सभी जानते हैं कि मार्क्स और एंगेल्स के लेखन का संपादन-प्रकाशन भी कम से कम मार्क्सवादियों के लिए व्यावहारिक आंदोलन जैसी ही
महत्वपूर्ण चीज रही है । खुद ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’
की एक भूमिका में मार्क्स-एंगेल्स ने इसकी लोकप्रियता
में उतार चढ़ाव को संबद्ध देश में मजदूर आंदोलन की हालत का पैमाना कहा था । असल में
मार्क्स को जिन भौतिक हालात में काम करना पड़ा वे लिखे-पढ़े को
अधिक सहेज कर रखने की अनुमति नहीं देते थे । दूसरे, जिस सामाजिक
समुदाय के हित में उन्होंने ताउम्र लिखा वह तत्कालीन समाज में सब कुछ मूल्यवान
पैदा करने के बावजूद प्रभुताप्राप्त ताकतों द्वारा समाज की हाशिए की ताकत बना दिया
गया था इसलिए अपने नेता की लिखित-प्रकाशित सामग्री के संरक्षण
की कोई व्यवस्था उसके पास नहीं थी । तीसरे मार्क्स ने अपने ऊपर काम बहुत ले लिया था
और जिंदगी ने उन्हें वक्त कम दिया । उनकी भाषा जर्मन थी जिसके जानने वाले कम थे और
मार्क्स की लिखावट भी बहुत स्पष्ट नहीं होती थी । इन सब कारणों के चलते उनके लेखन के
प्रकाशन-संपादन का इतिहास भी मार्क्सवाद के विकास के साथ अभिन्न
रूप से जुड़ा हुआ है ।
मार्क्स की मौत के बाद एंगेल्स ने उनके लेखन के प्रकाशन-संपादन का दायित्व ग्रहण किया । इसी जिम्मेदारी के तहत उन्होंने ‘थीसिस आन फ़ायरबाख’ और ‘गोथा कार्यक्रम
की आलोचना’ के अलावे
‘पूंजी’ के शेष दो खंड संपादित करके प्रकाशित कराए क्योंकि
उनका ध्यान इस बात की ओर था कि यह काम यानी ‘पूंजी’ मार्क्स का सबसे महत्वपूर्ण काम है और इसी की उपेक्षा होने की संभावना सबसे
अधिक है । एंगेल्स की मृत्यु के उपरांत रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति के बाद
‘मेगा’ के नाम से संपूर्ण रचनाओं को प्रकाशित करने
की जिम्मेदारी 1920 के दशक में मास्को के ‘मार्क्स-एंगेल्स इंस्टीच्यूट’ ने
ली लेकिन इस परियोजना में काम करने वाले बुद्धिजीवियों से सोवियत सत्ता की अनबन,
जर्मनी में हिटलर के उदय आदि के चलते प्रकाशन का काम रुक गया । इस
इतिहास का विस्तार से जिक्र करते हुए यूर्गेन रोजान ने ‘पब्लिशिंग
मार्क्स एंड एंगेल्स आफ़्टर 1989: द फ़ेट आफ़ द मेगा’ शीर्षक एक लेख में बताया है कि सबसे पहले 1910 के
दिसंबर में मार्क्स-एंगेल्स समग्र प्रकाशित करने की योजना
बनी । इसके लिए हुई बैठक में डेविड बोरिसोविच रियाज़ानोव भी मौजूद थे । लेकिन यह
योजना आगे नहीं बढ़ सकी जिसकी एक वजह प्रथम विश्व युद्ध भी था । इसके बावजूद
स्वतंत्र तरीके से कार्ल काउत्सकी, फ़्रांज़ मेहरिंग और रियाज़ानोव इस दिशा में काम
करते रहे थे । मसलन 1861 से 1863 तक की कुछ पांडुलिपियों को संपादित कर काउत्सकी
ने ‘थियरीज आफ़ सरप्लस वैल्यू’ के नाम से प्रकाशित कराया, मेहरिंग ने 1849 से 1862
तक की चिट्ठियों के अलावा 1841 से 1850 तक के लेखन का एक संग्रह 1902 में संपादित
किया, रियाज़ानोव ने न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून और पीपुल्स पेपर के लिए लिखे लेखों
का संग्रह संपादित किया । चूंकि रियाज़ानोव की पहुंच मार्क्स-एंगेल्स के कागजात तक
सबसे अधिक थी इसीलिए रूसी क्रांति के बाद समग्र के संपादन-प्रकाशन का जिम्मा
उन्हें मिला । रियाज़ानोव ने समूचे यूरोप के विद्वानों का जाल बुना ताकि इस काम को
अंजाम दे सकें । मूल योजना के मुताबिक 42 खंडों में प्रकाशन होना था जिसके शुरुआती
17 खंडों में पूंजी के अतिरिक्त मार्क्स-एंगेल्स का अन्य लेखन संकलित होना था ।
पूंजी से जुड़ी सामग्री अगले 13 खंडों में संकलित होनी थी । तीसरा हिस्सा 10 खंडों
का होना था जिसमें इनका आपसी और अन्य लोगों के साथ पत्राचार संकलित होना था ।
अंतिम 2 खंड सूचियों के होने थे । 1927 से 1935 के बीच इनमें से कुल 11 खंड ही छप
सके ।
असल में मार्क्स की मौत के बाद उनके कागजात एंगेल्स के पास रहे थे ।
एंगेल्स ने सारे कागज पत्र अगस्त बेबेल और बर्नस्टीन को सौंप दिए थे क्योंकि वे
लोग जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के ट्रस्टी के बतौर काम कर रहे थे । ये कागज
पत्र कुछ दिनों बाद लंदन से लाकर पार्टी के संग्रहालय में रख दिए गए थे । 1920
के दशक में रियाज़ानोव ने जब समग्र के प्रकाशन का काम शुरू किया तो
संग्रहालय में रखे इन कागजों को फ़ोटो कापी के रूप में हासिल करने का उन्होंने
प्रयास किया । 1928 में जर्मन पार्टी की कोमिंटर्न से अनबन
हो गई और यह अनुमति लटक गई । 1933 में हिटलर के सत्तारूढ़
होने के बाद ये कागज विदेश में एक डच बीमा कंपनी को दे दिए गए थे । इसी कंपनी ने
उन्हें एम्सटर्डम स्थित एक शोध संस्थान को सौंप दिए जहां अब भी वे मौजूद हैं । बहरहाल
रूस से संचालित इस परियोजना के तहत 1927 में ‘हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना’ तथा 1932 में ‘1848 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां’
और ‘जर्मन विचारधारा’ का
प्रकाशन हो सका था । इसके बाद ‘पूंजी’ की
तैयारी के नोट और कुछेक अन्य अध्ययनों को मिलाकर ‘ग्रुंड्रिसे’
का प्रकाशन हुआ । 1928 से 1947 तक और फिर 1955 से 1966 तक दो किश्तों
में सोवियत सत्ता के संरक्षण में संपूर्ण रचनाओं का प्रकाशन हुआ जो वास्तव में संपूर्ण
नहीं था । दूसरी ओर 1960 के दशक में एक और ‘मेगा’ की योजना बनी और प्रकाशन भी 1975 से शुरू हुआ । इसमें 100 खंड छापने की बात थी जो चार हिस्सों में बंटा
होना था । पहला हिस्सा पूंजी के अतिरिक्त अन्य लेखन का, दूसरा पूंजी की तैयारी
समेत उसके सभी खंडों का, तीसरा उनकी आपसी और दूसरों को लिखी चिट्ठियों के अलावा
उन्हें मिली चिट्ठियों का, चौथा पांडुलिपियों, हाशिये की टिप्पणियों और
सार-संग्रहों का होना था । 60 के दशक के इस प्रयास में
मास्को और बर्लिन के मार्क्सवादी पार्टी केंद्र मुख्य जिम्मेदारी संभाले रहे और
एमस्टर्डम के संस्थान ने मदद का भरोसा देने के बावजूद सीधी जिम्मेदारी नहीं ली । एमस्टर्डम
का संस्थान शोध संस्थान था जबकि रूस और बर्लिन के केंद्र पार्टी की देखरेख में काम
करते थे इसलिए शुरू में थोड़ी हिचक दोनों ही ओर से थी लेकिन फिर काम चल निकला । इसी
संश्रय के कारण 1975 के बाद मार्क्स-एंगेल्स
समग्र का ज्यादातर प्रकाशन हुआ । बीच में समाजवादी देशों की हलचलों से थोड़ा
व्यवधान आया लेकिन 1990 से इसका काम मंथर किंतु निरंतर जारी है
और लगातार दुनिया भर के अनेक विद्वान एमस्टर्डम और त्रिएर में पांडुलिपियों और किताबों
के हाशिए पर लिखी गई या अलग से नोटबुक में उतारी गई समस्त सामग्री की छानबीन कर रहे
हैं और उनके आधार पर लगातार प्रकाशन-समीक्षा के जरिए समूची दुनिया
में मार्क्स के लेखन और चिंतन के नए पहलू सामने आ रहे हैं । इस काम में दो शर्तें
शामिल हैं- 1 कि मार्क्स-एंगेल्स का
लेखन क्लासिकीय लेखन माना जाएगा और उसी तरह उसका संपादन-प्रकाशन
होगा । 2 कि जो भी मार्क्स-एंगेल्स के
लेखन में रुचि रखता है उसे इस काम में साथ लिया जाएगा । मार्क्स विभिन्न देशों में
रहे थे- जर्मनी, फ़्रांस, बेल्जियम और इंग्लैंड । 1840 दशक के पूर्वार्ध के
बाद उनका फलक कमोबेश अंतर्राष्ट्रीय रहा । उनकी पांडुलिपियों के संपादन के लिए इन
देशों और भाषाओं तथा उनकी रुचि के अनेकानेक विषयों के जानकारों की जरूरत पड़ी । एक
समस्या यह भी आई कि मूल सामग्री का दो तिहाई एम्सटर्डम में तो एक तिहाई मास्को में
था । संपादन का काम जर्मनी में भी होना था क्योंकि प्रकाशन इसी भाषा में होना तय
था । इन सब परिस्थितियों के मद्दे नजर इंटरनेशनल मार्क्स-एंगेल्स फ़ाउंडेशन नामक
संस्था का 1990 में एम्सटर्डम में गठन किया गया । इसकी एकमात्र जिम्मेदारी मेगा का
प्रकाशन है । नई परिस्थितियों को देखते हुए मूल योजना पर पुनर्विचार की जरूरत पड़ी
और फ़्रांस में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें विषय
विशेषज्ञों के साथ ही संपादन में निष्णात लोगों ने मुक्त ढंग से विचार विमर्श किया
। मूल योजना 170 खंडों में प्रकाशन की थी लेकिन अब घटाकर उसे
114 खंड तक लाया गया है । जो कुछ प्रकाशित हुआ है उसमें
मार्क्स की एक ऐसी नोटबुक है जिसमें उन्होंने अपने समकालीन अर्थशास्त्रियों के
लेखन से नोट लिए और उन पर टिप्पणियां दर्ज की हैं । परेश चट्टोपाध्याय ने ‘ऐट द सोर्स आफ़ द क्रिटीक आफ़ पोलिटिकल इकोनामी’
शीर्षक लेख में इन नोटबुकों का अध्ययन करते हुए इन्हें मार्क्स की ‘बौद्धिक जीवनी’ का विचित्र स्रोत कहा है । ये 1844
से लेकर 1881 तक की हैं और इनकी संख्या बीस है
जिनमें से पहला प्रकाशित सेट 1844 से 1848 की नोटबुकों का है । इनमें विधिशास्त्र, इतिहास, दर्शन, ललित लेखन और राजनीतिक अर्थशास्त्र से
संबंधित टीपें हैं । पहली नोटबुक के आधार पर विद्वानों ने देखने की कोशिश की है कि
खुद मार्क्स के लेखन से दूसरे लेखकों के लेखन से लिए गए इन नोटों का कैसा रिश्ता
बनता है । कुछ और नोटबुकों के आधार पर यह साबित हुआ है कि गणित, विज्ञान और तकनीक संबंधी अद्यतन ज्ञान में मार्क्स की रुचि ताउम्र बनी रही
थी । इस संबंध में प्रदीप बख्शी ने ‘कार्ल मार्क्स’ स्टडी आफ़ साइंस एंड टेकनालाजी’ शीर्षक से नेचर,
सोसाइटी एंड थाट नाम की पत्रिका में जुलाई 1996 में लेख लिखा था । इसमें उनका कहना है कि आम तौर पर एंगेल्स की छवि
प्राकृतिक विज्ञान पर लिखने वाले की और मार्क्स की छवि मानविकी से जुड़े विषयों पर
लिखने वाले की रही है । दर्शन और समाजशास्त्र की दुनिया में एंगेल्स के योगदान को
तो मान्यता मिली लेकिन मार्क्स का विज्ञान संबंधी लेखन/चिंतन
ओझल ही रहा है । इन नोटबुकों से मार्क्स की विज्ञान में रुचि और दखल का पता चल रहा
है ।
हाल के दिनों में चीन में भी क्लासिकीय मार्क्सवाद के अध्ययन की ओर रुझान दिखाई
पड़ा है । सेंट्रल कंपाइलेशन एंड ट्रांसलेशन ब्यूरो के अध्येता यांग जिन्हाई द्वारा
अगस्त 2006 में लिखे ‘इंट्रोडक्शन टु मार्क्सिज्म
रिसर्च इन चाइना’ शीर्षक लेख में विस्तार से इन गतिविधियों का
जिक्र किया गया है । वे बताते हैं कि पहले मार्क्सवाद को तीन हिस्सों में देखा जाता
था- दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र और वैज्ञानिक
समाजवाद ताकि इसे पढ़ने और पढ़ाने में सुभीता हो । अब ऐसा महसूस किया जा रहा है कि इस
तरह देखने से इन तीनों के बीच का संबंध स्पष्ट नहीं हो पाता था । अब इन बुनियादी चिंतकों
की एकल चिंतन प्रक्रिया की पहचान पर जोर दिया जा रहा है । मार्क्सवाद के स्रोतों
के सवाल पर भी महसूस किया जा रहा है कि जर्मन दर्शन, ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र
तथा फ़्रांसिसी समाजवाद के अलावा इनमें आधुनिक पाश्चात्य मानववाद और प्राचीन ग्रीक
दार्शनिक चिंतन को भी शामिल किया जाना चाहिए । नए समय को देखते हुए ऐतिहासिक भौतिकवाद
के तहत भूमंडलीकरण के परिणामों और समाजवाद की प्रकृति पर भी विचार होना चाहिए ।
मूल्य का श्रम सिद्धांत, अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत, स्वामित्व के रूप और हरेक को
काम के अनुसार देय की धारणाओं पर भी चर्चा हो रही है । चीन की कम्युनिस्ट पार्टी
के सत्ताधारी पार्टी होने के नाते समाजवादी निर्माण के सवाल पर भी मार्क्स और
लेनिन के लेखन को दोबारा देखकर समझने की जरूरत बढ़ रही है । इसके अलावा पूरब के
पिछड़े देशों के सामाजिक विकास के बारे में मार्क्स की धारणा को फिर से देखा परखा
जा रहा है । व्यक्ति के विकास के सवाल पर मार्क्सवादी नजरिए को भी गंभीरता से
समझने की कोशिश की जा रही है तथा व्यक्तिगत विकास और सामाजिक विकास के आपसी
रिश्तों को परखा जा रहा है । संतुलित सामाजिक विकास खासकर व्यक्ति, समाज और
प्रकृति के संतुलित विकास के बारे में एंगेल्स की किताब ‘डायलेक्टिक्स आफ़ नेचर’
में व्यक्त धारणाओं को नई चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है । आम समझ
के विपरीत चीन के अकादमिक हलकों में इन सवालों पर खुली बातचीत हो रही है । जान
बेलामी फ़ास्टर ने अपनी किताब ‘मार्क्स’ इकोलाजी’ पर चीनी विद्वानों की आपत्तियों
का विस्तार से उत्तर देते हुए ‘टुवर्ड ए ग्लोबल डायलाग आन इकोलाजी एंड
मार्क्सिज्म: ए ब्रीफ़ रिस्पांस टु चाइनीज स्कालर्स’ शीर्षक लेख लिखा है । इसी तरह
चीन में ‘लेनिन्स थाट इन 21 सेंचुरी: इंटरप्रेटेशन एंड इट’स वैल्यू’ विषयक
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी अक्टूबर 2012 में हुई जिसमें अनेक विद्वानों ने गंभीरता
से अपनी बातें रखीं । इस गोष्ठी में जिन विषयों पर चर्चा हुई वे थे- लेनिन के चिंतन का मार्क्स से संबंध, दूसरे
इंटरनेशनल का मार्क्सवाद, रूसी मार्क्सवाद, चीनी मार्क्सवाद और पश्चिमी मार्क्सवाद की परंपरा । साफ है कि इन चिंताओं
और हलचलों पर चीन के हालात की छाया है यानी सत्ताधारी पार्टी होने और पूंजीवाद के इस
नए दौर में उसके साथ रिश्ते और समाजवादी निर्माण जैसे मुद्दे विशेष रूप से उभर रहे
हैं ।
यहां तक कि वहां उठ रहे जन विक्षोभ का भी अध्ययन मार्क्सवादी सैद्धांतिकी
के चौखटे में किया जा रहा है । मिंक़ी ली नामक अर्थशास्त्री ने ‘द राइज आफ़ द वर्किंग क्लास एंड द फ़्यूचर आफ़ द चाइनीज रेवोल्यूशन’ शीर्षक लेख में तांगहुआ स्टील कंपनी, जिलिन में
निजीकरण की कोशिश के विरोध में हुई मजदूरों की भारी हड़ताल को चीन के सामाजिक जीवन
में लंबे अरसे के बाद मजदूर वर्ग के नई सामाजिक-राजनीतिक
शक्ति के बतौर उभार का संकेत माना है । यहां तक कि उन्होंने इसमें ऐसी समाजवादी
क्रांति की संभावना देखी है जो विश्व समाजवादी क्रांति की दिशा में ले जा सकती है
। इसे उन्होंने माओ द्वारा पार्टी मुख्यालय को ध्वस्त करने के आवाहन से जोड़ा है और
कहा कि जब माओ ने यह आवाहन किया था तब किसान मजदूर इतने परिपक्व नहीं थे कि
पूंजीवादी पुनर्स्थापना के विरोध में सीधी कार्यवाही कर पाते । मजदूर वर्ग की
वर्तमान सक्रियता को उन्होंने इसी कार्यभार की निरंतरता में समझने की कोशिश की है
। खास बात यह है कि वर्तमान लहर का नेतृत्व सरकारी उपक्रमों का संगठित मजदूर वर्ग
कर रहा है । उनकी मांगें तात्कालिक आर्थिक लाभ की नहीं बल्कि ‘उत्पादन के साधनों के सार्वजनिक स्वामित्व’ की हैं ।
समीर अमीन ने चीनी समाज के ‘चाइना 2013’ शीर्षक एक अध्ययन में इस बात पर गंभीरता
से विचार किया है कि खेती की जमीन भारत के मुकाबले कम होने और नगरीकरण की रफ़्तार
अधिक होने के बावजूद भोजन की जरूरत कैसे पूरी हो रही है । इसका कारण तलाशते हुए उन्होंने
क्रांति के बाद रूस में किसानों के साथ अपनाए गए रुख के मुकाबले चीनी कम्युनिस्ट
पार्टी के रुख को बेहतर पाया है और उनका कहना है कि खेती के सामूहिकीकरण के लिए
चीन में जबर्दस्ती नहीं की गई । इसीलिए चीन के समाजवादी विकास की विशिष्टता को वे
आज की नहीं, बल्कि क्रांति के बाद की ही परिघटना बताते हैं । बहरहाल नए दौर में मार्क्सवाद
के विकास की प्रक्रिया में एशियाई हस्तक्षेप का एक रूप अगर चीन की ओर से यह योजनाबद्ध
प्रयास है तो एक और चीज की ओर ध्यान देना जरूरी है ।
मेगा यानी मार्क्स-एंगेल्स समग्र के संपादन-प्रकाशन के लिए अध्येताओं का जो समूह गठित किया गया है उसमें जापान से भी कुछ
अध्येताओं को शामिल किया गया है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पश्चिमी दुनिया की हलचलों
का साथ ऐतिहासिक तौर पर एशिया से जापान देता आया है चाहे मामला उद्योगीकरण का हो या
फ़ासीवाद का । यह जरूर है कि फ़िलहाल जापान का योगदान व्यावहारिक से अधिक अकादमिक ही
दिखाई दे रहा है । पहले के दौर की याद करें तो यह बात गुत्थी की तरह नजर आती है कि
चीन जैसे पिछड़े देश में सैद्धांतिक रूप से इतनी मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी का
निर्माण कैसे हो गया जिसने स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप मार्क्सवादी चिंतन को
ढालने और लागू करने का आत्मविश्वास तभी अर्जित कर लिया था जब भारत में ब्रिटेन या
रूस के बीच चुनाव आजमाया जा रहा था । चीन में कम्युनिस्ट आंदोलन और मार्क्सवाद के प्रसार
का अध्ययन करने वाले लोगों ने इसमें मार्क्स-एंगेल्स के लेखन
के जापानी अनुवादों और जापानी मार्क्सवादी विद्वानों के योगदान का उल्लेख किया है ।
इस सिलसिले में ध्यान देने की बात यह है कि जैसे भारत में उच्च शिक्षा के लिए लोग
इंग्लैंड जाते थे उसी तरह चीन में उच्चतर शिक्षा हेतु जापान जाने की परंपरा रही थी
। हाल में जापानी विद्वानों के लेखन का एक संग्रह 2006 में हिरोशी
उचिदा के संपादन में रटलेज से ‘मार्क्स फ़ार 21 सेंचुरी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है । प्रदीप बख्शी
ने प्लूटो जर्नल ‘वर्ल्ड रिव्यू आफ़ पोलिटिकल इकोनामी’
में प्रकाशित इस किताब की समीक्षा में बताया है कि इस संग्रह में 14
लेख शामिल हैं-21 वीं सदी में मार्क्स से
संबंधित दो लेख, मार्क्स अध्ययन की समकालीन समस्याओं पर पांच
लेख, आधुनिक जापान में मार्क्स के अभिग्रहण पर चार लेख और
अंतत: मार्क्सशास्त्र पर तीन लेख । हमने पहले ही जिक्र किया
कि इस समय मार्क्स के लेखन का अध्ययन मार्क्सवाद की जगह मार्क्स-अध्ययन या मार्क्सशास्त्र (मार्क्सोलाजी) के नाम से किया जा रहा है ।
जापान में जारी इस प्रयास के अतिरिक्त ईरान में ‘पूंजी’ के खंड एक के फ़ारसी अनुवाद की उपयोगिता का जिक्र करना भी जरूरी है । यह
अनुवाद हसन मुर्तज़ावी ने किया है जो आगा पब्लिशिंग से 2008 में
छपा है । इसके पहले का फ़ारसी अनुवाद इराज इस्कंदरी ने 1973 में
किया था । नया अनुवाद छपने के एक साल के भीतर ही तीन हजार बिक गया । अनुवादक ने
भूमिका में नए अनुवाद की जरूरत बताई है । पहला कारण तो वे यह बताते हैं कि तीस
सालों में ईरानी समाज, फ़ारसी भाषा और अंतर्राष्ट्रीय
परिस्थिति में बहुत बदलाव आए हैं । इस्कंदरी के समय अनुवाद का मकसद ईरान में
मार्क्सवादी साहित्य के भंडार की कमी को दूर करना था लेकिन इस नए दौर में इसका
मकसद मूल मार्क्स के लेखन के निहितार्थ को समझना है । जिस प्रक्रिया में पूंजी की
रचना हुई उसके बारे में नई जानकारियों ने इसका अर्थ बदला है । ज्ञान में बदलाव के
साथ उसे व्यक्त करने वाली कोटियों में भी बदलाव आए हैं । बदलाव की इस प्रक्रिया का
लेखा जोखा लेते हुए मुर्तज़ावी कहते हैं कि 1844 की आर्थिक और
दार्शनिक पांडुलिपियों के प्रकाशन ने पूर्ववर्ती मार्क्स और परवर्ती मार्क्स के
बीच अंतर की बुनियाद हिला दी और साबित कर दिया कि हेगेलीय द्वंद्ववाद मार्क्स के न
केवल शुरुआती बल्कि परवर्ती परिपक्व लेखन में भी समाया हुआ है । इसी आधार पर वे
अल्थूसर द्वारा पूंजी के पहले अध्याय को छोड़कर दूसरे अध्याय से शुरू करने के सुझाव
को खारिज करते हैं । दूसरा पड़ाव वे ग्रुंड्रिस के प्रकाशन को मानते हैं । इसके दो
आयाम ‘प्राक पूंजीवादी आर्थिक संरचनाएं’ और ‘मशीनरी’ हैं जो दार्शनिक
और आर्थिक चिंतन के बीच आवाजाही और उनकी समग्रता को द्योतित करते हैं । इसके बाद
का महत्वपूर्ण पड़ाव मेगा का वर्तमान रूप है जिससे पूंजी के सभी संस्करण और उनमें
हुए फेरबदल उपलब्ध हो गए हैं । इसी से पता चला कि 1872-75 के
फ़्रांसिसी संस्करण के कौन से हिस्से अंतिम यानी चौथे जर्मन संस्करण में छोड़ दिए गए
थे । यही जर्मन संस्करण इस्कंदरी के अनुवाद का आधार रहा था । फ़्रांसिसी संस्करण की
खूबी यह है कि न केवल मार्क्स ने इसे खुद जांचा-परखा और
संपादित किया था बल्कि अनेक अभिव्यक्तियों को सटीक बनाने के अलावा पूंजी संचय तथा
वस्तु-पूजा वाले हिस्से को विस्तारित भी किया था । वे इस
संस्करण को मूल के मुकाबले अधिक सही मानते थे और एंगेल्स को जिम्मेदारी दी थी कि
वे जर्मन संस्करण में इन बदलावों को शामिल कर लें लेकिन विद्वानों का कहना है कि
एंगेल्स ने मूल जर्मन संस्करण को सुधारते समय कुछेक बदलाव तो किए लेकिन आजादी लेते
हुए अनेक बदलाव छोड़ भी दिए । इसीलिए मुर्तज़ावी के अनुसार इस्कंदरी का अनुवाद पूंजी
के अद्यतन रूप पर आधारित नहीं था । फ़्रीदा अफ़री ने इस अनुवाद की समीक्षा करते हुए
बताया है कि इस अनुवाद में चौथे जर्मन संस्करण और फ़्रांसिसी संस्करण के बीच अंतर
भी रेखांकित कर दिया गया है ।
भारत के बारे में भी कुछ नई सामग्री प्रकाश में आई है । पी सी जोशी और के
दामोदरन ने 1975 में मनोहर बुक सर्विस से ‘मार्क्स कम्स टु इंडिया’ शीर्षक किताब प्रकाशित कराई
थी जिसमें लाला हरदयाल (अंग्रेजी) और
राम कृष्ण पिल्लै (मलयालम) द्वारा
लिखित मार्क्स की जीवनियों को एक जगह संग्रहित किया गया था और विस्तृत भूमिका भी
लिखी गई थी । भूमिका में पी सी जोशी ने प्रथम इंटरनेशनल के कागजों के हवाले से
बताया है कि 1871 में कलकत्ता के कुछ क्रांतिकारियों ने
मार्क्स से संपर्क किया था और प्रथम इंटरनेशनल को पत्र भी लिखा था । इस पत्र पर 15
अगस्त 1871 की जनरल कौंसिल में विचार हुआ था ।
विचार के बाद निर्णय हुआ कि भारतीय लोग शाखा की शुरुआत कर सकते हैं लेकिन उन्हें
आत्म निर्भर होना होगा और अपने देशवासियों को ही सदस्य बनाना होगा । इसके अतिरिक्त
प्रदीप बख्शी ने ‘इंडियन्स आन मार्क्स एंड एंगेल्स आन इंडिया’
शीर्षक लेख में विस्तार से इस घटना के अलावा भी मार्क्स-एंगेल्स और भारत के आपसी रिश्तों की जटिलता की पड़ताल की है । उनका कहना है
कि मार्क्स-एंगेल्स के लेखन में 40 बरसों
में अनेक बार भारत का जिक्र आया है । अब तक जितनी बार जिक्र के बारे में हम लोग
जानते हैं मेगा के प्रकाशन से उसमें इजाफा संभव है क्योंकि भारत में उनकी रुचि
निरंतर बनी रही थी । भारत में उनके लेखन के आगमन का इतिहास भी रोचक है लेकिन भारत
की भाषाई विविधता को देखते हुए किसी एक आदमी के लिए इसे करना असंभव है ।
एशियाई मुल्कों के अलावा लैटिन अमेरिकी देशों के प्रयोग विशेष संभावनाओं का
संकेत दे रहे हैं । इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि आपातत: ये
सैद्धांतिक कम व्यावहारिक ज्यादा हैं और स्थानीय परिस्थितियों के साथ अन्त:क्रिया के परिणाम हैं । ये प्रयोग क्यूबा में फ़िदेल कास्त्रो की क्रांति
के साथ ही शुरू हो गए थे । ह्यूगो चावेज ने इन्हीं प्रयोगों को नई ऊंचाई दी ।
बातचीत को वर्तमान से ही शुरू करना ठीक होगा । लैटिन अमेरिकी देशों में वामपंथ के
अनेक रूपों की चर्चा आम तौर पर होती है । दीपक भोजवानी ने ‘लेफ़्ट
इन लैटिन अमेरिका एंड द कैरीबियन’ शीर्षक लेख में विस्तार से
इन सबकी स्थिति का जायजा लिया है । सबसे पहले वे इस क्षेत्र की विविधता का वर्णन
करते हैं ताकि इस राजनीतिक विविधता के कारणों को समझा जा सके । वे बताते हैं कि
दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप, पनामा से मेक्सिको तक विस्तृत मध्य
अमेरिका और अनेक छोटे द्वीपों में बिखरा हुआ कैरीबियन, इस
क्षेत्र के तीन हिस्से हैं । 33 देशों में कुछ लघु द्वीपीय
राज्य तो कुछ ब्राजील की तरह विशाल देश हैं जिनमें नस्ली, जातीय,
भाषाई, ऐतिहासिक, राजनीतिक
और आर्थिक अंतर प्रचुर हैं । 1791 में अफ़्रीकी गुलामों ने
फ़्रांसिसी मालिकों के विरुद्ध विद्रोह किया और 1 जनवरी 1804
को हैती इस इलाके का पहला आजाद मुल्क बना । ब्राजील को पुर्तगाली
साम्राज्य से 1822 में मुक्ति मिली । स्पेन के गुलाम देशों
को अपनी आजादी के लिए बहुत लड़ना पड़ा था । मेक्सिको से लेकर चिली तक बाकायदे
हथियारों की ताकत पर उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अधिकांश देशों ने आजादी
अर्जित की । ये विद्रोही योद्धा स्पेनी साम्राज्य की कमजोरी जानते थे और अमेरिकी
तथा फ़्रांसिसी क्रांतियों से प्रभावित थे । अंग्रेजी भाषी कैरीबियन राज्य ज्यादातर
बीसवीं सदी में आजाद हुए । कुछ तो अब भी आजाद नहीं हो सके हैं ।
जो देश आजाद हुए उनमें से ज्यादातर देशों ने उदार मुक्त व्यापार व्यवस्था
अपनाई । बीसवीं सदी में व्यापार में घाटा होने के चलते अधिकतर देशों ने आर्थिक राष्ट्रवाद
के भिन्न भिन्न रूप अपनाए । दूसरे विश्व युद्ध के बाद आयात विकल्पी उद्योगीकरण की
नीति राष्ट्रवाद और कारपोरेटीकरण के घालमेल से उपजी । इससे एक हद तक त्वरित वृद्धि,
ढांचागत रूपांतरण और निर्यात विविधीकरण में मदद मिली । लेकिन 70
और 80 के दशक में विदेशी कर्ज की फांस समस्या
की तरह सामने आई । एक के बाद दूसरे देश द्वारा कर्ज चुकाने में देरी होने लगी ।
वैश्विक वित्तीय संस्थानों ने जो हल निकाला उसे सबसे पहले 70 के दशक में चिली में लागू किया गया और उसे ही बाद में वामपंथ ने ‘नव-उदारवाद’ कहा । यह
भूमंडलीकरण, निजीकरण और घरेलू बाजार को वैश्विक पूंजी के लिए
खोल देना था । 90 के दशक के उत्तरार्ध से यह नीति भी भारी
मुद्रास्फीति, महंगाई और सामाजिक असमानता का स्रोत सिद्ध
होने लगी । इसी फलक पर वे वामपंथी राजनीति के विभिन्न लैटिन अमेरिकी रूपों का
विश्लेषण करते हैं ।
सबसे पहले तो उन्होंने पारंपरिक वामपंथ को क्यूबा के कम्युनिस्ट शासन में
देखा है और बताया है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, घर जैसी बुनियादी सुविधाएं मुफ़्त मुहैया कराने में पहले रूस का साथ रहा ।
उसके पतन के बाद वेनेजुएला से मदद मिली । यूरोपियन यूनियन ने अमेरिका की तरह
व्यापार प्रतिबंध नहीं लगा रखा है लेकिन वह भी शासन के बदलाव के प्रयासों का
समर्थन करने की नीति अपनाता है । उसने न सिर्फ़ लैटिन अमेरिकी मुल्कों बल्कि दुनिया
भर के गरीब मुल्कों में मानवीय सहायता के जरिए अपने लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन
अर्जित किया है । इसके बाद वे ‘नव-वाम’
की विभिन्न धाराओं का जिक्र करते हैं । इनमें सबसे मशहूर स्वाभाविक
तौर पर वेनेजुएला के ह्यूगो चावेज हैं जिनका नारा ‘21वीं सदी
का समाजवाद’ सोवियत संघ के पतन के बाद लोकप्रिय समाजवादी
गोलबंदी में मददगार साबित हुआ । इसमें ईसाइयत के सकारात्मक उपयोग का सवाल ऐसा सवाल
है जिसके बारे में बात करते हुए हमें रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गेन्नादी
युगानोव का भी जिक्र करना पड़ेगा । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि ईसाइयत को उत्पीड़ित
तबकों की मुक्ति से जोड़ने वाली ‘लिबरेशन थियोलाजी’ का जन्म लैटिन अमेरिका में ही हुआ था । युगानोव ने 27 अक्टूबर 2012 को केंद्रीय समिति के 14वें प्लेनम के समक्ष भाषण देते हुए अन्य बातों के अलावा धर्म के प्रति
पार्टी की नीति के सिलसिले में तीन सूत्र पेश किए । चर्च और राज्य के बीच साफ
अलगाव; पार्टी और चर्च के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और आपसी सम्मान क्योंकि ये दोनों ही अनेक समान आदर्शों में यकीन
करते हैं; धार्मिक मान्यताओं की स्वतंत्रता और आस्तिकों को
पार्टी में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करना । अन्य देशों के शासन कोई नया
मार्गदर्शक तत्व नहीं अपनाते, हां उनका अमेरिकी साम्राज्यवाद
विरोध, संघर्ष के इस नए दौर की कुछ खूबियों को उजागर करता है
। पूंजी का वर्तमान दौर इतना आक्रामक है कि जन समुदाय के लिए कल्याणकारी कार्य भी
क्रांतिकारी जैसे प्रतीत होते हैं । लेकिन शावेज केवल इतने का ही प्रतिनिधित्व
नहीं करते बल्कि एक हद तक मार्क्सवादी परंपरा के भीतर आते हैं, इस बात पर जोर देने के लिए क्रिस गिल्बर्ट ने ‘शावेज्स
लेनिनिज्म’ शीर्षक लेख लिखा और बताया है कि शावेज का काम कई
स्तरों पर लेनिन से जुड़ता है । ग्राम्शी ने लेनिन के काम को ‘पूंजी’ के विरुद्ध क्रांति कहा था । ग्राम्शी के
कहने का मतलब दूसरे इंटरनेशनल के नेताओं की क्रमिक बदलाव की धारणा के विरुद्ध
लेनिन और उनके साथियों के महत्व पर जोर देना था । उन्होंने बदलाव न होने की
तत्कालीन सर्वानुमति के विरुद्ध क्रांति की थी । बदलाव न होने की यह धारणा न केवल
पूंजीवाद के समर्थकों में व्याप्त थी बल्कि अल्थूसर जैसे पूंजीवाद के उन विरोधियों
में भी व्याप्त थी जो पूंजीवादी संरचनाओं को लांघ पाने को असंभव बता रहे थे ।
बोल्शेविकों ने उस दौर में इतिहास को ठहरा हुआ समझने वालों की चेतना को झकझोरते
हुए रूसी क्रांति को अंजाम दिया । उसी तरह शावेज ने उस दौर में विकल्प को संभव
किया जब सभी लोग ‘विकल्पहीनता’ का राग
अलाप रहे थे ।
लैटिन अमेरिका में मार्क्सवाद का एक स्वायत्त और विशिष्ट रूप रहा है जिसकी
जड़ें वहां की सामाजिक परिस्थितियों में रही हैं । इन परिस्थितियों में शामिल है जन
समुदाय की विविधता । स्थानीय मूल निवासी, बाहर से आए
औपनिवेशिक प्रभुओं के साथ आए उन देशों के नागरिक गण, गुलाम
बनाकर लाए गए अफ़्रीकी- इन सबके मेल से जनसंख्या की विविधता
बहुत बढ़ जाती है । इसके लिहाजन अपनाई जाने वाली नीतियों की विशेषता को हम क्यूबा
के संस्कृति और शिक्षा मंत्री रहे आर्मंदो हार्ट की टिप्पणियों में देख सकते हैं
जिनमें वे यूरोपीय या पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले लैटिन अमेरिकी देशों की
सांस्कृतिक समृद्धि पर जोर देते हैं और भौतिकता के मुकाबले आध्यात्मिक मूल्यवत्ता
को महत्वपूर्ण बताते हैं । हाल के दिनों में इन देशों के बीसवीं सदी के मार्क्सवादियों
के लेखन के प्रकाशन और वितरण पर बल दिया जाने लगा है । उसी क्रम में पेरू के
मार्क्सवादी विचारक जोसे कार्लोस मारियातेगुई के लेखों और टिप्पणियों का एक संग्रह
हैरी वान्डेन और मार्क बेकर ने तैयार किया जिसके भारतीय संस्करण की भूमिका
बर्नार्ड डिमेलो और अल्फा शाह ने लिखी है और भारत के लिए इस क्रांतिकारी के
विचारों का महत्व समझाया है । भूमिका के लेखकों के अनुसार मारियातेगुई के विचारों
से चे ग्वेरा भी प्रभावित रहे । भारत के माओवादियों के प्रसंग में इस विचारक का
महत्व रेखांकित करते हुए भूमिका लेखक बताते हैं कि माओवादियों का ज्यादातर आधार
आदिवासी इलाकों में है और मारियातेगुई ने भी लैटिन अमेरिकी मूल निवासियों के सवाल
पर काफी विचार किया है (जिन्हें वहां की शब्दावली में ‘इंडियन’ कहा जाता है क्योंकि कोलम्बस इंडिया को
खोजते हुए ही वहां गया था और जो मिले उन्हें इंडियन कहा गया) इसलिए उनसे सीखने की जरूरत है । बीसवीं सदी के दूसरे दशक में इस
क्रांतिकारी ने तीसरे इंटरनेशनल के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था जिसमें एंडीज
इलाके के मूल निवासी बहुल क्षेत्र में अलग ‘इंडियन रिपब्लिक’
स्थापित करने का जिक्र था । उन्होंने अलग देश के निर्माण में इसका
हल खोजने की जगह उन्हें ग्रामीण सर्वहारा मानकर उनकी समस्याओं पर मार्क्सवादी
ढांचे में संघर्ष का रास्ता सुझाया था । राष्ट्रीयताओं से संबंधित लेनिन की धारणा
का परिष्कार स्तालिन के समय खत्म हो गया था इसलिए हरेक मसले पर आत्म निर्णय के
अधिकार को यांत्रिक तरीके से लागू करने के मुकाबले ठोस परिस्थिति के विश्लेषण के
आधार पर सृजनात्मक तरीके से सिद्धांतों को लागू करने पर मारियातेगुई जोर देते हैं
। अगर स्थानीय मूल निवासियों की समस्या पर विचार करते हुए वर्ग के पहलू की उपेक्षा
होगी तो एक ऐसा मूल निवासियों का शोषक राज्य बनेगा जो विदेशी शसकों के राज्य से
बेहतर न होगा । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे स्थानीय मूल निवासियों की उपेक्षा
करते हैं बल्कि इस पहलू पर जोर देने के कारण ही वे अपने समय के साथ नए समय में भी
प्रासंगिक साबित हो रहे हैं ।
नए दौर में मार्क्सवाद के विकास की हालत के सिलसिले में अमरीकी विचारक रिचार्ड
लेविन्स ने मार्च 1913 में लिखित और अगस्त 1913 में बोल्शेविक मंथली मैगज़ीन में प्रकाशित ‘कांटिनियुइंग
सोर्सेज आफ़ मार्क्सिज्म’ शीर्षक लेख में लिखा है कि
‘1913 में लेनिन ने मार्क्सवाद के तीन बौद्धिक स्रोतों का उल्लेख किया
था: जर्मन दर्शन, ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र
और फ़्रांसिसी काल्पनिक समाजवाद---लेकिन यह प्रक्रिया वहीं खत्म
नहीं हुई । मार्क्सवाद हरेक युग के सर्वाधिक विकसित, मुक्तिकारी
विचारों से सीखते हुए आगे बढ़ता रहा है । मैं यहां मार्क्सवाद को समृद्ध करने वाले चार
स्रोतों को चिन्हित करना चाहता हूं : पर्यावरण, नारीवाद, राष्ट्रीय/नस्ली संघर्ष
और शांतिवाद ।’ इसके बाद वे इन चारों आंदोलनों के सैद्धांतिक
योगदान की परीक्षा करते हैं । उनका कहना है कि लेकिन ये विचार मार्क्स के पूर्ववर्ती
तीनों विचारों से अलग तरीके से मार्क्सवाद से जुड़ते हैं । ये नए विचार मार्क्सवाद के
बाहर से आए हैं लेकिन यह बाहर भी ऐसी जगह है जिस पर मार्क्सवाद का असर है । इसीलिए
इन विचारों का स्वागत भी हुआ और प्रतिरोध भी हुआ । वे कहते हैं कि अब तक इन्हें राजनीतिक
सहयोगी के बतौर ही देखा गया है लेकिन लेविन्स इनका महत्व सिद्धांत के क्षेत्र में भी
मानने पर जोर देना चाहते हैं ।
पर्यावरणवाद के सिलसिले में वे बताते हैं कि मार्क्सवाद में पूंजीवाद की आलोचना
के बतौर प्रारंभिक उद्योगीकरण के चलते प्रकृति का विनाश, शहर
और देहात के बीच जैविकीय अलगाव, शहरों और समूची पृथ्वी का प्रदूषण
जैसी बातें उठाई और शामिल की गई थीं । जीवन और समाज के द्वंद्वात्मक नजरिए में मानवता
और प्रकृति की अविभाज्यता अंतर्निहित है । लेकिन बाद में मार्क्सवाद के भीतर जैसे जैसे
सत्ता केंद्रित चिंतन हावी हुआ वैसे वैसे इसे रोजगार सृजन में बाधा के बतौर देखा जाने
लगा । इसको शहरी मध्य वर्ग तक सीमित बुर्जुआ अय्याशी भी समझा गया । सारी मानवता की
चिंता को वर्ग संघर्ष से ध्यान भटकाने वाला माना गया । पशु जगत के प्रति चिंता को मनुष्य
की समस्याओं की अनदेखी कहा गया । लेकिन इस असहजता के बावजूद अनेक मार्क्सवादी इस आंदोलन
के साथ जुड़े रहे । सोवियत संघ में तो नहीं, लेकिन जिन तीसरी दुनिया
के मुल्कों में तथाकथित विकास औपनिवेशिक सत्ता की देखरेख में हुआ था वहां मार्क्सवादी
‘विकास’ के लिए पर्यावरण के विनाश को महसूस करते
थे और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का ही अंग पर्यावरण की रक्षा भी मानते थे । क्यूबा में
तो विकास का ऐसा रास्ता अख्तियार करने की कोशिश की गई जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए
।
नारीवाद का सवाल इससे अधिक गंभीर है । वे कहते हैं कि वैसे तो एंगेल्स की किताब
‘परिवार, निजी संपत्ति राजसत्ता का उदय’
में उन्होंने कहा कि किसी भी समाज का निर्माण तात्कालिक
जीवन के उत्पादन और पुनरुत्पादन के संबंधों पर होता है लेकिन आगे चलकर ध्यान में सिर्फ़
उत्पादन रह गया पुनरुत्पादन का तत्व विश्लेषण से गायब हो गया । बुर्जुआ नारीवाद के
उभार को बहाना बनाकर स्त्री-प्रश्न को वर्गीय एकता को तोड़ने वाला
समझा जाने लगा । लेकिन 40 के दशक में वामपंथी नारीवदियों का एक
मजबूत समूह उभरा जिसने वर्ग, लिंग और नस्ल के तिहरे उत्पीड़न का
सवाल उठाया । इन तीनों के विरुद्ध संघर्ष में एक ही तरह की रणनीति अपनानी पड़ती है ।
नस्लवाद का खात्मा नस्ल की छद्म-शारीरिक कोटि के खात्मे पर निर्भर
है, लिंग आधारित उत्पीड़न भी लिंगीय ऊंच-नीच की धारणा के खात्मे पर निर्भर है, वर्गीय शोषण भी
वर्ग-समाज के उन्मूलन पर निर्भर है । नारीवाद ने श्रम,
पुनरुत्पादन और यौनिकता, सामाजिक प्रक्रिया,
विचारधारा और संगठन के मामले में मार्क्सवाद को समृद्ध किया है ।
इसके बाद विंदुवार वे एक एक तत्व की शिनाख्त करते हैं-1) स्त्रियां शायद दुनिया का अधिकांश काम करती हैं लेकिन उन्हें आदर्श श्रमिक
नहीं माना जाता । प्रत्येक समाज में उनका काम उत्पादन और पुनरुत्पादन के बीच बंटा होता
है । इसी बंटवारे के तरीके से ज्यादातर उनकी सामाजिक हैसियत तय होती है । पुनरुत्पादन
में महज गर्भ धारण नहीं आता, इसमें उत्पादक आबादी की देखरेख संबंधी
सारे काम आ जाते हैं, 2) अनेक उद्योगों में वे उजरती मजदूर होती
हैं, घर, रेस्त्रां, होटल आदि में काम करती हैं, घर और खेत में बिना पगार
के मेहनत करती हैं, 3) किसी भी समाज की निजी जिंदगी सामाजिक उत्पाद
होती है, जो असमानता स्त्रियों पर वर्ग समाज थोपता है वह घर में
व्यक्त होती है इसीलिए वाम नारीवाद ने नारा दिया ‘पर्सनल इज पालिटिकल’;
घर और वाम राजनीतिक आंदोलन में लिंग आधारित भेदभाव ने संघर्ष को कमजोर
किया, प्रतिभा को बरबाद किया और सार्वजनिक दुनिया में उत्पीड़न
को पुनरुत्पादित किया इसीलिए इस भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष आंदोलन और समाजवाद के निर्माण
का अखंड घटक है; नारीवाद के प्रति अपनी निष्ठा से वापसी पूंजीवाद
की ओर वापसी है,4) पुरुष प्रभुत्व की नारीवादी आलोचना समाज और
संगठन में पितृसत्तात्मक संरचनाओं की आलोचना तक विस्तारित हुई; इसमें थोड़ी अराजक संवेदना का पुट भी था; इस बात पर जोर
दिया गया कि बहस में सभी भाग लें और सफलता का मापदंड भागीदारों की तथा उनकी क्षमता
की बढ़ोत्तरी को माना गया,5) यौन संबंधों में असमानता और दुराचार
को परीक्षा का विषय बनाया गया, यौन क्रिया में नर-नारी दोनों की भागीदारी के बावजूद इसमें असमान शक्ति संबंध जाहिर होते हैं,
यौनिकता के सवाल पर होने वाले आंदोलनों की अगुआई स्त्रियों ने की,6)
नारीवाद एक ही किस्म का नहीं है, मुख्य रूप से
मध्यवर्गीय नारीवाद है लेकिन उसी के साथ काले लोगों के नारीवादी संगठन हैं जो गोरे
नारीवाद की सार्विक उपस्थिति को प्रश्नांकित करते हैं, वाम के
लोग नस्ल, वर्ग और लिंग आधारित उत्पीड़न की एकता की बात करते हैं,7)
घरेलू उत्पादन का आर्थिक पहलू होने के बावजूद वह माल उत्पादन नहीं होता,
इसमें श्रम विशिष्टता का प्रवेश नहीं हुआ है, उत्पादन
के औजार अभी उत्पादक से अलग नहीं हुए हैं इसलिए ‘विनिमय के लिए
उत्पादन’ का प्रवेश कराने की जबरिया कोशिश के विरुद्ध संघर्ष
में स्त्रियां आम तौर पर आगे रहती हैं ।
इसके बाद राष्ट्रीय और नस्ली संघर्षों पर वे बात करते हैं । उनका कहना है कि
मार्क्सवादी लोग अक्सर जनता को जोड़ने वाली वर्गेतर कोटियों की अनदेखी यह कहकर करते
हैं कि ये जनता की एकता को तोड़ती हैं । हालांकि ये विभाजनकारी तो हैं लेकिन कई बार
उत्पीड़न के विरुद्ध जनता को गोलबंद करने में मदद भी करती हैं । इसमें खासकर राष्ट्रवाद
के सवाल पर हमें दुहरा रुख अपनाना चाहिए । आक्रामक राष्ट्रवाद का विरोध करते हुए भी
उत्पीड़ितों के रक्षात्मक राष्ट्रवाद का साथ देना होगा । इसी तरह काले लोगों की नस्ली
एकता नस्ली भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई में मददगार होती है । इन कोटियों की अंततः समाप्ति
के लक्ष्य को आज ही उनकी अनुपस्थिति नहीं मान लेना चाहिए । इसके लिए मार्क्सवाद के
बारे में यह नजरिया भी बदलना होगा कि उसके मुताबिक गैर-पूंजीवादी
समाज बौद्धिक रूप से पिछड़े होते हैं इसलिए उनकी जगह पूंजीवाद का आना विकास है । यह
सवाल सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से भी जुड़ा हुआ है जिसके विश्लेषण और विरोध की
रणनीति में एक द्वंद्वात्मक नजरिया अपनाना होगा ।
शांतिवाद और अहिंसा एक ही बात नहीं है । शांतिवाद निष्क्रियता नहीं है बल्कि
विरोध का एक दूसरा तरीका है । शांतिवादियों से सीखने की बात यह भी है कि कुछ अगुआ लोगों
की प्रतिबद्धता व्यापक जन समुदाय को गोलबंद करती है इसलिए आंदोलन की ताकत संख्याबल
से नहीं उसकी नैतिक श्रेष्ठता से आंकनी होगी । उन्होंने तो नहीं कहा है लेकिन सैन्य
औद्योगिक परिक्षेत्र का निर्माण तथा युद्धों में पूंजीवादी हथियार उत्पादक साम्राज्यवाद
के निहित स्वार्थ की ओर मार्क्सवादियों का ध्यान एक हद तक शांतिवादियों की वजह से भी
गया है । लेविन्स कहते हैं कि इन सबको जोड़कर ही मार्क्सवाद
‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में वर्णित
‘समग्र आंदोलन’ बन सकता है ।