Thursday, February 23, 2017

नवउदारवाद की समझ

                      
                                        
2016 में रटलेज से सिमोन स्प्रिंगेर, कीन बिर्च और जूली मैकलीवी के संपादन मेंद हैन्डबुक आफ़ नियोलिबरलिज्मका प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अलावे किताब के सात भाग हैं । पहले भाग में इसकी पैदाइश से संबंधित लेख हैं । दूसरे भाग में इसके राजनीतिक निहितार्थ का विवेचन है । तीसरा भाग इससे उत्पन्न सामाजिक तनावों के बारे में है । चौथे भाग में ज्ञान के उत्पादन के नए तरीकों का विश्लेषण किया गया है । पांचवां भाग उन जगहों के बारे में है जिन्हें नव उदारवाद ने नई प्रतिष्ठा दी है । छठवां भाग प्रकृति और पर्यावरण के साथ इसके रिश्तों की छानबीन है । आखिरी सातवां भाग इसके उपरांत को समझने की कोशिश को समर्पित है । कुल तिरेपन लेखों का यह संग्रह अपने आपमें नवउदारवाद की समझ के लिए जरूरी और पर्याप्त ग्रंथ बन जाता है । इसमें शामिल लेखकों की सूची से हमें नवउदारवाद के बारे में सोचने समझने वालों का पता चलता है । संपादकों के अनुसार नवउदारवाद पिछले दो दशकों में सामाजिक विज्ञानों में सामने आने वाली सबसे चर्चित धारणा रही । इसके गतिविज्ञान ने सामाजिक रूपांतरण के नए क्षेत्र खोले हैं । अब तक इसके बारे में जो भी किताबें छपीं उनमें इसके किसी एक सैद्धांतिक या व्यावहारिक पहलू की बात की जाती थी । इस किताब में अंतर अनुशासनिक और वैश्विक परिप्रेक्ष्य अपनाया गया है । देखने की कोशिश की गई है कि विभिन्न संदर्भों में नवउदारवाद ने किस तरह काम किया और विभिन्न सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से जुड़े समाज वैज्ञानिकों ने उसे किस तरह समझा । इसमें नवउदारवाद के बारे में मौजूदा और उदीयमान बहसों का जायजा लिया गया है । पिछले दो दशकों में नवउदारवाद अनेकानेक रूपों में प्रकट हुआ है । वह एक विचारधारा है, खास किस्म की सरकारी मशीनरी है, नीति और कार्यक्रम है, ज्ञान मीमांसा है तथा शासन-प्रशासन का विशेष संस्करण भी है । इसके इर्द गिर्द नगर, लिंग, नागरिकता, विमर्श, जैव प्रौद्योगिकी, यौनिकता, श्रम, विकास, प्रवास, प्रकृति, नस्ल, अस्थायित्व और हिंसा जैसी धारणाओं को व्याख्यायित करने की चेष्टा हुई है । अकादमिक दुनिया के बाहर व्यावहारिक राजनीति करने वालों को भी राजनीति और आंदोलन को इसकी शब्दावली के अनुरूप अपने आपको ढालना पड़ा है ।
न्यूनतम बात यह है कि जब भी हम नवउदारवाद का नाम लेते हैं तो आम तौर पर हमारा मतलब समाज के उन नए राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूपों से होता है जिनका जोर बाजार के साथ रिश्तों, राज्य की भूमिका में फेरबदल और राज्य के कर्तव्यों की वैयक्तिक जवाबदेही पर होता है । ज्यादातर विद्वान मानते हैं कि अर्थतंत्र, राजनीति और समाज समेत जीवन के सभी पक्षों में बाजारी प्रतियोगिता के विस्तार के रूप में नव उदारवाद को परिभाषित किया जा सकता है । इस प्रक्रिया के लिए लोगों में खास तरह के मूल्यों और सामाजिक व्यवहार की जड़ जमा देना जरूरी है । स्थानीय स्तर के शासन में यदि यह व्यवहार नत्थी हो जाए तो नवउदारवाद की चतुर्दिक उपस्थिति का अहसास होता है । ढेर सारी सरकारी परियोजनाओं, नीतियों और सामाजिक राजनीतिक सपनों में नवउदारवादी विचारों की प्रतिध्वनि मिलती है । इस निगाह से देखने पर नवउदारवाद राजकीय और भूगोल में स्थिर नीति होने के विपरीत निरंतर गतिमान और परिवर्तनशील परिघटना के बतौर महसूस होगी । लेकिन इसी वजह से उसे ठीक ठीक परिभाषित करने में बाधा भी आती है । शायद नवउदारवाद इतना अस्पष्ट है कि इसके प्रतिमान और विशेष रूपों के बीच के अंतर्विरोध को पाटना असंभव है ।
संपादकों का कहना है कि इस किताब का मकसद नवउदारवाद के अर्थ के बारे में, खासकर उसके प्रभावों और भुक्तभोगियों के अनुभव के मामले में बहस को खत्म करना नहीं है । किताब में शामिल एक लेखक के मुताबिक बौद्धिक, प्रशासनिक और राजनीतिक दुनिया में संघर्ष और सहयोग की ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न विचार प्रणाली का नाम नवउदारवाद है । इसकी उलझन भरी सच्चाई के साथ संबद्ध विमर्श और राजनीति लगातार जन समुदाय का पुनर्निर्माण कर रही है । इसे एकाश्मीय और पूर्ण परियोजना मानकर इसका अध्ययन करना संपादकों को सही नहीं लगता । उनको लगता है कि इसका जन्म हाशिए पर एक काल्पनिक विचार के बतौर हुआ । इसके बाद ढेर सारी असफल शुरुआतों और कुछेक धक्कों के बाद समय बीतने के बाद ही यह स्थापित सिद्धांत के रूप में उभर सका । समकालीन नवउदारवादी नुस्खों वाले जो विचार और नीतियां इस समय चलन में हैं वे महज साठ साल पहले दूसरे विश्व युद्ध के खात्मे के बाद अकल्पनीय लगती थीं । उस समय उत्तरी गोलार्ध कीन्स के अर्थशास्त्र पर लहालोट था और नाज़ियों के चलते दक्षिणपंथ की कोई बात भी नहीं करता था । इसके चलते भी नवउदारवाद का वर्तमान दबदबा आश्चर्यजनक लगता है । किताब में नवउदारवाद का इतिहास देखने का प्रयास किया गया है । इसके लिए माना गया है कि नवउदारवाद का किसी खास उद्देश्य से जन्म हुआ और इसीलिए इसका जुड़ाव पिछली सदी के प्रभावशाली चिंतकों, राजनेताओं और नीति निर्माताओं के समूह विशेष के साथ रहा है । इस समूह के लोगों ने दावा किया कि मानव जीवन के विभिन्न मसलों के प्रबंधन हेतु बाजार सबसे अधिक सक्षम और नैतिक स्थान है । सामाजिक व्यवस्था के उत्पादन, प्रोत्साहन और रक्षण के प्राथमिक उपाय के बतौर यह शेष सभी संस्थाओं की जगह आ विराजेगा । किसी भी सामूहिक योजना के मुकाबले इसे अधिक कारगर और मुक्तिकारी संस्था बताया जाने लगा ।
नवउदारवाद को समझने के लिए इसे किसी एक चिंतन के साथ जोड़ने की बजाय इसके जटिल भूगोल, विविध बौद्धिक इतिहासों और बहुस्तरीय राजनीतिक निहितार्थों को समझना होगा । इसी जटिलता के कारण यह एक दशक से बौद्धिक दुनिया में टिका हुआ है । किताब में इसके बाजार आधारित तर्क से पैदा प्रभावों को समझने की नाना कोशिशों को परखा गया है । संपादकों की इच्छा नवउदारवाद की प्रारम्भिक जानकारी मुहैया कराना तो है ही वे जानकारों को नई अंतर्दृष्टि भी उपलब्ध कराना चाहते हैं । संपादक इस बात पर जोर देते हैं कि किताब के लेखों को जिन अलग अलग भागों में संयोजित किया गया है वे आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं ।
सबसे पहले भाग में नवउदारवाद के जन्म पर विचार करते हुए पाठक के सामने तमाम तरह के अर्थतंत्रों, सामाजिक संदर्भों, नीति संबंधी पर्यावरण और संस्थागत स्थितियों में इसके आरम्भिक रूप ग्रहण और सामयिक बढ़त का विस्तार से परिचय प्रस्तुत किया गया है । दूसरे भाग में पाठकों का ध्यान इसके राजनीतिक निहितार्थों की ओर खींचा गया है । नवउदारवाद और तानाशाही के बीच रिश्ता स्पष्ट है । इस राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था के निर्माण और संचालन के लिए लोकतांत्रिक दबावों से सुरक्षित राज्य निर्देशित दमन आवश्यक है ताकि समता और भागीदारी की ओर किसी भी प्रगति पर रोक लगाई जा सके । नए राजनीतिक माहौल में कारपोरेट घरानों को तो पूरी आजादी है लेकिन व्यक्ति के लिए आजादी की भारी कमी है । संगठित होने के अधिकार को तो अधिकार ही नहीं समझा जा रहा । लगता है मानो नवउदारवादी आजादी का झंडा लोकतंत्र पर हमला करने के लिए उठाया गया हो । हिंसा के साथ इसका रिश्ता इतना गहरा है कि नवउदारवाद ही खास तरह की हिंसा महसूस हो रहा है । दुनिया के अनेक भागों में नवउदारवाद का परिणाम शांति और समृद्धि की जगह मारकाट और खून खराबा निकला । इसी के साथ मीडिया भी जुड़ा हुआ है । मीडिया संघर्ष और टकराव का महत्वपूर्ण क्षेत्र बन गया है । आंदोलनों को लगातार इसके भीतर अपनी उपस्थिति के लिए तो लड़ना पड़ता ही है, संचार, अभिव्यक्ति और गोलबंदी के लिए इसके इस्तेमाल को सीखना पड़ रहा है । इसके बाद सामाजिक तनावों पर ध्यान दिया गया है । हालांकि सामाजिक और राजनीतिक के बीच भेद करना ठीक नहीं होता लेकिन संपादकों को सामाजिक तनावों के बारे में अलग से विचार करना उपयोगी लगा । इसमें नस्ल, लिंग, वर्ग और यौनिकता जैसी पहचान की प्रमुख कोटियों के साथ नवउदारवाद की अंत:क्रिया के विश्लेषण के साथ ही स्वास्थ्य, समाज कल्याण और दंड प्रणाली पर नवउदारवाद के प्रभाव का विवेचन किया गया है । लिंग और यौनिकता के प्रसंग में मानव शरीर की समझ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और इसी के साथ सेहत को बाजार के हवाले कर देने का नवउदारवादी अभियान विचारणीय हो जाता है । बाजार का आगमन समाज कल्याण की सरकारी जिम्मेदारी में बदलाव से जुड़ा हुआ है । बाजार के ही तर्क ने श्रम को खरीद बिक्री लायक वस्तु बना दिया है । वैचारिक समर्थन हासिल करने के लिए बताया जाता है कि श्रम संबंधों में बाजार आधारित दमन होता ही नहीं, दमनकारी हस्तक्षेप तो सरकारों और सरकारी ट्रेड यूनियनों की ओर से किया जाता है । इससे श्रम बाजार में नियम कानून लागू करने में बाधा पैदा की जाती है और सामूहिक सौदेबाजी को उत्पीड़न की तरह पेश किया जाता है । इसके बाद संपादकों ने नवउदारवाद को खास तरह की ज्ञान मीमांसा की तरह देखने वाले विचारों को प्रस्तुत किया है । अपनी मजबूती के लिए इसने मनुष्य को महज आर्थिक अस्तित्व की तरह समझने वाली चिंतन प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है । खुद को व्यवसायी मानने के लिए सबको प्रोत्साहित किया जा रहा है । शिक्षा को भी मानव संसाधन का नाम देना बिना किसी कारण नहीं हुआ है । अर्थशास्त्र को वित्तीय ज्ञान तक सीमित किया जा रहा है और इसकी व्यापक मान्यता के लिए वाणिज्य और प्रबंधन की शिक्षा पर ढेर सारा निवेश होता है ताकि नवउदारवादी विचारों का पुनरुत्पादन होता रहे । विज्ञान और नवीनता को भी इसी की सेवा में लगा दिया गया है । निर्माण या उत्पादन आधारित अर्थतंत्र की जगह ज्ञान आधारित अर्थतंत्र भी इसका ही एक रूप है । विभिन्न उपायों के जरिए नवउदारवाद ने विज्ञान को विक्रेय माल में बदल दिया है । जगहों से संबंधित प्रकरण में प्रमुख तत्व नव उदारवाद की ओर से वर्तमान को नागर युग में बदल देना है । इस नवउदारवाद के विमर्श में शहर नई पहचान के साथ सामने आए हैं । वे उदारीकरण की नई जनांकिकीय और आर्थिक शक्ति के रूप में उभरे हैं । इसके जरिए आधुनिक पूंजीवादी समाजों का पुनरुत्पादन हो रहा है । साथ ही ग्रामीण जीवन और कृषि क्षेत्र में बुनियादी बदलाव लाए जा रहे हैं । इनका प्रतिरोध भी हो रहा है । देशों के भीतर चलने वाली यही प्रक्रिया वैश्विक स्तर पर भी चल रही है । वर्तमान आर्थिक शक्ति के केंद्र और परिधियों के बीच रिश्तों का उसी तरह पुनर्गठन हो रहा है जिस तरह शहरी और ग्रामीण इलाकों के बीच के संबंधों का । असमान विकास का एक समूचा पैटर्न उभरकर सामने आया है । अफ़गानिस्तान और इराक पर अमेरिकी हमलों और आस पास के मुल्कों पर मानव रहित ड्रोन हमलों ने इस पैटर्न को भीषण हिंसा की शक्ल दे दी है । प्रकृति और पर्यावरण के साथ नवउदारवाद के रिश्ते में शत्रुता अधिक नजर आ रही है । प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण ऐसी स्थिति आ गई है कि उसके वर्णन के लिए एन्थ्रोपोसीननामक एक नई धारणा की जरूरत पड़ी । वैज्ञानिकों का कहना है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से मनुष्य की हरकतें ही अब पर्यावरणिक बदलावों का प्रमुख कारण बन गई हैं । प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच और उनके उपयोग के मामले में नवउदारवादी नीतियों का ही दबदबा है । इसके तहत ऐसे नियम कायदे बनाए जा रहे हैं जिससे संसाधनों के दोहन में सुभीता हो, इनका निजी और स्वैच्छिक प्रशासन हो तथा पर्यावरणिक समस्याओं के बाजार आधारित समाधान की रफ़्तार तेज हो सके । इस दौर में पर्यावरण को समाज के विरोध में समझा और समझाया  जा रहा है । ऊर्जा के साधनों के अतिरिक्त दोहन के शिकंजे में पानी और हवा जैसे तत्व भी आते जा रहे हैं । इसी के साथ खेती भी लगातार कारपोरेट हमले का शिकार हो रही है । इसके बाद किताब में इस जकड़बंदी से बाहर निकलने के रास्तों पर विचार किया गया है । इस प्रसंग में संपादकों का बल सामूहिक जीवन को संगठित करने के विविधतापूर्ण और वैकल्पिक तरीकों को खोजने पर है । नवउदारवाद के बाद का समय भी उसी समय की हलचलों से रूपायित हो रहा है । इसके लिए वित्तीय संकट की निरंतरता का उदाहरण ही पर्याप्त है ।

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