Sunday, December 7, 2025

युवा विक्षोभ की अभिव्यक्ति: देवेन्द्र का कथा संसार

 

               

                                             

साहित्य का इतिहास देखने में प्रवृत्ति केंद्रित दृष्टि की प्रधानता के कारण देवेन्द्र का कथाकार बहुधा अलक्षित रह जाता है । बेहतरीन कहानियों की संख्या प्रचुर होने के बावजूद मानदंड के मामले में उनको अक्सर अनदेखा कर दिया गया है । इसके कारणों की शिनाख्त करने के साथ ही हम उनको शरीक कर सकने वाली हिन्दी की कथा परम्परा को भी समझने का प्रयास करेंगे । साथ ही इसमें उनकी विशेषता और उनके योगदान को भी देखने की कोशिश की जाएगी ।   

देवेन्द्र की भाषा में काव्यात्मकता है लेकिन यह काव्यात्मकता उदय प्रकाश की तरह यथार्थ को धुंधला करने के काम नहीं आती । उनकी काव्यात्मकता में जीवन की विषम परिस्थितियों से उपजा तीखापन है । अक्सर यह तीखापन मारक व्यंग्य का रूप ले लेता है । उदय प्रकाश तो घोषित तौर पर कवि के साथ कथाकार हैं लेकिन देवेन्द्र के बारे में यह अल्पज्ञात है कि वे कहानियों की दुनिया में आने से पहले छंदोबद्ध कविताओं के लेखक रहे थे । इस तरह उनका कथाकार सिंहासनच्युत कवि कहा जा सकता है । उनकी एक मशहूर कहानी का शीर्षक ही है ‘शहर कोतवाल की कविता’ । इस शीर्षक में व्यक्त विडम्बना को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है । एकदम ही विपरीत समझे जाने वाले दो क्षेत्रों को इस शीर्षक में एक साथ अनायास नहीं रखा गया है । कोई कवि ही कोतवाली के साथ कविता का वैषम्य पकड़ सकता है । इस कहानी में कविता न केवल शीर्षक में है बल्कि सारी अफ़सरी हनक के बावजूद कोतवाल की आत्महत्या का कारण बनती है । बहुत सारी जगहों पर भीषण और अत्यंत गहन भावनात्मक अभिव्यक्तियों के लिए कविता की पंक्तियों का सीधे प्रयोग किया गया है । कविता इन कहानियों के पात्रों के जीवन में बेहद खतरनाक भूमिका निभाती है । इसी तरह एक और कहानी का शीर्षक है ‘महाकाव्य का आखिरी नायक’ । जो लोग महाकाव्य की गरिमा और त्रासद उदात्तता से परिचित नहीं उन्हें इस कहानी और शीर्षक के बीच का रिश्ता समझ ही नहीं आयेगा । समकालीन कहानी में शायद ही किसी कथाकार की कहानियों में इस हद तक कविता मौजूद हो । आधुनिक मुक्त छंद की कविता की क्षमता में ऐसा विश्वास कुछ हद तक आश्चर्यजनक है क्योंकि इस दौर की कविता को जीवन से कटा हुआ बताने वालों की भी जमात कमजोर नहीं है । कहानियों में कविता के प्रवेश का आकर्षण उनके यहां इतना प्रबल है कि ‘धर्मराज’ शीर्षक कहानी में उनका मुख्य पात्र धर्मराज भीड़ में घिरा ‘मैथिलीशरण गुप्त की कविता होता है, लेकिन अकेले होते ही अज्ञेय का गद्य बन जाता है’ । इसके बाद अज्ञेय के गद्य की व्याख्या भी ‘मतलब के दर्शन से भरा, रहस्यमय और अबूझ’ । दोनों के बारे में कहानीकार की राय से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन इस फैसले से एक दौर के विद्रोही भाव का पता जरूर चलता है । उस विद्रोह में सभी विद्रोहों की तरह थोड़ा अतिवाद भी था ।

युवा, कविता और विक्षोभ के जिक्र से स्पष्ट है कि देवेन्द्र की कहानियों की प्रमुख कथावस्तु उच्च शिक्षा संस्थान हैं । इनमें भी हिंदी साहित्य के अध्ययन अध्यापन की दुनिया अर्थात हिंदी विभाग हैं । इन शिक्षा संस्थानों से जिस तरह देश के स्वाधीनता आंदोलन का रिश्ता है उसी तरह हिंदी की प्रतिष्ठा के साथ इन विभागों की खास तरह की केंद्रीयता जुड़ ही जाती है । ‘देवांगना’ और ‘रंगमंच पर थोड़ा रुककर’ जैसी कहानियों में इसके अपवाद हैं । ‘देवांगना’ शीर्षक कहानी में हमारे समाज के सबसे अधिक किनारे कर दिये गये पात्रों की अत्यंत दारुण कथा है तो ‘रंगमंच पर थोड़ा रुककर’ कहानी अपराधियों के जीवन में पाठक का प्रवेश कराती है । कहानियों की ऐसी विषयवस्तु ने ही शायद उनमें उच्च शिक्षा संस्थानों को आने से रोक दिया होगा । ये शिक्षा संस्थान हिंदी भाषी समाज के भीतर अवस्थित हैं । इनके पतन की कहानी ‘नालन्दा पर गिद्ध’ में बेहद मारक तीक्ष्णता के साथ आयी है । इसके अतिरिक्त भी ‘अनुपस्थित’ शीर्षक कहानी में शिक्षा के उस सांस्थानिक पतन की झांकी देखने को मिलती है जिसका विराट स्वरूप अब उजागर हुआ है । उनका एक पात्र कुलकर्णी है जो डीन की कुर्सी पर काबिज है और उनके ही एक विद्यार्थी की नियुक्ति के लिए सिफारिश करने वाले से कहते हैं कि ‘शिक्षक संघ होता था । कर्मचारी संघ था । और तो और तुम्हारा छात्र संघ था । कुलपति लोग दबकर रहते थे ।--अब कुछ नहीं । हर पद का रेट तय है ।--दलाल लोग कुलपति होने लगे हैं’ । देवेन्द्र जिस समय की बात कर रहे हैं उस समय के मुकाबले उच्च शिक्षा के संस्थानों में केवल भ्रष्टाचार बल्कि पदाधिकारियों की मनमानी और बढ़ी है कहानी में आये इस वक्तव्य की खास बात यह है कि छात्र संघ, कर्मचारी संघ और शिक्षक संघ की ऐसी भी भूमिका हुआ करती थी इसकी ओर पाठक का ध्यान जाता है अन्यथा समय तो इन संघों के भ्रष्ट होने की कथा सुनाने का है आश्चर्य कि यह बात डीन के पद पर काबिज व्यक्ति के मुख से कहलवाई गयी है

कहानीकार के इस रुख के साथ ही उनका वह रुख भी कायम है जिसमें छात्र संघ के प्रति सामान्य तौर पर बनी धारणा की अभिव्यक्ति होती है नालन्दा पर गिद्धकहानी में वामपन्थी प्रत्याशी मार्क्सवादी लेनिनवादी विचारधारा का है और सशक्त उम्मीदवार बनकर उभर रहा था उसकी विचारधारा से भी मजबूत पहचान उसकी जाति निकलती है । इसे वाणी देते हुए कहानी के पात्र आचार्य चूड़ामणि का कथन हैविचारधाराएं तो परिवर्तनशील होती हैं । उम्र और परिस्थिति से निर्धारित । मूल सत्य तो जाति हैऔर इसी समझ के आधार पर आर एस एस एस की राजपूत और भूमिहार लाबी ने वामपन्थी प्रत्याशी का समर्थन किया और वह विजयी रहा । विडम्बना यह किउसी पैनल का दूसरा हरिजन प्रत्याशी मात्र पचासी वोट पाकर वीरान और बेजान पसरी सड़क पर अकेले क्रान्तिवाद-जिन्दाबाद चिल्लाताजा रहा था । इस माहौल ने ज्ञान और विद्या के प्रति ऐसी हिकारत को जन्म दिया है कि लेखक अध्यापकों की लिखी किताबों तक के बारे में बताते हुए उनकी गुणवत्ता के मुकाबले रणनीति को ही देखता हैशान्तिकाल के बीस वर्षों में इस विभाग से सिर्फ तीन पुस्तकों का प्रकाशन हुआ था । इण्टरव्यू घोषित होने के बाद से पैंतालीसवीं पुस्तक की सूचना थी। इन्हें भी लेखक अध्यापकों के विद्यार्थियों ने ही तैयार किया था । हाल यह है कि पुस्तकालय की किताबों से सीधे सहायता लेकर भारतीय काव्यशास्त्र, समकालीन साहित्य की भूमिका, रीतिकाल का कलात्मक योगदान, आदि-आदि ग्रन्थ तैयार किये जा रहे थे । शिक्षा संस्थानों के समग्र पतन की यह तस्वीर आज भी दुर्भाग्यवश सच से बहुत दूर नहीं है । हो सकता है ये शीर्षक बहुतेरे आकांक्षी अभ्यर्थियों के लिए सहायक साबित हों!                                

जिस हिंदीभाषी समाज में ये संस्थान हैं स समाज के साथ गांव अभिन्न रूप से संबद्ध हैं । उपनिवेशवाद के विरोध के क्रम में गांवों के प्रति आम तौर पर थोड़ा रूमानी नजरिया हिंदी की विशेषता रही है । इस मामले में देवेन्द्र शेष लोगों से बहुत अलग रुख अपनाते हैं ।

युवा और उच्च शिक्षा संस्थानों के केंद्र में आने से प्रेम भी केंद्रीयता प्राप्त कर लेता है । हिंदी भाषी समाज में प्रेमी जोड़ों की हालत किसी से छिपी नहीं है । उनके साथ बरती जाने वाली समूची क्रूरता बहुत गहराई के साथ इन कहानियों में व्यक्त हुई है । इस विषयवस्तु की प्रमुखता के लिए यही तथ्य जानना पर्याप्त है कि उनकी दो कहानियों ‘एक खाली दिन’ और ‘सपने के भीतर’ के नायक और नायिका सत्तो और शांतनु ही हैं । समान स्त्री पुरुष चरित्रों को लेकर दो कहानियों की रचना भी उनकी प्रिय विषयवस्तु का सबूत देती है । प्रेम के साथ ही देवेंद्र अपनी कहानियों में देह संबंध के सवाल पर भी बहुधा विचार करते हैं । इस मामले में वे प्रेम की थोड़ी रूमानी धारणा के शिकार भी लगते हैं । ‘क्षमा करो हे वत्स!’ में उनका स्वयं कथन है ‘स्त्री और पुरुष के बीच आकर्षण और फिर प्रेम एक स्वाभाविक गुण है । शारीरिक सम्बन्धों का उच्चतम रूप प्राप्त करने के बाद यह प्रेम समाजोन्मुख होने लगता है । हमारी विवाह संस्थाओं में इस स्वाभाविक प्रक्रिया का ही विरोध है । वहां शारीरिक सम्बन्ध पहली रात बन जाते हैं । बाद के दिनों में तरह-तरह के समझौते करते हुए हम प्रेम पैदा करने की कोशिश करते हैं । वे सुखी और सफल लोग हैं जो प्रेम पैदा कर लेते हैं’ । लेखक ने यह स्वयं कथन अपने वैवाहिक प्रेम की असफलता के बारे में किया है । जो व्यापक यथार्थ है उसकी कुरूपता को उजागर करते हुए वे लिखते हैं ‘गांव में लोग पत्नियों को बैल की तरह पीटते हैं और रात के अंधेरे में चुपके से दस मिनट के लिए उनके पास जाते हैं और कुत्ते की तरह सम्भोग करके फिर दरवाजे की अपनी चारपाई पर आकर सो जाते हैं’ । इस सामाजिक यथार्थ ने नैतिक पाखंड को जन्म दिया है ‘घूस, भ्रष्टाचार, मक्कारी, दूसरे की जमीन हड़प कर जाना आदि आदि हमारे समाज का स्वीकृत यथार्थ है । ये सब हमारे चरित्र को प्रभावित नहीं करते । सिर्फ कमर के नीचे का गोपनीय हिस्सा अस्पृश्य रहकर हमारे चरित्र को तेजस्वी बनाता है’ । निष्कर्ष कि ‘एक मांस पिण्ड निर्धारित करता है हमारे चरित्र को’ । लेखक ने अपनी प्रतिक्रिया को इस तरह व्यक्त किया है ‘नैतिकता के इन भारतीय और अमानवीय मानदण्डों पर मैंने समूचे बलगम को खंखारकर थूक दिया’ ।       

उनका विक्षोभ अक्सर व्यंग्य के सहारे अभिव्यक्त होता है । यह लगभग उनका स्थायी भाव है । इसकी सफलता से वे इतना अभीभूत हैं कि परिवर्तन के प्रयासों को भी इसका शिकार बना लेते हैं । हिंदी की आधुनिक कहानी के इतिहास में क्रांतिकारियों का मजाक उड़ाने वाली कहानियों की लम्बी परम्परा है । देवेन्द्र की कहानी ‘क्रान्ति की तलाश’ भी इसी धारा का अंग बनकर रह गयी है । इस तरह की कहानियों को आचार्य शुक्ल की शब्दावली में सांप्रदायिक साहित्य कहा जा सकता है । अगर पाठक को ठोस संदर्भ न मालूम हो तो रेणु की ‘आत्मसाक्षी’ या काशीनाथ सिंह की ‘लाल किले का बाज’ को सराहना मुश्किल है । इस कहानी का जिक्र इसलिए जरूरी है कि उनकी अन्य कहानियों के भी विद्रोही पात्रों की आदर्श भाषा प्रकाश की उद्धत भाषा का अनुगमन करती है ।

गांव के प्रति रूमानी नजरिये का प्रतिकार उनकी कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स!’ में सबसे अधिक मिलता है । कहानी न केवल सच्ची घटना का आभास देती है बल्कि सच है भी । कथावाचक के पुत्र का अपहरण हुआ और उसके अवशेष किसी खेत में मिले । उनके इस दुख में शामिल होने की जगह लोग भुना रहे थे । लेखक की टिप्पणी है ‘गांवों के सामाजिक ढांचे के भीतर निरंकुशता और स्वार्थपरता रोम-रोम में रची-बसी होती है’ । कहने की जरूरत नहीं कि भारत के गांव की यह आलोचना जातिप्रथा के दंश को भोगने वालों के अनुभव  से पूरी तरह अलग है ।                                   

Saturday, December 6, 2025

जनेवि में हिंदी

 

             

                         

जो लोग जनेवि के भाभाके से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की पढ़ाई करते हैं उनका अनुभव शोध करने आये लोगों से अलग होता है । मेरा प्रवेश शोधार्थी के बतौर 1989 में हुआ । तब प्रवेश हेतु लिखित परीक्षा जनेवि ही लिया करता था । लिखित परीक्षा काहिविवि में दिया था । साक्षात्कार हेतु उपस्थित होने का निमंत्रण मिलने पर पहली बार दिल्ली आया । इससे लगभग छह माह पहले दर्शनशास्त्र के शोधार्थी गोरख पांडे ने आत्मघात कर लिया था । बड़े भाई अवधेश प्रधान उनके घनिष्ठ थे इसलिए मेरे दिल्ली आने से थोड़ा आशंकित थे । गोरख जी से मेरा भी दो तीन दिनों का साथ बनारस में रहा था । उनके निधन के बाद जीवन का पहला लेख लिखा था ।

मुझसे पहले रामतीर्थ पटेल का प्रवेश हो चुका था । उन्हीं के पास पेरियार में सीधे आया । उनके शोध निर्देशक मैनेजर पांडे थे और मुझे भी पूर्व परिचय के कारण उनसे ही मिलना था । देखा शोधार्थी अपने निर्देशक से सीधे मिलने में संकोच करते हैं । हमारे लिए यह विचित्र था । बाद में देखा पूरे जनेवि में केवल हिंदी के ही विद्यार्थी अपने अध्यापकों के पांव छूते हैं । पूछ्ने पर अब भी ऐसा करने वाले सम्मान का तर्क देते हैं । सवाल उठता है अन्य विषयों के जो विद्यार्थी ऐसा नहीं करते वे असम्मान तो नहीं करते फिर हिंदी के लिए यह विशेष चलन क्यों । पिता माता के तो शिष्टाचार में छूने की आदत रही लेकिन अध्यापकों के साथ आम तौर पर दोस्ती जैसा ही रिश्ता रहा था । असल में हिंदी इलाके का यह सामंती चलन जनेवि के हिंदी में भी चला आया था । इसके अलावे एक चलन और देखा जिसे काहिविवि में बंद होते हुए देखा था । मौखिकी परीक्षा में शोधार्थी मिठाई का बंदोबस्त करते थे । इसे त्रिभुवन सिंह ने बंद करा दिया था लेकिन यह दुर्गुण जनेवि के हिंदी में बचा रह गया था । एक और बात बहुत अखरी कि हिंदी के विद्यार्थी जनेवि के सामाजिक जीवन की मुख्य घटना अर्थात छात्र संघ चुनावों में मतदान तो करते हैं लेकिन उम्मीदवार नहीं होते । हमारे अध्यापक भी अध्यापक संघ में किसी पद पर नहीं होते थे । एक बार मैनेजर पांडे ने उपाध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा लेकिन चिनाय से हार गये । सहपाठी देवेन्द्र चौबे बाद में अध्यापक संघ के पदाधिकारी निर्वाचित हुए तो खुशी हुई ।   

जनेवि की बात हो तो उसके छात्र संघ का जिक्र अवश्य होगा । इसके चुनाव अब भी उत्सव की तरह होते हैं । दस से अधिक दिनों तक अलग अलग छात्रावासों के भोजनालय में सभाएं होती थीं जिनमें प्रत्याशियों के साथ उनके समर्थन में राजनीतिक नेताओं या बौद्धिकों के व्याख्यान होते थे । सभा में प्रश्नोत्तर होते जिसकी चर्चा देर रात तक गंगा ढाबे पर होती रहती थी । चुनाव से अलग भी किसी भी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर इस तरह के व्याख्यान नियमित रूप से रात के खाने के उपरांत होते । इन उत्तेजक व्याख्यानों में हम सब देश के तमाम नेताओं और बौद्धिकों को सुनते । कभी कभी विभिन्न विषयों के अध्यापक भी ये व्याख्यान देते । इनमें भी हिंदी के नामवर सिंह को ही सुना । छात्र संघ चुनाव के दौरान की सभाओं में सबसे आकर्षक घटना उम्मीदवारों और खासकर अध्यक्ष पद के प्रत्याशियों की बहस थी । इस बहस को सुनने अध्यापक तो आते ही थे, दिल्ली के अन्य बुद्धिजीवी भी अक्सर आते थे । आज भी यह परम्परा कमोबेश कायम है ।

इन चुनावों में हमारे सहपाठी जयप्रकाश लीलवान प्रत्याशी के बतौर खड़े हुए थे लेकिन उससे भी हिंदी के विद्यार्थियों का अलगाव नहीं टूटा । उर्दू से अलबत्ता कुछ छात्र सक्रिय रहते । शकील तो अध्यक्ष भी रहे । बाद में आशुतोष, प्रणय और संजय कुमार भी चुनाव लड़े लेकिन विजय केवल प्रणय को मिली । हिंदी इलाके के विद्यार्थियों ने छात्र राजनीति में अपनी जगह बनायी तो इसका वाहक आइसा और अभाविप बने जो आज भी छात्र राजनीति में विरोधी ध्रुवों का प्रतिनिधित्व करते हैं । छात्रावासों के माहौल और निजी रुचि के कारण राजनीति से चंद्रशेखर, इतिहास से प्रथमा और तिथि, रूसी से शुभ्रा आदि से मित्रता बनी ।      

प्रवेश के कुछ ही दिन बाद ये चुनाव होते हैं । 1989 के चुनाव थे । उसी दौरान की सभाओं से पता चला कि अब तक के हिंदी से जगदीश्वर चतुर्वेदी एकमात्र छात्र संघ अध्यक्ष रहे थे । उनका भाषण सुनने गया । बाद में भी उनसे एकाधिक प्रसंगों में मुलाकात हुई । हम हिंदी के विद्यार्थी जनेवि के जीवन के इस सर्वाधिक जीवंत मौके से कटे अपने भीतर ही सिमटे रहते । ऐसे में हमारे वरिष्ठ शम्भुनाथ सिंह ने जो अब कुलपति हैं अपने कावेरी छात्रावास में हिंदी के विद्यार्थियों की बातचीत का सिलसिला शुरू किया तो उसमें जाने लगा । उससे प्रदीप तिवारी, सियाराम शर्मा, रमेश कुमार, मृत्युंजय सिंह, महेश आलोक, संजय कुमार, संजय जोशी आदि से घनिष्ठता हुई । मुनिरका में पुराने परिचित प्रमोद सिंह, अनिल सिंह और राधेश्याम मंगोलपुरी रहते थे । उनके पास भी आना जाना शुरू हुआ । मुनिरका जनेवि का विस्तार ही है । विवाहोपरांत सपरिवार छात्रावास मिलने से पहले मुझे भी रहना पड़ा था ।  

अध्ययन शुरू हुआ तो देखा कि अध्यापक तो बहुत कम हैं लेकिन उनका जलवा बहुत है । देश भर से लोग उनसे मिलने आया करते और दिल्ली के भी साहित्य जगत में उनकी उपस्थिति बहुत ही चमकदार होती थी । बोरी भर अध्यापकों के विभाग से आया था और मुट्ठी भर अध्यापकों की सक्रियता देख रहा था । इनके कारण ही दिल्ली और देश के तमाम विद्वानों को देखने सुनने का मौका मिलता । ब व कारंत और एजाज़ अहमद के व्याख्यान याद हैं । बाद में एजाज़ साहब ने पहल की ओर से मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर त्रिवेणी में भी व्याख्यान दिया । उसे छपाकर ज्ञानरंजन ने मुफ़्त वितरित किया था । बाद में सुना कि उन्होंने इतिहास में कुछ पढ़ाया भी था । केदार जी को जब साहित्य अकादमी मिला तो हम सबने उनकी कविताओं का पाठ उनकी मौजूदगी में किया । मैनेजर जी ने व्याख्यान दिया और केदार जी ने भी अपनी कविताओं का पाठ किया । इन अध्यापकों और जनेवि के समूचे माहौल के कारण हिंदी के विद्यार्थियों को समाज विज्ञान के विद्यार्थियों के सामने भी आत्मविश्वास से बोलने का साहस मिला था । दिल्ली शहर का कोई भी साहित्यिक कार्यक्रम हमारे इन अध्यापकों की अनुपस्थिति में सम्भव नहीं था । उनके कारण हम विद्यार्थी भी चौड़े होकर घूमते थे । इनकी राय पर तीखी बहसें होती थीं । देश के बाहर से भी विद्यार्थी आते थे । फिलहाल सरकार के कोप की शिकार फ़्रांचेस्का ओर्सिनी नामवर जी की कक्षाओं में बैठतीं ।  

कक्षाओं के बाहर की दुनिया भी बहुत उत्तेजक होती । किताबों और पत्रिकाओं के लिए परिसर में ही दुकान थी । जनेवि से प्रतिदिन साहित्य अकादमी के लिए बस जाती थी । इतिहास के विद्यार्थी तीन मूर्ति जाया करते थे । छात्रावासों में सभी विषयों के विद्यार्थी रहते और भोजनालय में एक साथ खाते थे । खाते समय विभिन्न छात्र संगठनों की ओर से जारी परचों को पढ़ते और उन पर बहस करते । इन सबने लगभग प्रत्येक छात्र को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सामयिक मसलों का विशेषज्ञ बना दिया था । इस माहौल ने किसी विद्यार्थी को अपने ही विषय तक सीमित नहीं रहने दिया ।       

जनेवि के इसी माहौल ने ऐसा कर दिया कि देश के किसी भी कोने में प्रशासन, पत्रकारिता और अध्यापकों की दुनिया में कोई न कोई मिल जाता है । उसे बरबाद करने की कोशिशों का पता सबको है इसलिए यह नजदीकी सभी बरकरार रखे हुए हैं । हाल में पेरिस से आये फोन से सत्यम झा को मेरी याद का पता चला तो गर्व हो आया ।   

                                

Tuesday, December 2, 2025

भारत के संविधान का निर्माण

 


2025 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से रोहित डे और ओर्नित सानी की किताब ‘असेम्बलिंग इंडिया’ज कनस्टीच्यूशन: ए न्यू डेमोक्रेटिक हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का कहना है कि इस किताब में संवैधानिक राजनीति की समृद्ध दुनिया की यात्रा है । साथ ही देश के संविधान को आकार देने वाली कल्पना की भी जांच परख की गयी है । इस अनकही कहानी को कहने में छह साल लगे और यह समय लेखकों को प्रेरक प्रतीत हुआ । दोनों ही अपनी अपनी किताबों के लिए भारत के संविधान निर्माण की अभिलेखीय सामग्री छान रहे थे और इसी क्रम में यह किताब उनकी संयुक्त लेखन योजना में शामिल होती चली गयी । इसका लेखन कोरोना के दौरान हुआ । किताब में आये नाम उसी रूप में रखे गये हैं जिस रूप में वे दस्तावेज में मिले । सामाजिक समूहों के उन नामों का इस्तेमाल हुआ है जो नाम ये समूह अपने आपको देते हैं । संविधान सभा की बहसों में वक्ता के साथ बहस की तारीख का उल्लेख हुआ है । किताब की शुरुआत मई 1947 में बंगाल में पद्मा नदी के बीच बसे लोगों द्वारा संविधान सभा को लिखे एक पत्र से हुई है जिसमें परिस्थिति के अस्थिर होने की चिंताकुल सूचना दी गयी है । इस इलाके में मशालची समुदाय के लोग रहते थे और नदी की तेज धारा द्वीपों की मिट्टी को लगातार ही इधर से उधर करती रहती थी लेकिन जब चिट्ठी लिखी जा रही थी तो नदी की धारा के मुकाबले विभाजन के हालात ने अस्थिरता को जन्म दिया था । वे लोग बनने वाली प्रतिनिधि सभाओं में अपना अलग प्रतिनिधित्व चाहते थे ताकि उनकी सांस्कृतिक विशेषता पूरी तरह सुरक्षित रह सके । विभाजन की घोषणा के बस दो हफ़्ते पहले यह पत्र लिखा गया था । उस समय मशालची समुदाय सचमुच अस्थिर था । नदी की धारा में बदलाव के साथ उनके निवास के जिले भी बदल जाया करते थे । उन्हें भय था कि सीमा उनके सिर पर से गुजरेगी । वे लोग इस्लाम में विश्वास करते थे लेकिन मुस्लिम लोग उन्हें अपना अंग नहीं मानते थे । इसके चलते वे राजनीतिक और आर्थिक रूप से अपंग महसूस करते थे । आजादी के मौके पर उन्हें लगा कि इस समय उनकी स्थिति सही और निश्चित हो सकती है । नये राष्ट्र के निर्माण के इस अवसर पर उन्हें अपनी पहचान को उभारने की आशा पैदा हुई । इस तरह के बहुतेरे अन्य समूह भी थे जो संविधान निर्माण को इस नये काम के लिए सही मौका समझ रहे थे । उन्हें अपने भविष्य के सुनिश्चित होने की उम्मीद संविधान से पैदा हुई ।

उसके निर्माण की कहानी को दिल्ली और लंदन तक ही आम तौर पर सीमित रखा जाता है । इस प्रचलित कहानी के अनुसार  9 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा की बैठक के साथ इस प्रक्रिया की शुरुआत हुई । सभा में 205 सदस्य थे जिनमें दस स्त्रियां थीं । वातावरण में उत्साह और अनिश्चय था । इसके मुताबिक मुट्ठी भर समझदार लोगों ने देश को दूरदृष्टि और उदारता के साथ यह बहुमूल्य उपहार प्रदान किया । निर्वाचित सदस्य प्रत्यक्ष चुनाव से नहीं आये थे । वे 1935 के इंडिया ऐक्ट के आधार पर धार्मिक, सामुदायिक और पेशेवर चुनिंदा निर्वाचकों द्वारा 1946 में चुने गये विधान मंडलों के प्रतिनिधि थे । सभा ने 26 नवम्बर 1949 को संविधान अंगीकृत किया और 26 जनवरी 1950 को इसे लागू माना गया । माना जाता है कि इसी दौरान (1946 से 1949 के बीच ) वह सब कुछ घटित हुआ जिसके कारण संविधान को उसका मौजूदा रूप मिला । इसे समझने के लिए इस दौरान हुई घनघोर बहसों के दस्तावेज खंगाले जाते हैं । इस तरह समूचा भारतीय संविधान चुनिंदा लोगों की आपसी रजामंदी की उपज बनकर रह जाता है । कुछ विचार गिनाये जाते हैं जिन्होंने इसका बुनियादी ढांचा तैयार किया । इस समझदारी में संविधान औपनिवेशिक अतीत से बिलगाव की जगह उसकी निरंतरता में नजर आता है । संविधान निर्माण की इस कहानी के मुकाबले इस किताब में वैकल्पिक कहानी सुनायी गयी है । इसके मुताबिक संविधान का निर्माण सभा के बंद कमरे के भीतर नहीं उसके बाहर बनाया गया । इसमें देश के विस्तृत भूगोल और उसके भी परे की तरह तरह की सामाजिक ताकतों ने भाग लिया । समूचे महाद्वीप में संविधान निर्माण की बहुमुखी और समानांतर प्रक्रियाओं की मौजूदगी को इस किताब में देखा और समझा गया है । यह प्रक्रिया हिमालय की लाहौल स्पीति से लेकर दक्षिण भारत के सुदूर इलाकों समेत बंगाल के चटगांव और सौराष्ट्र तथा स्टाकहोम और कैलिफ़ोर्निया के प्रवासी भारतीयों में चल रही थी । इन जगहों के रहने वाले ये सभी लोग अपने अपने सामाजिक जीवन और अनुभवों के आधार पर भविष्य के अपने संविधान को प्रभावित कर रहे थे । यह अद्भुत प्रक्रिया सभा की बहसों के साथ साथ नीचे से चल रही थी । अंदर की घनघोर बहसों के दस्तावेज तो इसके सामने कुछ भी नहीं हैं । सभा के बाहर जनता में जो हलचल थी उसके दस्तावेज अंदर की बहसों के दस गुना हैं ।

भविष्य के संविधान निर्माण को देश के लोगों ने अपनी बहसों के जरिए युद्ध के मैदान में बदल दिया था । इसी प्रक्रिया ने इतने लचीले संविधान को जन्म दिया । औपचारिक कानूनी प्रक्रिया के इतर संविधान बनने की यह जीवंत प्रक्रिया संविधान के परवर्ती ग्रहण, वैधता और दीर्घजीवन के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई । इसके निर्माण में भागीदारी की वजह से आम लोग इस पर अपना अधिकार समझ सके । उनके इस बोध ने भारत में लोकतंत्र के वास्तविक जीवन को आकार दिया । देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सामने जो भी जटिल और कठिन चुनौती आयी उस पर पार पाने में संविधान पर जनता के इस अधिकार भाव ने बहुत बड़ी मदद की । औपनिवेशिक शासन की समाप्ति और संविधान लिखे जाने के बीच की अवधि में लोग और भूभाग में भारी अनिश्चितता रही । विभाजन के फैसले के छह महीने पहले ही सभा ने अपना कामकाज शुरू किया था । इसमें कांग्रेस का दबदबा था । दूसरा बड़ा दल मुस्लिम लीग का था लेकिन उन्होंने कार्यवाही में हिस्सा नहीं लिया । 550 देसी रियासतें अंग्रेजी राज का हिस्सा नहीं थीं और औपनिवेशिक शासन के खात्मे के साथ संप्रभु हो जाने वाली थीं । उनका भविष्य भी तय नहीं था । उनके कब्जे में लगभग आधा देश था । सभा में उनके 93 प्रतिनिधि थे जिनके चुने जाने में जनता की कोई भूमिका नहीं थी । आदिवासी इलाकों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं हुआ था और उनका भविष्य भी तय नहीं था । अंग्रेजी राज की सार्वजनिक संस्थाओं, प्रांतीय विधानमंडलों, न्यायपालिका और नौकरशाही का भी भविष्य कोई बहुत निश्चित नहीं था । उनमें काम करने वाले भारतीय थे और उन्हें नये संवैधानिक व्यवस्था के मातहत लाया जाना था । दरिद्रता, अशिक्षा और सामाजिक भेदभाव की मौजूदगी इस अनिश्चयता को और भी भयावह बना रही थी ।

देश की सीमा भी निर्धारित नहीं थी और जिन पर यह संविधान लागू होना था उनकी नागरिकता भी तरल बनी हुई थी । सबसे बड़ी बात कि औपनिवेशिक शासन की सुविधा के लिए बनी संस्थाओं को आजाद देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से कैसे ढाला जाय । लोगों को मालूम था कि इन सवालों पर संविधान जो भी तय करेगा उसका सीधा असर उनके जीवन पर पड़ेगा इसलिए उन्होंने इस प्रक्रिया में जिम्मेदार उत्साह के साथ भाग लिया । संविधान की भाषा में ही उन्होंने अपने संघर्षों और आकांक्षाओं को व्यक्त करना शुरू किया । उनकी मांगें जातिगत, वर्गगत, लैंगिक, धार्मिक और भाषाई सरोकारों से उपजी थीं । उनकी राजनीति संविधान निर्माण की प्रक्रिया से जुड़ गयी और वे संविधान के लेखन में अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल हुए और इस तरह संविधान को अनौपचारिक जीवन मिला । उनके लिए यह पूरी प्रक्रिया औपनिवेशिक संविधान सुधार से पूरी तरह अलग थी । यह संविधान उनका अपना होना था । उनकी बहुतेरी बातें सुनी नहीं गयीं लेकिन संविधान निर्माण के साथ उनकी इस संलग्नता ने तय कर दिया कि भारत का संविधान किताब तक ही कभी सीमित नहीं रहेगा । संविधान निर्माण की इस प्रक्रिया ने ऐसी राजनीति और संवैधानिक भाषा को जन्म दिया जो भारत की बहुलतावादी राजनीति में समायी हुई है । आज भी कानून की चारदीवारी के बाहर चलने वाली संवैधानिक राजनीति उसी भाषा से संचालित होती है ।    

लेखकों ने सफाई देते हुए कहा कि उनका मतलब यह नहीं कि संविधान बनने की प्रक्रिया ने सार्वजनिक रुचि जगा दी, न ही यह कि नये संविधान की उम्मीद ने सभा की चारदीवारी के बाहर संविधान से संलग्नता पैदा कर दी । इसकी जगह वे नया परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करना चाहते हैं जिसमें घटनाक्रम इस तरह नजर आये कि 1946 से शासकीय संस्थाओं और व्यापक विविधतापूर्ण जनता की संविधान के साथ सक्रिय संलग्नता ने संविधान निर्माण की प्रक्रिया को अब तक प्रभावित किया है । जो संविधान लिखा गया उसे प्रभावित करने में सफलता को पैमाना बनाने से लोकप्रिय संवैधानिक राजनीति को, खासकर उसमें होने वाले संशोधन और व्याख्या की प्रक्रिया को समझना मुश्किल होगा । 1950 में अगर लोग संविधान के लेखन को प्रभावित नहीं भी कर सके तो आगामी दशकों में उसके संशोधन और व्याख्या पर तो इसका असर जरूर रहा ।  

संविधान निर्माण की इस तरह की कहानी सुनाने के क्रम में लेखकों ने उसके विकास के कालक्रम में उलटफेर किया और संविधान तथा कानून के स्रोतों को बहुलता प्रदान की । इसका निर्माण चुनिंदा दूरदर्शी लोगों की जगह जनता के बीच जारी संवाद से होता हुआ नजर आता है । इस क्रम में लेखकों ने अब तक उपेक्षित कुछ नयी ताकतों पर ध्यान दिया है लेकिन इससे ही इसका निर्माण लोकतांत्रिक नहीं हो जाता । उन्होंने बस यह कहा है कि भारतीय जनता संवैधानिक भाषा में पारंगत हुई और उसने अपनी बात सुनाने की कोशिश की । उन्होंने अपने अधिकारों पर बल दिया और इससे लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया में थोड़ी तेजी आयी ।

लेखकों का कहना है कि हाल के दिनों में संवैधानिकता को लोकतांत्रिक राजनीति के रास्ते की रुकावट कहा जा रहा है । इस मत के अनुसार बदलाव को कानूनी घेरे या बहुत हुआ तो संशोधन तक ही सीमित रखा जा रहा है । हमारे देश में संविधान बनने के साथ इतनी गहरी राजनीतिक संलग्नता रही है कि लोकतांत्रिक राजनीति के साथ संविधान अभिन्न हो गया है । संविधान का पहला मसौदा तैयार होने से पहले अप्रैल 1947 में ही सार्वभौमिक मताधिकार मंजूर कर लिया गया । अगले ही साल से मतदाता सूची के निर्माण का काम भी शुरू हो गया । इस तरह सरकार बनाने में सबके बराबर अधिकार की बात संवैधानिक राजनीति के साथ नाभिनालबद्ध हो गयी । नये लोकतांत्रिक यथार्थ को अंग्रेजी राज के समय बनी प्रातिनिधिक संस्थाओं के साथ जोड़ लिया गया । उस समय तक संविधान बनाने का ऐसा अनुभव किसी देश के पास नहीं था । भारत में संविधान से लोकतंत्र नहीं आया । संविधान की उम्मीद के साथ देश की राजनीति का लोकतंत्रीकरण हुआ 

संविधान के सिलसिले में अधिकांश लेखन संविधान सभा की बहसों और संविधान के पाठ पर केंद्रित रहता है । उनमें मान लिया जाता है कि संवैधानिक राजनीति का विस्तार भारत के लोगों की कल्पना, रुचि और क्षमता के बाहर की बात थी और वे इस प्रक्रिया से पूरी तरह उदासीन थे । लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि भारत के लोगों को अहसास नहीं था कि उन्हें क्या मिला है । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि संविधान निर्माण से आम जनता दूर थी और संविधान बनाने वालों के लिए जनता के लोग अमूर्त थे । फिलहाल तो यह भी कहा जा रहा है कि संविधान देश की जनता के ठोस अनुभवों से रहित था और उसमें विदेशी गंध बहुत अधिक थी । उसकी भाषा भी आम जनता के लिए अबूझ है । इन मान्यताओं से संविधान बनने की प्रक्रिया में रुचि तो नहीं ही पैदा होती, यह धारणा भी बनती है कि संविधान तो भारत की निरक्षर और अलोकतांत्रिक जनता को लोकतंत्र की शिक्षा देने का माध्यम था । इसके उलट इस किताब के लेखकों को लगता है कि बहुतेरे भारतीय संविधान के जरिये प्राप्त होने वाली लोकतांत्रिकता के बारे में सजग थे । व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद के आधार पर उन्होंने अपनी मांग उठाने के लिए संगठित होना शुरू कर दिया और इसी प्रक्रिया में संविधान का अनुवाद अपने लिए सुबोध भाषा में किया । उन्होंने संविधान सभा को चुनौती दी और नये विचार प्रस्तुत किये । इस क्रम में उन्होंने सभा के सदस्यों को शिक्षित किया और संविधान पर अपना दावा ठोंका । इस तरह उन्होंने संविधान का अनुपनिवेशन किया ।  

संविधान बनाने की प्रक्रिया के स्थापित वर्णन में सभा की बहसों के अतिरिक्त बहसों के महत्वपूर्ण हिस्सों पर ध्यान नहीं दिया जाता । संविधान का लेखन तीन साल में हुआ जबकि सभा केवल एक साल तक बहस हेतु बैठी । इसके बाद की अवधि में लाखों लोगों ने जिस तरह जीवंत बहसें कीं उनका जिक्र संविधान निर्माण के प्रसंग में नहीं होता । संविधान निर्माण की प्रक्रिया की जितनी सूक्ष्म निगरानी देश की जनता ने की उसे भी इसे बनाने की प्रक्रिया के बाहर समझा जाता है । इस निगरानी ने अप्रत्याशित नतीजों को जन्म दिया । सभा के सचिवालय को जितने ज्ञापन मिले उन्हें सुरक्षित रखना भी मुश्किल हो गया । जिन दो सालों में सभा की बैठकें नहीं हुईं उस दौरान सभा के सदस्य देश और दुनिया के तमाम लोगों के साथ संवादरत रहे । इन तीनों साल जनता एकत्र होकर मांगें करती रही और संविधान की कमियां भी जताती रही । संविधान बनने की प्रक्रिया के साथ जनता का यह जुड़ाव और उनकी सक्रियता इस बात की इजाजत नहीं देती कि भारत के संविधान संबंधी बहसों को किसी भी स्तर पर समाप्त मान लिया जाय ।

किताब में संविधान के सिलसिले में देसी रियासतों, कबीलाई इलाकों के साथ अंग्रेजी संस्थानों के भीतर चलने वाली बहसों को भी जगह दी गयी है । अब तक इनकी उपेक्षा हुई है । ऐसा करने से आधा भूभाग और तिहाई आबादी नजरों से ओझल रही है । लेखकों के मुताबिक देसी रियासतों और कबीलाई इलाकों की घटनाओं की भूमिका संविधान बनने म बहुत महत्वपूर्ण रही हैं । इसी तरह प्रांतीय विधानमंडलों, नगरपालिकाओं, न्यायपालिका और नौकरशाही के भीतर चलने वाली बहसों भी देखी गयी हैं । इनके आधार पर भी बहुतेरे संवैधानिक कदम उठाये गये और उनकी विरासत अब तक बनी हुई है ।

इसके लेखकों में से ओर्नित सानी ने सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर 1947 से 1950 के बीच बनी पहली मतदाता सूची का अध्ययन किया है । उनका कहना है कि भारत जैसे भेदभावपूर्ण समाज में सरकार गठन हेतु प्रक्रिया की समता को संस्थाबद्ध करना संविधान के लेखन से पहले ही संपन्न हुआ और इसने देश के लोकतंत्र को जनता के लिए सार्थक और विश्वसनीय कहानी बना दिया । मतदाता सूची में नाम जुड़वाने के लिए संघर्ष ने संविधान के बनने से पहले ही उसे ठोस शक्ल दे दी । इसी तरह रोहित डे ने संविधान के अध्ययन के क्रम में पाया कि वेश्या या कसाई जैसे समाज के अत्यंत हाशिए के समुदायों ने भी नयी सरकार के नियमों से अपनी रक्षा के लिए संविधान का सहारा लिया था । इस तरह संविधान ने देश के लोगों के दैनन्दिन को बहुत गहाराई से बदला और इस बदलाव की अगुआई अल्पसंख्यक समूहों ने की । दोनों लेखकों के पहले के इन अध्ययनों को इस किताब ने आगे बढ़ाया है ।                                                                       

Friday, November 28, 2025

नयी सदी का समाजवाद


2025 में ब्रिल से टोनी स्मिथ की किताब ‘ए सोशलिज्म फ़ार द ट्वेन्टी-फ़र्स्ट सेन्चुरी: टुवर्ड्स द ‘फ़ुल ऐंड फ़्री डेवलपमेंट आफ़ इवरी इंडिविजुअल’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने सबसे पहले कुछ दावे किये हैं । पहला कि इस समय पूंजीवाद के साथ कुछ गम्भीर गड़बड़ चल रही है । इस दावे को बहुत कम लोग गलत कह पा रहे हैं । मौजूदा हालात के दुरुस्त होने की घोषणा शायद ही कोई कर सकता है । दक्षिणपंथी लोग इसकी वजह अपने बनाये ‘अन्य’ में तलाश कर रहे हैं । उनकी शिकायत बहुतों से है । उनके दुश्मनों की सूची काफी लम्बी है । उदारवादी कुलीन, धर्म निरपेक्षता को थोपने वाले नास्तिक, देश के प्रति श्रद्धा पर सवाल उठाने वाले अध्यापक, असली नागरिकों की जगह संसाधनों पर कब्जा करने वाले आप्रवासी, अनुचित लाभ उठाने वाले तमाम विदेशी राष्ट्र, पत्थरदिल नारीवादी, विपथगामी जीवनशैली अपनाने वाले, इन सबको मदद देने के लिए तंत्र की ताकत का खुशी से इस्तेमाल करने वाले नौकरशाह आदि इत्यादि । इस मामले में दक्षिणपंथी लोग बेहद रचनात्मक होते हैं और कल्पना से इनकी तादाद बढ़ाते रहते हैं

लेखक का कहना है कि प्रतिक्रियावादी सामाजिक ताकतों को राजनीतिक रूप से पराजित करना बेहद जरूरी है लेकिन फिर इनकी आलोचना क्या करनी जैसे मार्क्स के समय प्राचीन शासन की रक्षा को आलोचना का विषय बनाना लगभग गैर जरूरी था । वर्तमान पूंजीवाद के सबसे गम्भीर बौद्धिक को अच्छी तरह पता है कि गड़बड़ी कहां है । मार्टिन वोल्फ़ इसके बेहतर नमूने हैं । उनकी किताब ‘द क्राइसिस आफ़ डेमोक्रेटिक कैपिटलिज्म’ को वैश्वीकरण, वित्तीकरण, तकनीकी बदलाव और आर्थिक संकेंद्रण की वामपंथी आलोचना से बहुत अलग नहीं कहा जा सकता । वे विषमता में बढ़ोत्तरी, सामाजिक गतिशीलता में कमी, कर्जखोरी का अप्रत्याशित विस्फोट, टैक्स चोरी की लत, बड़ी कारपोरेट कंपनियों और धन्नासेठों के निर्लज्ज भ्रष्टाचार, मानवभक्षी किराया वसूली, नीति निर्माण में अमीरों के बढ़ते दबदबे, राजनीतिक सत्ता पर पकड़ मजबूत रखने के लिए जनता के भीतर मौजूद नस्ली, जातीय और सांस्कृतिक विभाजनों को हवा देने वाले अल्पतंत्र के नुमाइंदों की इजारेदारी तथा पर्यावरणिक चुनौती का मुकाबला करने के लिए आवश्यक और प्रभावी कदम उठाने में विफलता को दर्ज करते हैं । अन्य सिद्धांतकार भी उनके सरोकार से अपनी सहमति प्रकट करते हैं । मसलन नूरिएल रूबिनी की हालिया किताब का शीर्षक है ‘मेगाथ्रेट्स’ । इसके विभिन्न अध्याय ही आज के खतरों को गिनाने के लिए काफी हैं । कर्ज की फांस, अर्थव्यवस्था में उतार चढ़ाव के चक्र तथा कर्ज संकट की बात वे भी करते हैं । मुद्रा की कीमत में अस्थिरता तथा वित्तीय उठापटक के साथ धरती के निवासयोग्य न रह जाने की चिंता उनके लेखन में भी नजर आती है । इसी परिघटना को द्योतित करते हुए एडम टूज़ ने इतिहास के इस समय को बहुसंकटग्रस्त समय (पोलीक्राइसिस) कहा है ।

इतनी गम्भीर समस्या के लिए उतने ही गम्भीर विश्लेषण और गम्भीर प्रतिक्रिया की जरूरत है । आम तौर पर ऐसा हो भी रहा है । इसके सम्मुख जो वैचारिक माहौल बन रहा है उसे लेखक ने उदार लोकतांत्रिक ग़णतंत्र की विभिन्न किस्मों का नाम दिया है । लेकिन यह वैचारिकी पूंजीवाद को समझने और उससे पैदा सामाजिक व्याधियों का समाधान करने में अक्षम साबित हुई है । गणतंत्रवाद के नये रूप की कल्पना इस किताब में प्रस्तुत की गयी है इसलिए लेखक ने इस मामले को थोड़ा विस्तार से समझाया है । समाज सिद्धांत की दुनिया में आम तौर पर उदारवाद, लोकतंत्र और गणतांत्रिकता को भिन्न और आपस में असंगत समझा जाता रहा है । वर्तमान संदर्भ में गणतांत्रिकता को दो दावों के अर्थ में देखे जाने की जरूरत लेखक को लगती है । पहला कि संप्रभुता को किसी बादशाह या किसी कुलीन तबके के मुकाबले आम जनता में निहित माना जाए । इस जनता को लेखक ने सामाजिक अंत:क्रिया में संलग्न सामाजिक व्यक्तियों का समूह समझा है । दूसरा कि व्यक्ति बिना किसी की अधीन हुए अपनी पसंद का जीवन जीने के लिए स्वतंत्र हो । आधुनिक चिंतन में इस गणतांत्रिकता के अनेक रूप रहे हैं । उदाहरण के लिए हाब्स ने प्राधिकारी गणतांत्रिकता का पक्ष लिया लेकिन लाक की उदार गणतांत्रिकता में समाज द्वारा सरकार को प्रदत्त अधिकारों से समाज को सुरक्षित रखा जाना था । सरकार के विभिन्न अंगों में राजनीतिक सत्ता के विकेंद्रीकरण को इसी आधार पर उचित माना जाता है और निर्वाचित निकाय को कानून निर्माण की ही शक्ति प्रदान की गयी । अभिव्यक्ति की आजादी, एकत्र होने की आजादी, धर्म का पालन करने की आजादी, संपत्ति के स्वामित्व की आजादी और संविदा की आजादी समेत सभी नागरिक अधिकारों को शासन के दबदबे के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण के रूप में ही देखा जाता है । इसमें लोकतंत्र का तत्व दोनों ही प्रकार की गणतांत्रिकता से इस नयी धारणा को अलगा देता है । इन गणतांत्रिक सोचों में जनता के भीतर राजनीतिक समुदाय के सभी सदस्य शामिल हैं । उनमें वर्ग, नस्ल, लिंग, जातीयता आदि के आधार पर कोई भी विभाजन नहीं किया जाता । राजनीतिक नागरिकता की इस समानता का अर्थ सामाजिक आजादी की कान्टीय धारणा का विस्तार भी है । कान्ट की धारणा के मुताबिक गणतांत्रिकता का अर्थ अपने लिए खुद ही बनाये कानूनों के अधीन रहना है । कान्ट उस तार्किक समझौते को खुशी से स्वीकार कर लेते हैं जिसके तहत अत्यंत सीमित मताधिकार के आधार पर निर्वाचित विधायिका कानून बनाती है और उसे उतनी ही कम जवाबदेह कार्यपालिका लागू करती है । इसके विपरीत लोकतंत्र के पक्षधर कहते थे कि अपने ऊपर शासन का मतलब सार्विक मताधिकार पर आधारित चुनाव से आये लोगों को ही राजनीतिक सत्ता सौंपी जा सकती है और इसी आधार पर उनसे यह सत्ता वापस भी ली जा सकती है । इसके अलावे राजनीतिक नागरिकता की औपचारिक समानता ही पर्याप्त नहीं है । व्यक्तियों को इस सामाजिक दुनिया में भी बराबरी चाहिए जिसका मतलब है आजादी के साथ विकसित होने और बुनियादी मानव क्षमताओं को बरतने का उचित अवसर उपलब्ध होना । इसके लिए शिक्षा, आवास, सेहत, रोजगार आदि का भी सार्वभौमिक अधिकार होना चाहिए ।

उदार लोकतांत्रिक गणतांत्रिकता के समर्थक कहते हैं कि पूंजीवादी बाजार समाजों में आजादी के रूप सैद्धांतिक तौर पर तो मौजूद हैं । कारण कि जब तक सबको मनोनुकूल काम करने के अधिकार का सम्मान है तब तक व्यक्तियों को अपने मकसद, उसके लिए जरूरी कौशल, उस कौशल के लिए उपयुक्त रोजगार, मनपंसद जीवन जीने के लिए आवश्यक सामान, आमदनी से बचत की मात्रा तथा इस बचत के निवेश आदि के बारे में फैसला का हक होता है । हालांकि पूंजीवादी बाजार समाज बहुतेरा अपने सदस्यों को ये अधिकार नहीं प्रदान करते लेकिन उदार लोकतंत्र के विश्वासी बौद्धिक इसे उन समाजों का अंतर्निहित गुण मानने की जगह अपवाद और आपदधर्म मानते हैं । इसी मामले में यह व्यवस्था दास प्रथा, सामंतवाद या नौकरशाही के नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था से अलग मानी जाती है । उनका यह भी मानना है कि पूंजीवादी बाजार समाज में उत्पादक गतिशीलता होती है । बाजार की होड़ और उसके लाभ का लोभ उत्पादकों को सामान्य लोगों की जरूरत की वस्तुओं को उनकी हैसियत के मुताबिक कीमत पर बनाने और बेचने के लिए मजबूर करते हैं । नतीजा यह कि उत्पाद की दर और उसकी प्रक्रिया में नयापन अभूतपूर्व हो गये हैं । इसी वजह से भौतिक समृद्धि भी पहले के सभी युगों से अधिक है तथा मनुष्य का जीवन दीर्घतर और बेहतर हुआ है । उनको लगता है कि अन्य कोई व्यवस्था मनुष्य के लिए इतनी खुशहाली नहीं ला सकती थी । लेकिन ये लोग भी पूंजीवाद के पक्ष में ढोल नगाड़ा नहीं बजा रहे हैं । इन्हीं बौद्धिकों ने बहुसंकटग्रस्ति और भयावह खतरों की बात उठायी है । उन्हें उदार लोकतांत्रिक गणतांत्रिकता के बुनियादी मूल्यों को भी खतरा महसूस हो रहा है । इसके बावजूद उनको लगता है कि पूंजीवादी बाजार इन अनचाहे और अस्वीकार्य नतीजों को काबू कर लेगा । मसलन मार्टिन वोल्फ़ निश्चिंत भाव से केवल सफल अर्थतंत्रों की जगह सारे संसार में निवेश की वकालत कर रहे हैं ताकि धरती के अस्तित्व पर आसन्न गंभीर चुनौतियों का मुकाबला किया जा सके और अर्थतंत्र में सुधार किया जा सके साथ ही वे आजकल की नयी असुरक्षाओं के कारण नये किस्म के सामाजिक बीमा की वकालत भी करते हैं । रोजगार छिनने, उद्यम बरबाद होने के अलावे सेहत की खराबी इस समय की नयी असुरक्षा को जन्म दे रहे हैं । इसके अतिरिक्त वे सामाजिक और राजनीतिक नयेपन की वकालत करते हैं । उनके मुताबिक बीसवीं सदी के मध्य में ऐसा नयापन किया गया था ।

इन सभी कामों को बाजार के भरोसे नहीं किया जा सकता । सरकारों को ही इन मामलों में नीति बनानी होगी । उदाहरण के लिए जलवायु संकट के क्षेत्र में वैज्ञानिक खोज में निवेश बढ़ाना, नयी तकनीकों को लागू करने में आर्थिक सहायता, पूरक तकनीक को करके सिखाने में निवेश, जीवाश्म ईंधन को सहायता बन्द करना, कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कार्बन को कीमती बनाना तथा कई विकासशील देशों में वित्त को सुरक्षित रखना जरूरी होगा । वोल्फ़ को दुख है कि इस मामले में वैश्विक उथल पुथल को रोकने के लिए जितना काम करने की जरूरत है उतना करने लायक नीतियों के निर्माण में ढिलाई बरती जा रही है ।

इन बौद्धिकों में इस बात को लेकर मतभेद है कि आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करने वाली नीतियां बनाने में सरकार को किस हद तक छूट दी जाय । मध्यमार्गी उदारवादी लोग बाजार को प्रेरित करने वाली नीतियों को बनाने के पक्ष में हैं तो इनसे अधिक वामपंथी लोग ग्रीन न्यू डील हेतु राजकीय सहायता, सबके लिए रोजगार तथा निश्चित न्यूनतम आय की बात करते हैं । इनके समर्थक और साथ ही इनके आलोचक भी इन्हें समाजवादी कहते हैं । लेकिन ये लोग भी बाजार आधारित पूंजीवाद से परे नहीं जाना चाहते । मध्यमार्गी उदारवादियों की तरह ही ये भी बाजार पूंजीवाद का स्वीकार्य रूप ही स्थापित करना चाहते हैं । दोनों ही समकालीन पूंजीवाद के रक्षणीय पहलुओं की रक्षा के लिए प्रतिक्रियावाद विरोधी जरूरी राजनीतिक ताकतों को गोलबंद करना चाहते हैं । साथ ही वे उदार लोकतांत्रिक गणतांत्रिकता के अधूरे कामों को भी पूरा करना चाहते हैं ।

लेखक का मानना है कि पूंजीवाद के स्वीकार्य रूप की स्थापना असम्भव है । इसका मतलब यह नहीं कि पूंजीवाद में सही निर्णय लेने वाले, बेहतर नीतियों वाले या नैतिक लोग होते ही नहीं । कभी कभी ऐसे लोग शासन में भी आ जाते हैं जो सत्ता का उपयोग लोगों की भलाई के लिए ईमानदारी से करना चाहते हैं । फिर भी पूंजीवादी बाजार समाजों के मूल्यांकन के मकसद से यह बात बेमतलब की है । असल सवाल मानव मुक्ति के विरुद्ध कार्यरत बुनियादी ढांचों और प्रमुख प्रवृत्तियों का है । उदारवादी भलेमानुस लोग पूंजीपति वर्ग को वह ताकत प्रदान करते हैं जो उनके ही लक्ष्य के विपरीत काम करना चाहती है । पूंजीवाद का इतिहास ही खुली विषमता, दमन, बढ़ते उत्पीड़न और शोषण का रहा है । बीच बीच में जरूर ऐसे लमहे आये हैं जब सुधार के लिए संघर्षरत प्रगतिशील आंदोलन भी उठते रहे और इनके कारण उदार लोकतांत्रिक गणतांत्रिकता का मुक्ति का वादा क्रूर मजाक में तब्दील होने से कुछ हद तक बचा रहा । इन सभी आंदोलनों से जो भी सुधार लागू हुए उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर बारम्बार विषमता, उत्पीड़न, दमन और शोषण के नये नये रूप प्रकट होते रहे । जब भी आर्थिक हालात या सामाजिक शक्ति संतुलन में बदलाव आया तो इन सुधारों को तुरंत उलट दिया गया । वैसे भी इन सुधारों ने कुछ ही लोगों के हालात बेहतर किये और नीचे तक पहुंचने में एकदम नाकाम रहे । इसी कारण इन सभी सुधारों के बावजूद समाज में समता नहीं आ सकी और सामूहिक स्वशासन सपना ही बना रहा ।

मध्यमार्गी उदारवादियों और सामाजिक जनवादियों ने पूंजीवाद के तहत संपत्ति और उत्पादन संबंधों को जिस तरह परिभाषित किया है उसके बारे में किताब के दूसरे अध्याय में ठीक से विचार किया गया है । इन संबंधों की तेजी का कारण जो तकनीकी गतिशीलता रही है और जिसने पूंजीवादी बाजार समाजों को बल प्रदान किया है उसके कारण ही इन समाजों की आर्थिक गतिशीलता बाधित हो रही है । यही गुत्थी इन समाजों की सामाजिक रुग्णता में व्यक्त हो रही है । सर्वाधिक मूलगामी सुधार भी इससे पार पाने में सक्षम नहीं नजर आते । विश्व इतिहास के जिस क्षण विशेष में हम रह रहे हैं उसकी चुनौतियों से पार पाने में अगर पूंजीवादी ढांचे के भीतर सर्वाधिक प्रगतिशील कदम भी अपर्याप्त हो गये हैं तो उत्तर पूंजीवादी वैकल्पिक ढांचे पर ही उम्मीद लगायी जा सकती है ।

इस सिलसिले में लेखक ने समाजवादी प्रयोगों का सर्वेक्षण किया है । उनका कहना है कि बीसवीं सदी में दुनिया भर के लाखों लोगों ने सोवियत समाजवाद के बारे में माना कि यह बाजार आधारित पूंजीवाद से आगे का भविष्य है । यही उम्मीद आज की तारीख में चीनी समाजवाद से लगायी जा रही है । सोवियत संघ की उपलब्धियों में कोई संदेह नहीं है । खासकर दूसरे विश्वयुद्ध में फ़ासीवाद की पराजय में उसका योगदान अविस्मरणीय है । इसी तरह चीन में भी वैज्ञानिक और तकनीक के मोर्चे पर अपार सफलता मिली है । इसके बावजूद इस किताब का कहना है कि राजकीय समाजवाद पूंजीवादी बाजार समाजों का स्वीकार्य विकल्प नहीं पेश कर सकता । असल में राजकीय समाजवाद में सत्ता पर काबिज नौकरशाह टोली विस्तार से केंद्रीय स्तर पर आर्थिक योजना बनाती है । सामाजिक उत्पादन के इस रूप की आलोचना में लेखक को सचाई महसूस होती है । स्थानीय प्रबंधक अपने इलाके की जरूरत को बढ़ाकर और अपनी उत्पादकता को घटाकर बताते हैं । केंद्र की योजना में इसके कारण गड़बड़ी पैदा होती है । नीचे के लोग नयापन लाना नहीं चाहते क्योंकि सफलता का सारा श्रेय केंद्र लेना चाहता है तथा विफलता का सारा दोष नीचे वालों पर मढ़ देता है । मजदूरों की भागीदारी उत्पादन के फैसलों में नहीं होती इसलिए वे अपनी ओर से कोई कोशिश नहीं करते । कम उत्पादन होने से उनको कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि केंद्र सारी जिम्मेदारी लेता है । केंद्र अगर मशीन या हथियारों में निवेश को प्राथमिकता देता है तो उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन की कमी से गृहस्थों को झेलना पड़ता है ।

इसी तरह की एक और व्यवस्था आर्थिक वृद्धि के लिए और तकनीक के मामले में आगे बढ़ने के लिए बाजार की ताकतों को मुक्त करने का प्रयास करती है । बाजार को काबू में रखने के लिए महत्वपूर्ण उद्यमों को सरकारी स्वामित्व में रखा जाता है, क्षेत्र विशेष या किसी सेक्टर में निवेश का फैसला केंद्रीय बैंक के निर्देशानुसार या आर्थिक सहायता और नियमन के आधार पर लिया जाता है । सोवियत संघ के आखिरी दशकों में जो ठहराव आ गया था उससे बचने के लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी निजी पूंजी का विदेशी प्रत्यक्ष निवेश भी ले आती है लेकिन साथ ही अर्थतंत्र के औद्योगिक और वित्तीय क्षेत्र में सर्वोच्च स्तर पर सरकारी नियंत्रण बनाये रखती है । इस तरह की रणनीति के समर्थकों के अनुसार उत्पादक शक्तियों का विकास अभी उस स्तर पर नहीं हो सका है कि समाजवाद की स्थापना घोषित कर दी जाय । इनमें समाजवाद की प्रमुखता है जिसका लक्षण मात्रात्मक और गुणात्मक स्तर पर राजकीय स्वामित्व की प्रमुखता, वित्त में सरकारी हिस्से की बहुतायत, योजना और पार्टी की सत्ता है । समाजवादी आर्थिक व्यवस्था को परिभाषित करने के मामले में ये लोग उत्पादन के प्रमुख साधनों के राजकीय स्वामित्व को विस्तारित करना चाहते हैं और उसके तहत राजकीय क्षमता की धारणा प्रस्तुत करते हैं जिसके तहत अनेक क्षेत्र शामिल हो सकते हैं । कम्युनिस्ट पार्टी की क्षमता में बढ़ोत्तरी को ये लोग समूची मानवता के लिए लाभप्रद विश्व व्यवस्था की स्थापना में देखते हैं ताकि पर्यावरणिक विध्वंस से मानवता को बचाया जा सके ।

राजकीय समाजवाद के इस प्रयोग में चूंकि बाजार का व्यापक इस्तेमाल होता है इसलिए बाजार समाजवाद की आलोचना लेखक को जरूरी लगती है । शक्तिशाली और जवाबदेहीविहीन नौकरशाही द्वारा निर्देशित इस प्रयोग के सिलसिले में लेखक ने सबसे पहले मार्क्स के तर्कों को देखा है । हेगेल की आलोचना करते हुए मार्क्स ने हेगेल द्वारा जवाबदेहीविहीन सरकारी नौकरशाही को समुदाय की भलाई की खास जानकारी के आधार पर सार्वभौमिक वर्ग मानने की प्रवृत्ति पर हमला बोलते हुए कहा कि अपार आंकड़े जुटा लेने के बावजूद यह जानकारी किसी भी समूह का निजी खजाना नहीं होती । समूचे समुदाय की भलाई के लिए समस्त समुदाय की भागीदारी के साथ सामूहिक प्रक्रिया अपनाने की जरूरत होती है । जब सरकारी नौकरशाही इस प्रक्रिया में सार्वभौमिक कल्याण की शक्ति का दावा करते हुए दखल देती है तो जिस समाज के नाम पर यह शासन करती है उसके लिए बाहरी ताकत हो जाती है । इसके बाद अपनी वैधता को और सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने के नाम पर वह सामाजिक जरूरत को पूरा करने का ढोंग तो करती है लेकिन उसका असली सामाजिक मकसद अपनी सत्ता की रक्षा और उसका विस्तार हो जाता है । मार्क्स के परवर्ती लेखन से भी पता चलता है कि उनकी यह आलोचना प्रशियाई नौकरशाही के प्रसंग में हेगेल और उनके रुख तक ही सीमित नहीं थी । पेरिस कम्यून का पक्ष लेते हुए भी उन्होंने पुलिस को सरकार का एजेंट बनाये रखने के बरक्स कम्यून द्वारा जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के तथ्य पर बल दिया । प्रशासन की सभी शाखाओं को भी कामगार के वेतन पर सबके लिए सुलभ बनाने का कदम भी उनकी तारीफ का बायस बना । इस तरह सरकारी कामकाज केंद्रीय सरकार की निजी संपत्ति नहीं रह गये ।

नौकरशाही पदानुक्रम पर आधारित जवाबदेहीविहीन व्यवस्था मार्क्स की कल्पना का सामाजिक संगठन नहीं हो सकती भले ही उसके पदाधिकारी समाजवाद का कितना भी नाम लें । मार्क्स तो हमेशा यही मानते रहे कि पूंजीवादी बाजार समाजों का कोई सच्चा विकल्प मजदूर वर्ग की आत्ममुक्ति पर ही आधारित हो सकता है । दूसरों द्वारा निर्णीत केंद्रीय योजना को थोपना मजदूरों को अधीनावस्था में ले आती है । बाजार को शरीक करने वाली योजना भी यही काम करेगी । कार्यस्थल पर पूंजीपतियों के दबदबे का समाधान न खोजने के कारण अगर उदारवादी लोगों के नुस्खों को खारिज करना जरूरी है तो उसके विकल्प के नाम पर प्रभुता की किसी दूसरी व्यवस्था को भी मंजूर करना ठीक नहीं होगा । सामाजिक जीवन में राजकीय नौकरशाही की भूमिका जितनी अधिक होगी उतनी ही कम जगह मजदूरों की आत्ममुक्ति के लिए रहेगी । पूंजीवाद के आगे की मंजिल का सूचक महज आर्थिक वृद्धि या उत्पादक शक्तियों के विकास में तथाकथित बाधा पर विजय होगा । पूंजीवाद को उसकी ही शर्तों पर पराजित करके उसका विकल्प नहीं बनाया जा सकता ।

राजकीय समाजवाद की इस आलोचना का तात्पर्य है कि उदारवाद को पूंजीवाद की वैचारिक अभिव्यक्ति कहकर ही खारिज नहीं किया जा सकता । उसमें थोड़ी बहुत सचाई का भी अंश है । किताब का कहना है कि मानव इतिहास में पूंजीवाद से आगे की किसी भी सामाजिक व्यवस्था में उदारवाद की विसंगतियों से किनारा करते हुए उसके मुक्तिकारी वादे को अंगीकृत करना होगा । उदारवाद की विसंगति से राजकीय समाजवाद परहेज तो कर ले जाता है लेकिन उसके मुक्तिकारी वादे को नहीं अपनाता । पूंजीवाद का कोई बेहतर विकल्प बेहतर गणतांत्रिकता का भी पक्षधर होना चाहिए । शासक कुलीनों या प्राकृतिक शासकों की जगह जनता में निहित प्रभुसत्ता की धारणा में पूंजीवादी सोच अनिवार्य रूप से मौजूद नहीं है । यह भी पूंजीवादी धारणा नहीं है कि जनता के भीतर वर्ग, नस्ल, लिंग, जातीयता या ऐसे ही विभाजनों से परे राजनीतिक समुदाय के सभी लोग शरीक हैं । यह भी कोई पूंजीवादी बात नहीं है कि सामाजिक आजादी का मतलब अपने ही बनाये कानूनों से शासित होना है । इसमें भी कोई पूंजीवादी बात नहीं है कि सामाजिक आजादी का मतलब व्यक्तियों को किसी की प्रभुता के बिना अपने पसंद का जीवन जीने का अधिकार होता है । यह तो एकदम ही पूंजीवाद नहीं है कि कुछ लोगों के हाथ में सामाजिक सत्ता का अतिशय संकेंद्रण मुक्त समाज के साथ मेल में नहीं होता या सार्विक मताधिकार, बोलने और एकत्र होने की आजादी तथा धर्म का पालन करने या संपत्ति के स्वामित्व का अधिकार सार्थक चीजें हैं । इसमें भी पूंजीवाद नहीं है कि समाज का अंतिम लक्ष्य जिनसे उसका गठन हुआ है उनकी खुशहाली है या शिक्षा, आवास, सेहत, संतोषजनक काम और आराम की सुविधा आदि मनुष्य की खुशहाली के लिए जरूरी हैं । इनके लिए अतीत में हुए संघर्ष मुक्ति के संघर्ष रहे हैं और अगर उनमें हार मिली है तो उस पर फिर से विचार किया जाना चाहिए ।

उनका कहना है कि वर्तमान समाज सिद्धांत में बेहतर तथा प्रभावी गणतांत्रिकता के लिए दो तरह के प्रस्ताव प्रचलित हैं । एक है संपत्ति के स्वामित्व वाला लोकतंत्र और दूसरा है बाजार समाजवाद । लेखक ने इन दोनों को सामाजिक गणतांत्रिकता के अलग अलग रूप माना है । ये दोनों राजकीय समाजवाद को खारिज करते हैं । दोनों ही उदारवाद की असंगति पर विजय पाने का दावा करते हैं । असल में उदार लोकतंत्र और सामाजिक जनवाद को बाधित करने वाले पूंजीवादी संपत्ति और उत्पादन संबंधों को दोनों ही खारिज करते हैं । इसके बावजूद पूंजीवादी बाजार समाज का संतोषजनक विकल्प सामाजिक गणतांत्रिकता नहीं प्रस्तुत कर सकता ।  सही है कि संपत्ति के स्वामित्व वाले लोकतंत्र और बाजार समाजवाद में पूंजीपति वर्ग शामिल नहीं होता । इनकी कल्पना में उत्पादन की इकाई सहकारिता होती है जिसका स्वामित्व मजदूरों के हाथ में होता है और वे इसे नकद में भुना सकते हैं । बाजार समाजवाद के कुछ रूपों में उत्पादन की इकाई राज्य या स्थानीय समुदाय के मालिकाने वाले संसाधन होते हैं । कुछ जगहों पर सट्टा बाजार होता ही नहीं लेकिन कुछ जगहों पर पूंजी का स्वामित्व सभी नागरिकों के पास होता है जिसे वे बालिग होने के बाद जीते जी कभी भी नकद भुना सकते हैं । इनके समर्थक कार्यस्थल पर आत्मशासन के गणतांत्रिक नियम लागू करने पर बल देते हैं । मार्क्स ने अपने समय में इनके पूर्वजों की आलोचना की थी जो अब भी जायज है । ये लोग पूंजीपति वर्ग के खात्मे की बात तो करते हैं लेकिन माल उत्पादन और विनिमय के समूचे हालात को स्वीकार करते हैं । इसके लिए मुद्रा की मध्यस्थता आवश्यक है । जब उत्पादन के साधन माल का रूप ग्रहण करते हैं तो उत्पादन की इकाई को मुद्रा का रूप ग्रहण करना जरूरी हो जाता है ताकि उत्पादन का काम जारी रह सके । इसी तरह आजीविका के साधन जब माल का रूप ग्रहण करते हैं तो व्यक्ति की मौद्रिक आय जरूरी हो जाती है ताकि इन्हें हासिल किया जा सके । इस तरह मौद्रिक लाभ और मौद्रिक आय व्यक्तियों या उद्यमों की निजी पसंद पर निर्भर नहीं होते । असल में माल उत्पादन और विनिमय के सामाजिक संबंध उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य कर देते हैं । इन्हीं संबंधों के चलते सामाजिक दुनिया में एक नयी ताकत के बतौर पूंजी का उदय होता है । इस सिलसिले में मार्क्स का जिक्र करते हुए लेखक बताते हैं कि समाज में माल के उत्पादन और वितरण की प्रक्रिया में मुद्रा का रूपांतरण होता है । जितनी मुद्रा का निवेश किया गया होता है उससे बढ़कर उसकी वापसी होती है ताकि नया निवेश किया जा सके । इस तरह पूंजी जिस समाज से जन्म लेती है उस पर ही अपनी बढ़त का लक्ष्य थोप देती है । समाज के लोग ऐसे जाल में फंस जाते हैं कि मानव हित पर पूंजी के हित को प्रधानता देने लगते हैं तथा मानव लक्ष्य से अधिक जरूरी मकसद पूंजी का हो जाता है । पूंजी की इस धारणा से देखा जाय तो वर्ग के बतौर पूंजीपतियों का खात्मा ही एकमात्र बात नहीं रह जाती चाहे यह खात्मा सबको शेयरधारक बनाकर हो, चाहे स्वामित्व सहकारी हो या राज्य अथवा समुदाय के हाथ में स्वामित्व हो । इस तरह चाहे संपत्ति के स्वामित्व वाला लोकतंत्र हो या बाजार समाजवाद हो माल उत्पादन और विनिमय की व्यवस्था पूंजी को अवश्य जन्म देती है । इस मामले में आत्मशासन वाले कार्यस्थल भी कोई बहुत अंतर नहीं पैदा कर सकते । असल में इस तरह का प्रस्ताव पूंजीपतियों से रहित पूंजीवाद की मांग बनकर रह जाता है । मार्क्स ने प्रूदों की आलोचना करते हुए अपने समय में इसी प्रवृत्ति को निशाना बनाया था और आज भी उनकी आलोचना प्रूदों के वर्तमान अनुयायियों के प्रसंग में सही साबित होती है ।

सामाजिक गणतांत्रिकता की असंगति भी स्पष्ट है । इसके पक्षधर कहते हैं कि पूंजीपति वर्ग की समाप्ति के साथ पूंजीवाद की सामाजिक रुग्णता का भी निवारण हो जाएगा । लेकिन वे जिस वैकल्पिक व्यवस्था का प्रस्ताव करते हैं उसमें माल उत्पादन और विनिमय जैसी चीजें  शामिल रहती हैं । इससे पूंजी का जन्म होगा और सामाजिक जीवन पर उसका प्रभुत्व कायम होगा भले ही पूंजीपति वर्ग न हो । असल में माल उत्पादन और विनिमय की व्यवस्था ही पूंजीवादी उत्पादन और वितरण की व्यवस्था है । इनमें से एक को अपनाना और दूसरे को छोड़ना सम्भव प्रस्ताव नहीं है । माल उत्पादन और वितरण की व्यवस्था के साथ ही व्यक्तियों का एक दूसरे से अलगाव भी जुड़ा हुआ है । मजदूरों को आपस में बांटने में अपना हित देखने वाले पूंजीपति वर्ग के न होने से यह अलगाव हो सकता है कुछ कम तीखा हो लेकिन मौद्रिक लाभ के लिए अबाध होड़ की दुनिया से गहरे संबद्ध अलगाव तो होगा ही । ऐसे में सामाजिक गणतांत्रिकता का सपना पूरा होना मुश्किल है जिसमें वे रोज ब रोज के जीवन में एकजुटता की व्याप्ति देखना चाहते हैं ।

संपत्ति पर आधारित लोकतंत्र और बाजार समाजवाद की सीमाओं को देखने के लिए लेखक ने उनमें विशेष और सार्वभौमिक के द्वंद्व की स्थिति को समझने की कोशिश की है । सामाजिक गणतांत्रिकता के इन दोनों ही रूपों में निवेश तो उत्पादन और वितरण की विशेष इकाइयों द्वारा होगा जिसमें वे अपने हितों का ध्यान रखेंगी । इसके पीछे तर्क यह है कि इससे व्यक्तियों और समूहों के खास ज्ञान का इस्तेमाल होगा । यह तर्क हायेक द्वारा केंद्रीकृत आलोचना से प्रभावित है । लेकिन पूंजीवादी बाजार समाजों से आगे ले जाने के लिए इस व्यवस्था को आम सामाजिक कल्याण का भी ध्यान रखना होगा । अगर सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाले निवेश के फैसले विशेष हितों से संचालित होंगे तो समुदाय के समग्र कल्याण से उनका रिश्ता आकस्मिकता के अधीन रहेगा । इन दोनों परियोजनाओं की एक और विसंगति की चर्चा करते हुए लेखक बताते हैं कि पूंजीपति वर्ग की गैरमौजूदगी में भी बाजार से जुड़ी होड़ विजेताओं को जन्म देती है । उन्हें अपना लाभ जायज लगता है । सामाजिक गणतांत्रिकता के प्रवक्ता जितने भारी कराधान की बात करते हैं वह इन विजेताओं को अपना संपत्तिहरण महसूस होगा । ये व्यवस्थाजन्य भ्रम होते हैं जिनका सैद्धांतिक खंडन किया जा सकता है । इस मामले में सामाजिक गणतांत्रिकता के पैरोकार शिक्षा की ताकत पर भरोसा करते हैं जो इन भ्रमों की आलोचना में सबको सक्षम बनाएगी लेकिन बाजार समाजों की यही खूबी है कि कुछ वर्गों के भौतिक हित उनसे ऊपरी भ्रामक सत्य को स्वीकार करा लेते हैं । जिन्हें अधिक आर्थिक लाभ मिलता है उनके भौतिक हित उनसे मनवा लेते हैं कि उनकी बुद्धि, प्रयास और सृजन की श्रेष्ठता के कारण ही उन्हें ये लाभ मिले हैं । कराधान में कमी उनके भौतिक हित के साथ जुड़ जाती है । उन्हें सरकारी बंधन अपने भौतिक हितों के कारण ही पसंद नहीं आते । इसी वजह से बाजार पूंजीवाद की तरह ही सामाजिक गणतांत्रिकता में भी प्रस्तावित नीतियों से उनको प्राप्त लाभ संकेंद्रित होंगे जबकि लागत व्यापक समाज को उठानी होगी । संकेंद्रित लाभ वाले समूहों के लिए साझा हितों के चलते संगठित होना अधिक आसान होगा जबकि लागत चुकाने वाले व्यापक समुदाय का संगठित होना मुश्किल होगा । जिन वर्गों को ठोस लाभ मिल रहा है उनको केवल शिक्षा के जरिए उनके हितों और शासन की क्षमता के विरुद्ध खड़ा करने की आशा पर निर्मित परियोजना बुनियादी तौर पर गड़बड़ है । यह परियोजना किसी भी मामले में पूंजीवाद से आगे का सपना नहीं दिखा सकती ।

सामाजिक गणतांत्रिकता के पक्षधर लोग राज्य को ऐसी जादुई छड़ी के बतौर पेश करते हैं जो माल उत्पादन और विनिमय से उपजी विकृतियों को समुचित नीतियों के जरिए दुरुस्त करने में सक्षम है । इस मामले में भी वे संरचना में निहित प्रवृत्तियों की उपेक्षा कर देते हैं । माल उत्पादन और विनिमय की व्यवस्था से इन प्रवृत्तियों का पैदा होना लाजिमी है । कहने की जरूरत नहीं कि इस व्यवस्था की रक्षा के लिए ही उस राजनीतिक तंत्र का निर्माण होता है जिसके लोग समस्या को बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं, इन समस्याओं को हल करने के लिए कानूनों और नियमों का निर्माण करने में सक्षम होते हैं, इन नियमों और कानूनों को लागू कराने की भी क्षमता रखते हैं और उत्पादन तथा विनिमय से उत्पन्न दिक्कतों के चलते इन नियमों तथा कानूनों को बदलने में कोई रुचि नहीं लेते । शिक्षा के सहारे इसको उलटने की आशा इस तथ्य की उपेक्षा कर देती है कि माल उत्पादन और विनिमय की प्रक्रिया में पूंजी की नैर्वैयक्तिक ताकत का जन्म होता है, उत्पादकों का आपस में अलगाव होता है तथा निवेश के फैसलों के पीछे निहित स्वार्थ होते हैं । बाजार समाजों के इन खास कानूनों और नियमों को जस का तस छोड़ देने से उससे जुड़े सामाजिक संबंधों का खात्मा नहीं हो सकता । इन्हीं तर्कों के आधार पर वे सामाजिक गणतांत्रिकता को पूंजीवादी बाजार समाजों का वास्तविक विकल्प नहीं मानते ।

उनका कहना है कि गणतांत्रिक समाजवाद ही पूंजीवादी बाजार समाजों का संतोषजनक विकल्प है । यह सम्भव है और विश्व इतिहास की प्रगति का प्रतिनिधित्व करता है । इसमें उदारवाद और सामाजिक गणतांत्रिकता की सीमाओं और असंगतियों पर विजय प्राप्त कर उनके सकारात्मक पहलुओं का समावेश हो सकता है । उदारवाद में जनता के भीतर सम्प्रभुता को निवेशित किया जाता है लेकिन यह जनता अमूर्त होती है । इसके मुकाबले गणतांत्रिक समाजवाद में उत्पीड़न के सभी रूपों को खारिज करने और अबाध मानव मुक्ति की परियोजना के विश्वासी विश्व समुदाय को सम्प्रभु सत्ता के बतौर ग्रहण किया जाता है । रूप के स्तर पर समान दिखने के बावजूद दोनों में अंतर हैं । पहला कि समाजवादी सामाजिक संबंधों में जुड़े सामाजिक व्यक्तियों को ही राजनीतिक समुदाय के बतौर परिभाषित करते हैं जबकि उदारवादी लोग जनता कोआपस में बिखरा समुदाय समझते हैं । दूसरा कि एकजुटता को किसी भौगोलिक सीमा के भीतर रहनेवालों तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए । ये सीमाएं मनमानी हैं और हिंसा से उपजी हैं । पूंजीवाद के किसी भी बेहतर विकल्प को अंतर्राष्ट्रीय होना होगा ।

आपस में जुड़े सामाजिक व्यक्तियों के इस राजनीतिक समूह को दुबारा किसी अन्य प्राधिकार के मातहत नहीं रखा जा सकता । सभी गणतांत्रिक प्रणालियों की तरह गणतांत्रिक समाजवाद की ओर से भी अस्थायी राजनीतिक प्राधिकार को तो मंजूरी दी जा सकती है लेकिन यह प्राधिकार उसी दशा में वैध होगा जब यह मातहतों के प्रति जवाबदेह होगा और यह जवाबदेही केवल जुबानी नहीं होगी । इस समाजवाद में सत्ता का केंद्रीकरण नहीं होगा । अतीत के मुक्ति संघर्षों की यही एक सच्ची सीख है । इसे अपने मूल्यों और वादों को संविधान के रूप में लिपिबद्ध करना होगा । ये संवैधानिक सिद्धांत केवल नैतिक आदर्श नहीं होंगे । ये मुक्ति संघर्षों की सामूहिक और निरंतर जारी शिक्षाकारी प्रक्रिया का परिणाम होंगे । सामाजिक गणतांत्रिकता के पैरोकारों का यह कहना जायज है कि पूंजीवादी बाजार समाजों में एक छोटे वर्ग के हाथों में आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण से राजनीतिक सत्ता का भी संकेंद्रण होता है । यह तथ्य उनके ही सिद्धांतों के विपरीत है । यह तो नहीं होता कि पूंजीवादी समाजों में सरकारें हर हाल में शासक वर्ग का औजार होती हैं लेकिन वे अक्सर ऐसा औजार बनकर रह जाती हैं । अगर थोड़ी बहुत आजादी मिलती भी है तो पूंजीपति इस बात की गारंटी करते हैं कि जो नीतियां उनके हितों को नुकसान पहुंचाती हैं वे अत्यंत सीमित, दोषयुक्त और राजनीतिक शक्ति संतुलन बदलते ही परिवर्तनीय हों । उनका यह भी कहना लेखक को सही लगता है कि मजूरी गुलामी भी गुलामी ही है । आजादी तो तभी है जब हम अपने ही बनाये कानूनों से शासित हों । अगर ऐसा नहीं है तो पूंजी और श्रम का संबंध अधिकांश लोगों को जीवन भर आजादी से रहित सामाजिक संदर्भ में जीने के लिए मजबूर करता है । इसलिए जरूरी है कि ऐसी व्यवस्था का निर्माण सम्भव दिखाया जाय जो पूंजी के प्रभुत्व वाले उत्पादन और विनिमय संबंध का विकल्प बन सके । इस चुनौती को किताब में स्वीकार किया गया है । सबसे अंत में लेखक यह दावा करता है कि गणतांत्रिक समाजवादी ढांचे वाले समाज का निर्माण मार्क्स की विरासत के अनुकूल है।