गोपाल प्रधान
मैं आंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी पढ़ाता हूँ और उस नाते से मुझे ये जरुरी लगा कि
मैं यहाँ आकर बोलूं क्यूंकि हमारे जो वर्तमान शासक हैं वे अपने आप को हिंदी का पक्षधर
मानते हैं. इसलिए भी मुझे लगा कि हिंदी
क्या है, उसका किस
तरह से इस्तमाल हमारे शासकों द्वारा किया जा रहा है उसके परिप्रेक्ष्य में अपनी बातें रखूं. आपलोगो
को पता चला होगा कि आजकल सरकार की तरफ से ढेर सारी योजनायें चल रही हैं. उसमें स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया आदि हैं, लेकिन भारत कहीं नहीं है उसमें. तो सबसे पहली बात तो यही है
कि यह जो हिंदी अनुराग है वर्तमान शासन का, वह तो है ही नहीं. वह कुल
मिलाकर नव-उपनिवेशीकरण या फिर से उपनिवेश बनाने के लिए एक जुमले की तरह धोखा
देने के लिए हिंदी का
इस्तमाल हो रहा है. इसलिए भी मैं हिंदी और विशेष रूप से साहित्य के पक्ष से अपनी
बात रखने आया हूँ क्यूंकि यह जो साहित्यकारों की दुनिया है और जिसने स्वाभाविक रूप
से, वर्तमान दौर में जब घुटन बढ़ने
लगी तो साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने इस माहौल में बाकायदे एक सामाजिक व्यक्तित्व की
तरह से हस्तक्षेप किया.
जेएनयू पर जो हमला है उसके
बारे में एक चीज
मैं गहराई से मानता हूँ और वह यह कि जो तीन बुद्धिजीवियों की हत्या हुई, गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर, और एम् एम् काल्बुर्गी, उन हत्याओं का यह विस्तार है जो
जेएनयू पर आक्रमण हुआ है. क्यूंकि ये साहित्यकार लोग थे और इनकी हत्या की गई एक बुद्धि विरोधी वातावरण बनाने के लिए.
और उसी हत्या की एक अगली कड़ी है एक संस्था की हत्या करने की
कोशिश. यह जो हत्या करने की कोशिश है यह सिर्फ संस्थाओं की हत्या करने की कोशिश
नहीं है बल्कि सोचने-समझने और सोचने-समझने वाले लोगों का जो तरीका होता है विरोध
करने का जिसे साहित्य भी कहते हैं, ये इन सबकी हत्या है.
संस्कृत
में कहा जाता है कि “अपारे काव्य-संसारे, कविरेव प्रजापति:”. तो यह जो कवियों की दुनिया है
वह दुनिया एक वैकल्पिक दुनिया है. वास्तविक दुनिया के सामानांतर वो एक प्रतिसंसार
की रचना करते हैं और बहुत कुछ सिर्फ दुनिया के समानांतर ही नहीं बल्कि इस दुनिया
के विरोध में प्रतिरोध की एक दुनिया का निर्माण करते हैं साहित्यकार और इस नाते से
पूरी दुनिया में साहित्य का काम एक हद तक ब्लासफेमी है. पिछले दिनों मैं सुन रहा
था कि किसी ने कहा कि सरकार की आलोचना करना ब्लासफेमी है तो साहित्य की जो दुनिया
है वो एक तरह से ब्लासफेमी की दुनिया है क्यूंकि ये
साहित्यकार ईश्वर
के बनाये हुए संसार के मुकाबले एक प्रति-संसार की रचना करते हैं और इसीलिए आप जानते
हैं कि वशिष्ठ के मुकाबले साहित्यकार अपने आप को विश्वामित्र के संतानें मानते हैं. उन्होंने एक
प्रतिसंसार की रचना की है जो प्रतिरोध का संसार है और किसी भी सत्ता के खिलाफ वो
खड़ा होता रहा है फिर चाहे वह धर्म सत्ता हो या फिर वह पूंजी की सत्ता हो. और ये हिंदी
और उर्दू दोनों साहित्य से सिद्ध होता है
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे (गालिब)
कश्का
खेंचा दैर में बैठा, कबका तर्क इस्लाम किया (मीर)
जो
सत्ताएं होती हैं वो आमतौर
पर लोगों का गला घोटकर, लोकतंत्र को खत्म करके खड़ा होना चाहती हैं और यहाँ पर तो इतिहास से बहुत सारे लोगो ने
बात रखी. प्रसिद्ध इतिहासकार हाब्सबाम ने इस बात को निरंतर चिन्हित
किया है कि लोकतंत्र
या सार्वभौमिक बालिग जनमत या मताधिकार के साथ पूंजीवाद कभी भी सहज नहीं
रहा है. पूंजीवाद हमेशा से एक अल्पतांत्रिक शासन रहा है और ये पूंजी की सत्ता
आमतौर पर लोकतंत्र को ख़त्म करके आती है. हिंदी साहित्य के बहुत बड़े लेखक
रामचंद्र शुक्ल ने एक लेख लिखा कि कविता क्या है और उसमे उन्होंने यही कहा कि कवि का काम शासक की प्रशंसा करना नहीं है, कवि का काम पैसे के सामने घुटने टेक देना नहीं है बल्कि कवि का काम
है देश की जनता के जीवन में निहित सृजनात्मकता को पहचानना. इसलिए साहित्य बजाय सत्ता के, लोगों के साथ खड़ा होता रहा है. ब्रेख्त की एक बहुत
प्रचलित कविता है.
इस
जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है,
सरकार
को मेरी सलाह है कि वो इस जनता को भंग कर दे
और
अपने लिए दूसरी जनता चुन ले
कहने का
मतलब है कि ‘जनता
बनाम सरकार’ हमेशा से
ही साहित्यकारों को महसूस होता रहा है । उन्हें लगता
रहा है कि सरकार
और जनता कभी एक दूसरे के
साथ खड़े नहीं होते हैं. और इसीलिए हरेक सरकार चाहती है कि उसे और देश को एक मान
लिया जाय. ऐसी स्थिति में ये जो साहित्यकार लोग हैं जो चुने हुए लोग नहीं हैं लेकिन
अंतःकरण के सिपाही होते हैं और इसलिए ये
लोग जनता
के पक्ष से खड़ा होकर कहते हैं कि सरकार का विरोध करना सबसे बड़ी देशभक्ति है. गांधी
ने संसद के बारे में कहा कि संसद ने आज तक जनता के लिए कोई भी फायदेमंद कानून पास नहीं किया. उसका कारण ये है कि जो लोग संसद
में जाते हैं वो सरकार बनाते हैं और सरकार कभी भी जनता के प्रति संवेदनशील नहीं
होती है. सरकार और जनता में हमेशा से विरोध होता रहा है और इस विरोध
में साहित्य
जनता के साथ खड़ा होता है.
साहित्य
हमेशा से छोटी चीजों के पक्ष में खड़ा होता है. वीरेन डंगवाल हिंदी साहित्य में
इसीलिए मशहूर हैं कि उन्होंने छोटे छोटे लोगो की ताकत को सामने रखा. बड़ी चीजें
शासकों को पसंद आती हैं. वृहदाकार चीजों का जो डिस्कोर्स होता है वो हमेशा शासन का
डिस्कोर्स होता है और उसके मुकाबले साहित्य छोटी चीजों का डिस्कोर्स खड़ा करता है.
नागार्जुन ने एक कविता लिखी “नभ में विपुल विराट सी, शासन की बन्दूक”. आज सबकुछ विराट बनाया जा रहा
है: सबसे बड़ी मूर्ति, सबसे बड़ा
झंडा लगेगा. लेकिन साहित्य छोटे के लिए खड़ा होता है क्यूंकि जनता की ताकत उसके
छोटेपन में है. जनता की ताकत उसके अनेक होने में है । इन छोटी छोटी ताकतों को मिलाकर ही बड़ी ताकत
बनती है.
हावर्ड जिन ने लिखा है कि हमेशा शासक लोग इस बात को कहते हैं कि अब बदलाव नहीं आएगा क्यूंकि अब नौजवान आदर्शवादी नहीं रहे और वो बदलाव नहीं कर पाएंगे. लेकिन इतिहास में ये बात इतनी बार झूठी साबित हो चुकी है कि अभी ये बात और भी अनेक बार झूठी साबित होगी । उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि चालीस और पचास के दशक में सभी लोगों ने सोच लिया था कि अब नौजवान उपभोक्ता मात्र बन कर रह जायेगा और परिवर्तन अब संभव नहीं है पर साठ के दशक में पूरी दुनिया के नौजवान सडकों पर निकले और समय को अपनी परिवर्तनकामी भावना की गर्मी से भर दिया. इसलिए कुल मिलाकर ये जो लड़ाई है वो परिवर्तन न चाहने वालों और चाहने वालों के बीच में है और इस लड़ाई में साहित्य परिवर्तन के साथ खड़ा है.
हावर्ड जिन ने लिखा है कि हमेशा शासक लोग इस बात को कहते हैं कि अब बदलाव नहीं आएगा क्यूंकि अब नौजवान आदर्शवादी नहीं रहे और वो बदलाव नहीं कर पाएंगे. लेकिन इतिहास में ये बात इतनी बार झूठी साबित हो चुकी है कि अभी ये बात और भी अनेक बार झूठी साबित होगी । उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि चालीस और पचास के दशक में सभी लोगों ने सोच लिया था कि अब नौजवान उपभोक्ता मात्र बन कर रह जायेगा और परिवर्तन अब संभव नहीं है पर साठ के दशक में पूरी दुनिया के नौजवान सडकों पर निकले और समय को अपनी परिवर्तनकामी भावना की गर्मी से भर दिया. इसलिए कुल मिलाकर ये जो लड़ाई है वो परिवर्तन न चाहने वालों और चाहने वालों के बीच में है और इस लड़ाई में साहित्य परिवर्तन के साथ खड़ा है.
आजादी
की लड़ाई के समय प्रेमचंद ने एक लम्बा लेख लिखा ‘क्या निर्मल जी वास्तव में राष्ट्रवादी
हैं?’ और इस लेख में प्रमचंद ने कहा कि एक सज्जन हैं
जो
जाति प्रथा का समर्थन कर रहे हैं. लेकिन जाति प्रथा का समर्थन
करने वाला राष्ट्रवादी कैसे हो सकता है ? जाति प्रथा से पीड़ित लोग कभी भी
अपने आप को इस राष्ट्र का महसूस नहीं कर पाएंगे. कहने का मतलब यह है कि
साम्राज्यवाद में विरोध में लड़ते हुए प्रेमचंद ने इस बात को रखा कि सामंतवाद का भी
विरोध आपको करना पड़ेगा. इसी तरह हिन्दी के कवि थे रघुवीर सहाय जिन्होंने लिखा
कि
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत
भाग्य विधाता है?
फटा-सुथन्ना पहने जिसका गुन
हरिचरना
गाता है.
हरिचरण इस देश का एक आम नागरिक
है जिसके पास पहनने के लिए पाजामा भी नहीं, बल्कि सिर्फ सुथन्ना है और वो भी फटा हुआ है लेकिन वो अधिनायक का
गीत गाता है । यह कविता औपनिवेशिक छवियों के विरोध में लिखी गई है. ऐसे ही नागार्जुन लिखते हैं
आओ रानी, हम ढोयेंगें पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की.
पुनःउपनिवेशीकरण जो आ रहा था इस
देश में, उसको नागार्जुन ने उसी समय
पहचान लिया था इसलिए देशभक्ति का जो स्वर उन्होंने उठाया था उसका मतलब था
साम्राज्यवाद और सामंतवाद का विरोध, उस चीज का विरोध जिसने अपने ही
लोगो की
सृजनात्मकता को रोके रखा है. इस तरह से उनलोगों ने देशभक्ति को
परिभाषित किया.
देश कागज
पर बना हुआ नक्शा नहीं होता है. कैफ़ी आज़मी लिखते हैं
ये जो दुनिया का पुराना नक्शा
तुमने
मेज पर बिछा रखा है,
इसमें कावाक लकीरों के सिवा कुछ
भी नहीं,
तुम मुझमे इसमें
कहाँ
ढूंढ़ते हो?
इसलिए देश लकीरों से बना हुआ
नक्शा नहीं होता है बल्कि लोगो से बनता है. और अगर लोगो के प्रति आपको मोहब्बत
नहीं है तो कोई देशभक्ति नहीं हो सकती है. जो देशभक्ति साहित्यकारों ने गढ़ी
स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान, उसमें मूल बात यही थी कि
साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोध और सामंतवाद के भी ठोस रूप जातिवाद का गला पकड़ने से ही वे देशभक्ति को परिभाषित कर रहे थे. आजादी के
बाद भी
उपनिवेशवाद की जो छाया मौजूद थी उसका विरोध करते हुए रघुवीर सहाय ने ऊपर
की जो
पंक्तियाँ लिखी थीं उन पर आज की तारीख में पंद्रह सीडीशन के आरोप लग जाते क्यूंकि
इसमें सीधे राष्ट्रगीत का मजाक उड़ाया गया है. ऐसे ही धूमिल नाम के एक कवि लिखते
हैं
देश
क्या तीन थके हुए रंगों का नाम है,
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या
इसका कुछ खास मतलब होता है?
अब सोचिये कि अगर यह कविता वो
आज के समय में लिखते तो उनपर कितना देशद्रोह का मुक़दमा लगता !
आज जिस
तरह से राजद्रोह को देशद्रोह में तब्दील कर दिया गया है वह बहुत ही खतरनाक है. वर्तमान
निज़ाम का विरोध करना तो हमारा धर्म है क्यूंकि बिना उसका विरोध किये समाज में बदलाव आ
ही नहीं सकता. मुझे लगता है कि ये जो कुछ दिनों से जेएनयू और अन्य स्थानों पर चल
रहा है ये आज़ादी की दूसरी जंग है और इसमें बड़े सवाल हल होने हैं. जो सवाल हल होना
है वह यह कि क्या किसी समाज को अपने ही आलोचकों के लिए जगह बनानी चाहिए कि नहीं चाहिए? कबीरदास ने लिखा है निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय. समाज को इस बात की जरुरत होती है कि अपने आलोचकों के लिए वो
जगह निर्मित करे और विश्वविद्यालय ऐसी ही एक जगह है जो समाज में बदलाव की दिशा
देते हैं और बदलाव की चाहत पैदा करते हैं क्यूंकि किसी भी समाज में सभी लोग सुखी
नहीं रहते हैं इसलिए जो लोग वंचित तबके के हैं उनके अन्दर हमेशा इस बात की चाहत
रहती है कि समाज की परिस्थिति को बदला जाय. उस बदलाव की इच्छा को आकार देना बिना एक बौद्धिक खुलेपन
की जगह
के संभव नहीं है. इसीलिए मैं इसे दूसरी आज़ादी की लड़ाई कह रहा हूँ क्यूंकि पहली
आज़ादी की लड़ाई में विश्वविद्यालय हमें बिना आलोचना करने की स्वतंत्रता की लड़ाई लडे
ही मिल गया था इसलिए हम उसके महत्व को समझ नहीं पाए थे. इस आलोचना की रुपरेखा कोई
निर्धारित नहीं कर सकता है.
हम चाहते
हैं कि पूरा देश जेएनयू हो जाय और लड़ाई इसी बात के लिए है. अर्थात पूरा देश एक ऐसे
लोकतान्त्रिक माहौल में ढले जिसमे बहस, और बातचीत की गुंजाईश बने. और
उसके आधार पर जनता के पक्ष में सामाजिक बदलाव की सहमति बने यह भी देशभक्ति का
ही अंग है. इससे बड़ी देश से
मोहब्बत नहीं हो सकती है कि देश की अवस्था को सुधार करने के लिए हम देश के
वर्तमान की आलोचना करें. यह जो नया प्रतिरोध पैदा हुआ है इसने सृजनात्मकता के तक़रीबन सभी
मानदंड तोड़ दिए हैं. यह भी सही बात है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भी बहुत ही
सृजनात्मक ढंग से प्रतिरोध हुआ था इसीलिए हमने जितने भी साहित्यकारों का ऊपर नाम लिया उन्होंने उस समय की व्यवस्था का बहुत ही सृजनात्मक ढंग से
प्रतिरोध किया. उदाहरण के तौर पर वैकल्पिक क्लास जो आपलोग चला रहे हैं वह भी तो एक
नया सृजन है. यह जरुरी है कि ज्ञान जीवन संदर्भों से जुड़े और जीवन सन्दर्भ हमेशा
जीवन संघर्षो से पैदा होते है. और इसीलिए प्रेमचंद ने एक बात कही थी कि साहित्य की अनेक परिभाषाएं दी गई
है लेकिन मुझे सबसे ज्यादा जो पसंद परिभाषा है वह यह कि साहित्य जीवन की आलोचना है. आप संसद में जो बहस हो रही है
उसे देख लीजिये और जेएनयू में जो बहस हो रही है उसे देख लीजिये, आपको पता चल जायेगा कि देश और समाज का आगामी नेतृत्व कहाँ फल-फूल
रहा है जो पुराने नतृत्व से ज्यादा परिवक्व, ज्यादा जिम्मेदार और ज्यादा
गहरा साबित होने वाला है.
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ReplyDeleteबहुत उम्दा दादा
ReplyDeleteरविरंजन