हाल
में त्रिपुरा के विधान सभा के चुनाव के परिणामों के आने के साथ ही विजयी फ़ासिस्ट पार्टी भाजपा के समर्थक लोगों ने लेनिन की एक मूर्ति को बुलडोजर से ढहा दिया । यह घटना इस बात का प्रमाण है कि धुर प्रतिक्रियावादी राजनीतिक ताकतों के लिए रूसी क्रांति और उसके स्थपति लेनिन, समाजवादी सत्ता के समाप्त हो जाने के तीस साल बाद भी कितनी डराने वाली तस्वीर बने हुए हैं । रूसी क्रांति के शताब्दी के साल उसकी प्रासंगिकता का इससे बड़ा और क्या प्रमाण होगा ! इसके साथ ही अकादमिक
जगत में उस क्रांति और उससे उपजे शासन और सत्ता के मूल्यांकन के जिस तरह के प्रयास हो रहे हैं तथा उसमें जो कठिनाइयां सामने आ रही हैं उसका जायजा लेने के लिए वर्तमान सदी में प्रकाशित कुछ किताबों का जिक्र जरूरी है । इससे वर्तमान की तस्वीर कुछ साफ होगी ।
रूसी क्रांति का शताब्दी वर्ष तो बीत गया है लेकिन उससे जुड़े
प्रसंगों की खोजबीन की प्रक्रिया के खत्म होने की बजाए आगे भी चलते रहने की उम्मीद
है । इसका बड़ा कारण यह है कि रूसी क्रांति जिस ऐतिहासिक धारा का अंग थी उसमें थोड़े
दिनों के लिए रुकावट आई थी लेकिन पूंजीवादी विषमता के विरुद्ध समाजवादी समाज बनाने
की लड़ाई फिर से जोर पकड़ चुकी है । इसीलिए रूसी क्रांति और उसके नेता के बारे में कोई
भी बातचीत केवल अकादमिक नहीं रह गई है । समतामूलक बेहतर समाज बनाने का सपना देखने
वाले सभी लोगों के लिए रूसी क्रांति से जुड़े इस समस्त साहित्य को ध्यान से पढ़ना
लाभकारी होगा । इसी आशा से यह लेख तैयार किया गया है ।
इतिहास की निरंतरता का आलम यह है कि सोवियत संघ के ढह जाने
के बाद भी शीतयुद्ध की समाप्ति नहीं हुई है । इसी प्रसंग में 2018 में मंथली रिव्यू प्रेस से जेरेमी कुज़्मारोव और जान
मरकियानो की किताब ‘द रशियंस आर कमिंग, अगेन: द फ़र्स्ट कोल्ड वार ऐज ट्रेजेडी, द सेकंड ऐज
फ़ार्स’ का प्रकाशन हुआ है । हाल के दिनों में रूस के
शैतानीकरण की कोशिशों के संदर्भ में यह किताब लिखी गई है ।
कहने की जरूरत नहीं कि रूसी क्रांति की लगभग
प्रत्येक घटना राजनीतिक सोच विचार के लिहाज से बेहद महत्व की रही है । इस तथ्य को अक्टूबर
क्रांति से पहले की फ़रवरी क्रांति संबंधी हालिया अध्ययन से भी समझा जा सकता है । 1917 में
फ़रवरी से अक्टूबर तक का समय केरेन्सकी की केंद्रीय सत्ता और सोवियतों की वास्तविक सत्ता
के दोहरे शासन का दौर कहा जाता है । यही राजनीतिक प्रयोग और इसके साथ जुड़ी हुई रस्साकशी,
बुर्जुआ उदारवाद और समाजवाद की विचार सरणियों के बीच तनाव का व्यावहारिक
आयाम था । इस विशेष दौर की उलझनों के बारे में 2018 में ब्रिल से सुयोशी हासेगावा की किताब ‘द फ़रवरी रेवोल्यूशन, पेत्रोग्राद, 1917: द एन्ड आफ़ द जारिस्ट रिजीम ऐंड द बर्थ आफ़ डूअल पावर’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब लेखक की लिखी और 1981 में
यूनिवर्सिटी आफ़ वाशिंगटन प्रेस से प्रकाशित किताब ‘द फ़रवरी रेवोल्यूशन,
पेत्रोग्राद, 1917’ का संशोधित और विस्तारित संस्करण
है । इतनी पुरानी किताब को फिर से छापने की प्रेरणा ही वर्तमान संदर्भों से पैदा हुई
है । दोहरे शासन के दौरान जनता की मांगों के पक्ष में बोल्शेविकों की राजनीतिक गोलबंदी
का दमन करने के क्रम में जिस तरह केरेन्सकी की उदारवादी सरकार फौजी शासन के लिए रास्ता
साफ करती जा रही थी उसी तरह की राजनीतिक परिघटना को हम अपनी आंखों के सामने लगभग सभी
लोकतांत्रिक देशों में घटित होते हुए देख रहे हैं । इस परिघटना के समक्ष उस समय की
बोल्शेविक कार्यनीति में आज के लिए भी बहुत कुछ प्रासंगिक बना हुआ है ।
इसी तरह
2017 में प्रोफ़ाइल बुक्स से सीन मैकमीकिन की किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन: ए न्यू हिस्ट्री’ का प्रकाशन
हुआ । किताब की प्रस्तावना में ही रूसी क्रांति के बाद की पहली सदी का मूल्यांकन
किया गया है । लेखक के मुताबिक तारीख के मामले में 1789 की तरह ही 1917 भी दुनिया
के इतिहास में दर्ज हो गया लेकिन दिक्कत यह है कि रूस में इसी साल दो क्रांतियां
घटित हुईं । इन दोनों के चलते दुनिया को कम्युनिस्ट आंदोलन की जानकारी हुई और कम
से कम 1991 तक चलने वाले वैचारिक संघर्ष का इतिहास निर्मित हुआ । इस तरह ठीक ठीक
कहें तो समूची बीसवीं सदी ही रूसी क्रांति की छाया में गुजरी । इतनी बड़ी अवधि में
फैले होने के बावजूद उसे विश्व इतिहास के प्रसंग में अकादमिक चर्चा से भी बाहर
करने की कोशिश होती रहती है । इस सिलसिले में निम्नांकित किताब का जिक्र जरूरी है
।
रूसी क्रांति के शताब्दी वर्ष 2017 में
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से सिल्वियो पोन्स के संपादन में तीन खंडों में ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ़ कम्युनिज्म’ नामक पुस्तक श्रृंखला
का प्रकाशन शुरू हुआ । इसका पहला खंड ‘वर्ल्ड रेवोल्यूशन ऐंड
सोशलिज्म इन वन कंट्री 1917-1941’ है । प्रस्तावना में उचित ही
संपादकों ने रूसी क्रांति की शताब्दी को याद किया है । उनका यह भी कहना है कि सौ साल
बीत जाने के बावजूद रूसी क्रांति का प्रकल्प अभी पूरा नहीं हुआ है । बीसवीं सदी के
विश्व क्रांति, गैर-पूंजीवादी अर्थतंत्र
और सामूहिकता पर आधारित समाजों के सपने अब भी विचारणीय विरासत के अंग बने हुए हैं ।
सोवियत संघ के पतन के बाद बचे हुए कम्युनिस्ट पार्टी शासित देशों के साथ पूंजीवाद का
वर्तमान रिश्ता व्यापक रुचि का विषय होने के साथ ही विवेचन-विश्लेषण और तमाम नए सवालों
के लिए भी बौद्धिक मसाला उपलब्ध करा रहा है । इस सिलसिले में खासकर विश्व अर्थतंत्र
और राजनीति में चीन के असर की रोशनी में यह मामला और भी गंभीर हो चला है ।
असल में रूस और पूर्वी यूरोप में समाजवादी
प्रयोगों के खात्मे के बाद विद्वानों की एक पूरी पीढ़ी ही पैदा हुई है जो अभिलेखागारों
के खुलने का लाभ उठाकर निरंतर रोचक शोध में जुटी हुई है । नए साक्ष्य मिलने से कम्युनिस्ट
इतिहास की छानबीन, बहस और उसका परिष्कार लगातार जारी है । शुद्ध रूप से अकादमिक प्रकृति
का यह काम भी आक्षेप की वजह बन जा रहा है । कारण कि इस नई घटना के साथ पुराने वैचारिक
पूर्वाग्रह भी काम कर रहे हैं । वर्तमान की समझ के लिए इस काम की अप्रासंगिकता का तर्क
देकर इसके विपक्ष में अभियान चलाया जा रहा है । यह भी कहा जा रहा है कि रूसी और यूरोपीय
इतिहास में कम्युनिस्ट शासन अपवाद की तरह आए थे । कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि जो प्रयोग
असफल हो गया उसमें रुचि किसी काम की नहीं साबित होगी । स्पष्ट है कि मृत सोवियत
संघ भी भय का कारण बना हुआ है ।
किताब के संपादकों का कहना है कि कम्युनिज्म
को एकाधिक अर्थों में समझे जाने और उसके बारे में मत वैभिन्य के बावजूद बीसवीं सदी
को समझने के लिए उसका सहारा लेना होगा । इसकी छानबीन करनी होगी कि कैसे और क्यों कम्युनिस्ट
क्रांतियों, पार्टियों, शासनों और समाजों के इतने समर्थक
बने, साधारण जनता और तमाम विलक्षण बुद्धिजीवी इसकी ओर क्यों खिंचे,
इतने बड़े पैमाने पर इससे उम्मीद और अरुचि कैसे पैदा हुई, इसमें आखिरकार मूलभूत बदलाव किस प्रक्रिया में आए, बड़ी
ताकतों को इसने कितनी चुनौती दी और आखिरकार तेजी से यह किस तरह बिखर गया । उनको लगता
है कि पिछली सदी में दुनिया का स्वरूप तय करने में इसकी भूमिका को अनदेखा नहीं किया
जा सकता । जो नई सामग्री मिल रही है उसके आलोक में इसकी एकरेखीय की जगह बहुआयामी तस्वीर
उभर रही है । किताब में व्यापक वैश्विक राजनीतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक और आर्थिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में कम्युनिस्ट आंदोलन को
देखा गया है । साथ ही इन प्रक्रियाओं को गढ़ने में इस आंदोलन के योगदान को भी रेखांकित
किया गया है ।
रूसी क्रांति के सिलसिले में संपादकों ने किताब
में शामिल लेखों में मौजूद कुछ बहसों का उल्लेख किया है । रूसी और अन्य क्रांतियों
में विचारधारा, राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों के सापेक्षिक महत्व के सिलसिले
में खूब बहसें हुई हैं । साथ ही आत्मगत इच्छा और दीर्घकालीन संरचनात्मक प्रक्रिया
के बीच की अंत:क्रिया के बारे में भी बात हुई है । विनाश और उपलब्धियों का भी लेखा
जोखा लिया गया है । इसके अतिरिक्त कम्युनिस्ट समाज के निर्माण के सिलसिले में
विविधता को भी देखने की कोशिश हुई है । समय बीतने के साथ रूसी क्रांति को और उसके
बाद के समाजवादी निर्माण की कोशिश को अन्य कम्युनिस्ट देशों की कोशिशों के संदर्भ
में तुलनात्मक नजरिए से देखा समझा जा रहा है । इसी के साथ व्यापक विश्व इतिहास के
संदर्भ में समूचे कम्युनिस्ट आंदोलन को देखने से भी कुछ नए पहलू उजागर हुए हैं ।
सबसे पहले संपादकों का जोर इस बात पर है कि
पश्चिमी पूंजीवाद की वैकल्पिक परियोजना के रूप में कम्यूनिज्म के उदय का संबंध विश्वयुद्धों
के युग से है । उनको यह भी लगता है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद चले शीतयुद्ध, अनुपनिवेशीकरण
और समाजवादी खेमे की ताकत में बढ़ोत्तरी के बीच के आपसी संबंध को समझना होगा । बीसवीं
सदी के उत्तरार्ध में वैश्विक अंतर्निर्भरता के संदर्भ में कम्यूनिस्ट शासन के पतन,
बिखराव और रूपांतरण को देखना उचित होगा । असल में प्रथम विश्वयुद्ध के
बाद बोल्शेविकों ने अपने आपको फ़्रांसिसी क्रांति और मार्क्सवाद की मूलगामी क्रांतिकारी
परंपरा का वाहक और सम्पूर्ण युद्ध के भयावह परिणामों से उपजी आधुनिक क्रांति के चक्र
का संचालक मानते थे । बीसवीं सदी की कम्यूनिस्ट क्रांति के उभार को समझने में युद्धकालीन
अनुभव की उपेक्षा नहीं की जा सकती । आधुनिक औद्योगिक समाज, लोकतांत्रिक
राजनीति और साम्राज्यवाद की असमान विकास प्रक्रिया का प्रथम विश्वयुद्ध से पहले भी
समाजवादी आंदोलनों का स्वरूप तय करने में गहरा योगदान रहा है । बहरहाल प्रथम विश्वयुद्ध
में जिस तरह समूची विश्व व्यवस्था हिंसक तरीके से बिखर गई उसके कारण नया संसार गढ़ने
की क्रांतिकारी परियोजनाओं को बल मिला । युद्ध के लिए जो गोलबंदियां हुईं उनके चलते
पारम्परिक राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचा बिखर गया । इसी माहौल में बोल्शेविकों ने विश्व
क्रांति का सपना प्रस्तावित किया । इसे युद्ध से पहले सामाजिक जनवादियों द्वारा मार्क्सवादी
अंतर्राष्ट्रीयता के साथ गद्दारी के विरोध के बतौर प्रस्तुत किया गया । साम्राज्यवाद
विनाशकारी विश्व व्यवस्था साबित हुई थी इसलिए उसके बरक्स नया अंतर्राष्ट्रीयतावाद खड़ा
हुआ ।
रूसी क्रांति के सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण
घटना लेनिन का विदेश से देश लौटना है । उस यात्रा के दौरान वे फ़िनलैंड स्टेशन पर उतरे
थे । इस घटना के सिलसिले में 2017 में मेट्रोपोलिटन बुक्स से कैथरीन मेरिडेल
की किताब ‘लेनिन आन द ट्रेन’ का प्रकाशन
हुआ । इसमें लेनिन की फ़िनलैंड की मशहूर यात्रा का वर्णन है जिसके बाद ही उन्होंने
1917 की क्रांति का नेतृत्व संभाल लिया था । लेखिका ने सबसे पहले इस
छोटे से स्टेशन के इतिहास भूगोल का वर्णन किया है जो रूसी साम्राज्य के एक सिरे पर
था ।
2017 में हेमार्केट बुक्स से टाड क्रेटियन के
संपादन में ‘आइविटनेसेज टु द रशियन रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । किताब में तमाम ऐसे लोगों के लिखित वृत्तांत शामिल किए गए
हैं जो रूसी क्रांति के साक्षी रहे थे । पहले भाग में फ़रवरी क्रांति के बारे में,
दूसरे भाग में दोहरी सत्ता के बारे में, तीसरे
भाग में जुलाई के दिनों और कार्निलोव की प्रतिक्रांति के बारे में, चौथे भाग में विद्रोह की बहसों के बारे में, पांचवें
भाग में अक्टूबर क्रांति के बारे में और छठवें भाग में मजदूरों की सत्ता के बारे में
संस्मरण एकत्र करके रखे गए हैं । आखिरी सातवें भाग में मूल्यांकन जैसा प्रस्तुत करने
के अतिरिक्त क्रांति की समय सारिणी, व्यक्तियों और संगठनों के
परिचय और आगे की पढ़ाई के लिए पुस्तक सूची भी दी गई है । आश्चर्यजनक रूप से पुस्तक सूची
में दर्ज सारी किताबें इसी सदी में प्रकाशित हैं । इस तरह यह सूची नई सदी में रूसी
क्रांति पर सोच विचार के लिए मार्गदर्शक बन जाती है । सूची में आधिकारिक बयान करने
वाली किताबें ही नहीं हैं, बल्कि त्रात्सकी के बारे में हुए लेखन
को भी जगह दी गई है । संपादक लैटिन अमेरिका के वाम आंदोलन से उपजे हैं और फिलहाल अमेरिका
में निवास करते हैं । उनका कहना है कि लगातार सत्तर सालों तक अक्टूबर क्रांति की वैश्विक
मौजूदगी महसूस होती रही है ।
पश्चिम का उदारवादी बौद्धिक मानस लेनिन को
तो थोड़े हिचक के साथ ही सही स्वीकार कर लेता है लेकिन स्तालिन का नाम उसके लिए
पूरी तरह अस्वीकार्य बना दिया गया है । इसके बावजूद द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर
को पराजित करने के संदर्भ में उनकी याद न आना मुश्किल है । क्रांति के बाद तो लेनिन
कुछ ही समय तक जीवित रहे । उनके बाद समाजवादी निर्माण का जटिल और कठिन दायित्व
स्तालिन को ही निभाना पड़ा था इसलिए मन मारकर ही सही, उनका जिक्र भी करना पड़ता
है । इसी प्रसंग में 2017 में कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस से सेठ बर्नस्टाइन की किताब ‘रेज्ड अंडर स्तालिन: यंग कम्यूनिस्ट्स ऐंड द डिफ़ेन्स आफ़ सोशलिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।
रूसी क्रांति से उसके नायक लेनिन को अलग नहीं
किया जा सकता । शायद इसी के प्रमाण स्वरूप 2004 में इंटरलिंक बुक्स से अंतोनेला
सालोमोनी की 1993 में छपी इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘लेनिन ऐंड द रशियन
रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद डेविड स्ट्राइकर ने किया है । लेखिका ने रूसी
क्रांति को सही परिप्रेक्ष्य में रखते हुए जार के समय 1861 में
लागू हुए सुधारों से अपनी बात शुरू की है । बहुतेरे विद्वान 1917 की बोल्शेविक
क्रांति को रूस के भीतर की दीर्घकालीन सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया का अंग मानते
हैं । यह तर्क क्रांति को अपवाद समझने वालों को उत्तर के रूप में उचित भी प्रतीत
होता है । रूस की अपनी समाजैतिहासिक प्रक्रिया का अंग होने के चलते ही क्रांति ने
जनता की सृजनशीलता के सभी दरवाजे खोल दिए थे । सोवियत संघ की विशेष उपलब्धियों में
फ़िल्म उद्योग की गणना होती है । फ़िल्म की कला के विकास में सोवियत फ़िल्मकारों का योगदान
अविस्मरणीय रहा है । इसी योगदान का विश्लेषण करते हुए 2003 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से एम्मा विडिस की किताब
‘विजन्स आफ़ ए न्यू लैन्ड: सोवियत फ़िल्म फ़्राम द रेवोल्यूशन टु द सेकन्ड वर्ल्ड
वार’ का प्रकाशन हुआ ।
सोवियत संघ
मूल रूप से खेतिहर देश था लेकिन क्रांति ने उसका तेजी से उद्योगीकरण किया । इस प्रक्रिया
की जटिलताओं का विवेचन करते हुए 2003 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से राबर्ट
सी एलेन की किताब ‘फ़ार्म टु फ़ैक्ट्री: ए रीइंटरप्रेटेशन आफ़ द सोवियत इंडस्ट्रियल
रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ ।
इसके
अतिरिक्त सोवियत संघ जिन अनेक चीजों के लिए जाना जाता है उनमें भाषा चिंतन भी एक
महत्वपूर्ण पहलू है । खासकर सामाजिक भाषा विज्ञान का विकास रूसी चिंतकों का ॠणी है
। इस विषय पर उसकी उपलब्धियों का विवेचन करते हुए 2010 में एंथम प्रेस से मशहूर
बाख्तीन विशेषज्ञ क्रेग बैन्डिस्ट और कात्या चौन की किताब ‘पोलिटिक्स ऐंड द थियरी आफ़ लैंग्वेज इन द यू एस एस आर
1917-1938: द बर्थ आफ़ सोशियोलाजिकल लिंग्विस्टिक्स’ का
प्रकाशन हुआ ।
सोवियत
संघ के विरुद्ध जिस तरह का दुष्प्रचार किया गया उसमें फिलहाल विश्वास करना भी कठिन
है कि कभी उस समाज में संचार के अत्याधुनिक माध्यम भी हुआ करते थे । इस लिहाज से
रेडियो की मौजूदगी का अध्ययन रोचक होगा । 2015 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से स्टीफेन लोवेल की किताब ‘रशिया इन द माइक्रोफोन एज: ए हिस्ट्री आफ़ सोवियत रेडियो,
1919-1970’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का मानना है कि संचार माध्यमों के लिहाज से देखने पर सोवियत रूस के इतिहास में कुछ नई बात जोड़ी जा सकती है ।
क्रांति की उपलब्धियों में यह बात भी शामिल है कि उसने रूसी
विद्वत्ता को दुनिया में प्रतिष्ठित किया । इसी प्रयास का एक पहलू विज्ञान के
क्षेत्र में हासिल उपलब्धि भी है । डेविड जोराव्स्की की किताब ‘सोवियत मार्क्सिज्म ऐंड नेचुरल साइंस 1917-1932’
का प्रकाशन बहुत पहले 1961 में हुआ था लेकिन 2009 में उसको दुबारा रटलेज ने छापा है । चाहे जितनी आलोचना की जाए लेकिन साहित्य, संगीत और फ़िल्म के समान ही विज्ञान की दुनिया में सोवियत संघ की उपलब्धियों को नकारना संभव नहीं है । उसी विरासत की याद इस किताब के जरिए दिलाई गई है ।
सोवियत
संघ कोई अकेला और अलग थलग पड़ा हुआ देश नहीं था । वह यूरोप के एक हिस्से में
पूंजीवाद की वैकल्पिक सभ्यता की आकांक्षा का आधार था । पूर्वी यूरोप के इस
परिक्षेत्र में उपजी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों की अबाध आवाजाही तमाम देशों के आर
पार हुआ करती थी । द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर रूस के बिखरने तक यह घनिष्ठ पारस्परिक
सम्पर्क बना रहा था । इस प्रसंग में 2016 में सेंट्रल यूरोपीयन यूनिवर्सिटी प्रेस से जेरोम बाज़िन, पास्कल द्यूबोर्ग ग्लातिनी और प्योत्र प्योत्रोव्सकी के संपादन में ‘आर्ट बीयान्ड बार्डर्स: आर्टिस्टिक एक्सचेन्ज इन कम्यूनिस्ट यूरोप
[1945-1989]’ का प्रकाशन हुआ । प्योत्र प्योत्रोव्सकी ने किताब की प्रस्तावना की शक्ल में आलोचनात्मक कला इतिहास की रूपरेखा पेश की है । इसके बाद संपादकों की लिखी भूमिका है । किताब में शामिल पैंतीस लेखों को चार भागों में बांटा गया है । सबसे पहला भाग कलाकारों के आवागमन पर केंद्रित है । दूसरे भाग में कलाकृतियों के आवागमन का विश्लेषण है । तीसरे भाग में पारदेशीय वैचारिक एकता का उल्लेख है । आखिरी चौथे भाग में यूरोप के इस भाग को परिभाषित करने वाले सामान्य तत्वों की पहचान करने की चेष्टा की गई है ।
सोवियत
संघ का अक्टूबर क्रांति की दिशा में प्रयाण लम्बी प्रक्रिया थी । इसका वर्णन करते 2015 में वाइकिंग से डोमिनिक लाइवेन की किताब ‘द एन्ड आफ़ जारिस्ट रशिया: वर्ल्ड वार I ऐंड द मार्च टु रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का मानना है कि प्रथम विश्वयुद्ध के केंद्र में रूस था । इस तरह यह किताब रूसी क्रांति का अंतर्राष्ट्रीय इतिहास भी बन जाती है । रूस के यूरोपीकरण की कोशिश ने आधुनिक रूस के इतिहास और उसकी जनता पर सबसे अधिक प्रभाव डाला । लेखक का कहना है कि प्रथम विश्वयुद्ध के बिना भी बोल्शेविक सत्ता पर कब्जा तो कर सकते थे लेकिन उस पर कब्जा बनाए रखना युद्ध के बिना सम्भव न था । दूसरी ओर रूस ने उस युग में जो अंतर्राष्ट्रीय भूमिका निभाई उसकी अनदेखी हुई है । लेखक को लगता है कि अब तक प्रथम विश्वयुद्ध को ब्रिटिश, अमेरिकी, जर्मन और फ़्रांसिसी निगाह से देखा गया है लेकिन उन्हें उम्मीद है कि अगर इसे रूस की निगाह से देखा जाए तो अलग तस्वीर उभरेगी ।
2015 में ब्रिल से रिचर्ड मुलिन की किताब “द रशियन सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी,
1899-1904: डाकुमेंट्स आफ़ द ‘इकोनामिस्ट’ अपोजीशन टु इस्क्रा ऐंड अर्ली मेन्शेविज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखक की भूमिका के मुताबिक इस किताब में सोवियत संघ की कम्यूनिस्ट पार्टी के आरम्भिक दिनों के दस्तावेजों का संकलन है । जिस दौर के ये दस्तावेज हैं उसमें दो आंतरिक बहसें हुई थीं । पहली बहस प्लेखानोव के समर्थकों और ‘इस्क्रा’ की ओर से ‘राबोचेये देलो’ नामक एक तथाकथित आर्थिक पत्र के विरुद्ध चलाई गई जिसमें पार्टी की बुनियादी विचारधारा और राजनीतिक रणनीति से जुड़े हुए सवाल उठे थे । दूसरी बहस वह थी जिसके चलते रूसी पार्टी में बोल्शेविक और मेन्शेविक नामक दो गुट बने थे । इस नए समय में जिस तरह पुराने क्रांतिकारी प्रयासों का पुनरीक्षण किया जा रहा है उसी तरह पुरानी वैचारिक बहसों पर भी दुबारा नजर डाली जा रही है ।
लेनिन की
राजनीति के बारे में आम धारणा है कि वे षड़यंत्रकारी थे लेकिन उनकी राजनीति में
आधुनिक राजनीतिक प्रतियोगिता के गम्भीर तत्व थे इस बात का खुलासा करते हुए 2014 में ब्रिल से एलन शैन्ड्रो की किताब ‘लेनिन ऐंड द लाजिक आफ़ हेजेमनी: पोलिटिकल प्रैक्टिस ऐंड थियरी इन द क्लास स्ट्रगल’ का प्रकाशन हुआ । इसी तरह की एक और किताब 2014 में पालग्रेव मैकमिलन से विलियम जे डेविडशोफ़र की ‘मार्क्सिज्म ऐंड द लेनिनिस्ट रेवोल्यूशनरी माडल’ का प्रकाशन हुआ ।
शोध संबंधी
प्रयासों में एक बेहद महत्वपूर्ण कोशिश के रूप में 2014 में स्लाविका पब्लिशर्स, इंडियाना यूनिवर्सिटी,
ब्लूमिंगटन से मरे फ़्रेम, बोरिस कोलोनित्सकी,
स्टीवेन जी मार्क्स और मेलिसा के स्टाकडेल के संपादन में दो खंडों में
‘रशियन कल्चर इन वार ऐंड रेवोल्यूशन, 1914-22’ का प्रकाशन हुआ । पहला खंड ‘बुक 1: पापुलर कल्चर, द आर्ट्स, ऐंड इंस्टीच्यूशंस’
है । दूसरा खंड ‘बुक 2: पापुलर
कल्चर, आइडेन्टिटीज, मेन्टालिटीज,
ऐंड मेमोरी’ है । दोनों ही खंड प्रथम विश्वयुद्ध,
क्रांति और गृहयुद्ध के समय के रूसी इतिहास संबंधी एक व्यापक परियोजना
के तहत छापे गए हैं ।
रूसी
क्रांति की अग्रगति के क्रम में बोल्शेविक पार्टी शेष पार्टियों को पीछे छोड़ती हुई
एकमात्र पार्टी के बतौर बची लेकिन क्रांति के दौरान उस तरह की एकस्वरीयता नहीं थी
। उस क्रांति की बहुस्वरीयता के लिहाज से 2011 में ग्रीनवुड से माइकेल सी हिकी के संपादन में ‘फ़ाइटिंग वर्ड्स: कम्पीटिंग वायसेज फ़्राम द रशियन रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । किताब में रूसी क्रांति के दौरान विभिन्न दलों की ओर से जारी दस्तावेजों को संकलित करके छापा गया है ।
2011 में ही प्रेजर से एन्थनी दागोस्तिनो की किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन, 1917-1945’ का प्रकाशन हुआ । रूसी क्रांति कि अवधि के बारे में इसमें नया नजरिया तो अपनाया ही गया है स्तालिन की मौजूदगी के बारे में स्थिति भी स्पष्ट की गई है । लेखक का मानना है कि प्रथम विश्व युद्ध, महामंदी और फ़ासीवाद के उदय से परिभाषित होने वाली अंतर्राष्ट्रीय स्थिति शीतयुद्ध के दौरान पूरी तरह से बदल गई । इसलिए अक्सर लोग भूल जाते
हैं कि रूस की क्रांतिकारी विचारधारा ने नाज़ीवाद के कहर से पाश्चात्य लोकतंत्र को बचाया । शीतयुद्ध के खात्मे के बाद तो न रूस रहा न रूसी क्रांतिकारी सत्ता । ऐसे में लेखक ने मुख्य रूप से इस सवाल पर विचार किया है कि रूसी क्रांति कोई ऐतिहासिक विकार/अपवाद थी या हमारी वर्तमान दुनिया के निर्माण में उसका कोई योगदान है । वे इसे इंग्लैंड की सत्रहवीं सदी की क्रांति, फ़्रांस की अठारहवीं सदी की क्रांति, अमेरिका के स्वाधीनता संघर्ष जैसी निर्णायक घटनाओं में से एक मानने पर जोर देते हैं ।
2011 में एंथम प्रेस से कार्टर एलवुड की किताब ‘द नान-जियोमेट्रिक लेनिन: एसेज आन द डेवलपमेंट आफ़ द बोल्शेविक पार्टी 1910-1914’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने किताब को विनम्रता के साथ लेनिन के जीवन के महज एक छोटे से हिस्से तक सीमित होने की घोषणा की है । जनवरी 1910 की केंद्रीय कमेटी की एक बैठक में उनकी पराजय से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध के शुरू होने तक की कहानी इसमें कही गई है । बोल्शेविक पार्टी के इतिहास के इस बेहद छोटे समय का अध्ययन कम हुआ है । इसी दौरान लेनिन ने उस पार्टी को खड़ा किया जिसने विश्वयुद्ध में जनता के विक्षोभ को वाणी दी और इसके बल पर 1917 में क्रांति की । इस दौरान वे विदेश प्रवास में रहे थे । किताब में बयान की गई कहानी से उनकी बाकी जीवनियों में वर्णित तथ्यों में बढ़ोत्तरी होगी । उनकी आधिकारिक जीवनियों में उन्हें ऐसे आदर्श मनुष्य के रूप में चित्रित किया जाता है जिसने क्रांति में पार्टी का नेतृत्व किया और क्रांति के तुरंत बाद स्थापित सत्ता का शुरुआती उथल पुथल भरे दिनों में दिशा निर्देशन किया । इनमें उनके व्यक्तित्व का रैखिक विकास होता नजर आता है । लेकिन वे मनुष्य भी थे । उनकी रुचियों में पर्याप्त विविधता थी । लेनिन के जीवन के बारे में यह नजरिया लेखक के दिमाग में धीरे धीरे विकसित हुआ ।
मार्क्सवादी चिंतन की पश्चिमी धारा के साथ सोवियत संघ में मार्क्सवाद के व्यावहारिक प्रयोग का संबंध बहुत सामान्य नहीं रहा । इसी जटिलता की व्याख्या करते हुए 2007 में ब्रिल प्रकाशन से मार्सेल फान डेर लिंडेन की ‘वेस्टर्न मार्क्सिज्म ऐंड द सोवियत यूनियन’ शीर्षक किताब प्रकाशित हुई है । इसका उपशीर्षक ‘ए सर्वे आफ़ क्रिटिकल थियरीज ऐंड डीबेट्स सिंस 1917’ है । उपशीर्षक से स्पष्ट है कि इसमें मार्क्सवाद के व्यवहार के सिलसिले में उठे लगभग सभी विवादों का जायजा लिया गया है ।
बीसवीं सदी के रूस के विवेचन के प्रसंग में 2006 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से रोनाल्ड ग्रिगोर सनी के संपादन में ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ़ रशिया: वाल्यूम III: द ट्वेंटीएथ सेन्चुरी’ का प्रकाशन हुआ ।
2005 में रटलेज से क्रिस्टोफर रीड की किताब ‘लेनिन: ए रेवोल्यूशनरी लाइफ़’ का प्रकाशन हुआ । रटलेज हिस्टारिकल बायोग्राफीज नामक पुस्तक श्रृंखला के तहत इसका प्रकाशन हुआ है । यह केवल जीवनी न होकर एक तरह से सोवियत संघ के पतन के बाद फिर से पीछे मुड़कर देखने की कोशिश भी है ।
खुद
सोवियत संघ के लोगों के अनुभवों के लिहाज से 2005 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस
से अलेक्सई युर्चाक की महत्वपूर्ण किताब ‘एवरीथिंग
वाज फ़ारएवर, अन्टिल इट वाज नो मोर’ का
प्रकाशन हुआ । किताब में उस आखिरी पीढ़ी के लोगों की मानसिकता का विश्लेषण किया गया
है जिनकी परवरिश सोवियत संघ में हुई थी ।
2004 में ब्रूकिंग्स इंस्टीच्यूशन प्रेस से हेनरी हार्डी के संपादन में स्ट्रोब टालबोट की प्रस्तावना और हेलेन रैपापोर्ट द्वारा तैयार नामावली के साथ इसाइया बर्लिन की बहुत पुरानी किताब ‘द सोवियत माइंड: रशियन कल्चर अंडर कम्यूनिज्म’ का प्रकाशन हुआ । बर्लिन की यह किताब समय समय पर सोवियत संघ की सांस्कृतिक अवस्था के बारे में लिखे उनके लेखों का संपादित संग्रह है ।
2004 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से डोनाल्ड फ़िल्ट्ज़र की किताब ‘सोवियत वर्कर्स ऐंड लेट स्तालिनिज्म: लेबर ऐंड द रेस्टोरेशन आफ़ द स्तालिनिस्ट सिस्टम आफ़्टर वर्ल्ड वार II’ का प्रकाशन हुआ ।
2003 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से रोनाल्ड ग्रिगोर सनी के संपादन में ‘द स्ट्रक्चर आफ़ सोवियत हिस्ट्री: एसेज ऐंड डाक्यूमेंट्स’ का प्रकाशन हुआ ।
2001 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से रोनाल्ड ग्रिगोर सनी और टेरी मार्टिन के संपादन में ‘ए स्टेट आफ़ नेशंस: एम्पायर ऐंड नेशन-मेकिंग इन द एज आफ़ लेनिन ऐंड स्तालिन’ का प्रकाशन हुआ ।
2001 में पालग्रेव से जेम्स डी ह्वाइट की
किताब ‘लेनिन: द प्रैक्टिस ऐंड थियरी आफ़ रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना
है कि लेनिन का नाम उस क्रांति और उसके बाद स्थापित शासन से जुड़ा हुआ है जिसने बीसवीं
सदी की अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को आकार दिया और जिसकी धमक आज तक सुनाई पड़ती
है ।
2000 में रटलेज से डेविड चाइल्ड्स की किताब ‘द टू रेड फ़्लैग्स: यूरोपियन सोशल डेमोक्रेसी ऐंड सोवियत कम्यूनिज्म सिन्स 1945’ का प्रकाशन हुआ । वाम आंदोलन के रूसी और यूरोपीय रूपों को आमने सामने रखकर विश्लेषित करने के चलते किताब रोचक है ।
1999 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से एंथनी हेवुड की किताब ‘माडर्नाइजिंग लेनिन’स रशिया: इकोनामिक रीकंस्ट्रक्शन, फ़ारेन ट्रेड ऐंड द रेलवेज’ का प्रकाशन हुआ । भूमिका और उपसंहार के अलावे किताब के सात लेख तीन हिस्सों में संयोजित हैं । लेखक ने शुरू ही इस बात से किया है कि पश्चिम की तुलना में सदियों से पिछड़े हुए देश को आर्थिक विकास और उद्योगीकरण के जरिए प्रमुख औद्योगिक शक्ति में बदल देना बोल्शेविकों और लेनिन का एक बुनियादी लक्ष्य था । रूसी अर्थतंत्र के इसी बुनियादी रूपांतरण को सामाजिक क्रांति तथा समाजवाद का भौतिक आधार होना था । किताब में यही देखने की कोशिश है कि आखिर इस काम को सोवियत शासन के शुरुआती दिनों में क्रांतिकारियों ने किस तरह अंजाम दिया । 1998 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से रोनाल्ड ग्रिगोर सनी की किताब ‘द सोवियत एक्सपेरिमेन्ट: रशिया, द यू एस एस आर, ऐंड द सक्सेसर स्टेट्स’ का प्रकाशन हुआ ।
1997 में पालग्रेव मैकमिलन और सेंट मार्टिन’स प्रेस से केन पोस्ट की किताब ‘रेवोल्यूशन’स अदर वर्ल्ड: कम्यूनिज्म ऐंड द पेरिफेरी, 1917-39’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का मानना है कि सोवियत संघ के पतन के साथ पूंजी की अबाध विजय यात्रा फिर से शुरू हो गई । इस समय भी लेखक के अनुसार दुनिया के अधिकतर हिस्से रूसी क्रांति के समय की तरह ही पूंजीवाद की परिधि पर हैं । इस परिप्रेक्ष्य में रूसी क्रांति के प्रसार की कोशिशों का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है । यह अध्ययन उनके अनुसार भविष्य के बदलावों के लिए भी मार्गदर्शक का काम करेगा । अध्ययन की सीमा को जानबूझकर दूसरे विश्वयुद्ध के पहले तक ही रखा गया है क्योंकि लेखक के अनुसार उसके बाद तो रूस महाशक्ति बनने के प्रलोभन में उलझता चला गया ।
असल में पूंजीवाद से घिरे हुए पिछड़े देश के बतौर रूस ने खुद की मुक्ति के लिए जो किया और जिस तरह पिछड़े हुए मुल्कों में क्रांति का प्रसार हुआ उससे आज भी इन इलाकों के आंदोलनकारी सीख सकते हैं । लेखक का कहना है कि दुनिया के इतिहास में बहुत कम अवसरों को निर्णायक कहा जा सकता है और 1917 की रूसी क्रांति उनमें से एक थी । उस साल बड़े पैमाने पर रूसी लोगों ने इतिहास के सुप्त गुलाम होने से इनकार कर दिया और जागकर इसके प्रत्यक्ष निर्माता बने । अचानक रूस का जारशाही साम्राज्य प्रथम विश्वयुद्ध का रोचक क्षेत्र बन गया था । वहां की राजनीतिक पार्टियां, ट्रेड यूनियनें और तमाम सामाजिक समूह झटके से दुनिया भर के लिए महत्वपूर्ण हो गए और अगले 70 सालों तक इस स्थिति में कायम रहे ।
2009 में ब्रिल
से रिचर्ड बी डे और डैनिएल गाइडो के संपादन तथा अनुवाद के साथ ‘विटनेसेज टु परमानेन्ट रेवोल्यूशन: द डाक्यूमेन्टरी रेकार्ड’
का प्रकाशन हुआ । इसमें संपादकों ने 1905 की क्रांति
की शताब्दी को याद किया है ।
रूसी क्रांति का महत्व असंदिग्ध रूप से अंतर्राष्ट्रीय था । क्रांति के नेताओं ने भी उसे विश्व क्रांति की शुरुआत के रूप में देखा था । शायद इसीलिए तीसरे इंटरनेशनल का भी गठन हुआ । उसे लोकप्रिय भाषा में कोमिंटर्न भी कहा जाता है । बोल्शेविक नेताओं को कम से कम जर्मनी में क्रांति होने की आशा काफी दिनों तक बनी रही । वहां की कोशिश के दमन और असफल होने के बाद चीन से होते हुए क्रांतिकारी आवेग का स्थानांतरण पूरब की ओर होता गया । इस अंतर्राष्ट्रीयता में उसके प्रसार के साथ विनाश के भी बीज छिपे हुए थे । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देशों में प्रभाव क्षेत्र कायम करने वाली सोच आगे चलकर उनमें दखलंदाजी तक जा पहुंची । सही है कि इसके पीछे पश्चिमी पूंजीवादी देशों का दबाव भी था । फिर भी उस दबाव का मुकाबला करने के लिए सैनिक हस्तक्षेप की नीति ही सोवियत संघ को अफ़गानिस्तान पर हमले की ओर ले गई । इसके बावजूद कोमिंटर्न का गौरवशाली इतिहास भी रूसी क्रांति के उज्ज्वल अध्यायों में से एक है । इसके होने से ही फ़ासिस्ट विरोधी जंग में रूस को आवश्यक अंतर्राष्ट्रीय समर्थन मिला । कोमिंटर्न के बारे में भी ढेर सारे अध्ययन हुए हैं । उनमें से कुछ का जिक्र जरूरी है ।
2015 में
पालग्रेव मैकमिलन से ब्रिगिट स्टूडेर की जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द ट्रान्सनेशनल वर्ल्ड आफ़ कोमिंटर्नियन्स’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद डैफ़िड रीस राबर्ट्स ने किया है ।
2015 में ब्रिल
से जान रिडेल के संपादन और अनुवाद में ‘टु द मासेज: प्रोसीडिंग्स आफ़ द थर्ड कांग्रेस आफ़ द कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल, 1921’
का प्रकाशन हुआ । इसी का अगला अध्ययन 2018 में ब्रिल से माइक ताबेर
के संपादन में ‘द कम्यूनिस्ट मूवमेन्ट ऐट ए क्रासरोड्स:
प्लेनम्स आफ़ कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल’स एक्सीक्यूटिव कमेटी,
1922-1923’ का प्रकाशन हुआ । दस्तावेजों का अंग्रेजी अनुवाद जान
रिडेल ने किया है । इन दो सालों की कार्यवाही मुख्य तौर पर पूंजीवाद के विरोध में
मजदूरों का संयुक्त मोर्चा बनाने के सवाल पर केंद्रित रही । साल के पहले ही दिन इस
आशय की अपील भी जारी की गई थी । संयुक्त कार्यवाही की इस अपील के साथ ही सभी सदस्य
पार्टियों से विस्तारित कार्यकारिणी की बैठक के लिए प्रतिनिधि भेजने की भी गुजारिश
की गई थी । ये बैठकें बहुधा सम्मेलन की शक्ल में हुआ करती थीं । किताब में लेनिन
के जीवित रहते आयोजित ऐसे तीन सम्मेलनों की कार्यवाही का संकलन किया गया है ।
कम्यूनिस्ट आंदोलन के इतिहास के लिहाज से इन सम्मेलनों का महत्व लगभग उतना ही है
जितना 1919 से 1922 के दौर के लेनिन युग के चार सम्मेलनों का था । प्रथम
विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद के तीन सालों में यूरोप के पूंजीवादी शासकों को
सर्वहारा क्रांति का वास्तविक खतरा महसूस होता रहा । इसके पीछे सोवियत क्रांति की
प्रेरणा तो थी ही युद्ध के चलते विस्फोटक हो चले वर्गीय अंतर्विरोधों की भूमिका भी
थी । शासकों की पूरी कोशिश व्यवस्था को किसी भी तरह बचाये रखने की थी । बहरहाल 20
के दशक के उत्तरार्ध तक साफ हो गया कि पूंजीवाद को राहत मिल गई है । लेकिन 1922 के
शुरू में विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंतर्विरोध तीखे हो रहे थे । इसी संदर्भ
में कोमिंटर्न की इन वर्षों की गतिविधियों को देखा जाना अपेक्षित है । युद्ध की
समाप्ति पर वर्साय की संधि से समस्याओं को खत्म हुआ समझा जा रहा था लेकिन उस संधि
से ही नई समस्याओं का जन्म हुआ ।
इससे पहले
2012
में ब्रिल से जान रिडेल के संपादन में और उन्हीं के अनुवाद की किताब ‘टुवर्ड्स द यूनाइटेड फ़्रंट: प्रोसीडिंग्स आफ़ द फ़ोर्थ कांग्रेस आफ़ द कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल, 1922’ का प्रकाशन हुआ । संपादकीय भूमिका में रिडेल ने बताया है कि इस कांग्रेस में जो कुछ हासिल किया गया उसका महत्व इक्कीसवीं सदी में भी है । 1917 के क्रांतिकारी उभार के खात्मे और पूंजी के हमलावर होने की हालत में यह कांग्रेस हुई थी ।
2002 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से मैनुएल कबारेलो की किताब ‘लैटिन अमेरिका ऐंड द कोमिंटर्न: 1919-1943’ का पेपरबैक संस्करण प्रकाशित हुआ । मूल रूप से इसका प्रकाशन 1986 में हुआ था । यह किताब कैम्ब्रिज लैटिन अमेरिकन स्टडीज के तहत प्रकाशित हुई थी । भूमिका में किताब का संदर्भ स्पष्ट करते हुए लेखक बताते हैं कि लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का इतिहास आम तौर पर अलग अलग कम्यूनिस्ट पार्टियों के राजनीतिक और सांस्थानिक इतिहास के जमाजोड़ के बतौर समझा जाता है । इसका उपयोग अन्य चीजों के लिए हो सकता है लेकिन तीसरे इंटरनेशनल को समझने में सहूलियत नहीं होती । इसके अंतर्राष्ट्रीय चरित्र, इसके केंद्रीय संगठन और विश्व क्रांति के उसके अंतिम लक्ष्य से पैदा होने वाली उसकी विशेषता ओझल हो जाती है । कोमिंटर्न के नेताओं को गंभीरता के साथ कभी यह यकीन नहीं रहा कि यूरोप या एशियाई मुल्कों में क्रांति के बिना लैटिन अमेरिका में समाजवादी क्रांति संभव है । 1919 में इसकी स्थापना के पीछे लक्ष्य ही रूस से शुरू हुई विश्व क्रांति की प्रक्रिया को पूरा करना था । लेनिन और उनके साथियों को लगा कि विश्व कांति की जो आग उन्होंने रूस में जलाई है वह जर्मन क्रांति की सफलता के साथ पश्चिमी यूरोप में फैलेगी । इस उम्मीद के पूरा न होने की स्थिति में एक साल बाद उन्होंने एशिया से उम्मीद बांधी । लैटिन अमेरिकी नेताओं को विश्व कांति के समर्थक की भूमिका निभानी थी । बहरहाल लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का असर तेजी से फैला । सैद्धांतिक क्षेत्र में यह असर ढेर सारे यूरोपीय एशियाई देशों के मुकाबले काफी दिनों तक बना रहा । यूरोपीय और एशियाई देशों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण कम्यूनिस्ट पार्टियों की स्थापना लैटिन अमेरिकी देशों में हुई । 1930 के दशक में अल सल्वाडोर और ब्राजील में तथा 1940 के दशक में चिली में कम्यूनिस्टों के नेतृत्व में विद्रोह हुए । ये कार्यवाहियां अधिकांश यूरोपीय और एशियाई देशों के मुकाबले पहले हुईं । कोमिंटर्न के विघटन के बीस साल बाद भी क्यूबा की क्रांति की अगुआ पार्टी ने उसके नारों और लैटिन अमेरिकी महाद्वीप की क्रांतिकारी संभावना की उसकी समझ के आधार पर खुद को लेनिनीय समाजवादी आंदोलन का अंग घोषित किया । इन परिघटनाओं को सोवियत संघ के सैनिक, औद्योगिक और राजनीतिक प्रभाव से जोड़ना आसान है । असल में रूस को कम्यूनिज्म से अलगाना बेहद कठिन है । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि सोवियत संघ के महाशक्ति बनने से पहले ही यूरोप, एशिया और लैटिन अमेरिका में अक्टूबर क्रांति का प्रभाव गहरा चुका था । अगर इसे खासकर बुद्धिजीवियों में महज मार्क्सवाद का असर कहा जाएगा तो बात पूरी नहीं होगी । उन्हें विश्व ऐतिहासिक प्रक्रिया की व्याख्या के रूप में मार्क्सवाद ने तो आकर्षित किया ही, लेकिन क्रांति घटित होने की वास्तविक संभावना के बतौर लेनिनीय सिद्धांत और पद्धति ने उसे ठोस आधार दिया था । कम्यूनिस्ट पार्टी की मौजूदगी से लेनिनवाद का जुड़ाव गहरा है और कोमिंटर्न के अस्तित्व से कम्यूनिस्ट पार्टी का । और कोमिंटर्न के अस्तित्व की उपेक्षा से समकालीन विश्व इतिहास खासकर दोनों विश्व युद्धों के बीच के इतिहास की सही समझ नहीं बन सकेगी । इसी तरह किसी लैटिन अमेरिकी विद्वान को लग सकता है कि क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार की वजह से लैटिन अमेरिका में लेनिनवाद का असर है लेकिन यह सरलीकरण होगा क्योंकि लेनिनवाद का असर खुद क्यूबा के भीतर भी 1959 से पहले से था । तमाम कम्यूनिस्ट विरोधी प्रचार के बावजूद सच यही है कि दोनों विश्व युद्धों के बीच लैटिन अमेरिका में लेनिनवाद की ठोस उपस्थिति थी । इसकी अभिव्यक्ति विभिन्न देशों की कम्यूनिस्ट पार्टियों के जरिए होती है । लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का इतिहास इस इलाके में बीसवीं सदी के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनों के इतिहास से घनिष्ठ तौर पर जुड़ा हुआ है । बहरहाल कोमिंटर्न के बारे में विश्व संगठन के बतौर जो कुछ कहा गया है कमोबेश वही लैटिन अमेरिका में इसके इतिहास पर भी लागू हो सकता है । इस सदी के या शायद समूचे इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी संगठन होने के बावजूद के बावजूद इसका अध्ययन बहुत कम हुआ है । इसका एक कारण यह है कि इसकी अधिकांश गतिविधियां भूमिगत तौर पर संचालित होती थीं और इसीलिए इसका इतिहास निर्मित कर पाना बेहद कठिन है ।
सोवियत
संघ के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव का अद्भुत आयाम उजागर करते हुए 2008 में तौरिस एकेडमिक स्टडीज से नील सी रफ़ीक की किताब ‘कम्यूनिस्ट वीमेन इन स्काटलैंड: रेड क्लाइडेसाइड फ़्राम द रशियन रेवोल्यूशन टु द एन्ड आफ़ द सोवियत यूनियन’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का देहान्त 2007 में हो गया था । मौखिक इतिहास में उन्होंने शोध किया था । किताब उनके इसी शोध से पैदा हुई है । इसमें साधारण लोगों द्वारा इतिहास निर्माण की प्रक्रिया तो दिखाई ही पड़ती है, साधारण लोगों का असाधारण जीवन भी प्रकट होता है । लेखक का परिचय इंग्लैंड की कम्यूनिस्ट पार्टी के बहुतेरे सामान्य कार्यकर्ताओं से था । उनसे ही लेखक को मौखिक साक्षात्कारों के अतिरिक्त पर्चे, पुस्तिकाएं और घटनाओं के विवरण प्राप्त हुए ।
किसी भी
परिवर्तनकारी राजनीति की तरह रूसी क्रांति की राजनीति से जुड़े लोगों का पारिवारिक
जीवन तनावों से भरा रहता था । इस परिघटना को केंद्र में रखकर 2014 में येल
यूनिवर्सिटी प्रेस से पाल गिन्सबर्ग की किताब ‘फ़ेमिली पोलिटिक्स: डोमेस्टिक लाइफ़, डिवास्टेशन ऐंड
सर्वाइवल 1900-1950’ का प्रकाशन हुआ । किताब में रूसी
क्रांतिकारी राजनीति और पारिवारिक जीवन के तनाव का विश्लेषण किया गया है ।
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