनीकों के चलते हमारे जीवन में आए अनजाने और बुनियादी बदलावों का विवेचन किया गया है ।  यह मजेदार किताब पेरिस के एक सामान्य दिन के वर्णन से शुरू होती है । लोग ए टी एम के सामने कतार में खड़े हैं । लगभग पूरे शहर में सभी लोग अपने किसी न किसी काम में व्यस्त हैं लेकिन अगर उनके पास मोबाइल फोन है तो उसे चालू करें या न करें, उनके फोन में जी पी एस हो या न हो, उनकी भौगोलिक मौजूदगी का पता है । लोगों के समस्त लेनदेन के आंकड़े जमा हो रहे हैं । उनकी प्रत्येक आवाजाही दर्ज हो रही है । सैर करने वालों के बारे में भी समय, दूरी और गति का पता है । पहले इन सभी गतिविधियों की न तो कोई खबर होती थी, न किसी को इनसे कोई मतलब होता था । समय इतना बदल गया है कि इनमें से किसी एक भी हरकत को आदि से अंत तक खोजा जा सकता है । नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करने की तमन्ना रखने वाले लोगों के लिए बड़ी सुविधा हो गई है । आंकड़ों के संग्रह और विश्लेषण में सक्षम उपकरणों की हमारे जीवन में मौजूदगी के चलते यह सब सम्भव हुआ है । इन सबको आपस में जोड़ने वाला एक अदृश्य जाल है जो हिलते डुलते किसी भी व्यक्ति की समूची खबर रखता है ।
डिजिटल यथार्थ की इस नई दुनिया को समझने की गम्भीर कोशिश के तहत 2017 में प्लूटो प्रेस से केट ओरिओर्दन की किताब अनरीयल आब्जेक्ट्स: डिजिटल मैटीरियलिटीज, टेक्नोसाइंटिफ़िक प्रोजेक्ट्स ऐंड पोलीटिकल रियलिटीजका प्रकाशन हुआ । लेखक कहते हैं कि अवास्तविक वस्तु अंतर्विरोधी धारणा है । हमारे समय का यही सच है । यथार्थ अंतर्विरोधी और प्रतियोगी हो चला है । तमाम तरह के तकनीकी उपकरण इस दुनिया में स्वभाव की तरह शामिल हो गए हैं । ये वस्तुएं मनुष्य, ज्ञान और संसार की दिशा निर्धारित कर रही हैं । मानव जीवन पर वस्तुओं की इस जकड़न को ढीला करना इस किताब का घोषित मकसद है । एक और किताब में भी यह कोशिश हुई है । 2017 में इमेराल्ड पब्लिशिंग से विनसेन्ट मोस्को की किताब बिकमिंग डिजिटल: टुवर्ड ए पोस्ट-इंटरनेट सोसाइटीका प्रकाशन हुआ । किताब डिजिटल दुनिया के ऐसे पहलुओं के बारे में है जो हमारे जीवन का अंग हो चुके हैं लेकिन उन पर हमारा ध्यान नहीं जाता है । लेखक का मानना है कि इस नए किस्म की दुनिया में भी बड़े छोटे का अंतर समाप्त नहीं हुआ है ।
विषमता की इस परिघटना को स्पष्ट करने के लिए 2017 में पोर्टफ़ोलियो/पेंग्विन से स्काट गैलोवे की किताब द फ़ोर: द हिडेन डी एन ए आफ़ अमेज़न, एपल, फ़ेसबुक, ऐंड गूगलका प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक पिछले बीस सालों के दौरान इन चार तकनीकी महाबलियों ने जितना ध्यान खींचा उतना कभी किसी ने नहीं खींचा था । इस क्रम में इन कंपनियों में मालदार रोजगार भी पैदा हुआ है । करोड़ो लोगों के जीवन में इनके उत्पाद और सेवाओं की घुसपैठ हो चुकी है । इसी पहलू से 2017 में लिटिल, ब्राउन ऐंड कम्पनी से जोनाथन टैपलिन की किताबमूव फ़ास्ट ऐंड ब्रेक थिंग्स: हाउ फ़ेसबुक, गूगल, ऐंड अमेज़न कार्नर्ड कल्चर ऐंड अंडरमाइंड डेमोक्रेसीका प्रकाशन हुआ । लेखक का इरादा संस्कृति के क्षेत्र में जारी लड़ाई के बारे में लिखने का था । इस लड़ाई में अगर एक पक्ष इंटरनेट के परम स्वछंदतावादी खरबपति मालिकान हैं तो दूसरी ओर संगीतकार, पत्रकार, छायाकार, लेखक और फ़िल्मकार हैं जो इंटरनेट के इस जमाने में जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं । किताब के लेखक भी संगीत निर्माण के धंधे से जुड़े हुए हैं । उनका कहना है कि 1995 के बाद कला के क्षेत्र में जिन कलाकारों का काम इंटरनेट के जरिए प्रसारित हुआ उन्हें छोड़कर प्रयासरत शेष लोगों के बारे में कोई चर्चा नहीं होती । इंटरनेट ने कला जगत को जिस तरह बुनियादी रूप से बदला है उसके चलते किसी भी नए कलाकार को नए हालात का ध्यान रखते हुए ही कला की दुनिया में कदम रखना होता है । कलाकारों के सामने खड़ी चुनौतियों का सीधा संबंध इंटरनेट की इजारेदारी से है और अब इस इजारेदारी का प्रभाव केवल कला की दुनिया तक सीमित नहीं रह गया है । इसका प्रसार हमारे सम्पूर्ण जीवन और विश्व अर्थतंत्र तक हो रहा है फिर भी इनके फैसलों के मामले में हमारी पसंद का कोई अर्थ नहीं होता । ये फैसले गूगल, फ़ेसबुक और अमेज़न के इंजीनियर और पदाधिकारी लेते हैं तथा बिना किसी जांच परख के इन्हें जनसमुदाय पर थोप दिया जाता है । इसके चलते पश्चिमी जगत नियम कानून विहीन जंगल के समान हो गया है और प्रत्येक नागरिक के जीवन में अपराधियों, कारपोरेट घरानों और सरकारों का बेरोकटोक हस्तक्षेप मुमकिन हो गया है । लोकतंत्र पर भी इसका असर देखा जा रहा है । अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में ट्विटर और फ़ेसबुक पर भारी मात्रा में झूठी खबरें फैलाई गईं और इनसे ट्रम्प को जीतने में मदद मिली । इसका बड़ा कारण था कि फिलहाल 44 प्रतिशत अमेरीकियों के लिए सही समाचार का प्रथम स्रोत फ़ेसबुक हो चला है । कई लोग तो मानते हैं कि सोशल मीडिया के बिना ट्रम्प का जीतना सम्भव ही नहीं था । अखबार में छपने से पहले समाचार की कुछ न कुछ छानबीन होती है लेकिन फ़ेसबुक के लिए जांच परख की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है । सच पूछिए तो इंटरनेट को नियंत्रित करनेवाले स्वच्छंदतावादी खरबपतियों को लोकतांत्रिक राजनीति या समाज में कोई विश्वास नहीं होता । इन कंपनियों के मालिकान अल्पतंत्र में गम्भीरता से विश्वास करते हैं जिसके तहत कुछेक धनकुबेरों और तथाकथित प्रतिभाशाली लोगों के हाथ में हमारा भविष्य छोड़ देना उचित समझा जाता है । इनमें से एक सज्जन का लेखक ने उदाहरण दिया है जो पेपाल नामक भुगतान कंपनी के संस्थापक हैं । उनका मानना है कि अमेरिकी समाज की सबसे बड़ी समस्या बेवकूफ वोटरों की भीड़ है । उनका यह भी कहना है कि आबादी के केवल 2 फ़ीसद वैज्ञानिक, उद्यमी और निवेश का जोखिम उठानेवाले पूंजीपति इस देश की हालत को समझते हैं और बाकी 98 प्रतिशत जनता को कुछ पता नहीं होता । उनकी बात से किताब के लेखक को लगा कि जिसे वे संस्कृति के खित्ते की लड़ाई समझ रहे थे वह तो असल में आर्थिक युद्ध है । जिस तरह इंटरनेट की दुनिया में उसी तरह आर्थिक क्षेत्र में भी प्रतियोगी पूंजीवाद के दिन बीत गए हैं और अब इजारेदारी का ही बोलबाला कायम है । असल में यह सब आगामी समय में उभरनेवाले पूंजीवाद की झांकी है । इसके कारण चिंता जाहिर की जा रही है कि कुछेक दैत्याकार कंपनियों के हाथ में समूची आबादी के बारे में जानकारी आखिर कितनी सुरक्षित रहेगी । इजारेदारी, आंकड़ों पर नियंत्रण और कारपोरेट कंपनियों की सरकार में घुसपैठ- ये सवाल ही कलाकारों और इंटरनेट के मालिकों के बीच जंग की जड़ में हैं । लेखक का कहना है कि मौजूदा दमघोंटू माहौल से यह लड़ाई आज कलाकार लड़ रहे हैं लेकिन कल जल्दी ही हम सबको यह कठिन लड़ाई लड़नी होगी । संगीतकार और लेखक मुहाने पर पहले पड़ गए क्योंकि उनके सृजन उद्योग का इंटरनेटीकरण सबसे पहले हुआ है लेकिन इस प्रक्रिया का भक्ष्य हमारी जानकारियों के साथ हम सबके रोजगार भी जल्दी ही होंगे ।
डिजिटलीकरण की इस परिघटना के साथ ही बिग डाटा नामक नई विद्या का उदय भी हुआ है । इस प्रसंग में 2017 में आइकन बुक्स से ब्रायन क्लेग की किताबबिग डाटा: हाउ द इनफ़ार्मेशन रेवोल्यूशन इज ट्रान्सफ़ार्मिंग आवर लाइव्सका प्रकाशन हुआ । वर्तमान समय की इस सबसे बड़ी और जटिल परिघटना को लेखक ने लोकप्रिय तरीके से पतली सी इस किताब में प्रस्तुत किया है । लेखक का कहना है कि अखबारों और अन्य संचार माध्यमों में इस शब्द का इतना जिक्र हुआ है कि इसकी उपेक्षा असंभव है । इसका संबंध व्यवसाय से तो है ही अन्य काम भी इसके सहारे सम्पादित हो रहे हैं । नई तकनीकों की मदद से बड़ी कंपनियों और सरकारों के लिए हमारे बारे में बहुत कुछ जानना संभव हो गया है । इस जानकारी के आधार पर कंपनी को सामान बेचने और सरकार को नियंत्रण कायम करने में सुभीता हो रहा है । लेखक को लगता है कि यह चीज हमारी जिंदगी से गायब नहीं होने जा रही है इसलिए इसके खतरों और फायदों के बारे में जानना उचित होगा । इस परियोजना के तहत इस कदर भारी मात्रा में सूचना एकत्र और विश्लेषित की जाती है कि बिना कंप्यूटर के ऐसा करना असंभव हो जाता है । वैसे तो मानव समाज के आरम्भ से ही आंकड़े हमारे जीवन के अंग रहे हैं । लेखन और खाता बही के आने के बाद ये मानव सभ्यता की रीढ़ बन गए थे । सत्रहवीं-अठारहवीं सदी से ही इनके सहारे भविष्य में झांकने की कोशिश होती रही है । लेकिन उपलब्ध आंकड़ों की मात्रा कम होने और उन्हें विश्लेषित करने की हमारी क्षमता सीमित होने के चलते इसकी पहुंच कम हुआ करती थी । अब यह प्रक्रिया एक नए धरातल पर पहुंच गई है ।
इस शुरुआती परिचय के बाद लेखक ने स्पष्ट किया है कि बहुत पहले से ज्ञान का आधार आंकड़े रहे हैं । इन आंकड़ों के सहारे सूचना का निर्माण होता है । सूचनाओं की दुनिया में आपस में जुड़े हुए तमाम आंकड़े होते हैं और इनके जरिए हम संसार के बारे में बहुत सारी सार्थक बातें जान समझ पाते हैं । इसी जानकारी और समझ के सहारे फिर हम सूचनाओं की अपने और समाज के लिए उपयोगी व्याख्या करते हैं । वे कहते हैं कि मूल तौर पर आंकड़े संख्याओं का संग्रह होते हैं । इस समूची प्रक्रिया को एक उदाहरण के जरिए स्पष्ट करने के लिए वे बताते हैं कि यदि हमें किसी खास क्षेत्र में पानी में घंटे के हिसाब से मछलियों की मौजूदगी का पता हो तो इसके आधार पर मछली मारने के बेहतरीन समय का ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।     
बहुतेरे लोग तकनीक की महिमा से आक्रांत होने के चलते उसको समाज की परिस्थितियों से स्वतंत्र समझते हैं । इसके विरोध में 2016 में न्यू इंटरनेशनल से बाब ह्यूज की किताबद ब्लीडिंग एज: ह्वाइ टेकनोलाजी टर्न्स टाक्सिक इन ऐन अनइक्वल वर्ल्डका प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना डैनी डोर्लिंग ने लिखी है । वे तकनीक को निष्पक्ष मानते हैं । उनके अनुसार व्यावहारिक जरूरतों के लिए ज्ञान को अनुकूलित करके इसका निर्माण होता है । यह तो निरपेक्ष है लेकिन इनके स्वामी कारपोरेशन और इनके बारे में फैसला लेने वाले राजनेता निष्पक्ष नहीं होते । स्वचालित मशीन के चलते दुनिया में असमानता नहीं पैदा हुई । हमने इस असमान दुनिया का निर्माण किया है और 1970 दशक के बाद से नए तरह की दासता की ओर बढ़े जा रहे हैं । किताब के लेखक बाब ह्यूज इतिहास और तकनीक के जानकार हैं इसीलिए वे बता सके कि विषमता पर आधारित मानव समाज में तकनीक विध्वंसक भूमिका निभा रही है । इसके उलट जिन समाजों में विषमता कम है वे तकनीक का बेहतर मकसद के लिए इस्तेमाल करते हैं । ऐसे समाजों में जैव विविधता के संरक्षण और संवर्धन के लिए उसका प्रयोग किया जाता है । इस भिन्नता को देखते हुए बाब ह्यूज का कहना है कि प्रतिबंधित नुकसानदेह वस्तुओं की तरह ही विषमता से भी परहेज बरतना चाहिए । जब हम इसे कम कर सकते हैं तो इसे प्रोत्साहित या बरदाश्त करने को मानवता के साथ अपराध घोषित किया जाना चाहिए । मनुष्य को उपभोक्ता बनाने से लेकर ड्रोन हमलों में उसके संहार तक तकनीक के आपराधिक इस्तेमाल को देखते हुए बाब के प्रस्ताव समुचित प्रतीत होते हैं । बाब का यह भी मानना है कि नए और मौलिक विचारों का अधिग्रहण जब ऐसे संगठन कर लें जो ऊंच नीच पर आधारित होते हैं तो प्रगति की रफ़्तार सुस्त पड़ जाती है । ऐसे संगठनों के मालिकान विषमता को कायम रखने के लिए विकल्पहीनता का हल्ला मचाते हैं । सच्चाई यह है कि कम्प्यूटर का इतिहास विकल्पों से भरा हुआ है और कोई भी नई चीज विकल्प के रूप में पहले से मौजूद रहती है और समय पाकर सामने आती है । उसके बाद असमान दुनिया के धनी देश उस पर कब्जा जमाकर नवोन्मेष का रास्ता रोक देते हैं । नवोन्मेष की जगह उनका लक्ष्य मुनाफ़ा कमाना ही होता है इसलिए वे जल्दी बेकार हो जाने वाले सामानों के उत्पादन पर जोर देते हैं । लेखक का मत है कि विषमता को और  स्थायी बनाने के लिए सहयोग और सहकार को अपराध बना दिया जाता है । हालात को समझकर ही उसे बदलने के लिए कोशिश की जा सकती है ।               
2016 में ब्रिल से क्रिश्चियन फ़ुश और विनसेन्ट मोस्को के संपादन में मार्क्स इन द एज आफ़ डिजिटल कैपिटलिज्मका प्रकाशन हुआ । किताब में कुल सोलह लेख संकलित हैं । पहला लेख भूमिका के रूप में संपादकद्वय ने लिखा है । शेष लेखों में से दो इन संपादकों के ही हैं । पहला लेख मार्क्स की वापसी पर केंद्रित है । मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के जर्मन प्रकाशक का कहना है कि 2005 के बाद इनकी किताबों की बिक्री तीन गुना बढ़ गई है । इसी के साथ उनके विश्लेषण की इस खासियत को पहचाना जा रहा है कि पूंजीवाद ने किस तरह निर्जीव वस्तुओं को वास्तविकता, शक्ति और कर्तापन प्रदान कर दिया है । साथ ही सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अर्थतंत्र की भूमिका को भी उनकी तर्ज पर रेखांकित किया जा रहा है । सरकारों के नीति निर्माता भी पूंजीवाद की संकट पैदा करने की अंतर्निहित प्रवृत्ति को समझने के लिए मार्क्स के लेखन का सहारा ले रहे हैं । ऐसा लगता है कि विश्व पूंजीवाद के संकट के साथ ही हम एक नए मार्क्सी समय में प्रविष्ट हो गए हैं । मार्क्स के लेखन में रुचि से केवल यह संकेत मिलता है कि पूंजीवाद, वर्ग संघर्ष और संकट अभी खत्म नहीं हुए हैं । पूंजीवादी अखबार तो मार्क्स को पूंजीवाद के रक्षक के रूप में पेश करने की कोशिश में लगे हुए हैं । इस सिलसिले में ध्यान रखना होगा कि उन्होंने महज पूंजीवाद का विश्लेषण नहीं किया, बल्कि वे इसके घनघोर आलोचक थे । उन्होंने लिखा था कि मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध प्रत्येक क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन कम्यूनिस्ट हमेशा करते हैं । इन सभी आंदोलनों में वे संपत्ति के सवाल को सामने लाने की चेष्टा करते हैं । सभी देशों में वे लोकतांत्रिक पार्टियों की एकता और उनमें सहमति बनाने का प्रयास करते हैं । वे खुलेआम घोषित करते हैं कि उनके लक्ष्य मौजूदा सामाजिक हालात को बलपूर्वक बदलने से ही हासिल हो सकते हैं । 35 साल पहले डलास स्मिथ ने लिखा था कि पश्चिमी मार्क्सवाद ने पूंजीवाद में संचार की जटिल भूमिका पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया था । आज नवउदारवाद के उदय के बाद सामाजिक वर्गों और पूंजीवाद में बौद्धिक रुचि घट गई है । अब वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकता और इतिहास का अंत जैसी धारणाओं की शब्दावली में अधिकतर बात की जाती है । एक ओर मार्क्स की लोकप्रियता बढ़ रही है तो दूसरी ओर उसके प्रति विरोध भी जारी है । समस्त सामाजिक विज्ञानों में मार्क्सवाद बदनुमा धब्बा समझा जाता है । अगर सामाजिक विश्लेषण में किसी ने खुलकर मार्क्सवादी रुख अपनाया तो उसके लिए अकादमिक जगत में अकेले पड़ जाने की संभावना बढ़ जाती है । प्रकाशित होनेवाले लेखों की सांख्यिकी से पता चलता है कि 1988 से 2007 तक के बीस सालों में मार्क्स से जुड़े गंभीर लेखन में गिरावट आई थी । यही समय था जब नवउदारवाद और उपभोक्तावाद जोरों पर थे और सामाजिक विज्ञानों में उत्तर आधुनिकता और संस्कृतिवाद का बोलबाला था । 2008 के बाद मार्क्स से जुड़े इस लेखन में फिर से बढ़ोत्तरी आई है । चुनौती यह है कि इस रुचि को कैसे टिकाया जाए और सांस्थानिक बदलावों में इसे कैसे लगाया जाए ।
2015 में प्लूटो प्रेस से टिम जोर्डन की किताब इनफ़ार्मेशन पोलिटिक्स: लिबरेशन ऐंड एक्सप्लायटेशन इन द डिजिटल सोसाइटीका प्रकाशन हुआ । ज्ञातव्य है कि टिम जोर्डन इस पहलू के बारे में सदी की शुरुआत से ही लिख रहे हैं । एक पुस्तक श्रृंखला के तहत इसे छापा गया है । श्रृंखला के संपादक का मानना है कि संकट और टकराव से मुक्ति के अवसरों का जन्म होता है । वर्तमान सदी के आंदोलनों में आभासी या डिजिटल और वास्तविक या असली के बीच की सीमा समाप्त हो गई है । डिजिटल संस्कृति जनता को आपस में जोड़ रही है लेकिन साथ ही उनकी निगरानी या विज्ञापन के लिए उनके उपयोग का रास्ता भी खोल रही है । लेखक के अनुसार इस सदी में शोषण और मुक्ति की राजनीति में सूचना केंद्रीय तत्व हो चला है । इंटरनेट के साथ जुड़ी गतिविधियों की खबरों से स्पष्ट है कि सूचना की राजनीति हमारे जीवन का सार हो चुका है । इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण विकीलीक्स की ओर से अमेरिकी सरकार की सूचनाओं को खोल देना और बदले में मास्टरकार्ड की ओर से उसे सेवा देने से इनकार करना है । इसके बाद मास्टरकार्ड की वेबसाइट बंद कर दी गई । इंटरनेट की दुनिया में प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों के विरोध में ढेर सारे लोगों ने अपने पेज काले कर लिए । इससे जुड़े लोगों ने ट्यूनीशिया और अरब देशों के विरोध प्रदर्शन के आपसी संचार के लिए सुरक्षित तरीके निकाले । सूचना के क्षेत्र में युद्ध के नगाड़े सुनाई पड़ने लगे ।  
डिजिटल दुनिया और निजी गोपनीयता का द्वंद्व भी मुखर हुआ है । लोकतंत्र का आधार नागरिकों की निजी जिंदगी पर उनका अबाध अधिकार है । डिजिटल दुनिया में निजी सूचनाओं का कोई अर्थ नहीं रह गया है । उपभोक्ता के बतौर उनसे जुड़ी सूचना बाजार के लिए उपयोगी है तो मतदाता के रूप में उनकी रुचि का राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सकता है । इन जरूरतों के चलते नागरिकों की निजी सूचनाओं के संग्रह और विश्लेषण का भारी तंत्र बन गया है । इसी को उजागर करने के लिए 2015 में नेशन बुक्स से राबर्ट शीयर की सारा बेलादी के साथ लिखी किताब दे नो एवरीथिंग एबाउट यू: हाउ डाटा-कलेक्टिंग कारपोरेशन्स ऐंड स्नूपिंग गवर्नमेन्ट एजेन्सीज आर डेस्ट्राइंग डेमोक्रेसीका प्रकाशन हुआ ।
इस क्षेत्र में मार्क्सवादी शब्दावली के इस्तेमाल का उदाहरण 2015 में प्लूटो प्रेस से निकडायर-विदेफ़ोर्ड की प्रकाशित किताबसाइबर-प्रोलेतारिएत: ग्लोबल लेबर इन द डिजिटल वोर्टेक्समें मिलता है । आज की डिजिटल दुनिया में श्रम के तरीके में बदलाव आने के साथ मूल्य में भी बदलाव आया है । 2015 में पालग्रेव मैकमिलन से एरान फ़िशर और क्रिश्चियन फ़ुश के संपादन मेंरीकंसिडरिंग वैल्यू ऐंड लेबर इन द डिजिटल एजका प्रकाशन हुआ ।
वैसे इस पहलू पर सबसे अधिक विचार उर्सुला हुव्स ने किया है । 2014 में मंथली रिव्यू प्रेस से उनकी किताबलेबर इन द ग्लोबल डिजिटल इकोनामी: द साइबेरिएट कम्स आफ़ एजका प्रकाशन हुआ । किताब विश्व अर्थतंत्र के सबसे हालिया रूप का विश्लेषण करती है और उसे भी पूंजीवाद का ही एक नया रूप मानकर उसके उत्पादकों को सर्वहारा मानते हुए उनके शोषण को उजागर करती है । किताब में ज्ञान आधारित अर्थतंत्र के कामगारों के बारे में 2006 से 2013 के बीच लिखे उनके लेख संकलित हैं । यह समय पूंजीवाद के इतिहास और श्रम संगठन के लिहाज से उथल पुथल भरा समय था । इससे पहले भी एक किताब उन्होंने लिखी थी जिसमें उनकी मान्यता थी कि पूंजीवाद नए माल पैदा करके संकटों से पार पा जाता रहा है । जैसे ही इसका विस्तार ऐसे विंदु पर पहुंचता है जहां लगता है कि इसके लिए बाजार और मुनाफ़े की संभावना समाप्त होती महसूस होती है वहीं वह जीवन के नए क्षेत्रों को अपनी जद में ले आता है, नई वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के नए रूपों को जन्म देता है और फिर उनके लिए बाजार का सृजन करता है । इस तरह के किसी भी दौर में नई तकनीक का व्यापक प्रसार होता है । उदाहरण के लिए बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बिजली के प्रसार के साथ घरेलू श्रम (वैक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन या फ़्रिज) या लोकप्रिय मनोरंजन (रेडियो, सिनेमा या ग्रामोफोन) पर आधारित नई वस्तुओं की बाढ़ आई थी । इस प्रक्रिया में उत्पादन और उपभोग के नए रूपों का भी जन्म हुआ था । अधिकाधिक मजदूर अपने रोजमर्रा के जीवन में इन वस्तुओं पर निर्भर होते गए थे । उन्हें इतनी आमदनी की जरूरत पड़ी जिससे इन वस्तुओं को खरीदा जा सके और उनके जीवन पर पूंजीवाद की पकड़ भी इसी के मुताबिक बढ़ी । सबको अपने जीवन में इन्हें अपनाना ही पड़ा । इनके नएपन में इनका आकर्षण था । इनकी कीमत सस्ती होती गई । समय और श्रम की बचत तथा सुविधा का तत्व भी इनके साथ जुड़ गया । इसके अतिरिक्त इनकी मौजूदगी से हैसियत में भी बढ़ोत्तरी होती थी ।
इस पहलू के साथ मार्क्सवाद के जुड़ाव को व्यक्त करते हुए 2014 में रटलेज से क्रिश्चियन फ़ुश की किताबडिजिटल लेबर ऐंड कार्ल मार्क्सका प्रकाशन हुआ । कंप्यूटर, इंटरनेट और सोशल मीडिया के समय में श्रम में आनेवाले बदलावों का अध्ययन करना इस किताब का मकसद है । लेखक सोशल मीडिया के प्रोफ़ेसर हैं । लेखक ने भूमिका में इस अध्ययन की जरूरत बताने के साथ मार्क्स के गायब और फिर से प्रकट होने के हालात पर विचार किया है । इसके बाद पहले भाग में इस अध्ययन की सैद्धांतिक बुनियाद बनाने के लिए चार अध्यायों में क्रमश: कार्ल मार्क्स की श्रम सैद्धांतिकी, सांस्कृतिक अध्ययन और कार्ल मार्क्स, डलास स्मिथ के भोक्ता श्रमिक सिद्धांत तथा पूंजीवाद के साथ सूचना समाज के रिश्तों पर चर्चा की गई है । दूसरे भाग में कुछेक मुल्कों के इन श्रमिकों तथा इस काम के विभिन्न आयामों का ठोस अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । तीसरे भाग में उपसंहार के रूप में इनके संघर्ष के नए रूपों को चिन्हित किया गया है ।
डिजिटल यथार्थ संबंधी इस साहित्य सर्वेक्षण से प्रकट है कि नई तकनीक का आगमन खास सामाजिक संदर्भ में हुआ है । उसने लोगों की जिंदगी में भारी बदलाव किए हैं । इसे जिंदगी में आए बदलावों का उत्पाद भी समझा जा सकता है । यह तकनीक समाज की तरह इतिहास से भी स्वतंत्र नहीं है । इसने वैश्वीकरण की आंधी के साथ मिलकर श्रमिकों का नया वैश्विक विभाजन किया है । इसके सहारे पूंजीवाद की अंतर्निहित समस्याओं से मुक्ति नहीं मिल सकती । इसकी जगह इसने पूंजीवादी संकट को और गहरा तथा तीखा बनाया है । मूल्य के सामूहिक उत्पादन और उसके निजी अधिग्रहण के बुनियादी अंतर्विरोध की मौजूदगी इसके भीतर भी बनी हुई है । दूसरी ओर तकनीक ने एकाधिकार को तोड़ने की ऐतिहासिक सम्भावना को भी जन्म दिया है लेकिन इसके चलते ही इस सम्भावना की भ्रूण हत्या के संगठित प्रयास भी हो रहे हैं । ढेर सारे आधुनिक चिंतक इस दुनिया में नए विकल्पों की तलाश भी कर रहे हैं ताकि मानवता की सामूहिक मेधा से उत्पन्न इस लाभकर स्थिति को समाज में सुख और समृद्धि के प्रसार में बदला जा सके ।    

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