पूंजीवादी दुनिया की हलचलों में कुछ नई चीजें दिखाई सुनाई पड़
रही हैं । जिसे हम नव-उदारवादी समय कहते हैं उसके आने के बाद के हालात
को लेकर बहस मुबाहिसे जारी हैं । फिलहाल 2014 में प्रकाशित फ़्रांसिसी
अर्थशास्त्री थामस पिकेटी की किताब ‘कैपिटल इन द ट्वेंटी फ़र्स्ट
सेंचुरी’ की चर्चा सबसे अधिक हो रही है । मजेदार बात है कि पिकेटी
मार्क्सवादी नहीं हैं । किताब के एक समीक्षक जेम्स के गालब्रेथ के मुताबिक वे नव-शास्त्रीय अर्थशास्त्र की मान्यताओं से प्रभावित हैं । सिर्फ़ 43 साल के पिकेटी पेरिस स्कूल आफ़ इकोनामिक्स में प्रोफ़ेसर हैं । वे जब
18 साल के थे तो बर्लिन की दीवार गिरी । तात्पर्य कि मार्क्सवाद से जुड़ी हुई पुरानी बहसों
का उन पर वैचारिक असर नहीं है । अपने अनेक साक्षात्कारों में उन्होंने इस बात को स्वीकार
भी किया है । हालांकि ‘समयांतर’ के हालिया
अंक में इस किताब की समीक्षा में रामशरण जोशी ने पिकेटी के माता-पिता के ट्राट्स्कीपंथी जड़ों को खोज निकाला है लेकिन अन्य किसी समीक्षक ने
इसके संकेत नहीं दिए हैं ।
मार्क्स का वे विरोध नहीं करते बल्कि सिर्फ़ यह कहते हैं कि उन्हें
पर्याप्त आँकड़े सुलभ नहीं थे । पिकेटी का आँकड़ों से लगाव इस बात से जाहिर होता है कि
असमानता के इस अध्ययन में बीस से अधिक देशों के पिछले दो सौ सालों से ज्यादा समय के
आँकड़ों का विश्लेषण किया गया है । कुछ हद तक इसके चलते भी यह किताब इसी विषय पर लिखी
अन्य पूर्ववर्ती किताबों से अलग है । अपनी
किताब को पिकेटी अर्थशास्त्र और इतिहास के संयुक्त अनुशासन के भीतर रखना पसंद करते
हैं । इस मामले में भी इसकी नवीनता जाहिर है । मुख्य रूप से वे विकसित देशों को अपने
अध्ययन का विषय बनाते हैं । चूँकि विकसित देशों में 99% बनाम
1% का संघर्ष अकुपाई आंदोलनों और कटौती विरोधी आंदोलनों के रूप में सामने
आया इसीलिए इस किताब को लोकप्रियता भी उन्हीं देशों में हासिल हुई है । अमेरिकी
समाज में हाल के दिनों में विषमता में आई वृद्धि के प्रति विक्षोभ का एक कारण यह है
कि बीसवीं सदी के ज्यादातर समय वहां विषमता यूरोप के मुकाबले कम रही है जबकि इस सदी
में वह यूरोप से अधिक हो गई है ।
नाम के चलते मार्क्स की किताब के साथ पिकेटी की किताब की समानता
दिखाई पड़ती है लेकिन दोनों में जमीन आसमान का अंतर है । इसकी समीक्षा करते हुए हार्वे
ने बताया है कि मार्क्स के लिए पूँजी मूलत: शोषण के जरिए पूँजीपति को प्राप्त होने वाला
अतिरिक्त मूल्य है जबकि पिकेटी पूँजी को संपदा के रूप में देखते हैं । विकसित
देशों में संपदा के मामले में बढ़ती विषमता का उनका अध्ययन एक खास सूत्र पर टिका
हुआ है । वे कहते हैं कि पूँजी पर मुनाफे की दर अर्थतंत्र में वृद्धि की दर से
अधिक बनी हुई है इसलिए इस विषमता के कम होने के कोई आसार नहीं हैं । वे यह भी कहते
हैं कि इसके चलते किरायाभोगी (रेंटियर) पूँजी की बाढ़ आई हुई है जो मुख्य रूप से सट्टा बाजार में लगी हुई है और उसी
के मुनाफ़े पर टिकी हुई है ।
पिकेटी का कहना है कि इसके चलते लोकतांत्रिक व्यवस्था को
खतरा पैदा हो गया है । इसके समाधान के बतौर वे प्रगतिशील आय-कर, विरासत
कर आदि से अलग वैश्विक संपदा कर भी लादने का प्रस्ताव कर रहे हैं । फ़्रांस के रहनेवाले
पिकेटी के लिए संपदा कर कोई नई बात नहीं है क्योंकि राजनीतिक क्रांतियों के इस देश
में विषमता को बढ़ने से रोकने के लिए इसका प्रावधान लंबे दिनों से है ।
विख्यात दार्शनिक अर्थशास्त्री का मुकाम हासिल कर चुके प्रभात
पटनायक आम
तौर पर पिकेटी के सरोकारों में मार्क्सवादी विद्वानों की प्रतिध्वनि सुनते हैं लेकिन
वे पिकेटी से अपनी असहमति भी जाहिर करते हैं । वे कहते हैं कि आखिर अर्थतंत्र
में वृद्धि की दर का निर्धारण कैसे होगा । पिकेटी के जवाब के मुताबिक इसका निर्धारण
श्रमशक्ति की वृद्धि दर और प्रौद्योगिक प्रगति के चलते श्रम की उत्पादकता की वृद्धि
दर को जोड़कर होगा । इस पर श्री पटनायक की आपत्ति यह है कि पूँजी केवल देशी श्रम की
उत्पादकता पर निर्भर नहीं रही है । पूँजी ने श्रम की जरूरत को पूरा करने के लिए दुनिया
भर में लोगों को दासों, बंधुआ मजदूरों या प्रवासी कामगारों के
बतौर इस देश से उस देश दुनिया भर में नचाया है ।
हिंदू अखबार में इसकी समीक्षा लिखते हुए के सुब्रमण्यम ने
लिखा है कि इस किताब का प्रभाव गहरा और दूरगामी होगा । उनका कहना है कि विषमता
मुख्य धारा के आर्थिक चिंतन के लिए हमेशा ही असुविधाजनक बात रही है । पूरी कोशिश
यह साबित करने की होती है कि जितना काम किया गया उसका सही हिसाब करके मजदूरी दे दी
जाती है इसलिए विषमता का कारण उत्पादन या वितरण की गड़बड़ी नहीं, जातीय, सांस्कृतिक
या कौशल संबंधी गुण होते हैं । पिकेटी विषमता को एक समाजैतिहासिक परिघटना मानते
हैं जिसकी जड़ें संपदा प्रवाह और आय के वितरण में हैं । इसका अध्ययन वे रिकार्डो,
माल्थस या मार्क्स की तरह करना चाहते हैं । उनके अनुसार इसकी उपेक्षा का कारण
कुज्नेट के आशाजनक निष्कर्ष रहे हैं ।
अरिंदम सेन ने लिबरेशन में लिखी अपनी समीक्षा में बताया है
कि साइमन कुज्नेट नामक एक अर्थशास्त्री ने बीसवीं सदी के मध्य में आर्थिक वृद्धि
और विषमता के बीच संबंध बताने के लिए घंटी की शक्ल का वक्र प्रस्तावित किया जिसके
अनुसार उद्योगीकरण और नगरीकरण के चलते शुरू में आर्थिक विषमता बढ़ती है क्योंकि
बिल्डर धनी होते जाते हैं लेकिन देहात से आने वाले कामगारों की मजदूरी काफी कम
होती है । थोड़े दिनों बाद जब देहात से मजदूरों की आपूर्ति कम होने लगती है और इस
आबादी को अन्य जगहों पर भी काम मिलने लगता है तो उनकी मजदूरी बढ़ानी पड़ती है । यहां
तक कि कम आमदनी वाली आबादी सरकारी नीतियों को अपने पक्ष में करवाने में सफल होती
है । इससे विषमता घटने लगती है । इसी को कुज्नेट वक्र कहते हैं जिसमें विषमता शुरू
में तो बढ़ती है लेकिन समय बीतने के साथ कम होने लगती है । इस धारणा के अनुसार आर्थिक
वृद्धि ही सब कुछ है । जान एफ़ केनेडी इसे रूपक की भाषा में व्यक्त करने के लिए
समुद्री ज्वार का उदाहरण देते हैं जो सभी नावों को ऊपर उठा देता है । पिकेटी की किताब
ने कुज्नेट में बुर्जुआ अर्थशास्त्र की आस्था को हिलाकर रख दिया है ।
हिंदू में ही निकोलस डी क्रिस्ताफ़ लिखित ‘ऐन इडियट्स
गाइड टु इन-इक्वलिटी’ शीर्षक लेख में बताया
है कि पिकेटी की किताब अमेजन के आंकड़ों के अनुसार हाल में सबसे अधिक बिकने वाली किताब
रही है । इसके शुरुआती 26 पृष्ठों ने सबसे अधिक ध्यान खींचा है
। स्वाभाविक रूप से ये पृष्ठ विषय प्रवेश के हैं । लेखक ने यह लेख समीक्षा के रूप में
नहीं, बल्कि टिप्पणी के रूप में लिखा है । उनका कहना है कि अमेरिकी
लोग असमानता को समझना चाहते हैं क्योंकि यह उनका प्रतिदिन का अनुभव हो चुका है । सबसे
धनी 1% लोगों के पास सबसे गरीब 90% लोगों
से अधिक संपत्ति जमा हो गई है । दुनिया के सबसे धनी 85 लोगों
के पास सारी संपत्ति का आधा हिस्सा है । 2010 में अमेरिका में
होने वाली कुल आमदनी का 93% सबसे अमीर 1% लोगों के हिस्से आया । यह विषमता आर्थिक वृद्धि के लिए बाधा बन गई है । सही
बात है कि असमानता कम होने से आर्थिक वृद्धि तेज होती है । इसका उदाहरण दूसरे विश्व
युद्ध के बाद के दशक हैं । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक शोध पत्र में भी माना गया
है कि समतापरक समाजों में तीव्र आर्थिक वृद्धि देखी गई है । विषमता के चलते सामाजिक
अस्थिरता पैदा होती है । समाज में दरारें पैदा होती हैं और नीचे पड़े लोग अपने आपको
अधिकारविहीन समझने लगते हैं । बाजार पर से भरोसा उठने लगता है और लगता है कि लोगों
की संपत्ति उठाकर धनियों को सौंप दी जा रही है । संपत्ति का स्रोत जोड़ तोड़ नजर आने
लगता है । मसलन धनी लोगों को फायदा पहुंचाने वाले टैक्स के कानून बनाए जाते हैं । दवा
कंपनियों के मालिकान ने दवाओं के कम दाम वाले चिकित्सा कार्यक्रम को अमेरिकी कांग्रेस
में रुकवाने के लिए राजनेताओं की गोलबंदी की और 50 बिलियन डालर
का सालाना मुनाफा कमाया ।
पिकेटी की किताब के ही प्रसंग में नोबेल पुरस्कार से समानित
अर्थशास्त्री जोसेफ स्तिगलित्ज की किताब ‘द प्राइस आफ़ इन-इक्वलिटी’
की भी चर्चा हो रही है जो डब्ल्यू डब्ल्यू नार्टन एंड कंपनी द्वारा
2012 में न्यूयार्क और लंदन से एक साथ प्रकाशित हुई है । इस किताब का
उप-शीर्षक है ‘हाउ टुडे’ज सोसाइटी एनडैंजर्स आवर फ़्यूचर’ । भूमिका में वे वर्तमान
समय यानी 2011 को बहुत कुछ 1848 या
1968 जैसा ही ऐतिहासिक मानते हैं । उनके अनुसार ऐसे समय वे हैं जब लोग
उठ खड़े होते हैं और प्रचलन को गलत मानते हुए बदलाव की मांग करते हैं । अरब वसंत के
साथ बदलाव की यह भावना एक के बाद दूसरे देश में प्रकट हुई । जल्दी ही यह आग यूरोप और
अमेरिका तक फैल गई । इनके हालात में अंतर थे लेकिन समानता भी थी । दोनों ही जगहों पर
आंदोलन के पीछे आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के असफल और अन्यायपूर्ण होने की समझदारी
काम कर रही थी । दुनिया भर की सरकारें बेरोजगारी जैसी समस्याओं के समाधान के बारे में
चिंतित नहीं दिख रही थीं । ऐसे में अन्याय का अहसास विश्वासघात के अहसास में बदल गया
। लोकतंत्र भी धोखा महसूस होने लगा । इसके बावजूद प्रदर्शनकारियों को लगता है कि अगर
सरकारें लोगों के प्रति अपने आपको जवाबदेह समझें तो चुनावी लोकतंत्र कारगर हो सकता
है । रोजगार और घरों की समस्या से आगे जल्दी ही आंदोलन में अमेरिकी समाज की तमाम विषमताओं
पर चर्चा होने लगी ।
लगे हाथों जनवरी 2014 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित
‘द आक्सफ़ोर्ड हैंडबुक आफ़ द हिस्ट्री आफ़ कम्युनिज्म’ की भी चर्चा कर लेते हैं । 672 पृष्ठों की यह किताब एस
ए स्मिथ के संपादन में प्रकाशित हुई है और बीसवीं सदी के कम्युनिस्ट आंदोलन का बेहतरीन
विश्लेषण मानी जा रही है । किताब के ‘इंट्रोडक्शन’ में स्मिथ ने बताया है कि यह किताब पिछले कुछेक दिनों में रूस और अन्य पूर्वी
यूरोप के देशों तथा चीन में सामने आए नए दस्तावेजों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति
के विभिन्न विद्वानों के 35 लेखों का संग्रह है । शुरू के चार
लेख उन संस्थापकों पर केंद्रित हैं जिनके विचारों और गतिविधियों ने विभिन्न देशों में
कम्युनिस्ट शासन की स्थापना में केंद्रीय भूमिका निभाई । इसमें मार्क्स-एंगेल्स के विचारों के हिसाब से साम्यवाद के विवेचन पर लिखा परेश चट्टोपाध्याय
का लेख महत्वपूर्ण है । किताब का दूसरा हिस्सा उन पांच युगांतरकारी दौरों का विश्लेषण
करता है जो कम्युनिस्ट आंदोलन के जीवन में निर्णायक रहे । शंकर राय द्वारा लिखी
समीक्षा में 1919, 1936, 1956, 1968 और 1989 को इन मौकों के रूप में चिन्हित किया
गया है । उनका कहना है कि इन मौकों की पहचान ही कम्युनिस्ट आंदोलन की रूस केंद्रित
छवि को खंडित करती है और उसकी विविधता तथा व्यापकता को उजागर करती है । इनमें
1968 पर माड एन ब्राके द्वारा लिखा गया अध्याय उस समय के ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के प्रयासों का विश्लेषण करता है
। किताब के तीसरे हिस्से में दुनिया के प्रमुख इलाकों में कम्युनिस्ट पार्टियों और
उनके शासन की छानबीन की गई है । बाकी किताब में कम्युनिस्ट शासन के मातहत जीवन के अलग
अलग पहलुओं को जांचा परखा गया है । इसकी मुख्य विशेषता यह है कि अधिक ध्यान उन देशों
पर दिया गया है जहां शासन में कम्युनिस्ट रहे, आंदोलनकारी कम्युनिस्ट
पार्टियों की कारगुजारी पर कम ध्यान दिया गया है । संपादक ने लेखकों से किसी एक
देश पर लिखने की बजाए एकाधिक देशों के तुलनात्मक विश्लेषण पर जोर देने को कहा था
और यह भी कहा था कि विश्लेषण में सत्ता के समक्ष क्रांति से पहले के सामाजिक
ढांचों के नफे नुकसान का भी जायजा लें । साथ ही अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के साथ इन
देशों के रिश्तों का भी ध्यान रखने को कहा गया था । इसका अपवाद केवल चीन की
क्रांति पर लिखा लेख है क्योंकि संपादक का मानना है कि मार्क्सवादी आंदोलन या
समाजवादी निर्माण में चीन की भूमिका की अनदेखी की गई है जबकि समय बीतने के साथ महसूस
हो रहा है कि बीसवीं सदी की क्रांतियों में सबसे महत्वपूर्ण क्रांति यही थी । सोवियत
रूस पर भी विचार करते हुए पारंपरिक क्षेत्रों की बजाय स्तालिनोत्तर खासकर ब्रेजनेव
युग पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया है ।
2014 में ही प्रोफ़ाइल बुक्स से डेविड हार्वे की ‘सेवेंटीन कंट्राडिक्शंस ऐंड द एंड आफ़ कैपिटलिज्म’ शीर्षक
किताब छपी है और पिकेटी की किताब की तरह ही चर्चा में है । पिकेटी से हार्वे का अंतर
यह है कि जहां पिकेटी अपने आपको मार्क्स से अनभिज्ञ बताते हैं वहीं हार्वे घोषित रूप
से मार्क्स की किताब ‘कैपिटल’ के शिक्षक
हैं । अपनी किताब में सबसे पहले वे ‘अंतर्विरोध’ की धारणा को स्पष्ट करते हैं । वे बताते हैं कि अगर कुछ अंतर्विरोधों ने पूंजीवाद
को लचीला और समय के साथ रूप बदलने लायक बनाया है तो उन्हीं में इस व्यवस्था के नाश
के बीज भी निहित हैं । कुछ अंतर्विरोधों का तो कमोबेश प्रबंधन किया जा सकता है,
लेकिन कुछ खतरनाक होते हैं । इसके बाद जिन सत्रह अंतर्विरोधों की वे
चर्चा करते हैं उनमें सात को वे बुनियादी मानते हैं । बुनियादी इस मायने में कि उनके
बगैर पूंजी का काम नहीं चल सकता । ये हैं- 1) उपयोग मूल्य और
विनिमय मूल्य के बीच, 2) श्रम के सामाजिक मूल्य और मुद्रा द्वारा
उसके प्रतिनिधित्व के बीच 3) निजी पूंजी और पूंजीवादी राज्य के
बीच 4) निजी अधिग्रहण और साझा संपत्ति के बीच 5) पूंजी और श्रम के बीच 6) पूंजी का स्वरूप : कोई प्रक्रिया या कोई वस्तु, के बीच 7) उत्पादन और श्रम के साकारीकरण की अंतर्विरोधी एकता । इसके बाद वे सात गतिशील
अंतर्विरोधों की चर्चा करते हैं । गतिशील इस मायने में कि ये दशकों में बदल जाते हैं
। ये हैं- 1) तकनीक, काम और मानव प्रयोज्यता
2) श्रम विभाजन 3) एकाधिकार और प्रतियोगिता
: केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण 4) असमान भौगोलिक
विकास और स्थान का उत्पादन 5) आय और संपत्ति की विषमताएं
6) सामाजिक पुनरुत्पादन 7) आजादी और प्रभुत्व ।
इनके बदलाव पर नजर रखना आंदोलन के लिए जरूरी होता है । आंदोलन में पूंजीवाद के किसी
पुराने रूप की वापसी की मांग की जगह उसके आगे बढ़ने के साथ पैदा हुए नए मुद्दों और शक्तियों
को संबोधित करना उचित होगा । किताब का तीसरा हिस्सा तीन खतरनाक अंतर्विरोधों की चर्चा
करता है । 1) अंतहीन चक्रीय वृद्धि 2) प्रकृति
के साथ पूंजी का रिश्ता 3) मानव स्वभाव का विद्रोह: सार्वभौमिक अलगाव ।
इन अंतर्विरोधों की पहचान के बाद हार्वे भविष्य की राजनीति के
लिए कुछ सूत्र गिनाते हैं । वे हैं- 1) लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए मुट्ठी
भर लोगों के हाथ में विनिमय मूल्यों को केंद्रित करके भुगतान की क्षमता के आधार पर
वस्तुओं का आवंटन करने वाली मुनाफ़ा आधारित बाजार व्यवस्था के जरिए प्रावधान के विपरीत
सबके लिए पर्याप्त उपयोग मूल्यों का प्रावधान (मकान, शिक्षा, अन्न सुरक्षा आदि) ।
2) विनिमय की ऐसी व्यवस्था का निर्माण जिसमें वस्तुओं और सेवाओं का परिचालन
तो हो लेकिन कुछेक निजी हाथों में सामाजिक सत्ता के रूप में धन का संचय न हो ।
3) निजी संपत्ति और राजसत्ता के बीच विरोध को साझा संपत्ति के शासन के
जरिए खत्म करना, मानव ज्ञान और जमीन को साझा संपत्ति घोषित करना
और इसके सृजन, प्रबंध तथा रक्षा की जिम्मेदारी जन सभाओं और संस्थाओं
के हाथ में देना । 4) व्यक्तियों द्वारा सामाजिक सत्ता के अधिग्रहण
को आर्थिक और सामाजिक बंधनों से नियंत्रित करना और इसे दुनिया भर में पागलपन के रूप
में चिन्हित करना । 5) साझा सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के
लिए अन्य सहकार संगठनों के साथ मिलकर सहकारी उत्पादकों द्वारा उत्पादन के फैसलों के
जरिए श्रम और पूंजी के बीच वर्ग विरोध का समापन । 6) दैनिक
जीवन की गति धीमी करना, वाहन फ़ुर्सती और सुस्त ताकि मनचाहे काम करने के लिए ज्यादा
समय मिले । 7) आपस में संबद्ध आबादी को आपसी सामाजिक जरूरतों के बारे में एक दूसरे
से बातचीत और मूल्यांकन का अवसर ताकि उसके आधार पर वे उत्पादन के फैसले लें । 8)
तमाम तरह के सामाजिक श्रम के बोझ को कम करने, अनावश्यक तकनीकी श्रम विभाजन को खत्म
करने, मनचाही व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के लिए समय निकालने, मनुष्य के
कारनामों के पारिस्थितिकीय प्रभाव कम करने वाली नई तकनीकों और संगठनों का सृजन ।
9) स्वचालन, रोबोटीकरण और कृत्रिम बुद्धि के इस्तेमाल से तकनीकी श्रम विभाजन को कम
करना, अनिवार्य तकनीकी श्रम विभाजन को सामाजिक श्रम विभाजन से अलग करना,
प्रशासनिक, नेतृत्वकारी और पुलिसिया जिम्मेदारी को जन समुदाय की अदला-बदली से
निभाना ताकि विशेषज्ञों के शासन से मुक्ति मिले । 10) उत्पादन के साधनों के
इस्तेमाल का अधिकार ऐसी जन संस्थाओं को सौंपना जो व्यक्तियों और सामाजिक समूहों के
बीच विकेंद्रित प्रतियोगी क्षमताओं को विकसित करें ताकि तकनीकी, सामाजिक,
सांस्कृतिक और जीवन शैली के मामलों में भिन्नतापरक नवाचार उभरें । 11) विभिन्न इलाकों
के संगठनों, कम्यूनों और समूहों के बीच सर्वाधिक संभव
विविधता जीने और रहने के तरीकों तथा प्रकृति के साथ संबंधों और सांस्कृतिक आदतों तथा
विश्वासों के मामले में होगी । तब भी विभिन्न जगहों के लोगों की मुक्त और अबाध भौगोलिक
आवाजाही की गारंटी करनी होगी । हालात का जायजा लेने, योजना बनाने
और लागू करने तथा विभिन्न स्तरों की साझा समस्याओं से निपटने के लिए विभिन्न संगठनों
के प्रतिनिधि नियमित रूप से एकत्र होंगे । 12) ‘सबसे उसकी क्षमता
के अनुसार और सबको उसकी जरूरत के अनुसार’ के सिद्धांत में निहित
विषमता के अतिरिक्त सभी किस्म की असमनताओं का उन्मूलन हो । 13) घरेलू काम और सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम के अंतर को धीरे धीरे इस तरह मिटा
दिया जाए कि सामाजिक श्रम घरेलू काम में समाहित हो जाए तथा घरेलू और सामुदायिक काम
ही अलगाव-विहीन और मुद्रा-विहीन सामाजिक
श्रम का प्रमुख रूप हो जाए । 14) शिक्षा, स्वास्थ्य, मकान भोजन, बुनियादी
सामानात और परिवहन सबको सुलभ हो ताकि अभाव से मुक्ति तथा काम और आवागमन की आजादी की
भौतिक शर्तें पूरी हों । 15) अर्थतंत्र की वृद्धि शून्य हो,
ऐसा माहौल हो जिसमें निरंतर वृद्धि के पागलपन की जगह मनुष्य की निजी
और सामूहिक क्षमताओं और शक्तियों के अधिकतम संभव विकास की चिंता हो । 16) मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक ताकतों का अधिग्रहण और उत्पादन
तो हो लेकिन पारिस्थितिकी की सुरक्षा का ध्यान रखा जाए, जहां
से कच्चा माल आये वहां पोषक तत्वों, ऊर्जा और उन वस्तुओं की भरपाई
की गारंटी हो, प्राकृतिक सौंदर्य की मोहकता को बनाए रखा जाए क्योंकि
हम भी उसी के अंग हैं । 17) मनुष्य का अपने आपसे अलगाव समाप्त
होगा तो उसके श्रम और सृजन के बीच भेद खत्म होगा, उसका अलगाव
दूसरों से खत्म होगा तो उसमें सामूहिकता आयेगी और यह अहसास मुक्त मन से स्थापित घनिष्ठ
सामाजिक संबंधों तथा जीने और रचने के भिन्न भिन्न तरीकों से सहानुभूतिपरक अनुभव से
पैदा होगा । ऐसी दुनिया का निर्माण होगा जिसमें हरेक व्यक्ति को समान रूप से सम्मान
का हकदार समझा जाएगा हालांकि बेहतर जिंदगी की अलग अलग मान्यताओं पर टकराहटें होंगी
। इस सामाजिक दुनिया का विकास मानव क्षमता और शक्ति के क्षेत्र में लगातार और स्थायी
तौर पर होने वाली क्रांतियों के जरिए होगा और नवीनता की खोज निरंतर चलती रहेगी ।
कहना न होगा कि इन कामों पर नये समय का प्रभाव है जब पूंजीवादी
संकट एक हद तक स्थिर होता हुआ दिखाई दे रहा है । अगर इसके विरोध हो भी रहे हैं तो उनका
क्रांतिकारी तेवर थोड़ा कमजोर पड़ा है । बदले हुए माहौल को चार्ल्स केनी ने ‘मार्क्स
इज बैक’ शीर्षक लेख में व्याख्यायित किया है । उनका कहना है कि
दुनिया भर के अकुपाई आंदोलनों के ठंडा होने के साथ बहरा कर देने वाला सन्नाटा पसरा
हुआ है । विकसित देशों के मजदूर गरीब मुल्कों के मजदूरों के साथ खड़ा नहीं हो रहा है
। वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत को कमजोर कर दिया
है । उनका कहना है कि मजदूर तो नहीं लेकिन मध्य वर्ग की सक्रियता में बढ़ोत्तरी आई है
।
असल में मार्क्स द्वारा दुनिया भर के मजदूरों में एकता देखने
की ठोस वजह यह थी कि उस समय दुनिया भर के मजदूरों के भौतिक हालात सचमुच समान थे । आमदनी
में विषमता देश की सीमाओं के भीतर थी, देशों के बीच आमदनी का आज जितना भारी अंतर नहीं
था । इस स्थिति में बदलाव औद्योगिक क्रांति के आगे बढ़ने के साथ आना शुरू हुआ । कम्युनिस्ट
घोषणापत्र के प्रकाशन के बाद इंग्लैंड में मजदूरी में इजाफा आया और फिर यूरोप और उत्तरी
अमेरिका में भी यही होना शुरू हुआ । पश्चिमी देशों में समृद्धि स्थिर होने के साथ ही
देशों की आर्थिक स्थिति में असमानता बढ़नी शुरू हो गई । मिलानोविक के अनुसार हालत यह
हो गई है कि भारत से सबसे धनी 5 फ़ीसद लोगों की औसत आमदनी उतनी
ही है जितनी अमेरिका के सबसे गरीब 5 फ़ीसद लोगों की औसत आमदनी
है । इसी कारण धनी विकसित देशों के मजदूर और गरीब पिछड़े देशों के मजदूरों की लड़ाई के
क्षेत्र समान नहीं रह गये हैं ।
लेखक का कहना है कि लेकिन लड़ाई का एक नया मोर्चा खुल गया है
। पिछले दस सालों में विकासशील देश विकसित देशों के मुकाबले ज्यादा तेजी से आगे बढ़े
हैं और दोनों के मध्य वर्ग के बीच की खाई कम होती जा रही है । अरविंद सुब्रमण्यम का
अनुमान है कि 2030 तक चीन आज के यूरोपीय संघ की जगह होगा । इसी तरह इंडोनेशिया
तब आज के दक्षिण कोरिया से मुकाबला कर रहा होगा । इसका मतलब कि अगली पीढ़ी के समय तक
दुनिया में मध्य वर्ग काफी मजबूत हो चुका होगा । इस नये मध्य वर्ग का जीवन नये समय
की सुविधाओं से लैस होगा । यही मध्य वर्ग नये समय का ठीक ठाक वेतन पाने वाला पेशारत
कर्मचारी है और इसकी वैश्विक एकजुटता बनती हुई दिखाई पड़ रही है । तकनीक और व्यापार
के चलते दुनिया भर में लोग आपस में करीब आयेंगे और तब दुनिया के अनुमानित साढ़े तीन
अरब मजदूर देखेंगे कि उनके हाल लगभग एक समान हैं । वे सरकारों पर दबाव डालेंगे कि मिलकर
वे सारी संपदा के मुट्ठी भर लोगों यानी पूंजीवादी कुलीनों के हाथ में संकेंद्रित होने
से रोकें और उसका व्यापक वितरण सुनिश्चित करें । वे टैक्स चोरी को जमा रखने वाले बैंकों
को बंद करने की आवाज उठायेंगे । यह सर्वहारा क्रांति तो न होगी लेकिन वैसे भी मध्य
वर्ग क्रांति के लिए विख्यात नहीं रहा है । उम्मीद है कि आगामी दशक में गरीब तो पूंजी
से उतना नहीं जूझेंगे लेकिन मध्य वर्ग जरूर अपना हिस्सा मांगेगा ।
रोस डाउटहैट ने ‘मार्क्स राइजेज अगेन’ शीर्षक लेख में कहा है कि टिमोथी शेंक ने ‘नेशन’
अखबार में मार्क्स के इस पुनरावतार के दो कारण बताए हैं । एक तो युवा
बुद्धिजीवी वित्तीय संकट के अनुभव से प्रेरित होकर मार्क्स की पूंजीवाद की आलोचना को
नई निगाह से देखना चाहते हैं । वे कहते हैं कि अकुपाई आंदोलन के उतार के बावजूद ऐसे
नये जर्नल प्रकाशित हुए जिनमें लोगों ने साहस के साथ नए प्रयोग पर बहस की । इस अनुभव
से नई किताबों और अध्ययनों का प्रकाशन शुरू हो गया है जो लोगों का ध्यान खींच रहे हैं
। ऐसी दो किताबों की प्रशंसात्मक समीक्षा भी शेंक ने लिखी है ।
उनके अनुसार दूसरा कारण पिकेटी की किताब जैसी चीजों में दिखाई
पड़ रहा है जिसमें आधुनिक आर्थिक प्रवृत्तियों का सामान्य विश्लेषण पेश किया गया है
। पिकेटी मार्क्स से दूरी बरत रहे हैं लेकिन जाने या अनजाने उनकी एक मान्यता को बल
प्रदान कर रहे हैं और वह कि तथाकथित मुक्त बाजार पूंजी के मालिकान को अकूत फायदा पहुंचाता
है । बीसवीं सदी में थोड़ा संपन्न मजदूर वर्ग के उभार ने इस मान्यता को धूमिल कर दिया
था । वर्तमान यह है कि विषमता तो बढ़ ही रही है, वृद्धि की रफ़्तार भी धीमी
पड़ी है । ऐसे में उन्नीसवीं सदी जैसा भविष्य नजर आ रहा है जब धनिकों को विरासत में
भारी संपत्ति मिलती थी और मध्य वर्ग कमजोर होता जा रहा था ।
गोरान थेर्बोर्न ने न्यू लेफ़्ट रिव्यू के जनवरी-फ़रवरी 2014
अंक में लेख लिखा ‘न्यू मासेज ?’ इसमें वे बताते हैं कि पूंजीवाद के आलोचकों का
सामाजिक आधार अब तक मजदूरों के सवाल रहे हैं । 1970 दशक तक औद्योगिक मजदूर
पूंजीवाद विरोधी विमर्श में केंद्र में रहे । उसी के साथ स्वाधीनता आंदोलनों की
शक्ल में एक नया सामाजिक आधार भी साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति प्रयासों
का अंग बना । पिछले तीस सालों में उत्तरी देशों का अनुद्योगीकरण हुआ है और इसके
चलते मजदूरों की ताकत घटी है । इसी दौर में दक्षिण के देशों में उद्योगीकरण बढ़ा
लेकिन मजदूर वर्ग या उपनिवेशवाद विरोधी उभार जैसा कुछ तो नहीं हो रहा, पूंजीवाद
विरोधी कोई नया सामाजिक आधार तो नहीं दिखाई पड़ रहा है फिर भी जन आंदोलनों की शक्ल
में वर्तमान पूंजीवादी विकास विरोधी कुछ नई तकतें उभर रही हैं ।
इसमें पहली ताकत वे
हाशिये के समुदायों को गिनते हैं । ये प्राक-पूंजीवादी जन समूह हैं, बड़ी पूंजी के
प्रवेश से परेशान हो रही देसी आबादियां हैं । इनका प्रभाव भारत और लैटिन अमेरिका में
अधिक है लेकिन तमाम दक्षिणी देशों में मौजूद हैं । संख्या के लिहाज से कम होने के बावजूद
बोलिविया और भारत में स्थानीय स्तर पर विद्रोहियों के कारण इनका प्रतिरोध चर्चा का
विषय बना हुआ है । इन्हीं के साथ लाखों भूमिहीन किसानों, अस्थायी मजदूरों
और झुग्गियों में रहने वाले खोखा विक्रेताओं को भी जोड़ लीजिए । बेदखली के विरुद्ध और
बिजली, पानी के लिए इनकी गोलबंदी तेजी से होती है । अरब मुल्कों
के आंदोलनों और कटौती विरोधी यूरोपीय देशों के प्रदर्शनों में इनकी भागीदारी महत्वपूर्ण
रही है । किसी कारगर समाजार्थिक विकल्प से उनके जुड़ाव के लिए जरूरी है कि यह विकल्प
उनकी तात्कालिक समस्याओं को संबोधित करे । इनको संगठित करने के लिए शहरी आबादी के संपर्क
लायक ढांचों की जरूरत है । पूंजीवाद विरोधी एक अन्य नया तबका मध्य वर्ग के रूप में
उभरा है । इनमें छात्र प्रतिरोध की लगभग सभी मुहिमों के महत्वपूर्ण घटक के रूप में
दिखाई पड़े हैं । अर्थतंत्र में सेवा क्षेत्र की बढ़ती के साथ इस मध्य वर्ग की तादाद
बढ़ रही है और आर्थिक संकट उन्हें लगातार अलगाव में डाल रहा है ।
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