वीरेंद्र यादव ने प्रगतिशील आंदोलन और संगठन की परंपरा और दशा के धारदार विश्लेषण से चौंका दिया है, लेकिन उनके विश्लेषण की धार निष्कर्षों तक पहुंचने पर उलट जाती है । प्रगतिशील आंदोलन की परंपरा और वर्तमान स्थिति के बारे में उनके विचारों से काफी हद तक सहमति जाहिर करते हुए मैं यहां तीन मुद्दों पर अपनी राय रखना चाहता हूं :
1 उनका यह कहना ठीक है कि स्वाधीनता-पूर्व का काल प्रगतिशील आंदोलन का स्वर्णिम काल था । इसमें इतना जोड़ना जरूरी है कि यह काल 1947 में स्वतंत्रता के साथ खत्म नहीं हुआ, बल्कि पूरे तेलंगाना आंदोलन के दौर तक जारी रहा ।
बहरहाल,
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स्वर्णिम काल अपने साथ मिथक लिए होता है और कई बार यह मिथक यथार्थ के कुछ पहलुओं को ढंकने का काम भी करता है । जैसे, स्वतंत्रता आंओलन के दौरान कम्यूनिस्ट पार्टी की संघर्षमय भूमिका पर ही गौर करें तो इतना जानने के लिए अलग से प्रमाण जुटाने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि यह पार्टी स्वतंत्रता-आंदोलन को नेतृत्व न दे सकी । किसान-समुदाय और मध्यवर्ग को पूरी तरह आंदोलित न कर सकी । जब अंग्रेजों ने सत्ता कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच विभाजित स्वतंत्रता सौंपी तब इसने देश को ‘सच्ची आजादी’ दिलाने की हड़बड़ी में 46 से 50 के बीच अपनी सारी ऊर्जा संघर्ष में झोंक दी, दमन और दुस्साहस के दो पाटों में दब गई और कहीं भीतर से टूट गई । 51 में समर्पण कर दिया ।
कम्यूनिस्ट आंदोलन भारतीय क्रांति के सिद्धांत और व्यवहार को सही ढंग से विकसित न कर सका । इसकी एक बड़ी कमजोरी यह रही कि विचारों के मामले में पहले कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल और बाद में किसी न किसी समाजवादी देश पर निर्भर रहना इसका स्वभाव बन गया था ।
जब वीरेंद्र जी कहते हैं कि ‘प्रगतिशील लेखक संघ की सक्रियता, उपलब्धियों और सीमाओं’ का सीधा रिश्ता भारतीय कम्यूनिस्ट आंदोलन से था तब यह देखना भी जरूरी हो जाता है कि उपलब्धियों के साथ ये ‘सीमाएं’ क्या थीं ? मेरे खयाल से प्रगतिशील लेखक संघ की एक बड़ी सीमा स्वतंत्रता-आंदोलन के दौरान भारतीय क्रांति के सिद्धांत और व्यवहार को सफलतापूर्वक विकसित न कर पाने वाली कम्यूनिस्ट पार्टी के द्वारा नियंत्रित होना ही था । संघ पार्टी का अनुसरण करता था और पार्टी इंटरनेशनल की । इस तरह यह अनुसरण करने वालों के अनुसरण करने वालों का संगठन बन कर रह गया था । प्रगतिशील लेखक संघ की वैचारिक ‘आत्मनिर्भरता’ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत की साहित्यिक परंपरा के बारे में इसने शुरू में ही जो निषेधपरक रुख अपनाया उस पर लंबे अर्से तक काबू नहीं पाया जा सका । इसकी विचारधारात्मक संपन्नता की यह हालत थी कि घोषित मार्क्सवादी लेखकों का एक हिस्सा कुछ ही समय बाद मार्क्सवाद के विरोधी खेमे में चला गया, कई लेखकों और कवियों का मार्क्सवाद विचारों के धरातल से गायब होकर रचना के धरातल पर कामनसेंस के रूप में प्रकट होता था और मार्क्सवाद की (या अपनी?) कमी पूरी करने के लिए अनेक रचनाकारों को कभी फ़्रायड और कभी अस्तित्ववाद तक की शरण लेनी पड़ती थी । यह आकस्मिक नहीं है कि स्वतंत्रता आंदोलन की लहरों से ऊर्जा ग्रहण करने वाला, विचार और रचना की तात्कालिकताओं से सीमित यह आंदोलन नये शासक वर्ग की विरोधी विचारधारात्मक सत्ता के स्थापित होते ही बिखर गया ।
इसलिए यह विचार सही नहीं है कि प्रगतिशील लेखक संघ पूरी तरह से ठीक था और सारी गड़बड़ियां कम्यूनिस्ट पार्टी से आयी थीं । जिन लोगों ने पार्टी के गलत निर्णयों का ‘ईमानदारी और पूरी निष्ठा’ के साथ पालन किया, कुछ जिम्मेदारी उन पर भी जाती है । अगर पार्टी का नेतृत्व प्रगतिशील लेखक संघ को विसर्जित करने के बारे में सोचने लगा तो प्रलेस में भी ऐसा नेतृत्व उभर आया जो इसे विसर्जित कर देना चाहता था ।
2 एक लंबे अर्से तक मार्क्सवादी विचारकों और लेखकों में यह विचार जड़ जमाये रहा है कि राजनीति संस्कृति (लेखन, कला आदि) का नियंत्रण करती है या फिर संस्कृति राजनीति के अधीन होती है । भारी बहस-मुबाहिसे के बाद अब यह धारणा आमतौर से स्वीकृति पाने लगी है कि राजनीति संस्कृति को नियंत्रित जरूर करती है लेकिन उससे नियंत्रित भी होती है । दोनों के बीच आंतरिक संबंध हैं लेकिन दोनों सापेक्ष रूप से स्वायत्त भी हैं । हो सकता है कि किसी दौर में राजनीति और संस्कृति के आंदोलन एक सात आगे बढ़ते हों, लेकिन यह भी हो सकता है कि किसी समय राजनीतिक आंदोलन ठंडा पड़ गया हो और सांस्कृतिक आंदोलन में तेजी आ गयी हो । या फिर सांस्कृतिक क्षेत्र में चुप्पी छाई हो और राजनीतिक क्षेत्र में काफी हंगामा हो । हो सकता है, एक क्षेत्र की गति ने दूसरे क्षेत्र को पुन: गतिशील करने में भूमिका निभायी हो ।
वीरेंद्र जी ने प्रगतिशील लेखक संघ के अतीत और वर्तमान का जो आकलन प्रस्तुत किया है उससे यही जाहिर होता है कि यह संगठन राजनीति द्वारा संस्कृति के इकतरफा नियंत्रण के विचार पर ही आधारित रहा है । स्वतंत्रता से पहले इसकी स्थापना, बाद में इसके विसर्जन और 75 में पुनर्स्थापना तक के सारे निर्णय पार्टी लेती रही और यह संगठन निष्ठापूर्वक स्थापित और विसर्जित होता रहा ।
यह एक गंभीर मसला है । स्वाधीनता की चेतना का निर्माण करने वाले लेखकों और कलाकारों के संगठन से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि संगठित होने या न होने का निर्णय वे स्वयं लें । उनसे यह भी उम्मीद की जाती है कि राजनीतिक और सांस्कृतिक मसलों पर पार्टी से विचार-विमर्श करते हुए भी अपनी चेतना बनाये रखें । अगर लेखक अपनी निर्णय क्षमता को खुद पार्टी के हाथों सौंप देते हैं और निर्णय की क्षमता से विहीन लेखकों के बारे में पार्टी के नेता अगर उपेक्षा और उदासीनता का भाव अपनाने लगते हैं तो अचरज की बात नहीं । ऐसे लेखक प्रेमचंद के शब्दों में ‘राजनीति के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई’ को दूर तक नहीं ले जा सकते । ऐसे लेखक और उनके संगठन पार्टी के निर्णय पर तानाशाही को जनवाद और जनवाद को तानाशाही बता सकते हैं । प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आपातकाल का समर्थन एक ऐसा ही अंधानुकरण था । स्वर्ण जयंती के अवसर पर चंदा उगाहने के मामले में बरती गयी सारी अनैतिकता कैफी आजमी की कोई निजी विशेषता नहीं थी । वह कैफी आजमी के प्रभाव का एक अनैतिक नेतृत्व द्वारा उपयोग भर था ।
इसके साथ यह सवाल भी जुड़ा हुआ है कि क्या क्म्यूनिस्ट पार्टी को संस्कृतिकर्मियों और लेखकों के प्रति तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग का नजरिया अपनाना चाहिए? क्या उन्हें संस्कृतिकर्मियों को अनुसरणकर्ताओं, अधीनों और दूसरे दर्जे के मनुष्यों के रूप में देखना चाहिए? मेरे खयाल से उन्हें ऐसा हर्गिज नहीं करना चाहिए । यह सारा दृष्टिकोण कम्यूनिस्ट विचारधारा के बुनियादी उसूलों के विरोध में जाता है । इसके अलावा ऐसा दृष्टिकोण अपनाकर कम्यूनिस्ट पार्टी अपने अनुसरणकर्ताओं की एक और जमात तो जुटा सकती है, संस्कृति के क्षेत्र में विचार और सृजन का विकास करने में मदद नहीं पहुंचा सकती ।
इसलिए राजनीति और संस्कृति दोनों के रचनात्मक विकास के लिए जरूरी है कि सांस्कृतिक और लेखक संगठन राजनीतिक सम्गठन से स्वतंत्र हों, राजनीतिक संगठन लेखक संगठन की स्वतंत्रता का आदर करें और लेखक संगठन समाज और परिवर्तन के बारे में aरजनीतिक संगठन की तरह ही पहल भरी जिम्मेदारी निभायें । प्रगतिशील लेखक संघ की पार्टी से ‘नाभिनाल-बद्धता’ को लेकर चिंतित वीरेंद्र जी के विचार की तार्किक मांग भी यही लगती है ।
3 श्री वीरेंद्र ने स्वाधीनता पूर्व के कम्यूनिस्ट और प्रगतिशील आंदोलन की गौरवशाली परंपरा का जिक्र करते हुए बताया है कि 51 से कम्यूनिस्ट पार्टी ‘संसदीय अवसरवाद’ का शिकार होने लगी, 75 के आसपास ‘संपूर्ण क्रांति’ का विरोध करते हुए जहां जनसंघर्षों से कटे हुए इस पार्टी ने कांग्रेस के साथ ‘एकात्मता’ कायम कर ली वहां मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी ने जनसंघर्षों से जुड़ने के क्रम में ‘प्रतिक्रियावाद की शक्तियों’ से ‘तात्कालिक गठजोड़’ कर लिया, दोनों ने ‘वर्गीय राजनीति पर कम, संसदीय जनतंत्र की वोट की राजनीति पर अधिक भरोसा’ कर लिया । ऐसी हालत में कम्यूनिस्ट आंदोलन की, तेलंगाना एवं नाविक विद्रोह की गौरवशाली परंपरा को ये पार्टियां आगे नहीं बढ़ा सकती थीं, इस गौरवशाली परंपरा के सही दावेदार वे ‘मार्क्सवादी-लेनिनवादी गुट’ बने ‘जिन्होंने नक्सलबाड़ी, भोजपुर और श्रीकाकुलम में सशस्त्र संघर्षों की चिनगारी सुलगा रखी थी’ । इसका सीधा मतलब यह हुआ कि भारतीय कम्यूनिस्ट आंदोलन स्वतंत्रता के बाद क्रमश: दो विरोधी धाराओं में बंट चुका है । एक तरफ भाकपा और माकपा की ‘संसदीय अवसरवाद’ और ‘वर्गसहयोग’ की धारा है जो स्वतंत्रता से पहले की संघर्षों से भरी गौरवशाली परंपरा का खंडन करती है । दूसरी तरफ वर्ग संघर्ष और जुझारू किसान आंदोलनों की मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा है जो उस परंपरा का वहन करती है । मैं यहां जोर देकर कहना चाहूंगा कि यह दूसरी धारा खत्म नहीं हुई, बल्कि जनता की बुनियादी बदलाव की इच्छा को जाहिर और संगठित करती और अपनी कमजोरियों पर काबू पाती हुई लगातार आगे बढ़ी है । इधर के बिहार के जन-आंदोलन इस तथ्य के मजबूत सबूत हैं ।
लेकिन वीरेंद्र जी इन दो धाराओं और इनकी विरोधी दिशाओं पर ज्यादा देर तक निगाह नहीं टिका पाते । वह दोनों पार्टियों की अवसरवादी प्रवृत्ति की आलोचना जरूर करते हैं लेकिन इस प्रवृत्ति को आकस्मिक मानने या इसमें सुधार हो जाने की गुंजाइश देखने की कोशिश करते हुए लगते हैं ।
इनके इस अधूरे दृष्टिकोण का असर यह पड़ता है कि कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा 75 में फिर से स्थापित ‘प्रगतिशील लेखक महासंघ’ की बार-बार आलोचना करने के बावजूद वह लेखकों को उसी में बने रहने की सलाह देते हैं । उन्हें ‘महासंघ’ प्रगतिशील लेखक संघ का विस्तार लगता है । महासंघ प्रलेस का ‘विस्तार’ इस मायने में जरूर है कि इसके साथ ‘महा’ शब्द जोड़ दिया गया है । लेकिन स्थापना के तत्काल बाद आपातकाल को समर्थन देने वाला यह महासंघ प्रलेस की गौरवशाली परंपरा के निषेध पर ही दोबारा खड़ा हुआ । इसे बदली हुई परिस्थितियों में एक प्रतिगामी दिशा का वहन करने के लिए बनाया गया था । स्वर्ण जयंती तक के इसके ज्यादातर काम नेतृत्व के किसी एक हिस्से की मनमानी का परिणाम न होकर कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा निर्धारित वर्ग सहयोग की नीति के निश्चित नतीजे हैं ।
मार्क्सवादी-लेनिनवादी आंदोलन की जुझारू दिशा ने राजनीति में ही नहीं, साहित्य और संस्कृति में भी क्रांतिकारी परिवर्तन के तत्वों का प्रवेश कराया । इस आंदोलन ने प्रगतिशील लेखन के बिखराव और ‘असाहित्य’ के बुर्जुआ अराजकतावाद के दौर में एक झटके के साथ क्रांतिकारी उभार की स्थिति पैदा की ।
बाद के जन आंदोलनों से व्यापकता हासिल करते हुए इस धारा ने साहित्य और कला के विभिन्न
क्षेत्रों को प्रभावित किया । इसका असर अनेक नयी फ़िल्मों में भी देखा जा सकता है ।
संस्कृति के क्षेत्र में यह क्रांतिकारी-जनवादी धारा
जनसंस्कृति के रूप में संगठित शक्ल ले रही है ।
वीरेंद्र यादव के इस कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता
कि उनके द्वारा गिनायी गयी सारी खामियों वाले और इतिहास द्वारा प्रमाणित प्रतिगामी
नीति अपनाने वाले प्र ले महासंघ से अलग होना ठीक नहीं है । वह यहां दो दिशाओं के मौजूदा
टकराव और यथास्थिति के ढांचे को तोड़ने के लिए हुए विभाजन की जरूरत से इनकार करते हैं
। उनकी यह स्थापना भी तथ्य पर आधारित नहीं लगती कि दूसरे सांस्कृतिक या लेखक संगठनों
में महासंघ वाली सारी कमजोरियां घर कर गयी हैं । इस सिलसिले में उन्होंने कोई उदाहरण
प्रस्तुत नहीं किया है जिससे लगता है कि यह कथन महासंघ में बने रहने का एक मनगढ़ंत तर्क
भर है । मुझे नहीं पता कि महासंघ के अलावा और कौन लेखक या सांस्कृतिक संगठन है जिसने
मुख्यमंत्रियों, पूंजीपतियों और चित्रा-जगजीतों के सहयोग से लखनऊ जैसा ‘जश्न’ मनाया हो?
असल में वीरेंद्र यादव के विश्लेषण और निष्कर्ष
में बराबर एक फांक बनी रहती है । सचाई की तलाश और बुनियादी परिवर्तन की इच्छा को स्वर
देने का उनका साहस यथास्थिति के समर्थन में निरस्त हो जाता है । ऐसे में मुझे गालिब
की ये पंक्तियां बरबस याद हो आती हैं:
ये मसाइलेt-तसव्वुफ,
ये तेरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझते जो न बाद:ख्वार होता ।
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