2011 में पी एम
प्रेस से साशा लिली की किताब ‘कैपिटल ऐंड इट्स डिसकांटेन्ट्स:
कनवर्सेशंस विथ रैडिकल थिंकर्स इन ए टाइम आफ़ ट्यूमल्ट’ का प्रकाशन हुआ । इसमें लेखिका ने विभिन्न विद्वानों के किसी कार्यक्रम
हेतु लिए गए साक्षात्कारों को किताब की शक्ल दी है लेकिन किताब के लिए इन
विद्वानों ने अपने साक्षात्कारों को सुधारा भी है । भूमिका के अतिरिक्त किताब में
संकलित पंद्रह साक्षात्कारों को तीन भागों में बांटा गया है । पहला भाग साम्राज्य,
नवउदारवाद और संकट पर केंद्रित है जिसके तहत एलेन वुड, डेविड हार्वे, लियो पानिच और डूग हेनवुड, डेविड मैकनेली तथा सैम गिनडिन और ग्रेग अल्बो के साक्षात्कार हैं । दूसरा
भाग उपभोक्तावाद, घेरेबंदी और पूंजीवाद के अंतर्विरोधों के
बारे में है । इसमें जान बेलामी फ़ास्टर, जेसन मूर, गिलियन हार्ट और उर्सुला हुव्स के साक्षात्कार संकलित हैं । तीसरा भाग
विकल्पों के बारे में है जिसमें विवेक छिब्बर, माइक डेविस,
तारिक़ अली, जानसान बोनमात्सु, नोम चोम्सकी और अंद्रेज ग्रुबेसिक से बातचीत संकलित है । यह सूची ही बताती
है कि नवउदारवाद के आगमन के बाद उसके विरोधी विचारकों में से लगभग सभी से लिए गए
साक्षात्कार इस किताब में शामिल हैं ।
भूमिका में साशा का
कहना है कि पिछले सालों में पूंजीवादी दुनिया में बहुत उथल पुथल रही । कई बैंक डूबे, कारखानों में स्थायी रूप से ताला
लटक गया और धनी देश भी दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गए । खुले बाजार की
विचारधारा के अंजर पंजर बिखर गए । पूंजीवाद की मौत तो नहीं होनेवाली लेकिन संकट
बेहद गंभीर है । आम तौर पर संकट के समय यथास्थिति को धता बता दिया जाता है और
सामूहिक शक्ति की ऊर्जा से भरकर लोग इसका मुकाबला करने के लिए उठ खड़े होते हैं ।
लेकिन संकट की स्थिति में हमेशा क्रांतिकारी ताकतों को ही बल नहीं मिलता अक्सर चरम
दक्षिणपंथी ताकतें भी संकटग्रस्त जनता के असुरक्षा बोध का लाभ उठाकर उसे विदेशियों
के प्रति नफ़रत और कटौती के लिए सहमति में बदल देती हैं । विरोधाभासी सचाई है कि
पूंजीवाद के संकट पूंजी के विस्तार के लिए नए अवसर हो जाते हैं । तबाही के बाद
अबाध विस्तार का मौका मिल जाता है । विनाश और विस्तार की इस प्रक्रिया में पूंजी
को हथियारों की मदद हमेशा हासिल रहती है । युद्ध, पूंजी के
नवीकरण के अपरिहार्य साथी रहे हैं । प्रकृति का संकट भी पूंजी के ही काम आ रहा है
। पूंजीवाद संकटों को जन्म देता है और संकट मुनाफ़े का मौका मुहैया कराते हैं ।
जहां तक वाम की बात
है तो उसके बारे में मशहूर मजाक है कि वामपंथियों ने अगर दस संकटों की भविष्यवाणी की
तो उनमें से दो ही आए । रोजमर्रा की झंझटों ने सपने देखने का हमारा हौसला छीन लिया
है । क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव की संभावना लंबे समय के लिए सो गई लगती है, उम्मीद बची नहीं और पराजय बोध ने
हमें जकड़ लिया है । कहा जा रहा है कि पूंजीवाद के खात्मे के मुकाबले दुनिया के
खात्मे की बात ज्यादा समझ आने लायक है । सपने और संगठन के मामले में यह संकट अधिक
दुखदायी है । केवल विचारों से वामपंथ की समस्या का समाधान नहीं निकलेगा और क्रांति
सदिच्छा से नहीं होती । लेकिन वामपंथ के त्रासद इतिहास से साबित होता है कि
विचारों का महत्व होता है । वे व्यवहार से पैदा होते हैं और भविष्य के आचरण को
रूपाकार प्रदान करते हैं । जिस दुनिया को हमने बनाया है उसे समझने में हमारी मदद
करते हैं, वर्तमान व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर करते हैं
और उनमें दरार पैदा करके विद्रोह संगठित करने के अवसर सुझाते हैं । सही है कि
मुक्तिकामी राजनीति पिछले तीस सालों से कमजोर पड़ी है लेकिन इसी दौरान महत्वपूर्ण
विचार पनपे हैं । उन्होंने पूंजीवाद की दीर्घजीविता, नवउदारवाद
की टेढ़ी मेढ़ी यात्रा और वाम राजनीति के उतार के बहुमुखी कारणों को समझने की कोशिश
की है ।
संकलनकर्ता को लगता
है कि पूंजीवादी संकट के इस दौर में इन क्रांतिकारी विचारों के सहारे बदलाव की परियोजना
को नई ऊर्जा से भरा जा सकता है । किताब में शामिल चिंतकों में आपसी सहमति नहीं है फिर
भी सीखने के लिए इनके विचारों में काफी कुछ है । इसमें कुछ हद तक राजनीतिक अर्थशास्त्र
है हालांकि इतिहास के लौह नियमों की धारणा को खारिज किया गया है । इन विचारों का काफी
कुछ मार्क्सवाद की आलोचनात्मक परम्परा में अवस्थित है हालांकि जिन विद्वानों के साक्षात्कार
संकलित हैं उनमें से बहुतों को क्रांतिकारी कार्यकर्ता नहीं जानते । असलमें नवउदारवाद, वैश्वीकरण और पूंजीवाद के विरोधी
समकालीन विचारों पर राजनीतिक उदारवाद की छाया है जो पूंजीवाद का मानवीय चेहरा
तलाशता है, छोटे कारीगरों और वैसे ही दुकानदारों की आदर्श
दुनिया कायम करना चाहता है या कभी कभी उद्योगों से पहले के जमाने में लौट जाना
चाहता है । किताब में कोई नुस्खा नहीं मिलेगा बल्कि पूंजीवाद और हमारे आस पास की
दुनिया को समझने के विभिन्न परिप्रेक्ष्य मिल सकते हैं । पूंजीवाद और उसके
विरोधियों का आकलन निराशाजनक होने के बावजूद किताब का निष्कर्ष निराशा नहीं है ।
साशा का कहना है कि
हमें व्यापक मुक्तिकामी मूलगामी बदलाव के लिए महात्वाकांक्षी सोच पैदा करनी होगी ।
किताब में व्यक्त विचार बहुवर्णी हैं लेकिन उनमें एकसूत्रता भी है । उपभोक्तावाद की
चिंता इन्हें आपस में जोड़ती है । पूंजीवादी मुनाफ़े के लिए प्रकृति और मानव श्रम के
संयोग से उत्पादित विभिन्न उपभोग्य मालों का निर्माण आवश्यक है । वर्तमान दौर में उपभोक्तावाद
नए नए क्षेत्रों में पहुंच गया है । हमारे आनुवंशिक गुणसूत्र भी इसकी पकड़ में आ गए
हैं । समूची दुनिया में लोगों को उनकी जमीन और आजीविका से बेदखल करके जिंदा रहने के
लिए बाजार पर निर्भर बना दिया गया है । शहर और देहात में नई नई चीजों को विक्रेय बनाने
के लिए सामुदायिक संपदा और प्रकृति के संसाधनों की घेरेबंदी करके उन्हें जनता से छीनकर
थैलीशाहों को सुपुर्द किया जा रहा है । पूंजी और प्रकृति के संकट का एकमात्र उत्तर
निजी समृद्धि की जगह पर सार्वजनिक प्राचुर्य है ।
2008 में जब
अमेरिका में वित्तीय झटका लगा था तो ढेर सारे वाम चिंतकों को लगा कि नवउदारवाद के
इस कारनामे से पार पाने के लिए राजकीय हस्तक्षेप की वापसी हो सकती है । एक हद तक
बाजार को पीछे हटना पड़ा था और अर्थतंत्र को पटरी पर लाने के लिए राज्य आगे आया था
। लेकिन इस तात्कालिक मुद्रा के भ्रम में पड़कर वे शायद भूल गए कि नवउदारवादी
परियोजना ही वित्तीय हितों की रक्षा के लिए राजकीय हस्तक्षेप का परिणाम थी । सही
बात है कि नवउदारवाद की प्रशस्ति का सुर धीमा पड़ा है लेकिन बाजार के अबाध शासन के
बदले में मानवीय चेहरेवाले पूंजीवाद के आगमन का भ्रम भी टूट चुका है । शासक
कुलीनों द्वारा समाज और प्रकृति के संरक्षण की आशा को कटौती के राज ने चौपट कर
दिया है । फिर भी एक गुट पूंजीवाद को काबू में रखने के लिए युद्धोत्तर कल्याणकारी
राज्य की वापसी की उम्मीदों को जिलाए हुए है । उनका कहना है कि बैंकों और
विनिर्माण क्षेत्र पर नियमों की बंदिश लगाकर 40, 50 और
60 के दशक में राज्य ने कारपोरेट घरानों को रोके रखा था, 70 दशक के उत्तरार्ध में आकर राज्य ने अपने कदम वापस खींचे और बाजार को
छुट्टा छोड़ दिया इसलिए इन्हें आशा है कि पुराने समय में लौटा जा सकता है । सवाल है
कि क्या ऐसा सम्भव रह गया है । साशा का मानना है कि नवउदारवाद की जड़ें 1970
दशक के पूंजीवादी संकट में ही हैं । जिस समय में वाम के कुछ लोग
लौटना चाहते हैं उसमें पश्चिमी दुनिया में पूर्ण रोजगार के साथ कल्याणकारी राज्य
और गरीब देशों में योजनाबद्ध विकास का बोलबाला था । ब्रेटन वुड्स संस्थाओं के चलते
वित्तीय स्थिरता थी जिसे डालर की केंद्रीयता ने मजबूत बनाए रखा था । इस दौर में
पश्चिमी देशों में आर्थिक वृद्धि और गरीब देशों में कुछ विकास हुआ भी । फिर भी
60 दशक के उत्तरार्ध तक कल्याणकारी राज्य प्रणाली में रुकावट आने
लगी । वियतनाम युद्ध और घरेलू मोर्चे पर बढ़ते खर्चों से डालर डगमगाने लगा । उसके
डगमगाने से ब्रेटन वुड्स संस्थाओं में भी अस्थिरता आई । बेरोजगारी बढ़ी तो उसके
चलते मजदूरों में जुझारूपन आया । पारम्परिक ट्रेड यूनियनों की नौकरशाही को तोड़कर
नए संगठन बनने लगे । अकेले 1970 में तीस लाख मजदूरों ने
अमेरिका में हड़तालें कीं । हड़तालें मजदूरी बढ़ाने के साथ साथ उत्पादन पर नियंत्रण
और काम के हालात में बेहतरी के लिए भी हुईं । दूसरी ओर जर्मनी और जापान के
उद्योगों से अमेरिकी उद्योगों को कड़ी टक्कर मिल रही थी । इन सब बातों के चलते
पूंजी का मुनाफ़ा कम होता जा रहा था । दूसरी ओर गरीब देशों में उद्योगीकरण के लिए
राज्य ने आयात विकल्पीकरण की जो नीति अपनाई थी उसके तहत देशी पूंजीपतियों को नए
उद्योग लगाने के लिए राज्य की ओर से आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी । पूंजीपति
सार्वजनिक संसाधन ले तो लेते थे लेकिन जिस मकसद से उसे दिया गया था उसके लिए इस्तेमाल
नहीं करते थे । इसके कारण भारी व्यापार असंतुलन पैदा हुआ । एकांगी व्यापार से
वित्तीय संकट पैदा हुआ और इसके साथ कुलीनों के अंधाधुंध खर्च के कारण नवउदारवादी
विचारों को थोपने में आसानी हुई । इसके बाद तो दुनिया ही बदल गई । वर्ग शक्तियों
की संरचना बदलने के लिए शासक वर्ग ने हमला बोल दिया ताकि मुनाफ़े की गारंटी की जा
सके । चिली में पिनोशे के शासन में निवेशकर्ता बैंकों ने वित्तीय संकट से उबारने
के एवज में तय करना शुरू किया कि किस मद में कितना खर्च होगा । रीगन ने हवाई सेवा
के हड़ताली मजदूरों को एकमुश्त बर्खास्त किया ताकि अधिक वेतन पानेवाले मजदूर भी
अपने आपको सुरक्षित न समझें । थैचर ने खदान मजदूरों की शक्तिशाली यूनियन पर हमला
किया और सरकारी उद्योगों का निजीकरण करना शुरू किया । आर्थिक रूप से कमजोर देशों
ने भी यही राह अपनाई । वहां यह धारणा बनाई गई कि होड़ न होने के कारण सरकारी उद्योग
ठीक से काम नहीं कर रहे हैं । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश और विश्व बैंक से कर्ज
देते समय यह वादा लिया गया कि सरकारी उद्यमों का निजीकरण होगा, सरकारी सेवाओं को खत्म किया जाएगा और अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के लिए बाजार
खोल दिया जाएगा । ट्रेड यूनियनों की ताकत इतनी कमजोर हो चुकी थी कि वे कोई ठोस
प्रतिरोध नहीं खड़ा कर सके । निजीकरण की प्रक्रिया के साथ ही संगठित होने के
मजदूरों के अधिकार पर भी हमला हुआ तथा इसके लिए उत्पादन और श्रम प्रक्रिया की
संरचना में बदलाव किए गए । काम की गति में तेजी, ठेके पर काम,
अस्थायीकरण, मजदूरी में घटोत्तरी, छंटनी और नई तकनीकों के इस्तेमाल के चलते उत्पादन की प्रक्रिया पर मजदूरों
की पकड़ में गिरावट आई । विनिर्माण का काम ऐसे देशों और इलाकों में स्थानांतरित
किया गया जहां यूनियनों की ताकत कमजोर थी । पूंजी के इस चौतरफा हमले के चलते मजदूरों
का शोषण बहुत बढ़ गया । इसी दौर में कामगारों की फौज में भारी पैमाने पर नए मजदूर
शामिल हुए हैं । मजदूर वर्ग के खात्मे की भविष्यवाणी के बावजूद पिछले दशकों में
सर्वहारा की संख्या में अपार बढ़ोत्तरी हुई है । अकेले पूर्वी एशिया में इनकी तादाद
1990 के बाद नौ गुना बढ़ी है । इस बढ़ोत्तरी के कारण मजदूर वर्ग की
मोल तोल की क्षमता में गिरावट आई । नए मजदूरों में स्त्रियों की तादाद बहुत अधिक
है । एक आदमी की आमदनी से घर का खर्च चलने में मुश्किल आने के चलते स्त्रियों को
भी श्रमिक समुदाय में शामिल होना पड़ रहा है । मजदूरों की इस नई फौज में देशों के
भीतर या बाहर प्रवास करनेवाले ऐसे कामगार भी शामिल हैं जिनकी आजीविका के साधन छीन
लिए गए हैं ।
पूंजीवाद के इस नवउदारवादी
दौर में अस्थिरता समाई हुई थी । नवउदारवाद के इस प्रभुत्व के लिए विश्व अर्थतंत्र के
भारी पैमाने पर वित्तीकरण की जरूरत पड़ी । मुद्राओं का मूल्य स्थिर था नहीं इसलिए अंतर्राष्ट्रीय
लेन देन में तमाम तरह की गारंटियों की जरूरत बढ़ गई । जब उथल पुथल शुरू हुई तो अंतर्राष्ट्रीय
मुद्रा कोश के जरिए अमेरिका ने कर्ज लौटाने में अक्षम साबित हो रहे देशों को कर्ज लौटाने
के लिए कर्ज मुहैया कराने की नीति अपनाई । इसके चलते जो पुनर्संयोजन हुआ उससे मुनाफ़ा
तो बढ़ा लेकिन 1990 दशक के
उत्तरार्ध के बाद वित्तीय संकटों का सिलसिला ही शुरू हो गया । पिछले दशक में
वृद्धि की रफ़्तार के धीमा पड़ने और मजदूरी में बढ़ोत्तरी न होने के कारण देशों और
व्यक्तियों को कर्ज लेने पड़े । व्यवस्था को बचाने और अपने वित्तीय हितों की रक्षा
के लिए अमेरिका को प्रत्येक संकट के समय हस्तक्षेप करना पड़ा । देखा गया कि
नवउदारवाद की विचारधारा के मुकाबले व्यावहारिक स्तर पर नवउदारवाद काफी भिन्न चीज
है । बाजार से राज्य का निष्कासन भ्रामक प्रचार है । वामपंथी लोग भी इस प्रचार के
प्रभाव में बाजार और राज्य को आपस में विरोधी के बतौर पेश करने लगते हैं जबकि
अनेकानेक तरीकों से राज्य ने बाजार की मदद की है । कल्याणकारी राज्य भी शासक
वर्गों के लिए न तो नुकसानदेह था, न ही इसने पूंजी के प्रसार
में कोई बाधा खड़ी की । पर्याप्त रोजगार की उपलब्धता के कारण मजदूरों को कुछ अधिकार
हासिल थे जिन्हें सहन करके भी पूंजी ने घाटा नहीं उठाया था । जब हालात बदले तो
बदलाव आना ही था । इसलिए पीछे लौटने की कोई गुंजाइश नहीं बची है ।
किताब में संकलित साक्षात्कार
में पानिच का मानना है कि यह संकट पूंजीवाद का चौथा वैश्विक संकट हो सकता है । 1870 और 1930 दशक के संकटों का नतीजा पूंजीवाद के अंतर्राष्ट्रीय प्रसार में बाधक
संरक्षणवादी उपायों के रूप में सामने आया । इसके विपरीत 1970 दशक का तीसरा संकट पूंजी के अंतराष्ट्रीय प्रसार में परिणत हुआ । कहना
मुश्किल है कि वर्तमान संकट का नतीजा क्या निकलेगा । संकट के बाद नवीकरण की
पूंजीवाद की क्षमता सस्ते श्रम और सस्ते भोजन पर निर्भर रही है । इसके साथ ही
सस्ती ऊर्जा और विक्रेय माल में बदलने लायक सस्ते कच्चे माल की भी जरूरत पड़ती है ।
इसमें नई तकनीक और नई चीजों को हड़पने से मदद मिलती है । ऐसा घटित होने की संभावना
के मामले में विद्वानों में मतभेद है । असल में पूंजीवाद को जिंदा रहने के लिए नई
नई चीजों को लगातार माल के बतौर बाजार में लाना पड़ता है । पूंजीवाद की गतिकी ही नए
मालों और इच्छाओं को पैदा करने की उसकी क्षमता पर आधारित है । बीसवीं सदी में
पूंजीवाद को ऊर्जा ऐसे उत्पादों से मिली जिनकी जड़ें घरेलू स्त्री श्रम में थीं ।
नई नई चीजों को बाजार व्यवस्था के भीतर लाने की इस प्रक्रिया में मुद्रा अर्थतंत्र
से बाहर के उपयोग मूल्यों को आकर्षक विक्रेय माल में बदलने से पहले उन्हें व्यापक
सेवा तंत्र में शामिल किया जाता है । उदाहरण के लिए घर में भोजन बनाने का काम
बाजार में सेवा के बतौर लाया गया और फिर डब्बाबंद भोजन के रूप में उसे माल बना
दिया गया । उपयोग मूल्य को विनिमय मूल्य में बदलने की यह प्रक्रिया अंतहीन है ।
इसी प्रक्रिया में शिक्षा और बच्चों तथा बुजुर्गों की देखभाल का काम भी विनिमय
मूल्य में बदल दिया गया है । सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण और सेना जैसे शुद्ध
सरकारी काम में निजी क्षेत्र के आगमन से संकट के समय पूंजीवाद को जबर्दस्त मदद
मिली है । ये प्रक्रियाएं नस्ल और लिंग संबंधी विभाजनों का पुनरुत्पादन करती हैं ।
कुल मिलाकर दिखाई दे
रहा है कि संकट के समय पूंजी कीन्सीय अर्थशास्त्र की ओर नहीं झुक रही बल्कि उसने सेवाओं
और सुविधाओं में कटौती का रास्ता अपनाया है । शासकों को चूंकि वंचितों के किसी आंदोलन
की आशंका नहीं नजर आ रही इसलिए वे बाजार से वापस जाने के बारे में सोच भी नहीं रहे
हैं । कटौती के भी अपने खतरे हैं लेकिन यह बात सर्वविदित है कि पूंजी जिस तरह संकटों
को हल करती है उससे नए संकटों की राह खुल जाती है । संकट को हल करने का एक रास्ता युद्ध
भी है क्योंकि उससे पूंजीवाद में नई जान आ जाती है लेकिन दुनिया भर में अमेरिका जितने
युद्ध लड़ रहा है उनसे थोड़ा बहुत लाभ होने के बावजूद कोई गंभीर उत्साह नहीं पैदा हो
रहा है । इसके मुकाबले मजदूर वर्ग और गरीबों के विरुद्ध युद्ध से ज्यादा लाभ हो रहा
है ।
संकट से पार पाने के
लिए कटौती का रास्ता अपनाने के चलते कुछ जगहों पर संघर्ष फूटे हैं लेकिन इनका स्वरूप
स्थानीय और प्रतिक्रियामूलक रहा है । नई मुक्तिकामी राजनीति का खाका तैयार करने में
ढेर सारी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है । लड़ाकू यूनियनों पर हमलों, रोजगार की पुनर्संरचना, काम की गति में तेजी, मजदूरी की घटोत्तरी और थोपी
हुई बेरोजगारी ने मजदूर वर्ग में संगठन के हौसले को धक्का पहुंचाया है । सारी
दुनिया में ट्रेड यूनियनों की सदस्यता में गिरावट आ रही है । रोजगार की अस्थिरता
ने मजदूर वर्ग के जुझारूपन को नुकसान पहुंचाया है । मजदूरी में गिरावट के चलते
अधिकाधिक लोग वित्तीय चक्र के भीतर खिंच आए हैं । व्यवस्था के भीतर ही निजी बेहतरी
की उम्मीद ने सामूहिक सामाजिक बदलाव के सपने को पीछे धकेल दिया है । निजीकरण और
उच्च शिक्षा की बढ़ती लागत ने अधिकतर लोगों को कर्जदार बना दिया है । कर्ज पर घर ले
लेने के राजनीतिक प्रभाव का कोई अध्ययन तो नहीं हुआ है लेकिन बैंक का कर्ज चुकाने
के लिए नियमित आमदनी की चिंता ने लड़ाकूपन पर असर डाला जरूर है । यह सोच नई नहीं है
कि अपना घर होने से मजदूर वर्ग के लड़ाकूपन में कमी आएगी और वे यथास्थिति के पक्ष
में चले आएंगे । 1892 में कार्नेगी स्टील ने हड़ताल के समाधान
के बतौर मजदूरी बढ़ाने के बदले घर खरीदने के लिए कर्ज दिया । देखा देखी अन्य
उद्योगों ने भी यही तरीका अपनाया । वर्तमान दौर में घर खरीदने के लिए वित्तीय
लेनदेन में मजदूर वर्ग की घेरेबंदी बहुत अधिक हो चुकी है । ऐसा ब्रिटेन और अमेरिका
दोनों जगहों पर बड़े पैमाने पर हुआ है । जमीन की कीमतों में अनाप शनाप बढ़ोत्तरी की
एक वजह यह भी है । कर्मचारियों के रहने के लिए सरकारी आवास की जिम्मेदारी से सरकार
मुकर गई और उनको गिराकर उन जगहों पर निजी आवास खड़े हो गए । दुनिया भर के शहर
धन्नासेठों के लिए खेल के मैदान हो गए और सामूहिक गतिविधियों के केंद्रों का
कायाकल्प हो गया । बेरोजगारी भत्ते से संगठक कार्यकर्ताओं को आंदोलन चलाने के
दौरान भी खाने पीने की दिक्कत नहीं आती थी । कटौती के राज में ऐसे सभी स्रोत सूख
गए हैं । निजीकरण के साथ ही स्वयं सहायता और निजी जिम्मेदारी की विचारधारा भी
प्रचारित की गई । इन सबका प्रभाव अश्वेत मजदूरों पर सबसे अधिक पड़ा है । कार्यस्थल
और रिहाइश के बीच दूरी तथा काम के घंटे बढ़ने के चलते मजदूरों के पास भी मनोनुकूल
कामों के लिए फ़ुर्सत नहीं बची है ।
इन सबका यह मतलब नहीं
कि इस दौर में प्रतिरोध समाप्त हो गया है । इसी दौर में इराक युद्ध के विरोध में सबसे
बड़े प्रदर्शन हुए हैं । लेकिन समय समय पर फूट पड़नेवाले इन प्रदर्शनों से आगे बढ़कर
इन्हें टिकानेवाले दीर्घकालीन और सुसंगत आंदोलन नजर नहीं आ रहे हैं । इस दौर के
प्रतिरोध नानारूपी हैं । इस दौर के आंदोलनकारियों ने सामाजिक न्याय के साथ
पर्यावरणिक न्याय को भी जोड़ा है और राज्य,
नौकरशाही तथा सामाजिक बंधनों से व्यक्ति की मुक्ति का भी साथ दिया
है । असल में तो व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता के नारे को नवउदारवाद ने उपभोक्ता
द्वारा चुनाव की निजी स्वतंत्रता में बदल दिया है । इसी अर्थ में कुछ लोग बाजार को
मुक्ति का साधन बताते हैं कि समाज द्वारा समरूपीकरण के दबाव का मुकाबला करने के
लिए वह ग्राहक को वस्तुओं का वैविध्य उपलब्ध कराता है । नवउदारवाद और साठ के दशक
के नव वामपंथी विद्रोह के बीच कुछ मेलजोल भी बन गया है । नैन्सी फ़्रेजर का कहना है
कि साठ के दशक के नारीवादी आंदोलन ने स्त्रियों के जीवन को पूरी तरह से बदल दिया
लेकिन 1970 दशक में इसने नवउदारवाद को मदद भी दी । मजदूरी
में गिरावट के चलते एक व्यक्ति के वेतन से घर चलना जब मुश्किल हो गया तो स्त्रियों
का काम करना मजबूरी हो गई । उन्हें ज्यादातर कम मजदूरीवाले सेवा क्षेत्र में काम
मिले । नारीवाद ने रोजगार के बाजार में स्त्री के आगमन का पक्ष लिया और इस तरह
बाजार में प्रवेश के सहारे मुक्ति के भ्रम को सींचा । सही है कि स्त्री को इससे एक
नए तरह की ताकत मिली । घर पर किए जानेवाले काम की कोई पगार नहीं होती थी । साथ ही
उस काम में सामूहिकता नहीं थी । लेकिन उसकी इस नई ताकत को पूंजीवाद विरोधी मुहावरे
में सूत्रबद्ध नहीं किया जा सका और इस प्रक्रिया में बाजार से बाहर के श्रम को
शोषण के चक्र में लाकर पूंजीवाद को ताकत मिली ।
1970 दशक में जब
राजनीति में दक्षिणपंथ का दबदबा बढ़ा तो उसी समय बौद्धिक वाम हलकों में उत्तर
आधुनिकता का चलन हुआ । इसने वर्ग राजनीति और मजदूर वर्ग के प्रति अरुचि को बढ़ावा
दिया । बाद के दशकों में इसका बौद्धिक प्रभाव सर्वव्यापी रहा । इसके उभार का बड़ा
कारण पश्चिमी विश्वविद्यालयों का नवउदारवादी तर्क प्रक्रिया का शिकार हो जाना है ।
इसके जरिए क्रांतिकारी वाम की पराजय की अभिव्यक्ति हुई और इसके साथ ही
उपभोक्तावादी स्वाधीनता भी जाहिर हुई । भारी सदस्यतावाले संगठनों के खात्मे के समय
उत्तर आधुनिकता चरम पर थी । पुराने संगठनों की जगह पर गैर सरकारी नए संगठन बने
जिनकी आय का स्रोत सदस्यों का चंदा नहीं बल्कि कुछ धनी मानी लोगों और संस्थाओं की
खैरात था । इन संगठनों का असर वामपंथी कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा । वर्ल्ड सोशल फ़ोरम
भी आंदोलनों का नहीं, इन्हीं संगठनों का जमावड़ा था । इसका
प्रभाव विरोध जाहिर करने के तरीकों पर भी पड़ा । इस समय वामपंथ या तो केवल वर्तमान
में रहता है या केवल अतीत में । पिछले तीन दशकों के नवउदारवादी माहौल ने बाजार की
कीमियागिरी के सहारे आत्मविकास की जो विचारधारा पैदा की उसने पूंजीवाद के विनाश की
कल्पना को नुकसान पहुंचाया है । दूसरी ओर वर्तमान का विकल्प तलाशते हुए कल्याणकारी
राज्य के सुखद अतीत की शरण ले ली जाती है । वामपंथ की पराजय से उत्पन्न वर्तमान
निराशा और अतीत मोह से मुक्त होकर आगे की ओर देखना आसान नहीं है ।
हम ऐसे समय में रह रहे
हैं जब पूंजीवाद तो संकट में है ही प्रकृति की हालत भी बेहद बुरी है । उम्मीद की जा
सकती है कि टुकड़ों में सुधार की बजाए यह संकट महात्वाकांक्षी कल्पना के लिए प्रेरणा
दे । मानवीय चेहरेवाले पूंजीवाद या अतीत के स्वर्ण युग की चाह के मुकाबले कोई बड़ा सपना
बुना जा सके । चतुर्दिक व्याप्त हताशा के वातावरण में क्षीण आशा का जागरण अप्रत्याशित
नहीं है फिर भी इसका विरोध करना होगा । टुकड़ों में बदलाव की लड़ाई हताशा का उत्तर नहीं
बल्कि इसका महिमामंडन है । व्यक्तिगत स्तर पर लोग यदि नैतिक आधार पर वैकल्पिक जीवन
शैली चुनते हैं तो इसकी प्रशंसा ही करनी होगी । पूंजीवाद के प्रतिरोध की संस्कृति का
निर्माण अच्छी बात है लेकिन ऐसी परियोजनाओं को साध्य नहीं बनाना चाहिए । सामाजिक रूपांतरण
का बड़ा सपना जितना ही कमजोर होगा उतना ही छोटे बदलावों का नैतिक आग्रह बढ़ेगा । जब दुनिया
के मजदूरों ने पुरानी दुनिया के खोल में नई दुनिया बनाने का आवाहन किया था तो इसे वे
व्यापक क्रांतिकारी रूपांतरण समझते थे उपभोक्ता का व्यक्तिगत चुनाव नहीं मानते थे ।
छोटे स्तर के बदलाव पूंजी और श्रम के बीच के सामाजिक संबंधों के लिए चुनौती नहीं पेश
करते हैं । लघु और स्थानीय के प्रति यह अनुराग मध्यवर्गीय रूमान है ।
पूरी दुनिया में आमूल
क्रांतिकारी सपना अवकाश, समता,
बंधुत्व और शांति पर ही आधारित रहा है और उसका सबसे बड़ा लक्ष्य निजी
संपत्ति का उन्मूलन और संपदा का पुनर्वितरण माना गया है । जिन सपनों का दुखद अंत
हुआ उनकी समीक्षा होनी चाहिए लेकिन यह मानना मुश्किल है कि व्यापक रूपांतरण वाली
क्रांति ही काम की नहीं रही । मुक्तिकारी समाजवाद का स्वप्न आज भी प्रासंगिक है ।
सामाजिक व्यवस्था के रूप में पूंजीवाद की समझदारी के लिए मार्क्सवादी राजनीतिक
अर्थशास्त्र कारगर हथियार है । प्रथम इंटरनेशनल के बिखराव से पहले का समाजवादी
विचार इक्कीसवीं सदी के पूंजीवाद विरोधी वामपंथ के लिए प्रेरणास्रोत है । किसी भी
विश्वसनीय पूंजीवाद विरोधी परियोजना के केंद्र में निजी संपदा की जगह पर सार्वजनिक
प्राचुर्य का विचार रहेगा । इस पर अमल करने से जो शहर पर्यावरणिक प्रदूषण के स्रोत
बने हुए हैं वे ही टिकाऊ पारिस्थितिकी का केंद्र हो जाएंगे । भौतिक और मानसिक श्रम
के बीच विभाजन को खत्म करना भी इस सपने का अंग रहेगा । शहर और देहात के बीच तथा
प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंधों का पुनर्संयोजन भी आवश्यक होगा । इसी तरह काम और
अवकाश के बीच भी नया रिश्ता कल्पित करना होगा । पूंजीवाद तो अपने तईं और भी कठिन
तथा अस्थिर दिनों में प्रवेश करेगा । उसके विक्षुब्धों को अपने सामूहिक भविष्य का
फैसला खुद करने की क्षमता अर्जित करनी होगी ।