2014 में पालग्रेव मैकमिलन से अगस्त एच निम्ज़ की किताब ‘लेनिन’स एलेक्टोरल स्ट्रेटेजी फ़्राम मार्क्स ऐंड एंगेल्स
थ्रू द रेवोल्यूशन आफ़ 1905: द बैलट, द स्ट्रीट्स- आर बोथ’
का प्रकाशन हुआ । भूमिका में लेखक ने बात यहां से शुरू की है कि रूसी
क्रांति दुनिया की पहली और अकेली क्रांति है जिसमें संसद में भागीदारी का इस्तेमाल
मजदूर वर्ग द्वारा राजसत्ता पर कब्जे के लिए किया गया । आज भी जो लोग सड़क और संसद के
झमेले में उलझे रहते हैं उनके लिए लेनिन के क्रांतिकारी संसदवाद का महत्व असंदिग्ध
है । लेखक ने चार बातें जोर देकर कही हैं । पहली तो यह कि क्रांति के लिए चुनाव और
संसद का इस्तेमाल लेनिन से अधिक कुशलता के साथ किसी और ने नहीं किया । इसके लिए उन्होंने
लेनिन के समस्त प्रकाशित लेखन में से 1906 से लेकर प्रथम विश्व
युद्ध तक गठित चार ड्यूमाओं में रूसी सामाजिक जनवादी लेबर पार्टी को प्रदत्त नेतृत्व
समेत सभी चुनावी गतिविधियों का सार प्रस्तुत किया है । यह काम आसान नहीं था क्योंकि
किसानों के अलावे अन्य किसी विषय पर लेनिन ने उतनी कलम नहीं चलाई जितनी चुनाव पर ।
इसमें आसानी इसलिए हो गई क्योंकि अलग अलग अवसरों पर भी लेनिन ने अपने अधिकतर तर्क दोहराए
हैं । दूसरी यह कि सड़क और संसद संबंधी लेनिन की नीति की जड़ें मार्क्स और एंगेल्स की
राजनीति में हैं । उनके तर्कों के मूल मार्क्स और एंगेल्स की समझ में निहित हैं । मार्क्स
के बारे में ज्यादातर लेखन में उनकी चुनाव संबंधी समझ पर बात नहीं की जाती लेकिन लेखक
को उनका यह पहलू भी बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ । लेनिन के बारे में भी कुछ कम नहीं
लिखा गया लेकिन मार्क्स-एंगेल्स के चुनाव संबंधी चिंतन में लेनिन
की राजनीति की जड़ तलाशने वाली कोई किताब लेखक को नहीं दिखी । इस सिलसिले में लेखक का
दावा है कि लेनिन की पीढ़ी में दूसरा कोई भी लेनिन से अधिक मार्क्स को नहीं समझ सका
था । तीसरी यह कि लेनिन और दूसरे इंटरनेशनल के सामाजिक जनवादियों के बीच विभाजन प्रथम
विश्व युद्ध शुरू होने से पहले ही चुनाव और संसद के इस्तेमाल की सही मार्क्सवादी नीति
के सवाल पर हो चुका था । इसके लिए लेखक ने लेनिन के लेखन को कालक्रमिक तरीके से देखा
और महसूस किया कि लेनिन को पश्चिमी यूरोपीय मार्क्सवादियों और खुद के बीच असहमति और
भिन्नता की जानकारी अच्छी तरह से थी । इस लेखन को देखने से पता चलता है कि जो औपचारिक
विभाजन प्रथम विश्व युद्ध के आरम्भ में हुआ असल में वह एक दशक से जारी प्रक्रिया की
परिणति था । चौथी कि चुनाव संबंधी लेनिन की नीति के चलते ही 1917 में रूस के अन्य राजनीतिक समूहों के मुकाबले बोल्शेविक आगे निकल सके । यह मार्क्स-एंगेल्स की राजनीति को गहराई से समझने के कारण संभव हुआ । इस अर्थ में रूसी
क्रांति कम्यूनिस्ट आंदोलन के जनक द्वय की राजनीति की निरंतरता में घटित हुई थी । लेखक
ने इन सब बातों का महत्व समसामयिक आंदोलनों के लिहाज से समझा और समझाया है । आज के
अधिकतर आंदोलन सड़क और संसद का संबंध सही ढंग से न समझने के कारण ही अपनी मंजिल तक नहीं
पहुंच पा रहे हैं । जब लेखक किसी को अपनी इस किताब की विषय वस्तु के बारे में बताते
थे तो लोगों को विश्वास नहीं होता था । लेनिन की छवि इस तरह की नहीं है कि उनकी चुनाव
संबंधी रणनीति को गंभीर चीज समझा जाए । इस छवि को बनाने में उनके दुश्मनों से कम योगदान
उनके दोस्तों का नहीं है । लेनिन के नाम पर एक सदी तक जो कुछ हुआ दुश्मन तो उसका इस्तेमाल
लेनिन की मूर्ति पर कोलतार पोतने के लिए करते ही हैं । उनकी मृत्यु के बाद विकसित नौकरशाही
की जिम्मेदारी भी जान बूझकर उन्हीं पर डाल दी जाती है । लेकिन एक दशक तक का लेनिन का
चुनाव और संसद संबंधी लेखन और क्रियाकलाप उनके दुश्मनों के लिए काफी असुविधाजनक है
इसलिए भी उनके इस पहलू पर कम बात की जाती है ।
इस क्रम में लेखक ने इस तथ्य को उभारना जरूरी समझा है कि चुनाव
के बारे में सही मार्क्सवादी नीति को सूत्रबद्ध करने के लिए लेनिन को रूसी उदारपंथियों
से लड़ना पड़ा था क्योंकि वे मजदूरों और किसानों को अपनी क्रांति विरोधी राजनीति के पक्ष
में लामबंद करने की कोशिश करते थे । चुनाव अभियानों के दौरान लेनिन लोकतंत्र और उदारपंथ
के बीच अंतर करने पर बल देते थे । रूसी उदारपंथ की इस तीखी आलोचना के चलते भी उदारपंथी
कतारों में उन्हें बहुत अच्छी नजर से नहीं देखा जाता । 1848-49 में यूरोपीय उदारपंथ की गतिविधियों की मार्क्स द्वारा की गई आलोचना से लेनिन
को इस राजनीतिक प्रवृत्ति के प्रति रुख तय करने में मदद मिली थी । लेखक को यह किताब
लिखने की प्रेरणा कुछ लोगों की इस मान्यता से मिली कि अल्पसंख्यक होने के कारण मजदूर
वर्ग की पार्टियों को अन्य सामाजिक तबकों की पार्टियों के साथ अनिवार्य रूप से समझौता
करना पड़ता है, इसके लिए उन्हें पश्चिमी यूरोपीय सामाजिक जनवादियों की तरह अपनी मांगों
को कुर्बान करके सुधारवादी राजनीति करनी पड़ती है । इसी समझ और मान्यता के प्रतिवाद
के रूप में लेखक ने चुनाव संबंधी बोल्शेविक नीति की छानबीन की है । लेनिन ने भी ऐसे
तर्क सुने थे लेकिन उनके सामने झुके नहीं ।
चुनाव के सिलसिले में लेनिन ने जिन सवालों पर विचार किया वे
हैं- अलोकतांत्रिक चुनावों में भाग लिया जाए या उनका बहिष्कार किया जाए,
चुनाव अभियान कैसे चलाया जाए, चुनाव में गठबंधन
किया जाए या नहीं, चुने हुए प्रतिनिधियों को पार्टी के प्रति
जवाबदेह कैसे बनाया जाए, सशस्त्र संघर्ष के साथ चुनावी राजनीति
का संतुलन कैसे बिठाया जाए और सबसे आगे बढ़कर मजदूर-किसान संश्रय
यानी बहुसंख्यक क्रांतिकारी गठबंधन बनाने के लिए चुनावी/संसदीय
प्रक्रिया का किस तरह इस्तेमाल किया जाए । इस समूची प्रक्रिया में पार्टी की अंदरूनी
बहसों की छाया बनी रही । इन बहसों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक जनवाद की क्रांतिकारी
और सुधारवादी धाराओं के बीच विभाजन का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है । यह विभाजन रूस में
क्रांति की पहली कोशिश, उसमें हासिल पराजय, क्रांतिकारी गतिविधियों के पुनरुत्थान और प्रथम विश्व युद्ध के शुरू होने तक
लगातार बना रहा । युद्ध छिड़ने पर ड्यूमा के बोल्शेविक प्रतिनिधियों को युद्ध के बारे
में उनकी राय के चलते गिरफ़्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया । फ़रवरी क्रांति
के बाद लेनिन ने अक्टूबर में राजसत्ता दखल हेतु सशस्त्र विद्रोह के लिए सही समय चुनने
और बोल्शेविकों की ताकत तौलने में चुनाव संबंधी एक दशक के अनुभव का लाभ उठाया । तथ्यों
से सिद्ध होता है कि अक्टूबर क्रांति में बोल्शेविक नेतृत्व की सफलता के पीछे भी चुनाव
संबंधी मार्क्स-एंगेल्स की समझदारी का योगदान था । पूरी किताब
में लेखक ने कोशिश की है कि पाठक को लेनिन की आवाज सुनाई पड़े, लेखक की व्याख्या नहीं ।
किताब के लेखन का समय लेखक के ध्यान में हमेशा बना रहा है । 2010 में
दुनिया के अलग अलग मुल्कों में उठा तूफान तीन दशकों की भारी चुप्पी के बाद आया है ।
इस तूफान का मेल 250 साल पुरानी पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में
पैदा हुए सबसे गंभीर संकट के साथ हो गया है । इसमें उठान और गिरावट के दौर आएंगे लेकिन
1905 में 35 साला लेनिन की तरह ही इस समय के जिम्मेदार
नेताओं को अपने अनुभवों से सीखना होगा । लेखक ने यह किताब भविष्य के इन्हीं लेनिनों
को समर्पित की है इस उम्मीद के साथ कि वर्तमान समय ऐतिहासिक साबित होगा ।
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