आजादी के बाद सत्तासीन हुई और सबसे लंबे दिनों तक सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस पार्टी अपने अस्तित्व के सबसे संकटपूर्ण दिनों से गुजर रही है । भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ बनाने का आवाहन किया है । इसके अलावा भी सवाल उठने लगे हैं कि उसकी लोकप्रियता में आई ताजा गिरावट अस्थायी है या यह उसके खात्मे की शुरुआत है । इस सवाल का उत्तर पाने के लिए हमें देखना होगा कि आखिर यह पार्टी देश के इतिहास में किस जरूरत को पूरा करने के लिए जन्मी और अनेक उतार चढ़ाव
के बावजूद इतने दिनों से बनी हुई है । भारत की चुनावी राजनीति के इतिहास की एक बड़ी सचाई यह भी है कि सबसे भारी हार के बावजूद चुनावों में देश के सारे प्रांतों में सम्मानजनक वोट पाने वाली कांग्रेस पार्टी ही रही है ।
समूचे भारत के इस प्रतिनिधित्व का कारण एक हद तक ‘हिंद स्वराज’ में प्रस्तुत गांधी का यह मूल्यांकन भी है कि “कांग्रेस
ने अलग अलग जगहों पर हिंदुस्तानियों को इकट्ठा करके उनमें ‘हम एक
राष्ट्र हैं’ ऐसा जोश पैदा किया ।” महात्मा गांधी ने यह बात इस तर्क के
विरोध में कही है कि रेलों ने देश को एकताबद्ध किया है । रेलों को तो वे ऐसी चीज मानते
हैं जो भारत को गुलाम बनाए रखने में ब्रिटिश शासन की सहायता करती हैं । वे कहते हैं
कि रेल के चलते फ़ौज की दूर दूर के इलाकों में तैनाती में आसानी होती है । उस समय रेल
की ज्यादातर कंपनियां विदेशी थीं और रेल के विस्तार से उन्हीं को मुनाफ़ा होना होता
था इसीलिए स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ‘रेल बनाम नहर’ की बहस
देशभक्त चिंतकों ने चलाई क्योंकि नहरें खेती के लिए ज्यादा जरूरी थीं, जबकि ब्रिटिश सरकार रेल के विस्तार पर जोर देती थी । इस समय देश में विकास
के नाम पर बनी सर्वानुमति में इसी तरह की घटनाओं का होना अपवाद नहीं रह गया है । मेट्रो
रेल विकास का पर्याय बन गई है जो जापान के सहयोग से चलती है । तथाकथित विकास संबंधी
लगभग सभी परियोजनाओं की जरूरत पैदा की जा रही है और फिर उसे जीवन की अनिवार्यता के
बतौर प्रचारित किया जा रहा है । इस विकास की कीमत आजादी से पहले भी देश के किसानों
ने चुकाई थी और आज भी वे ही अपनी आत्महत्याओं की बलि देकर विकास के रथ के लिए निर्बाध
यात्रा का रास्ता तैयार कर रहे हैं ।
ऊपर के विश्लेषण से स्पष्ट है कि देश की एकता स्थापित करने के
दो रास्ते थे । एक औपनिवेशिक शासकों का रास्ता था जिसमें रेल के जरिए फ़ौज की तैनाती
करके भौगोलिक एकता को किसी भी कीमत पर बनाए रखना था क्योंकि इससे बाजार के रूप में
भारत देश विदेशी पूंजी के दोहन और शोषण के लिए इकट्ठा ही मिल जाता था । आश्चर्य नहीं
कि औपनिवेशिक समय में विश्व युद्धों के दौरान ठेके हासिल करके पूंजी एकत्र करने वाले
भारतीय पूंजीपतियों को इसी तर्क से जल्दी से जल्दी देश चाहिए था भले ही वह विभाजित
हो । देश में एकता तो दोनों तरह से स्थापित की जा सकती थी । एक उसे गुलाम बनाकर और
दूसरे साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई के जरिए । पहला तरीका अंग्रेजी शासन का था तो दूसरा
तरीका कांग्रेस के आंदोलन में गांधी जी को नजर आया । यानी देश की एकजुटता का भाव बौद्धिक
वर्ग में पैदा करने का काम इस पार्टी ने किया था, लेकिन गौर करने की बात है
कि यह एकजुटता साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए कायम की गई थी और उसी लड़ाई के जरिए मजबूत
भी हुई । बिना इस उद्देश्य को समझे हम राष्ट्रीय एकता के नारे के प्रति वर्तमान जन
झुकाव की ताकत को नहीं समझ पाते हैं । जिन देशों को उपनिवेशवादी शासन से लड़ाई लड़कर
आजादी हासिल हुई है उन देशों में देशभक्ति का एक साम्राज्यवाद विरोधी भावनात्मक आकर्षण
लंबे समय तक बना रहेगा । भारत देश की भावात्मक एकता के सांस्कृतिक तथ्य को साम्राज्यवाद
विरोधी संघर्ष से ठोस ऐतिहासिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य हासिल हो जाता है ।
इसी विंदु पर एक और बात की ओर ध्यान देना उचित होगा । इतिहास
का यह भी एक स्थापित तथ्य है कि स्वाधीनता की लड़ाई में कांग्रेस पार्टी कभी बहुत सुसंगत
नहीं रही । यहां तक कि कांग्रेस के प्रचंड पक्षधर इतिहासकार बिपन चंद्र को भी स्वीकार
करना पड़ा है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का ब्रिटिश साम्राज्यवाद से
लड़ने का तरीका बहुत कुछ ‘दबाव-समझौता-दबाव’ का ही रहा । इसकी व्याख्या करते हुए कहा जा सकता
है कि असली साध्य तो समझौता होता था जिसके लिए साधन के बतौर जन गोलबंदी का दबाव बनाया
जाता था । इसीलिए इस दबाव को बनाते हुए भी ध्यान रखा जाता था कि वह काबू से बाहर न
चला जाए, उसकी नकेल नेताओं के हाथ में ही रहे । हम कह सकते हैं
कि स्वाधीनता आंदोलन में जिस हद तक इस पार्टी ने साम्राज्यवाद का मुकाबला किया उस हद
तक निश्चय ही इसने देश की एकता को आंदोलन की अखिल भारतीय व्यापकता के जरिए और भारतीय
समाज के नए नए तबकों को इसमें शरीक करके मजबूत किया लेकिन जिस हद तक इसने साम्राज्यवाद
के साथ समझौता किया उस हद तक देश के भौगोलिक विभाजन तक का कारण यही पार्टी बनी । इसी
समझौते के कारण बंटवारे के समय भारतीय जनता की सजगता भी कमजोर हुई जिसके चलते वह राष्ट्र-विभाजन का प्रभावी प्रतिरोध नहीं तैयार कर सकी । अकारण नहीं कि अपनी लाश पर
देश का बंटवारा मानने की बात करने वाले गांधी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इसके
पक्ष में वोट कर बैठे ।
कांग्रेस के आचरण और उसके परिणाम के बारे में यह बात अगर आजादी
से पहले के लिए सच है तो आजादी के बाद के लिए और भी अधिक सच है । साम्राज्यवाद के साथ
सहयोग और गंठजोड़ देश की एकता को घातक नुकसान पहुंचाता रहा है । आजादी से पहले एक कंपनी ‘ईस्ट इंडिया
कंपनी’ शासक थी तो आज इतनी कंपनियां आ गई हैं कि उनकी गिनती मुश्किल
है । साम्राज्यवाद की घुसपैठ का रास्ता बनाने वाली इन कंपनियों के साथ शासक कांग्रेस
पार्टी की नजदीकी ने उसे जनता और उसके रोजमर्रा के सवालों से न सिर्फ़ दूर किया है बल्कि
इन सवालों के प्रति असंवेदनशील भी बनाया है । यहां तक कि बड़े पूंजीपतियों से
इस पार्टी की दीर्घकालीन नजदीकी की एक वजह नेताओं और पूंजीपतियों के बीच यह सहमति थी
कि पूंजीपति सीधे राजनीति नहीं करेंगे बल्कि कांग्रेस के पूंजीवाद समर्थक नेताओं का
हाथ मजबूत करके उन्हीं के जरिए अपना काम निकालेंगे । यह सहमति आज टूट गई है और जिंदल
तथा अंबानी सीधे राजसत्ता पर काबिज दिखाई पड़ रहे हैं । देखने में तो
यह भी आया कि देशी और विदेशी धन्नासेठों के साथ उसकी नजदीकी बढ़ने के साथ देश की एकता
के भौगोलिक संस्करण के प्रति उसका अनुराग भी बढ़ता रहा है । अक्सर इसका इस्तेमाल वह
जनसमुदाय के सवालों को दबाने के लिए करती रही है । कांग्रेस पार्टी के इसी रुख की बुनियाद
पर भाजपा देशभक्ति की ऐसी धारणा विकसित कर सकी है जो उग्र देशभक्ति के साथ कारपोरेटपरस्ती
का काकटेल बनाकर क्रमश: कांग्रेस को उसकी जगह से बेदखल करती जा
रही है ।
कांग्रेस के दूसरे मजबूत आधार को धक्का एक नवोदित पार्टी के
उभार से लगा है । कांग्रेस का अध्ययन करने वाले सभी विद्वानों का मानना है कि यह गुलाम
भारत में उभरते हुए मध्य वर्ग की आकांक्षाओं को स्वर देने वाली संस्था थी । इस मध्य
वर्ग की आकांक्षाओं में जैसे जैसे बढ़त आई वैसे ही वैसे कांग्रेस की मांगें भी शासन
में भारतीयों की अधिक हिस्सेदारी के इर्द गिर्द सूत्रबद्ध होती गईं । उसके नेताओं में
वकीलों की बहुतायत इसी तथ्य का संकेतक थी । तब के लिहाज से यह मध्य वर्ग भारतीय समाज
का सबसे समृद्ध तबका ही था लेकिन कांग्रेस पार्टी की खूबी समृद्ध तबके के लिए मुफ़ीद
नीतियों के पीछे आम जनता को गोलबंद कर लेने की कुशलता थी । आम आदमी पार्टी (आप)
ने उसके प्रति इस मध्यवर्गीय आकर्षण को नुकसान
पहुंचाया है और सीटों के नुकसान से बड़ी चिंता इस समय कांग्रेस को इस सामाजिक आधार के
खिसकने की है । इसीलिए कांग्रेस ने आप से सीखने की बात की ताकि अति धनाढ्य वर्ग के
हाथ में शासन और नीतियों की नकेल देखकर प्रशासन से बेदखल महसूस कर रहे पेशेवर समूहों
और मध्य वर्ग की प्रशासन में पहुंच बढ़ती हुई दिखाई जा सके । कहने की जरूरत नहीं कि
यह संकट इस समय किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं है, बल्कि लगभग
सभी पार्टियों के समर्थन से निर्दलीय अथवा इन्हीं के प्रत्याशी के रूप में संसद में
सीधे पूंजीपतियों का पहुंचना चुनाव दर चुनाव बढ़ता चला जा रहा है । पूंजी की
बढ़ती आक्रामकता का ही प्रताप है कि मध्यवर्ग को रिझाने के मकसद से गठित आप को भी पूंजीपतियों
को नरमी का भरोसा दिलाना पड़ता है ।
हाल ही में प्रकाशित ‘इंडियन आइडियोलोजी’ शीर्षक
पुस्तक में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के इतिहासकार पेरी एंडरसन ने भारत को कांग्रेस से
मुक्त करने का आवाहन वाम बुद्धिजीवियों से किया है । अनेक वामपंथी बुद्धिजीवी इस आशंका
के मद्देनजर इस बात पर एतराज कर रहे हैं कि कांग्रेस की अनुपस्थिति का लाभ चरम दक्षिणपंथी,
अधिक खतरनाक और फ़ासीवादी पार्टी भाजपा को होगा । लेकिन इसका तो मतलब
यह हुआ कि कांग्रेस के ऐसे शासन को देश मंजूर कर ले जो अपनी
दक्षिणपंथी नीतियों के चलते क्रमश: भाजपा के लिए
जगह बना रहा है, जैसा वह हमेशा से करता रहा है । वैसे भी फ़ासीवाद
का उभार किसी एक पार्टी के नहीं समूचे शासक वर्ग और शासन के तरीके के संकट को हल करने
की कोशिश का नतीजा होता है ।
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