देश की आजादी
के साथ त्रासदी
की तरह विभाजन
की कहानी भी लगी
हुई है । विभाजन किसी एक समय
घटित घटना न होकर
लगातार जारी प्रक्रिया
है । इस बात
को सही साबित
करने के लिए
हरेक साल दंगा
जरूर होता रहता
है । इतिहास
में उसकी निरंतरता
से सिद्ध है कि
उसकी ढेर सारी
कहानियों की सुनवाई
अभी नहीं हुई
है । देश
को भौगोलिक के साथ
मानसिक रूप से भी
बांटने की इस योजना को अविभाजित भारत
की प्रमुख पार्टियों
के नेताओं ने मंजूर किया लेकिन इसकी
कीमत देश के आम लोगों को चुकानी पड़ी
। न केवल
उस समय बल्कि
बहुत हद तक आज
भी । करोड़ो
लोगों को अपने
जन्मस्थान को छोड़कर
अपने समुदाय की बहुसंख्या वाले देश में
जाना पड़ा था ।
दुनिया के इतिहास
में आबादी का इतने
बड़े पैमाने पर विस्थापन शायद ही कभी
हुआ होगा । जिन राजनीतिक नेताओं की योजना के चलते यह भीषण
दुर्घटना घटी उन्हें दंडित करने की मांग भी कभी नहीं उठी । विभाजन का अनिवार्य अंग
सदियों की बसावट छोड़कर दूसरी अनजानी जगह जिंदगी की नई शुरुआत करने की परेशानी था ।
दोनों ही
देशों ने इन नवागंतुकों को आधिकारिक रूप
से और सरकारी
भाषा में ‘शरणार्थी’ कहा । पूर्वी पाकिस्तान से भागकर कलकत्ता आने वालों के
चलते यहां जमीन की कीमत बेतहाशा बढ़ गई इसलिए इन शरणार्थियों को अलग कालोनियों में
बसाया गया ।
विभाजन की त्रासदी पर बात करते
हुए पहले
राजनीतिक प्रक्रिया का अधिक विश्लेषण किया जाता था लेकिन क्रमश: राजनीतिक तत्वों
की जगह मानवीय
तत्व को स्वीकार
किया जाने लगा
है । इसके बाद
इन शरणार्थियों पर ध्यान देने से धर्म
के साथ ही धीरे धीरे लिंग और जाति
का आयाम भी उजागर होना शुरू हुआ
। ये आयाम
पूरब के हिस्से
की ओर के विभाजन के इर्द गिर्द
अधिक प्रकट हुए
। ध्यान
देने की बात यह है कि पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आकर शरण लेने वालों के दिमाग
में धार्मिक भावना काम तो
कर रही थी लेकिन हिंदू धर्म के
साथ जाति व्यवस्था नाभिलालबद्ध है इसलिए पलायन की इस कथा में बहुस्तरीयता भी पैदा हुई । विभाजन संबंधी शोध में धीरे धीरे इस बहुस्तरीयता को भी
जगह मिली है ।
देश के दोनों
छोरों पर विभाजन
हुआ था । नतीजे के तौर पर हमारा पड़ोसी मुल्क
दोनों ओर से हमें
घेरे था । बहरहाल एक और विभाजन
कराकर पूरब दिशा
के मुल्क का नाम
बदल दिया गया
। विभाजित इलाकों
के पश्चिमी छोर
की कथा बहुत
हद तक हिंदी
भाषा भाषी जनता
को मालूम है लेकिन पूरबी छोर
की कहानी तो एकदम
ही अंधेरे में
डूबी हुई है ।
पूरबी हिस्से के विभाजन की बात
करते हुए ध्यान रखना होगा कि 1947 से पहले भी एक विभाजन हुआ था । इस विभाजन को बंग
भंग का नाम दिया जाता है । 1905 में कर्जन ने धार्मिक आधार पर बंगाल को दो हिस्सों में बांट दिया था । इसके विरोध में स्वदेशी आंदोलन चला
था । मजेदार बात है कि अगस्त 1947 का विभाजन बहुत कुछ 1905 के विभाजन की
पुनरावृत्ति महसूस होता है ।
इस क्षेत्र में
विभाजन की प्रक्रिया
इस अर्थ में
भी जारी रही
कि बाद
में पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने से बांग्लादेश बना । उस समय भी शरणार्थियों की
आमद बड़ी संख्या में हुई । अभी कुछ
ही दिन पहले
बांग्लादेश के साथ
भारत के कुछ
गांवों की अदला
बदली हुई है । कुछ विद्वानों का तो यह भी मानना है कि 16 अगस्त
1946 को कलकत्ते में सीधी कार्यवाही (डाइरेक्ट ऐक्शन) के चलते हुए नरसंहार के बाद ही
ब्रिटिश शासन ने विभाजन के पक्ष में पक्का मन बना लिया था । पूरबी हिस्से के
विभाजन की कहानी अकेले इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि आज़ादी के दिन
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बंगाल में ही थे । पूरबी हिस्से के खासकर बंगाल के
विभाजन में हिंदू महासभा की भूमिका निर्णायक रही । अविभाजित बंगाल के मुख्यमंत्री
के मुस्लिम होने की बात को महासभा ने मुस्लिम शासन की मौजूदगी के बतौर प्रचारित
किया और धार्मिक आधार पर बंगाल के विभाजन में इस समस्या का हल बताया ।
असल में भारत
और पाकिस्तान के बीच
कोई स्पष्ट प्राकृतिक
विभाजक नहीं था ।
सीमारेखा आबादी के बीच
से गुजरी थी ।
विभाजन के आस पास
हुए भीषण दंगों
के चलते पश्चिमी
इलाके में थोड़ी
बहुत स्पष्टता आई थी लेकिन पूरबी इलाके
में उस स्तर
की हिंसा नहीं
हुई थी । हुई भी तो लंबे दिनों में हुई और उतनी विस्फोटक
नहीं थी । इसके कारण
असम, त्रिपुरा और मेघालय के साथ हमेशा
सीमा का झगड़ा-टंटा लगा
रहता है । त्रिपुरा में तो बांग्लादेश
और भारत की सीमा
पर जिसे नो मैन’स
लैंड कहा जाता
है उसकी जनसंख्या
का झमेला भी बना
रहता है । दक्षिणी असम की बराक
घाटी के करीमगंज
में अब भी बांग्लादेश से सुबह भारत
आकर दिन भर रिक्शा चलाकर शाम
को बांग्लादेश लौट
जाने वालों की पर्याप्त संख्या है ।
मेघालय में रहने
वाले बहुत सारे
लोगों के खेत
बांग्लादेश में हैं
। इन सभी
क्षेत्रों में सीमा
सुरक्षा बल में
व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण
स्थानीय आबादी आराम
से इधर उधर
होती रहती है ।
दक्षिणी असम और मेघालय की जयंतिया पहाड़ियों
की संधि पर अनेक
स्थान ऐसे हैं
जहां पहाड़ी मार्ग तो
भारत में है लेकिन नीचे की खाई
बांग्लादेश में । ऐसी
जगहों पर आज भी यदि
कोई वाहन सड़क
पर दुर्घटनाग्रस्त होता
है तो नीचे गिरकर
बांग्लादेश में चला
जाता है ।
विभाजन की अनजानी कहानियों को सुनने के लिए दिमाग
को आधुनिक भारत
के इतिहास के बारे
में बने प्रचलित
बोध से छुटकारा
लेना होगा । यह
प्रचलित बोध स्वाधीनता आंदोलन
की नितांत
इकहरी तस्वीर प्रस्तुत करता
है और इसमें
जटिलता के लिए
कोई अवकाश नहीं रहता
। इस चक्कर
में कभी कभी
आंबेडकर तक को स्वाधीनता आंदोलन का साथ
न देने का अपराधी साबित कर दिया
जाता है । इतिहासकार शेखर बंद्योपाध्याय ने नामशूद्र समुदाय के बारे में
अपने मशहूर अध्ययन में पूरबी हिस्से में विभाजन के साथ जुड़ी जटिलता के एक बहुत ही
महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर किया है । पहले इस समुदाय को चांडाल कहा जाता था । जिस तरह
अछूत समुदाय को सम्मान देने के लिए
गांधी ने उन्हें
हरिजन कहा उसी
तरह की प्रक्रिया
इस समुदाय के साथ
भी चली । हिंदू समाज में इन्हें अस्पृश्य माना जाता था । फिर उन्हें
नम:शूद्र कहा
गया जो बांगला
की प्रकृति के चलते
नमोशूद्र या नामशूद्र
हुआ । जातिनाम
में यह बदलाव
भी बहुत आसानी
से नहीं हुआ
था । शिक्षा
के प्रसार और अखबारों के आगमन के बाद
चांडाल जातिनाम को लेकर
आपत्तियां उठनी शुरू
हुईं । जनगणना
के सरकारी दस्तावेजों
में शुरू में
जातिनाम चांडाल ही दर्ज
किया गया था ।
शेखर बंद्योपाध्याय ने बताया है कि 1891 में
उन्हें दस्तावेजों
में ‘नामशूद्र
या चांडाल’ लिखा गया
। इसके बाद 1901 की अगली जनगणना में इसे ‘नामशूद्र(चांडाल)’ कर दिया
गया । आखिरकार
1911 की जनगणना में
ही चांडाल पूरी
तरह से हटा
और उसकी जगह
जाति के बतौर
नामशूद्र दर्ज हुआ
। इस समुदाय के बारे में बहुजन
समाज पार्टी के नेता कांशीराम ने 1988 में लिखा था कि ‘1947 में अंग्रेजों के भारत छोड़ते ही नामशूद्र आंदोलन में तेजी से
कमी आई । भारत विभाजन ने बहुत लोगों को बरबाद किया लेकिन सबसे अधिक नुकसान
नामशूद्रों को उठाना पड़ा । लोग और समुदाय तो बरबाद हुए ही उनका आंदोलन भी पूरी तरह
से समाप्त हो गया । आज नामशूद्र जड़विहीन हैं । दो देशों में विभाजित इन लोगों की
जड़ बाग्लादेश में है तो उनकी शाखा भारत में फैली हुई है ।’
नदियों और दलदली इलाकों के
ये बाशिंदे जब खेती में लगे तो उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होना शुरू हुआ । इस
सुधार के चलते उन्हें अपनी सामाजिक स्थिति को बदलने की आकांक्षा पैदा हुई । बहुत
कम ही लोग आर्थिक रूप से संपन्न हो सके क्योंकि जमीन पर कब्जा ऊँची जाति के हिंदू
लोगों का था फिर भी जो संपन्न हुए उन्हें अपने साथ होनेवाले भेदभाव का अनुभव अधिक
होता था । इस भेदभाव ने आर्थिक विषमता के बावजूद समुदाय के बतौर एकताबद्ध होने में
उनकी मदद की । उनके भीतर अनेक उपजातियों की मौजूदगी के बावजूद सामाजिक बहिष्करण ने
उनकी आपसी एकजुटता में मदद की । शिक्षा के प्रसार और भेदभाव का बरताव न होने के
कारण अंग्रेजों के प्रति इनका रुख नरम था । इसके चलते ही उनमें ब्रिटिश समर्थक
भावना भी विद्यमान थी । दूसरी ओर राष्ट्रवादी राजनीति में ऊँची जाति के लोगों का
दबदबा था । इस राश्ट्रवादी नेतृत्व ने बहुत दिनों तक उनकी समस्यायों पर ध्यान ही
नहीं दिया । इसी कारण 1905 के बंग भंग के बाद उसके विरोध में हुए स्वदेशी आंदोलन
में इस समुदाय ने भाग नहीं लिया । स्वदेशी आंदोलन के बाद में असहयोग आंदोलन, सिविल
नाफ़रमानी और भारत छोड़ो आंदोलनों में भी इनकी भागीदारी नगण्य रही । इसके साथ ही इस
समुदाय में एक दूसरी प्रक्रिया भी जारी थी । उनके भीतर हिंदू समाज में सम्मानजनक
तरीके से शामिल होने की तड़प भी बनी हुई थी । पूर्वी बंगाल में मुस्लिम जमींदारों
की मौजूदगी थी इसलिए नामशूद्र समुदाय का उनसे विरोध भी बना रहता था । 1946 के
चुनावों में उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया था । हिंदू महासभा के साथ भी उनकी
सहानुभूति रहती थी । आत्म सम्मान की उनकी आकांक्षा के चलते वे कभी ऊँची हिंदू जातियों
के विरुद्ध लड़ते, कभी मुस्लिम जमींदारों के अन्याय का विरोध करते और
कभी हिंदू समाज में शामिल होने की कोशिश भी करते थे । साथ ही उनमें बहुतेरे लोगों
ने कम्युनिस्टों के नेतृत्व में संचालित तेभागा आंदोलन में भी भाग लिया था । उनमें
जो लोग संपन्न थे वे शासक समुदाय में शामिल होना चाहते थे । निचले स्तर पर सामान्य
कृषक लोग जातिगत भेदभाव के विरोध में बने रहे । विभाजन के समय भी वे भारत आने को
राजी नहीं हुए । उनके नेता जोगेंद्र मंडल ने बाकायदा विभाजन के
विरोध में अभियान चलाया था । वे बंगाल की अंतरिम सरकार में मंत्री भी थे । तब तक नामशूद्र
समुदाय के नेतृत्व में नए नेता भी उभर चुके थे । उनमें से अधिकतर लोगों ने विभाजन
का पक्ष लिया लेकिन देश के विभाजन से उनकी समस्याओं का हल नहीं निकला क्योंकि उनकी बहुसंख्यक
आबादी वाले जिले विभाजन में पूर्वी पाकिस्तान चले गए ।
पंजाब के विपरीत बंगाल में
पलायन एक के बाद एक लहरों की मानिंद हुआ । पहले ऐसे लोग पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम
बंगाल आए जो समर्थ थे । उनमें कुछ मध्यवर्गीय नामशूद्र भी थे जो अपनी संपत्ति बेच
सके । बहुसंख्यक किसान नामशूद्र जहाँ थे वहीं बने रहे । उन्हें हिंदू पहचान के साथ
जिंदा रहना था क्योंकि पाकिस्तान का राष्ट्रवाद इस्लाम आधारित था । जोगेंद्र मंडल
वहीं बने रहे और 1950 तक सरकार में मंत्री रहे । इस दौरान वे कभी हिंदू और कभी
अनुसूचित जातियों के हितों की वकालत करते रहे । आम नामशूद्र किसानों ने जब कभी
अपने हितों के लिए आंदोलन किया तो उन्हें शासन की ओर से किसान की जगह हिंदू के रूप
में पेश किया गया । 1949 के दिसंबर माह में एक नामशूद्र बस्ती पर कम्युनिस्टों की
खोज में पुलिस ने छापा डाला । झगड़े में एक पुलिसवाला मारा गया । दो दिन बाद पुलिस
और स्थानीय गुंडों ने मिलकर 22 नामशूद्र गाँवों पर हमला कर दिया । इसकी
प्रतिक्रिया में कलकत्ते और हावड़ा में दंगे शुरू हुए जिनके चलते मुस्लिम समुदाय का
बड़े पैमाने पर पलायन हुआ । फिर इसकी प्रतिक्रिया में पाकिस्तान में हिंसक हमले
शुरू हुए जिनके शिकार नामशूद्र किसान ही हुए । ऐसी स्थिति में 1950 में उन्होंने
पाकिस्तान छोड़ने का फैसला किया । जब उन्होंने मजबूरी में भारत आने का फैसला किया
भी तो भारत आने पर उन्हें शरणार्थी शिविरों में भेजा गया । अब तक वे नामशूद्र के
साथ हिंदू पहचान के संकट झेल चुके थे । अब उन्हें शरणार्थी की एक नई पहचान मिली । शरणार्थी कालोनियों में उनकी समस्याओं को लेकर लगातार आंदोलन
होते रहे । इन आंदोलनों को संचालित करने के लिए उनके स्वतंत्र संगठन भी बने । कुछ
समय बाद जोगेंद्र मंडल भी सरकार से इस्तीफ़ा देकर कलकत्ते आ गए । उनका इस्तीफ़ा
दस्तावेजी महत्व का है और जाति आधारित उत्पीड़न के साथ ही पाकिस्तान में हिंदुओं के
साथ व्यवहार को उजागर करता है । वे भी शरणार्थियों के आंदोलनों में शरीक रहे ।
लेकिन भारत में उन्हें ठोस राजनीतिक जमीन नसीब नहीं हुई ।
कुछ दिन शरणार्थी कालोनियों
में रखने के बाद सरकार ने उन्हें दंडकारण्य भेजने का फैसला किया । दंडकारण्य की
पथरीली जमीन पर उनके लिए रहना मुश्किल था । वे भागकर वापस पश्चिम बंगाल आना चाहते
। अन्न संकट के चलते सरकार उनकी जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहती थी । हारकर ज्यादातर
लोगों ने सुंदरबन के मरिचझांपी नामक द्वीप पर कब्जा कर लिया । मरिचझांपी में शेर
रहते थे, सरकार ने उसे टाइगर रिजर्व घोषित कर दिया और वहाँ
बसे नामशूद्र लोगों से द्वीप को खाली करवाने के लिए वाम मोर्चे की सरकार ने
नरसंहार कराया जिसकी कहानी एक हद तक अमिताभ घोष के उपन्यास हंग्री टाइड में मिलती
है । नामशूद्र समुदाय की यह कहानी विभाजन के साथ जुड़े विस्थापन की ऐसी महागाथा है
जिसकी दूसरी कोई मिसाल मुश्किल है । देश छूटा, भाषा छूटी, कत्लेआम
झेलना पड़ा और जड़ कहीं नहीं जम सकी ।
असल में 1947 में जब
विभाजन हुआ तो अविभाजित बंगाल के विभिन्न समुदायों की तत्काल की मानसिक
प्रतिक्रिया अलग अलग रही थी । कलकत्ते का माहौल पूरी तरह से उत्सवी था । चक्रवर्ती
राजगोपालाचारी नए गवर्नर थे । पश्चिम बंगाल का नवगठित प्रांत तिरंगे झंडों और
गांधी टोपी से पटा था । झंडोत्तोलन के बाद गवर्नर के घर में लोग घुसे और अपने साथ
तमाम चीजें स्मृति चिन्ह के रूप में ले गए । आजादी के इसी उत्साह में पिछले कुछ
महीनों से जारी सांप्रदायिक तनाव खत्म सा हो चला । मुस्लिम और हिंदू हाथों में
झंडे थामे बंदे मातरम से लेकर अल्ला हो अकबर तक के नारे लगा रहे थे । पिछले साल
अगस्त के दंगों में टूटे मंदिरों की मरम्मत के लिए मुस्लिम लोगों ने गांधी को 1001
रुपए चंदा दिया । लेकिन पंद्रह दिन बाद ही सीमा आयोग की अनुशंसा के विरोध में फ़सादात
शुरू हो गए । गांधी जी ने 1 सितंबर से फिर अनशन शुरू किया । इस बार उनके साथ
सुहरावर्दी भी थे । दंगों पर तुरंत रोक लग गई । सात दिन बाद गांधी शांति स्थापित
करने के इरादे से पंजाब के लिए निकले । कुछ छिटपुट घटनाओं को छोड़कर आगामी तीन साल
तक सांप्रदायिक हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं घटी । उसके बाद जो दंगे फूटे उनके चलते
1950 के फ़रवरी और मार्च महीनों में कलकत्ते से ढाका जाने वाली रोजाना की 16 उड़ानों
में भरभरकर लोग भागे । पूर्वी पाकिस्तान में छपी एक खबर के मुताबिक 22 मई तक लगभग
11 लाख मुस्लिम कलकत्ता छोड़ गए । पश्चिम बंगाल की सरकार के मुताबिक अगस्त अंत तक
चार लाख से थोड़ा अधिक लोगों का पलायन हुआ । पूर्वी पाकिस्तान से कलकत्ते आए
शरणार्थियों की कहानी तो सभी जानते हैं लेकिन इस पलायन के बारे में बात नहीं होती
।
बिद्युत चक्रवर्ती ने
बंगाल और असम के हिस्से के विभाजन के सिलसिले में उस समय के लिहाज से त्रासद लेकिन
इस समय के लिए मनोरंजक तथ्य बताए हैं । आजादी के साथ पैदा हुए दोनों देशों के बीच
कोई स्पष्ट प्राकृतिक विभाजक न होने से सीमा तय करने के लिए अंग्रेजी शासन की ओर
से एक आयोग बनाया गया था । बंगाल और पंजाब के इलाकों के लिए अलग अलग आयोग बने । इन
दोनों आयोगों के अध्यक्ष एक ही व्यक्ति थे जो पहले कभी भारत नहीं आए थे । इस काम
के लिए उनके पास महज सात हफ़्ते का समय था । मुस्लिम लीग और कांग्रेस ने आयोग के
समक्ष अपने अपने दावे पेश किए । इस आयोग को धार्मिक आधार के अतिरिक्त रेल और सड़क
परिवहन की सुविधा का भी ध्यान रखना था । बहरहाल आयोग के प्रस्ताव को 15 अगस्त से पहले
प्रकाशित होना था ताकि परेशानी कम हो ।
लेकिन हुआ यह कि बंगाल के
हिस्से के बँटवारे की योजना के बारे में आयोग के अध्यक्ष को भारी आशंका थी इसलिए
उसका प्रकाशन विभाजन के दो दिन बाद 17 अगस्त 1947 को हुआ । इसके चलते बहुत सारे
क्षेत्रों में लोगों को अपने तयशुदा मुल्क के बारे में भारी भ्रम बना रहा । मंटो
की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ में पंजाब की ओर के पागलखाने
में रहने वाले पागल समझ नहीं पा रहे थे कि बिना कहीं गए वे दूसरे मुल्क में कैसे
पहुँच सकते हैं । इससे परेशान होकर एक पागल पेड़ पर चढ़ गया और नीचे का मुल्क
निश्चित होने पर ही उतरने की जिद कर बैठा । पंजाब में तो पागलखाने की यह हालत थी लेकिन
बंगाल में यही असलियत थी । माल्दा जिले में 12 अगस्त से 15 अगस्त इसके देश को लेकर
भ्रम बना रहा था । 14 अगस्त तक कचहरी पर पाकिस्तानी झंडा फहराता रहा था । तीन दिन
बाद वह भारत में आया । नदिया में तो एक साल बाद तक अफवाह रही कि खुलना के बदले
नदिया और मुर्शीदाबाद पाकिस्तान चले जाएंगे । नेताओं ने इस अदला बदली के लिए दबाव
भी बनाया लेकिन अंग्रेज राजी नहीं हुए । सीमारेखा की अस्पष्टता के चलते नेहरू और
लियाकत खान ने सीमा विवादों के निपटारे के लिए एक स्वीडिश जज की सदारत में ट्रिब्यूनल
गठित किया । इसे मुर्शीदाबाद और राजशाही जिलों के बीच सीमा तय करनी थी जो माथाभांगा
नदी की धारा बदलने के चलते गड़बड़ाती रही थी ।
वर्तमान दक्षिणी असम का एक
हिस्सा भी विवादग्रस्त था ।
इस समय सिलचर
नाम का जो जिला
है वह सिलहट
का अलग हुआ
हिस्सा है । सिलहट में 1947 में
वहाँ जनमत संग्रह
कराया गया ताकि
जाना जा सके
कि उसे भारत
के असम में
रहना है या पाकिस्तान जाना है । जनमत
संग्रह के सिलसिले
में तमाम आरोप
प्रत्यारोप लगे । जिले
में मुस्लिम आबादी 60% थी
। उत्तरी हिस्से
में मुस्लिम आबादी
केंद्रित थी जबकि
दक्षिणी सिलहट में
हिंदू आबादी का घनत्व अधिक था । इसी
इलाके के चाय
बागानों में संयुक्त
प्रांत से आए श्रमिक काम करते थे ।
मानसून में बारिश
के कारण जनमत
संग्रह में लोगों
की भागीदारी मुश्किल
थी लेकिन अंग्रेज 15 अगस्त की तारीख को आगे
खिसकाने के लिए
तैयार नहीं थे ।
जनमत संग्रह की प्रक्रिया पूरी होने और परिणाम तैयार होने
में भी समय
लगना था । इसलिए
6 और 7 जुलाई को जनमत
संग्रह कराया गया
। जनमत
संग्रह से पहले के प्रचार अभियान में दोनों समुदायों की ओर से पर्याप्त
सांप्रदायिक विषवमन हुआ । पहले
दिन तमाम गड़बड़ियां
हुईं लेकिन दूसरे
दिन कुछ व्यवस्था
कायम हुई । मतदान पेटियों को सुरक्षित सिलहट ले जाने के लिए
पुलिस के मुकाबले फौज की सहायता ली गई । वायसराय को परिणाम घोषित करना था, उसे
फिलहाल गुप्त रखना था इसलिए गिनती के समय कांग्रेस या लीग के लोगों को दूर रखा गया
। परिणाम बहुत कुछ आबादी की धार्मिक बहुसंख्या के अनुसार ही था । मुस्लिम
बहुसंख्यक क्षेत्रों ने पूर्वी पाकिस्तान जाने के पक्ष में मतदान किया था । पूरे
सिलहट के एक छोटे से इलाके को छोड़कर समूचा जिला पूर्वी पाकिस्तान को गया । नेहरू
ने नतीजों को स्वीकार कर लिया । विभाजन के पूरे इतिहास में जनमत संग्रह का यह
अकेला और अल्पज्ञात प्रकरण है । इससे यह भी पता चलता है कि लोगों की मर्जी जानने
के लिए जनमत संग्रह कोई नई मांग नहीं है,
एक बार पहले भी इसका इस्तेमाल हो
चुका है ।