Monday, February 28, 2011

रूसी क्रान्ति और साहित्य संस्कृति

रूसी क्रान्ति की उपलब्धियों का जिक्र करते हुए एरिक हाब्सबाम ने अपने ग्रन्थ 'एज आफ़ एक्सट्रीम्स' में एक मजेदार तथ्य का उल्लेख किया है । उनका कहना है कि रूस का कैलेंडर बाकी दुनिया से पीछे चलता था । रूसी क्रान्ति ने इसे दुरुस्त किया । इसीलिए शेष दुनिया के लिए जो नवम्बर क्रान्ति थी वह रूस के लिए अक्टूबर क्रान्ति ! यह तो उस क्रान्ति की सबसे छोटी उपलब्धि थी । रूसी क्रान्ति ने रूस को तो बदला ही; उसका महत्व विश्वव्यापी था ।

क्रान्ति ने जो आवेग पैदा किया उसका आँखों देखा वर्णन अमेरिकी पत्रकार जान रीड ने अपनी किताब 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी' में किया है । शहरों में जिसे भी कुछ कहना था उसने जहाँ भी जहह पाई बोलना सुरू कर दिया और हरेक वक्ता को ढेर सारे श्रोता मिल जाते थे । पहला विश्वयुद्ध जारी था, सेनायें सीमा पर थीं । उनके लिए रेलगाड़ियों में भरकर किताबें भेजी जातीं और गरम तवे पर पानी की बूँदों की तरह गायब हो जातीं । क्रान्ति ने पढ़ने की प्यास जगा दी थी ।

रूसी साहित्य की परम्परा समृद्ध थी । तुर्गनेव, दोस्तोयव्स्की, चेखव, तोलस्तोय- किसी भी राष्ट्र का माथा गर्व से ऊँचा उठाने के लिए काफ़ी थे । नई सोवियत सत्ता ने इनको हरेक पढ़े लिखे नागरिक तक पहुँचा दिया । स्वयं क्रान्ति के साथी गोर्की थे ही । शिक्षामंत्री लुनाचार्स्की उस समय के यूरोपीय राजनीतिज्ञों में सर्वाधिक पढ़े लिखे थे । नई सत्ता ने जनसमुदाय में सांस्कृतिक भूख और सुरुचि पैदा की और इसे पूरा किया साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत ऐसी हस्तियों ने जिनकी उपस्थिति मात्र इस प्रचार का खंडन करने के लिए काफ़ी है कि कम्युनिस्ट शासन सृजनशीलता के लिए नुकसानदेह होता है । जनता के लिए निरन्तर संघर्षरत नए शासन ने न सिर्फ़ भौतिक समृद्धि की चिन्ता की वरन गृहयुद्ध और संकट की परिस्थिति में भी सांस्कृतिक उन्नयन का सचेत प्रयास किया । फ़िल्म निर्माण के पितामह आइजेंस्टाइन इसी दौर में 'बैटलशिप पोतेमकिन' जैसी फ़िल्में बना रहे थे और फ़िल्म तकनीक के क्षेत्र में काले और सफ़ेद, गहराई और ऊँचाई जैसी विरोधी छवियों के युग्म के फ़िल्मांकन के जरिये द्वंद्वात्मकता को नई भाषा में रूपान्तरित कर रहे थे । इसी दौर में बाख्तीन और उनके मित्रों ने साहित्यिक आलोचना का नया शास्त्र गढ़ा । आज तक की साहित्यिक आलोचना अपने कुछ विश्लेषणात्मक उपादानों के लिए उनकी ॠणी है । थियेटर की दुनिया में स्तानिस्लाव्स्की जैसे दिग्गज, मनोविश्लेषण को नयी ऊँचाई देने वाले पाव्लोव, समाजवादी यथार्थवाद के पुरस्कर्ता गोर्की लेनिन के शासनकाल में बौद्धिक रचनाशीलता के विस्फोट की गवाही देते हैं ।

यहाँ तक कि जिस स्तालिन को गाली देकर अनेक बुद्धिजीवी लोकतन्त्र के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं उनका दौर भी मायाकोव्स्की जैसे कवि और शोलोखोव जैसे उपन्यासकार के लिए जाना जाता है । शिक्षाविद माकारेंको और रामकाव्य के रूसी अनुवादक बरान्निकोव दूसरे विश्वयुद्ध की तबाही झेल रहे रूस में सक्रिय रहे । इसी समय सौ फ़ीसदी साक्षरता और रोजगार जैसे अकल्पनीय कार्यभार पूरे किए गये । युद्ध में घायल रूस ने ऐसे नायकों को जन्म दिया जो किसी भी अन्य शासन व्यवस्था में संभव नहीं थे । इनकी थोड़ी जानकारी आस्त्रोव्स्की के 'अग्निदीक्षा' और बोरीस पोलेवोई के 'असली इनसान' जैसे उपन्यासों की मार्फ़त मिलती है ।

समाजवादी शासन की इन उपलब्धियों ने सारी दुनिया के साहित्यकारों को आकर्षित किया । भारत से रवीन्द्रनाथ ठाकुर गये और 'रशियार चिठी' में इसका विस्तृत वर्णन किया । हिन्दी में प्रेमचंद से इसके प्रभाव की जो शुरुआत हुई वह आज तक जारी है । दुनिया के तकरीबन सभी भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्यकार इस प्रभाव में रहे हैं । इनके नाम असंख्य हैं लेकिन कुछेक नाम तत्काल याद आ रहे हैं । तुर्की के नाजिम हिकमत, चिली के पाब्लो नेरुदा, युगास्लाविया के इवो आंद्रिच न सिर्फ़ वामपंथी रहे वरन अपनी भाषाओं के प्रतिनिधि साहित्यकार भी रहे हैं । कला की दुनिया शान्ति कपोत और गुएर्निका जैसे चित्रों के निर्माता पाब्लो पिकासो को कैसे भूल सकती है । बहुत बाद और हाल हाल तक साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक समाजवादी सिद्धान्तों और आदर्शों से प्रभावित रही है ।

समाजवादी निर्माण का प्रोजेक्ट मनुष्य की एकांगी धारणा पर कभी आधारित नहीं रहा । इसीलिए हम समाजवादी देशों में भौतिक समृद्धि के साथ सांस्कृतिक संपन्नता भी पाते हैं । पिछले ओलम्पिक खेलों में चीन का जो प्रदर्शन रहा वह समाजवादी देशों के लिए अनजानी परिघटना नहीं । पोल वाल्ट में सेर्गेई बुबका, जिमनास्टिक्स में नादिया कोमानाची, मुक्केबाजी में क्यूबा का दबदबा उसी संस्कृति के द्योतक हैं जिसमें शासन तन्त्र मनुष्य की समग्र सृजनात्मकता को मुक्त करने के लिए प्रतिश्रुत होता है ।

गैर बराबरी पर आधारित दुनिया में समाजवादी समाज के निर्माण का यह सिद्धान्त और व्यवहार निरन्तर प्रेरणा का स्रोत रहा है, रहेगा ।

Tuesday, February 22, 2011

2004 लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद एक टिप्पणी

चूँकि लोकसभा चुनाव का गर्दो गुबार थम गया है इसलिए चुनाव के समय 'सेफ़ालाजी' नाम के जिस शास्त्र के पक्ष विपक्ष में शोर शराबा उठा था उस पर धीरजपूर्वक बात की जा सकती है । यह खासकर इसलिए जरूरी है क्योंकि समाजशास्त्रीय विषयों के बहुत सारे विद्वान इसे वैज्ञानिक बताते नहीं थक रहे थे । वैसे एक चुनाव ज्योतिषी के इस दावे को लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के तर्क के बतौर अपना लिया है कि इन चुनावों में कोई राष्ट्रीय रुझान नहीं था बल्कि राष्ट्रीय नतीजे राज्यस्तरीय नतीजों के जमाजोड़ हैं । गालिब ने कह ही दिया है- शर्म तुमको मगर नहीं आती ।

मतगणना के एक दिन पहले सभी टी वी चैनलों ने तरह तरह के भविष्यफल बताने वालों की भविष्यवाणियाँ दिखाईं । यह उस सब कुछ पर एक क्रूर टिप्पणी थी जो एक महीने से इन्हीं चैनलों पर सेफ़ालाजी के नाम पर चल रहा था । पढ़े लिखे लोगों पर इस प्रचार अभियान का इतना गहरा असर था कि एक सज्जन ने डरते डरते एम्बेसडर ग्रैंड प्रतियोगिता के लिए 217 का आँकड़ा एन डी ए हेतु एस एम एस किया । और लोग तो 230 से नीचे उतरने को तैयार ही नहीं थे । अब इसे भाजपा के इलेक्ट्रानिक चुनाव अभियान की निरन्तरता कहा जाए या बुद्धिजीवियों के जनता से दूर होने और संचार माध्यमों पर अति निर्भरता का दुष्परिणाम ? तय करना मुश्किल है ।

जो लोग कह रहे हैं कि कोई राष्ट्रीय रुझान नहीं था उन्हें देखकर यही कहने की इच्छा होती है कि भाजपा की हार हुई है इसे नकारने के लिए और कितने बौद्धिक व्यायाम बाकी हैं । अगर कोई राष्ट्रीय रुझान नहीं था तो था क्या ? चुनावशास्त्री कहेंगे- एंटी इंकम्बेंसी फ़ैक्टर । यह फ़ैक्टर जबसे सेफ़ालाजी का चलन हुआ है तबसे राजनीतिक बातचीत में बुरी तरह से घुस गया है । लगता है मानो लोगो ने सरकारें बदलने का कोई शौक पाल लिया हो । अपवाद पर अपवाद दिखाई देते रहे लेकिन वह शास्त्री कैसा जिसकी अपने शास्त्र पर अन्धविश्वास की हद तक श्रद्धा न हो ! असल में राज्य सरकारें बदलने की यह प्रक्रिया उदारीकरण के बाद शुरू हुई लेकिन सेफ़ालाजी ने उसे एक फ़ैक्टर कानाम देकर इस विशेष ऐतिहासिक संदर्भ से काट दिया । आखिर उसके पहले के चुनावों में जब सरकारें नहीं बदलती थीं तो क्या स्टैबिलिटी फ़ैक्टर काम करता था !

इसी तरह का एक सूचक अपोजिशन यूनिटी इन्डेक्स भी बीच में चला था । इस बार उसका नाम भी नहीं सुनाई पड़ा । संभवतः यह भी भाजपा के चुनाव अभियान का ही असर था । गठबन्धन राजनीति की व्याख्या में इसका जिक्र न आना अन्यथा आश्चर्यजनक लगता है । राजनीतिक पार्टियों की एकता किन्हीं सामाजिक शक्तियों की एकता का प्रतिबिम्ब होता है । इसे मापना किसी तरह से संभव नहीं कि दो दलों की एकता उनके सामाजिक आधारों को भी एक साथ ला सकी या नहीं । यहाँ तक कि दो दलों के पिछले चुनावों के मत प्रतिशत को जोड़ देने से उनकी संयुक्त ताकत प्रमाणित नहीं हो जाती जैसा कि महाराष्ट्र के मामले में दिखाई पड़ा ।

कुल मिलाकर यह शास्त्र चुनावों में व्यक्त होने वाली सामाजिक हलचल को पकड़ तो नहीं ही पाता है उसे समझने का भ्रम पैदा करके गंभीर विचार विमर्श की गुंजाइश भी खत्म कर देता है । खुद एन डी टी वी ने चुनाव के बीच में ही चुनाव सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता बनाये रखने के किए 'पोल आफ़ द पोल्स' नामक कार्यक्रम शुरू किया । लेकिन सभी तो सच्चाई से उतना ही दूर थे । बड़ी निजी पूँजी और भाजपा शासनकाल में मौजूद उत्तेजनात्मक राजनीति के घालमेल से बना यह शास्त्र इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के उस प्रभाव को व्यक्त करता है जो हमारे बौद्धिक आलस्य को रास आता है । इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों में यह उत्तेजना एक स्वतन्त्र इच्छा शक्ति बन चुकी है जिसकी सामग्री प्राप्त न होने से तमाम खबरिया चैनल परेशान हैं । अर्थतन्त्र के विश्लेषण में शेयर मार्केट की इतनी भयानक उपस्थिति वैसे थोड़े ही हो गयी है ।

Thursday, February 17, 2011

बाबा


वैसे तो आप मेरे बाबा के बारे में जानते होंगे । नहीं जानते ? कैसे नहीं जानते आप उनको जिनका अपने बारे में कहना था कि उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के तकरीबन आठ जिले उन्हें 'राजा साहब' के बतौर जानते थे ? उनकी मृत्यु के बरसों बाद तक अगल बगल के गाँव के लोग मुझे राजा साहब का नाती कहकर ही पुकारते थे । आदमी की पूछ धन से नहीं व्यवहार से होती है- इस आदर्श वाक्य की जब भी परीक्षा लेनी होती है, बाबा उस संकट में मेरे सामने मददगार के रूप में तैयार मिलते हैं ।

बाबा राजा साहब कैसे बने इसकी भी एक मजेदार कहानी है । असल में जब बाबा गुजरे तब तक मैं सिर्फ़ बातें सुन समझ लेता था, उनका महत्व नहीं जान पाता था । इसलिए उनके बारे में जो जाना वह कुछ तो उनकी जुबानी सुना था, कुछ औरों की कहानी थी । बाबा अलमस्त आदमी थे । उनके जैसा अलमस्त और कुछ मामलों का पाबन्द मैंने आज तक किसी को नहीं देखा । गाँजा रोज और केवल दो बार पीते थे । धोती कुर्ता, मुरेठा, छड़ी और जूते के बगैर कभी दरवाजे से बाहर निकले हों याद नहीं आता । चालीस नशे गिनवाते थे वह- खाना, पीना, नहाना आदि आदि । तो गाँजा पीने की लत बचपन में ही लग गयी थी । गाँजे के साथ भी एक कहानी जुड़ी हुई है । जब प्राईमरी में थे तभी से गाँजे की बिठई सुलगाने के लिए किताबों के पन्नों का इस्तेमाल करने लगे थे । कहते थे इसी अपमान के कारण सरस्वती उनसे नाराज हो गयीं । उन्होंने भी कहा लड़के होंगे, बच्चे होंगे, घर होगा, खेती होगी, एक तुम ही न होगी तो क्या होगा ! और फिर सरस्वती को लात मार दिया ।

उनका यह प्रिय काम था । देवताओं को हमेशा, और कभी कभी खुद को देवता समझने वाले लोगों को नीचा देखना दिखाना । बुढ़ौती में जब लोग मरने की बातें किया करते हैं, बाबा कहते थे, रात को देवता लोग आये थे, कह रहे थे चलिये बहुत दिन यहाँ हो गया । मैंने कहा भागो यहाँ से; अरे वहाँ जाऊँगा तो किसी पेड़ तले एकान्त में कम्बल ओढ़े बैठे रहना पड़ेगा । खाने की जून होगी तो कोई अप्सरा बुलाने चली आयेगी । खाकर फिर वही एकांत । यहाँ तो लोग हैं, लड़के हैं मैं अभी नहीं जाऊँगा ।

बहरहाल, गाँजा पीने वाले अकेले नहीं पीते, उनकी संगत बन जाती है । सो गाँव के नौजवानों की टोली थी । बताते थे प्लेग मेंग्यारह भाई मर गये, अकेले बचे थे, इसीलिए संभवतः आदमी का महत्व जानते थे । तो अकेले होने से दुलरुआ थे, खाने का संकट नहीं । माँ से कहते भूख लगी है, माँ कहतीं, कँहतरी में घी रखा है, गये और पहथ भर निकालकर खा लिया । दिन भर घर से बाहर और बाहर फिर दमदार जवानों का खेल बरगत्ता । ऐसे ही एक दिन टोली ढलती दोपहर कहीं सड़क किनारे बैठी थी । दूर से एक आदमी धोती, कुर्ता, जूता, माला, तिलक और छाते के साथ आता दिखा । शर्त लग गयी कि जो उसकी जाति बता दे वो हम लोगों में राजा । किसी ने कहा ब्राह्मण, किसी ने कहा ठाकुर, किसी ने कुछ, बाबा ने कहा लुहार । नजदीक आने पर आदमी से पूछा गया- कहो भाई, कौन से बिरादर हो ? उसने कहा- बाबू, लोहार और बाबा राजा चुन लिये गये । एक लाठी हाथ पर और एक कन्धे पर रखकर सिंहासन बना और उस पर सवार बाबा धूम धाम से गाँव आये ।

बाद में हमने बाबा से पूछा कि आपने जाना कैसे । बोले कि भ्रम में तो पहले मैं भी पड़ा, खासकर तिलक और माला देखकर । फिर मेरी नजर उसके छाते पर गयी । बाजार से खरीदे हुए छाते की कपड़े के नीचे की कड़ियाँ सीधी होती हैं और उसकी थीं गोलाकार । लिहाजा मैंने अनुमान लगाया कि इसने अपने हाथ से कड़ियों को गोल किया है और तब यह है लोहार ।

राजा साहब से सरस्वती तो रूठ गयीं, लेकिन सीखा बाबा ने बहुत कुछ और उसे अपने स्वभाव का अंग बना लिया । जब कभी हम लोग बहुत खेलते थे तो कहते थे किताब के कीड़े बन जाओ । उनसे सुना एक दोहा अब भी मेरे लिए रीतिवादी कविता की लोकप्रियता का उदाहरण है-

सोहारी पितु भवन में, खाँड़ तुम्हारे हाथ ।

तरकारी दुख देत है, आचारों के साथ ॥

इस दोहे में शब्द भोजन के व्यंजनों से हैं लेकिन श्लेष से वे इसका दूसरा अर्थ खोलते । अतिथियों से अर्थ पूछते कोई उत्तर न मिलने पर मुस्कराते हुए बताते- यह दोहा सीताजी ने रावण से अशोक वाटिका में कहा था जब रावण उन्हें डरा रहा था । फिर एक और कथा । दरअसल मायके में एक बार जनक जी खेत से भूखे लौटे । सीता ने खाना परोसा । चटनी न थी । जनक ने पूछा । सीता ने तुरत सिल पर धनिया रखा । जल्दी जल्दी लोढ़ा चलाने लगीं । लोढ़ा उंगली पर चढ़ गया । सीता ने क्रोध में उसकी ओर देखा । नजर के कोप से लोढ़ा टूटकर दो टुकड़े हो गया । खाने के बाद जनक ने कहा- बेटी, एक चीज माँगना चाहता हूँ । सीता को समझ न आया । कहा- बेटी के पास देने के लिए क्या होता है ? जनक ने कहा- है, वादा करो इन्कार नहीं करोगी । सीता ने हामी भर दी । जनक ने सीता से क्रोध माँगा । उसी का प्रसंग देकर सीता ने कहा- सोहारी अर्थात वह तो मैं पितु भवन में हार आई । तुम हाथ में खाँड़ अर्थात तलवार लेकर तड़का रहे हो तो तुम्हारा तड़काना दुख दे रहा है क्योंकि मैं कुछ आचारों से बँधी हुई हूँ । अब इतनी दूर से कौन अर्थ ले आये ! इसी तरह अतिथियों की आँखों में आश्चर्य भर देने के लिए उन्होंने बड़े भाई की अंग्रेजी की किताब से 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार' वाला पूरा गीत याद कर लिया था । दरवाजे पर अगर कोई मेहमान आ गया तो उसका साथ देने के लिये घर के किसी आदमी को फ़िक्र नहीं करनी पड़ती थी ।

बूढ़ा हो या जवान बाबा सबके साथ घुल मिल जाते । उनके पास जो भी कपड़ा था यानी धोती, कुर्ता, मुरेठा और छाता- कभी उनको सामान्य स्थितियों में पहनते- रखते नहीं देखा । हम लोग कहते बाबा ऐसा क्यों ? बाबा कहते- कहीं रन्डी हर समय अपना पेशवाज पहने रहती है ।

मेहमान दरवाजे पर आया और बाबा वहीं हुए तब तो ठीक । अगर घर में हुए तो किसी लड़के को भेजकर दरवाजे से अपना धोती, कुर्ता, जूता, मुरेठा और छाता मँगवाते । पूरी तरह चाक चौबन्द होकर मेहमानों के सामने आते । मेहमान कैसा भी हो बाबा शुरू । 'देख रहे हैं यह छाता, जरा हाथ में लेकर देखिये, जापान की कम्पनी का बना है । और यह जूता देखिये, जयपुर से बनकर आया है । कम्पनी एक ही जोड़ी बनाकर बन्द हो गयी । किसी दूसरे के लिए नहीं बनाया । इसीलिए आजतक इससे ऊपर की कोई चीज किसी के पास मिली ही नहीं । लोग मेरा क्या मुकाबला करेंगे, आखिर मैं ठहरा राजा । आठ जिले हैं जिनका मैं राजा हूँ- गाजीपुर, बलिया, जौनपुर, आजमगढ़, बनारस, पूर्णिया, फारबिसगंज और कलकत्ता ।' गाँव के आसपास के लोग बताते हैं- राजा साहब के कुर्ते पर कभी चलते रास्ते मक्खी नहीं बैठी ।

राजा साहब गाँव में रहकर भी कुछ कुछ रोमैंटिक तबियत के आदमी थे । घर में तनाव है, अन्न का अभाव है, लड़कियों की शादी करनी है; बाबा विशेष परेशान कभी नहीं दिखाई पड़े । मनुष्य को सचमुच वे धन समझते थे और उसके सबसे अच्छे पहलुओं से मैत्री करते थे । खुद गर्व से बताते मेरे शरीर से डेढ़ सौ लोग हैं ।

अनुभवों से बहुत कुछ सीखा था उन्होंने । चाचा एक बार पढ़ रहे थे । बीच में शब्द आया हौले हौले । बाबा ने पूछा बताओ इसका मतलब । चाचा को मालूम नहीं । स्कूल में दूसरे दिन मास्टरों से पूछा । मास्टर लोगों ने बताया- हौले हौले यानी हाली हाली माने जल्दी जल्दी । बाबा ने कहा- गलत, इसका मतलब है धीरे धीरे । बाबा से मैंने पूछा आपने कैसे जाना । उन्होंने बताया- एक बार मैं थेटर कम्पनी का नाटक देख रहा था कलकत्ते में । उसमें एक औरत अपने गुलाम को कोड़े से पीट रही थी । नौकर ने कहा बीबी जी हौले हौले मारो तो क्या कोई अपने को जल्दी जल्दी पीटने के लिए कहेगा !

पूर्णिया, फारबिसगंज उनकी कहानियों में अक्सर आते थे । असल में वहाँ मेवालाल सिंह नाम के एक बहुत धनी रईस थे । बाबा से कलकत्ते में उनकी दोस्ती हो गयी थी । इस दोस्ती में मेरे गाँव की एक कथा छुपी हुई है । गाँव के एक कायस्थ परिवार के भृगुनाथ लाल ने पता नहीं किस प्रेरणा से संगीत में हाथ आजमाया और कलकत्ते में संगीत विद्यालय खोला । इन्हीं भृगुनाथ लाल की लिखी धनुष भंग नाटिका का मंचन अब भी मेरे गाँव में होता है । बाबा उनके लिखे किसी सवैये में उनका नाम हटाकर अपने नाम से उसे गाते थे । बार बार हेमनाथ बिनती हमारी है । बाबा से मेवालाल सिंह की वहीं दोस्ती हुई थी । बाबा उनके यहाँ महीनों रह जाते थे । रात में बाबा उनके दरवाजे के सामने ही पेशाब कर लिया करते थे । किसी ने बाबू मेवालाल सिंह को इसकी खबर कर दी । भरी सभा में एक दिन बाबू साहब पूछ बैठे । बाबा को अपना सार्वजनिक अपमान बेहद खला । उन्होंने कहा- आपकी दो पैसे की छेरी घर में पेशाब करती है और मैं लाख का शरीर लेकर बन में बाघ को खिलाने जाऊँ ? मेवालाल सिंह ने उनके सामने बाद में प्रस्ताव रखा कि बाबा उनके कारिन्दा हो जायें । बाबा ने कहा आज मैं आपका मेहमान होता हूँ कल मुझे लोग आपका आदमी कहेंगे । हाँ, मेरी छः बेटियाँ हैं, उन्हीं का कल्याण कर दीजिये । नतीजतन मेरी सभी बुआएं पूर्णिया फारबिसगंज में ब्याही हैं ।

बाबा किस्मत के बहुत धनी थे, अपने अर्थों में । सोचिए कि पचीस तीस साल की उम्र में उनकी चौथी शादी हुई थी । पहली दूसरी शादी की तो उन्हें याद भी नहीं थी । तीसरी पत्नी से एक पुत्र हुआ जो बाद में राजरोग से गुजर गये और फिर चौथी शादी । बताते थे मैंने कहा भगवान से ऐसी पत्नी दो जो लाखों में एक हो और वैसी ही मिली । कहते थे जब मैं बारात में गया तो लड़कियाँ यह देखने आई थीं कि दूल्हे को दाँत बचे हैं या नहीं । आजी बराबर अपनी तीनों सौतों के चित्र चाँदी के पत्तर पर खुदवाकर गले में पहने रहतीं । लड़के लड़कियाँ कुल मिलाकर आजी से दस हुए और बाबा अपने को सबसे भाग्यशाली समझते रहे ।

मेरे नाना बताते थे- एक बार हेमनाथ यहाँ आये । तालाब में नहा रहे थे कि डोंड़हा साँप ने काट लिया । लगे चिल्लाने रोने और किसी के लिये नहीं कौशल्या देवी के लिये ।' उनके जमाने में परिवार बहुत बड़ा था । साझे में खाना साझे में खेती । आटा पीसने वाली मशीन का तब कहीं नामो निशान नहीं था । आजी को छोटे बच्चे । किसी ने कुछ कह दिया और बाबा ताव खा गये । उन्होंने कहा अब नहीं चलेगा और अगली फ़सल में बँटवारा हो गया । बँटवारा भी अजब, कोई झगड़ा नहीं हुआ । चार हिस्सेदार थे गोटी पड़ी और पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण का फ़ैसला हो गया । गरीबी नहीं थी ऐसा कुछ नहीं । घोड़ी पालते थे उन दिनों । बाद में तो शक्ति ही नहीं रही । एक बार घोड़ी की लीद उठा रहे थे । किसी ने कहा राजा साहब यह क्या कर रहे हैं । बाबा ने कहा अपना काम करने में कैसी लाज । एक बार घर में सतुआ का कलेवा कर रहे थे । हम लोगों ने कहा- बाबा ! राजा तो सतुआ नहीं खाते । बाबा ने कहा- राजा लोग भी इतने तरह की चीजें न खा पाते होंगे ।

बाबा ने बदलते जमाने को भी झेला लेकिन उसी मस्ती से । मेरे बड़े भाई एम ए करके बेरोजगार होकर घर बैठ गये थे । बहुत तनाव रहता था उन दिनों । फिर भी उनसे बतियाते रहते थे- मोतिया, तुम लोग कैसे अनाज से अनाज खाते हो । भैया की शादी में दहेज कम मिला तो इसकी शिकायत भी एक दूसरे दूसरे सज्जन ने ही भैया के ससुराल में की, बाबा कुछ नहीं बोलने गये । दूसरे भाई ने बिना दहेज प्रेम विवाह किया । इससे पहले उन्हें बहुत दहेज मिल रहा था । गाँव के और घर के सब लोग नाखुश, भयंकर तनाव कि जज साहब की लड़की से शादी करते तो कितना मिलता । हम लोग कितना भोला समझते थे बाबा को । ताश के बीबी, बादशाह और गुलाम के पत्ते हम लोगों ने इकट्ठा किये और बाबा को दिखाया कि ये रही लड़की और ये रहीं उसकी दास दासियाँ । उसका गुजारा आपके यहाँ कैसे होता । बाबा कुछ नहीं बोले, चुप रहे । बाद में राम जी राय ने उन्हें समझाया कि हर नया काम करने वाले को बदनाम होना पड़ता है लेकिन बाद में जब वही काम सब लोग करने लगते हैं तो उसकी इज्जत होती है । नहीं याद आता कि इस तर्क से बाबा की शर्मिन्दगी दूर हुई या नहीं लेकिन इतना जरूर याद आता है कि जब भाभी आईं तो परिवार में एक आदमी के इजाफ़े से वे इतना खुश हुए कि फिर कभी मैंने उन्हें इसको लेकर शर्मिन्दा नहीं देखा ।

कैसे पैदा हो गया वैसा आदमी मेरे गाँव में ? संगीत से इतना प्रेम कि बुढ़ापे में भी होली दरवाजे पर वे ही गाते । इसी चक्कर में जवानी में कलकत्ते की सैर की थी । वहीं पारसी थियेटर का नाटक देखा । उसमें से एक के बारे में बताते थे- छप्पन छुरी का नाच । छप्पन छुरी, बहत्तर पेंच की सांगीतिक धुन अब तक मेरे कानों में घुलती है । ऐसे में कोऊ घर से ना निकसे, तुमही अनूक बिदेस जवैया- उनके गानों में एक की सबसे मार्मिक ये पंक्तियाँ मुझे अब तक याद हैं । गाँव के हरिजन बताते हैं कि जब कभी वे खेत में हमें चोरी से फ़सल काटते देखते तो कहते जो कुछ हो गया है लेकर भाग जाओ, वर्ना कहीं रमयना ने देख लिया तो दुर्गत कर देगा ।

मुझे अक्सर लगता रहता है कि बाबा कहीं मेरी चेतना में गहरे बैठे हुए हैं और मैं उन्हें लगातार ढूंढ़ता भी रहता हूँ । बाबा में 'मेरा दागिस्तान' और 'गणदेवता' के कई पात्र समाये हुए हैं । ऐसे आदमी को नहीं जानते आप ? जरूर जानते होंगे ।

गोरख जी की एक कहानी

एक सूत्र और
बाबू भोलाराय ने जमाने के रंग ढंग खूब देखे हैं । उनको पता रहता है कि दुनिया अब किधर जा रही है । उनको यह भी पता रहता है कि क्या करने से बेड़ा पार होगा और क्या करने से गर्क हो जायेगा ।
उनका दावा है कि उनके बाल धूप में नहीं सफ़ेद हुए हैं ।
इस बीच उनके सामने एक कठिनाई आई । वह आई और उनके सामने बैठ गई । उन्होने ठोकर लगाई । फिर भी टस से मस न हुई ।
कठिनाई भी अजब चीज है । भोलाबाबू जैसे लोग भी कभी कभी परेशान हो जाते हैं । 'अरे भाई, अब तो भागो जरा मेरे बालों की सफ़ेदी का तो खयाल करो ।' लेकिन कठिनाई जाती नहीं थी ।
दिमाग भिड़ाओ तो हर कठिनाई रफ़ा हो जाती है । भोलाबाबू ने दिमाग भिड़ाना शुरू किया ।
लेकिन इसके पहले कि कठिनाई कैसे दूर की जाय यह जानना जरूरी है कि वह है क्या ?
भोलाबाबू ने देखा कि यह कठिनाई अजब है । एक तो यह देश के पैमाने पर है । दूसरे सूतों से बुनी हुई है ।
20 सूत्र, फिर पांच सूत्र फिर जोड़ा गया तो 24 सूत्र निकले । यह नहीं कि हिसाब में कोई गलती हुई थी । नहीं, सारा सांख्यिकी विभाग यही गिनने में लगा हुआ था । और यह विभाग बड़ी से बड़ी संख्याएं गिनने का आदी हो चुका है । भले उनका रिश्ता कागज से अलग की किसी चीज से न हो ।
तो उसमें एक सूत गरीबी को घटा देने और धीरे धीरे दूर कर देने का है । गरीबी कम होगी, फिर और कम होगी और भाग जायेगी । एक जमाना था कि भोलाबाबू गरीबी को मानते ही नहीं थे । वह बताते थे कि यह तो मन की मैल है । मन साफ रखो, गरीबी साफ है । वह सफाईपसन्द आदमी हैं । इसलिए गरीबी को सफ करने की बात करते थे उसे भगाने की नहीं । वह कहते थे- एक करोड़पति को देखो । वह करोड़पति है । लेकिन वह और पैसा इकट्ठा करना चाहता है । वह अपने को गरीब समझता है । उसके मन में मैल है । वह गरीब है । मन को साफ करो । गरीबी साफ हो जायेगी । मन चंगा तो कठौती में गंगा । भोलाबाबू जोश में आ जाते और उनको जो उनसे तर्क कर रहे होते ऐसी निगाह से देखते मानो भिनभिनाती हुई मक्खियां हों ।
खैर, एक उनकी पार्टी का हुक्म निकला कि गरीबी को भगाना है । यह एक मजबूत सूत है ।
भोलाबाबू को अपना बयान बदलने में देर नहीं लगी । उन्होने कहा- भाई गरीबी तो है ही । कितने लोग भूखों मर रहे हैं । कितनों को रोजी नहीं । कितने गरीबी की रेखा के नीचे हैं । गरीबी को कौन नहीं मानता ? मैं तो पहले से ही कह रहा हूं कि वह है । पहले कहता थाकि वह मन में है । लेकिन अब वह बाहर भी है । अगर कोई चीज बाहर नहीं होगी तो मन में आयेगी कहां से ? मन तो एक आईना है । जैसी चीज सामने आयेगी वैसा ही अक्स आईने में उभरेगा ।
तो गरीबी है । सूत के अनुसार उसे भगाना भी है । हालांकि भोलाबाबू जैसे गांधीवादी के लिए भगाना श्ब्द शोभा नहीं देता । उन्होने कहा कि भगाने में डण्डा लेना पड़ता है । वह चीज नहीं भागती तो डण्डा उठाना पड़ता है । फिर उसके पीछे दौड़ना पड़ता है । गांधी जी होते तो कहते हम गरीबी में सुखी हैं । उसको भगाने से हिंसा होगी । हिंसा भारी अपराध है । गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ कभी हिंसा का नारा नहीं दिया था । क्यों ? इसलिए कि इससे वे भागेंगे और हम लोगों को हिंसक कहेंगे । वे भागें नहीं हमें हिंसक नहीं कहें इसीलिए तो गांधी जी हमें बन्दूक के सामने लेट जाने की सलाह देते थे । हमारी छतियां छलनी हो जाएं । हमारे ऊपर घोड़े सरपट दौड़ते चले जाएं । गांधी जी कहते थे हमें चूं भी नहीं करना चाहिए । बड़ा पाप होगा । गांधी जी कहते थे पापी होने से गुलाम होना अच्छा है । आखिर हम भगवान के गुलाम ही तो हैं ।
भोलाबाबू जोश में आते तो चौराहे पर पान चबाते हुए बोलते ही चले जाते । वह अक्सर कहते कि गांधी जी होते तो ऐसा नहीं होता वैसा नहीं होता । वह जुलूस देखते और कह पड़ते गांधी जी होते तो आजाद देश में जुलूस कौन निकाल पाता ?
लेकिन भोलाबाबू के सामने कठिनाई क्या थी ? क्या गरीबों को भगाना था ? इसके लिए तो वह पुलिस और फ़ौज को काफ़ी मानते थे । गरीब लोग दंगा फ़साद पर उतर आते हैं । मजदूर मिल में काम बन्द कर देते हैं । किसान भी उनके सुर में सुर मिलाते रहते हैं । सबके लिए सरकार उपाय कर रही है । हमारे चौराहे के पास पुलिस की नयी चौकी खुली है । डण्डा पड़ेगा तो गरीबी वैसे ही भाग जायेगी ।
उन्होने कहा कि नसें बन्द कराना बेहद जरूरी है । गरीब लोग इस मामले में सबसे गड़बड़ी पैदा करते हैं । अरे भाई, रोटी से खाने के लिए नमक नहीं और बच्चे पैदा किये जा रहे हो ? तो नसें बन्द कराओ । यह भी एक सूत है और देश भर में फैला हुआ है । बच्चे, बूढ़े, जवान- सभी का पवित्र कर्तव्य है कि नसबन्दी कराएं और देश की सेवा करें ।
तो, भोलाबाबू की कठिनाई कोई ऐसी वैसी चीज न थी । वह भारी थी । उनके नाक के नीचे बैठी थी और टस से मस न होती थी ।
भोलाबाबू ने कई बार कोशिश की थी उनका शानदार बंगला हो, मोटरकार हो और दरवाजे पर बजाने के किए एक घण्टी लगी हो । उन्होने सपना देखा था कि एक दिन घण्टी बजी थी और उन्होने नौकर से कहलवा भेजा था कह दो वह जनता के काम से बाहर गये हैं । वह नींद में खलल पसन्द न करते थे ।
तमाम कोशिशों के बावजूद भोलाबाबू एक दवाखाने में मुंशी का काम करते रह गये थे । वह रोज हजारों का हिसाब करते मगर उनकी मासिक तनख्वाह 150 से 200 पर जाकर रुक गयी थी । यह जरूर था कि तीज त्यौहार पर वह मालिक के घर निमन्त्रित होते रहते थे । कभी कभी उनकी सब्जी भी खरीदने जाते और उनका पान का ब्यौरा बन जाता ।
जब बीस सूत बने उसके बाद बाद 4 सूत और बने तो उनका दिमाग ठनका । सूतों ने एक कमाल का काम किया था । वे देश भर में फैले हुए थे और गरीबी जैसी कई चीजें भागती चली जा रही थीं । लोग जेलों में बन्द किये गये थे और कोई चूं तक नहीं कसता था । डण्डे पड़ते थे और जुलूस गायब थे । उन्होने सोचा था कि ये सूत तो जादुओं में जादू हैं । एक सूत्र लागू होता है और समस्या काफ़ूर हो जाती है ।
कठिनाई यह थी कि ये सूत्र कैसे गढ़े जाते हैं ? गढ़े तो जाते ही होंगे । गांधी जी होते तो ऐसे सूत गढ़ने के चर्खे भी बनाते । एक चर्खा मेरे पास भी होता । और दुनिया का रंग कुछ और होता ।

गोरख पाण्डे की एक कविता

ठप सा पड़ा हुआ है

देश

आपात स्थिति

सिर्फ़ चलती है

थम गयी है हलचल

शोर बन्द है

शान्ति बन्दूक की नली से

निकलती है

कामरेड,

कहीं कुछ हो रहा है ?

मुझे निराश मत करो

कामरेड,

बताओ कहीं कुछ हो रहा है ?

यह पहाड़ हड्डी पसली एक करता है

फिर भी महंगू चुपचाप

ढो रहा है

क्या यही सच है कामरेड

कि विचार और क्रिया में

दूरी हमेशा बनी रहती है

कामरेड, कितना मुश्किल है सही होना

कहीं कुछ हो रहा है कामरेड !

Tuesday, February 8, 2011

शमशेर की आलोचना : प्रतिमानों की कशमकश


वैसे तो शमशेर का समूचा गद्य आलोचकों का ध्यान आकर्षित करता रहा है लेकिन उसका अधिकांश आलोचनात्मक लेखन ही है इसलिये यही विषय उपयुक्त लगता है । शमशेर जी प्रेमचंद के बाद हिंदी के ऐसे दूसरे बड़े लेखक हैं जिनका गहरा दखल हिंदी के साथ ही उर्दू साहित्य में भी था । उनका अपना विशिष्ट क्षेत्र कविता है इसलिये आलोचना भी ज्यादातर काव्यालोचन है । शमशेर की आलोचना में पहली जो चीज ध्यान खींचती है वह यह कि वे हिंदी और उर्दू के साहित्य को अलग अलग करके देखने की प्रवृत्ति के आम हो जाने से खासे परेशान हैं । इस प्रवृत्ति का वे तरह तरह से विरोध करते हैं । इस द्विभाजन पर उनका क्रोध और बेबसी व्यंग्य का रूप लेकर डायरी की एक टीप में प्रकट हुई है ।

वे कहते हैं कि मान लीजिये कि मैं शासक जाति का हूँ और मेरे अधीन तीन चार जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों का एक देश है तो मैं यह करूँगा कि------चारों जातियों और भाषाओं को भरसक अलग अलग रखने, एक दूसरे से उदासीन अपने को अलग अलग सबसे श्रेष्ठ समझने और दूसरे को अपने से नीचा, अपनी रूढ़ियों और धार्मिक मान्यताओं में आकंठ डूबे रहने के लिये खूब प्रोत्साहित किया जायेगा ।( कुछ गद्य रचनायें, पृष्ठ 299) यही माहौल हिंदी और उर्दू को लेकर औपनिवेशिक शासकों ने बनाया था । इस बात को शमशेर जी ने दर्द के साथ सुभद्रा कुमारी चौहान पर लिखे लेख 'राष्ट्रीय वसंत की प्रथम कोकिला' में बयान किया है । वे लिखते हैं, "खिलाफ़त वाले सत्याग्रह आंदोलन में हमारे इतिहास और संस्कृति की सभी धारायें मिलकर एक प्रचंड शक्ति का वेग बन गयी थीं । मगर वाह, उस अपराजेयता की बँधी हुई मुट्टी को साम्राज्यवाद की बेमिसाल कूटनीति ने किस तरह मसल मसल कर धीरे धीरे ढीला किया है- तब से आज तक का इतिहास यही है- उसको आज नेताओं की जख्मी उँगलियों की दुखती नसें और जोड़ बंद ही जानते हैं- कलाई से पंजा जैसे अलग हो गया है, और उँगलियाँ आपस में नहीं मिलतीं ।( कुछ गद्य रचनायें, पृष्ठ 43) ध्यान देने की बात यह है कि ऐसा वे गुलाम भारत में नहीं बल्कि आजाद भारत में लिख रहे थे । स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत में भी फूट डालने की नीति जारी है । शमशेर पूरी ताकत से इसके विरुद्ध लड़ते हैं ।

उनका कहना है कि किसी भी अच्छे कवि को जिन परंपराओं से प्रेरणा लेनी चाहिये उनमें हिंदी के साथ साथ उर्दू की परंपरा भी शामिल है क्योंकि' हिंदी खड़ी बोली भाषा का एक रूप है । खड़ी बोली भाषा का दूसरा रूप उर्दू है ।( कुछ और गद्य रचनायें, पृष्ठ 253) इसीलिये उनके लेखन में आद्यंत हिंदी के साथ ही साथ उर्दू की साहित्यिक परंपरा का भी आधिकारिक विश्लेषण मिलता है । अनेक लोगों को इसके कारण शमशेर उर्दू की ओर थोड़ा अधिक झुके दिखाई पड़ते हैं । रामविलास शर्मा ने भी यह आरोप उन पर लगाया । दोआब की भूमिका लिखते हुए उन्होंने दर्ज किया,' शमशेर का रागात्मक संबंध उर्दू काव्य से अधिक है, हिंदी काव्य से कम ।'( कुछ गद्य रचनायें, पृष्ठ 17) आज इसकी जाँच पड़ताल करने पर रामविलास जी की आपत्तियों में कुछ ज्यादती महसूस होती है ।

यह सही है कि शमशेर की आलोचना में कलात्मक सौष्ठव और जनप्रतिबद्धता के बीच गहरी कशमकश है लेकिन इसे उर्दू के प्रति उनके अनुराग में अवस्थित करना समस्या से मुँह मोड़ना होगा । यह द्वंद्व शुरू से ही हिंदी आलोचना में रहा है और प्रत्येक ईमानदार आलोचक ने इसको महसूस और हल किया है । प्रारंभ में यह तनाव संदेश और शैली के बीच सामंजस्य की समस्या के रूप में पेश किया जाता था । प्रगतिशील आलोचना ने संदेश की जगह प्रतिबद्धता का सवाल उठाया और इस मामले में शमशेर प्रगतिशील आलोचना के साथ हैं ।

उनकी पसंदीदा कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान हैं । ऊपर उद्धृत लेख के अलावा एक और लेख उन्होंने 'सुभद्रा कुमारी चौहान : एक अध्ययन' शीर्षक से लिखा जो कुछ और गद्य रचनायें में संकलित है । इस लेख में शमशेर का प्रतिबद्ध आलोचक पूरी धार के साथ मौजूद है । सुभद्रा जी की समझ की सीमा बताते हुए शमशेर लिखते हैं, "वह शायद इस बात की कायल नहीं थीं कि हमारी पूँजीवादी दुनिया आज सीधी दो तबकों में बँट गयी है । शायद उनको यह विश्वास पूरी तरह नहीं हुआ था कि आज अमीर-गरीब और ऊँच-नीच का भेद और समाज की सारी विषमताएँ अकेले जनसेवा और सुधार के संघर्षों से ही नहीं मिटाई जा सकतीं ।( कुछ और गद्य रचनायें, पृष्ठ 89-90) शमशेर सुभद्रा जी की आदर्शवादी राजनीतिक समझ को काव्यकला के प्रति उनकी उदासीनता से जोड़ते हैं । अपनी प्रिय कवयित्री के इस दृष्टिकोण से असहमति दर्ज कराते हुए शमशेर लिखते हैं, "दरअसल इस दृष्टिकोण में कला-पक्ष की एकदम उपेक्षा है, और उसके अंदर छुपी हुई है कलाकार को एक चुनौती; वस्तुतः यह उसकी हार है और दार्शनिक की विजय । यह दृष्टिकोण कलाकार और दार्शनिक दोनों का विरोध लिये हुए है, उनकी सच्ची एकता नही, जिसकी शक्ति वह कला की अभिव्यक्ति में प्रकट करता ।" ( कुछ और गद्य रचनायें, पृष्ठ 93) कला के प्रति सावधानी उनके तईं कवि की जिम्मेदारी है ।

ऐसा नहीं है कि कला और प्रतिबद्धता के बीच का द्वंद्व शमशेर के यहाँ पूरी तरह से हल हो गया है । 'एक बिल्कुल पर्सनल एसे' में उनका यह द्वंद्व खुलकर व्यक्त हुआ है । नागार्जुन, त्रिलोचन और अज्ञेय में फ़र्क बताते हुए वे कहते हैं, "जबकि नागार्जुन और त्रिलोचन मुझे दृष्टि देते हैं, अज्ञेय मुख्यतः 'सच्चे कलाकार की शिल्पगत अनुभूति'----।" दृष्टि और शिल्पगत अनुभूति में वे 'तत्वतः' अपने लिये- सांस्कृति प्रेरणा के लिये- कोई विरोध तो नहीं पाते, मगर 'प्रत्यक्ष' में यह अंतर महत्वपूर्ण समझते हैं । इस अंतर को स्पष्ट करने के लिये मध्यकालीन हिंदी कविता से जो उदाहरण वे ले आते हैं वह दिलचस्प हैं । "अपनी बात को और तरह से स्पष्ट करने के लिये अगर मैं कहूँ कि रामायण में और रहीम के दोहों में 'दृष्टि' और बिहारी के दोहों में 'कला की अनुभूति' है तो शायद मेरा अर्थ स्पष्ट हो ।" सारतः " नागार्जुन, त्रिलोचन और केदार के यहाँ 'दार्शनिक' दृष्टिकोण मुख्य है, अज्ञेय के यहाँ कला ।" ( कुछ और गद्य रचनायें, पृष्ठ 32-33) यह द्वंद्व जब जीवन में ही हल नहीं हुआ है, जब व्यक्ति समाज में मौजूद विषमता के फलस्वरूप व्यक्तित्व के विभाजन से ग्रस्त है तो स्वभाविक है कि इसकी छाया साहित्य और साहित्यालोचन में भी दिखाई पड़े ।

शमशेर इस द्वंद्व से पूरी तरह वाकिफ़ हैं । इसे हल करने के लिये सैद्धांतिक स्तर पर वे कला की सामाजिक धारणा विकसित करते हैं । 'अमूर्त कला' शीर्षक लेख में वे कहते हैं, "कला की अभिव्यक्ति व्यक्ति और समाज की आशाओं- आकांक्षाओं और क्षणिक समर्थताओं का एक सजीव और गतिशील दर्पण है ।" इसी लेख में अपनी बात साफ़ करते हुए आगे बताते हैं, "---जिसे हम टेकनीक या कला की अभिव्यक्ति का ढंग- ताल, छंद, तोल, विन्यास का हिसाब रखना कहते हैं- वह सिर्फ़ जीवन की गुंजलक अनुभूतियों की गति का परतौ, उनकी परछाईं, उनका आभास मात्र है ।" ( कुछ और गद्य रचनायें, पृष्ठ 165) अपनी सोच को यथार्थवाद के भीतर ही कायम रखने की जद्दो जहद करते हुए वे यथार्थवाद की भोंड़ी समझ का विरोध करते हैं, "यथार्थवाद का झंडा उठाने का मतलब अगर सिर्फ़ यह हो जाता है कि प्रतीक, रहस्य या केवल गति के ताल, छंद को व्यक्त करने वाली कला के हम सिरे से विरोधी हैं, तो यह मेरे ख्याल से यथार्थवाद के साथ भी अन्याय होगा ।" इस समझ के साथ वे अपना मत स्थिर करते हुए कहते हैं, "जो चीज हमारे लिये महत्वपूर्ण है, वह केवल यह कि कलाकार अपने विषय के अंदर किन तत्वों, किन विशेषताओं को दिखाना चाहता है और वह कहाँ तक उन्हें दिखाने में सफल होता है । --- शैली का यथार्थवादी या प्रतीकात्मक होना किसी कलाकृति का मूल्य निर्धारित नहीं करता । कोई कलाकृति किसी अनुभूति को कितनी सच्चाई और सफलता से व्यक्त करती है इस पर उसका मूल्य है ।" ( कुछ और गद्य रचनायें, पृष्ठ 167)

कलाकृति के मूल्यांकन के लिये शैली को अपर्याप्त बताने के बाद वे कलाकार के दृष्टिकोण को भी इसके लिये नाकाफ़ी बताते हैं, "किसी विशेष दृष्टिकोण के होने से ही कोई- कोई कलाकृति अधिक निर्दोष या दोषपूर्ण नहीं हो जायेगी । कलात्मक अनुभूति की सच्चाई और शक्ति ही शैलीगत दृष्टिकोण की सार्थकता को प्रमाणित करेगी । शैली (अथवा टेकनीक ) और विषयवस्तु के संबंध को हम अनुभूति की विशेषता से अलग रखकर नहीं समझ सकते । अगर अनुभूति नहीं है, या कच्ची है, तो टेकनीक भी बेकार है और विषयवस्तु भी ।" ( कुछ और गद्य रचनायें, पृष्ठ 168) कला के बारे में वे एक नया नजरिया अपनाते हैं जब कैफ़ी आजमी के प्रसंग में कहते हैं, "तमाम कला राजनीति है ।" लेकिन "कोरी राजनीति नहीं - वह 'राजनीति' जिसमें आम आदमी की आशाएँ- आकांक्षाएँ सुलगती हैं । हर सच्चा कलाकार -देखा जाय , तो हर युग में- उसी अग्नि का ताप झेलता है । ( कुछ और गद्य रचनायें, पृष्ठ 123) कला की इसी समझदारी के साथ शमशेर ने विभिन्न कवियोम पर विचार किया है ।

कविता के क्षेत्र में शमशेर की रुचियाँ पर्याप्त विविध थीं । उर्दू उनके लिये घरेलू भाषा की तरह थी । अदबदाकर वे किसी भी प्रसंग में उर्दू कवियों का जिक्र अवश्य करते हैं । मैथिली शरण गुप्त के साथ हाली का उनका तुलनात्मक विवेचन मशहूर है । इसमें उन्होंने दोनों कवियों की महत्ता को स्वाधीनता की भावना जगाने के प्रसंग में उजागर किया । इसके अलावा इकबाल, गालिब, फ़ैज, कैफ़ी आजमी आदि के अतिरिक्त उर्दू की कवयित्रियों पर विस्तार और अधिकार से लिखा ।

इसी कारण शमशेर ने आलोचना में हरेक तरीका अपनाया । उनकी आलोचना में एक ओर तो फ़्रांसिसी कवि लुई अरागाँ का ऐसा विश्लेषण है जिसमें एक विदेशी कवि को पूरी तन्मयता के साथ उस देश की मिट्टी, जनता और इतिहास में अवस्थित किया गया है तो दूसरी ओर निराला की एक कविता 'बैठ ले कुछ देर / आओ, एक पथ के पथिक से, / प्रिय, अंत और अनंत के / तम-गहन जीवन घेर ।' की टी एस इलियट के शब्दों में 'नीबू निचोड़ आलोचना' है । उनका एक मन ऐसे कवियों पर लहालोट है जिन्होंने वर्ण्य विषय को कविता के छंद में साध लिया है तो दूसरी ओर मुक्त छंद की विशेषतायें भी उन्हें आकर्षित करती हैं । गीतों की सफलता उन्हें स्पृहाजनक लगती है । भाषा की चुस्ती और मुहावरेदानी में चूक उनकी नजर में अक्षम्य है । अपने पसंदीदा कवियों को भी उन्होंने कठोरता से इन मानदंडों पर कसा और उनकी चूकों की ओर संकेत किये । यह कठोरता उनमें सिर्फ़ दूसरों के लिये नहीं अपने लिये भी थी । इसीलिए वे अपने आपको कवि मानने में संकोच करते रहे । आलोचक भी उन्होंने अपने को नहीं माना । फिर भी जैसे वे बड़े कवि हैं, उसी तरह एक महत्वपूर्ण आलोचक भी ।

अपनी पसंदीदा प्रत्येक कविता को व्याख्यायित करने लायक विश्लेषण के औजार विकसित करने की बेचैनी शमशेर की आलोचना में कदम कदम पर दिखाई पड़ती है । इस वजह से उनकी आलोचना में प्रतिमानों की गहरी कशमकश है । बहरहाल, यह इच्छा भी बड़ी बात है जिसका अभाव कुछ दूर हो सके तो उनके शताब्दी वर्ष की यह भी महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी ।