गोरख
पांडे का जन्म 1945
में देवरिया जिले के गाँव पंडित का मुंडेरवा में हुआ था । इस लिहाज से अगर वे आज जीवित रहते तो उनकी उम्र सत्तर साल होती । हिंदी कविता में उनका योगदान अविस्मरणीय है हालांकि उसे भुलाने के सभी तरीके आजमाए जाते हैं । इसके बावजूद गोरख की
कविता किसी जिद्दी धुन की तरह अनपेक्षित जगहों पर बिना किसी पूर्व सूचना के बज उठती
है । जब भी कोई जनांदोलन सर्वानुमति को धता बताते हुए चुप्पी तोड़कर जाग जाने के लिए
विवश करता है तो गोरख की कविता पोस्टरों पर जमीं से उठते नगमे की तरह आ विराजती है
। जीवित रहते ही उनकी कविता इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि हिंदी भाषी क्षेत्र के लगभग सभी आंदोलनकारियों की जुबान पर लेखक का नाम जाने बिना भी चढ़ी रहती थी । मुक्तिबोध के बाद इतनी विचार सघन कविता गोरख ने ही लिखी । नक्सलबाड़ी ने जो सृजनात्मक ऊर्जा पैदा की उसकी सबसे परिपक्व उपलब्धि हिंदी में गोरख पांडे थे । उनकी कविता में विचार तत्व की प्रमुखता के साथ ही जुड़ा हुआ है उनका वैचारिक लेखन । यह लेखन उन्होंने बैठे ठाले नहीं किया था । नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी ने साथ मिलकर यह वैचारिक संघर्ष चलाया और अपनी बौद्धिक बेचैनी को मकसद की खोज का सही रास्ता दिखाया । यही कारण है कि उनकी
कविता और लेखन के सिलसिले में अनेक शोधार्थियों ने शोध प्रबंध विभिन्न
विश्वविद्यालयों में जमा किए हैं । स्वाभाविक रूप से इनमें से ज्यादातर जनेवि में
जमा हुए हैं ।
गोरख पांडे की इस वैचारिक यात्रा को उनके लेखन से तो समझा ही
जा सकता है लेकिन उसका एक बड़ा स्रोत उनके साथियों के संस्मरण भी हैं । इनमें से अधिकतर
संस्मरण उनकी आत्महत्या के बाद लिखे गए । इनमें से कई उस समय के हिंदी अखबारों में
छपे । ज्यादातर संस्मरणों में एक तरह की या तो अपराध भावना थी या अपनी जिम्मेदारी से
पीछा छुड़ाने के तर्क थे । कुछ में तो गोरख पर अपने अहसानों की कैफ़ियत भी दी गई थी ।
इन संस्मरणों के अतिरिक्त एक संस्मरण नेपाल की एमाले (एकीकृत
मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पार्टी के नेतृत्व में गठित मदन भंडारी सरकार में शिक्षा
मंत्री रहे और नेपाली के प्रख्यात साहित्यकार मोदनाथ प्रश्रित का था । मूल रूप से
नेपाली में ‘अब छैनन मेरा प्रिय साथी गोरख पांडे !’ शीर्षक से प्रकाशित इस संस्मरण
का बाद में हिंदी अनुवाद हुआ । मोदनाथ जी संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में
गोरख पांडे के सहपाठी रहे थे । गोरख जी इस विश्वविद्यालय के छात्र संघ के प्रथम
अध्यक्ष रहे थे । इसी तरह भाकपा माले के वर्तमान महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने भी
उन पर लिखा । इसके बाद जब ‘आलोचना’ पत्रिका का विशेषांक
निकला तो उसमें गोरख के मित्रों और परिचितों के अनेक संस्मरण शामिल थे । इसमें बिरला
छात्रावास में साथ रहे बलराज पांडे ने पत्नी के साथ उनके रुख को लेकर सवाल खड़ा किया
था । छाया इस मान्यता की थी कि विवाह हो जाने पर पत्नी के साथ न रहना या उसे साथ न
रखना अनैतिक है । चमनलाल, अब्दुल बिस्मिल्ला आदि के संस्मरण भी
थे । इनके अलावा गोरख के पुराने मित्र और सहकर्मी महेश्वर ने पटना से निकलने वाली पत्रिका
‘समकालीन जनमत’ में दो संपादकीय लिखे ।
उसी पत्रिका ने महेश्वर की मृत्यु के बाद जो विशेषांक निकाला उसमें महेश्वर का विस्तृत
संस्मरण था और उसका एक बड़ा हिस्सा गोरख पर था । दिवंगत साथी अनिल सिन्हा ने भी उन पर
एक संस्मरण लिखा था जो उनकी रचना प्रक्रिया के कुछ नए पहलुओं पर रोशनी डालता है । अनिल
सिन्हा की मृत्यु के बाद इसका प्रकाशन ‘प्रसंग’ के संस्मरण विशेषांक में हुआ । पिछले कुछ दिनों में शिव शंकर मिश्र ने जनेवि
में उनके जीवन और उर्मिलेश ने उनकी प्राथमिताओं को स्पष्ट करने वाले संस्मरण उन पर
लिखे । ये हिंदी में तेजी से फैल रही आभासी (वेब) दुनिया के कुछ प्रमुख ब्लागों में प्रकाशित हुए । हाल ही में प्रकाशित तुलसी
राम की आत्मकथा के दूसरे खंड ‘मणिकर्णिका’ में भी गोरख पांडे आद्यंत मौजूद हैं और आत्मकथा को पढ़कर ही समझा जा सकता है
कि उनकी यह उपस्थिति आकस्मिक नहीं है । गोरख के जीवन को अद्भुत तटस्थता के साथ देखने
के क्रम में तुलसी राम ने उनके कुछ ऐसे अंतर्विरोधों पर भी उंगली रखी है जिनसे उनकी
आत्महत्या की गुत्थी भी कुछ हद तक सुलझाई जा सकती है । हालांकि अगर आत्महत्या के बारे
में गोरख का लिखा लेख मिल जाए तो उस मानस की दुनिया में घुसना थोड़ा आसान होता जिसने
‘बीमारी’ का बोझ दूसरों पर लादने की बनिस्बत
उसके तले प्राण दे दिए ।
गोरख के लेखन का अधिकांश तो उपलब्ध हो गया है लेकिन कुछ चीजें
अब भी नहीं मिल सकी हैं । उनका जिक्र सिर्फ़ इसलिए कि याद रहने से ये चीजें खोजने में
सुविधा होगी । ‘संक्रमण’ नामक एक पत्रिका आज के दलित चिंतक
और डिक्की के नेता चंद्रभान के संपादन में निकलती थी । असल में चंद्रभान प्रसाद ने
अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत वामपंथ के तीसरे धड़े से की थी । मार्क्सवादी-लेनिनवादी सैकड़ों भूमिगत संगठनों में से एक का नाम सेंट्रल टीम था जिसका मुखपत्र
‘संक्रमण’ था । इसके पहले अंक का संपादकीय गोरख
ने लिखा था जिसका शीर्षक शायद ‘नया लेखन : संदर्भ और दिशा’ था, उनका ही एक
और लेख पत्रिका में था जिसकी विषयवस्तु आत्महत्या थी । उनके मित्र अवधेश प्रधान ने
उनके लेखों के संग्रह के लिए सूची बनाई तो तीन जगह इस लेख के तीन शीर्षक दर्ज किए
। एक जगह इसका शीर्षक है ‘आत्महत्या के बारे में’। दूसरी जगह इसी लेख का शीर्षक उन्होंने ‘हत्या और आत्महत्या
के बीच’ बताया है । तीसरी जगह ‘आत्महत्या
: सामाजिक हिंसा का द्वंद्व’ उल्लिखित है । गोरख
की दूसरी या तीसरी बरसी पर इनमें से कोई एक बनारस के ‘स्वतंत्र
भारत’ नामक अखबार में फिर से छपा था । अवधेश प्रधान की ही सूचना
के मुताबिक डेविड सेलबोर्न की किताब ‘ऐन आई टु इंडिया’
के बारे में भी उन्होंने मेनस्ट्रीम में 1983 से
1988 के बीच या तो समीक्षा या लेख लिखे थे । अवधेश प्रधान ने लिखा है
‘दिल्ली रहते हुए मेनस्ट्रीम में डेविड सेलबोर्न के लेख के जवाब
में गोरख पांडे ने कई लेख लिखे 83 से 88 के बीच’ । तुलसी राम की आत्मकथा ‘मणिकर्णिका’ में गोरख पांडे का जो प्रसंग है उसके अनुसार
बनारस के दिनों में ‘वे खड़ी बोली में गीत लिखते थे । उनके कई
गीत भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित “ज्ञानोदय”
में छपे थे ।’ इसके बाद फिर लिखा है ‘गोरख रोमांटिक कविताएं लिखा करते थे । कलकत्ता से प्रकाशित “ज्ञानोदय” नामक साहित्यिक पत्रिका में उनकी ऐसी कई कविताएं
छपी थीं ।’ इन कविताओं की तलाश से निश्चय ही गोरख के काव्य विकास
को समझने में सहायता मिलेगी । गोरख के अभिन्न मित्र राम जी राय बताते हैं कि कभी गोरख
ने धर्मवीर भारती के एक लेख के विरुद्ध लेख लिखा था । धर्मवीर भारती ने अपने लेख में
जनवादी लेखन के बीज शब्द गिनाकर उसका मजाक उड़ाया था । गोरख ने व्यंग्य में लिखा था
कि जनवादी लेखन का एक और बीज शब्द है ‘दलाल’ जिसको गिनाना भारती अनायास नहीं भूले । गोरख और महेश्वर के बीच तुलना करते
हुए अवधेश प्रधान कहते थे कि महेश्वर अगर बिजली का नंगा तार थे जिसे कहीं भी छूने से
झटका लगता था तो गोरख ढके हुए तार थे जिसकी ताकत का पता बल्ब की रोशनी से चलता था ।
गोरख के व्यंग्य की मारकता को यह उपमा अच्छी तरह व्याख्यायित करती है ।
हिंदी के वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह ने तो ‘जन संस्कृति’
के गोरख विशेषांक पर टिप्पणी के बहाने लेखनुमा ही लिख डाला था । मुक्तिबोध
के काव्य संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका की तरह ही यह आलेख संक्षेप में गोरख की समूची तस्वीर पेश कर देता
है । जनेवि में उनके शोध के दिनों के एक साथी सुगथन बताते हैं कि गोरख जी को जो शोधवृत्ति
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मिली हुई थी उसकी निरंतरता के लिए अध्येता को एक रिपोर्ट
लिखनी होती थी । ऐसी एक रिपोर्ट गोरख ने लिखी और टाइप कराकर जमा की थी । उस रिपोर्ट
के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग या जनेवि के दर्शन केंद्र में होने की आशा है । उनकी
शोध निर्देशक प्रोफ़ेसर सुमन गुप्ता के निधन के कारण भी अब उसके मिलने की आशा क्षीण
है क्योंकि इसकी एक प्रति शोध निर्देशक के पास जमा होने की परंपरा थी ।
जिन दिनों वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत थे उस समय
विश्वविद्यालय छात्र आंदोलन का केंद्र था । कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े छात्र संगठन
ए आई एस एफ़ और समाजवादी युवजन सभा के अनेक नेता तब विश्वविद्यालय छात्र संघ के
अध्यक्ष रहे । उसी समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद की मौजूदगी भी विश्वविद्यालय में थी । इन दोनों खेमों के बीच
अक्सर हिंसक झड़पें होती थीं । विश्वविद्यालय प्रशासन पर इस या उस खेमे के पक्षपात
के आरोप लगते थे । इन घटनाओं की जांच के लिए अनेक आयोग बने थे और उन्होंने आंदोलनकारियों
के भी बयान लिए होंगे । आंदोलनों में गोरख की सक्रियता के मद्दे नजर आशा की जा सकती
है कि उस समय के किन्हीं सरकारी कागजों या अखबारों में उनका बोला-लिखा मिल
सकता है । संगठन (जन संस्कृति मंच) के महासचिव
होने के नाते उन्होंने ढेर सारे पत्र लिखे होंगे । उनका संग्रह नहीं हो सका है । आम
तौर पर साथियों को लिखे उनके पत्रों में पहला वाक्य ‘आशा है स्वस्थ-सानंद होंगे’ की जगह ‘आशा है स्वस्थ
और सक्रिय होंगे’ होता था । शायद सक्रियता को ही वे आनंद मानते
थे ।
गोरख का बहुआयामी व्यक्तित्व ही कम्युनिस्ट नेताओं से लेकर शीर्षस्थ
कवियों-लेखकों तक को आकर्षित करता था । वे अपने साथियों के जीवन से तो कभी अनुपस्थित
नहीं हुए, जनता के आंदोलनों ने भी हर दौर में उनसे कुछ न कुछ
पाया । महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय ने अपने कार्यकाल में एक छात्रावास का नाम उनके
नाम पर रखा । कवि दिनेश कुमार शुक्ल ने उन पर ‘जाग मछंदर’
शीर्षक कविता लिखी, जब एक कविता से बात नहीं बनी
तो एक और भी कविता लिखी । बहुत पहले शायद 1986 या 1987 में अवधेश प्रधान के
घर पर हुई एक अनौपचारिक कवि गोष्ठी में प्रत्येक कवि के कविता सुनाने के बाद गोरख अपनी
कोई कविता पढ़ते या कोई गीत गाते । इस गोष्ठी में गोरख के गायन और पाठ को अजय कुमार
ने रेकार्ड कर लिया था । बाद में संजय जोशी ने द ग्रुप की ओर से उसका कैसेट जारी किया
। राहुल राम के नेतृत्व में 1991 में गठित संगीत
मंडली ‘इंडियन ओसन’ ने 2000 में जारी अपने तीसरे संगीत अलबम कंदीसा में गोरख का गीत ‘हिलेले’ गाया था । यहां तक कि अनुभव सिन्हा ने अपनी फ़िल्म
‘गुलाब गैंग’ के प्रचार के लिए जब माधुरी दीक्षित
से कुछ कविताओं का वाचन करवाया तो उनकी आवाज में गोरख की कविता ‘उनका डर’ का वाचन भी शामिल था । गोरख की कविताओं और
गीतों में जरूर कुछ ऐसा है जो स्थापित सत्ता संरचना को नंगा कर देता है । सच को
पहचानने और निर्भय कहने की कीमत उन्होंने अपनी जान देकर चुकाई । रांची से प्रकाशित
होने वाली पत्रिका ‘लोक चेतना वार्ता’ ने
हाल में उन पर विशेषांक निकालने की योजना बनाई है जिसमें भी अनेक लोगों के संस्मरण
और मूल्यांकनपरक लेख होने की संभावना है ।
गोरख की स्मृति को अधिक सृजनात्मक तरीके से संजोने की
कोशिशें उनके गांव पर हो रही हैं । कुछ परिवार के उत्साह और कुछ जसम की उत्तर
प्रदेश इकाई की प्रेरणा से 2010 के बाद से लगातार 29 जनवरी को गोरख पांडे स्मृति
दिवस मनाया जाता है । 2010 में जसम की प्रदेश इकाई का सम्मेलन उनके गांव पर इसी
दिन हुआ था । उसी के बाद से हरेक साल सांस्कृतिक कार्यक्रम या विचार गोष्ठी होती
है जिसमें उनके पुराने परिचित दलित/पिछड़े शामिल तो होते ही हैं, अपने गीत संगीत भी
पेश करते हैं । परिवार के लोगों के साथ मिलकर स्थानीय बौद्धिक जन किसी ट्रस्ट की
भी योजना बना रहे हैं जो गोरख के जीवन और साहित्य के मूल्यों को प्रचारित/प्रसारित
करने में योगदान करेगा ।
आत्महत्या के बाद हास्टल के कमरे से मिले कागजों में अवधेश प्रधान
द्वारा उन्हें लिखे तीन पत्र मिले । इनसे जसम के साथ उनके रिश्तों के सिलसिले में कुछ
बातों का पता चलता है । यह एक तथ्य है कि उन्होंने जसम के महासचिव पद से त्यागपत्र
दिया था । इस त्यागपत्र के बाद मंच के मुखपत्र के संपादक मंडल से भी अपना नाम हटवाने
के लिए गोरख ने जो पत्र लिखा उसी संदर्भ में अवधेश प्रधान ने ये पत्र लिखे थे । जिस
संगठन के वे पहले महासचिव चुने गए थे उसी से उनके त्यागपत्र की गुत्थी को समझने के
लिए आधुनिक भारतीय राजनीति की एक समस्या पर विचार करना होगा । सांप्रदायिकता का
कोढ़ भारत की राजनीति की शुरुआत से ही इसके साथ लगा रहा है । इसके प्रति कम्युनिस्ट
पार्टी का नजरिया विरोध का ही रहा है लेकिन इस सांप्रदायिकता के स्रोत की पहचान इसके
विरोध के लिए जरूरी है । इस सवाल पर स्वाधीनता आंदोलन पर विचार करने वाले वामपंथी
बौद्धिकों में कुछ लोग इसे अंग्रेजी शासन की ‘बांटो और राज करो’ की नीति का अंग
मानते हैं और ब्रिटिश शासकों को इसका मुख्य स्रोत मानते हैं । इसी हिसाब से वे
कांग्रेस को सांप्रदायिकता का विरोधी और मुस्लिम लीग को सांप्रदायिक मानते हैं और
भारत के बंटवारे की गुत्थी को भी सुलझा लेते हैं । वामपंथी बौद्धिकों का ही एक और
खेमा स्वाधीनता आंदोलन की नेतृत्वकारी शक्ति में हिंदू सांप्रदायिकता के प्रति
झुकाव को चिन्हित करता है और बंटवारे का मुख्य कारण कांग्रेस की इस समस्या को
मानता है । यह द्वंद्व आजादी के बाद भी बना रहा है । खासकर अलग अलग नामों से
विभिन्न समयों में मौजूद हिंदू सांप्रदायिक पार्टी के चलते वामपंथियों के सामने यह
समस्या रही है कि वे इस पार्टी में सांप्रदायिकता के खतरे को देखें या शासक
कांग्रेस पार्टी में क्योंकि कांग्रेस ने भी हिंदू सांप्रदायिकता को पालने और
बढ़ाने के पर्याप्त प्रमाण दिए हैं ।
रुख की इस समस्या के इर्द गिर्द पारंपरिक वामपंथी पार्टियों
और उनकी विरोधी क्रांतिकारी वामपंथी धाराओं के बीच बहस चलती रही है । आजादी के बाद
उस समय की भाकपा ने नेहरू की सरकार को समर्थन देने के लिए तेलंगाना के ऐतिहासिक
संघर्ष को तिलांजलि दे दी थी । उनकी पुत्री इंदिरा गांधी की शह पर पहली गैर
कांग्रेसी और वामपंथी सरकार (केरल में नंबूदिरीपाद की सरकार) गिराई गई इसके बावजूद
कांग्रेस पार्टी के आंतरिक संघर्ष में कम्युनिस्ट पार्टी ने आम तौर पर इंदिरा
गांधी का ही साथ दिया । यहां तक कि 75 में आपात्काल की घोषणा का समर्थन भी फ़ासीवाद
के विरोध के नाम पर किया गया । बहरहाल 80 के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में
कांग्रेस पार्टी ने हिंदू सांप्रदायिकता को हवा देना शुरू किया । संस्कृति के
क्षेत्र में सांप्रदायिकता को बड़ी चुनौती मानने के बावजूद जोर का सवाल जसम में उठा
। पारंपरिक वामपंथी पार्टियों के सूत्रीकरण में कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल को
सही ठहराने की कोशिश देखकर उसके मुकाबले भाकपा-माले ने सांप्रदायिकता के भी प्रश्न
पर कांग्रेस को ही घेरना सही समझा । घटनाओं की गवाही भी इसके पक्ष में थी । बाबरी
मस्जिद का ताला खोलने से लेकर वहां रामजन्म भूमि की पूजा की इजाजत तक कांग्रेस ने
हिंदू सांप्रदायिक माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । गोरख के लेखन में भी
समझदारी के स्तर पर यह जोर दिखाई देता है । लेकिन जसम की किसी कार्यकारिणी की बैठक
में महासचिव की रपट में भाकपा-माले संचालित ‘राजीव हटाओ’ आंदोलन का जिक्र न होने
से कार्यकारिणी के ही एक साथी ने इसे सांप्रदायिकता के सवाल पर कांग्रेस के प्रति
नरम रुख का संकेत मानकर तीखी आलोचना की । गोरख को धक्का लगा और उन्होंने महासचिव
के पद से इस्तीफ़ा दे दिया । इसके कुछ ही दिनों बाद ‘बीमारी’ यानी स्किजोफ़्रेनिया का अंतिम
दौरा पड़ा ।
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