राजकमल
प्रकाशन द्वारा 1988 में पहली बार प्रकाशित इस किताब के प्रकाशकीय में सूचना दी गई है कि ये ‘सभी चिट्ठे और खत
सन 1903 से लेकर 1907 के दौरान “भारतमित्र” में
प्रकाशित हुए थे, जिसका सम्पादन स्वयं बालमुकुन्द गुप्त कर रहे
थे’ । इसका अर्थ है कि इन चिट्ठों का रूप साहित्यिक रचना के बतौर खास तरह का है । एक पत्रिका के संपादक ने किसी दूसरे नाम से अपने को ही लिखे ये पत्र पत्रिका में प्रकाशित किए । इस पुस्तक के बारे में 2009 में
वाणी प्रकाशन से रेखा सेठी द्वारा संपादित ‘निबंधों की दुनिया:
बालमुकुन्द गुप्त’ की भूमिका में सूचना दी गई है
कि पहले ये चिट्ठे सन 1906 में पुस्तकाकार छापे गए और भारतमित्र
पत्र के साथ उपहार स्वरूप दिए गए । राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित संग्रह के प्रकाशकीय
में ही यह भी सूचना दी गई है कि ‘इनमें से आठ चिट्ठे लार्ड कर्जन
के नाम लिखे गए हैं और दो लार्ड मिण्टो तथा भारत सचिव मिस्टर मार्ली के नाम । ख़तों
में एक ख़त गुप्तजी ने शाइस्ता खाँ के नाम से फुलर साहब को तथा एक सर सय्यद अहमद के
नाम से अलीगढ़ कालेज के छात्रों को लिखा है । एक अन्य ख़त “पंजाबी”
नामक पत्र के मालिक लाला यशवन्त राय और संपादक मिस्टर अथावले को लिखा
गया है ।’ हिंदू-मुस्लिम-पंजाबी को एक साथ शामिल करने के पीछे समग्र भारत के सभी प्रमुख समुदायों की
ओर से इनकी प्रस्तुति का विचार काम कर रहा था । दूसरे कि यह किताब उस समय की हिंदी
का नमूना भी है । इसीलिए उद्धरण देते हुए जहां तक संभव हुआ उसी रूप को बनाए रखा गया
है ताकि मूल शब्द के साथ ही विभक्तियों के प्रयोग की पुरातन पद्धति को समझा जा सके
। असल में संस्कृत में विभक्तियों का प्रयोग मूल शब्द के साथ ही होता था । इसीलिए शुरू
में हिंदी को भी वैसे ही लिखने की कोशिश की गई लेकिन हिंदी की प्रकृति से मेल न खाने
के कारण बाद में विभक्तियों को अलग से लिखा जाना शुरू हुआ । इस इतिहास से भाषा के विकास
को समझने में भी आसानी होगी ।
इसके लेखक श्री बालमुकुन्द गुप्त का जन्म सन 1865 में
हरियाणा के रोहतक जिले के गुड़ियानी गाँव में हुआ था । लगभग दस साल की उम्र में उनकी
पढ़ाई शुरू हुई लेकिन पिता के निधन के कारण पाँचवीं कक्षा के आगे जारी न रह सकी । वे
व्यापारी परिवार के थे । पिता के न रहने पर परिवार और व्यापार का दायित्व निभाया ।
जब उनके छोटे भाई इतने बड़े हो गए कि यह जिम्मेदारी निभा सकें तब उन्होंने अपने आपको
अध्ययन, लेखन और संपादन के काम में झोंक दिया । गुड़ियानी से दिल्ली
आकर 21 साल की उम्र में मिडिल स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की ।
औपचारिक शिक्षा यहीं तक हो सकी लेकिन स्वाध्याय के बल पर हिंदी, उर्दू और बांगला का ज्ञान हासिल किया । शुरू में बांगला और संस्कृत की किताबों
के हिंदी-उर्दू में अनुवाद और रूपांतर किया । इसके बाद पत्रकारिता
की ओर वे मुड़े और हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं के अखबारों का सफल संपादन किया । सन
1886 में ‘अखबारे-चुनार’
तथा 1888-89 के दौरान लाहौर से निकलने वाले
‘कोहेनूर’ जैसे उर्दू के अखबारों का संपादन किया
। 1889 के आखिरी दिनों में मदन मोहन मालवीय के संपादन में कालाकांकर
से प्रकाशित ‘हिंदोस्थान’ के संपादकीय विभाग
में शामिल हुए और सरकार के विरुद्ध कड़ी टिप्पणियों के लेखन के कारण उससे अलग हो गए
। 1893 में अमृतलाल चक्रवर्ती के संपादन में प्रकाशित होने वाले
‘हिंदी बंगवासी’ के सहकारी संपादक नियुक्त हुए
और 1889 से ‘भारतमित्र’ का संपादन शुरू किया । सन 1907 में 42 साल की उम्र में ही उनका देहांत हो गया ।
ऊपर के दोनों ही प्रसंगों से स्पष्ट है कि बालमुकुन्द गुप्त
की भाषा हिन्दी-उर्दू की मुश्तरका विरासत है । रेखा सेठी ने उनकी भाषा की विशेषता
का विवेचन करते हुए लिखा है कि ‘गुप्त जी ने साधारण बोलचाल की भाषा अपनाई जिसमें
हिंदी-उर्दू के शब्दों का एक साथ निराग्रह भाव से प्रयोग किया गया । इस भाषा में
खुलापन और लचक थी । उसमें संस्कृत निष्ठ हिंदी और अरबी शब्दों से भरी उर्दू दोनों
से बचने की कोशिश रही ।’ इसी ताकत के चलते उनकी अपनी भाषा आज भी हिंदी भाषा का
आदर्श प्रतीत होती है । ये चिट्ठे जिस समय लिखे और प्रकाशित हुए वह कर्जन द्वारा
बंग-भंग के विरुद्ध चल रहे ‘स्वदेशी आंदोलन’ का समय था । अकारण नहीं कि ज्यादातर चिट्ठों
के व्यंग्य का अवलंब लार्ड कर्जन ही हैं । इस पुस्तक को स्वदेशी आंदोलन में हिंदी
के योगदान के रूप में भी देखा जा सकता है । इसमें औपनिवेशिक शासन पद्धति की नीतिगत
आलोचना इस तरह की गई है कि वह लोकतांत्रिक शासन के पक्ष में सैद्धांतिक उद्घोष बन जाती
है । अंग्रेजी शासन में जनता का शासकों के साथ जैसा संबंध था उसकी आलोचना करते हुए
गुप्त जी आधुनिक शासन में शासकों द्वारा जनता से प्रेम की बनिस्पत दूरी बनाने की प्रवृत्ति
की आलोचना करते हैं और उदार लोकपक्षी शासन की विशेषताओं को गिनाकर उसके पक्ष में माहौल
निर्मित करने की कोशिश करते हैं । इस मामले में उनकी किताब केवल अंग्रेजी या औपनिवेशिक
शासन की नहीं, बल्कि किसी भी अनुदार शासन की आलोचना बन जाती है और आजादी के सवाल
को केवल अंग्रेजी शासन की समाप्ति तक सीमित न रखकर सच्चे लोकतांत्रिक शासन की स्थापना
ले जाती है ।
इस किताब के बारे में एक और बात का जिक्र जरूरी है । इसके पहले
इस शैली में संस्कृत में एक किताब लिखी गई थी- पंचतंत्र । इसके लेखक विष्णु
शर्मा खुद उसके एक पात्र थे । वह किताब राजकुमारों को राजनीति की शिक्षा देने के लिए
लिखी गई थी । इस किताब के मुख्य पात्र का नाम शिवशम्भु शर्म्मा है और यह किताब भी राजनीति
से ही संबंधित है । बहरहाल, उनका पहला चिट्ठा ‘बनाम लार्ड कर्जन’ बुलबुलों के बारे में एक सपने से शुरू
होता है । बुलबुलें आजादी का प्रतीक होती हैं । बालक का बुलबुलों के साथ उड़ना उसके
लिए आनंद की परमानुभूति है लेकिन जल्दी ही वह सपना टूट गया । इसी तरह वे याद दिलाते
हैं कि लार्ड कर्जन ने अपने पाँच वर्षों के शासन काल में दो ही गिनाने लायक काम किए
। ‘एक विक्टोरिया मिमोरियलहाल और दूसरा दिल्ली-दरबार ।’ मेमोरियल हाल पर बालमुकुंद गुप्त की टिप्पणी
है कि ‘विक्टोरिया मिमोरियलहाल चन्द पेट भरे अमीरोंके एक दो बार
देख आने की चीज होगा’ । शासन करने वाले इस तरह का नुमाइशी काम
बेहद मन लगाकर करते हैं- शायद अपनी कीर्ति अमर बनाए रखने की इच्छा
से । ऐसी इच्छा रखने के लिए वे कर्जन को बुरा नहीं कहते लेकिन इसके लिए अपनाए गए तरीके
पर एतराज जताते हैं और विकल्प बताते हुए लिखते हैं ‘वह देखिए
एक मूर्ति है, जो किलेके मैदानमें नहीं है, पर भारतवासियों के हृदयमें बनी हुई है । पहचानिए, इस
वीर पुरुषने मैदानकी मूर्तिसे इस देशके करोड़ों गरीबों के हृदयमें मूर्ति बनवाना अच्छा
समझा । यह लार्ड रिपनकी मूर्ति है ।’ कर्जन के मुकाबले रिपन को
खड़ा करने के बाद शासन के बुनियादी सिद्धांत की बात करते हैं “अब खुलासा बात यह है कि एक बार ‘शो’ और ड्यूटीका मुकाबिला कीजिये । ‘शो’ को ‘शो’ ही समझिए । ‘शो’ ड्यूटी नहीं है ।” आज भी शासक
इससे सीख सकते हैं ।
दूसरा चिट्ठा ‘श्रीमानका स्वागत’ कर्जन के ही दोबारा
वायसराय बनकर आने के अवसर पर लिखा गया है । इसमें वे कर्जन के पुराने कामों का
जिक्र तो करते ही हैं, औपनिवेशिक शिक्षा नीति के उस चरित्र की पहचान करते हैं जो
बहुत कुछ अब भी जारी है । लिखते हैं ‘विद्याने आपको धनी किया है, इससे आप विद्याको
धनी किया चाहते हैं । इसीसे कंगालोंसे छीनकर आप धनियोंको विद्या देना चाहते हैं
।---अब तक गरीब पढ़ते थे, इससे धनियोंकी निन्दा होती थी कि वह पढ़ते नहीं । अब गरीब
न पढ़ सकेंगे, इससे धनी पढ़ें न पढ़ें उनकी निन्दा न होगी । इस तरह लार्ड कर्जन की
कृपा उन्हें बेपढ़े भी शिक्षित कर देगी ।’ इसके अलावे वे अंग्रेजी शासन के एक और रूप
की चर्चा करते हैं जो विकास के औपनिवेशिक माडल की निर्मम आलोचना है । जो काम इस
दूसरे कार्यकाल में करने को जरूरी होंगे उनका खुलासा करते हुए वे लिखते हैं ‘काबुल
है, काश्मीर है, काबुलमें रेल चल सकती है, काश्मीरमें अंग्रेजी बस्ती बस सकती है ।
चायके प्रचारकी भांति मोटरगाड़ीके प्रचारकी इस देश में बहुत जरूरत है ।’ ध्यान देने
की बात है कि उस जमाने के लेखक औपनिवेशिक चाल को अच्छी तरह पहचानते थे ।
तीसरे चिट्ठे ‘वैसरायका कर्तव्य’ में
वे जनता के प्रतिनिधित्व का दावा पेश करते हैं और इसी क्रम में देश की साधारण जनता
का जीवंत चित्र खींच देते हैं । जहां वायसराय के आने पर ‘बाजे
बजते रहे, फौजें सलामी देती रहीं ।’ इसके
विपरीत शिवशम्भु ‘—इस देशकी प्रजाका यहांके चिथड़ा-पोश कंगालोंका प्रतिनिधि होनेका दावा रखता है ।’ इस प्रतिनिधि
का हाल सुनिए ‘उसके कोई उपाधि नहीं, राजदरबारमें
उसकी पूछ नहीं । हाकिमोंसे हाथ मिलानेकी उसकी हैसियत नहीं, उनकी
हांमें हां मिलानेकी उसे ताब नहीं ।’ ऐसा ही प्रतिनिधि शासन द्वारा
देश की सीमाओं के प्रति बेवजह की सावधानी का मजाक उड़ाते हुए कह सकता है कि लार्ड कर्जन
‘सरहदों पर फौलादी दीवार बनादेना चाहते हैं, जिससे
इस देशकी भूमिको कोई बाहरी शत्रु उठाकर अपने घरमें न लेजावे ।’ विकल्प के तौर पर वे लार्ड केनिंग द्वारा 1858 में सुनाए
गए महारानी विक्टोरिया के घोषणापत्र का जिक्र करते हैं जो ‘भारतवर्ष
के लिए फौलादी दीवार है ।’ ध्यान देने की बात है कि यह वही घोषणापत्र
है जिसके आधार पर भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का खत्मा किया गया था ।
कर्जन ने किसी सभा में भारतीयों को मक्कार कहा । विरोध करते
हुए बालमुकुंद गुप्त ने नैतिकता और स्वाधीनता के बीच जो संबंध बताया वह स्वाधीनता के
पक्ष में तर्क बन जाता है । वे लिखते हैं ‘यह देश भी यदि विलायतकी भांति स्वाधीन होता
और यहांके लोगही यहांके राजा होते तब यदि अपने देशके लोगों को यहांके लोगोंसे अधिक
सच्चा साबित कर सकते तो आपकी अवश्य कुछ बहादुरी होती ।’ इसी क्रम
में वे शासक के रूप में कर्जन को याद दिलाते हैं ‘कभी इस देशमें
आकर आपने गरीबोंकी ओर ध्यान न दिया । कभी यहांकी दीन भूखी प्रजाकी दशाका विचार न किया
।’ शासितों के प्रति शासक से ऐसी अपेक्षा लोकत्रांतिक आचरण की
मांग है । इसी भावना को ‘एक दुराशा’ में
आगे बढ़ाते हुए शासन की जनता से दूरी रेखांकित करते हुए लिखते हैं ‘राजा है, राजप्रतिनिधि है, पर प्रजाकी
उन तक रसाई नहीं ।---माई लार्डके घर तक प्रजाकी बात नहीं पहुंच
सकती, बातकी हवा नहीं पहुंच सकती ।---प्रजाकी
बोली वह नहीं समझता, उसकी बोली प्रजा नहीं समझती । प्रजाके मनका
भाव वह न समझता है, न समझना चाहता है । उसके मनका भाव न प्रजा
समझ सकती है, न समझनेका कोई उपाय है ।’ साफ है कि गुप्त जी केवल अंग्रेजी शासन की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि शासक और शासित के बीच जीवंत संपर्क की हिमायत कर रहे थे ।
‘विदाई सम्भाषण’ लार्ड कर्जन की विदाई के समय
लिखा गया है । इसमें भी काम की जगह दिखावट की प्रवृत्ति का मजाक उड़ाया गया है । दिल्ली
दरबार में ‘आपकी और आपकी लेडीकी कुरसी सोनेकी थी और आपके प्रभु
महाराजके छोटे भाई और उनकी पत्नीकी चांदीकी । आप दहने थे वह बायें, आप प्रथम थे वह दूसरे । इस देशके सब राजा रईसोंने आपको सलाम पहले किया और बादशाहके
भाईको पीछे । जुलूसमें आपका हाथी सबसे आगे और सबसे ऊँचा था, हौदा
और चंवर छत्र आदि सामान सबसे बढ़-चढ़कर थे । सारांश यह कि ईश्वर
और महाराज एडवर्डके बाद इस देशमें आपहीका दरजा था ।’ सत्ता पर
आसीन व्यक्ति के भीतर अहंकार का यह चरम था । प्रकारांतर से बालमुकुंद गुप्त शासक को
सावधान कर रहे हैं कि सर्व शक्तिमान होने के बावजूद सत्ता के साथ शासक का संबंध अस्थायी
ही होता है । अहंकार में इस सत्य को भूलने वाले शासक को अपमानित होना पड़ता है । लिखते
हैं ‘इस देशके हाकिम आपकी ताल पर नाचते थे, राजा महाराजा डोरी हिलानेसे सामने हाथ बांधे हाजिर होते थे । आपके एक इशारेमें
प्रलय होती थी । कितनेही राजोंको मट्टीके खिलौने की भांति आपने तोड़ फोड़ डाला । कितनेही
मट्टी काठके खिलौने आपकी कृपाके जादूसे बड़े-बड़े पदाधिकारी बन
गये । आपके एक इशारेमें इस देशकी शिक्षा पायमाल होगई, स्वाधीनता
उड़ गई । बंगदेशके सिरपर आरा रखा गया । ओह ! इतने बड़े माई लार्डका
यह दरजा हुआ कि एक फौजी अफसर उनके इच्छित पदपर नियत न होसका ! और उनको इसी गुस्सेके मारे इस्तीफा दाखिल करना पड़ा, वह
भी मंजूर हो गया ।’ अंत में वे शासन के कुछ बुनियादी सवाल उठाते
हुए पूछते हैं ‘शासकका प्रजाके प्रति कुछ तो कर्तव्य होता है,
यह बात आप निश्चय मानते होंगे । सो कृपा करके बतलाइये क्या कर्तव्य आप
इस देशकी प्रजाके साथ पालन कर चले ? क्या आंख बन्द करके मनमाने
हुक्म चलाना और किसीकी कुछ न सुननेका नामही शासन है ? क्या प्रजा
की बातपर कभी कान न देना और उसको दबाकर उसकी मर्जीके विरुद्ध जिद्दसे सब काम किये चले
जानाही शासन कहलाता है ?---आप एक मौका तो ऐसा बताइये,
जिसमें किसी अनुरोध या प्रार्थना सुननेके लिए प्रजाके लोगोंको आपने अपने
निकट फटकने दिया हो और उनकी बात सुनी हो ।---आठ करोड़ प्रजाके
गिड़गिड़ाकर बंगविच्छेद न करनेकी प्रार्थना पर आपने जरा भी ध्यान नहीं दिया ।’
लार्ड कार्जन के इस आचरण के मुकाबले वे मुगल शासन के समय की एक घटना
का हवाला देते हैं ‘दो सवादो सौ साल पहले एक शासकने इस बंगदेशमें
एक रुपयेके आठ मन धान बिकवाकर कहा था कि जो इससे सस्ता धान इस देशमें बिकवाकर इस देशके
धनधान्य-पूर्ण होनेका परिचय देगा, उसको
मैं अपनेसे अच्छा शासक समझूंगा ।’ साफ है कि उनके लिए शासन की
सफलता का मापदंड शासक का धर्म नहीं, बल्कि जनता के प्रति शासक
का नजरिया है ।
कर्जन के लिए लिखे चिट्ठों में अंतिम ‘बंग विच्छेद’
शासन की तमाम जन विरोधी कोशिशों की असफलता का जयघोष करता है । इसमें
गुप्त जी लिखते हैं कि ‘यह बंगविच्छेद बंगका विच्छेद नहीं है
। बंगनिवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए, वरंच और युक्त हो गये ।---बगालके टुकड़े नहीं हुए, वरंच भारतके अन्यान्य टुकड़े भी
बंगदेशसे आकर चिमटे जाते हैं ।’ यह एक अटल सत्य का बहादुरी से
किया गया उद्घोष है और वह यह कि कोई भी शासक जबरदस्ती से कभी इच्छित परिणाम नहीं हासिल
कर सकता । ऊपर के सभी चिट्ठों में बाल मुकुंद गुप्त कम से कम महारानी विक्टोरिया के
1858 के घोषणापत्र के प्रति सम्मान का नजरिया रखते हैं लेकिन यहां तक
आते आते इस पर भी उनका भरोसा उठने लगता है । क्षोभ के साथ लिखते हैं ‘इस समयके महाप्रभुने दिखा दिया कि वह पवित्र घोषणापत्र समय पड़ेकी चाल मात्र
था । अंग्रेज अपने खयालके सामने किसीकी नहीं सुनते । विशेषकर दुर्बल भारतवासियोंकी
चिल्लाहटका उनके जीमें कुछ भी वजन नहीं है ।---भारतवासियोंके
जीमें यह बात जम गई कि अंग्रेजोंसे भक्तिभाव करना वृथा है, प्रार्थना
करना वृथा है और उनके आगे रोना गाना वृथा है । दुर्बलकी वह नहीं सुनते ।’ इस लेखक की क्रांतिकारी चेतना भारतेंदु युग से आगे होने का प्रमाण यही है कि
अंत में उसे अंग्रेजों की न्यायप्रियता में भरोसा नहीं रह जाता ।
शासक का बदलना शासन पद्धति और शासन के तरीके का बदलना नहीं होता
इस बात को साबित करते हुए बाल मुकुंद गुप्त कर्जन के बाद आए वायसराय लार्ड मिन्टो को
लिखे अगले चिट्ठे में लिखते हैं ‘यहांके कुछ लोगोंकी समझमें आपके पूर्ववर्ती
शासकने प्रजाको बहुत सताया है और वह उसके हाथसे बहुत तंग हुई । वह समझते हैं कि आप
उन पीड़ाओंको दूरकर देंगे, जो आपका पूर्ववर्ती शासक यहां फैला गया है ।’ इस सिलसिले
में बाल मुकुंद गुप्त शासन की एक आम रस्म पर सवाल उठाते हैं और वह यह कि आने वाला
शासक अपने पूर्ववर्ती शासक से परामर्श करता है, जनता से नहीं । ऐसे में क्या आशा !
केवल परामर्श की बात नहीं चाटुकार भी तो हैं ‘इस देशमें पदार्पण करनेके बाद जहां
आपको जरा भी खड़ा होना पड़ा है, वहीं उन लोगोंसे घिरे हुए रहे हैं, जिन्हें आपके
पूर्ववर्ती शासकका शासन पसंद है ।---कुछ करने धरनेकी बात तो अलग रहे, श्रीमानके
विचारोंको भी इतनी स्वाधीनता नहीं है कि उन लोगोंके बिठाये चौकी पहरेको जराभी
उल्लंघन कर सकें ।’ जनता की समस्याओं के प्रति इन सरकारों का कैसा रुख होता है इसे
समझाने के लिए गुप्त जी ने एक कहानी सुनाई है । एक बच्चा मां से भूख के मारे रोटी
मांगकर उसे परेशान कर रहा था । मां ने उसे ऊँचाई पर बिठा दिया । बच्चा रोटी भूल
गया और वहां से नीचे उतारने की मांग करने लगा । ‘इस बालककीसी दशा इस समय इस देशकी
प्रजाकी है ।’ शासन के नौकरशाहाना तरीके की क्या अचूक पहचान है ! वे शासन के एक और
अंतर्विरोध पर उंगली रखते हैं और मिंटो से कहते हैं ‘अब यह विषय श्रीमानहीके
विचारनेके योग्य है कि प्रजाकी ओर देखना कर्तव्य है या प्रेस्टीजकी ।’ जो बात पहले
कर्जन के सिलसिले में ‘शो या ड्यूटी’ की शब्दावली में उठाई गई थी वही बात मिंटो के
लिए ‘प्रजा या प्रेस्टीज’ की शब्दावली में उठा रहे हैं । किसी भी शासक के लिए यह
बुनियादी सवाल है ।
बात इतनी ही नहीं है कि औपनिवेशिक शासन एक पद्धति है और
शासकों की अदला बदली से उसमें विशेष अंतर नहीं पड़ने वाला है । ‘मार्ली साहबके नाम’
चिट्ठे में “निश्चित विषय” शीर्षक से भारत के मामले में वे इंग्लैंड के दोनों शासक
दलों की एकता की पहचान करते हैं । सबसे पहले वे मार्ली साहब की प्रशंसा के बहाने
अच्छे शासक के गुण बताते हैं ‘हाकिम हकीम हो जाय या हकीम हाकिम बनाया जाय ।’ प्रशंसा
करने के बाद उनकी बातों के अंतर्विरोध को उजागर करते हुए कहा ‘आपने कहा कि बंग भंग
होना बहुत खराब काम है, क्योंकि यह अधिकांश प्रजावर्गकी इच्छाके विरुद्ध हुआ । पर
जो हो गया उसे settled fact, निश्चित विषय समझना चाहिए । एक विद्वान पुरुष दार्शनिक
सज्जनकी यह उक्ति कि यह काम यद्यपि खराब हुआ, तथापि अब यही अटल
रहेगा ।’ निष्कर्ष कि ‘एक बात अब भारतवासियोंके
जीमें भली भांति पक्की होती जाती है कि उनका भला न कन्सरवेटिवही कर सकते हैं और न लिबरलही
। यदि उनका कुछ भला होना है तो उन्हींके हाथसे ।’ अंग्रेजी औपनिवेशिक
शासन की यह निर्भय आलोचना अलोकतांत्रिक शासन की आलोचना से शुरू होकर जनता से शासकों
की दूरी पर व्यंग्य तथा दिखावे की जगह ठोस काम की मांग और झूठी प्रेस्टीज की जगह जनता
की चिंता का सरोकार जाहिर करते हुए अलग अलग शासकों के समय नीतियों की निरंतरता की सच्चाई
का बयान करती है । इतना ही नहीं, यह किताब इंग्लैंड के कंजर्वेटिव
और लिबरल दोनों दलों की भारत के दमन में एकजुटता दिखाकर स्वाधीनता की लड़ाई की उन्नत
चेतना की परख पाठकों को कराती है ।
‘आशीर्वाद’ शीर्षक चिट्ठा शुरू तो होता है
बारिश में अलग अलग प्राणियों की दुर्दशा के वर्णन से लेकिन आगे बढ़कर पत्रकार के जेल
जाने पर उसकी बहादुरी की प्रशंसा में बदल जाता है । कलकत्ते की बरिश में ‘गुलाबी नशेमें विचारों का तार बन्धा कि बड़े लाट फुर्तीसे अपनी कोठीमें घुस
गये होंगे और दूसरे अमीर भी अपने अपने घरोंमें चले गये होंगे, पर वह चीलें कहां गई होंगी ?---जरूर झड़े हुए फलोंके ढेरमें
कल सवेरे इन बदनसीबोंके टूटे अण्डे, मरे बच्चे और इनके भीगे सिसकते
शरीर पड़े मिलेंगे ।---इस समय सैकड़ों अट्टालिकाएं शून्य पड़ी हैं
। उनमें सहस्रों मनुष्य सो सकते, पर उनके ताले लगे हैं और सहस्रोंमें
केवल दो दो चार चार आदमी रहते हैं । अहो, तिसपर भी इस देशकी मट्टीसे
बने हुए सहस्रों अभागे सड़कोंके किनारे इधर उधर-की सड़ी और गीली
भूमियों में पड़े मिलते हैं । सवेरे इनमेंसे कितनोंहीकी लाशें जहां तहां पड़ी मिलेंगी
।’ बारिश से ही कृष्ण की याद आई और कृष्ण से कारागार की । जेल
से वहां जाने वाले स्वाधीनता के सिपाहियों की याद आई । ‘सुरेंद्रनाथने
बंगालकी जेलका और तिलकने बम्बईकी जेलका मान बढ़ाया था । यशवन्त राय और अथावलेने लाहोरकी
जेलको वही पद प्रदान किया ।---जिन्हें इस देशपर प्रेम है,
वह इन दो युवाओंकी स्वाधीनता और साधुतापर अभिमान कर सकते हैं ।’
अंत में साहस के साथ वे घोषणा करते हैं ‘यदि हमारे
राजा और शासक हमारे सत्य और स्पष्ट भाषण और हृदयकी स्वच्छताको भी दोष समझें और हमें
उसके लिए जेल भेजें तो वैसी जेल हमें ईश्वरकी कृपा समझकर स्वीकार करना चाहिए और जिन
हथकड़ियों हमारे निर्दोष देशबान्धवोंके हाथ बन्धें, उन्हें हेममय
आभूषण समझना चाहिए ।’ कहना न होगा कि जेल जाने को गर्व की बात
मानने की हिम्मत इसी तरह पैदा हुई होगी ।
इसके बाद के दो ख़त मुगल काल के बंगाल के शासक शाइस्ताख़ां की
ओर से फुलर साहबके नाम लिखे गए हैं । ये फुलर साहब बंगाल के विभाजन के बाद बने प्रांत
पूर्वी बंगाल और आसाम के पहले गवर्नर जनरल थे । उन्होंने किसी भाषण में धमकाते हुए
बंगाल में नवाबी जमाना ले आने की बात कही । उसी के काल्पनिक उत्तर में नवाबी जमाने
के शासक शाइस्ता खां ने अपने शासन का बचाव किया है और उसे अंग्रेजी शासन से बेहतर बताया
है । इसमें शाइस्ता खां फुलर का मजाक उड़ाते हुए कहता है ‘तुम बंगालके
हिन्दुओंको धमकाते हो कि उनके लिए फिर शाइस्ताख़ांका जमाना ला दिया जायगा
!---मालूम होता है कि तुम्हें इल्म तवारीखसे बहुत कम मस है । अगर तुम्हें
मालूम होता कि मेरा जमाना बंगालियोंके बनिस्बत तुम फिरंगियोंके लिए ज्यादा मुसीबतका
था, तो शायद उसका नाम भी न लेते ।’ कारण
बताते हुए वह जिस माहौल का वर्णन करता है वह अपने को सभ्य कहलाने वाली किसी भी कौम
के लिए शर्मनाक है । शाइस्ता खां लिखता है ‘उस वक्त तुम लोग क्या
थे, जरा सुन डालो ! तुम कई तरहके फरंगी
इस मुल्कमें अपने जहाजोंमें बैठकर आने लगे थे । बंगालमें वलन्देज, पुर्तगीज, फरासीसी और तुमलोगोंने कई मुकामोंमें अपनी
कोठियां बनाई थीं और तिजारतके बहाने कितनीही तरहकी शरारतें सोचा और किया करते थे ।
वह फरंगी चोरियां करते थे, डाके डालते थे, गांव जलाते थे ! जब हम लोगोंको यह मालूम हुआ कि तुम्हारी
नीयत साफ नहीं है, तिजारतके बहानेसे तुम इस मुल्क पर दखल कर बैठनेकी
फिक्रमें हो, तब तुमलोगोंको यहांसे मारके भगाना पड़ा और सिर्फ
बंगालहीसे नहीं, सारे हिन्दुस्तानसे निकालनेका भी हमारे बादशाहने
बन्दोवस्त किया था ।’ इसके बाद शाइस्ता खां ने अपने और अंग्रेजी
शासन की तुलना की है ‘---हम मुसलमानोंने बहुत दफे हिन्दुओंके
साथ इंसानियतका बर्ताव भी किया है ।---मैंने बंगालेके दारुस्सलतनत
ढाकेमें एक रुपयेके 8 मन चावल बिकवाये थे ।---जहां तुम्हारी हुकूमत जाती है, वहां खाने-पीनेकी चीजोंको एक दम आग लग जाती है । क्योंकि तुम तो हमलोगोंकी तरह खाली हाकिम
ही नहीं हो, साथ-साथ बक्काल भी हो ।---जो बादशाह भी है और बक्काल भी है, उसकी हुकूमतमें खाने
पीनेकी चीजें सस्ती कैसे हों ?’ स्पष्ट है कि शासन के साथ ही
व्यापार करना ऐसा काम था जो अंग्रेजों को इसके पहले के सभी शासकों से भिन्न बना देता
था और इस तथ्य की समझदारी उस समय के हिंदी लेखकों को थी ।
इसके साथ ही शाइस्ता खां ने एक और मामला उठाया है जिसके बारे
में कम ही बात की जाती है और वह यह कि अंग्रेजों के शासन काल में ही पहली बार जनता
से हथियार छीनकर उसे कानूनन नि:शस्त्र किया गया और हथियार रखने का अधिकार केवल
सरकारी लोगों को रह गया । यहां तक कि जनता द्वारा हथियार रखना कानूनी रूप से अपराध
घोषित कर दिया गया । इसके पहले किसी भी शासक को भारतीयों के हाथ में हथियार खतरनाक
न लगा था । इसी बात को उजागर करते हुए शाइस्ता खां ने लिखा ‘वरना
यह हिम्मत तो तुममें कहाँ कि मेरे जमानेकी तरह हिन्दुओंको हरबार हथियार बांधने दो और
आठ मन का गल्ला खाने दो ।’ औपनिवेशिक शासन के प्रत्येक रेशे की
मारक आलोचना ही इस किताब की सबसे बड़ी खूबी है । आगे के ख़त में भी इसी बात को कहते हैं
‘हथियारोंकी आजादीकी जगह दस आदमियोंका मिलकर निकलना मजलिसें करना और
‘वन्देमातरम’ कहना बन्द किये जाते हो ।---कैदमें भी जबान कैद नहीं होती । तुमने गजब किया लोगोंका मुंहतक सी दिया था
।’ बोलने की आजादी पर प्रतिबंध का बाल मुकुंद गुप्त द्वारा विरोध
हमें याद दिलाता है कि इस आजादी के लिए भारत के लोगों को सबसे अधिक और अंग्रेजी जमाने
से ही लड़ना पड़ता रहा है ।
अंग्रेजों द्वारा हिंदू मुसलमान को लड़ाकर अपना शासन टिकाए रखने
की नीति की कलई खोलते हुए शाइस्ता खां ने लिखा ‘तुम तो हिन्दू मुसलमानोंको
लड़ा कर हुकूमत करनेको बहादुरी समझते हो और इस वक्त मुसलमानोंके साथ बड़ी मुहब्बत जाहिर
कर रहे हो ।’ इसी क्रम में बाल मुकुंद गुप्त ने फ़ोर्ट विलियम
की उस घटना की सच्चाई पर भी संदेह जाहिर किया है जिसके बारे में अंग्रेजों ने
सिराजुद्दौला के माथे कत्ले आम का आरोप मढ़ा था । वे लिखते हैं ‘मगर तुम लोगोंकी
मुहब्बत कलकत्तेमें उस लाठ के बनानेसे ही समझदार मुसलमान समझ गये, जो तुम्हारा एक
चलता अफसर सिराजुद्दौलाका मुंह काला करनेके लिये एक कयासी वकूएकी यादगारी के तौरपर
बना गया है ।’ अंतिम खत सर सय्यद अहमद की ओर से अलीगढ़ कालिजके लड़कोंके नाम लिखा
गया है जिसमें वे विद्यार्थियों की आजादी पर बंदिश लगाने की अंग्रेजी शासन की
आलोचना करते हैं ।
बाल मुकुंद गुप्त की इन्हीं विशेषताओं को उजागर करते हुए
रामविलास शर्मा ने ‘शैलीकार बालमुकुंद गुप्त’ में लिखा है
‘वे (बाल मुकुंद गुप्त) शब्दों
के अनुपम पारखी थे । हिंदी के साधारण शब्द उनके वाक्यों में नयी अभिव्यंजना शक्ति से
दीप्त हो उठते थे ।’ इसके अलावे ‘उनके वाक्यों
में सहज बाँकपन रहता है । उपमान ढूँढ़ने में उन्हें श्रम नहीं करना पड़ता । व्यंग्यपूर्ण
गद्य में उनके उपमान विरोधी पक्ष को परम हास्यास्पद बना देते हैं ।’ इस शैली की सामाजिक राजनीतिक उपयोगिता भी उनके दिमाग में स्पष्ट थी । गुलाम
भारत में उनकी भूमिका की निशानदेही करते हुए रामविलास जी लिखते हैं ‘अपने व्यंग्य शरों से उन्होंने प्रतापी ब्रिटिश राज्य का आतंक छिन्न भिन्न
कर दिया । साम्राज्यवादियों के तर्कजाल की तमाम असंगतियाँ उन्होंने जनता के सामने प्रकट
कर दीं । अपनी निर्भीकता से उन्होंने दूसरों में यह मनोबल उत्पन्न किया कि वे भी अंग्रेजी
राज्य के विरुद्ध बोलें ।’ बाल मुकुंद गुप्त के बारे में
रामविलास शर्मा की इस मान्यता का बड़ा आधार ‘शिवशंभु के चिट्ठे’ है ।
भारतेंदु युग और द्विवेदी युग की संधि पर लिखी यह किताब उपनिवेशवाद
विरोधी चेतना और भारत की स्वाधीनता की आकांक्षा के प्रतिनिधित्व के कारण तो
महत्वपूर्ण है ही, भाषा के मामले में आदर्श गद्य का नमूना है, हिंदी-उर्दू की साझा
विरासत का दस्तावेज है और लोकतांत्रिक शासन के पक्ष में मजबूत वकालतनामा है । अनेक
मामलों में अब भी ऐसी समझ का दस्तावेज मिलना मुश्किल है ।