भीष्म साहनी से केवल
एक बार की
देखादेखी रही । बनारस में 1980 में लमही
में प्रेमचंद की
जन्मशती के अवसर
पर एक
बड़ा सम्मेलन करके राष्ट्रीय जनवादी
सांस्कृतिक मोर्चा का
गठन किया गया
था । मैंने
उसी साल ग्यारहवीं
कक्षा में बनारस में
दाखिला लिया था, सम्मेलन में शामिल रहा था और वहां स्थापित
संगठन में भी सक्रिय था । खबर मिली कि
प्रेमचंद पर एक
संगोष्ठी क्लार्क्स होटल
में आयोजित हो
रही है । मोर्चा के अध्यक्ष रामनारायण शुक्ल
के नेतृत्व में
हम कुछेक लोग
तख्तियों पर आयोजन
के विरोध में
नारे लिखकर होटल
के बाहर एकत्र
हुए । गोष्ठी
में भागीदारी करने
अन्य
अनेक लोगों के साथ भीष्म साहनी भी
पहुंचे थे । हम लोगों के विरोध से जो स्थिति बनी उसमें
सबसे अधिक शर्मिन्दा भीष्म जी ही दिखाई दे रहे थे । थोड़ी शर्मिन्दगी महादेवी जी के
भी चेहरे पर थी । यह निजी प्रसंग उनकी सामाजिक और लेखकीय मौजूदगी की अनेक
गुत्थियों को समझने में मदद करता है ।
भीष्म साहनी उपन्यासकार, नाटककार, कहानीकार और अच्छे
विचारक थे । उनकी आत्मकथा केवल
जीवन वृत्त नहीं
है, विभिन्न घटनाओं
पर उनकी बेबाक
राय का खजाना
भी है । इन सबके साथ
ही वे जीवन
भर प्रगतिशील लेखक
संघ और इप्टा
में सक्रिय रहे
। हाल में
जन्म शती के
अवसर पर साहित्य अकादमी
ने उन पर
केंद्रित विनिबंध का
प्रकाशन किया । विनिबंध के लेखक
रमेश उपाध्याय ने
खुद कहानीकार होने
के चलते उनके
शेष लेखन से
अधिक ध्यान देकर
उनकी कहानियों का
विश्लेषण किया है
। इस विश्लेषण को
देखने से भी
सिद्ध होता है कि
वे एक असुविधाजनक कहानीकार हैं
। हिन्दी साहित्य में
कहानी के इतिहास
की जो समझ
आम है उसके
लिए तो उनकी
असुविधा समझ में
आती है लेकिन
वे प्रगतिशील आंदोलन
से सहानुभूति रखने
वाले साहित्य विचारकों के
लिए भी असुविधाजनक हैं
। इस गुत्थी
को समझने के
लिए हमें प्रगतिशील आंदोलन
के उतार चढ़ाव
का जायजा लेना
होगा । भारत
की राजनीतिक स्वाधीनता के
बाद कुछ दिनों
तक तो अवश्य
प्रगतिशील आंदोलन ने
तेलंगाना के किसान
संघर्ष के साथ
वैचारिक प्रतिबद्धता के
चलते नेहरू निजाम
के अलोकतांत्रिक दमन के
प्रति आलोचनात्मक रवैया
कायम रखा लेकिन
धीरे धीरे उसके
सैद्धांतिक चिंतन में
सुविधाभोगी मध्यवर्गीय सीमाओं
के निशान उभरने
लगे । खुद
भीष्म साहनी ने
अपनी आत्मकथा में
इस कशमकश का
जिक्र किया है
। वे मूल
रूप से कांग्रेसी थे
इसलिए उन्हें प्रगतिशील साहित्य में
नेहरू की आलोचना
पसंद नहीं आती
थी । इसके
बावजूद उनका सृजनात्मक लेखन
आम तौर पर
मध्यवर्गीय ढकोसले पर
प्रहार करता है
। इसीलिए प्रगतिशील लेखक
संघ से जुड़ाव
के बावजूद उनका
कहानी लेखन कभी
मानदंड नहीं समझा
गया । प्रसिद्ध प्रगतिशील आलोचक
नामवर सिंह ने
कहानी आलोचना की
अपनी किताब में
मानदंड के रूप
में निर्मल वर्मा
को ही स्थापित किया
। भीष्म साहनी
ने आत्मकथा में
निर्मल वर्मा से
जुड़े एक प्रसंग
का उल्लेख किया
है जो इस
विडम्बना को समझने
में हमारी मदद
कर सकता है
। जब भीष्म
साहनी रूस से
लौटकर आए तो
एक कहानी लिखकर
निर्मल वर्मा को
सुनाने ले गए
। कहानी सुनकर
निर्मल वर्मा ने
कहा कि अब
ऐसी कहानियों का
चलन उठ गया
है । भीष्म
जी के ही
शब्दों में ‘मैं अपना सा
मुंह लेकर चला
आया’ । कहानी लेखन के
क्षेत्र में प्रगतिशील धारा
ने आधुनिकतावाद से
समझौता कर लिया
था और इसका
असर रमेश उपाध्याय की
इस मान्यता तक
कायम है कि
भीष्म साहनी की
कहानी कला की
सीमा उनका अनुभववाद है
। अच्छा हुआ
कि रमेश जी
ने प्रेमचंद पर
विचार नहीं किया
। प्रेमचंद के
भी अनेक आलोचकों ने
उन पर आरोप
लगाया था कि
वे समाचारों के
आधार पर कहानियां लिखते
हैं । जीवनानुभव किसी
भी लेखक की
पूंजी होते हैं
। सवाल यह
है कि जिस
समाज में वह
विचरण करता है
उसके जीवन के
बारे में उसका
रवैया क्या है
। उसका वह
महिमा मंडन करता
है या उसके
प्रति कोई आलोचनात्मक रुख
अपनाता है ।
असल में मध्यवर्गीय जीवन
के पाखंड की
कठोर आलोचना ही
भीष्म साहनी की
कहानियों की ताकत
है । यह
आलोचना उनकी मशहूर
कहानियों में तो
है ही,
कम प्रसिद्ध कहानियों में
भी पूरी शिद्दत
के साथ मौजूद
है । हिन्दी कहानी का सामान्य पाठक भी
इस संबंध में ‘चीफ की दावत’ या ‘अहं ब्रह्मास्मि’ जैसी उनकी मशहूर कहानियों की याद कर
लेगा । उनकी थोड़ी कम मशहूर कहानी ‘साग-मीट’
इस मामले में विषय वस्तु के नाते तो मजबूत है ही, शैली के नजरिए से भी महत्वपूर्ण है । पूरी कहानी किसी स्त्री का दूसरी स्त्री
से वार्तालाप है । इसे वार्तालाप भी कहना मुश्किल है क्योंकि दूसरी स्त्री सिर्फ श्रोता
है । इसलिए इसे एक स्त्री का एकालाप कहा जा सकता है लेकिन इस एकालाप में एक और स्त्री
भी है । कल्पना करिए की श्रोता यदि स्त्री की जगह कोई पुरुष होता तो क्या इस कहानी
का सच सामने आता । कहानी अपने कथ्य के अतिरिक्त स्त्री समुदाय के बहनापे को शैली के
जरिए स्थापित कर देती है । यह स्त्री समुदाय की वह दुनिया है जिसमें कोई भी स्त्री
अत्यंत गोपनीय रहस्य दूसरी स्त्रियों के साथ साझा करती है । ये रहस्य वे प्रसंग
होते हैं जिनके छिपे रहने से कुल की नाक कटने से बची रहती है । कहानी में गृह
स्वामी का घरेलू नौकर उसकी दुकान पर सहायक था, घर पर भी खाना पका दिया करता था ।
मकान में ही एक कमरे में पत्नी के साथ रहता भी था । गृह स्वामी का छोटा भाई उसकी
पत्नी का उसकी अनुपस्थिति में यौन शोषण करता था । एक दिन घरेलू नौकर ने यह देख
लिया, कुछ नहीं बोला, चुप हो गया और अगले दिन पास से गुजरने वाली रेल की पटरी पर कटकर
मर गया । गृह स्वामी की चिंता भाई को बचा लेने की थी, बचा भी लिया । घरेलू नौकर
साग मीट बहुत अच्छा बनाता था । उसी की याद करते हुए गृह स्वामिनी ने घर आई मेहमान
को एकालाप में यह कहानी सुनाई ।
मध्यवर्गीय जीवन आम तौर पर शहरी परिघटना है । शहरों
का बनना भी उस पाखंड की बुनियाद पर होता है जिसमें शहरी मध्यवर्गीय परिवार पूरा
जीवन बिताते हैं । ‘गंगो का जाया’ शीर्षक कहानी हमारे देश में इमारतों के निर्माण के
समूचे समाजशास्त्र को उभार कर सामने रख देती है । एकबारगी लगता है आजादी के बाद की
दिल्ली की जगह हम आज की दिल्ली की कहानी सुन रहे हैं । सुनिए ‘उन दिनों दिल्ली फिर से जैसे बसने लगी हो ।---नए मकानों
की लंबी कतारें, समुद्र की लहरों की तरह फैलती हुईं, अपने प्रसार में दिल्ली के कितने ही खंडहर और स्मृति-कंकाल रौंदती हुईं, बढ़ रही थीं ।---लोग कहते दिल्ली फिर से जवान हो रही है ।’ यह जवानी दिहाड़ी
मजदूरों के अपार शोषण की बदौलत आई थी । इसी विडंबना पर कभी गोरख पांडे ने ‘स्वर्ग
से विदाई’ शीर्षक कविता लिखी थी । खास बात यह कि नेहरू के समाजवादी समाज के सपने
का एक पहलू अगर विस्थापन था तो दूसरा पहलू विनिर्माण में ठेकेदारी और अनियमित तथा
अस्थायी श्रमिक का शोषण था । पीछे पलटकर देखने पर अचरज होता है कि यह अस्थायित्व
उस जमाने में भी हम विकास के नाम पर सहन करने को तैयार थे । जिन सुरक्षित घरों में
हम चैन की नींद सोते हैं, उनकी दीवारों में लगी एक एक ईंट इन्हीं
अस्थायी पुरुष-महिला मजदूरों के लहू से सिंची है- इस बात का अहसास कराने वाले को कौन कलाकार मानेगा !
इसी तरह की एक मार्मिक कहानी ‘खिलौने’ है । कहानी में दफ़्तर में काम करने वाले पति
और पत्नी के बच्चे का बचपन छिन जाने की व्यथा को व्यंग्य के साथ उभारा गया है । इसके
साथ ही दफ़्तर के जीवन की अमानवीयता और बच्चे की पढ़ाई के बारे में कुछ ज्यादा सचेत रहने
के चलते उसे खेलने, सोने और जागने से वंचित कर देने की त्रासदी
को गहराई से उभारा गया है । पूरी कहानी अद्भुत ढंग से शहरी जीवन में मनुष्य के भीतर
से गायब हो रही हंसी-खुशी और प्यार-अपनापे
को वापस ले आने की बेचैनी पैदा करती है ।
‘लीला नन्दलाल की’ कहानी तो
जैसे भारत में उनके समय के बाद संगठित शक्ल लेने वाले तंत्र का पूर्वाभास है । पूरा
मजा लेते हुए और अपना भी मजाक उड़ाते हुए लिखी गई इस कहानी में सत्ता पर दलालों के कब्जे
और उनके समक्ष आम शहरी की बेचारगी का भयावह माहौल रचा गया है । स्कूटर की चोरी हुई
है और चोरी गया स्कूटर थाने की बजाए किसी और के यहां रखा हुआ है । तमाम तरह की सिफारिशों
के बाद स्कूटर मिला भी तो मुकदमे के लिए उसे बार बार कचहरी ले आना गले की फांस बन गया
तो फिर उसी दलाल ने मुक्ति दिलाई । शासन-प्रशासन में सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी का ऐसा वातावरण उनके समय से दूर था लेकिन उन्होंने
उसके आगमन की आहटें शायद सुन ली थीं ।
हमने पहले ही प्रेमचंद जयंती के जिस प्रसंग का उल्लेख
किया उसका एक संदर्भ यह भी है कि वे कहानी कला के मामले में प्रेमचंद के करीब पड़ते
हैं । इस बात को सबसे अच्छी तरह से संजीव ने अपने एक लेख के शीर्षक में व्यक्त किया
है । संजीव कुमार के उस लेख का शीर्षक है ‘भीष्म साहनी की कहानी-
(अ)कला’ । यानी भीष्म साहनी
की कहानी कला ही उसकी अकला है । स्वयं भीष्म साहनी ने इस बारे में लिखा ‘कहानी का सबसे बड़ा गुण मेरी नजर में, उसकी प्रामाणिकता
ही है, उसके अन्दर छिपी सच्चाई जो हमें जिन्दगी के किसी पहलू
की पहचान कराती है ।----कहानी का रूप-सौष्ठव,
उसकी संरचना, उसके सभी शैलीगत गुण, इस एक गुण के बिना निरर्थक हो जाते हैं ।----प्रामाणिकता
कहानी का मूल गुण है । कहानी में यह गुण मौजूद है तो कहानी-कला
के अन्य गुण उसे अधिक प्रभावशाली और कलात्मक बना पाएंगे ।’ जीवन
के प्रति असीम लगाव से भरे हुए इस कथाकार ने सैद्धांतिक तौर पर नेहरू से सहमति रखते
हुए भी रचनात्मक लेखन में जिस निर्ममता से तथाकथित आधुनिकता की बखिया उधेड़ी है वह अपनी
अंतर्वस्तु और रूप, दोनों में अनुकरणीय है ।
आधुनिक बोध के दो रूपों को वे पहचानते हैं और उन्हें
एक दूसरे के सामने रखते हैं । उनका यह रुख ईर्ष्या-द्वेष की जगह
लड़ते-जूझते मनुष्य की पक्षधरता की समझ से नि:सृत है । एक रूप को वे बनावटी मानते हैं जिसके लक्षण हैं ‘भाषा, शैली, शिल्प के प्रयोगों
से या फिर मात्र सेक्स के उन्मुक्त प्रदर्शन से’ जोड़ना । दूसरा
रूप सच्चा है जिसमें ‘कहानी जीवन से साक्षात्कार कराती है,
उसके भीतर पाए जाने वाले अन्तर्विरोधों से साक्षात्कार कराती है----वह अपने आप ही समय और युग का बोध भी कराती है ।’ मानव
जीवन के चित्रण की इस विधा की सामाजिक उपयोगिता को भी वे ओझल नहीं होने देते । लिखते
हैं ‘—कहानी मात्र जीवन दर्शन ही कराती हो, ऐसा नहीं है । वह निश्चय ही हमें सचेत भी करती है, हमारे
अन्दर दायित्व की भावना भी जगाती है, हमारी अनुभूतियों को अधिक
संवेदनशील भी बनाती है, सौंदर्यबोध के स्तर पर हमारे लिए उत्प्रेरक
का काम भी करती है ।’ कहानी विधा मात्र से इतनी अपेक्षाओं के
कारण ही वे ऐसी कहानियां रच सके जो गुदगुदाती नहीं, संवेदित करती
हैं ।
हमारे स्वाधीनता आंदोलन के भीतर वाम उपस्थिति ने सांप्रदायिकता
विरोध और धर्मनिरपेक्षता समर्थक बौद्धिक वातावरण पैदा किया था । उस वातावरण के महत्वपूर्ण
सपूत भीष्म साहनी थे । ‘तमस’ उपन्यास
के अलावे ‘अमृतसर आ गया है’ जैसी कहानी
इस तथ्य का ठोस सबूत है । इसी प्रभाव की अभिव्यक्ति ‘वाङचू’
में हुई है जहां वे राष्ट्रवाद की संकीर्ण सीमाओं पर सवाल उठाते हैं
। यह संकीर्ण राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता से गहराई से जुड़ा हुआ है । पेरी एंडरसन ने अपनी
किताब ‘इंडियन आइडियोलाजी’ में ठीक ही इस
बात को चिन्हित किया है कि भारतीय विचारधारा का महत्वपूर्ण घटक राष्ट्रवाद है और इसके
नाम पर सर्वसम्मति भी रहती है । यही राष्ट्रवाद पाकिस्तान विरोध के बहाने आराम से हिन्दू
सांप्रदायिकता की नकाब बन जाता है । चीन विरोध तो उसे वाम विरोधी रंग भी दे देता है
। ऐसे में भीष्म साहनी ने उक्त कहानी में एक चीनी पात्र के माध्यम से इसका सृजनात्मक
प्रतिवाद दर्ज किया है ।
अंत में एक और प्रसंग जिसके लिए भीष्म साहनी आज
प्रेरणा दे सकते हैं । यह प्रसंग भाषा का है । स्वाधीनता आंदोलन ने राष्ट्र
निर्माण के कार्यभार को जिस संजीदगी से प्रस्तुत किया था और उसके उत्तर के बतौर
हिन्दी लेखकों ने गंभीरता के साथ हिन्दी को जिस रूप में ढाला था वह हमारी जातीय
विरासत है । प्रेमचंद की भाषिक सहजता के भीतर उसकी ताकत के दर्शन हुए थे । भीष्म
साहनी की भी सहजता में उसकी निरंतरता पूरी भव्यता के साथ प्रकट हुई है । पंजाबी
होने के कारण उन्होंने हिन्दी लिखने में कुछ अतिरिक्त सावधानी भी बरती है । इसके
कारण उनकी भाषा बीहड़ की अभिव्यक्ति करने वाली तो न हो सकी, न ही कृष्णा सोबती की
भाषा की तरह अर्थ क्षमता में व्यापकता आ सकी लेकिन एक साफ सुथरी हिन्दी का आदर्श
जरूर हमारे सामने रख दिया है । इस भाषा की शक्ति का सबसे अधिक पता रूसी लेखकों के
उनके अनुवाद में चलता है जिनकी बदौलत तालस्ताय जैसे लेखक हिन्दी पाठकों को कभी
विदेशी महसूस ही नहीं हुए ।