2017 में प्रोफ़ाइल
बुक्स से डेविड हार्वे की किताब ‘मार्क्स, कैपिटल ऐंड द मैडनेस आफ़ इकोनामिक रीजन’ का प्रकाशन हुआ
। लेखक का कहना है कि सारा जीवन मार्क्स पूंजी की कार्यपद्धति को समझने की जीतोड़ कोशिश
करते रहे । लोगों के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करनेवाली पूंजी की गति के नियमों
की खोज उनका लक्ष्य था । शासक वर्गों की अपनी पीठ थपथपानेवाले सिद्धांतों के परदे में
छिपे विषमता और शोषण के रहस्योद्घाटन का अनथक प्रयास उन्होंने किया । खास तौर पर उनकी
रुचि यह जानने में थी कि पूंजीवाद के साथ हमेशा संकट क्यों लगा रहता है । ये संकट युद्ध,
प्राकृतिक अभाव और खराब फसल जैसे बाहरी कारण से पैदा होते हैं या पूंजी
की कार्यपद्धति में ही विनाशकारी विध्वंस निहित हैं । लेखक का कहना है कि हाल के संकट
के मद्देनजर इस मसले पर मार्क्स की समझ को देखना सही होगा । दिक्कत यह है कि मार्क्स
की खोजों को संक्षेप में प्रस्तुत करना कठिन है । उनके जटिल तर्कों और विषय विवेचन
को भी समझा देना आसान नहीं है । इसका एक कारण यह है कि उनका अधिकतर लेखन अपूर्ण है
। बहुत थोड़ा ही प्रकाशित होने लायक उन्होंने समझा था । शेष ढेर सारा मसौदों की शक्ल
में मिला था । इनमें उन्होंने तत्कालीन अर्थशास्त्री चिंतकों की आलोचना करते हुए अपनी
बातें कही थीं इसलिए जिन चिंतकों की आलोचना की गई उनके विचारों को भी जानना होगा ।
दर्शन के क्षेत्र में मार्क्स को समझने के लिए पहले हेगेल, स्पिनोज़ा,
कान्ट से होते हुए ग्रीक दार्शनिकों तक को छानना होगा । इनके साथ फ़्रांसिसी
विचारकों की फौज को जोड़ लीजिए तो उनके चिंतन के विस्तार का कुछ अनुमान लगा सकते हैं
। उनके लेखन से पता चलता है कि वे बेचैन विश्लेषक थे । समूचे यूरोप के जिन साहित्यकारों
का उन्होंने अध्ययन किया था उनसे संसार की कार्यपद्धति के बारे में अंतर्दृष्टि हासिल
की और प्रस्तुति के तरीके की प्रेरणा भी ली ।
हार्वे का कहना है कि
हाल के दिनों में जोनाथन स्पर्बर और गारेथ स्टेडमान जोन्स लिखित जीवनियों में मार्क्स
को उन्नीसवीं सदी तक सीमित करने की कोशिश नजर आती है । इस सिलसिले में याद रखने की
जरूरत है कि मार्क्स ने पूंजी के बारे में मुख्य रूप से विचार किया था और पूंजी आज
भी हमारे जीवन और समाज में मौजूद है । पूंजी की धारणा को वे न केवल आधुनिक अर्थशास्त्र
के लिए बल्कि बुर्जुआ समाज की आलोचनात्मक समझ के लिए भी बुनियादी धारणा मानते थे ।
उनके विश्लेषण को हार्वे उन्नीसवीं सदी से भी अधिक आज के लिए प्रासंगिक समझते हैं ।
मार्क्स के जमाने में जो आर्थिक व्यवस्था दुनिया के एक कोने में प्रभावी थी वह आज सारी
दुनिया में छा गई है । उनके जमाने में राजनीतिक अर्थशास्त्र विकासमान अनुशासन था ।
आज अर्थशास्त्र रूढ़ हो चुका है । पूंजी की गति के नियमों और उसके आंतरिक अंतर्विरोधों, उसकी बुनियादी और अंतर्निहित अतार्किकता
के बारे में मार्क्स का विश्लेषण हालिया वित्तीय संकट के समय अधिक कारगर प्रतीत हो
रहा है । किताब में मार्क्स की पूंजी की धारणा और उसकी गति के नियमों संबंधी उनकी खोज
पर प्रकाश डाला गया है । इस काम के लिए ‘पूंजी’ के तीन खंडों, अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत संबंधी पुस्तक
के तीन खंडों, राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान,
ग्रुंड्रिस और हाल में प्राप्त पांडुलिपियों की सहायता लेनी पड़ी है ।
गतिमान पूंजी की कार्यपद्धति को समझाने के लिए उन्होंने मौसम विज्ञान में प्रयुक्त
जलचक्र के नक्शे की मदद ली है । प्राकृतिक विज्ञानों में जटिल प्रक्रियाओं की सरल प्रस्तुति
की जाती है ताकि गवेषणा के विषय को अच्छी तरह समझा जा सके । इस जलचक्र में पानी के
रूप भी बदलते रहते हैं । समुद्र का द्रव भाप बनकर ऊपर उठता है । फिर बादलों के जरिए
वापस द्रव की बूंद बनकर समुद्र में मिल जाता है । पूंजी भी इसी तरह अपने रूप बदलकर
लगातार चक्कर लगाती रहती है ।
इसी तरह 2017 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस
से विलियम क्लेयर राबर्ट्स की किताब ‘मार्क्स’ इनफ़र्नो: द पोलिटिकल थियरी आफ़ कैपिटल’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने मार्क्स के इस ग्रंथ में दान्ते की उपस्थिति को देखकर
इस दिशा में काम करना शुरू किया । भूमिका में उनका कहना है कि मार्क्स का नाम न्याय,
प्रगति, विज्ञान, समानता
तथा सार्वभौमिक एकजुटता आदि के साथ तो जुड़ा हुआ है लेकिन दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के
साथ नहीं जबकि उनकी मृत्यु के बाद अमेरिकी मजदूरों ने उन्हें इसी के साथ जोड़कर देखा
था । बीसवीं सदी में स्वतंत्रता को बहुत हद तक समाजवाद और कम्यूनिज्म के विरोध में
देखा गया । लेखक का कहना है कि मार्क्स ने पूंजीवाद की आलोचना करते हुए उसे पूंजी का
जटिल और विश्वव्यापी शासन माना था । ‘पूंजी’ में इसी व्यवस्था की कार्यपद्धति का विश्लेषण किया गया है और इसके उन्मूलन
के लिए आवश्यक स्वतंत्रता की धारणा रची गई है इसलिए उसे राजनीति सिद्धांत के ग्रंथ
के रूप में देखा जाना चाहिए । इसे लिखा तो विशेष राजनीतिक संदर्भ में गया था लेकिन
उससे आगे बढ़कर आधुनिक दुनिया में स्वतंत्रता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों और संभावनाओं
के लिहाज से भी उसमें स्थायी महत्व की बातें हैं । किताब लिखने का लेखक का तर्क दुहरा
है । उनका मानना है कि पूंजी के शासन के दोषों का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने अपने
ग्रंथ ‘पूंजी’ में दान्ते के नरक की आग
के रूपक का सहारा लिया है । वे पाठकों को पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के आधुनिक
‘सामाजिक नरक’ में उतारते हैं । वे मजदूरों को
इस नरक की कार्यपद्धति से परिचित कराते हैं ताकि वे इसका नाश करके एक नई दुनिया रच
सकें । उनका यह भी मानना है कि इस ग्रंथ को लिखते हुए मार्क्स उस समय फ़्रांस और इंग्लैंड
में प्रचलित समाजवाद और लोकप्रिय मूलगामी आंदोलनों के साथ बौद्धिक और व्यावहारिक स्तर
पर संवादरत थे । इसलिए पूंजीवाद की मार्क्सी आलोचना में अन्य समाजवादियों के योगदान
को भी देखने की कोशिश की गई है । मार्क्स की आकांक्षा और उनके संघर्षों को अलगाकर नहीं
देखा जा सकता । आधुनिकता को ‘सामाजिक नरक’ का नाम चार्ल्स फ़ूरिए ने दिया था और प्रूदों ने इस धारणा को विकसित किया था
। आरम्भिक समाजवादी लेखन में ऐसी नैतिक भाषा का प्रयोग आम तौर पर होता था । सामाजिक
सवालों के मामले में इन नैतिक कोटियों के प्रयोग से मार्क्स सहमत नहीं थे । मार्क्स
से पहले इन सवालों पर सोचते हुए राजनीतिक अर्थशास्त्र का सहारा नहीं लिया जाता था ।
लेखक का कहना है कि इंटरनेशनल में मार्क्स की सक्रियता का विस्तार ‘पूंजी’ का उनका विश्लेषण है । जब मार्क्स और अन्य समाजवादी
पूंजी को रक्तपिपासु कहते हैं तो केवल उसके परजीवी रूप को उभारने के लिए ऐसा कहते हैं
। वह मजदूर की श्रमशक्ति को चूसकर ही पैदा होती है । मजदूर की यह श्रमशक्ति उसके मानव
अस्तित्व का अनिवार्य अंग होती है । पूंजी के वर्णन की यह शब्दावली उनकी राजनीतिक सक्रियता
से पैदा हुई थी । इस मोड़ पर लेखक राजनीतिक संवाद की विशेषताओं के बारे में बताना शुरू
करते हैं । राजनीतिक संवाद पड़ोसियों के बीच भरोसे की याद जगाता है । यह भरोसा ही वह
भारी लंगर है जो औद्योगिक नगरों में कामगारों की जिंदगी को टिकने का स्थिर आधार देता
है । इस संवाद में इस्तेमाल होनेवाले प्रतीक किसी भी अध्येता को जनजीवन से जुड़ने का
अवसर देते हैं । जीवन स्थितियों की समानता के कारण किसी एक जगह के अनुभव से उत्पन्न
अभिव्यक्ति व्यापक समुदाय में प्रचलित हो जाती है । इस तरह मार्क्स ने ‘पूंजी’ में समाजवादियों के बीच प्रचलित भाषा को व्यापक
श्रोताओं तक पहुंचाया । इस बात को पहचानने के लिए देखना होगा कि मार्क्स की शब्दावली
आ कहां से रही है और इन शब्दों के उच्चारण से सुननेवालों के मन में कौन सी छवियां बनती
रही होंगी । असल में मार्क्स जिस समय समाजवादी आंदोलन में शामिल हुए तब तक उसकी शब्दावली
निर्मित हो रही थी इसलिए उस समय के लेखकों के साथ उनके वैचारिक संवाद को देखने से उनके
स्रोतों का पता चलता है । लेकिन राजनीतिक सिद्धांतों के मामले में संदर्भ ही सब कुछ
नहीं होता । उनकी स्वीकार्यता का स्रोत उनकी सुसंगति, व्यापकता
और अध्यवसाय को तात्कालिक सामाजिक अनुभव से जोड़ने में निहित होती है । लेखक का कहना
है कि मार्क्स का ग्रंथ ‘पूंजी’ राजनीतिक
सिद्धांत की महान रचना है । इसमें परस्पर संबद्ध कुछ ऐसी राजनीतिक समस्याओं की पहचान
और उनका विश्लेषण किया गया है जिन्हें अन्य सभी महान रचनाओं में दबा दिया गया था ।
इसके लिए इसमें मजदूरों के अनुभवों और उनकी शिकायतों को गंभीरता से लिया गया है लेकिन
उन अनुभवों की परोक्ष आलोचना भी की गई है । इसीलिए लेखक का मानना है कि इस ग्रंथ की
महानता तब प्रकट होती है जब इसे मजदूरों के प्रत्यक्ष अनुभव से पैदा होनेवाले अन्य
प्रतिद्वंद्वी समाजवादों के बरक्स रखकर देखा जाए । मजदूरों की राजनीतिक भाषा की इस
पृष्ठभूमि में इस ग्रंथ को पढ़ने के लिए जिस संदर्भ में उसे लिखा गया और जिनको वह संबोधित
थी उनको भी देखना होगा । लेकिन इस तरह की जानकारी को साधन मानना चाहिए, साध्य नहीं । मार्क्स के इस ग्रंथ में मुद्रा, शोषण और
विनिमय संबंध जैसी शब्दावलियों के प्रकरण में मार्क्स के समकालीन गैर-मार्क्सी समाजवादों में प्रचलित धारणाओं के साथ मार्क्स के बरताव को समझना
होगा । मार्क्स को देखने में बड़ी बाधा का जिक्र करते हुए लेखक ने कहा है कि देहांत
के एक सदी बाद से ही मार्क्स की व्याख्या की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने अपनी अपनी
शब्दावली विकसित कर ली और उनकी जकड़बंदी के बाहर निकलना बहुत मुश्किल है । मार्क्स के
काम को राजनीतिक सिद्धांत के रूप में स्थापित करने के लिए उनकी धारणाओं का अनुवाद वर्तमान
शब्दावली में करना होगा । उदाहरण के लिए मार्क्स जब स्वतंत्रता की बात करते हैं तो
वह बहुत कुछ सामूहिक आत्म-नियंत्रण या सामूहिक आत्म-साकारीकरण की सकारात्मक धारणा होती है । इसके लिए लेखक ने विषमता से मुक्त
गणतांत्रिक स्वाधीनता की चिंताधारा की मदद ली है ।
हार्वे ने मार्क्स की
जिस तरह की जीवनियों का जिक्र किया है उनसे भिन्न किस्म की एक जीवनी छपी है । 2018 में ब्लूम्सबरी एकेडमिक से मार्चेलो
मुस्तो की इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘एनादर मार्क्स:
अर्ली मैनुस्क्रिप्ट्स टु द इंटरनेशनल’ प्रकाशित
हुआ । अनुवाद पैट्रिक कैमिलर ने किया है । इसमें लेखक मुस्तो ने मार्क्स के इस ग्रंथ
को उनके समूचे जीवन के प्रमुख कार्यभार के संदर्भ में देखा है । मार्क्स के जीवन का
मकसद मजदूर वर्ग की मुक्ति था और उनके समस्त बौद्धिक प्रयास इसी दिशा में लक्षित थे
। ‘पूंजी’ का प्रणयन एक दीर्घकालीन प्रक्रिया
की उपज था । अनेकानेक कारणों से उनके जीवन के वर्ष 1856 में राजनीतिक
अर्थशास्त्र का अध्ययन पूरी तरह उपेक्षित रहा था लेकिन एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट
के आगमन से स्थिति बदल गई । अनिश्चितता के माहौल में अफरा तफरी के चलते दिवालिया होने
की रफ़्तार बढ़ गई तो मार्क्स ने एंगेल्स को लिखा कि बहुत दिनों तक इसे चुपचाप देखना
संभव नहीं रह जाएगा । दस साल भी नहीं बीते थे जब यूरोप भर में क्रांति की लहर व्याप्त
थी । उसके फिर से पैदा होने की आशा से दोनों रोमांचित थे । मार्क्स अर्थशास्त्र का
काम जल्दी से जल्दी पूरा करना चाहते थे ताकि क्रांति का ज्वार पैदा होने पर उसमें कूद
सकें । इस बार तूफान की शुरुआत यूरोप की बजाए अमेरिका में हुई थी । 1857 के शुरुआती महीनों में जमा रकम कम होने के बावजूद बैंकों ने बढ़ चढ़कर कर्ज दिया
था । नतीजतन सट्टेबाजी बढ़ी और आर्थिक अवस्था खराब होती गई । ओहायो की बीमा कंपनी डूबी
और घबराहट में एक के बाद एक संस्थाएं दिवालिया होने लगीं । बैंकों ने नकद भुगतान स्थगित
कर दिया । जिस दिन बीमा कंपनी डूबी उसी दिन मार्क्स ने अपनी किताब की भूमिका लिखनी
शुरू की । संकट के विस्फोट ने मानो नई प्रेरणा दे दी । 1848 की
पराजय के बाद पूरे दस साल तक मार्क्स को राजनीतिक धक्का और अलगाव झेलना पड़ा था । अब
संकट के आने से सामाजिक क्रांति के नए दौर में भाग लेने की झलक मिली । उन्हें क्रांति
के लिए महत्वपूर्ण काम आर्थिक परिघटना का विश्लेषण पूरा करना महसूस हुआ । यह संकट सचमुच
पहला अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट साबित हुआ । न्यूयार्क से होते हुए समूचे अमेरिका
को अपनी चपेट में लेने के कुछ ही हफ़्ते बाद यूरोप, दक्षिण अमेरिका
और पूरब के लगभग सभी व्यावसायिक केंद्रों तक फैल गया । इन खबरों से उत्साहित मार्क्स
में बौद्धिक सक्रियता का ज्वालामुखी फूट पड़ा । कुछ ही महीनों में इतना लिखा जितना
पिछले कुछ सालों में भी नहीं लिखा था ।
अगस्त 1857 से मई
1858 के बीच ग्रुंड्रिस के आठ रजिस्टर भर गए । इसके अतिरिक्त न्यू-यार्क ट्रिब्यून
के संवाददाता के बतौर दर्जनों लेख लिखे जिनमें यूरोप में जारी संकट का भी विश्लेषण
था । कुछ और धन कमाने के लिए न्यू अमेरिकन साइक्लोपीडिया के लिए अनेक प्रविष्टियां
लिखने की सहमति दी । इसके साथ ही तीन रजिस्टर भर की सामग्री एकत्र की । इन्हें
संकट संबंधी नोटबुकें कहा जा सकता है । इस तमाम सामग्री के कारण यह धारणा बदली है
कि पूंजी के लेखन के पीछे हेगेल की साइंस आफ़ लाजिक की प्रेरणा थी । उनके सोच विचार
का प्रमुख विषय बहु प्रतीक्षित आर्थिक संकट था । एंगेल्स को लिखी एक चिट्ठी में इस
समय का अपना दोहरा कार्यभार बतलाया था । एक राजनीतिक अर्थशास्त्र की रूपरेखा
स्पष्ट करना ताकि जनता इस संकट की जड़ तक पहुंच सके और दूसरा वर्तमान संकट का लेखा
जोखा रखना ताकि भविष्य में दोनों मिलकर कोई किताब लिख सकें । बाद में दूसरे
कार्यभार को छोड़ दिया और समूची ऊर्जा पहले काम में लगा दी ।
उनके सामने सबसे बड़ा
सवाल था कि आखिर राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना शुरू कहां से करें । जवाब देने में
दो बातों से मदद मिली । एक कि कुछ सिद्धांतों की वैधता के बावजूद अर्थशास्त्र कोई ऐसी
ज्ञानात्मक प्रक्रिया नहीं विकसित कर सका था जिसके सहारे यथार्थ को सही सही पकड़ा और
समझाया जा सके । दूसरे कि लिखने का काम शुरू करने से पहले अपने तर्क और विवेचन क्रम
को स्पष्ट करना उन्हें जरूरी लगा । इसके चलते उन्हें पद्धति की समस्याओं को गहराई से
देखना पड़ा और शोध के निर्देशक नियमों को सूत्रबद्ध करना पड़ा । यह काम ग्रुंड्रिस की
भूमिका के जरिए संपन्न हुआ । इसका मकसद कोई पद्धतिवैज्ञानिक गुत्थी सुलझाना न होकर
खुद के लिए आगामी लंबी यात्रा की दिशा स्पष्ट करना था । जो विराट सामग्री उन्होंने
एकत्र कर रखी थी उसको याद रखने के लिए भी यह काम जरूरी लगा । मकसद बहुविध थे और लिखा
कुल हफ़्ते भर में गया था इसलिए यह भूमिका जटिल और विवादास्पद हो गई है । इसके चार अनुभाग
हैं- 1) उत्पादन, 2) उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग
के बीच संबंध, 3) राजनीतिक अर्थशास्त्र की पद्धति और
4) उत्पादन के साधन (ताकतें) और उत्पादन संबंध तथा परिचालन के संबंध आदि ।
अपने अध्ययन का
क्षेत्र निर्धारित करते हुए वे घोषित करते हैं कि भौतिक उत्पादन उनकी गवेषणा का
केंद्रविंदु है । समाज में उत्पादन में लगा हुआ व्यक्ति यानी सामाजिक रूप से
निर्धारित व्यक्तिगत उत्पादन उनका प्रस्थानविंदु रहेगा । इस मान्यता के जरिए
उन्होंने पूंजीवादी वैयक्तिकता को शाश्वत मानने की धारणा से मुक्ति पा ली । उनके
लिए उत्पादन सामाजिक परिघटना है । असामाजिक व्यक्तिवाद आधुनिक समाज की परिघटना है
और इसे पूंजीवादी विचारक सर्वकालिक बनाकर पेश करते हैं । मार्क्स ने पाया कि सभी
युगों के चिंतक अपने समय की विशेषता को शाश्वत ही कहते आए हैं । अपने समय के
राजनीतिक अर्थशास्त्रियों के बनाए इस व्यक्ति की धारणा के विपरीत मार्क्स ने कहा
कि समाज से बाहर व्यक्ति द्वारा उत्पादन उसी तरह बेवकूफाना बात है जैसे लोगों के
एक साथ रहने और आपसी संवाद के बिना भाषा के विकास की कल्पना करना । वे वैयक्तिकता
को सामाजिक परिघटना मानते थे । जिस तरह नागरिक समाज का उदय आधुनिक दुनिया में हुआ
उसी तरह पूंजीवादी युग का मजदूरी पर आश्रित स्वतंत्र कामगार भी दीर्घकालीन
ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज है । उसका उदय सामंती समाज के विघटन और सोलहवीं सदी से
विकासमान उत्पादन की नई ताकतों के चलते हुआ है । आधुनिक पूंजीवादी व्यक्ति के उदय
की समस्या को सुलझाने के बाद मार्क्स कहते हैं कि वर्तमान उत्पादन सामाजिक विकास
के एक निश्चित चरण के अनुरूप है । इस धारणा के सहारे वे उत्पादन की अमूर्त कोटि को
किसी खास ऐतिहासिक क्षण में उसके साकार रूप से जोड़ देते हैं ।
असल में तमाम
अर्थशास्त्री उत्पादन की अमूर्तता के आधार पर अपने समय के सामाजिक संबंधों को
स्वाभाविक बना देते हैं । इसके विरोध में ही मार्क्स ने प्रत्येक युग के विशेष
लक्षणों की पहचान की । उनकी इस ऐतिहासिकता के बावजूद सभी युगों में उत्पादन के लिए
मानव श्रम और प्राकृतिक संसाधन आवश्यक तत्व रहे हैं । अन्य तमाम अर्थशास्त्री इनके
अतिरिक्त तीसरे तत्व पूंजी को भी आवश्यक मानते हैं जो असल में पहले के श्रम का ही
संचित भंडार होता है । इसी तीसरे तत्व की आलोचना अर्थशास्त्रियों की बुनियादी सीमा
को उजागर करने के लिए उन्हें जरूरी लगी । पूंजी को अन्य अर्थशास्त्री सदा से मौजूद
मानते थे लेकिन मार्क्स ने उसे श्रम का संचित रूप कहकर उसे ऐतिहासिक कोटि में बदल
दिया । उनके मुताबिक पूंजी के आगमन से पहले उत्पादन और उत्पाद मौजूद थे जिन्हें
पूंजी अपनी प्रक्रिया के मातहत ले आई । उत्पादक कर्ता को उत्पादन के साधनों से अलग
करके ही पूंजीपति को ऐसे संपत्तिविहीन मजदूर मिले जो अमूर्त श्रम में लगे । पूंजी
और जीवित श्रम के बीच विनिमय के लिए यह अमूर्त श्रम आवश्यक होता है । इसका जन्म
ऐसी प्रक्रिया की उपज है जिसके बारे में अर्थशास्त्री चुप्पी लगाए रहते हैं ।
पूंजी और मजदूरी पाने वाले श्रम का इतिहास इसी प्रक्रिया से निर्मित होता है ।
मार्क्स ने अर्थतंत्र
के लगभग सारे तत्वों को ऐतिहासिक बनाया । मुद्रा को अर्थशास्त्री शाश्वत मानते थे ।
मार्क्स ने कहा कि सोने या चांदी में मुद्रा की संभावना निहित होने के बावजूद सामाजिक
विकास के एक निश्चित क्षण में ही वे इस भूमिका को निभाना शुरू करते हैं । इसी तरह कर्ज
भी इतिहास के विशेष क्षण में प्रकट हुआ है । मार्क्स का कहना है कि सूदखोरी की तरह
लेनदेन की परंपरा रही है लेकिन जैसे काम को औद्योगिक या मजदूरी पानेवाला श्रम नहीं
कहा जा सकता उसी तरह आधुनिक कर्ज भी पुराने उधारी लेनदेन से अलग विकसित उत्पादन संबंधों
में पूंजी आधारित वितरण से पैदा होता है । कीमत और विनिमय भी पहले से मौजूद थे लेकिन
उत्पादन की लागत से कीमत का निर्धारण तथा सभी उत्पादन संबंधों पर विनिमय का दबदबा बुर्जुआ
समाज के अभिलक्षण हैं । स्पष्ट है कि मार्क्स का मकसद पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की
ऐतिहासिकता को साबित करना था । इस नजरिए के चलते श्रम प्रक्रिया समेत ढेर सारे सवालों
को उन्होंने अलग तरीके से देखा । इस सवाल को वे बुर्जुआ समाज के निहित स्वार्थ से भी
जोड़ते हैं । यदि कोई कहता है कि मजदूरी पानेवाला श्रम उत्पादन के विशेष ऐतिहासिक रूप
से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि मनुष्य के आर्थिक अस्तित्व का सार्वभौमिक यथार्थ है तो इसका
अर्थ है कि शोषण और अलगाव हमेशा से मौजूद रहे हैं और भविष्य में भी सर्वदा कायम रहेंगे
।
इस तरह पूंजीवादी उत्पादन
की विशेषता से इनकार के ज्ञानात्मक नतीजों के साथ राजनीतिक नतीजे भी निकलते हैं । एक
ओर इससे उत्पादन की विशेष ऐतिहासिक अवस्था को समझने में बाधा आती है तो दूसरी ओर वर्तमान
स्थितियों को अपरिवर्तित और अपरिवर्तनीय कहकर पूंजीवादी उत्पादन को सामान्य उत्पादन
और बुर्जुआ सामाजिक संबंधों को स्वाभाविक मानव संबंध साबित करने की कोशिश की जा सकती
है । इसलिए अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों की मार्क्सी आलोचना का दोहरा महत्व है ।
किसी भी यथार्थ को समझने के लिए उसकी विशेष ऐतिहासिक अवस्था की जानकारी जरूरी होती
है । इसके साथ ही इससे पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की अपरिवर्तनीयता का तर्क खंडित भी
होता है । पूंजीवादी व्यवस्था की ऐतिहासिकता और अस्थायित्व साबित होने से उसके उन्मूलन
की संभावना बलवती होगी ।
मुस्तो का कहना है
कि मार्क्स का यह सारा लेखन प्रचंड गरीबी,
बीमारी और तमाम तरह के अभावों से जूझते हुए किया गया था । बुर्जुआ
शांति द्वारा सुरक्षित किसी धनी मानी चिंतक के शोध से इसकी पैदाइश नहीं हुई बल्कि
यह सब ऐसे लेखक का परिश्रम है जो कठिनाई में पड़े इस विश्वास के सहारे काम करने की
ऊर्जा प्राप्त कर रहा था कि विकासमान आर्थिक संकट को देखते हुए उसका काम अपने समय
के लिए जरूरी हो गया है ।
उनके सामने एक बड़ी
समस्या पेश आई कि चिंतन में यथार्थ का किस तरह सृजन किया जाए । ऐसा अमूर्त माडल
कैसे निर्मित करें जो समाज को ग्रहण और प्रस्तुत करने में सक्षम हो । इस सिलसिले
में वे कुछ विंदु ही दर्ज कर सके लेकिन सैद्धांतिक रूप से वे महत्वपूर्ण हैं ।
शुरू कहां से करें? विश्लेषण
की शुरुआत किस राजनीतिक अर्थशास्त्र से हो? एक रास्ता था कि
जनसंख्या से शुरुआत की जाए लेकिन इसमें समग्र दिखाई पड़ेगा न कि अलग अलग वर्ग नजर
आएंगे । इन वर्गों को अलगाने के लिए पूंजी, भूस्वामित्व और
मजूरी श्रम जैसे विभाजक आधारों को जानना होगा । शुरुआत श्रम, श्रम विभाजन, जरूरत, विनिमय
मूल्य जैसी आसान कोटियों से करके राज्य, देशों के बीच विनिमय
और विश्व बाजार के स्तर तक जाना उचित प्रतीत हुआ । इस तरह से चलने पर वापस
जनसंख्या पर आते हैं तो वह समग्र की अराजक धारणा नहीं बल्कि एकाधिक निर्धारकों और
संबंधों की समृद्ध बहुलता के रूप में प्रकट होता है । असल समस्या यथार्थ की
प्रस्तुति के लिए सही कोटियों का निर्माण था।
इस सिलसिले में
उन्हें अर्थशास्त्रियों के इस यकीन पर भरोसा नहीं था कि उनकी कोटियां यथार्थ की
सही प्रस्तुति होती हैं । जो पद्धति उन्होंने सूत्रबद्ध की उसमें हेगेल से बहुत
कुछ लिया गया था लेकिन अंतर भी था । वे मानते तो थे कि ठोस के अवबोध के लिए अमूर्त
का सहारा लेना पड़ता है और इसलिए सरल से जटिल की ओर बढ़ना चाहिए लेकिन यथार्थ खुद
ढेर सारे निर्धारकों का समुच्चय और विविध की एकता होता है । इसीलिए शुरुआत अमूर्त
से नहीं बल्कि सर्वेक्षण और धारणा के लिए ठोस से शुरुआत करनी होगी । हेगेल के लिए
तो यथार्थ ही चिंतन की उपज के समान था लेकिन मार्क्स के लिए यथार्थ के अस्तित्व
में आने की यह प्रक्रिया नहीं थी । हेगेलीय भाववाद में कोटियों की गति असली
उत्पादन की तरह प्रतीत होती है जिससे फिर संसार उत्पन्न होता है इसलिए उसमें
धारणागत चिंतन असली मनुष्य लगता है और धारणागत संसार एकमात्र यथार्थ रह जाता है।
इसमें विचार न केवल असली यथार्थ का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि विचार संसार की तरह
गतिमान भी होता है । इसके विपरीत मार्क्स ने बार बार जोर दिया कि सोचने समझने के
क्रम में यथार्थ की समग्रता के प्रतिबिम्ब के रूप में चिंतन की समग्रता प्रकट तो
होती है लेकिन यह यथार्थ चिंतन की उपज नहीं होता । चिंतन के विषय के रूप में वह
दिमाग के बाहर स्वायत्त अस्तित्व बनाए रखता है । इसलिए सैद्धांतिक पद्धति में भी
चिंतनीय विषय के बतौर समाज को पूर्वावश्यकता के रूप में मानना ठीक होगा ।
एक दूसरे सवाल पर
भी उन्होंने विचार किया कि जटिल उपकरणों से सरल को समझा जाए या इसका उलटा तरीका
अपनाया जाए । इसमें से उन्होंने सरल से जटिल की ओर जाने का रास्ता चुना । उनका
मानना था कि उत्पादन का सबसे जटिल संगठन बुर्जुआ समाज है । इसके संबंधों को व्यक्त
करने वाली कोटियों के जरिए उन तमाम पुरानी सामाजिक संरचनाओं की संरचना और उत्पादन
संबंधों की झलक मिलती है जिनके विध्वंस पर इसका निर्माण हुआ लेकिन जिनके अवशेष
आंशिक रूप से अब भी इससे चिपके हुए हैं । जिस तरह मनुष्य की शरीर रचना में मानवाभ
वानर की शरीर रचना की कुंजी होती है उसी तरह वर्तमान के ज्ञान से अतीत की भी
पुनर्रचना की जा सकती है । मुस्तो का मानना है कि इसे विकासवाद की अनुकृति नहीं
समझना चाहिए । विकासवाद में जिस तरह सरल से जटिल की ओर यात्रा दिखाई जाती है उसके
बरक्स मार्क्स ने एक के बाद एक उत्पादन पद्धतियों के अनुक्रम के बतौर इतिहास को
ग्रहण किया । इसमें हालांकि बुर्जुआ समाज पिछले युगों के अर्थतंत्र की समझ के लिए
संकेत प्रदान करता है लेकिन समाजों के बीच भारी अंतर को देखते हुए इन संकेतों को
जस का तस नहीं लागू करना चाहिए । मार्क्स ने उन अर्थशास्त्रियों की जोरदार आलोचना
की जो ऐतिहासिक अंतर को नजरअंदाज करते हुए सभी किस्म के समाजों में बुर्जुआ संबंध
खोजते हैं । उन्होंने कालानुक्रम की पद्धति का विरोध किया और सबसे परिपक्व अवस्था
यानी पूंजीवादी समाज से शुरू किया और उसमें भी सबसे प्रभावी तत्व यानी पूंजी के
विवेचन पर ध्यान केंद्रित किया ।
उन्हें अमूर्त
कोटियों को लगातार विभिन्न ऐतिहासिक यथार्थों से मिलाकर देखते रहना था ताकि
सामान्य तार्किक निर्धारक ठोस ऐतिहासिक संबंधों से अलगाए जा सकें । इससे यथार्थ की
समझ के लिए ऐतिहासिक तत्व निर्णायक हो गया और अमूर्त तार्किकता के चलते इतिहास
घटनाओं का सपाट विवेचन मात्र नहीं रह गया । मार्क्स को अपनी इस पद्धति की मदद से न
केवल उत्पादन की सभी पद्धतियों के बीच अंतर समझने में आसानी हुई बल्कि वर्तमान के
भीतर वे एक नई उत्पादन पद्धति के पूर्व संकेतों को भी पहचान सके और इस तरह
पूंजीवाद को शाश्वत मानने वालों को चुप करा सके । उनके सभी कामों की यही विशेषता
रही थी । उनका शुद्ध स्वतंत्र सैद्धांतिक महत्व ही नहीं होता था । उनकी जरूरत
राजनीतिक संघर्ष को बेहतर तरीके से चलाने के लिए दुनिया की व्याख्या से उत्पन्न
होती थी ।
पद्धति के ही
प्रसंग में मुस्तो ने एक बात याद दिलाई है जिसे कला संस्कृति के मामले में बहुधा
दुहराया जाता है । मार्क्स ने ग्रीक कला और आधुनिक समाज की तुलना करते हुए समाजार्थिक
विकास और कलात्मक उत्पादन के बीच सीधा संबंध मानने की जगह भौतिक उत्पादन और कलात्मक
उत्पादन के बीच ‘असमान संबंध’
की धारणा प्रस्तुत की । महाकाव्य का सृजन कलात्मक विकास की आरम्भिक अवस्था
में ही हो सकता था । इसका अर्थ है कि मार्क्स एकरेखीय सामाजिक विकास की धारणा को बहुत
उपयोगी नहीं समझते थे । अधिरचना के मामले में वे निर्धारणवादी नहीं प्रतीत होते ।
बहरहाल उन्होंने ग्रुंड्रिस
को दो हिस्सों में बांटा । पहला मुद्रा संबंधी अध्याय था जिसमें मुद्रा और मूल्य पर
बात की गई थी । इसके बाद दूसरा अध्याय पूंजी का था जिसके केंद्र में पूंजी का उत्पादन
और वितरण था तथा इसी क्रम में अतिरिक्त मूल्य की धारणा और पूंजीवादी उत्पादन पद्धति
से पहले के आर्थिक ढांचों पर विचार किया गया था । कुल कोशिश के बावजूद वे निर्धारित
काम पूरा नहीं कर सके । लासाल को लिखी चिट्ठी में सूचित किया कि पंद्रह साल के अध्ययन
के उपरांत जब राजनीतिक अर्थशास्त्र पर अपने काम के अंतिम चरण में पहुंचे हैं तो बाहरी
दुनिया की सचाई के चलते विषयवस्तु के नए पहलू खुलते जा रहे हैं । असल में 1857 की मंदी और संकट के चलते एंगेल्स
और उन्हें 1848 का अधूरा काम पूरा होने की उम्मीद जागी । अर्थशास्त्र
वाला काम पूरा करना चाहते थे लेकिन समय की भारी कमी महसूस हो रही थी । पत्नी जेनी ने
एक दोस्त को सूचित किया कि मार्क्स की काम करने की क्षमता और ऊर्जा आर्थिक संकट के
चलते बढ़ गई है । मार्क्स ने न्यू यार्क ट्रिब्यून के लिए तमाम लेख, प्रस्तावित कोश के लिए लेखन, वर्तमान संकट के बारे में
पुस्तिका और ग्रुंड्रिस के बीच काम के लिए अलग अलग समय निर्धारित किया । इस हाड़तोड़
परिश्रम का असर सेहत पर पड़ा । कोश संबंधी लेखन में उन्होंने एंगेल्स की सहायता मांगी
। अर्थशास्त्र संबंधी एक झमेला गणना का था । अंकगणित कमजोर था इसलिए बीजगणित के जरिए
गणना की समस्याओं को हल किया । लेखन संबंधी व्यस्तता के बीच सेहत की समस्या भी उठती
रहती थी । सारी बाहरी व्यस्तताओं से दूर संत की तरह रहने का फैसला किया लेकिन घर खर्च
के लिए अखबारी लेखन को जारी रखना जरूरी था । ग्रुंड्रिस तो अर्थशास्त्र पर लिखे जानेवाले
उनके ग्रंथ की मोटी रूपरेखा भर था । उस ग्रंथ का पहला खंड ही मार्क्स के जीवन में प्रकाशित
हो सका था । सभी जानते हैं कि मार्क्स के देहांत के बाद उनकी पांडुलिपियों को संपादित
करके एंगेल्स ने बाकी दो खंड छपवाए थे । स्पष्ट है कि ग्रंथ अपूर्ण रहा था ।
इस सदी में मार्क्स
के इस ग्रंथ को समझने की बहुत सारी कोशिशें हुईं । इस क्रम में 2018 में स्प्रिंगेर से तेइनोसुके ओतानी
की किताब ‘ए गाइड टु मार्क्सियन पोलिटिकल इकोनामी: ह्वाट काइंड आफ़ ए सोशल सिस्टम इज कैपिटलिज्म?’ का प्रकाशन
हुआ । लेखक को लगता है कि आधुनिक समाज के पूंजीवादी समाज होने की बात सभी मानते हैं
लेकिन पूंजीवाद को व्याख्यायित करना इतना आसान नहीं । पूंजीवाद की मार्क्सवादी
व्याख्या बताने के क्रम में वे सबसे पहले बताती हैं कि अर्थशास्त्र का शाब्दिक
मतलब घरेलू व्यवस्था का प्रबंधन है । नगर राज्य की वित्तीय नीतियों के लिए
राजनीतिक अर्थशास्त्र का द्योतक ग्रीक शब्द प्रचलन में आया । मतलब कि इसमें
राजनीतिक का अर्थ राजनीति की जगह समाज है । इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र वह
अनुशासन हुआ जो समाज के अर्थतंत्र की छानबीन करता है । लेखक के मुताबिक किताब की
विशेषता यह है कि इसमें विभिन्न धारणाओं को स्पष्ट करने के लिए चित्रों का सहारा
लिया गया है । दूसरे कि सतह पर मौजूद यथार्थ को समझने के लिए सतह के नीचे की सचाई
का सहारा लिया गया है । किताब को तैयार करने में इसे मार्क्स के ग्रंथ ‘पूंजी’की सहायिका भी बनाने की कोशिश की गई है ।
मार्क्स के उस ग्रंथ में सभी जगहें समझने के लिहाज से मुश्किल नहीं हैं लेकिन
बहुतेरे हिस्से जरूर कठिन हैं । लेखक की कोशिश उन हिस्सों को खोलकर समझाने की थी ।
इसी वजह से इसमें ‘पूंजी’के तीनों
खंडों से पर्याप्त उद्धरण दिए गए हैं ।
No comments:
Post a Comment