Sunday, February 16, 2014

मार्क्स-एंगेल्स के लेखन से जूझने की कोशिशें और नया समय



          
                                                                
         सभी जानते हैं कि मार्क्स और एंगेल्स के लेखन का संपादन-प्रकाशन भी कम से कम मार्क्सवादियों के लिए व्यावहारिक आंदोलन जैसी ही महत्वपूर्ण चीज रही है । खुदकम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रकी एक भूमिका में मार्क्स-एंगेल्स ने इसकी लोकप्रियता में उतार चढ़ाव को संबद्ध देश में मजदूर आंदोलन की हालत का पैमाना कहा था । असल में मार्क्स को जिन भौतिक हालात में काम करना पड़ा वे लिखे-पढ़े को अधिक सहेज कर रखने की अनुमति नहीं देते थे । दूसरे, जिस सामाजिक समुदाय के हित में उन्होंने ताउम्र लिखा वह तत्कालीन समाज में सब कुछ मूल्यवान पैदा करने के बावजूद प्रभुताप्राप्त ताकतों द्वारा समाज की हाशिए की ताकत बना दिया गया था इसलिए अपने नेता की लिखित-प्रकाशित सामग्री के संरक्षण की कोई व्यवस्था उसके पास नहीं थी । तीसरे मार्क्स ने अपने ऊपर काम बहुत ले लिया था और जिंदगी ने उन्हें वक्त कम दिया । उनकी भाषा जर्मन थी जिसके जानने वाले कम थे और मार्क्स की लिखावट भी बहुत स्पष्ट नहीं होती थी । इन सब कारणों के चलते उनके लेखन के प्रकाशन-संपादन का इतिहास भी मार्क्सवाद के विकास के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है ।
        मार्क्स की मौत के बाद एंगेल्स ने उनके लेखन के प्रकाशन-संपादन का दायित्व ग्रहण किया । इसी जिम्मेदारी के तहत उन्होंनेथीसिस आन फ़ायरबाखऔरगोथा कार्यक्रम की आलोचनाके अलावे  पूंजीके शेष दो  खंड संपादित करके प्रकाशित कराए क्योंकि उनका ध्यान इस बात की ओर था कि यह काम यानी पूंजीमार्क्स का सबसे महत्वपूर्ण काम है और इसी की उपेक्षा होने की संभावना सबसे अधिक है । एंगेल्स की मृत्यु के उपरांत रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति के बादमेगाके नाम से संपूर्ण रचनाओं को प्रकाशित करने की जिम्मेदारी 1920 के दशक में मास्को केमार्क्स-एंगेल्स इंस्टीच्यूटने ली लेकिन इस परियोजना में काम करने वाले बुद्धिजीवियों से सोवियत सत्ता की अनबन, जर्मनी में हिटलर के उदय आदि के चलते प्रकाशन का काम रुक गया । इस इतिहास का विस्तार से जिक्र करते हुए यूर्गेन रोजान ने पब्लिशिंग मार्क्स एंड एंगेल्स आफ़्टर 1989: द फ़ेट आफ़ द मेगा शीर्षक एक लेख में बताया है कि सबसे पहले 1910 के दिसंबर में मार्क्स-एंगेल्स समग्र प्रकाशित करने की योजना बनी । इसके लिए हुई बैठक में डेविड बोरिसोविच रियाज़ानोव भी मौजूद थे । लेकिन यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी जिसकी एक वजह प्रथम विश्व युद्ध भी था । इसके बावजूद स्वतंत्र तरीके से कार्ल काउत्सकी, फ़्रांज़ मेहरिंग और रियाज़ानोव इस दिशा में काम करते रहे थे । मसलन 1861 से 1863 तक की कुछ पांडुलिपियों को संपादित कर काउत्सकी ने ‘थियरीज आफ़ सरप्लस वैल्यू’ के नाम से प्रकाशित कराया, मेहरिंग ने 1849 से 1862 तक की चिट्ठियों के अलावा 1841 से 1850 तक के लेखन का एक संग्रह 1902 में संपादित किया, रियाज़ानोव ने न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून और पीपुल्स पेपर के लिए लिखे लेखों का संग्रह संपादित किया । चूंकि रियाज़ानोव की पहुंच मार्क्स-एंगेल्स के कागजात तक सबसे अधिक थी इसीलिए रूसी क्रांति के बाद समग्र के संपादन-प्रकाशन का जिम्मा उन्हें मिला । रियाज़ानोव ने समूचे यूरोप के विद्वानों का जाल बुना ताकि इस काम को अंजाम दे सकें । मूल योजना के मुताबिक 42 खंडों में प्रकाशन होना था जिसके शुरुआती 17 खंडों में पूंजी के अतिरिक्त मार्क्स-एंगेल्स का अन्य लेखन संकलित होना था । पूंजी से जुड़ी सामग्री अगले 13 खंडों में संकलित होनी थी । तीसरा हिस्सा 10 खंडों का होना था जिसमें इनका आपसी और अन्य लोगों के साथ पत्राचार संकलित होना था । अंतिम 2 खंड सूचियों के होने थे । 1927 से 1935 के बीच इनमें से कुल 11 खंड ही छप सके ।
       असल में मार्क्स की मौत के बाद उनके कागजात एंगेल्स के पास रहे थे । एंगेल्स ने सारे कागज पत्र अगस्त बेबेल और बर्नस्टीन को सौंप दिए थे क्योंकि वे लोग जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के ट्रस्टी के बतौर काम कर रहे थे । ये कागज पत्र कुछ दिनों बाद लंदन से लाकर पार्टी के संग्रहालय में रख दिए गए थे । 1920 के दशक में रियाज़ानोव ने जब समग्र के प्रकाशन का काम शुरू किया तो संग्रहालय में रखे इन कागजों को फ़ोटो कापी के रूप में हासिल करने का उन्होंने प्रयास किया । 1928 में जर्मन पार्टी की कोमिंटर्न से अनबन हो गई और यह अनुमति लटक गई । 1933 में हिटलर के सत्तारूढ़ होने के बाद ये कागज विदेश में एक डच बीमा कंपनी को दे दिए गए थे । इसी कंपनी ने उन्हें एम्सटर्डम स्थित एक शोध संस्थान को सौंप दिए जहां अब भी वे मौजूद हैं । बहरहाल रूस से संचालित इस परियोजना के तहत 1927 मेंहेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचनातथा 1932 में ‘1848 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियांऔरजर्मन विचारधाराका प्रकाशन हो सका था । इसके बादपूंजीकी तैयारी के नोट और कुछेक अन्य अध्ययनों को मिलाकरग्रुंड्रिसेका प्रकाशन हुआ । 1928 से 1947 तक और फिर 1955 से 1966 तक दो किश्तों में सोवियत सत्ता के संरक्षण में संपूर्ण रचनाओं का प्रकाशन हुआ जो वास्तव में संपूर्ण नहीं था । दूसरी ओर 1960 के दशक में एक औरमेगाकी योजना बनी और प्रकाशन भी 1975 से शुरू हुआ । इसमें 100 खंड छापने की बात थी जो चार हिस्सों में बंटा होना था । पहला हिस्सा पूंजी के अतिरिक्त अन्य लेखन का, दूसरा पूंजी की तैयारी समेत उसके सभी खंडों का, तीसरा उनकी आपसी और दूसरों को लिखी चिट्ठियों के अलावा उन्हें मिली चिट्ठियों का, चौथा पांडुलिपियों, हाशिये की टिप्पणियों और सार-संग्रहों का होना था । 60 के दशक के इस प्रयास में मास्को और बर्लिन के मार्क्सवादी पार्टी केंद्र मुख्य जिम्मेदारी संभाले रहे और एमस्टर्डम के संस्थान ने मदद का भरोसा देने के बावजूद सीधी जिम्मेदारी नहीं ली । एमस्टर्डम का संस्थान शोध संस्थान था जबकि रूस और बर्लिन के केंद्र पार्टी की देखरेख में काम करते थे इसलिए शुरू में थोड़ी हिचक दोनों ही ओर से थी लेकिन फिर काम चल निकला । इसी संश्रय के कारण 1975 के बाद मार्क्स-एंगेल्स समग्र का ज्यादातर प्रकाशन हुआ । बीच में समाजवादी देशों की हलचलों से थोड़ा व्यवधान आया लेकिन 1990 से इसका काम मंथर किंतु निरंतर जारी है और लगातार दुनिया भर के अनेक विद्वान एमस्टर्डम और त्रिएर में पांडुलिपियों और किताबों के हाशिए पर लिखी गई या अलग से नोटबुक में उतारी गई समस्त सामग्री की छानबीन कर रहे हैं और उनके आधार पर लगातार प्रकाशन-समीक्षा के जरिए समूची दुनिया में मार्क्स के लेखन और चिंतन के नए पहलू सामने आ रहे हैं । इस काम में दो शर्तें शामिल हैं- 1 कि मार्क्स-एंगेल्स का लेखन क्लासिकीय लेखन माना जाएगा और उसी तरह उसका संपादन-प्रकाशन होगा । 2 कि जो भी मार्क्स-एंगेल्स के लेखन में रुचि रखता है उसे इस काम में साथ लिया जाएगा । मार्क्स विभिन्न देशों में रहे थे- जर्मनी, फ़्रांस, बेल्जियम और इंग्लैंड । 1840 दशक के पूर्वार्ध के बाद उनका फलक कमोबेश अंतर्राष्ट्रीय रहा । उनकी पांडुलिपियों के संपादन के लिए इन देशों और भाषाओं तथा उनकी रुचि के अनेकानेक विषयों के जानकारों की जरूरत पड़ी । एक समस्या यह भी आई कि मूल सामग्री का दो तिहाई एम्सटर्डम में तो एक तिहाई मास्को में था । संपादन का काम जर्मनी में भी होना था क्योंकि प्रकाशन इसी भाषा में होना तय था । इन सब परिस्थितियों के मद्दे नजर इंटरनेशनल मार्क्स-एंगेल्स फ़ाउंडेशन नामक संस्था का 1990 में एम्सटर्डम में गठन किया गया । इसकी एकमात्र जिम्मेदारी मेगा का प्रकाशन है । नई परिस्थितियों को देखते हुए मूल योजना पर पुनर्विचार की जरूरत पड़ी और फ़्रांस में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें विषय विशेषज्ञों के साथ ही संपादन में निष्णात लोगों ने मुक्त ढंग से विचार विमर्श किया । मूल योजना 170 खंडों में प्रकाशन की थी लेकिन अब घटाकर उसे 114 खंड तक लाया गया है । जो कुछ प्रकाशित हुआ है उसमें मार्क्स की एक ऐसी नोटबुक है जिसमें उन्होंने अपने समकालीन अर्थशास्त्रियों के लेखन से नोट लिए और उन पर टिप्पणियां दर्ज की हैं । परेश चट्टोपाध्याय ने ऐट द सोर्स आफ़ द क्रिटीक आफ़ पोलिटिकल इकोनामी शीर्षक लेख में इन नोटबुकों का अध्ययन करते हुए इन्हें मार्क्स की बौद्धिक जीवनीका विचित्र स्रोत कहा है । ये 1844 से लेकर 1881 तक की हैं और इनकी संख्या बीस है जिनमें से पहला प्रकाशित सेट 1844 से 1848 की नोटबुकों का है । इनमें विधिशास्त्र, इतिहास, दर्शन, ललित लेखन और राजनीतिक अर्थशास्त्र से संबंधित टीपें हैं । पहली नोटबुक के आधार पर विद्वानों ने देखने की कोशिश की है कि खुद मार्क्स के लेखन से दूसरे लेखकों के लेखन से लिए गए इन नोटों का कैसा रिश्ता बनता है । कुछ और नोटबुकों के आधार पर यह साबित हुआ है कि गणित, विज्ञान और तकनीक संबंधी अद्यतन ज्ञान में मार्क्स की रुचि ताउम्र बनी रही थी । इस संबंध में प्रदीप बख्शी ने कार्ल मार्क्सस्टडी आफ़ साइंस एंड टेकनालाजीशीर्षक से नेचर, सोसाइटी एंड थाट नाम की पत्रिका में जुलाई 1996 में लेख लिखा था । इसमें उनका कहना है कि आम तौर पर एंगेल्स की छवि प्राकृतिक विज्ञान पर लिखने वाले की और मार्क्स की छवि मानविकी से जुड़े विषयों पर लिखने वाले की रही है । दर्शन और समाजशास्त्र की दुनिया में एंगेल्स के योगदान को तो मान्यता मिली लेकिन मार्क्स का विज्ञान संबंधी लेखन/चिंतन ओझल ही रहा है । इन नोटबुकों से मार्क्स की विज्ञान में रुचि और दखल का पता चल रहा है ।             
        हाल के दिनों में चीन में भी क्लासिकीय मार्क्सवाद के अध्ययन की ओर रुझान दिखाई पड़ा है । सेंट्रल कंपाइलेशन एंड ट्रांसलेशन ब्यूरो के अध्येता यांग जिन्हाई द्वारा अगस्त 2006 में लिखेइंट्रोडक्शन टु मार्क्सिज्म रिसर्च इन चाइनाशीर्षक लेख में विस्तार से इन गतिविधियों का जिक्र किया गया है । वे बताते हैं कि पहले मार्क्सवाद को तीन हिस्सों में देखा जाता था- दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र और वैज्ञानिक समाजवाद ताकि इसे पढ़ने और पढ़ाने में सुभीता हो । अब ऐसा महसूस किया जा रहा है कि इस तरह देखने से इन तीनों के बीच का संबंध स्पष्ट नहीं हो पाता था । अब इन बुनियादी चिंतकों की एकल चिंतन प्रक्रिया की पहचान पर जोर दिया जा रहा है । मार्क्सवाद के स्रोतों के सवाल पर भी महसूस किया जा रहा है कि जर्मन दर्शन, ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र तथा फ़्रांसिसी समाजवाद के अलावा इनमें आधुनिक पाश्चात्य मानववाद और प्राचीन ग्रीक दार्शनिक चिंतन को भी शामिल किया जाना चाहिए । नए समय को देखते हुए ऐतिहासिक भौतिकवाद के तहत भूमंडलीकरण के परिणामों और समाजवाद की प्रकृति पर भी विचार होना चाहिए । मूल्य का श्रम सिद्धांत, अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत, स्वामित्व के रूप और हरेक को काम के अनुसार देय की धारणाओं पर भी चर्चा हो रही है । चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ताधारी पार्टी होने के नाते समाजवादी निर्माण के सवाल पर भी मार्क्स और लेनिन के लेखन को दोबारा देखकर समझने की जरूरत बढ़ रही है । इसके अलावा पूरब के पिछड़े देशों के सामाजिक विकास के बारे में मार्क्स की धारणा को फिर से देखा परखा जा रहा है । व्यक्ति के विकास के सवाल पर मार्क्सवादी नजरिए को भी गंभीरता से समझने की कोशिश की जा रही है तथा व्यक्तिगत विकास और सामाजिक विकास के आपसी रिश्तों को परखा जा रहा है । संतुलित सामाजिक विकास खासकर व्यक्ति, समाज और प्रकृति के संतुलित विकास के बारे में एंगेल्स की किताब ‘डायलेक्टिक्स आफ़ नेचर’ में व्यक्त धारणाओं को नई चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है । आम समझ के विपरीत चीन के अकादमिक हलकों में इन सवालों पर खुली बातचीत हो रही है । जान बेलामी फ़ास्टर ने अपनी किताब ‘मार्क्स’ इकोलाजी’ पर चीनी विद्वानों की आपत्तियों का विस्तार से उत्तर देते हुए ‘टुवर्ड ए ग्लोबल डायलाग आन इकोलाजी एंड मार्क्सिज्म: ए ब्रीफ़ रिस्पांस टु चाइनीज स्कालर्स’ शीर्षक लेख लिखा है । इसी तरह चीन में ‘लेनिन्स थाट इन 21 सेंचुरी: इंटरप्रेटेशन एंड इट’स वैल्यू’ विषयक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी अक्टूबर 2012 में हुई जिसमें अनेक विद्वानों ने गंभीरता से अपनी बातें रखीं । इस गोष्ठी में जिन विषयों पर चर्चा हुई वे थे- लेनिन के चिंतन का मार्क्स से संबंध, दूसरे इंटरनेशनल का मार्क्सवाद, रूसी मार्क्सवाद, चीनी मार्क्सवाद और पश्चिमी मार्क्सवाद की परंपरा । साफ है कि इन चिंताओं और हलचलों पर चीन के हालात की छाया है यानी सत्ताधारी पार्टी होने और पूंजीवाद के इस नए दौर में उसके साथ रिश्ते और समाजवादी निर्माण जैसे मुद्दे विशेष रूप से उभर रहे हैं ।
      यहां तक कि वहां उठ रहे जन विक्षोभ का भी अध्ययन मार्क्सवादी सैद्धांतिकी के चौखटे में किया जा रहा है । मिंक़ी ली नामक अर्थशास्त्री ने द राइज आफ़ द वर्किंग क्लास एंड द फ़्यूचर आफ़ द चाइनीज रेवोल्यूशनशीर्षक लेख में तांगहुआ स्टील कंपनी, जिलिन में निजीकरण की कोशिश के विरोध में हुई मजदूरों की भारी हड़ताल को चीन के सामाजिक जीवन में लंबे अरसे के बाद मजदूर वर्ग के नई सामाजिक-राजनीतिक शक्ति के बतौर उभार का संकेत माना है । यहां तक कि उन्होंने इसमें ऐसी समाजवादी क्रांति की संभावना देखी है जो विश्व समाजवादी क्रांति की दिशा में ले जा सकती है । इसे उन्होंने माओ द्वारा पार्टी मुख्यालय को ध्वस्त करने के आवाहन से जोड़ा है और कहा कि जब माओ ने यह आवाहन किया था तब किसान मजदूर इतने परिपक्व नहीं थे कि पूंजीवादी पुनर्स्थापना के विरोध में सीधी कार्यवाही कर पाते । मजदूर वर्ग की वर्तमान सक्रियता को उन्होंने इसी कार्यभार की निरंतरता में समझने की कोशिश की है । खास बात यह है कि वर्तमान लहर का नेतृत्व सरकारी उपक्रमों का संगठित मजदूर वर्ग कर रहा है । उनकी मांगें तात्कालिक आर्थिक लाभ की नहीं बल्कि उत्पादन के साधनों के सार्वजनिक स्वामित्वकी हैं । समीर अमीन ने चीनी समाज के ‘चाइना 2013’ शीर्षक एक अध्ययन में इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि खेती की जमीन भारत के मुकाबले कम होने और नगरीकरण की रफ़्तार अधिक होने के बावजूद भोजन की जरूरत कैसे पूरी हो रही है । इसका कारण तलाशते हुए उन्होंने क्रांति के बाद रूस में किसानों के साथ अपनाए गए रुख के मुकाबले चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के रुख को बेहतर पाया है और उनका कहना है कि खेती के सामूहिकीकरण के लिए चीन में जबर्दस्ती नहीं की गई । इसीलिए चीन के समाजवादी विकास की विशिष्टता को वे आज की नहीं, बल्कि क्रांति के बाद की ही परिघटना बताते हैं । बहरहाल नए दौर में मार्क्सवाद के विकास की प्रक्रिया में एशियाई हस्तक्षेप का एक रूप अगर चीन की ओर से यह योजनाबद्ध प्रयास है तो एक और चीज की ओर ध्यान देना जरूरी है ।
      मेगा यानी मार्क्स-एंगेल्स समग्र के संपादन-प्रकाशन के लिए अध्येताओं का जो समूह गठित किया गया है उसमें जापान से भी कुछ अध्येताओं को शामिल किया गया है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पश्चिमी दुनिया की हलचलों का साथ ऐतिहासिक तौर पर एशिया से जापान देता आया है चाहे मामला उद्योगीकरण का हो या फ़ासीवाद का । यह जरूर है कि फ़िलहाल जापान का योगदान व्यावहारिक से अधिक अकादमिक ही दिखाई दे रहा है । पहले के दौर की याद करें तो यह बात गुत्थी की तरह नजर आती है कि चीन जैसे पिछड़े देश में सैद्धांतिक रूप से इतनी मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण कैसे हो गया जिसने स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप मार्क्सवादी चिंतन को ढालने और लागू करने का आत्मविश्वास तभी अर्जित कर लिया था जब भारत में ब्रिटेन या रूस के बीच चुनाव आजमाया जा रहा था । चीन में कम्युनिस्ट आंदोलन और मार्क्सवाद के प्रसार का अध्ययन करने वाले लोगों ने इसमें मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के जापानी अनुवादों और जापानी मार्क्सवादी विद्वानों के योगदान का उल्लेख किया है । इस सिलसिले में ध्यान देने की बात यह है कि जैसे भारत में उच्च शिक्षा के लिए लोग इंग्लैंड जाते थे उसी तरह चीन में उच्चतर शिक्षा हेतु जापान जाने की परंपरा रही थी । हाल में जापानी विद्वानों के लेखन का एक संग्रह 2006 में हिरोशी उचिदा के संपादन में रटलेज सेमार्क्स फ़ार 21 सेंचुरीशीर्षक से प्रकाशित हुआ है । प्रदीप बख्शी ने प्लूटो जर्नल वर्ल्ड रिव्यू आफ़ पोलिटिकल इकोनामीमें प्रकाशित इस किताब की समीक्षा में बताया है कि इस संग्रह में 14 लेख शामिल हैं-21 वीं सदी में मार्क्स से संबंधित दो लेख, मार्क्स अध्ययन की समकालीन समस्याओं पर पांच लेख, आधुनिक जापान में मार्क्स के अभिग्रहण पर चार लेख और अंतत: मार्क्सशास्त्र पर तीन लेख । हमने पहले ही जिक्र किया कि इस समय मार्क्स के लेखन का अध्ययन मार्क्सवाद की जगह मार्क्स-अध्ययन या मार्क्सशास्त्र (मार्क्सोलाजी) के नाम से किया जा रहा है ।  
      जापान में जारी इस प्रयास के अतिरिक्त ईरान में पूंजी के खंड एक के फ़ारसी अनुवाद की उपयोगिता का जिक्र करना भी जरूरी है । यह अनुवाद हसन मुर्तज़ावी ने किया है जो आगा पब्लिशिंग से 2008 में छपा है । इसके पहले का फ़ारसी अनुवाद इराज इस्कंदरी ने 1973 में किया था । नया अनुवाद छपने के एक साल के भीतर ही तीन हजार बिक गया । अनुवादक ने भूमिका में नए अनुवाद की जरूरत बताई है । पहला कारण तो वे यह बताते हैं कि तीस सालों में ईरानी समाज, फ़ारसी भाषा और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति में बहुत बदलाव आए हैं । इस्कंदरी के समय अनुवाद का मकसद ईरान में मार्क्सवादी साहित्य के भंडार की कमी को दूर करना था लेकिन इस नए दौर में इसका मकसद मूल मार्क्स के लेखन के निहितार्थ को समझना है । जिस प्रक्रिया में पूंजी की रचना हुई उसके बारे में नई जानकारियों ने इसका अर्थ बदला है । ज्ञान में बदलाव के साथ उसे व्यक्त करने वाली कोटियों में भी बदलाव आए हैं । बदलाव की इस प्रक्रिया का लेखा जोखा लेते हुए मुर्तज़ावी कहते हैं कि 1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों के प्रकाशन ने पूर्ववर्ती मार्क्स और परवर्ती मार्क्स के बीच अंतर की बुनियाद हिला दी और साबित कर दिया कि हेगेलीय द्वंद्ववाद मार्क्स के न केवल शुरुआती बल्कि परवर्ती परिपक्व लेखन में भी समाया हुआ है । इसी आधार पर वे अल्थूसर द्वारा पूंजी के पहले अध्याय को छोड़कर दूसरे अध्याय से शुरू करने के सुझाव को खारिज करते हैं । दूसरा पड़ाव वे ग्रुंड्रिस के प्रकाशन को मानते हैं । इसके दो आयाम प्राक पूंजीवादी आर्थिक संरचनाएंऔर मशीनरीहैं जो दार्शनिक और आर्थिक चिंतन के बीच आवाजाही और उनकी समग्रता को द्योतित करते हैं । इसके बाद का महत्वपूर्ण पड़ाव मेगा का वर्तमान रूप है जिससे पूंजी के सभी संस्करण और उनमें हुए फेरबदल उपलब्ध हो गए हैं । इसी से पता चला कि 1872-75 के फ़्रांसिसी संस्करण के कौन से हिस्से अंतिम यानी चौथे जर्मन संस्करण में छोड़ दिए गए थे । यही जर्मन संस्करण इस्कंदरी के अनुवाद का आधार रहा था । फ़्रांसिसी संस्करण की खूबी यह है कि न केवल मार्क्स ने इसे खुद जांचा-परखा और संपादित किया था बल्कि अनेक अभिव्यक्तियों को सटीक बनाने के अलावा पूंजी संचय तथा वस्तु-पूजा वाले हिस्से को विस्तारित भी किया था । वे इस संस्करण को मूल के मुकाबले अधिक सही मानते थे और एंगेल्स को जिम्मेदारी दी थी कि वे जर्मन संस्करण में इन बदलावों को शामिल कर लें लेकिन विद्वानों का कहना है कि एंगेल्स ने मूल जर्मन संस्करण को सुधारते समय कुछेक बदलाव तो किए लेकिन आजादी लेते हुए अनेक बदलाव छोड़ भी दिए । इसीलिए मुर्तज़ावी के अनुसार इस्कंदरी का अनुवाद पूंजी के अद्यतन रूप पर आधारित नहीं था । फ़्रीदा अफ़री ने इस अनुवाद की समीक्षा करते हुए बताया है कि इस अनुवाद में चौथे जर्मन संस्करण और फ़्रांसिसी संस्करण के बीच अंतर भी रेखांकित कर दिया गया है ।         
       भारत के बारे में भी कुछ नई सामग्री प्रकाश में आई है । पी सी जोशी और के दामोदरन ने 1975 में मनोहर बुक सर्विस से मार्क्स कम्स टु इंडियाशीर्षक किताब प्रकाशित कराई थी जिसमें लाला हरदयाल (अंग्रेजी) और राम कृष्ण पिल्लै (मलयालम) द्वारा लिखित मार्क्स की जीवनियों को एक जगह संग्रहित किया गया था और विस्तृत भूमिका भी लिखी गई थी । भूमिका में पी सी जोशी ने प्रथम इंटरनेशनल के कागजों के हवाले से बताया है कि 1871 में कलकत्ता के कुछ क्रांतिकारियों ने मार्क्स से संपर्क किया था और प्रथम इंटरनेशनल को पत्र भी लिखा था । इस पत्र पर 15 अगस्त 1871 की जनरल कौंसिल में विचार हुआ था । विचार के बाद निर्णय हुआ कि भारतीय लोग शाखा की शुरुआत कर सकते हैं लेकिन उन्हें आत्म निर्भर होना होगा और अपने देशवासियों को ही सदस्य बनाना होगा । इसके अतिरिक्त प्रदीप बख्शी ने इंडियन्स आन मार्क्स एंड एंगेल्स आन इंडियाशीर्षक लेख में विस्तार से इस घटना के अलावा भी मार्क्स-एंगेल्स और भारत के आपसी रिश्तों की जटिलता की पड़ताल की है । उनका कहना है कि मार्क्स-एंगेल्स के लेखन में 40 बरसों में अनेक बार भारत का जिक्र आया है । अब तक जितनी बार जिक्र के बारे में हम लोग जानते हैं मेगा के प्रकाशन से उसमें इजाफा संभव है क्योंकि भारत में उनकी रुचि निरंतर बनी रही थी । भारत में उनके लेखन के आगमन का इतिहास भी रोचक है लेकिन भारत की भाषाई विविधता को देखते हुए किसी एक आदमी के लिए इसे करना असंभव है ।
       एशियाई मुल्कों के अलावा लैटिन अमेरिकी देशों के प्रयोग विशेष संभावनाओं का संकेत दे रहे हैं । इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि आपातत: ये सैद्धांतिक कम व्यावहारिक ज्यादा हैं और स्थानीय परिस्थितियों के साथ अन्त:क्रिया के परिणाम हैं । ये प्रयोग क्यूबा में फ़िदेल कास्त्रो की क्रांति के साथ ही शुरू हो गए थे । ह्यूगो चावेज ने इन्हीं प्रयोगों को नई ऊंचाई दी । बातचीत को वर्तमान से ही शुरू करना ठीक होगा । लैटिन अमेरिकी देशों में वामपंथ के अनेक रूपों की चर्चा आम तौर पर होती है । दीपक भोजवानी ने लेफ़्ट इन लैटिन अमेरिका एंड द कैरीबियनशीर्षक लेख में विस्तार से इन सबकी स्थिति का जायजा लिया है । सबसे पहले वे इस क्षेत्र की विविधता का वर्णन करते हैं ताकि इस राजनीतिक विविधता के कारणों को समझा जा सके । वे बताते हैं कि दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप, पनामा से मेक्सिको तक विस्तृत मध्य अमेरिका और अनेक छोटे द्वीपों में बिखरा हुआ कैरीबियन, इस क्षेत्र के तीन हिस्से हैं । 33 देशों में कुछ लघु द्वीपीय राज्य तो कुछ ब्राजील की तरह विशाल देश हैं जिनमें नस्ली, जातीय, भाषाई, ऐतिहासिक, राजनीतिक और आर्थिक अंतर प्रचुर हैं । 1791 में अफ़्रीकी गुलामों ने फ़्रांसिसी मालिकों के विरुद्ध विद्रोह किया और 1 जनवरी 1804 को हैती इस इलाके का पहला आजाद मुल्क बना । ब्राजील को पुर्तगाली साम्राज्य से 1822 में मुक्ति मिली । स्पेन के गुलाम देशों को अपनी आजादी के लिए बहुत लड़ना पड़ा था । मेक्सिको से लेकर चिली तक बाकायदे हथियारों की ताकत पर उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अधिकांश देशों ने आजादी अर्जित की । ये विद्रोही योद्धा स्पेनी साम्राज्य की कमजोरी जानते थे और अमेरिकी तथा फ़्रांसिसी क्रांतियों से प्रभावित थे । अंग्रेजी भाषी कैरीबियन राज्य ज्यादातर बीसवीं सदी में आजाद हुए । कुछ तो अब भी आजाद नहीं हो सके हैं ।
        जो देश आजाद हुए उनमें से ज्यादातर देशों ने उदार मुक्त व्यापार व्यवस्था अपनाई । बीसवीं सदी में व्यापार में घाटा होने के चलते अधिकतर देशों ने आर्थिक राष्ट्रवाद के भिन्न भिन्न रूप अपनाए । दूसरे विश्व युद्ध के बाद आयात विकल्पी उद्योगीकरण की नीति राष्ट्रवाद और कारपोरेटीकरण के घालमेल से उपजी । इससे एक हद तक त्वरित वृद्धि, ढांचागत रूपांतरण और निर्यात विविधीकरण में मदद मिली । लेकिन 70 और 80 के दशक में विदेशी कर्ज की फांस समस्या की तरह सामने आई । एक के बाद दूसरे देश द्वारा कर्ज चुकाने में देरी होने लगी । वैश्विक वित्तीय संस्थानों ने जो हल निकाला उसे सबसे पहले 70 के दशक में चिली में लागू किया गया और उसे ही बाद में वामपंथ ने नव-उदारवादकहा । यह भूमंडलीकरण, निजीकरण और घरेलू बाजार को वैश्विक पूंजी के लिए खोल देना था । 90 के दशक के उत्तरार्ध से यह नीति भी भारी मुद्रास्फीति, महंगाई और सामाजिक असमानता का स्रोत सिद्ध होने लगी । इसी फलक पर वे वामपंथी राजनीति के विभिन्न लैटिन अमेरिकी रूपों का विश्लेषण करते हैं ।      
       सबसे पहले तो उन्होंने पारंपरिक वामपंथ को क्यूबा के कम्युनिस्ट शासन में देखा है और बताया है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, घर जैसी बुनियादी सुविधाएं मुफ़्त मुहैया कराने में पहले रूस का साथ रहा । उसके पतन के बाद वेनेजुएला से मदद मिली । यूरोपियन यूनियन ने अमेरिका की तरह व्यापार प्रतिबंध नहीं लगा रखा है लेकिन वह भी शासन के बदलाव के प्रयासों का समर्थन करने की नीति अपनाता है । उसने न सिर्फ़ लैटिन अमेरिकी मुल्कों बल्कि दुनिया भर के गरीब मुल्कों में मानवीय सहायता के जरिए अपने लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन अर्जित किया है । इसके बाद वे नव-वामकी विभिन्न धाराओं का जिक्र करते हैं । इनमें सबसे मशहूर स्वाभाविक तौर पर वेनेजुएला के ह्यूगो चावेज हैं जिनका नारा ‘21वीं सदी का समाजवादसोवियत संघ के पतन के बाद लोकप्रिय समाजवादी गोलबंदी में मददगार साबित हुआ । इसमें ईसाइयत के सकारात्मक उपयोग का सवाल ऐसा सवाल है जिसके बारे में बात करते हुए हमें रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गेन्नादी युगानोव का भी जिक्र करना पड़ेगा । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि ईसाइयत को उत्पीड़ित तबकों की मुक्ति से जोड़ने वाली लिबरेशन थियोलाजीका जन्म लैटिन अमेरिका में ही हुआ था । युगानोव ने 27 अक्टूबर 2012 को केंद्रीय समिति के 14वें प्लेनम के समक्ष भाषण देते हुए अन्य बातों के अलावा धर्म के प्रति पार्टी की नीति के सिलसिले में तीन सूत्र पेश किए । चर्च और राज्य के बीच साफ अलगाव; पार्टी और चर्च के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और आपसी सम्मान क्योंकि ये दोनों ही अनेक समान आदर्शों में यकीन करते हैं; धार्मिक मान्यताओं की स्वतंत्रता और आस्तिकों को पार्टी में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करना । अन्य देशों के शासन कोई नया मार्गदर्शक तत्व नहीं अपनाते, हां उनका अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोध, संघर्ष के इस नए दौर की कुछ खूबियों को उजागर करता है । पूंजी का वर्तमान दौर इतना आक्रामक है कि जन समुदाय के लिए कल्याणकारी कार्य भी क्रांतिकारी जैसे प्रतीत होते हैं । लेकिन शावेज केवल इतने का ही प्रतिनिधित्व नहीं करते बल्कि एक हद तक मार्क्सवादी परंपरा के भीतर आते हैं, इस बात पर जोर देने के लिए क्रिस गिल्बर्ट ने शावेज्स लेनिनिज्मशीर्षक लेख लिखा और बताया है कि शावेज का काम कई स्तरों पर लेनिन से जुड़ता है । ग्राम्शी ने लेनिन के काम को पूंजीके विरुद्ध क्रांति कहा था । ग्राम्शी के कहने का मतलब दूसरे इंटरनेशनल के नेताओं की क्रमिक बदलाव की धारणा के विरुद्ध लेनिन और उनके साथियों के महत्व पर जोर देना था । उन्होंने बदलाव न होने की तत्कालीन सर्वानुमति के विरुद्ध क्रांति की थी । बदलाव न होने की यह धारणा न केवल पूंजीवाद के समर्थकों में व्याप्त थी बल्कि अल्थूसर जैसे पूंजीवाद के उन विरोधियों में भी व्याप्त थी जो पूंजीवादी संरचनाओं को लांघ पाने को असंभव बता रहे थे । बोल्शेविकों ने उस दौर में इतिहास को ठहरा हुआ समझने वालों की चेतना को झकझोरते हुए रूसी क्रांति को अंजाम दिया । उसी तरह शावेज ने उस दौर में विकल्प को संभव किया जब सभी लोग विकल्पहीनताका राग अलाप रहे थे ।
       लैटिन अमेरिका में मार्क्सवाद का एक स्वायत्त और विशिष्ट रूप रहा है जिसकी जड़ें वहां की सामाजिक परिस्थितियों में रही हैं । इन परिस्थितियों में शामिल है जन समुदाय की विविधता । स्थानीय मूल निवासी, बाहर से आए औपनिवेशिक प्रभुओं के साथ आए उन देशों के नागरिक गण, गुलाम बनाकर लाए गए अफ़्रीकी- इन सबके मेल से जनसंख्या की विविधता बहुत बढ़ जाती है । इसके लिहाजन अपनाई जाने वाली नीतियों की विशेषता को हम क्यूबा के संस्कृति और शिक्षा मंत्री रहे आर्मंदो हार्ट की टिप्पणियों में देख सकते हैं जिनमें वे यूरोपीय या पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले लैटिन अमेरिकी देशों की सांस्कृतिक समृद्धि पर जोर देते हैं और भौतिकता के मुकाबले आध्यात्मिक मूल्यवत्ता को महत्वपूर्ण बताते हैं । हाल के दिनों में इन देशों के बीसवीं सदी के मार्क्सवादियों के लेखन के प्रकाशन और वितरण पर बल दिया जाने लगा है । उसी क्रम में पेरू के मार्क्सवादी विचारक जोसे कार्लोस मारियातेगुई के लेखों और टिप्पणियों का एक संग्रह हैरी वान्डेन और मार्क बेकर ने तैयार किया जिसके भारतीय संस्करण की भूमिका बर्नार्ड डिमेलो और अल्फा शाह ने लिखी है और भारत के लिए इस क्रांतिकारी के विचारों का महत्व समझाया है । भूमिका के लेखकों के अनुसार मारियातेगुई के विचारों से चे ग्वेरा भी प्रभावित रहे । भारत के माओवादियों के प्रसंग में इस विचारक का महत्व रेखांकित करते हुए भूमिका लेखक बताते हैं कि माओवादियों का ज्यादातर आधार आदिवासी इलाकों में है और मारियातेगुई ने भी लैटिन अमेरिकी मूल निवासियों के सवाल पर काफी विचार किया है (जिन्हें वहां की शब्दावली में इंडियनकहा जाता है क्योंकि कोलम्बस इंडिया को खोजते हुए ही वहां गया था और जो मिले उन्हें इंडियन कहा गया) इसलिए उनसे सीखने की जरूरत है । बीसवीं सदी के दूसरे दशक में इस क्रांतिकारी ने तीसरे इंटरनेशनल के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था जिसमें एंडीज इलाके के मूल निवासी बहुल क्षेत्र में अलग इंडियन रिपब्लिकस्थापित करने का जिक्र था । उन्होंने अलग देश के निर्माण में इसका हल खोजने की जगह उन्हें ग्रामीण सर्वहारा मानकर उनकी समस्याओं पर मार्क्सवादी ढांचे में संघर्ष का रास्ता सुझाया था । राष्ट्रीयताओं से संबंधित लेनिन की धारणा का परिष्कार स्तालिन के समय खत्म हो गया था इसलिए हरेक मसले पर आत्म निर्णय के अधिकार को यांत्रिक तरीके से लागू करने के मुकाबले ठोस परिस्थिति के विश्लेषण के आधार पर सृजनात्मक तरीके से सिद्धांतों को लागू करने पर मारियातेगुई जोर देते हैं । अगर स्थानीय मूल निवासियों की समस्या पर विचार करते हुए वर्ग के पहलू की उपेक्षा होगी तो एक ऐसा मूल निवासियों का शोषक राज्य बनेगा जो विदेशी शसकों के राज्य से बेहतर न होगा । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे स्थानीय मूल निवासियों की उपेक्षा करते हैं बल्कि इस पहलू पर जोर देने के कारण ही वे अपने समय के साथ नए समय में भी प्रासंगिक साबित हो रहे हैं ।     
       नए दौर में मार्क्सवाद के विकास की हालत के सिलसिले में अमरीकी विचारक रिचार्ड लेविन्स ने मार्च 1913 में लिखित और अगस्त 1913 में बोल्शेविक मंथली मैगज़ीन में प्रकाशितकांटिनियुइंग सोर्सेज आफ़ मार्क्सिज्मशीर्षक लेख में लिखा है कि ‘1913 में लेनिन ने मार्क्सवाद के तीन बौद्धिक स्रोतों का उल्लेख किया था: जर्मन दर्शन, ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र और फ़्रांसिसी काल्पनिक समाजवाद---लेकिन यह प्रक्रिया वहीं खत्म नहीं हुई । मार्क्सवाद हरेक युग के सर्वाधिक विकसित, मुक्तिकारी विचारों से सीखते हुए आगे बढ़ता रहा है । मैं यहां मार्क्सवाद को समृद्ध करने वाले चार स्रोतों को चिन्हित करना चाहता हूं : पर्यावरण, नारीवाद, राष्ट्रीय/नस्ली संघर्ष और शांतिवाद ।इसके बाद वे इन चारों आंदोलनों के सैद्धांतिक योगदान की परीक्षा करते हैं । उनका कहना है कि लेकिन ये विचार मार्क्स के पूर्ववर्ती तीनों विचारों से अलग तरीके से मार्क्सवाद से जुड़ते हैं । ये नए विचार मार्क्सवाद के बाहर से आए हैं लेकिन यह बाहर भी ऐसी जगह है जिस पर मार्क्सवाद का असर है । इसीलिए इन विचारों का स्वागत भी हुआ और प्रतिरोध भी हुआ । वे कहते हैं कि अब तक इन्हें राजनीतिक सहयोगी के बतौर ही देखा गया है लेकिन लेविन्स इनका महत्व सिद्धांत के क्षेत्र में भी मानने पर जोर देना चाहते हैं ।
      पर्यावरणवाद के सिलसिले में वे बताते हैं कि मार्क्सवाद में पूंजीवाद की आलोचना के बतौर प्रारंभिक उद्योगीकरण के चलते प्रकृति का विनाश, शहर और देहात के बीच जैविकीय अलगाव, शहरों और समूची पृथ्वी का प्रदूषण जैसी बातें उठाई और शामिल की गई थीं । जीवन और समाज के द्वंद्वात्मक नजरिए में मानवता और प्रकृति की अविभाज्यता अंतर्निहित है । लेकिन बाद में मार्क्सवाद के भीतर जैसे जैसे सत्ता केंद्रित चिंतन हावी हुआ वैसे वैसे इसे रोजगार सृजन में बाधा के बतौर देखा जाने लगा । इसको शहरी मध्य वर्ग तक सीमित बुर्जुआ अय्याशी भी समझा गया । सारी मानवता की चिंता को वर्ग संघर्ष से ध्यान भटकाने वाला माना गया । पशु जगत के प्रति चिंता को मनुष्य की समस्याओं की अनदेखी कहा गया । लेकिन इस असहजता के बावजूद अनेक मार्क्सवादी इस आंदोलन के साथ जुड़े रहे । सोवियत संघ में तो नहीं, लेकिन जिन तीसरी दुनिया के मुल्कों में तथाकथित विकास औपनिवेशिक सत्ता की देखरेख में हुआ था वहां मार्क्सवादीविकासके लिए पर्यावरण के विनाश को महसूस करते थे और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का ही अंग पर्यावरण की रक्षा भी मानते थे । क्यूबा में तो विकास का ऐसा रास्ता अख्तियार करने की कोशिश की गई जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए ।
      नारीवाद का सवाल इससे अधिक गंभीर है । वे कहते हैं कि वैसे तो एंगेल्स की किताबपरिवार, निजी संपत्ति राजसत्ता का उदयमें उन्होंने कहा कि किसी भी समाज का निर्माण तात्कालिक जीवन के उत्पादन और पुनरुत्पादन के संबंधों पर होता है लेकिन आगे चलकर ध्यान में सिर्फ़ उत्पादन रह गया पुनरुत्पादन का तत्व विश्लेषण से गायब हो गया । बुर्जुआ नारीवाद के उभार को बहाना बनाकर स्त्री-प्रश्न को वर्गीय एकता को तोड़ने वाला समझा जाने लगा । लेकिन 40 के दशक में वामपंथी नारीवदियों का एक मजबूत समूह उभरा जिसने वर्ग, लिंग और नस्ल के तिहरे उत्पीड़न का सवाल उठाया । इन तीनों के विरुद्ध संघर्ष में एक ही तरह की रणनीति अपनानी पड़ती है । नस्लवाद का खात्मा नस्ल की छद्म-शारीरिक कोटि के खात्मे पर निर्भर है, लिंग आधारित उत्पीड़न भी लिंगीय ऊंच-नीच की धारणा के खात्मे पर निर्भर है, वर्गीय शोषण भी वर्ग-समाज के उन्मूलन पर निर्भर है । नारीवाद ने श्रम, पुनरुत्पादन और यौनिकता, सामाजिक प्रक्रिया, विचारधारा और संगठन के मामले में मार्क्सवाद को समृद्ध किया है ।
     इसके बाद विंदुवार वे एक एक तत्व की शिनाख्त करते हैं-1) स्त्रियां शायद दुनिया का अधिकांश काम करती हैं लेकिन उन्हें आदर्श श्रमिक नहीं माना जाता । प्रत्येक समाज में उनका काम उत्पादन और पुनरुत्पादन के बीच बंटा होता है । इसी बंटवारे के तरीके से ज्यादातर उनकी सामाजिक हैसियत तय होती है । पुनरुत्पादन में महज गर्भ धारण नहीं आता, इसमें उत्पादक आबादी की देखरेख संबंधी सारे काम आ जाते हैं, 2) अनेक उद्योगों में वे उजरती मजदूर होती हैं, घर, रेस्त्रां, होटल आदि में काम करती हैं, घर और खेत में बिना पगार के मेहनत करती हैं, 3) किसी भी समाज की निजी जिंदगी सामाजिक उत्पाद होती है, जो असमानता स्त्रियों पर वर्ग समाज थोपता है वह घर में व्यक्त होती है इसीलिए वाम नारीवाद ने नारा दियापर्सनल इज पालिटिकल’; घर और वाम राजनीतिक आंदोलन में लिंग आधारित भेदभाव ने संघर्ष को कमजोर किया, प्रतिभा को बरबाद किया और सार्वजनिक दुनिया में उत्पीड़न को पुनरुत्पादित किया इसीलिए इस भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष आंदोलन और समाजवाद के निर्माण का अखंड घटक है; नारीवाद के प्रति अपनी निष्ठा से वापसी पूंजीवाद की ओर वापसी है,4) पुरुष प्रभुत्व की नारीवादी आलोचना समाज और संगठन में पितृसत्तात्मक संरचनाओं की आलोचना तक विस्तारित हुई; इसमें थोड़ी अराजक संवेदना का पुट भी था; इस बात पर जोर दिया गया कि बहस में सभी भाग लें और सफलता का मापदंड भागीदारों की तथा उनकी क्षमता की बढ़ोत्तरी को माना गया,5) यौन संबंधों में असमानता और दुराचार को परीक्षा का विषय बनाया गया, यौन क्रिया में नर-नारी दोनों की भागीदारी के बावजूद इसमें असमान शक्ति संबंध जाहिर होते हैं, यौनिकता के सवाल पर होने वाले आंदोलनों की अगुआई स्त्रियों ने की,6) नारीवाद एक ही किस्म का नहीं है, मुख्य रूप से मध्यवर्गीय नारीवाद है लेकिन उसी के साथ काले लोगों के नारीवादी संगठन हैं जो गोरे नारीवाद की सार्विक उपस्थिति को प्रश्नांकित करते हैं, वाम के लोग नस्ल, वर्ग और लिंग आधारित उत्पीड़न की एकता की बात करते हैं,7) घरेलू उत्पादन का आर्थिक पहलू होने के बावजूद वह माल उत्पादन नहीं होता, इसमें श्रम विशिष्टता का प्रवेश नहीं हुआ है, उत्पादन के औजार अभी उत्पादक से अलग नहीं हुए हैं इसलिएविनिमय के लिए उत्पादनका प्रवेश कराने की जबरिया कोशिश के विरुद्ध संघर्ष में स्त्रियां आम तौर पर आगे रहती हैं ।
     इसके बाद राष्ट्रीय और नस्ली संघर्षों पर वे बात करते हैं । उनका कहना है कि मार्क्सवादी लोग अक्सर जनता को जोड़ने वाली वर्गेतर कोटियों की अनदेखी यह कहकर करते हैं कि ये जनता की एकता को तोड़ती हैं । हालांकि ये विभाजनकारी तो हैं लेकिन कई बार उत्पीड़न के विरुद्ध जनता को गोलबंद करने में मदद भी करती हैं । इसमें खासकर राष्ट्रवाद के सवाल पर हमें दुहरा रुख अपनाना चाहिए । आक्रामक राष्ट्रवाद का विरोध करते हुए भी उत्पीड़ितों के रक्षात्मक राष्ट्रवाद का साथ देना होगा । इसी तरह काले लोगों की नस्ली एकता नस्ली भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई में मददगार होती है । इन कोटियों की अंततः समाप्ति के लक्ष्य को आज ही उनकी अनुपस्थिति नहीं मान लेना चाहिए । इसके लिए मार्क्सवाद के बारे में यह नजरिया भी बदलना होगा कि उसके मुताबिक गैर-पूंजीवादी समाज बौद्धिक रूप से पिछड़े होते हैं इसलिए उनकी जगह पूंजीवाद का आना विकास है । यह सवाल सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से भी जुड़ा हुआ है जिसके विश्लेषण और विरोध की रणनीति में एक द्वंद्वात्मक नजरिया अपनाना होगा ।
    शांतिवाद और अहिंसा एक ही बात नहीं है । शांतिवाद निष्क्रियता नहीं है बल्कि विरोध का एक दूसरा तरीका है । शांतिवादियों से सीखने की बात यह भी है कि कुछ अगुआ लोगों की प्रतिबद्धता व्यापक जन समुदाय को गोलबंद करती है इसलिए आंदोलन की ताकत संख्याबल से नहीं उसकी नैतिक श्रेष्ठता से आंकनी होगी । उन्होंने तो नहीं कहा है लेकिन सैन्य औद्योगिक परिक्षेत्र का निर्माण तथा युद्धों में पूंजीवादी हथियार उत्पादक साम्राज्यवाद के निहित स्वार्थ की ओर मार्क्सवादियों का ध्यान एक हद तक शांतिवादियों की वजह से भी गया है । लेविन्स कहते हैं कि इन सबको जोड़कर ही मार्क्सवादकम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रमें वर्णितसमग्र आंदोलनबन सकता है ।

Friday, February 7, 2014

उपन्यास की शक्ल में उपनिवेशवाद विरोधी-विमर्श

        
                                                   
हिंदी के मशहूर कथाकार अमरकांत के राजकमल से 2003 में पहली बार प्रकाशित उपन्यास ‘इन्हीं हथियारों से’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार तो मिल गया लेकिन यह एक तरह से उसे चर्चा से बाहर करने की रणनीति के बतौर नजर आया । इसे सम्मान के लायक तो समझा गया लेकिन मानदंड के निर्धारण के लिए असुविधाजनक समझकर हिंदी के बौद्धिक समाज ने खामोशी भरी चुप्पी अपनाई । आखिर इस चुप्पी का समाजशास्त्र है क्या ? एक तो यह हो सकता है कि किसी भी रचना के बारे में गंभीरता से बात करने का चलन खत्म हो जाने से ऐसा हुआ हो । दूसरा कारण यह हो सकता है कि इसे कथावस्तु और शिल्प के स्तर पर वर्तमान फ़ैशन के खिलाफ़ महसूस किया गया हो और इसलिए बात करना उचित माना गया हो अगर ऐसा है तो यह गंभीर समस्या है इससे पता चलता है कि प्रेमचंदीय वस्तु और शिल्प से हिंदी कथा साहित्य ने जो किनारा किया उसके पीछे औपनिवेशिक हालात की उपस्थिति की सचाई से इनकार करने की शुतुरमुर्गी हड़बड़ी थी यह उपन्यास सिर्फ़ विषयवस्तु के स्तर पर बल्कि भाषा के स्तर पर भी प्रेमचंदीय विरासत को आगे बढ़ाता है और सही मानों में उपनिवेशवाद विरोधी विमर्श का निर्माण करता है यहीं एक दूसरी समस्या के बारे में भी बात करना अनुचित होगा हिंदी में साहित्य को समाजशास्त्रीय रूप से उपयोगी मानने के खिलाफ़ एक दुराग्रहपूर्ण अभियान चलाया गया है जिसके चलते किसी रचना की खूबसूरती की बात इस तरह की जाती है मानो सामाजिक उपयोग और सुंदरता में मौलिक और असमाधेय विरोध हो । मानो अनुपयोगी होना कलात्मक श्रेष्ठता का पैमाना हो । सो भी उस भाषा के साहित्य में जिसके सबसे बड़े लेखक ने अपने उपन्यास लेखन को आज़ादी की लड़ाई का अंग माना हो । इसी चक्कर में ऐतिहासिक घटनाओं या व्यक्तित्वों से जुड़े हुए उपन्यासों की आमद को उपन्यासहीनता का दावा करके विचार लायक ही नहीं माना गया, जबकि हम सभी जानते हैं कि उपन्यास के शिल्प का लचीलापन ही उसकी ताकत है ।
अमरकांत का यह उपन्यास सन 1942 के आंदोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की घटनाओं पर केंद्रित है जहाँ आम जनता ने इस दौरान लगभग एक हफ़्ते तक अंग्रेजी शासन को मिटाकर अपना राज स्थापित किया था लेकिन आज़ादी के बाद की भी घटनाओं को भी शामिल करता है ताकि आज़ादी के लिए लड़ने वाली जनता तथा कांग्रेस पार्टी के रिश्तों के सामने आज़ादी के बाद सत्तानशीन कांग्रेस के साथ जनता के रिश्तों को रखकर इस त्रासदी को समझा जा सके कि आखिर दुनिया के सबसे परिपक्व स्वतंत्रता आंदोलन की ऐसी परिणति क्यों हुई । एक ऐतिहासिक घटना से जुड़े होने के कारण इसमें कथा की अनुपस्थिति की जो आशंका थी उसे लेखक ने खूबसूरती के साथ विभिन्न पात्रों की निजी जिंदगी में आए उलट फेर के साथ जोड़कर औत्सुक्य का तत्व पैदा किया है जो कहीं से भी कथा से अलग पैबंद की तरह नहीं लगता । लेकिन इसके अलावे भी उस घटना के ऐतिहासिक-सामाजिक महत्व पर गंभीर सोच विचार का आमंत्रण यह उपन्यास देता है । 1942 का आंदोलन कांग्रेसी नेतृत्व की हदों के पार चला गया था और उसमें तरह तरह के आंदोलनकारी शरीक हो गए थे । और 42 ही क्यों कांग्रेस के नेतृत्व में चले स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसात्मक होने के बावजूद उसकी शक्ति को समझने की एक महत्वपूर्ण कोशिश के बतौर भी इस उपन्यास को देखा जा सकता है । इस सवाल पर लेखक की उलझन का अंदाजा शुरू में ही हो जाता है जबकथा संदर्भके अंतर्गत बलिया के टाउन हाल में आयोजित सभा में भाषण देने के लिए बनारस से आए सुरंजन शास्त्री को हम लंबी सफाई देते हुए देखते हैं । बलिया में आज़ादी के आंदोलन का गौरवशाली इतिहास का बयान करने के बाद वे गांधी की रणनीति की व्याख्या करते हैं । कहते हैं-‘जहाँ तक अहिंसा का सवाल है, आज के जमाने में उसकी उपयोगिता जनता के व्यापक हितों के लिए इस्तेमाल किए जाने से ही सिद्ध हो सकती है । शोषक इसका इस्तेमाल अपने पक्ष में कर सकते हैं । इससे सावधान रहने की जरूरत है । अहिंसा, कायरता और पलायन का पर्याय नहीं है ।---यदि गांधीजी ने स्वातंत्र्य आंदोलन और स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए इसका इस्तेमाल न किया होता तो इसकी विशेष उपयोगिता और सार्थकता न होती । हमारी लड़ाई अहिंसात्मक अवश्य है, लेकिन वह पूर्ण स्वतंत्रता के प्रश्न पर किसी प्रकार का समझौता नहीं करेगी ।भाषण जून 1942 में हो रहा था और आगामी संघर्ष के आसार दिखाई पड़ने शुरू हो गए थे जिसे वे तमाम जन संघर्षों की निरंतरता में साबित करना चाहते हैं । अतीत और वर्तमान में जारी इन संघर्षों की सूची से पता चलता है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई में तमाम किस्म के वैचारिक प्रभाव काम कर रहे थे । वे गिनाते हैं- ‘मुक्ति की आँधी है यह । वह कभी फ़्रांस में आई, कभी रूस में आई । अन्य देशों में भी वह आ चुकी है । 1857 में भी हमारे देश में आई थी ।---यह गुलामी और जुल्म को मिटाकर आज़ाद, शोषणहीन समाज बनाने का संकल्प लेकर आ रही है ।भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को दुनिया को बदल देने वाले जिन आंदोलनों की निरंतरता में बताया गया है उसे हम कांग्रेसी नेतृत्व में चले आंदोलन के प्रति कम्युनिस्टों के रुख की उलझन की लेखकीय निशानदेही समझ सकते हैं ।
बात भोजपुरी भाषी समाज की हो तो स्वाभाविक रूप से ग्रियर्सन की उस उक्ति की याद आती है जिसमें उसने भोजपुरी भाषी किसान और उसके पारंपरिक हथियार, लाठी, के बीच बहुत ही काव्यात्मक संबंध बताया था । उपन्यास ठीक ठीक इसी हथियार का तो महिमा मंडन नहीं करता लेकिन संबंधित जन समुदाय की उस प्रतिरोधी चेतना से अनुप्राणित जरूर है जो गुलामी को बहुत आसानी से मंजूर नहीं करती । अमरकांत की भाषा में इस इलाके के नौजवानों का स्वाभिमान और उसके प्रति औपनिवेशिक प्रभुओं का नजरिया साफ हो जाता है जब वे एकाधिक बार इस बात का जिक्र करते हैं कि यहां के नौजवान किशोर होते होते छाती निकालकर चलने लगते हैं ।
अगर वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं को केंद्र में रखकर उपन्यास की रचना की गई है तो हिंदी लेखन की ऐसी परंपरा का जिक्र होगा ही जिसमें पात्रों के भाग्य विपर्यय को बाहरी घटनाओं से जोड़कर प्रदर्शित किया गया है । इस कौशल का सबसे सफल प्रयोग हिंदी में जय शंकर प्रसाद ने अपने नाटकों में किया था । उसके बाद कुछ हद तक यशपाल नेझूठा सचमें इसका इस्तेमाल किया लेकिन वे उतने कारकों का समावेश न कर सके थे । अमरकांत ने इस उपन्यास में पात्रों की स्थिति में उलट फेर के लिए जितने कारकों का रचनात्मक विनियोग किया है वह किसी भी उपन्यास लेखक के लिए स्पृहणीय है ।
कथा संदर्भ के बाद उपन्यास का आरंभ तीन साल पहले से होता है और धीरे धीरे हमारा परिचय उपन्यास के मुख्य पात्रों से होने लगता है । शुरुआत 9 सितंबर 1939 से होती है जब इंग्लैंड के सम्राट द्वारा जर्मनी के विरुद्ध युद्ध का अल्टिमेटम दिए जाने के अवसर पर गवर्नमेंट हाई स्कूल में समर्थन, एकजुटता और राजभक्ति के प्रदर्शन के लिए आम सभा का आयोजन होता है और इस आशय का एक प्रस्ताव पारित करके वायसराय के पास भेजे जाने की तैयारी होती है । इस सिलसिले में यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि 1937 के चुनावों में युक्त प्रांत, जिसमें बलिया जिला आता था, कांग्रेस की सरकार बनी थी और कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने युद्ध में भारत को जबरिया शामिल करने के विरुद्ध ही इस्तीफ़ा दिया था । सभा की समाप्ति के बाद क्लास के लिए जा रहे उपन्यास के नायक, नीलेश, से हमारा परिचय होता है जो तीन दोस्तों, दयाशंकर, गोबर्धन और नफ़ीस के साथ उम्र और समझदारी में बड़ा हो रहा है । आज़ादी के आंदोलन के उन सरगर्मी भरे दिनों में जवान होने का मतलब आंदोलन में सक्रियता का बढ़ना भी था ।
जल्दी ही हमारा साबका नौजवान होते लोगों की सार्वभौमिक समस्या यानी प्रेम से पड़ता है जो उस समय जाति-बिरादरी की जकड़बंदी के विरोध में इन पात्रों को खड़ा करने लगता है । नीलेश कायस्थ है और उसके पिता के साथ कचहरी में काम करने वाले ठाकुर मुख्तार सिंह की लड़की, नम्रता, के प्रति उसे आकर्षण होने लगता है । यह आकर्षण आज़ादी के आंदोलन की कहानी के उतार चढ़ाव के साथ लगातार जारी रहता है और उसका स्वरूप भी आंदोलन में भागीदारी के साथ बदलता रहता है, इसलिए उपन्यास को सही तरीके से समझने के लिए इसे भी नजर में रखना होगा । एक तरह से ये दोनों कहानियां एक दूसरे में गुंथकर पाठक के सामने स्त्री की सामाजिक भूमिका की अनोखी तस्वीर पेश करती हैं जिसे स्त्री विमर्श के पैरोकार कतई उभार नहीं पाते । इसी आकर्षण के चलते वह एक दिन नम्रता का हाथ पकड़ लेता है । संभ्रम में नम्रता भाग खड़ी होती है । इधर लज्जावश नीलेश भी एक देहाती मित्र के यहां बिना किसी को बताए चला जाता है । पिता जाकर उसे ले आते हैं । नम्रता ने घर पर किसी को सच नहीं बताया होता है । यहीं से नीलेश के लिए उसके प्रेम की पुष्टि शुरू होती है ।
इधर देश का माहौल गरम हो रहा था । लोग सुभाष चंद्र बोस आदि की कहानियां सुनकर थोड़ी उग्रता की ओर बढ़ रहे थे । ‘---हिंदुस्तान की जनता क्रांतिकारी जोश से भर गई थी ।---लोग ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ जबरदस्त कार्रवाई करना चाहते थे ।इसी बीच नीलेश अपने दोस्त गोबर्धन के घर गया । गोबर्धन की मार्फ़त स्त्री समुदाय के ऐसे हिस्से से पाठक का परिचय होता है जिसके बारे में सहजता के साथ कलम उठाने की हिम्मत प्रेमचंद के बाद हिंदी का कोई कथाकार नहीं कर सका था । यह समुदाय वेश्या समुदाय है । प्रेमचंद केसेवासदनमें यह समुदाय सामान्य मनुष्य की तरह चित्रित हुआ था और उसकी भी एक सामाजिक-सार्वजनिक उपस्थिति थी । बाद में तो तथाकथित आधुनिकतावादी भी उन्हें सेक्स आब्जेक्ट से अधिक कुछ नहीं चित्रित कर पाए । यहां तक कि स्त्री मनोविज्ञान में डुबकी लगाने वाले भी इस दुनिया में पैठने की हिम्मत नहीं जुटा सके । लंबे अरसे बाद अमरकांत का यह उपन्यास हमारे सामने वेश्या समुदाय को जीता जागता यथार्थ बनाकर प्रस्तुत करता है । यहां तक कि आज़ादी के आंदोलन की आंच से उनके भीतर भी हलचल होती दिखाई गई है । गोबर्धन जिस वेश्या के पास जाने लगा था उसका असली नाम तो लवंगलता है लेकिन घर में पुकारने का नाम ढेला है । यह नामकरण भी हमें उसके बारे में बहुत कुछ बता देता है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पात्रों का नामकरण भी उपन्यासकार के कौशल का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है । वेश्या का जिवन किस तरह के मूल्यों से संचालित होता है इसकी बानगी देते हुए लेखक बताता है ‘—वेश्या पुत्री को एक सूदखोर बनिए की तरह निर्दयी यानी मीठी छुरी बनना चाहिए, जो दूसरों की बरबादी पर खुशहाल बनता है ।यह मान्यता ढेला की मां श्यामदासी की है जो ढेला के खुले व्यवहार से परेशान रहती है और इसीलिए गोबर्धन से उसे छुटकारा दिलाना चाहती है । मां के दबाव में ढेला गोबर्धन को अपमानित करके भगा देती है लेकिन उदास रहने लगती है तो मां समझाती है ‘—बेसवा का मतलब है जवान, खूबसूरत देह । देह ही उसकी माई है, बाप है, धरम है, ईमान है । बड़ा से बड़ा दरियादिल, दिलफेंक भी शरीर से चुचकी-पिचकी की ओर नहीं देखता, जैसे प्लेग के बीमार चूहे को साँप भी नहीं पूछता ।इस समझ में पुरुष प्रधान समाज के समूचे शोषण का भयानक प्रतिकार है । असल में ढेला गोबर्धन से पहले नीलेश के दोस्त दयाशंकर से परिचित हो चुकी थी । दयाशंकर की यह कहानी वेश्या को भी मनुष्य मानकर उसकी मानसिक उथल पुथल के भीतर प्रवेश करने की लेखक की सामर्थ्य से हमें दो चार कराती है । हुआ था यूं कि स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की यह टोली गंगा नहाकर आपस में चुहल करती उसी रास्ते से लौट रही थी जिधर वेश्याओं के आवास थे । ढेला ने उन्हें यूं ही बुला लिया और वे चले भी गए । स्कूली बच्चों के हंसी-मजाक हुए और वे लौट आए । फिर दयाशंकर को ढेला क्रांतिकारी काम के लिए उपयोगी प्रतीत हुई और इसकी परीक्षा के लिए उसने उसे कुछ रुपए उसे रखने के लिए दिए जिसे उसने सुरक्षित रखा । इसके बाद रात में पुलिस से छिपने के लिए एकाध बार आया और सुबह होते होते चला गया । इसी क्रम में उसे ढेला के प्रति आकर्षण का अनुभव हुआ लेकिन अपनी इस कमजोरी से डरकर वह भाग गया और दोबारा कभी नहीं आया । ढेला को भी उसकी याद आती रहती थी इसीलिए गोबर्धन के आने पर वह उसे दिल दे बैठी थी । गोबर्धन के बाद की ढेला की उदासी के चलते उसे टी बी हो जाती है ।
कहानी दोबारा नीलेश के प्रेम पर लौटकर आती है और युवा प्रेम की मनोवैज्ञानिक उतार चढ़ाव का नमूना बन जाती है लेकिन आज़ादी का आंदोलन कहीं भी उपन्यासकार के हाथ से छूटता नहीं है । नीलेश से नम्रता की मुलाकात जब एक मेले में हुई तो उन दोनों की बातचीत में साफ हुआ कि नम्रता का हाथ जब नीलेश ने पकड़ लिया था और लज्जा के चलते दोस्त के यहां चला गया था उसके बाद नम्रता ने क्या किया या सोचा और इस बातचीत के क्रम में हम स्त्री की स्वाधीन हैसियत की दावेदारी सुन सकते हैं । पहले तो नम्रता घबराकर घर आकर पड़ गई थी । फिर उसे प्रेरणा मिली एक अध्यापिका से जो कांग्रेस की सदस्य भी थीं जो कहतींस्त्री कोई काठ की लकड़ी, रेत पाई नहीं है, उसमें भी सुंदर इच्छाएँ हैं, स्वाभिमान है, विवेक है, अत्याचार और उत्पीड़न के विरुद्ध घृणा के भाव हैं, राष्ट्रप्रेम और साहित्यप्रेम है ।एक खास बात और भी इस उपन्यास में है और यह कि साहित्यकारों के ढेर सारे संदर्भ आए हैं क्योंकि उपन्यास के पात्र ज्यादातर विद्यार्थी हैं लेकिन ये साहित्यकार उन साहित्यकारों से पूरी तरह अलग हैं जिनके नामशेखर: एक जीवनीमें आए हैं । इन साहित्यकारों की सूची पर नजर डालने से पता चलता है कि आज़ादी के आंदोलन को किस तरह के साहित्य से प्रेरणा मिल रही थी । ये हैं- प्रेमचंद कीगोदान’, इलाचंदजी कीसंन्यासी’, यशपालजी कीदादा कामरेडऔर अज्ञेयजी कीशेखर : एक जीवनी। इन किताबों को पढ़ने की सलाह देने के बाद नम्रता की अध्यापिका ने कहापुरुष और स्त्री एक दूसरे के लिए बने हैं । एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता । फिर नारी के लिए ही इतने जेलखाने क्यों ?---पुरुष की तरह ही नारी में भी पर्याप्त आध्यात्मिक शक्ति है, वह जीवन संघर्षों में प्रोफ़ेस्रर मेहता और मालती की तरह, अपने जीवन साथी के साथ प्रेम के उच्चतम आदर्श तक पहुँच सकती है---प्रेमचंद के उपन्यास तत्कालीन समाज में किस तरह की भूमिकाएं निभा रहे थे इसके सिलसिले में यह एक मार्गदर्शक साक्ष्य है ।
नीलेश के सामने प्रेम की यह व्याख्या खुलने से उसकी निराशा कुछ कम हुई और दोबारा कहानी आज़ादी के आंदोलन के साथ उसकी शिरकत के बहाने इस आंदोलन के वैचारिक वितान और अंतर्विरोधों को पाठक के सामने खोलने लगती है । अब हम सुरंजन शास्त्री की कक्षा में पहुँचते हैं जहां विभिन्न विचारों के लोग खुलकर आपस में बहस मुबाहिसा करते हैं । यहीं हमारी मुलाकात एक और विचित्र किरदार से होती है जिसका प्रवेश यह बताने के लिए काफी है कि इस आलोड़न में कितने विविध किस्म के लोग सामाजिक जीवन में चले आए थे । उनका नाम सदाशय व्रत है जिनके यहां यह कक्षा चलती है । उपन्यास को पढ़ते हुए कभी कभी यह डर लगता है कि इतने पात्रों के प्रवेश से बिखराव न आ जाए लेकिन वर्जीनिया वुल्फ़ ने ठीक ही लिखा है कि पात्रों की बहुतायत से अधिक महत्वपूर्ण बात है कि उपन्यासकार इन सबको एक ही नाव में बिठा पाता है या नहीं और इस मामले में बिना किसी हिचक के अमरकांत की सफलता की गवाही दी जा सकती है । वह नाव बलिया में अगस्त 1942 में प्रशासन को जनता द्वारा कुछ दिनों के लिए अपने हाथ में ले लेना है जिसके इर्द गिर्द इन सारे पात्रों की विविधता खूब अच्छी तरह निभ जाती है । कांग्रेस के बारे में उनका कहना है कि यहएक बड़ा स्वातंत्र्य आंदोलन है, जिसमें समाजवादी, कम्युनिस्ट तथा कई अन्य विचारों के लोग भी शामिल हैं ।शास्त्री जी समाजवादियों की कक्षा चलाते हैंताकि स्वतंत्रता के बाद देश में किसान मजदूर और साधारण जनता की समतावादी और समाजवादी सरकार बने ।इसी मकसद से कम्युनिस्ट लोग भी अपनी अलग क्लास चलाते हैं । आज़ादी के आंदोलन में सभी शामिल थे इसलिए आपसी बहस मुबाहिसा भी होता रहता था । शास्त्री जी की इन कक्षाओं में नीलेश की सक्रियता के दौरान ही उसका परीक्षाफल आता है और वह प्रथम श्रेणी में पास हो जाता है । उसके पास होने की खुशी में बधाई देने नम्रता उसके घर आती है । फिर नीलेश के भाई बहन और वह भी नम्रता के यहां जाकर नाश्ता करते हैं । इसे लेखक बलिया जैसे छोटे शहर में रिश्तों में आई प्रदर्शनपरक आधुनिकता का लक्षण मानता हुआ प्रतीत होता है । आधुनिकता का ही एक और लक्षण नीलेश के जरिए जाहिर होता है जब वह अपनी मूँछें साफ कर लेता है । आज भी ऐसा करना बुरा माना जाता है खासकर पिता के जीवित रहते । घर में तनाव होता है लेकिन नीलेश के पिता की सदाशयता के कारण बात सुलझ जाती है । पिता सीतानाथ की यह उदार सदाशयता अनेक अवसरों पर मनोवैज्ञानिक दबाव में पड़े नीलेश को उबार लेती है और पिछले खेवे के अभिभावकों की एक पौध का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है ।
सुरंजन शास्त्री की कक्षा आज़ादी के आंदोलन की विविध धाराओं की टकराहट का रंगमंच बन जाती है । वहां नीलेश का एक दोस्त और सहपाठी गोपालराम भी आता था । गोपालराम दलित अछूत जाति का था और समाजवादियों के मुकाबले कम्युनिस्टों के साथ ज्यादा घनिष्ठता महसूस करता था । उसने कक्षा में आना छोड़ दिया था । दोनों की बहस में 42 के आंदोलन में कम्युनिस्टों की दुबिधा का खुलासा होता है । सुरंजन शास्त्री का तर्क हैसमाजवाद तो हम भी चाहते हैं, क्रांतिकारी हम भी हैं, मगर किसी दूसरे देश का पिछलग्गू बनना नहीं चाहते । अनैतिक हिंसात्मक राजनीति में भी हमारा विश्वास नहीं ।गोपालराम का तर्क हैइस समय हमें कोई भी काम ऐसा नहीं करना चाहिए, जो हिटलर विरोधी युद्ध प्रत्यनों को नुकसान पहुँचाए ।---विजय से मित्र देशों के साथ सोवियत रूस भी मजबूत होगा, जो निश्चित रूप से अंग्रेजों पर दबाव डालेगा कि भारत तथा अन्य उपनिवेशों को वह फ़ौरन स्वतंत्र कर दे ।सुरंजन शास्त्री जब कम्युनिस्टों के विरोध में यह तर्क देते हैं कि अंग्रेजों द्वारापृथक निर्वाचक प्रणाली द्वारा हिंदू-मुसलमान को बाँटनेतथाअछूतोंऔर देशी रियासतों का भी एक अलग टुकड़ातराशने का सवाल कम्युनिस्टों के लिएआत्म-निर्णय के जनतांत्रिक अधिकारों के तहत होंगे, परंतु हिंदुस्तान के लिए तो विनाशकारी ही सिद्ध होंगेतो पलटकर गोपालराम अछूतों के बारे में कांग्रेस की योजना की बाबत पूछता है । सुरंजन शास्त्री निरुत्तर रह जाते हैं । नीलेश अपने सहपाठी की तुर्शी से चकित रह जाता है और उससे राजनीति में आने की अपेक्षा करता है । उत्तर में गोपालराम का कथन उस समय भी जारी वंचना के अहसास से पाठक को परिचित कराता है । मैं चमार जाति का हूँ, यह तुम जानते ही हो । हमारी तरह ही करोड़ों अछूत और गरीब जातियाँ हैं, जो एकदम निरक्षर, गँवार और नासमझ हैं । ये लोग राजनीति क्या करेंगे ?’ फिर सवर्णों के राजनीतिक वर्चस्व पर सवाल उठाता है ‘—सर्वव्यापी बड़ी जातियों के शिक्षित लोग हर जगह अपनी-अपनी जातियों के अपने कुएँ में ही क्यों रहते हैं ?—अगर आज़ादी मिली तो निश्चित ही बड़े संपन्न लोगों का ही शासन जरूर चलेगा ।और भी आगे की बात करता हैअक्सर शहर के अनेक समाजवादी या कम्युनिस्ट अपने गाँव में जाकर अपने गरीब या अछूत कामरेड के लिए मालिक और बाबू नहीं बन जाते ?—पूँजीपति और मजदूर का भेद तो अलग किस्म का है, लेकिन सामाजिक और धार्मिक अस्पृश्यता भयंकर है, मर्मांतक है ।
बहरहाल गोपाल की इस बेबाकी के परिणामस्वरूप नीलेश उसे अपने घर खाना खिलाने ले जाता है । खाना खाने के क्रम में वह वास्तविकता सामने आ जाती है जिसकी बात गोपालराम कर रहा था । प्रत्यक्ष रूप से तो कुछ नहीं होता लेकिन उसकी जाति का पता चलने पर माता दादी आदि बुरा भला कहती हैं । यहां भी पिता की उदारता ही नीलेश की मदद करती है और कुछ खास नहीं घटित होता । गोपालराम के बहुत दिनों तक दोबारा न आने के चलते नीलेश उसके घर जाता है तो पता चलता है वह बीमार हो गया था । गोपालराम बीमारी की वजह नीलेश के घर का खाना मानता है । नीलेश के दुखी होने पर कहता हैतुम्हारा कुछ नहीं, तुम्हारे वर्ग का दोष है । तुम बुर्जुआ लोग मेहनतकशों द्वारा पैदा किया हुआ अन्न खाकर मस्ती से आकाश में बिस्तर लगाते हो और वहीं से अपने उच्च विचारों की गलाजत नीचे, उसी किसान पर थूकते हो ।इसी क्रम में वह गांधी के स्वराज की आलोचना भी करता है तो नीलेश दुखी होकर वापस घर चला आता है ।
स्वतंत्रता आंदोलन की इसी गर्मी के दौरान एक ऐसी बात का जिक्र लेखक करता है जिसका उल्लेख आम तौर पर उपनिवेशवाद विरोधी विमर्श में नहीं होता । वह है कि आम जनता में ब्रिटिश राज के प्रति इतनी नफ़रत थी कि लोगों मेंसंवत दो हजार में पीले रंग की एक जाति (के) माटा-चींटी की तरह दुनिया में फैलजाने की अफवाह फैल गई थी और उसे लोगों नेसुखसागरनामक एक धार्मिक ग्रंथ में की गई भविष्यवाणी मान लिया था तथा जापान की विजय को उसके साथ जोड़कर देखने लगे थे । इस पर लेखक की टिप्पणी हैआततायी व्यवस्था से लड़ने के लिए विद्रोही जनता अनेक तरीके अपनाती है, जिनमें धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों की मनमानी व्याख्या से निकाले जुज़ से झटपट तैयार अफवाहें भी होती है ।माहौल गर्म था और जापानियों को रोकने की पागलभरी कोशिशों के चलते एक तरह की उत्तेजना हमेशा बनी रहने लगी थी । पूर्वी मोर्चे पर फ़ौजी जा रहे थे । ये फ़ौजी ट्रेनों से ले जाए जाते । जब ये ट्रेनें आने वाली होतींउस समय मुसाफिरों को भगा दिया जाता और स्टेशनों के बाहर भी, खास तरह से कोई भी औरत, चाहे वह बूढ़ी ही क्यों न हो, आस-पास नजर तक न आवे ।ऐसे में एक सुनसान स्टेशन बकुलिया पर किसी लड़की को फ़ौजियों ने उठा लिया और उसकी लाश बाद में मिली थी । इस घटना की खबर आग की तरह फैली और उत्तेजना का कारण बन गई । तनाव के वातावरण में पुलिस और मुखबिरों की बन आई थी । नम्रता देरी से स्कूल जा रही थी कि रास्ते में खड़े एक मुखबिर अइगा पांडे ने फ़ब्ती कसीअरे झरेला कहाँ जात बाड़ू, चलऽ बकुलहा ले चलीं---कचहरी में काम करने वाले ठाकुर मुख्तार सिंह की बेटी नम्रता के साथ ऐसी हरकत ! बात तुरत फैल गई । सहानुभूति जाहिर करने जब नीलेश के पिता सीतानाथ आते हैं तो अपने भोलेपन में नम्रता से नीलेश की शादी का प्रस्ताव रखते हैं जिसे मुख्तार सिंह अपना अपमान समझते हैं । बहरहाल सदाशय व्रत भी जो अपने कांग्रेसी साथियों में सेनापति कहे जाते हैं आते हैं और इस घटना का बदला लेने का इरादा करते हैं । बदला लेने की उनकी क्षमता के लिए हमें उनके विचित्र अतीत के बारे में जानना होगा ।
सदाशय व्रत के पिता रामनिवास ओझा पेशे से शिक्षक थे लेकिन सदाशय व्रत का मन पढ़ाई में नहीं लगा । वे कुश्ती लड़ते थे । कुश्ती में ख्याति भी अर्जित की उन्होंने । किसी प्रतियोगिता में उनकी मुलाकात अनग्राहित ठाकुर से हुई जिन्होंने उन्हें लाठी चलाना सिखाने का आमंत्रण दिया । प्रशिक्षण के साथ ही उन्हें लाठी चलाने की कला भी समझ में आने लगती हैलठैती, तलवारबाजी के निकट पड़ती है लेकिन उसमें ढाल की जरूरत नहीं होती क्योंकि लाठी स्वयं ढाल होती है । लठैत का शरीर, गुल्ली या नट की तरह होना चाहिए, जो छटककर उस दिशा में चला जाए, जिधर उम्मीद ही न हो । और फिर उचित मौका देखकर तथा कत्थक नर्तक की तरह तेजी से घूमकर प्रहार करना चाहिए ।लेकिन ओझा जी को पता चलता है कि अनग्राहित ठाकुर डकैती करते हैं । इस उपन्यास में जिस तरह कथाओं के भीतर कथाएं मौजूद हैं उसे देखते हुए विक्रम सेठ के उपन्यासकोई अच्छा सा लड़काके एक रूपक की याद हो आती है जो असल में उस उपन्यास की संरचना की व्याख्या के लिए उपन्यासकार ने बुना है । सेठ का कहना है कि उपन्यास बरगद के पेड़ की तरह होते हैं जिसमें पेड़ की डाली से लटकी हुई कोई जटा जमीन से मिलकर एक स्वतंत्र जड़ बन जाती है और ऐसी ही जड़ों और जटाओं और डालियों का समुच्चय उपन्यास होता है । अनग्राहित ठाकुर अपने काम का औचित्य बताते हुए कहते हैं ‘—हमारे जिला-जवार मेंऐसे-ऐसे दबंग ठाकुर, ब्राह्मण और बनिए हैं, जो गरीबों को जबरदस्ती गुलाम बनाकर उनका निरंतर शोषण करते हैं ।--मैं इन्हीं लोगों से अपने लिए और गरीबों के लिए वसूलता हूँ ।धीरे धीरे ओझा जी भी उनके इस काम में शरीक होते जाते हैं । डाका डालने के काम की मुश्किलों के साथ लगातार पकड़े और मारे जाने का डर रहता था । जैसे शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यासकई चाँद थे सरे आसमाँमें ठग समुदाय के बारे में गंभीर जानकारी दी गई है उसी तरह इस उपन्यास में डाकुओं के बारे में तमाम बातें दर्ज की गई हैं । बहरहाल एक बार डाका एक ऐसे गाँव में डाला गया जहाँ हिंदू-मुसलमान पड़ोसी गाँव थे । डाके के दौरान एक डाकू को बिच्छू ने डंक मार दिया । वह दर्द से चिल्लाने लगा । घर वाले जाग गए । बचने का कोई रास्ता न देखकर सारे लोग भागने लगे और अनग्राहित ठाकुर ओझा जी को एक परिचित के यहाँ छोड़कर अपने कहीं और चले जाते हैं । उस व्यक्ति के यहाँ रहते हुए एक दिन वे बाहर घूमने निकलते हैं तो रेलवे क्वार्टरों में उन्हें एक अपूर्व सुंदरी नजर आती है । पहले पहलवानी फिर लाठीबाजी और फिर डकैती की दुनिया में रहते हुए उन्हें अब तक ऐसे अनुभव से साबका ही नहीं पड़ा था । वे जिसके यहाँ रुके थे वह भूतपूर्व डाकू ही था । उसने ताड़ लिया । पकड़कर उस स्त्री को लाया गया लेकिन वह स्त्री पिता की गरीबी के कारण एक बूढ़े के हाथ बेची गयी थी और इस समय एक नौजवान से प्रेम करती थी । प्रेम को वहममताकहती है और उसकी दुहाई देकर ओझा जी के साथ ब्याह के लिए राजी नहीं होती । निराश होकर वे आत्म घात करने के लिए नदी किनारे जाते हैं जहाँ एक स्वामी का रसोइया उन्हें बचा लेता है और आश्रम में ले आता है । आश्रम में मन लगाकर वे खाना बनाना सीख लेते हैं । एक प्रभावशाली पुजारी की लड़की उन पर मुग्ध हो जाती है लेकिन अबकी बार ओझा जी उसे इनकार कर देते हैं और वापस घर लौट आते हैं । पिता उन्हें वापस पाकर प्रसन्न होते हैं और पिता की सलाह पर वे होटल खोल लेते हैं । होटल में राजनीतिक लोग आते हैं और उन्हीं में से एक कार्यकर्ता उन्हें पढ़ने लिखने और कांग्रेस की राजनीति से परिचित कराता है । कांग्रेसी कार्यकर्ता उन्हें सेनापति कहते हैं और इसी जिम्मेदारी के चलते उन्होंने नम्रता के साथ हुए व्यवहार का बदला लेने की बात की थी । उनके साथियों को पता चलता है कि सिपाही अइगा पांडे पास के गाँव में है । सदाशव्रत अपने साथियों के साथ पहुँचते हैं और अइगा पांडे को समझाने की कोशिश करते हैं लेकिन सत्ता के नशे में चूर वह उनके होटल दूसरे दिन अनेक बदमाशों को लेकर जा धमकता है । लाठीबाजी के प्रशिक्षण से फुर्तीला हुआ ओझा जी का शरीर उन सब बदमाशों पर भारी पड़ता है और अइगा पांडे को माफी माँगनी पड़ती है ।
इधर नीलेश स्कूल पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बनारस आ गया था और क्वींस कालेज में दाखिला लेकर नियमित पढ़ने लगा था । बनारस में उसे नम्रता की याद आती रहती और बलिया में नम्रता को उसकी याद आती । दोनों ने एक दूसरे को पत्र भी लिखे लेकिन भेजने की हिम्मत नहीं जुटा सके । नीलेश का राजनीतिक क्षितिज बनारस में रहते हुए विस्तृत होना शुरू हो चुका था । वह कांग्रेस और समाजवादियों के बीच की बहसों का अर्थ बहुत कुछ समझने लगा था । बहरहाल पहले साल की परीक्षा देने के बाद अप्रैल महीने में ही नीलेश वापस बलिया जा सका । उसके बलिया पहुँचने से पहले ही कचहरी के एक पेशकार मुसद्दीलाल नीलेश के पिता सीतानाथ को यह समझाने में कामयाब रहे कि इस बार बड़ा जोरदार आंदोलन छिड़नेवाला है और नीलेश का खाली घर रहना खतरे से खाली नहीं है । सीतानाथ भी चिंतित हुए और समाधान यह निकाला कि नीलेश की शादी कर दी जाए । नीलेश के घर पहुँचने से पहले ही रिश्ता तय किया जा चुका था । नीलेश से सभी इशारों में बात करते । बहरहाल नीलेश ने सख्ती से शादी करने से इनकार कर दिया । पिता को यह बेहद नागवार गुजरा और वे गरजे तड़पे । दुखी नीलेश उनके बारे में शिकायती ढंग से सोचने लगा लेकिन फिर उसे उनकी अच्छाइयाँ याद आने लगीं । इस नाटक में पाँच दिन गुजर चुके थे और वह किसी दोस्त मित्र से मिलने नहीं जा सका था । गोबर्धन के यहाँ गया तो उसकी नव विवाहिता पत्नी से मिला जो संयोग से नम्रता की सहेली निकली । उसने एक गीत सुनाया दोस्तों के जुटने के अवसर पर । गीत किन्हींराष्ट्रभक्त, प्रगतिशील, क्रांतिकारी कवि प्रभुनाथ मिश्रका लिखा हुआ था और इस गीत के जरिए हमें वह सूत्र दिखाई पड़ता है जो छायावाद को आज़ादी के आंदोलन से जोड़ता था । गीत के बोल हैं- ‘प्रलय घन छा रहे साथी । महा विध्वंस बेला का सन्देशा ला रहे साथी । पुराने खंडहर ढहते, गगनचुंबी महल बहते, अडिग प्राचीर वाले दुर्ग भी स्थिर नहीं रहते, उन्हीं पर झोंपड़ी के तृण उछलते जा रहे साथी । प्रलय ही सृष्टि है नूतन, निधन में निहित है नवजीवन, इसी अवसान में ही है नवल निर्माण परिवर्तन, मिली इति आज अथ-पथ में नए दिन आ रहे साथी ।नम्रता का जिक्र आते ही नीलेश का मन खराब हो गया और वह घर के लिए चल पड़ा । घर लौटते हुए सदाशय व्रत जी के पास जा पहुँचा । सदाशय व्रत जी ने अपने घर पर दूर देहात के कांग्रेसियों की बैठक बुला रखी थी जिसका न्यौता जगह जगह नीलेश ने पहुँचाया । गोपनीय तरीके से बैठक संपन्न हुई जिसमें क्रांतिकारी नौजवानों और कम्युनिस्टों के साथ कांग्रेस के मतभेद भी खुलकर सामने आए । इस बैठक में क्रांतिकारियों की ओर से दयाशंकर और कम्युनिस्टों की ओर से गोपालराम ने ऊपर वर्णित सवाल कांग्रेस की नीतियों पर उठाए । दयाशंकर ने अहिंसा के प्रश्न पर असहमति दर्ज की तो गोपालराम ने लड़ाई छेड़ने का सही वक्त न होने का तर्क दिया । फिर भी आंदोलन का वातावरण बन ही गया ।
इधर नम्रता का जिक्र आने से गोबर्धन की पत्नी भी उससे मिलने के लिए व्याकुल हो उठी थी । उसने नीलेश से नम्रता के लिए संदेश भिजवाना चाहा था जिसे नीलेश ने मना कर दिया था । हारकर उसने अपने नौकर के हाथ पत्र भेजकर उसे बुलवाया । नम्रता भी इधर उदास रहने लगी थी इसलिए उसे भी मन बहलाव लगा तो मिलने चली गई । उससे भी जब नीलेश का जिक्र किया गया तो बेतरह उखड़ गई । इससे गोबर्धन की पत्नी को हल्की शंका हुई कि जरूर कोई बात है । नीलेश के पिता सीतानाथ को राजनीतिक गर्मी का अंदाजा हो रहा था क्योंकि सदाशय व्रत के घर की बैठक का सुराग सरकार को लग गया जिसके चलते अनेक लोगों की गिरफ़्तारी हुई थी । वे नीलेश को लेकर चिंतित रहने लगे और उन्हें उचित यही लगा कि नीलेश बनारस निकल जाएं । नम्रता को उसके जाने और शादी से इनकार करने का पता लगा तो इतना गहरा धक्का लगा कि एक ही दिन में दो बार बेहोश हो गई ।
उपन्यास में इसके बाद तीसरी कथा की शुरुआत होती है जो स्वाधीनता आंदोलन के जिक्र के साथ ही प्रारंभ होती है- ‘स्वातंत्र्य आंदोलन में बमपुलिस गली की भी एक सार्थक भूमिका है ।यह शब्द (बमपुलिस) थोड़ी व्याख्या की अपेक्षा करता है ताकि यह समझ में आए कि इस गली के रहने वालों का मतलब समाज का एक और कमजोर तबका है । इसका अर्थ सार्वजनिक शौचालय है जो पहले बांस के डंडों यानी बम्बू पोल्स पर खड़ा रखा जाता था जहां से इस शब्द की व्युत्पत्ति जुड़ी हुई है । यानी वह गली जहां सार्वजनिक शौचालय है । साफ है कि यहां गंदगी होगी और गंदगी का रोग टी बी भी । तो इस गली के रहने वालों को अक्सर यह रोग हो जाता था और वह भी पुरुषों को ज्यादा । ऐसे ही एक परिवार की बहू भगजोगिनी देवी की त्रासद कथा उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है जिन्हें रोज रोज की गलाजत भरी जिंदगी से बाहर निकलने का मौका लेकर आज़ादी का आंदोलन आया था । यह कथा लेखक की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण की गहरी क्षमता का परिचायक है लेकिन समीक्षा की सीमा में इसका निदर्शन संभव नहीं है । हम कहानी की मोटी रूपरेखा तक ही अपने आपको सीमित रखेंगे । भगजोगिनी देवी के ससुर की अच्छी खासी फलों की दूकान थी लेकिन अचानक उन्हें टी बी हो गई और वे गुजर गए । ससुर की मृत्यु के बाद पति ने इस काम को संभाल लिया था । पति को भी इस बीमारी ने जकड़ लिया और वे भी असमय ही काल कवलित हो गए । पति की दूकान में उनका एक हिस्सेदार दामोदर था जो भगजोगिनी देवी पर मन ही मन मुग्ध था । पति की मृत्यु के बाद उसने षड़यंत्र करके भगजोगिनी देवी के साथ गंधर्व विवाह का नाटक करके शारीरिक संबंध कायम किए । दामोदर पहले से ही विवाहित था, चार बेटियां भी थीं लेकिन उसकी पत्नी पूजा पाठ में लगी रहती थी जिससे उसका यह रसिक पति खिन्न रहता था । पत्नी की उदासीनता का कारण दामोदर की यौन उच्छृंखलता थी । दोनों को निभाने के वर्णन में और भगजोगिनी देवी पर डोरे डालने के प्रसंगों में लेखक ने बेहद कुशलता का परिचय दिया है । उसे यह लगता था कि उसके धन पर हक जमाना ही पत्नी या प्रेमिका के प्यार का लक्षण है क्योंकि इससे उसका अहं तुष्ट होता था । लेकिन उसकी पत्नी और भगजोगिनी देवी इसकी बजाए उससे निष्ठा की मांग करती थीं । संक्षेप में यह कि इसी कारण वह दोनों से असंतुष्ट रहने लगा । संयोगवश उसकी पत्नी को शंका हो गई और एक रात वह भगजोगिनी देवी के यहां जा धमकी जब दामोदर भी वहीं था । खूब झगड़ा हुआ और रमाशंकर ने कहा- ‘दामोदर प्रसाद, हम आपको जानते हैं । देश को आजाद होने दीजिए तब हम सभी उन गद्दारों और पुलिस दलालों को कड़ा-से-कड़ा दंड दिलाएँगे, जिन्होंने देश और जनता के साथ विश्वासघात किया है । ध्यान रहे, इस गली में आप भूल से भी न आएँ । बस जाइए । कभी इधर आपको देख लिया तो शहर कांग्रेस कमेटी इसे बरदाश्त नहीं करेगी ---।’ दामोदर शर्मवश दूसरे ही दिन अपने गाँव अपनी लड़की की शादी के लिए लड़का देखने के बहाने चले गए । वहां एक ईंट भट्ठे को आग देने के सामाजिक समारोह में उन्हें बुलाया गया जहां आग लगने के बाद औरतें गा रही थीं- ‘पाको हे ईंट पाको, जइसे दू मेहरी का मरद पाके--’। इस उपन्यास के भाषिक बरताव पर अलग से विचार करने की जरूरत है जिसका अवकाश इस समीक्षा में नहीं है । इसी गली में एक कांग्रेसी कार्यकर्ता रमाशंकर रहते हैं जो अन्य बड़े नेताओं की अनुपस्थिति में अचानक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए मजबूर हो जाते हैं । उनको अखबार से पता चलता है कि बंबई में कांग्रेस के नेता गिरफ़्तार कर लिए गए हैं । वे बलिया में एक विशाल प्रदर्शन की योजना बनाते हैं । रमाशंकर का सोचना है कि इस बार प्रदर्शन में महिलाओं को भी शरीक किया जाए । वे भगजोगिनी देवी को जुलूस में शामिल होने का निमंत्रण देने गए । भगजोगिनी देवी की इच्छा देखते हुए उनकी सास भी बहू का साथ देने जुलूस में जाने को तैयार हो जाती हैं । उस समय ऐसे ही मामूली लोगों के असाधारण कामों के सिलसिले में लेखक की मार्मिक टिप्पणी है- ‘एक मामूली आदमी नहीं जानता कि वह कभी, कोई क्रांतिकारी कार्य कर सकता है । वह अपने काम-धंधे, ईर्ष्या-द्वेष, सुख-दु:ख, छोटी-छोटी चालाकियों में लिप्त रहकर फूँक-फूँककर आत्मरक्षात्मक कदम आगे बढ़ाता है, तब आश्चर्य होता है कि कैसे यही लोग किसी संकटकालीन ऐतिहासिक मौके पर उठ खड़े होते हैं और मिलजुलकर जोर-जुल्म, अन्याय, गुलामी का विरोध करने के लिए घरों से बाहर निकल आते हैं ।’
दस अगस्त सन बयालिस को जुलूस निकला । जुलूस विद्यार्थियों का था । वर्णन देखिए- ‘जुलूस किसी तरंगित सरिता की तरह आगे बढ़ रहा है । बीच-बीच में कुछ साधारण लोग भी शामिल हो जाते हैं छोटी-छोटी नदियों और नालों की तरह । ये ही लोग सुबह की उमस में मुर्दे की तरह पड़े थे, लेकिन इस समय चैतन्य होकर देश की आजादी के इस ऐतिहासिक आंदोलन में अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार हो गए हैं ।---लोग नदी से नद बन रहे हैं । दोनों किनारों पर खड़े लोगों में से कोई कुछ देर तक देखता है, फिर सोचता है और अंत में बढ़ते हुए जुलूस में गायब हो जाता है । कई लोग अगल-बगल गलियों से अचानक सिर झुकाए तेजी से आते हैं और पीछे जाकर तथा पंक्ति बनाकर चल देते हैं शहीदी राष्ट्रगान गाते और चिल्ला-चीखकर नारे लगाते हुए ।अचानक जुलूस वेश्याओं के मुहल्ले की ओर घूम जाता है ‘—जुलूस अब इशरतगंज होकर चलेगा, वहाँ भारत की अनेक देवियाँ जिस्म बेचने को मजबूर की जा रही हैं । आजादी मिलने पर यह अन्याय नहीं होने दिया जाएगा---’ । आज़ादी का मतलब उस समय इतना व्यापक हो गया था कि किसी के लिए उससे अलग रहना संभव ही नहीं था । जुलूस को देखकर उत्साहित होकर ढेला नीचे आ गई और नारे लगाने लगी । उसे खाँसी आई और खून की उल्टी हुई, वह बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़ी । गिरी भगजोगिनी देवी के पैरों के पास । भगजोगिनी देवी अपने पूर्व अनुभव के बल पर बिना घबराए ढेला को लिए रहीं । आखिरकार खून की सफाई करने के बाद ढेला को उसके घर छोड़कर जुलूस आगे चला । जुलूस जब कचहरी के पास पहुँचा तोजहाँ आकाश विस्तृत नहीं था अथवा कम खुला था, वहाँ मकान और और घनी पत्तियों वाले वृक्ष भी नारे दोहरा रहे थे । और खुली जगह पर पीछे का क्षितिज भी गूँज उठता जैसे उधर से एक और विशाल जुलूस आ रहा हो, वैसे ही नारे लगाते हुए जिसकी आवाज दूरी की वजह से बहुत मद्धिम थी ।धारा 144 लगा दी गई और कचहरी बंद हो गई ।                                     
इधर नीलेश बनारस से बलिया की ओर लड़ाई में हाथ बंटाने के लिए चला । ट्रेन इलाहाबाद से बनारस होते हुए बलिया जानी थी । इलाहाबाद से ही ट्रेन में नम्रता और उसके माता-पिता थे । बनारस से ट्रेन चली तो रुकती रुकाती आखिर गाज़ीपुर से थोड़ा पहले पूरी तरह थम गई क्योंकि आगे की पटरी उखड़ी हुई थी । पैदल ही नीलेश नम्रता के पूरे परिवार के साथ गाज़ीपुर आया और अपने एक रिश्तेदार के यहाँ रुक गया । नीलेश ने जिस तरह इस मुसीबत में साथ दिया उसके बारे में लेखक का कहना है किपरिश्रम के ऐसे आनंद को एक-दो शब्दों में परिभाषित करना संभव नहीं है, जिसमें देशभक्ति, कुर्बानी, दायित्व, गर्व एवं स्वार्थरहित प्यार की भावनाएँ एकीकृत हो गई हों ।तीसरे दिन वे लोग नाव से बलिया के लिए चले । इतने दिन तो नम्रता नीलेश से दूर रही थी लेकिन नाव से उतरकर जब उसके माता-पिता गौसपुर में एक रिश्तेदार के पास मिलने गए तो वह सहसा नीलेश से कभी दूर न जाने का वादा कर बैठी । बलिया में घर पर एक दूसरी मुसीबत मौजूद थी । कचहरी बंद होने से कमाई बंद थी । कुछ दिन चला लेकिन दो तीन दिन बीतने पर घर पर रखा जौ और चना ही खाने को रह गए । जब नीलेश घर आया तो यही आलम था । उसने पास रखे पैसे दिए तो घर पर भोजन के मामले में रौनक आई । एकाध दिन बाद नीलेश गोबर्धन से मिलने गया तो उसी दौरान गुदड़ी बाज़ार में गोली चल गई और अनेक लोग मारे गए जिनमें से कुछ देहात से बाज़ार खुलने की खबर पाकर खरीद-बिक्री करने शहर आए थे । अब आंदोलन देहात में फैल गया । देहात के आंदोलन के प्रसंग में लेखक ने बैरिया की लड़ाई का ही जिक्र किया है क्योंकि अन्य जगहों पर तो थानेदारों ने हवा का रुख पहचानकर समर्पण कर दिया था लेकिन बैरिया थाने का थानेदार बेहद धूर्त था । नीलेश को गोबर्धन के यहां से घर लौटने में देर हुई थी । अन्य छोटे भाई खासकर वीरेश लाशों को ढोने और घायलों को अस्पताल पहुँचाने में व्यस्त रहा था । चिंता के मारे सीतानाथ की हालत खराब थी । दोनों लौटे तो उनकी जान में जान आई । दूसरे दिन एक और छोटे भाई को हैजा हो गया और शहर में गड़बड़ी का माहौल होने से चिकित्सा की भी दिक्कत हुई तो नम्रता न केवल घर में रखी दवा लाई बल्कि एक वैद्य के यहां से दवा लाने की सलाह भी दी जिसे सीतानाथ ले भी आए और उसी से सुरेश ठीक हो गया । इस प्रसंग के जरिए शायद लेखक नम्रता की होशियारी की प्रतिष्ठा करना चाहता था लेकिन इस तरह के कुछ अनावश्यक प्रसंग इस उपन्यास के कलेवर को जरूरत से अधिक विस्फारित करते प्रतीत होते हैं या संभव है लघुता प्रेमी समय ने बड़े उपन्यासों को सराहने की हमारी क्षमता ही खत्म कर दी हो ।
बैरिया की लड़ाई की मुख्य बात यह है कि उसके जरिए इस आंदोलन के स्वत:स्फूर्त उभार और नेतृत्व को लेखक उभारकर ले आता है । कहते हैंजहाँ कोई नेता नहीं है, वहाँ स्वयं ही लोग दल बनाकर और अपने ही बीच में से किसी को नेतृत्व सौंपकर निकल पड़ते हैं नारे लगाते हुए ।इस उभार की तुलना किसी कलात्मक चित्र से करते हुए कहते हैंस्वतंत्रता के भारत छोड़ो आंदोलन में उन दिनों जो दृश्य दिखाई दिए उनका अंदाजा शायद किसी महान कलाकार द्वारा बनाए गए जन-विद्रोह या दावानल के कलात्मक चित्रों से लगाया जा सके । कहना तो यह चाहिए कि जनता स्वयं उच्चकोटि के कलाकारों के समान, समय और इतिहास को नया मोड़ देकर देश के जीवित चरित्रों और उनकी महान विविध संभावनाओं को निर्मित कर रही थी, जो किसी अन्य कवि या आर्टिस्ट द्वारा संभव नहीं है ।आंदोलन की इस रचनात्मक क्षमता का स्वीकार और उसका सृजनात्मक चित्रण इस उपन्यास का प्राण है । बहरहाल इस लड़ाई में हमारा पूर्व परिचित क्रांतिकारी पात्र दयाशंकर शहीद हो गया ।
विद्रोही बलिया के अलग अलग हिस्सों की लड़ाई में जीत जाने के बाद जिला मुख्यालय की ओर चल पड़े । बलिया के जिला कलक्टर सुरेश्वर प्रसाद को समझ में नहीं आया कि इसका मुकाबला कैसे करें । उन्होंने सोच विचारकर कांग्रेस के जिला अध्यक्ष से जेल में मुलाकात की । अध्यक्ष जी ने उनसे जिला प्रशासन कांग्रेस के हाथ सौंप देने की मांग रखी । धूर्तता के साथ सुरेश्वर प्रसाद इसके लिए राजी हो गए लेकिन अपने हाथ में कचहरी का इलाका रखा । कांग्रेस अध्यक्ष ने सभी बंदियों की रिहाई करवाई और ऐसा होने पर कलक्टर की बातों पर भोलेपन के साथ यकीन कर लिया । इधर सुरेश्वर प्रसाद ने अपने एक अधिकारी को बनारस कमिश्नरी सहायता की याचना के साथ रवाना किया और समय काटने लगे । कांग्रेस अध्यक्ष ने जनता से अपील की कि वे अपने अपने गांव लौट जाएं और आज़ाद प्रशासन का गठन करें । भीड़ में से कुछ लोग लौटने के लिए राजी नहीं हुए जिन्हें एक सभा में विचार विमर्श के लिए अध्यक्ष जी ने आमंत्रित किया । ये लोग ज्यादातर समाजवादी थे । जेल से रिहा हुए लोगों में ही सदाशय व्रत भी थे । अचानक उन्हें पता चलता है कि जिस स्त्री पर उनका दिल डकैती के दिनों में आया था उसका प्रेमी रामचरन भी उन्हीं समाजवादियों में है जो अध्यक्ष जी के इस फ़ैसले का विरोध कर रहे हैं । इतने दिनों से दबी हुई ईर्ष्या की चिनगारी फिर से सुलगने लगी लेकिन सभा के दौरान और उसके बाद उसका आचरण और दृढ़ता देखकर वे मान गए कि उस स्त्री के प्रेम का सच्चा अधिकारी रामचरन ही था ।
दूसरे दिन शहर खाली हो गया । धीरे धीरे लोग अपने दैनिक कामों के ढर्रे पर लौटे । लगा महीनों बाद सब्जी बिक रही है । दूध, घी, चूड़ी बेचने वाले, बंदर, भालू और साँप का तमाशा दिखाने वाले जाने कहाँ से आ निकले और जीवन चल निकला । इधर ढेला को डाक्टर ने भवाली ले जाने की सलाह दी थी । माँ श्यामदासी पुराने ग्राहकों से पैसा माँगने निकली थी । रास्ते में रमाशंकर से मुलाकात हुई तो अपनी मुसीबत बताई । रमाशंकर ने मदद जुटाने का वादा किया और गोबर्धन के घर गए । गोबर्धन ने शुरुआती ना नुकुर के बाद मदद करना कबूल कर लिया । इधर सुरेश्वर प्रसाद को जैसे ही खबर मिली कि उनका भेजा हुआ अधिकारी कमिश्नर से मिलकर कल आने वाला है तो उनका उत्साह जाग उठा और उन्होंने सशस्त्र लारी को शहर में चक्कर लगाने के लिए भेज दिया । यह इक्कीस अगस्त की तारीख थी । गोली चली और दो लोग मारे गए । जनता का संदेह पक्का हो गया । लोग अध्यक्ष जी के पास शिकायत लेकर गए । अध्यक्ष जी ने कलक्टर से पूछने की बात कही लेकिन रात में ही किसी ने आकर उन्हें बताया कि अंग्रेजी फौज रेल की पटरियों को जोड़ते हुए आ रही है । फ़ौज रात के दो बजे बलिया स्टेशन पर उतरी और आगमन की मुनादी दो फ़ायर करके किया । सुरेश्वर प्रसाद को निलंबित किया गया । रात में ही बीन बीन कर कांग्रेस के लोगों को पकड़ लिया गया । अध्यक्ष जी बच निकले थे । रमाशंकर पकड़ में आए । दिन में एक दूसरी टुकड़ी नदी मार्ग से आ पहुँची । कचहरी के मैदान में सबको एकत्र करके सजाएं दी गईं । गाँवों में भी भय और आतंक का राज कायम हो गया । कांग्रेसी लोग छुप गए । हिंदुस्तानी पुलिस कप्तान को भी हटाकर अंग्रेज कप्तान नियुक्त किया गया । खराब माहौल में सीतानाथ के साले यदुनंदन प्रसाद, जो सिविक गार्ड के कमांडर थे, भांजे नीलेश के प्रति चिंता से भरे आए और उसे कहीं दो चार दिन के लिए छिपा देने की सलाह देने लगे । सीतानाथ ने नीलेश को सामने मुख्तार रतन सिंह के यहाँ कुछ दिनों के लिए रहने भेज दिया । नीलेश के वहीं रहते हुए एक रात नम्रता ने गोली चलने की आवाज सुनी जो लोगों में भय का वातावरण बनाए रखने के लिए अंग्रेजी फौज यूँ ही चला दिया करती थी तो नीलेश के प्रति उसकी चिंता का प्रकटीकरण प्रेम के रूप में हुआ जिसमें रात में उसके कमरे की मसहरी लगा देना, छत पर मिलना आदि हुआ । एक दिन किसी गुप्त सूचना के आधार पर नीलेश देहात में किसी सभा में गया तो गिरफ़्तार कर लिया गया । पुलिस उसे घर ले आई तो नम्रता मजिस्ट्रेट से जमकर लड़ी । रतन सिंह को बुरा लगा और उन्होंने वजह पूछी तो नम्रता ने अपने प्रेम की बात स्वीकार की । डाँट पड़ने पर उसने चूहा मारने की दवा खा ली तो मजबूर होकर रतन सिंह ने विवाह करना मंजूर कर लिया ।
आंदोलन के उतार के दिनों में कांग्रेस की प्रांतीय समिति द्वारा नियुक्त एक व्यक्ति बैकुंठ ने रात दिन मेहनत करके किसी तरह संगठन को जिंदा रखा । उस समय की नीति के बारे में लेखक का मत है- ‘ज्वार खत्म होने पर भाटा के समय यह उम्मीद या इच्छा करना कि फौरन ज्वार आ जाएगा, भ्रम या मूर्खता का ही विचार है । इसीलिए महात्मा गांधी अथवा दुनिया के अन्य जननेता रचनात्मक कार्यों द्वारा तैयारी करते हुए ज्वार के उचित समय की प्रतीक्षा करते हैं ।इसी कठिन समय में उपन्यास के तकरीबन अंत में प्रेमानंद नामक एक ऐसा पात्र खड़ा होता है जो अपनी भास्वरता में अप्रतिम है । आश्चर्यजनक रूप से इसी तरह के नाम का पात्र आत्मानंद प्रेमचंद केकर्मभूमिमें भी है इससे लगता है कि यह कल्पित नहीं एक हद तक वास्तविक पात्रों की दुनिया है । प्रेमानंद संयोग से पुलिस की पकड़ में आते हैं । उनकी पिटाई अंग्रेज अधिकारियों की क्रूरता और आंदोलनकारी की सहनशीलता की टकराहट में बदल जाती है जिसमें अक्सर प्रेमानंद ही विजयी होते हैं । अंतत: पुलिस कप्तान वुड उनकी पिटाई करने आता है और असफल होकर चला जाता है । फिर शहर कोतवाल मुइनुद्दीन उन्हें घर पर पिटाई के लिए बुलवाता है । जब प्रेमानंद उसकी कलाई पकड़ लेते हैं तो लाख जोर लगाने पर भी वह छुड़ा नहीं पाता । इससे प्रभावित होकर वह उन्हें हथकड़ी बेड़ी से मुक्त कर देता है ।
ढेला की भवाली में इतनी अच्छी तरह चिकित्सा होती है कि अब वह पहचान में ही नहीं आती । इसमें डाक्टर आनंद स्वरूप का प्रमुख योगदान है । वे बीमारी के प्रति सैनिकों का नजरिया अपनाते हैं और मानते हैं किहम भी तो युद्ध के सैनिकों की तरह बीमारी के खिलाफ लड़ाई लड़ते हैं । हमारी लड़ाई तो हमेशा जारी है आखिरी जीत की उम्मीद के साथ कि एक दिन दुनिया से रोग-शोक खत्म हो जाएगा ।उसका कहना है किबीमारी से शरीर कलुषित और अपवित्र हो जाता है और गलत विचार से मन । बीमारी दूर होने से जैसे शरीर स्वच्छ और पवित्र हो जाता है, उसी तरह सुंदर विचार से मन और आत्मा ।ढेला के ठीक होने के बाद डाक्टर उसे बलिया नहीं लौटने देता बल्कि अपने साथ रखकर उसे वहीं सैनेटोरियम में नर्स बनवा देता है ।    
1943 में नम्रता ने हाई स्कूल की परीक्षा दी थी और आगे पढ़ने के लिए इलाहाबाद जाने वाली थी । इलाहाबाद में उसकी पढ़ाई के दौरान ही जेल में बंद लोगों के छूटने की प्रक्रिया शुरू होती है । युद्ध की समाप्ति के बाद रिहाई की प्रक्रिया तेज हो जाती है । नीलेश के साथ एक नेता अनिरुद्ध दास पहले फैजाबाद जेल में फिर नैनी जेल में रहते हैं । अनिरुद्ध दास उन नेताओं में से हैं जो जानते हैं कि आज़ादी के बाद उन्हें ही प्रशासन सँभालना है । वे नीलेश को इसके लिए व्यक्तिगत सहयोगी के रूप में ताड़ लेते हैं और प्रशंसा का भूखा नीलेश क्रमश: इस जाल में फँसता जाता है । रिहाई के बाद वह अनिरुद्ध दास के घर पर रहकर उनके निजी सचिव का काम करने लगता है । दास साहब की लड़की प्रियादास नीलेश के करीब आती जाती है और नीलेश को नम्रता भूलती जाती है । यहाँ आकर भेद खुलता है कि नीलेश-नम्रता की कहानी क्यों इतना जगह घेरे हुए है । असल में उनके संबंधों का उतार चढ़ाव जनता और सत्ता संरचना की नजदीकी-दूरी का रूपक बन जाता है । व्यक्तिगत प्रेम को सामाजिक घटनाओं के साथ इस तरह गूँथना एक बड़े उपन्यासकार के लिए ही संभव था और यह काम अमरकांत ने बखूबी निभाया है । सत्ता के करीब जाने पर सुख सुविधा का जीवन बिताने के लिए कैसे अवसरवादी तर्क बनाए जाते हैं इसे नीलेश की चिंतन प्रक्रिया के जरिए उपन्यासकार ने अच्छी तरह चित्रित किया है । वीरेश के धिक्कारने पर नीलेश अपने आपको बदलने की कोशिश करता है लेकिन अनिरुद्ध दास का आभामंडल उसे दलदल में लगातार खींचता जाता है । उपसंहार में हमें सूचना मिलती है कि नम्रता का विवाह किसी नामी जमींदार के साथ हो गया था । दामोदर की लड़कियों की शादी हो गई । भगजोगिनी देवी को कन्या विद्यालय में दाई की नौकरी मिल गई । बलिया में चौक में एक सभा हुई जिसमेंअन्य सभी तो शरीक हुए लेकिन नीलेशइलाहाबाद से ही अनिरुद्ध दास के साथ कार से दिल्ली चला गयाहै । सभा में सदाशय व्रत के भाषण में बँटवारे का दुख बोलता है और वे कहते हैं कि इस दुर्घटना का कारण दोनों पार्टियों की गलती के साथ ही तीसरी पार्टी के षड़यंत्र भी थे । वह पार्टी तो विदेश गई लेकिन हमें सावधान रहने की जरूरत है । उपन्यास के इस कमजोर अंत से उसकी महत्ता कम नहीं होती ।

स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर इस उपन्यास में बहुत कुछ कहा गया है जिसकी परिणति उपन्यासकार के सहकार और सहकारिता पर आधारित सहजीवन की स्वीकृति में होती है । इस संबंध में विस्तृत विश्लेषण का अवकाश न मिल सका । भाषा का उपनिवेशवाद विरोधी विमर्श निश्चय ही अलग से विचार योग्य है जिसमें भोजपुरी केवल शब्द तक ही नहीं अभिव्यक्ति की प्रणाली में भी समाई हुई है लेकिन उत्सव धर्मी होने से बच गई है ।तैंऔरहटेमिल जाने से यही भोजपुरी गिटपिट हो जाती है तो फ़ारसी लदी अदालती जुबानआबा-काबा।