Monday, November 29, 2010
एक लेख का मजमून
Sunday, November 28, 2010
भूमंडलीकरण और भारत
आज का समय सम्भवतः चीजों को उनके विपरीत नाम से पुकारने का समय है । राजनीति में जहाँ अनुदारता पैदा हो रही है, उसे उदारीकरण कहते हैं । सरकार के घनघोर हस्तक्षेप से जो प्रक्रिया चल रही है, उसे निजीकरण कहा जा रहा है । यही किस्सा उदारीकरण का भी है । जो हो रहा है वह दरअसल पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद के एक ही केंद्र का आर्थिक,सामरिक और सांस्कृतिक प्रसार है पर इसे सन्दर्भ से काटने के लिये भूमंडलीकरण कहा जा रहा है । ऐसा कहने से यह प्रक्रिया सहज मानवीय क्रियाकलाप के रूप में प्रकट होती है । संभवतः जब अमेरिकी प्रभुत्व हमारे यहाँ दस्तक देगा तो ‘अतिथि देवो भव’ का उल्लेख करके क्रीतदास उसके स्वागत के लिये पलक पाँवड़े बिछायेंगे ।
अगर भूमंडलीकरण का अर्थ संसार के विभिन्न भागों के मनुष्यों में आपसी आदान-प्रदान समझा जाये तो ऐसा अनादि काल से चला आ रहा है । हमारे देश के अंडमान निकोबार द्वीप समूह में अफ़्रीकी मूल के आदिवासियों की मौजूदगी इस प्रक्रिया की प्राचीनता को बताने के लिये पर्याप्त है । अरस्तू के वनस्पतिशास्त्रीय शोधों के लिये सिकंदर द्वारा दुनिया भर से पेड़ पौधे मँगवाए गये थे । अरबी भाषा में अनुवाद के लिये संसार भर की पुस्तकों और विद्वानों का एकत्र होना जगत प्रसिद्ध है । मिथकों,लोककथाअओं और भाषाओं के क्षेत्र में यह वैश्विक आपसदारी देखी जा सकती है । किंतु आज जो भूमंडलीकरण हम देख रहे हैं उसकी जड़ें यूरोपीय इतिहास के एक विशेष दौर में अवस्थित हैं ।
इसीलिये अनेक विद्वान भूमंडलीकरण को पूंजीवाद से जोड़कर देखते हैं । मार्क्स की 1848 में लिखित किताब ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र ‘ में पूंजीवाद और भूमंडलीकरण का जिस तरह आपसी रिश्ता बताया गया है उसे आज की दुनिया में प्रत्यक्ष होते अनेक विचारक देख रहे हैं । उस पुस्तिका में उदाहरण के लिये बाजार की तलाश में गरीब मुल्कों में पूंजीवाद का प्रवेश मार्क्स की शब्दावली में बहुत कुछ बलात्कार का रूपक बन जाता है ।
मार्क्स ने पूंजीवाद का विश्लेषण करते हुए मुनाफ़े की घटोत्तरी और अतिउत्पादन को पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का अंतर्निहित घटक माना था और इससे पैदा होने वाली अव्यवस्था को दस वर्षों के चक्रीय संकट की संज्ञा दी थी । अपने इस संकट से निजात पाने के लिये पूंजीवाद ने ‘पूंजी’ के लिखे जाने तक उपनिवेशीकरण का तरीका अपनाया था । इतिहास के लम्बे दौर में अनुपनिवेशीकरण तो हुआ पर नवस्वतंत्र मुल्कों के शासकों से पूर्व प्रभुओं के प्रति वफ़ादारी की गारंटी ले लेने के बाद ।
आश्चर्य की बात यह है कि भारत जैसे देशों के, जिसने दीर्घकालीन स्वतंत्रता संग्राम चलाया, बुद्धिजीवी भी राष्ट्र-राज्य की सीमाओं के टूटने का जश्न मना रहे हैं । असल में भूमंडलीकरण को तार्किकता देने के लिए उत्तर-आधुनिकता की वैचारिकी का जन्म हुआ है । ये विचारक साम्राज्यवाद को आर्थिक शोषण और राजनीतिक पराधीनता के रूप में नहीं देखते । वे इसे केवल सांस्कृतिक धरातल पर चिन्हित करते हैं ।स्वतत्रता संग्राम को भी वे सांस्कृतिक परिघटना ही मानते हैं । इन्हीं विचारकों का दावा है कि राष्ट्र-राज्य की सीमा टूट रही है । उपनिवेशीकरण के दौरान भी इन सीमाओं को तोड़कर गरीब मुल्कों का बाजार प्रभु देशों के लाभ के हिसाब से ढाला गया था ।
राष्ट्र-राज्य के कमजोर होने के मिथक के बारे में थोड़ी बातचीत जरूरी है । सच्चाई यह है कि पश्चिमी देशों में कहीं राज्य कमजोर नहीं पड़ा है । आज भी आयात प्रतिबंध उनकी नीतियों का प्रमुख अंग है । असल में तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की सम्प्रभुता का उल्लंघन करने के लिए इस मिथक का वैचारिक अस्त्र के रूप में उपयोग किया जा रहा है । पहले जब पूंजीवाद को राष्ट्र-राज्य अपने विकास के लिये जरूरी लगा था तो उस समय राष्ट्रवाद पर जोर दिया गया । आज उसे अपने अबाध विकास के लिये कमजोर देशों की सीमाएं बाधक लग रही हैं और अब वह इन देशों के उपभोक्ता से सीधा सम्पर्क बनाना चाहता है तो जरूरी होने पर हमला करके नहीं तो बाँह मरोड़कर उन्हें कमजोर किया जा रहा है ।
भारत दुनिया के जिस हिस्से में अवस्थित है वह विश्व बैंक संचालित नीतियों की गिरफ़्त में सबसे हाल में आया है । इससे पहले लैटिन अमेरिका, अफ़्रीका और पूर्वी एशिया के शेर इसके शिकार हो चुके हैं । इन नीतियों ने अफ़्रीका को एड्स का उपहार दिया । लैटिन अमेरिका धीरे धीरे इनके विरुद्ध ठोस राजनीतिक गोलबंदी का केंद्र बनता जा रहा है और क्यूबा की घेरेबंदी के अमेरिकी मंसूबों को धूल चटाते हुए एक के बाद दूसरा देश क्यूबा के नक्शे कदम पर चला जा रहा है । हमारा देश इससे सीख लेने की बजाय ऐसे रास्ते पर कदम बढ़ा चुका है जिसमें अंगरेजी राज में अकाल से हुई मौतों का दुहराव खेती के विनाश और किसानों की आत्महत्या में हो रहा है ।
यह कहना गलत होगा कि भारतीय शासक वर्ग ने किसी बाहरी दबाव के कारण इन नीतियों को अपनाया है । हमारे देश का शासक वर्ग द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नवस्वतंत्र देशों में सबसे परिपक्व था । बाकी सभी देशों में चुनावी लोकतंत्र की संस्थाएं दीर्घजीवी न हो सकीं । दबाव में वे किसी न किसी महाशक्ति के अतिनिकट होने को बाध्य हुए लेकिन भारत का लोकतंत्र एक हद तक स्थिर रहा है भले ही उसे कारगर अराजकता कहा जाये । लेकिन यह भी सही है कि इस लोकतंत्र का आधार कभी मजबूत नहीं हो सका । आम जनता ने जब कभी इसका स्वाद चखना चाहा उसकी आँखों से आंसू ही निकले । आजादी और लोकतंत्र दोनों का ही आधार मिश्रित अर्थव्यवस्था थी । इस अर्थव्यवस्था को अपनाने का कारण भले ही समाजवादी किस्म के समाज का निर्माण घोषित किया गया लेकिन सच्चाई यह है कि अधिसंरचना निर्मित करने की निजी पूँजीपतियों की अक्षमता के कारण राज्य ने यह दायित्व अपने ऊपर लिया । इस सरकारी निवेश का लाभ उठाकर जैसे ही निजी पूँजीपतियों ने अपनी अवस्था को सुधारा उन्होंने अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया ।
इस काम को अंजाम देने में दो ऐसे पूंजीपति सामने आये जो निजीकरण की सारी बुराइयों के साकार रूप हैं । इनमें एक थे धीरूभाइ अंबानी दूसरे थे सुब्रत राय सहारा । इनका विशाल आर्थिक साम्राज्य किसी उत्पादक गतिविधि की देन नहीं था बल्कि वित्तीय गतिविधि, खेलों के आयोजन तथा भूखण्डों की कीमतों में आये इजाफ़े पर निर्भर था । इन दोनों ने अखबार निकाले और मीडिया के असर का इस्तेमाल अपने व्यापारिक हितों के लिये किया तथा सरकारी कानूनों को अपने फ़ायदे के लिये लागू करवाया अथवा नहीं लागू करवाया ।
भूमंडलीकरण के लाभों का कीर्तन करने के लिए बुद्धिजीवियों को अनेक मानव मूल्यों को तिलांजलि देनी पड़ती है । शायद इसीलिए 'सार्वभौमिक नैतिकता’ की जगह ‘सापेक्षिक नैतिकता’ का ढोल पीटा जा रहा है । आउटसोर्सिंग को भारत के शुभ भविष्य का सूचक पुनः उपनिवेशीकरण की चिंता को दरकिनार करके ही बताया जासकता है । ‘सेक्स इंडस्ट्री’ को स्त्री मुक्ति का आख्यान भी बेशर्म होकर ही कहा जा सकता है । शायद ‘एम्पायर’ के लेखक अंतोनियो नेग्री की यह बात सही है कि तीसरी दुनिया के देशों में एक पहली दुनिया पैदा हो चुकी है । वरना क्या कारण है कि दक्षिण एशिया के सभी देशों के शासक अमेरिकी राष्ट्रपति के दरबार में सबसे बड़ी मनसबदारी पाने के लिये एक दूसरे को अपमानित होते देखकर प्रसन्न हो रहे हैं ।
भूमंडलीकरण ने हमारी अर्थव्यवस्था को स्टाक मार्केट के हवाले कर दिया है । लोगों के जीवन से स्थिरता को छीन लिया है । देश को मोबाइल और कंप्यूटर के कूड़ेदान में बदल डाला है । यही नहीं, उसने समूची मानवजाति से कर्ता होने का अहसास छीनकर उसे उपभोक्ता में बदल डाला है । शिक्षा के क्षेत्र में इसने परिणामवाद के दर्शन को स्थापित किया है और उसके व्यवसायीकरण को बढ़ावा दिया है । गरीबों के व्यस्थित हाशियाकरण से उपजे विक्षोभ के प्रबंधन के लिये नागरिक समाज के नाम पर एनजीओ संगठनों को आदर्श के बतौर पेश कर उन्हें सीधे विदेशी आर्थिक मदद उपलब्ध कराई जा रही है ।
कोई कह सकता है कि ये परिवर्तन भारतीय समाज के पारम्परिक ढाँचे को तोड़ देंगे और उस पर आधारित शोषण दमन भी खत्म हो जायेगा लेकिन अतीत के अनुभव यही बताते हैं कि ऐसे परिवर्तन पहले से मौजूद ढाँचे को तोड़ने की जगह उसे पुनर्जीवन ही प्रदान करते आये हैं ।
औपनिवेशिक दौर से इस दौर की भिन्नता इस बात में जरूर है कि साम्राज्यवाद का विरोध पहले के मुकाबले अधिक सार्वदेशिक हुआ है । हमारे देश में भी उसके प्रशंसकों की तादाद फिलहाल ज्यादा है लेकिन जैसे जैसे इसके प्रभाव प्रत्यक्ष होंगे भारत भी लैटिन अमेरिकी देशों की राह पर आगे बढ़ेगा ।