Friday, December 6, 2024

मार्क्स की गणतांत्रिकता

 


                                                       गोपाल प्रधान

2024 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से ब्रूनो लेइपोल्ड की किताब ‘सिटिजेन मार्क्स: रिपब्लिकनिज्म ऐंड द फ़ार्मेशन आफ़ कार्ल मार्क्स’ सोशल ऐंड पोलिटिकल थाट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि वे इस विषय पर बहुत समय से सोचते और लिखते आ रहे हैं । जब भी लगा कि बात समाप्त हो गयी है तभी कोई ऐसा पहलू खुल गया जिस पर पहले निगाह नहीं पड़ी थी । मार्क्स के साथ गणतंत्र की धारणा इतना जुड़ी हुई है कि उसकी समाप्ति समझ ही नहीं आती । जैसे जैसे वे इस काम में आगे बढ़े उन्हें लगा कि मार्क्स के चिंतन और राजनीतिक जीवन को गणतांत्रिकता ने निर्णायक रूप से प्रभावित किया है । पूंजीवाद के सामाजिक दबदबे की उनकी आलोचना का रिश्ता गणतांत्रिक मुक्ति से है और वे मानते थे कि लोकतांत्रिक गणतांत्रिक राजनीतिक संस्थाओं के जरिये ही इस दबदबे पर विजय पायी जा सकती है । इस बात को बहुधा समझा नहीं जाता कि सामूहिक स्वामित्व के लक्ष्य को इसके साथ जोड़कर मार्क्स ने अपने गणतांत्रिक कम्युनिज्म को तत्कालीन राजनीति विरोधी समाजवाद और गणतंत्र विरोधी कम्युनिज्म से अलगा लिया था । मार्क्स के चिंतन को इस संदर्भ में अवस्थित करने से राजनीति, लोकतंत्र और स्वाधीनता के प्रति उनकी निष्ठा को समझा जा सकता है । मार्क्स के विरोधी तो उनके इस पहलू पर परदा डालते ही हैं, उनके समर्थक भी इसका जिक्र नहीं करते । इसी वजह से इस किताब के लेखक को वर्तमान के सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों के लिहाज से मार्क्स की गणतांत्रिक प्रतिबद्धता को समझना बेहद जरूरी लगता है ।

मार्क्स की इस तरह की पढ़ाई के उदाहरण के लिए वे युवा मार्क्स के बारे में अपने शोध निर्देशक डेविड लियोपाल्ड की किताब का जिक्र करते हैं जिन्होंने साबित किया कि अगर मार्क्स के अबूझ लेखन को भी सावधानी के साथ सही संदर्भ में विश्लेषित किया जाए तो उन्हें तत्कालीन बहसों में ठोस राजनीतिक हस्तक्षेप की तरह देखा और समझा जा सकता है । गणतंत्रवाद कोई सिद्धांत ही नहीं था बल्कि ऐसा क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन था जिसके नेता अपने आदर्शों के लिए जीने मरने को तैयार थे । गणतांत्रिक समाजवाद से पूंजीवाद और राजनीतिक अर्थशास्त्र का संबंध भी इसी दौरान लेखक को समझ आया ।

1850 के नवम्बर में चार्टिस्टों के अखबार द रेड रिपब्लिकन ने पहली बार कम्युनिस्ट घोषणापत्र का अंग्रेजी अनुवाद छापा । इसके लेखक मार्क्स और एंगेल्स को उस समय के क्रांतिकारियों में प्रचलित चलन के मुताबिक सिटिजेन कहा गया था । यह क्रांतिकारी दस्तावेज दो साल पहले यूरोप व्यापी क्रांतिकारी लहर की पूर्वसंध्या पर सामने आया था । अंग्रेजी अनुवाद हेलेन मैकफ़ार्लेन ने किया था । वे स्काटलैंड की नारीवादी समाजवादी थीं और इस अखबार में हावर्ड मोर्टन नामक पुरुष छद्मनाम से लेख लिखती थीं । मार्क्स से उनका परिचय लंदन के क्रांतिकारी प्रवासी समूहों के जरिये था । उनके अनुवाद से उपजी बहस के आलोक में सैमुएल मूर ने एंगेल्स की देखरेख में 1888 में जो अनुवाद किया उसे ही मानक समझा जाता है । इसके बावजूद मैकफ़ार्लेन के अनुवाद को देखना सुखकर है । वे इसके माध्यम से अंग्रेजी में नयी सामाजिक राजनीतिक शब्दावली ले आयीं । सर्वहारा और उजरती गुलाम का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया था । लम्पट सर्वहारा को भीड़ कहा गया था । पेट्टी बुर्जुआ (निम्न पूंजीपति) को दूकानदार कहा गया था ।

इस अखबार में अनुवाद का प्रकाशन मार्क्स और एंगेल्स की स्वाभाविक प्राथमिकता थी । इसके पीछे चार्टिस्ट आंदोलन के प्रति सम्मान का भाव तो था ही इस अखबार में समाजवादी आलोचना के साथ गणतंत्रवाद का मेल भी इसकी बड़ी वजह था । इसमें सामाजिक के साथ राजनीतिक मांगों को भी जगह मिलती थी । जनता की हालत में सुधार से पहले वह राजनीतिक सुधार को जरूरी मानता था । इस तरह वह राजनीति विरोधी समाजवादियों की धारा से अलग था । इस धारा में ब्रिटेन के ओवेनपंथी और सेंट साइमन के फ़्रांसिसी अनुयायी थे । इनके बारे में मैकफ़ार्लेन ने लिखा कि राजनीति से इनके परहेज का मतलब कि ये लोग अपने सामाजिक सिद्धांत को कभी व्यवहार में नहीं लागू कर सकेंगे । उनके साथी हार्नी का कहना था कि लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्थाओं को संपत्तिशाली वर्गों के हमले का खतरा हमेशा रहेगा । मसलन मतदान को ज्यों ही गरीबों की रक्षा का उपाय बनाने की कोशिश की जायेगी त्यों ही शासक वर्ग मताधिकार को उलट देने का प्रयास करेंगे । इसी कारण प्रातिनिधिक निकाय, सार्वभौमिक मताधिकार, प्रेस की आजादी या कानून के मुताबिक मुकदमा जैसे अधिकार सामाजिक बदलाव के बिना व्यर्थ साबित होंगे । ये सामाजिक बदलाव ही समाज की संप्रभुता को बरकरार रख सकते हैं । तात्पर्य की सामाजिक गुलामी के साथ राजनीतिक आजादी किसी हाल में नहीं चल सकती ।

इस अखबार में सामाजिक और राजनीतिक का यह मेल परिलक्षित होता था । गणतांत्रिकता तो खुद ही खतरनाक थी उसके साथ रेड को जोड़ देने से अखबार पर्याप्त विध्वंसक समझा जाने लगा था । अखबारों के विक्रेता इसे बेचने से परहेज करते थे । आगे चलकर दंड की सम्भावना से बचने के लिए हार्नी ने इसका नाम बदलकर फ़्रेंड्स आफ़ द पीपुल कर दिया । पुराने नाम से आखिरी अंक नवम्बर अंत में छपा जिसमें घोषणापत्र के इस अनुवाद की अंतिम किस्त भी थी । इसके साथ ही रिपब्लिकन सिद्धांत शीर्षक लेख भी अखबार में था जिसके लेखक विलियम जेम्स लिंटन चार्टिस्ट थे और मैज़िनी के साथ दोस्ती की वजह से लंदन के क्रांतिकारियों में मशहूर थे । मैज़िनी को उस समय यूरोप का सबसे मशहूर गणतंत्रवादी माना जाता था । लिंटन ने ही रेड रिपब्लिकन के मुखपृष्ठ पर छपने वाली तस्वीर बनायी थी जिसमें समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व भी लिखा था । वे मैज़िनी द्वारा स्थापित उस संगठन से जुड़े हुए थे जिसका मकसद यूरोप की विफल क्रांतियों के बाद लंदन में शरण लिये यूरोपीय गणतंत्रवादियों की कार्यवाहियों का समन्वय करना था । रिपब्लिकन सिद्धांत वाले लेख में उन्होंने खुद को मिल्टन और क्रामवेल का देशवासी कहा था आसान भाषा में सिद्धांत का प्रचार करके रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना करने का इच्छुक बताया था । मार्क्स एंगेल्स ने भी घोषणापत्र का मकसद कुछ ऐसा ही बताया था । इस तरह लिंटन और मार्क्स एंगेल्स ने एक ही जगह एक साथ गणतांत्रिकता और कम्युनिज्म के सिद्धांत प्रसारित करने का प्रयास किया था । दोनों को साथ साथ पढ़ने पर दोनों परम्पराओं में अंतर का पता चलता है ।

लिंटन के लेख में समता और स्वतंत्रता के साथ मानवता का उल्लेख था जिसे वे बंधुत्व के मुकाबले व्यापक समझते थे । इसके मुकाबले मार्क्स एंगेल्स के घोषणापत्र की शुरुआत पूंजीवाद के उदय से हुई थी जो अपने उत्पाद हेतु बाजार की लगातार बढ़ती जरूरत के चलते समूची दुनिया की खाक छानता है । लिंटन के लेख में ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की आलोचना हुई थी जिसमें एक ओर उत्पीड़क और दूसरी ओर गुलाम हैं । दूसरी ओर घोषणापत्र में पूंजी के आधिपत्य में श्रम की आधुनिक गुलामी की प्रचंड आलोचना थी । इस निरंकुश व्यवस्था में सर्वहारा न केवल समूचे पूंजीपति वर्ग का गुलाम होता है बल्कि प्रतिदिन घंटे दर घंटे अलग अलग पूंजीपति की गुलामी भी उसे करनी पड़ती है । लिंटन ने मुक्ति के लिए सभी वर्गों के नियमित और संगठित सहयोग को आवश्यक बताया था वहीं घोषणापत्र में सर्वहारा को पूंजीवाद के सभी वर्तमान विरोधियों के मुकाबले एकमात्र सच्चा क्रांतिकारी वर्ग बताया गया था । लिंटन ने गणतंत्रों के सार्वभौमिक संघ में एकताबद्ध स्वतंत्र देशों की व्यवस्था का पक्ष लिया था तो घोषणापत्र में सर्वहारा के किसी देश न होने और राष्ट्रीय विभाजनों तथा वैमनस्य के खात्मे का सपना था ।

इन अंतरों के बावजूद घोषणापत्र में मौजूद समानता को भी देखना जरूरी है । मजदूरों की सामाजिक निर्भरता की बात पर जोर देने के साथ ही घोषणापत्र में पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था की गुलामी की भी बात की गयी थी और सर्वहारा क्रांति के पहले कदम के बतौर लोकतंत्र हासिल करने की रणनीति सुझायी गयी थी । ऐसा सर्वहारा में राजनीतिक आंदोलन का विरोध करने वाले समाजवाद के सभी रूपों के विपरीत किया गया था । लिंटन ने भी राजनीतिक आलोचना तक ही सीमित रहने के मुकाबले उजरती गुलामी और कारखाने की गुलामी का जिक्र किया था और इसकी समाप्ति को सरकार का दायित्व बतायाया था । इन दोनों के सामाजिक कार्यक्रमों में भी बहुतेरी समानताएं देखी जा सकती हैं । लिंटन ने तीन बुनियादी हकों की बात की थी । भूमि के राष्ट्रीकरण के जरिये जमीन तक सबकी पहुंच, मुफ़्त शिक्षा और मुफ़्त कर्ज उनके कार्यक्रम में थे । ये तीनों बातें घोषणापत्र के दस सूत्री मांगपत्र में शामिल थीं ।

इन दोनों कार्यक्रमों में अंतर निजी संपत्ति के सवाल पर पैदा हुआ । लिंटन ने निजी संपत्ति के खात्मे की कम्युनिस्ट मांग का विरोध किया । उनका तर्क था कि निजी संपत्ति की संस्था अनिवार्य तौर पर वाहियात नहीं है । मुट्ठी भर लोगों के पास उसका होना समस्या नहीं है । असल समस्या बहुतेरे लोगों के पास उसका न होना है । दूसरी ओर मार्क्स एंगेल्स ने निजी संपत्ति मात्र के मुकाबले बुर्जुआ संपत्ति के उन्मूलन की बात की । यह संपत्ति उजरती श्रम के शोषण पर आधारित है । इसी संपत्ति के उन्मूलन को वे निजी संपत्ति का उन्मूलन कहते थे । लिंटन और उनके समर्थक उस निजी संपत्ति पर लोगों का हक मानते थे जिसे कमाने में उन्होंने मेहनत की है लेकिन साथ ही राज्य की जिम्मेदारी मानते थे कि देश के बैंकर के बतौर वह प्रत्येक व्यक्ति को काम के लिए भौतिक साधन और पूंजी उपलब्ध कराए । कामगार को मुफ़्त कर्ज और मुफ़्त जमीन उपलब्ध कराने का अर्थ उसका स्वतंत्र होकर काम करना और पूंजीपति नामक दुष्ट बिचौलिये से मुक्ति पाना है । मार्क्स और एंगेल्स ऐसी योजनाओं को छोटे दूकानदार, छोटेव्यापारी और लघु किसान की संपत्ति बचाने की हताश कोशिश मानते थे जिसे औद्योगिक पूंजीवाद प्रतिदिन नष्ट कर रहा है । उनका मानना था कि स्वतंत्र दस्तकार और किसान अर्थतंत्र को फिर से स्थापित करने का प्रयास बड़े पैमाने के पूंजीवादी उद्योग के समक्ष हताशापूर्ण है । ये कोशिशें इतिहास की गति को पीछे ले जाने के अर्थ में प्रतिक्रियावादी भी होती हैं । इसके बजाय व्यक्तिगत संपत्ति की दुनिया में वापसी की जगह कम्युनिस्ट पूंजीवाद की उत्पादक क्षमता की उपलब्धियों की बुनियाद पर नयी इमारत खड़ी करेंगे । इसके लिए वे राज्य के हाथों में उत्पादन के उपकरणों को समूहबद्ध करेंगे । पहले तो वे उत्पादन के साधनों का सामूहिक स्वामित्व राज्य के जरिए ही करने के हामी थे लेकिन बाद में उन्हें सहकारिता में भी यह सम्भावना नजर आयी । उनका मानना था कि  इससे सर्वहारा की सामाजिक निर्भरता समाप्त होगी और पूंजी की सत्ता नष्ट होगी । इस तरह गणतंत्रवादियों और मार्क्सवादियों में मतभेद इस बात पर था कि छोटे स्तर के स्वतंत्र उत्पादकों की निजी संपत्ति को सार्वजनिक स्वामित्व में लाया जायेगा या पूंजीवादी निजी संपत्ति का उन्मूलन करके साझा स्वामित्व स्थापित होगा ।

उन्नीसवीं सदी में इस तरह के प्रतिस्पर्धी सामाजिक राजनीतिक सपनों में टकराव तो होता था लेकिन उनके बीच आपसी संवाद, राजनीतिक सहकार और बौद्धिक मेल के अवसर भी उपलब्ध थे । रेड रिपब्लिकन में लिंटन के लेख और घोषणापत्र का एक साथ छपना इस बात का सबूत है कि दोनों व्यापक संघर्ष में क्रांतिकारी लक्ष्य हेतु मजदूर वर्ग का समर्थन हासिल करना चाहते थे । उपर्युक्त घटना मार्क्स के सामाजिक राजनीतिक चिंतन में गणतांत्रिकता की केंद्रीय भूमिका का महज एक उदाहरण है । असल में उनकी समूची चेतना इससे आप्लावित रही है । लेनिन ने जब मार्क्स के चिंतन के तीन स्रोतों का उल्लेख किया तो उसमें कुछ प्रभावों की अनदेखी हो गयी । मसलन बेल्जियम में मार्क्स के तीन साल के प्रवास के प्रभाव को भुला दिया गया । उसमें अलग अलग देशों को किसी एक क्षेत्र से जोड़ दिया गया । मसलन ब्रिटेन के राजनीतिक अर्थशास्त्र का उल्लेख तो हुआ लेकिन उसके समाजवाद की परम्परा का जिक्र नहीं किया गया । लेखक का कहना है कि इसी तरह यूरोपीय गणतांत्रिक प्रभाव को भी शामिल करना होगा ।

प्रभाव का विवेचन करने के लिए लेखक का कहना है कि इसे केवल सहमति में नहीं देखना चाहिए । इसकी जटिलता को समझने के लिए सम्पूर्ण स्वीकार या नकार से बचना होगा । इसके लिए लेखक ने इंटरनेशनल की बैठकों में मार्क्स और एंगेल्स द्वारा गणतांत्रिकता के बारे में व्यक्त विचारों का अध्ययन किया । उनका कहना है कि मार्क्स ने अपने विचारों के विकास हेतु गणतांत्रिकता का सकारात्मक निषेध भी किया । मार्क्स ने राजनीति विरोधी समाजवाद के उत्तर में गणतांत्रिक विचारों को अपना बना लिया और उससे विकसित कम्युनिज्म का उपयोग कम्युनिस्ट विरोधी गणतांत्रिकता से लड़ने में किया । गणतांत्रिकता की सोच और आंदोलन से मार्क्स ने अपने कम्युनिज्म का विकास किया ।

गणतांत्रिकता के साथ मार्क्स के संबंध उनके जीवन में एक समान नहीं रहे । ये रिश्ते तीन प्रमुख चरणों में विकसित हुए हैं । इनमें से पहले चरण की शुरुआत 1842 में मार्क्स के पत्रकारी राजनीतिक जीवन की शुरुआत के साथ होती है । उस समय वे निरंकुश शासन की समाप्ति और लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना के पक्षधर थे । तब जनता की सम्प्रभुता की प्रतिष्ठा के लिए वे नागरिकों के जन प्रशासन की वकालत करते थे जिसमें प्रतिनिधियों पर जनादेश के जरिये अंकुश लगाने का प्रावधान था । इसके बाद धीरे धीरे 1843-44 में वे कम्युनिज्म की ओर आये । दूसरा चरण तबसे लेकर 1848 की क्रांतियों तक का है । इस चरण में मार्क्स ने एक ओर उन्होंने गणतांत्रिक आंदोलन की सीमाओं की आलोचना की तो दूसरी ओर सत्ता की मनमानी के गणतांत्रिक विरोध को पूंजीवाद की सामाजिक आलोचना में समाहित भी किया । अपनी राजनीति में उन्होंने लोकतांत्रिक गणराज्य के प्रति निष्ठा जाहिर किया । इस दौरान राजनीति के बारे में विकसित उनके क्रांतिकारी विचारों का राजनीतिक भागीदारी के लिहाज से दूरगामी महत्व है । तीसरा चरण 1871 के पेरिस कम्यून का है । इस दौर में कानून बनाने और प्रशासन के मामले में जनता के व्यापक नियंत्रण की धारणा वापस लौटकर आयी । इसे उन्होंने कम्युनिज्म को साकार करने के लिए अनिवार्य माना । इस दौर में उनकी शुरुआती गणतांत्रिकता और परवर्ती कम्युनिज्म का सहमेल स्थापित हो जाता है ।                                                                                 

 

Monday, December 2, 2024

फिर फिर नवउदारवाद

 

             

                                

पिछले तीस सालों से अधिक समय से हम सभी जिस माहौल में रह रहे हैं उसके भयावह नतीजे अब प्रत्यक्ष हैं । यह समय सोच विचार की दुनिया में बहुत ही विवाद का रहा । उदाहरण के लिए इसके साथ जुड़े वैश्वीकरण पर शुरू से ही संदेह उठाया जाता रहा । यहां तक कि निजीकरण की प्रकृति पर भी सवाल उठते रहे । बहरहाल इस दौर की परिणति की अनुभूति तेजी से बढ़ रही है । युद्ध, अनिश्चय और तबाही की अनुगूंजें हवाओं में व्याप्त हैं । ऐसे में एक सोच के मुताबिक नवउदारवाद का दौर अब समाप्त हो चला है । इसके साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि जो कुछ हो रहा है वह नवउदारवाद का ही प्रसार है । स्पष्ट है कि इस दौर का जायजा लेने का सही समय आ चुका है । नवउदारवाद नामक इस परिघटना के भीतर आर्थिकी से लेकर संस्कृति तक बहुत कुछ आता है इसलिए उनका भी निदर्शन आवश्यक हो जाता है ।

नवउदारवाद के साथ तमाम तरह की पुरानी विषमताओं की वापसी हुई है इस तथ्य को उजागर करते हुए 1999 में वेस्टव्यू प्रेस से एडोल्फ़ रीड जूनियर के संपादन में विदाउट जस्टिस फ़ार आल: न्यूलिबरलिज्म ऐंड आवर रिट्रीट फ़्राम रेशियल इक्वलिटीका प्रकाशन हुआ संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल बारह लेख पांच भागों में हैं । पहले भाग के लेखों में नस्ल और विषमता के सिलसिले में उभरी नई कट्टरता का जिक्र है । दूसरे भाग के लेख नस्ल, विचारधारा और नीति निर्माण के बारे में खोखली बातों का रहस्य भेदन करते हैं । तीसरे भाग में नस्लवाद विरोधी सरकारी नीति पर हमलों और विचारधारा का विश्लेषण किया गया है । चौथे भाग में अश्वेत समायोजन की नई लहर का विवेचन है । पांचवें भाग में सारी बातों का समाहार प्रस्तुत किया गया है । संपादक की राय है कि 1980 दशक में रीगनवाद की सफलता से उत्साहित होकर समूचे 1990 के दशक में अमेरिकी राजनीति में दक्षिणपंथी झुकाव आया तथा उदारवादी तत्वों ने इसे मजबूरी मान लिया । जनता से उनकी दूरी बढ़ती गयी और उन्हें खास हितों का हिमायती माना जाने लगा । कहा जाने लगा कि हाशिये के अपने समर्थकों से दूरी बनाने और मुख्य धारा के मतदाता के पास जाने की जरूरत है । मुख्य धारा का यह मतदाता खाता पीता गोरा पुरुष था । जो डेमोक्रेटिक पार्टी 1960 के दशक के बाद से ही वाम उदार राजनीति का स्वाभाविक केंद्र समझी जाती थी उसके भीतर इस विचार ने जड़ जमा लिया ।

आज भले ही नवउदारवाद के साथ चरम दक्षिणपंथी राजनीति को जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन कभी इसे नव सामाजिक आंदोलन के साथ उपजी राजनीतिक धारा के साथ भी जोड़ा गया था । सबूत के तौर पर 2000 में मैकमिलन से देव टोक की किताबग्रीन पोलिटिक्स ऐंड नियो-लिबरलिज्मका प्रकाशन हुआ ।

नवउदारवाद के साथ दुनिया में जो बदलाव आये उनमें से एक नगरीकरण की नयी लहर का उदय भी था । इस लहर की विशेषताओं को नगरों के कुलीनीकरण (जेंट्रीफ़िकेशन) की प्रक्रिया कहा गया । इस दौर की विशेषता बताते हुए 2002 में ब्लैकवेल पब्लिशिंग से नील ब्रेन्नेर और निक थियोडोर के संपादन मेंस्पेसेज आफ़ नियोलिबरलिज्म: अर्बन रिस्ट्रक्चरिंग इन नार्थ अमेरिका ऐंड वेस्टर्न यूरोपका प्रकाशन हुआ संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब में तीन भाग हैं पहले भाग के चार लेखों में नवउदारवाद के शहरीकरण की सैद्धांतिकी पर विचार किया गया है दूसरे भाग में भी चार ही लेख हैं जिनमें शहर और राज्य की पुनर्संरचना के रास्तों और उनसे पैदा होनेवाले अंतर्विरोधों का विवेचन है तीसरे भाग में तीन लेख हैं जिनमें सत्ता, बहिष्करण और अन्याय के नए भूगोल को समझने की कोशिश की गयी है

इसे पूंजीवाद के नये हमले के बतौर देखने के अनुरोध के साथ 2004 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जेरार्ड ड्यूमेनिल और डामीनिक लेवी की फ़्रांसिसी किताब का अंग्रेजी अनुवादकैपिटल रिसर्जेन्ट: रूट्स आफ़ नियोलिबरल रेवोल्यूशनशीर्षक से प्रकाशित हुआ अनुवाद डेरेक जेफ़र्स ने किया है लेखक का मानना है कि सत्तर और अस्सी के दशक में पूंजीवाद में जो बदलाव आया उसे बताने के लिए नवउदारवाद शब्द का प्रयोग किया जाता है । अमेरिका ने फैसला किया था कि मुद्रास्फीति से लड़ने के लिए वह ब्याज दर की बढ़ोत्तरी पर कोई रोक नहीं लगाएगा लेकिन पूंजी के हिंसक उभार के इस दौर को परिभाषित करने वाले अनेक फैसलों में से वह एक फैसला था । दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर सत्तर दशक के अंत तक का समय कीन्सीय अर्थशास्त्र, पूर्ण रोजगार, सामाजिक कल्याण, शिक्षा और सेहत की सार्वत्रिक सुलभता का समय विकसित समाजों में था । पूंजीवाद की चुनौतियों को हल करने और समाजवाद से लड़ने के लिए उन नीतियों की तात्कालिक जरूरत थी । नवउदारवाद ने इसी व्यवस्था को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नष्ट करने का बीड़ा उठाया ताकि पूंजीवाद के स्वाभाविक नियमों की एक बार फिर से प्रतिष्ठा हो सके ।

2005 में डेविड हार्वे की किताब ब्रीफ़ हिस्ट्री आफ़ नियोलिबरलिज्मका प्रकाशन आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से हुआ फिर 2007 में इसका पेपरबैक संस्करण छपा किताब में मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रीगन से शुरू करके चीन तक इसके प्रसार की कथा कही गई है वे बताते हैं कि 1978-80 के साल भविष्य के इतिहासकारों की नजर में दुनिया के समाजार्थिक हालात में क्रांतिकारी बदलाव के साल दिखेंगे दुनिया की आबादी के पांचवें हिस्से कम्युनिस्ट शासनवाले देश में 1978 में देंग शियाओ पिंग ने उदारवाद की राह पकड़ी आगामी दो दशकों तक चीन रूपांतरण के इसी रास्ते पर अभूतपूर्व विकास दर के साथ चलता रहा 1979 में अमेरिका के रिजर्व बैंक के नए गवर्नर ने कार्यभार ग्रहण किया और कुछ ही महीनों में देश की मौद्रिक नीति को बदल डाला मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए बेरोजगारी को भी बर्दाश्त किया गया इसी साल ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर प्रधानमंत्री बनीं उन्हें ट्रेड यूनियनों की ताकत को ध्वस्त करने और मुद्रास्फीति जनक ठहराव पर काबू पाने का मतादेश मिला था अगले साल अमेरिका में रोनाल्ड रीगन का चुनाव राष्ट्रपति पद पर हुआ और उन्होंने रिजर्व बैंक की नीतियों को खुला समर्थन देना शुरू किया इसके साथ ही मजदूरों की ताकत को कम करने, उद्योगों, खेती और संसाधनों के दोहन पर नियम कायदे कमजोर करने तथा देश और दुनिया के स्तर पर वित्त की सत्ता को आजाद करनेवाली नीतियों को आक्रामक तरीके से लागू किया जाने लगा इन्हीं केंद्रों से इस क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत हुई जिसने चारों ओर फैलकर दुनिया की पूरी तरह से नई तस्वीर बना दी हार्वे का कहना है कि इतने बुनियादी बदलाव संयोग से नहीं होते इसलिए उस प्रक्रिया को समझना जरूरी है जिसके सहारे पुरानी दुनिया में से वैश्वीकरण की यह नई दुनिया पैदा हुई देंग शियाओ पिंग, थैचर और रीगन ने उन विचारों को लोकप्रिय बना दिया जिनकी मान्यता मुट्ठी भर लोगों के बीच सीमित थी हालांकि यह काम बिना किसी बाधा के नहीं संपन्न हुआ

इसके बाद वे नवउदारीकरण को समझने की कोशिश करते हैं इसे वे खास तरह का राजनीतिक अर्थतांत्रिक व्यवहार बताते हैं जिसमें माना जाता है कि निजी संपत्ति, मुक्त बाजार और मुक्त व्यापार के मजबूत सांस्थानिक ढांचे में लोगों की स्वतंत्र उद्यमशीलता को खोल देने से ही मानव जीवन में खुशहाली लाई जा सकती है सरकारों का काम इसी ढांचे को बनाना और टिकाए रखना है राज्य को मुद्रा की गुणवत्ता और विश्वसनीयता बनाए रखनी होगी उसे निजी संपत्ति के अधिकारों और बाजार के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक सेना, सुरक्षा, पुलिस और कानून-अदालत का इंतजाम भी करना होगा जमीन, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा या पर्यावरण प्रदूषण जैसे जिन क्षेत्रों में बाजार नहीं है वहां भी जरूरी कदम उठाकर खरीद बिक्री का बाजार स्थापित करना भी राज्य की जिम्मेदारी होगी इन कामों के अलावे अन्य किसी काम में राज्य को हाथ नहीं डालना चाहिए बाजार के संचालन में तो राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिए क्योंकि उसके पास बाजार संबंधी सूचनाओं का अभाव होता है और लोकतांत्रिक शासन पद्धति में तो मजबूत स्वार्थी समूहों द्वारा राज्य पर पूर्वाग्रही हस्तक्षेप का दबाव डालने की आशंका बनी रहेगी

1970 दशक के बाद से राजनीतिक आर्थिक आचरण में सर्वत्र स्पष्ट नवउदारवादी झुकाव लक्षित किया जाने लगा विनियमन, निजीकरण और तमाम सामाजिक क्षेत्रों से राज्य की वापसी रोजमर्रा की बात हो गई सभी देशों ने स्वेच्छा से या दबाव के चलते इस नवउदारवादी मंत्र के किसी किसी रूप को अपनाया और तदनुसार अपनी नीतियां बनाईं नवस्वाधीन दक्षिण अफ़्रीका और चीन ने भी इसी रास्ते पर कदम बढ़ाए नवउदारवाद के पैरोकारों ने शिक्षा में, मीडिया में, राजकीय संस्थानों में और वैश्विक वित्त तथा व्यापार को नियंत्रित करनेवाले अंतर्राष्ट्रीय निकायों में महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा जमाया कुल मिलाकर नवउदारवाद वर्चस्वशील विमर्श बन गया हम सबके सोचने के तरीके में इसका प्रसार इस कदर हो गया है कि दुनिया में रहने और उसे समझने के हमारे सहजबोध का लगभग अंग बन गया है

बहरहाल नवउदारीकरण की प्रक्रिया में पुराने सांस्थानिक ढांचों और शक्तियों का निर्माणोन्मुख ध्वंस तो होना ही है, इसके साथ ही श्रम विभाजन, सामाजिक संबंधों, कल्याणकारी प्रावधानों, तकनीकी मिलावटों, जीने और सोचने के तरीकों, पुनरुत्पादक गतिविधियों, जमीन से लगाव और दिल की आदतों के मामले में भी काफी टूट फूट होनी है नवउदारवाद बाजार विनिमय को सबसे बड़ी नैतिक शक्ति मानता है और इसीलिए वह बाजार में कायम संविदा परक संबंधों के महत्व पर जोर देता है इसका कहना है कि बाजार आधारित लेनदेन के बढ़ने के साथ ही सामाजिक कल्याण का भी विस्तार होगा इसलिए वह समस्त मानवीय गतिविधि को बाजार में ले आना चाहता है इसके लिए सूचना निर्माण और भारी आंकड़ों के संग्रह, भंडारण, स्थानांतरण, विश्लेषण और उपयोग में सक्षम तकनीक की जरूरत पड़ेगी ताकि विश्व बाजार में होनेवाले फैसलों को सही दिशा दी जा सके इसीलिए नवउदारवाद में सूचना तकनीक पर इतना जोर दिया जाता है इन तकनीकों ने बाजार आधारित भारी लेन देन में समय और दूरी को काफी घटा दिया है

वैश्विक बदलावों और उनके प्रभावों के बारे में काफी कुछ लिखा गया है लेकिन नवउदारवाद के उदय और विस्तार की राजनीतिक आर्थिक कहानी आम तौर पर कम मिलती है किताब में इसी कहानी को साफ करने की कोशिश की गई है हार्वे को लगता है कि इस कहानी को समझने से शायद वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था के बारे में सोचना सम्भव हो सकेगा

2005 में ही प्लूटो प्रेस से अल्फ़्रेड साद-फ़िल्हो और डेबोरा जान्सटन के संपादन मेंनियो-लिबरलिज्म: क्रिटिकल रीडरका प्रकाशन हुआ संपादकों की भूमिका के अलावे किताब तीन खंडों में बांटी गई है । पहले में नवउदारवाद की सैद्धांतिकी के सिलसिले में सात विद्वानों के लेख संग्रहित हैं । दूसरे खंड में दुनिया और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में इसके अनुप्रयोग का विश्लेषण करते हुए चौदह लेख संग्रहित हैं । तीसरे खंड में अलग अलग मुल्कों में इसके अनुभव का जायजा लेते हुए नौ लेख शामिल किये गये हैं किताब इस परिघटना को समझाने के लिहाज से तैयार की गयी है

अगले साल तक इस परिघटना के साथ बाजार का रिश्ता अच्छी तरह से समझ में आने लगा । इस वजह से भी 2006 में पालग्रेव मैकमिलन से रिचर्ड रोबिन्सन के संपादन मेंद नियो-लिबरल रेवोल्यूशन: फ़ोर्जिंग द मार्केट स्टेटका प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल तेरह लेखों को चार भागों में संयोजित किया गया है । पहले भाग के दो लेखों में इस नयी धारणा को स्पष्ट किया गया है । दूसरे भाग के पांच लेखों में क्रमश: चिली के जरिए लैटिन अमेरिका, रूसी गणराज्य, इंडोनेशिया और दक्षिण पूर्व एशिया, अफ़्रीकी महाद्वीप और चीन में नवउदारवाद के हिसाब से कायम राजकाज का परीक्षण किया गया है । तीसरे भाग के तीन लेखों में नवउदारवादी खेमे के अंदरूनी टकरावों का विवेचन किया गया है । तीसरे भाग में भी तीन ही लेख हैं जिनमें इस व्यवस्था का भविष्य समझने की कोशिश की गयी है ।

इस नयी धारणा ने पूरी दुनिया के वातावरण को अनेक स्तरों पर प्रभावित किया । 2007 में ब्लैकवेल पब्लिशिंग से किम इंग्लैंड और केविन वार्ड के संपादन मेंनियोलिबरलाइजेशन: स्टेट्स, नेटवर्क्स, पीपुल्सशीर्षक किताब का प्रकाशन हुआ किताब तीन भागों में बंटी हुई है संपादकों ने शुरू में तो एक भूमिका लिखी ही है, प्रत्येक भाग की भी भूमिका लिखी है पहला भाग मुख्य धारा के आर्थिक विकास और उसके विकल्पों की तलाश पर केंद्रित है इस भाग के दो लेखों में क्रमश: एशिया प्रशांत और नेपाल के अनुभवों पर विचार किया गया है दूसरा भाग सरकारों और बाजारों में मध्यस्थों की भूमिका का विवेचन है इसके तीन लेखों में क्रमश: नवउदारवाद के भूमंडलीय प्रसार में निवेश प्रोत्साहन की होड़ पैदा करनेवाले एजेंटों, वितरण के क्षेत्र में अस्थायी कर्मचारियों की मौजूदगी की परिघटना और अर्जेंटिना के विशेष अनुभव पर बात की गई है अंतिम तीसरे भाग में सरकारों की सक्रियता पर विचार किया गया है इस भाग के चार लेख हैं जिनमें नवउदारवाद की विविध छवियों पर प्रकाश डाला गया है

2008 में एडिनबरा यूनिवर्सिटी प्रेस से राचेल एस टर्नर की किताबनियो-लिबरल आइडियोलाजी: हिस्ट्री, कांसेप्ट्स ऐंड पोलिटिक्सका प्रकाशन हुआ । किताब नवउदारवाद को समझने के लिए एक सुबोध सहायक की तरह तैयार की गयी है ।

2009 में रटलेज से रूथ ब्लैकली की किताबस्टेट टेररिज्म ऐंड नियोलिबरलिज्म: द नार्थ इन द साउथका प्रकाशन हुआ । अचानक इस बात की ओर ध्यान नहीं जाता कि सरकारी आतंकवाद और नवउदारवाद का कोई आपसी रिश्ता भी हो सकता है लेकिन किताब इसी सहकालिकता को उजागर कर देती है । दक्षिणी गोलार्ध में हस्तक्षेप को किताब ने ठीक ही आतंकवाद की संज्ञा दी है ।

विचारों की दुनिया में नवउदारवाद के आगमन और प्रमुखता प्राप्त करने की प्रक्रिया को खोलते हुए 2009 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से फिलिप मिरोवस्की और डाइटर प्लेवे के संपादन मेंद रोड फ़्राम मोंत पेलेरिन: द मेकिंग आफ़ द नियोलिबरल थाट कलेक्टिवका प्रकाशन हुआ । भूमिका डाइटर प्लेवे और उपसंहार फिलिप मिरोवस्की ने लिखा है । इसके अतिरिक्त किताब में तीन हिस्से हैं । पहला हिस्सा विभिन्न राष्ट्रों में नवउदारवाद की अलग अलग परंपराओं का परिचय चार लेखों के जरिए देता है । दूसरा हिस्सा नवउदारवाद ने वैचारिक विरोधियों को नेस्तनाबूद करने के लिए जो रणनीतियां अपनाईं उनके बारे में चार लेखों में चर्चा का है । तीसरा हिस्सा नवउदारवाद की ओर से कार्यवाही के लिए होनेवाली गोलबंदियों की जानकारी तीन लेखों में देता है । भूमिका लेखक के अनुसार नवउदारवाद कोई सुपरिभाषित राजनीतिक दर्शन नहीं है । इसके दोस्तों के साथ ही इसके दुश्मनों ने भी नवउदारवादी विश्व दृष्टियों को लोकप्रिय बनाने में मदद की है । अगर मारगरेट थैचर ने इसे विकल्पहीनता के साथ जोड़ा तो वामपंथी आलोचक इसे केवल आर्थिक परिघटना मानने के दोषी कहे जा सकते हैं । 1980 और 1990 के दशक में नवउदारवाद के आगमन के कारण वामपंथ में गहराती कुंठा के साथ ही दक्षिणपंथ में आत्मविश्वास बढ़ रहा था । हाल के दशकों में वैश्वीकरण विरोधी सामाजिक आंदोलनों में लगभग सभी नवउदारवादी बुराइयों के लिए अमेरिका को आरोपी बनाया गया है ।

2010 में ज़ेड बुक्स से कीन बिर्च और व्लाद माइखनेंको के संपादन मेंद राइज ऐंड फ़ाल आफ़ नियोलिबरलिज्म: द कोलैप्स आफ़ ऐन इकोनामिक आर्डर?’ शीर्षक किताब का प्रकाशन हुआ । दोनों संपादक भूगोल के अध्यापन से जुड़े हैं । संपादकों की भूमिका और उपसंहार के अतिरिक्त किताब को दो भागों में बांटा गया है । पहला भाग नवउदारवाद के उत्थान पर केंद्रित सात लेखों का है तो दूसरा भाग नवउदारवाद के पतन पर केंद्रित छह लेखों का है ।

कहने की जरूरत नहीं कि नवउदारवाद भी पूंजीवाद की तरह ही संकट से कभी मुक्त नहीं रहा । 2011 में इसे उजागर करते हुए हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जेरार्ड ड्यूमेनिल और डामिनिक़ लेवी की किताबद क्राइसिस आफ़ नियोलिबरलिज्मका प्रकाशन हुआ ।

2011 में पालिटी से कोलिन क्राउच की किताबद स्ट्रेन्ज नान-डेथ आफ़ नियोलिबरलिज्मका प्रकाशन हुआ ।  

इस परिघटना के दीर्घ इतिहास और उसके राजनीतिक प्रतिफलन को रेखांकित करते हुए 2012 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से डैनिएल स्टेडमान जोन्स की किताबमास्टर्स आफ़ द यूनिवर्स: हायेक, फ़्रीडमान, ऐंड द बर्थ आफ़ नियोलिबरल पालिटिक्सका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि नवउदारवाद के विचार कोई नए नहीं । महामंदी के बाद से इन विचारों की ओर नेता और नौकरशाह दौड़ लगाते रहे हैं । किताब में इसी बात का कारण तलाशने की कोशिश है कि ब्रिटेन और अमेरिका की राजनीति में बीसवीं सदी की आखिरी चौथाई से 2008 के संकट तक बाजार में नवउदारवादी यकीन क्यों काबिज रहा । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से जो आर्थिक व्यवस्था कायम थी उस पर सत्तर के दशक के पूर्वार्ध तक तमाम किस्म के संकट नजर आने लगे थे ।      

2013 में वर्सो से पियरे दार्दो और क्रिश्चियन लवाल की फ़्रांसिसी में 2009 में प्रकाशित किताब का अंग्रेजी अनुवादद न्यू वे आफ़ द वर्ल्ड: आन नियोलिबरल सोसाइटीशीर्षक से प्रकाशित हुआ । अनुवाद ग्रेगोरी इलियट ने किया है । अंग्रेजी अनुवाद के लिए लेखक ने अलग से भूमिका लिखी है । उनका कहना है कि नवउदारवाद अभी मौजूद है । 2008 के संकट के बाद बहुतेरे लोगों को इसकी समाप्ति की झूठी आशा बन गयी थी इसलिए मूल फ़्रांसिसी संस्करण में पहला वाक्य यही था । अनेक अर्थशास्त्रियों को उस संकट के बाद राज्य की वापसी और बाजार की नकेल कसे जाने का भ्रम पैदा हुआ था । इस किस्म के भ्रम से राजनीतिक गोलबंदी में बाधा आती है । इस भ्रम की वजह नवउदारवाद की सही समझ का अभाव था । इस संकट से उन नीतियों की वापसी की कौन कहे, उनको दोगुने उत्साह से लागू किया जाने लगा । सरकारों ने कल्याणकारी मदों में कटौती और भी तेज कर दी । इस आधार पर लेखकों को लगता है कि इसके यूरोप और विश्वव्यापी प्रतिरोध के लिए इसकी पैदाइश और कार्यपद्धति का विश्लेषण बेहद जरूरी है ।     

इसके इतिहास को ही समझने के लिहाज से 2015 में ज़ोन बुक्स से वेन्डी ब्राउन की किताबअनडूइंग डेमोज: नियोलिबरलिज्म स्टील्द रेवोल्यूशनका प्रकाशन हुआ

इसका प्रभाव राजनीति की दुनिया में लोकतंत्र के गम्भीर क्षरण के रूप में देखा जाता है । यह क्षरण वित्तीकरण के साथ बेहद गहराई से जुड़ा हुआ है । इस बात को ही समझाते हुए 2024 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस से ब्रायन जज की जरूरी किताब ‘डेमोक्रेसी इन डिफ़ाल्ट: फ़ाइनैन्स ऐंड द राइज आफ़ नियोलिबरलिज्म इन अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि हालिया इतिहास पर उड़ती निगाह डालने से भी पता चलता है कि चालीस सालों में घटित लगभग प्रत्येक घटना ने बाजार के लिए मुनाफ़ा बढ़ाने में मदद ही की है ।     

नवउदारवाद की समाप्ति का दावा करने वालों के प्रतिनिधिस्वरूप  2024 में आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी प्रेस से जान क़िगिन की किताब ‘आफ़्टर नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक कोरोना की तालाबंदी से बाहर आने के बाद सबको ही बुनियादी किस्म का बदलाव महसूस हो रहा है । काम और जीवन, सरकार और राजनीति तथा अर्थतंत्र के बारे में सवाल तो पहले भी उठ रहे थे लेकिन अब तो इन सबका खात्मा हो गया लगता है । 

नवउदारवाद की शुरुआत सभी लोग लैटिन अमेरिका से मानते हैं । उस महाद्वीप पर अमेरिकी प्रभाव को मजबूत करने के लिए हिंसक तानाशाही थोपने की घटनाओं में इसके आरम्भिक लक्षण देखे जाते हैं । लैटिन अमेरिका का मेक्सिको देश अमेरिका के सबसे करीब है इसलिए उसके हस्तक्षेप भी सबसे अधिक इसी देश में हुए । इस इतिहास की परीक्षा के मकसद से 2024 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से क्लादियो लोमनित्ज़ की किताब ‘सावेरिनटी ऐंड एक्सटार्शन: ए न्यू स्टेट फ़ार्म इन मेक्सिको’ का प्रकाशन हुआ । किताब में लेखक के छह व्याख्यान एकत्र किये गये हैं जिनमें मेक्सिको में जारी प्रचंड राजकीय हिंसा को समझने के लिए मानवशास्त्र की धारणाओं का उपयोग किया गया है । वे मेक्सिको में राज्य का नया रूप विकसित होते हुए देख रहे हैं । इसकी शुरुआत नवउदारवाद के आगमन के साथ 1980 और 1990 दशक में ही हो गयी थी । 2006 में मादक द्रव्यों पर हमले के दौरान इसे मजबूती मिली । फिलहाल उसका विकास तीव्र गति से हो रहा है । आश्चर्य नहीं कि 1997 में ही मैकमिलन प्रेस लिमिटेड से हेनरी वेल्टमेयर, जेम्स पेत्रास और स्टीव विउ की संयुक्त रूप से लिखी किताब ‘नियोलिबरलिज्म ऐंड क्लास कंफ़्लिक्ट इन लैटिन अमेरिका: ए कम्पेयरेटिव पर्सपेक्टिव आन द पोलिटिकल इकोनामी आफ़ स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट’ का प्रकाशन हुआ इस सिलसिले में यह भी याद दिलाना विषयांतर नहीं समझा जाना चाहिए कि हमारे देश में इस परिघटना के आगमन के समय भी ढांचागत समायोजन की शब्दावली लोकप्रिय हुई थी । सभी जानते हैं कि चिले में राष्ट्रपति अलेंदे की हत्या के बाद स्थापित सरकार ने नवउदारवादी निजाम का पहला प्रयोग किया था । उस प्रयोग को याद करते हुए 2023 में यूनिवर्सिटी आफ़ पिट्सबर्ग प्रेस से पाब्लो पेरेज़ अहुमादा की किताब ‘बिल्डिंग पावर टु शेप लेबर पालिसी: यूनियन्स, एम्प्लायर एसोसिएशंस, ऐंड रिफ़ार्म इन नियोलिबरल चिले’ का प्रकाशन हुआ । इसी सवाल पर 2023 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से सेबास्तियन एडवर्ड्स की किताब ‘द चिली प्रोजेक्ट: द स्टोरी आफ़ द शिकागो ब्वायेज ऐंड द डाउनफ़ाल आफ़ नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । शुरू में नवउदारवाद के विकास का कालक्रमानुसार सूची है । 1938 के लिपमैन कोलोकियम से इसका आरम्भ हुआ जब बुद्धिजीवियों की एक सभा में नवउदारवाद के बारे में विचार विमर्श हुआ । दूसरी घटना के रूप में फ़्रीडमैन का शिकागो विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में 1946 में आना बताया गया है । इसके अगले साल मोंत पेलेरिन सोसाइटी की पहली बैठक हुई और हायेक को उसका अध्यक्ष चुना गया । इसी क्रम में शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसरान चिली के कैथोलिक विश्वविद्यालय के साथ सहयोग के मकसद से चिली गये । अगले साल दोनों के बीच सहयोग पर मुहर लग गयी । फिर चिली के विद्यार्थी अर्थशास्त्र के अध्ययन हेतु शिकागो आये । लौटकर दो साल बाद वे चिली में अध्यापक हुए ।

नवउदारवाद की प्रयोगभूमि के रूप में चिली में जो कुछ हुआ उसका विश्लेषण विवेचन बहुत ध्यान से किया गया है क्योंकि उस प्रयोग में ही इसके लक्षण प्रकट हो गये थे । आश्चर्य नहीं कि 2022 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से काथ्या अराउजो की किताब ‘द सर्किट आफ़ डिटैचमेंट इन चिली: अंडरस्टैंडिंग द फ़ेट आफ़ ए नियोलिबरल लेबोरेटरी’ का प्रकाशन हुआ । नवउदारवादी समाजार्थिक व्यवस्था के प्रसार से व्यक्ति और समाज पर पड़े असर की खोज इस किताब का मकसद है । सामाजिक बंधन और राजनीतिक भविष्य की जांच परख इसमें की गयी है । इसके लिए चिली के हालात की चीरफाड़ हुई है क्योंकि वह नवउदारवाद की प्रथम प्रयोगशाला था । इस काम के लिए पिनोशे की तानाशाही की जरूरत पड़ी थी । चिली के लोग महसूस करते हैं कि उनके देश का बदलाव ऐतिहासिक था । उनका यह अहसास उनके रोज ब रोज के ठोस अनुभव पर आधारित है । जीवन चलाने के लिए उनका पारम्परिक ज्ञान सहसा अपर्याप्त हो चला है । बदलाव सामाजिक ही नहीं, नितांत निजी स्तर पर भी हुए हैं । दूसरी ओर सामाजिक रिश्तों पर लोकतंत्रीकरण का दबाव पैदा हुआ है । कानूनों और संस्थाओं के जरिये बदलाव के चलते व्यक्तियों से नयी अपेक्षा भी की जाने लगी है ।                

इस प्रवृत्ति को प्रबल विचारधारा मानते हुए 2024 में क्राउन से जार्ज मोनबियाट और पीटर हचिंसन की किताब ‘इनविजिबुल डाक्ट्रिन: द सीक्रेट हिस्ट्री आफ़ नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों के मुताबिक यह हमारे समय की सबसे प्रबल विचारधारा है और हमारे जीवन के लगभग प्रत्येक पहलू पर असर डालती है । दुर्भाग्य से उसका कोई नाम नहीं है । जिन्होंने इसका नाम सुना हो वे भी इसे परिभाषित नहीं कर पाते । इसकी गुमनामी ही इसकी ताकत का लक्षण और कारण है । हमारे समय के तमाम संकटों को इसने ही जन्म दिया है । विषमता, बच्चों की गरीबी, निराशा की महामारी, दूसरे देशों में काम कराना और टैक्स चोरी, स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सार्वजनिक सेवाओं की बदहाली, संरचना का ध्वंस, लोकतंत्र का क्षरण, वित्तीय उथल पुथल, आधुनिक ढपोरशंखी नेताओं का वैश्विक उदय, पारिस्थिकीय संकट और पर्यावरणिक विनाश इनके कुछ उदाहरण हैं । इन सबको हम अलगाकर देखते हैं । एक के बाद एक संकट टूटा पड़ रहा है फिर भी हम उनके साझा स्रोत को नहीं समझ पाते । ये सभी उसी विचारधारा के परिणाम हैं जिसका नाम नवउदारवाद है । उसकी व्याप्ति इतनी अधिक हो चुकी है कि हम उसे विचारधारा भी नहीं मानते ।

इस विचारधारा के अनुसार सबसे जरूरी बदलाव यह हुआ कि सार्वजनिक संसाधनों का तेजी से निजीकरण शुरू हुआ । उसके नतीजों की झलक दिखलाते हुए 2024 में डब्ल्यू डब्ल्यू नार्टन & कंपनी से मेहरसा बरादरन की किताब ‘द क्वाइट कू: नियोलिबरलिज्म ऐंड द लूटिंग आफ़ अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । किताब की कहानी 2018 की 8 नवंबर को सुबह ही कैलिफ़ोर्निया के नागरिकों से शहर को खाली कराने की घोषणा से शुरू हुई है । जंगल में लगी आग काबू से बाहर हो चुकी थी और तेजी से फैल रही थी । शहर से बाहर निकलने के रास्ते उसकी गिरफ़्त में आते जा रहे थे । बुजुर्गों को बाहर निकालना सबसे मुश्किल था । एक बुजुर्ग को अपनी पहिये वाली कुर्सी छोड़कर रेंगकर बाहर आना पड़ा था । एक और बुजुर्ग दंपति अपने कुत्ते और बिल्ली के साथ कुर्सी पर बैठे ही रह गये थे । आग लगातार सत्रह दिनों तक भयंकर तबाही मचाती रही और चौरासी लोग उसमें मारे गये । जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा पड़ने से इस तरह की आगजनी की घटनाएं लगभग आम बात हो चली हैं । कैलिफ़ोर्निया की इस आग के पीछे एक अन्य कारण यह भी था कि गैस आपूर्ति करने वाली सरकारी संस्था ने बरसों से अपने उपकरणों की मरम्मत ही नहीं करायी थी । मरम्मत कराने के लिए आवश्यक धन खर्च करने को कंपनी तैयार ही नहीं थी । अपनी जिम्मेदारी छुड़ाने के लिए सरकारें इस तरह की आगजनी को कुदरती दुर्घटना कहती हैं ताकि कोई मुआवजा ही न देना पड़े । वह तो एक अदालत ने कुदरत को इस भारी जिम्मेदारी से बरी किया और सरकारी कंपनी को दोषी ठहराया ।       

कहने की जरूरत नहीं कि नवउदारवाद के आगमन के साथ ब्रिटेन की प्रधानमंत्री का प्रसिद्ध कथन जुड़ा है जिसमें उन्होंने इसके विकल्प की सम्भावना से इनकार किया था । तब उनके कथन के संक्षेप से टिना नामक एक शब्द ही अस्तित्व में आया था । इसी माहौल को लक्षित करते हुए 2024 में पालग्रेव मैकमिलन से जेनिफ़र क्लेग और रिचर्ड लैंसडाल-वेलफ़ेयर की किताबइंटेलेक्चुअल डिसएबिलिटी इन पोस्ट-नियोलिबरल वर्ल्डका प्रकाशन हुआ लेखक ने अंत से शुरू किया है आखिरी अध्याय के उपसंहार में उन्होंने लिखा है कि जब तक कोई काम हो नहीं जाता तब तक असम्भव ही लगता है इस कथन का तात्पर्य यह कि हालात जितने भी कठिन लगते  हों उनमें बदलाव हो जाता है अगर बेहतर हालात की कल्पना आम लोगों के दिल दिमाग में उभरने लगे इसकी शुरुआत 2010 में हुई जब तीन दिनों तक अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों ने नाटिंघम में एक सम्मेलन में मौजूदा हालात और उनमें बदलाव पर गहन चिंतन किया  

हमारे समय को नवउदारवाद का समय मानकर उसका निदान करने की वकालत करते हुए 2023 में यूनिवर्सिटी आफ़ टोरंटो प्रेस से लोइस हार्डर, कैथरीन केलाग और स्टीव पैटेन के संपादन में ‘नियोलिबरल कनटेन्शन्स: डायग्नोजिंग द प्रेजेन्ट’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और जानी ब्रोदी के उपसंहार के अतिरिक्त किताब के चार हिस्सों में कुल ग्यारह लेख संकलित किये गये हैं । संपादकों का कहना है कि 1980 दशक से ही नवउदारवाद हमारे सामाजिक जीवन पर छाया रहा है इसलिए शोध भी उस पर ही केंद्रित रहे हैं । कीन्सीय कल्याणकारी राज्य के संकट में फंस जाने पर उपजा नवउदारवाद व्यापक सामाजिक रूपांतरण का भी वाहक बना ।    

इस परिघटना को दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग समयों पर अपनाया गया । ऐसी स्थिति में अत्यंत स्वाभाविक था कि उन क्षेत्रों के विशेष इतिहास से प्रभावित होकर इसका रूप और अनुभव भी खास होता । पूर्वी यूरोप के विशेष संदर्भ में 2024 में रटलेज से वेरोनिका पेहे और जोआन्ना वाव्रिन्याक के संपादन में ‘रेमेम्बरिंग द नियोलिबरल टर्न: इकोनामिक चेंज ऐंड कलेक्टिव मेमोरी इन ईस्टर्न यूरोप सिन्स 1989’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब में कुल अठारह लेख संकलित हैं जिनमें पहला लेख संपादकों की लिखी प्रस्तावना है । शेष लेखों को कुल तीन हिस्सों में संयोजित किया गया है । संपादकों का कहना है कि 1989 में न्यू यार्क में मकानों की खरीद बिक्री के व्यवसायी ने सरकार के बेजा खर्च पर ध्यान आकर्षित करने के लिए एक सूचना लगायी । जल्दी ही अनेक देशों में इसका अनुकरण शुरू हुआ । नवउदारवाद के समर्थकों ने इस अभियान में जोश से भाग लिया । इसके चलते सरकार के कल्याणकारी कामों में कटौती का माहौल बनाया गया और विदेशी कर्ज को चुकाने का बहाना बनाने में आसानी हुई । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की यह सबसे प्रमुख परिघटना थी जिसके तहत नवउदारवाद को पहले आर्थिक विचारधारा के बतौर और बाद में सामाजिक सांस्कृतिक आचरण के रूप में अपनाया गया ।   

नवउदारवाद को अतीत की बात मानते हुए 2023 में हेमार्केट बुक्स से नील डेविडसन की किताब ‘ह्वाट वाज नियोलिबरलिज्म?: स्टडीज इन द मोस्ट रीसेन्ट फेज आफ़ कैपिटलिज्म, 1973-2008’ का प्रकाशन हुआ । किताब के लेखक का निधन बासठ साल की उम्र में हो गया उस समय समकालीन पूंजीवाद के बारे में इस किताब की पांडुलिपि लगभग अंतिम रूप में चुकी थी अन्य अधूरी किताबों को भी अंतिम रूप देने में दोस्त मित्र जुटे हुए हैं जब उनका निधन हुआ तब ट्रम्प का कार्यकाल समाप्त नहीं हुआ था स्वाभाविक है कि लेखक ने इसमें कुछ संशोधन किये होते और कुछ दोहरावों को दुरुस्त किया होता मूल पांडुलिपि में यथासंभव बहुत ही कम हस्तक्षेप किया गया है ताकि लेखक की आवाज सुरक्षित रहे इसकी समाप्ति की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए  2023 में रटलेज से डेविड कायला की किताब ‘द डिक्लाइन ऐंड फ़ाल आफ़ नियोलिबरलिज्म: रीबिल्डिंग द इकोनामी इन ऐन एज आफ़ क्राइसेज’ का प्रकाशन हुआ । इसी क्रम में 2023 में ही यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से राबर्ट फ़्लेचर की किताब ‘फ़ेलिंग फ़ारवर्ड: द राइज ऐंड फ़ाल आफ़ नियोलिबरल कनजर्वेशन’ का प्रकाशन हुआ ।

नवउदारवाद ने विषमता और भेदभाव के पारम्परिक ढांचों का पुनरुत्पादन किया इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए 2022 में पालग्रेव मैकमिलन से जे जेस्से रामिरेज़ की किताब ‘रूल्स आफ़ द फ़ादर इन द लास्ट आफ़ अस: मैस्कुलिनिटी एमांग द रूइन्स आफ़ नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । इस परिघटना को उसके सही नाम से पुकारते हुए 2022 में काउंटर पंच से अलेक्जेंडर काकबर्न और जेफ़्री सेंट क्लेयर की किताब ‘ऐन आर्गी आफ़ थीव्स: नियोलिबरलिज्म ऐंड इट्स डिसकनटेन्ट्स’ का प्रकाशन हुआ । 2010 में लेखकों को लगा कि वर्तमान व्यवस्था के लिए नवउदारवाद थोड़ा नरम शब्द है । बीस साल से लेखक इसी शब्द का इस्तेमाल करते आ रहे थे और उन्हें इसकी अपर्याप्तता का अहसास हमेशा होता रहा था । उस दौरान लिखे लेखों को एकत्र और संपादित करके यह किताब तैयार की गयी है । इसमें पिछली सदी के आखिरी दशकों में मध्यमार्गी शासकों द्वारा अपनायी गयी नवउदारवादी नीतियों और कामों का विरोध किया गया है । लेखकों में से एक का निधन दसेक साल पहले ही हो गया था । देहांत से पहले उन्होंने संग्रह तैयार कर लिया था । जेफ़्री ने उनके निधन के बाद के भी कुछ लेखों को शामिल किया है ताकि उस दौर की निरंतरता दिखायी जा सके । 

इस परिघटना के सबसे ताजा नतीजे दक्षिणी गोलार्ध की श्रमशक्ति पर नजर आ रहे हैं । इस पहलू के बारे में 2023 में ब्रिल से अनीता हैमर और इमानुएल नेस के संपादन में ‘ग्लोबल रप्चर: नियोलिबरल कैपिटलिज्म ऐंड द राइज आफ़ इनफ़ार्मल लेबर इन द ग्लोबल साउथ’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और पश्चलेख के अतिरिक्त किताब में शामिल बारह लेख पांच हिस्सों में हैं । पहले में दक्षिण पश्चिम एशिया, दूसरे में अफ़्रीका, तीसरे में दक्षिण एशिया, चौथे में दक्षिण पूर्व एशिया और आखिरी पांचवें हिस्से में लैटिन अमेरिका पर केंद्रित लेख रखे गये हैं । किताब में वर्तमान कामगारों के लगातार बढ़ते अनौपचारिक और अस्थायी समूह का विस्तृत विश्लेषण करने की कोशिश की गयी है । इस समूह का बड़ा हिस्सा दक्षिणी गोलार्ध में रहता है लेकिन उत्तरी गोलार्ध के देशों में भी उसका बहुत तेजी से विस्तार हो रहा है । इस परिघटना का प्रभाव न केवल दक्षिणी गोलार्ध के श्रमिकों पर पड़ा बल्कि सारी दुनिया के कामगार इसकी चपेट में आये । दुनिया भर के श्रमिकों पर इसके प्रभाव का विवेचन करते हुए 2018 में एजेन्डा पब्लिशिंग से रोनाल्डो मुन्क की किताब ‘रीथिंकिंग ग्लोबल लेबर: आफ़्टर नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।

उत्तरी गोलार्ध में नवउदारवाद ने जिस राजनीतिक प्रवृत्ति को जन्म दिया है उसका विश्लेषण करते हुए 2023 में डि ग्रूटेर से मैतियास सैडेल की किताब ‘नियोलिबरलिज्म रीलोडेड: आथरिटेरियन गवर्नमेंटलिटी ऐंड द राइज आफ़ द रैडिकल राइट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने सबसे पहले नवउदारवाद और फ़ासीवाद की जुगलबंदी का सवाल उठाया है । इसी सवाल का उत्तर खोजने के क्रम में किताब लिखी गयी है । हालिया वित्तीय संकट और उससे उबरने के क्रम में नवउदारवाद का अत्यंत हिंसक, क्रूर और अन्यायी रूप नजर आया । इसके साथ ही चरम दक्षिणपंथ का उदय हुआ जो न केवल लोकतांत्रिक देशों की राजनीति के मुद्दे तय करने में कामयाब हो रहा है बल्कि सामाजिक संजाल, मीडिया, सड़क, चिंतकों और शिक्षा जगत में भी घुसकर अपने पक्ष में खास किस्म के सहजबोध का निर्माण कर रहा है । इसके कारण विमर्शों और नीतियों में आप्रवासियों, स्त्रियों, समलिंगी समूहों और गरीबों के विरुद्ध नफरत व्याप्त हो गयी है ।    

अमेरिका में इसकी शुरुआत की प्रक्रिया का संबंध रोनाल्ड रीगन से रहा । 2022 में बेरेट-कोएह्लर से टाम हार्टमैन की किताब ‘द हिडेन हिस्ट्री आफ़ नियोलिबरलिज्म: हाउ रीगनिज्म गटेड अमेरिका ऐंड हाउ टु रेस्टोर इट्स ग्रेटनेस’ का प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना ग्रेग पलास्त ने लिखी है ।

अमेरिका में इसकी लम्बी यात्रा का जायजा लेते हुए 2022 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से गैरी गेर्स्टल की किताब ‘द राइज ऐंड फ़ाल आफ़ द नियोलिबरल आर्डर: अमेरिका ऐंड द वर्ल्ड इन द फ़्री मार्केट एरा’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि इक्कीसवीं सदी की इस दूसरी दहाई में अमेरिकी राजनीतिक जीवन में बुनियादी बदलाव नजर आ रहे हैं । कोरोना की मार से पहले भी ऐसी घटनाएं घट रही थीं जिनके बारे में दस साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । ट्रम्प की जीत, सांडर्स का उभार, खुली सरहद और मुक्त व्यापार पर सवाल, पापुलिज्म और देसी राष्ट्रवाद का उत्थान, ओबामा की हैसियत में गिरावट आदि ऐसी ही चीजे हैं । अमेरिकी लोकतंत्र पर गहरा संकट है और इस संकट की ही नाटकीय झलक सरकार के मुख्यालय पर 6 जनवरी 2021 को भीड़ द्वारा हमले में मिली । इन सभी किस्म के बदलावों को लेखक उस राजनीति का पतन मानते हैं जिसका निर्माण सत्तर और अस्सी के दशक में हुआ, नब्बे के दशक और इस इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में उसका प्रभुत्व नजर आया । इसे नवउदारवादी व्यवस्था कहा जा सकता है । इसी व्यवस्था का उत्थान पतन इस किताब का मुख्य प्रतिपाद्य है । यह हमारे समय का इतिहास है ।

इस किताब में राजनीतिक व्यवस्था के नाम से अमेरिकी राजनीति में चुनावों के परे प्रवाहमान विचारधाराओं और नीतियों को पुकारा गया है विगत सौ साल के भीतर अमेरिका में दो तरह की राजनीतिक व्यवस्थाएं नजर आयीं एक को लेखक ने न्यू डील की व्यवस्था कहा है जिसका जन्म 1930 और 1940 के दशक में हुआ, 1950 और 1960 के दशक में वह परवान चढ़ी तथा 1970 के दशक में उसमें उतार आया उसके बाद से नवउदारवाद का जन्म हुआ, 1990 और 2000 के दशकों में इसने ऊंचाई हासिल की और 2010 के दशक से इसका भी पराभव जारी है इन दोनों राजनीतिक व्यवस्थाओं के केंद्र में राजनीतिक अर्थशास्त्र का अपना विशेष कार्यक्रम भी मौजूद रहा है न्यू डील व्यवस्था के पीछे यह विश्वास काम कर रहा था कि पूंजीवाद को खुला मैदान देने से आर्थिक दुर्घटना पैदा होती है इसका प्रबंधन ऐसे मजबूत केंद्रीय निकाय द्वारा किया जाना चाहिए जो सार्वजनिक हित में अर्थव्यस्था को लगाये इसके ठीक विपरीत नवउदारवादी व्यवस्था इस यकीन पर आधारित है कि सरकारों के बंधनकारी नियंत्रण से बाजार को आजाद कराना होगा क्योंकि वृद्धि, नवाचार और आजादी पर अंकुश लगा हुआ है नवउदारवादी व्यवस्था के उन्नायकों ने उस प्रत्येक चीज को खत्म कर डाला जिसका निर्माण न्यू डील की व्यवस्था ने चालीस साल में किया था अब इसका भी खात्मा हो रहा है । ऐसे ही 2021 में द यूनिवर्सिटी आफ़ नार्थ कैरोलाइना प्रेस से डैनिएल राबर्ट मैकक्लूर की किताब ‘विंटर इन अमेरिका: ए कल्चरल हिस्ट्री आफ़ नियोलिबरलिज्म, फ़्राम द सिक्सटीज टु द रीगन रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ ।               

2022 में रटलेज से जानेट याकोबसन और एलिज़ाबेथ बर्नस्टाइन के संपादन में ‘पैराडाक्सेज आफ़ नियोलिबरलिज्म: सेक्स, जेंडर, ऐंड पासिबिलिटीज फ़ार जस्टिस’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना समेत किताब में कुल छह लेख संकलित हैं । किताब जेंडर न्याय के लक्ष्य से संपादित की गयी है । नारीवादियों के एक अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक सहकार का प्रतिफल यह किताब है । उनके बीच बहस से एक पत्रिका की रूपरेखा तय हुई । पत्रिका में प्रकाशित लेखों की विविधता चकित करनेवाली थी इसलिए उसके संपादकों ने काम जारी रखा । धीरे धीरे महसूस हुआ कि सभी लेखों में नवउदारवादी अर्थतंत्र जनित समस्याओं की प्रतिध्वनि है । लेखों में इस सामान्य विषय की प्रमुखता के मुकाबले उसके असरात का विश्लेषण प्रमुख है ।  

2022 में रटलेज से फ़ेर्नान्दो लोपेज़-कास्तेलानो, कारमेन लिज़ारागा और रोजर मंज़ानेरा-रुइज़ के संपादन में ‘नियोलिबरलिज्म ऐंड अनइक्वल डेवलपमेन्ट: अल्टरनेटिव्स ऐंड ट्रांजीशंस इन यूरोप, लैटिन अमेरिका ऐंड सब-सहारन अफ़्रीका’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और पश्चलेख के अतिरिक्त किताब के बारह लेख दो भागों में हैं । पहले भाग के तीन हिस्से हैं जिनमें क्रमश: उप सहाराई अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका और यूरोप में नवउदारवाद के विकास की परीक्षा की गयी है । दूसरे भाग में विकल्पों और संक्रमणों से जुड़े लेख हैं । 

2021 में पालग्रेव मैकमिलन से सुसान गैर, तमार हेगर और ओमरी हेर्ज़ोग की संयुक्त किताब ‘कंप्लायंस ऐंड रेजिस्टेन्स विदिन नियोलिबरल एकेडमिया: बायोग्राफिकल स्टोरीज, कलेक्टिव वायसेज’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत तीनों लेखिकाओं के अलग अलग देशों से अलग अलग समयों पर बैठकों में शरीक होने की मुश्किलों से होती है । सुसान आस्ट्रेलिया, तमार इजरायल और ओमरी के लंदन में होने की कठिनाई का वर्णन करने के बाद बताया जाता है कि कोरोना के दौरान ऐसी बैठकें आम थीं । स्क्रीन पर मौजूद चेहरे के कारण वास्तविक मानव सम्पर्क बहुत कम हो गया था । धीरे धीरे विगत दो सालों से इसे ही सामान्य समझा जाने लगा है । 2018 के बाद से नवउदारवादी उच्च शिक्षा की कहानी ज़ूम के उल्लेख के बिना लिखी नहीं जा सकती । इस किताब के लेखन के लिए भी इंटरनेट पर लगातार ऐसी बैठकें तीनों के बीच हुईं । ज़ूम और ईमेल के जरिए आपसी असहमति को स्वर दिया गया, लेखन को साझा किया गया और एक दूसरे के काम लायक सामग्री आपस में वितरित की गयी । दोस्ती हो जाने के नाते इन सबके साथ ही जलवायु संकट, महामारी, आस्ट्रेलिया में लगी आग, इजरायल में भड़की हिंसा, शैक्षिक सफलता, विफलता और उससे पैदा तनाव तथा पारिवारिक नाटक और छुट्टियों की योजना भी बातचीत के केंद्र में आते जाते रहे । पारदेशीय सहकारी शोध और लेखन इसी तरह से होता है । उसमें पेशेवर जीवन के साथ निजी जीवन भी घुल मिल जाता है । महामारी से पहले प्रत्यक्ष मुलाकातों की जरूरत ऐसे कामों के लिए पड़ती थी । इसकी शुरुआत महामारी से पहले हुई थी इसलिए एक बार प्रत्यक्ष मुलाकात के बाद तीनों अलग अलग देशों में अपनी मेज पर बैठकर ही इसे लिखने का काम संपन्न कर सकीं । तीनों ने नवउदारवाद के प्रभाव संबंधी अपने अपने अनुभव लिखे । अपने जीवन पर इसके विनाशकारी असर पर विचार किया । अनुशासन और देश की भिन्नता के बावजूद सबके अनुभव साझा भी थे । उन अनुभवों की भिन्नता और साझेपन के चलते ही लेखिकाओं को अपनी यह किताब विशेष महसूस होती है ।

2020 में वर्सो से डाइटर प्लेवे, क्विन स्लोबोदियन और फिलिप मिरोव्सकी के संपादन में ‘नाइन लाइव्स आफ़ नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । स्लोबोदियन और प्लेवे की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के चार भागों में संकलित लेख लगाए गए हैं । पहले भाग में बाजारवाद के परे नवउदारवादी विज्ञान से जुड़े लेख हैं । दूसरे भाग में आर्थिक मनुष्य से परे नवउदारवादी कर्ताभाव का विवेचन है । तीसरे भाग में अमेरिकी सर्वसम्मति के परे नवउदारवादी अंतर्राष्ट्रीयतावाद को देखने की कोशिश है । चौथे भाग में रीगन, थैचर और पिनोशे के बाद भी नवउदारवाद के असर का विश्लेषण है । किताब का जन्म 2016 की एक संगोष्ठी से हुआ था । नवउदारवाद के बारे में विचार विमर्श के लिए आहूत यह तीसरी संगोष्ठी थी । पहली दो गोष्ठियों पर आधारित किताबों का प्रकाशन हो चुका है । इसमें नवउदारवाद की समाप्ति के दावों पर सवाल उठाया गया है । ट्रम्प के चुनाव के बाद एक अर्थशास्त्री ने नवउदारवाद के खात्मे की घोषणा की । कुछ लोगों ने शोक संदेश भी लिख मारे । अमेरिका में नव फ़ासीवाद के हाथों इसका जनाजा उठने का तर्क दिया गया । पचीस साल पहले क्लिंटन के चुने जाने पर लैटिन अमेरिका के एक नेता ने भी इसकी घोषणा की थी । एशियाई वित्तीय संकट के समय भी ऐसी ही बातें हुईं और 2008 वाले संकट के बाद तो इसे तय मान लिया गया ।

सिद्ध है कि फिलहाल सबको एक नये समय में प्रवेश का अनुभव हो रहा है जिसे कु लोग पुराने समय का अंत समझ रहे हैं तो उसी तरह अन्य लोग इसे पुराने का ही विस्तार समझना चाहते हैं । इनमें आपसी मतभेद जो भी हों सभी एकमत हैं कि अस्थिरता और संकट के नये दौर का सामना मानव प्रजाति को करना पड़ रहा है । यह संकट एकायामी न होकर बहुमुखी और बहुस्तरीय है । जैसे जैसे इसकी परतें खुल रही हैं उनमें से युद्ध, हिंसा, अन्याय, तानाशाही और असहायता के नित नये रूप प्रकट हो रहे हैं । हाल के दिनों में बढ़ी धार्मिकता का भी इससे संबंध हो सकता है जो फिलहाल धर्मांधता के बतौर नजर आ रही है । पूंजी की आक्रामता से उत्पन्न इस क्रूर विचार ने सारी धरती को मनुष्य के रहने लायक वातावरण से वंचित कर दिया है लेकिन इस आपत्ति में भी हताशा की जगह नयी पीढ़ी नये सपनों के साथ लड़ने भिड़ने पर आमादा है । इसके सबूत के तौर पर 2025 में इमेराल्ड पब्लिशिंग से हेनरी वेल्टमेयर की किताब ‘लैटिन अमेरिकन पोलिटिक्स इन द नियोलिबरल एरा: द चेंजिंग डायनामिक्स आफ़ क्लास स्ट्रगल’ का प्रकाशन हुआ ।