Tuesday, June 24, 2025

मार्क्स की नजर में राज्य और राष्ट्र

 

राज्य का सवाल मार्क्स से पहले भी दर्शन की चर्चा के केंद्र में रहा । इसका कारण समाज के साथ उसके रिश्तों की जटिलता है । राज्य की उत्पत्ति समाज के बीच से ही वर्गों के जन्म लेने के बाद हुई लेकिन वह अपने आपको वर्गोपरि दिखाने की कोशिश करता है । मार्क्स के मुताबिक राज्य का उदय ही वर्ग विभाजित समाज में शासक वर्ग की सत्ता को दमन के सहारे बनाए रखने के लिए हुआ था । यही नहीं राज्य की मौजूदगी का मतलब है कि समाज में न केवल परस्पर विरोधी वर्ग और उनके स्वार्थ बने हुए हैं बल्कि उनके बीच का अंतर्विरोध असमाधेय है । राज्य की भूमिका वर्ग संघर्ष को खत्म करने की नहीं होती । उसकी मौजूदगी ही वर्ग संघर्ष के तीखेपन का प्रमाण होती है । मजदूर वर्ग का काम न केवल वर्ग विहीन समाज का निर्माण करना है बल्कि वर्गों की समाप्ति के कारण स्वयं राज्य भी अनावश्यक हो जाता है और वर्ग विहीन समाज उसे संग्रहालय की वस्तु बना देता है ।

सभी लोग जानते हैं कि मार्क्स अंतर्राष्ट्रवादी थे । कम्युनिस्ट घोषणापत्र की प्रसिद्ध आखिरी पंक्तियां ‘दुनिया के मजदूरों’ को संबोधित हैं । इसका ही व्यावहारिक रूप मजदूरों के प्रथम इंटरनेशनल के बतौर गठित हुआ जिसके साथ मार्क्स का घनिष्ठ जुड़ाव रहा । उनके जीवनकाल में ही राष्ट्रवाद का उदय होने लगा था और राष्ट्र-राज्य की धारणा ने भी जड़ पकड़ना शुरू कर दिया था । इसी दार्शनिक और ठोस राजनीतिक परिस्थिति में राज्य के बारे में उनकी राय को देखना वाजिब होगा ।

एंगेल्स ने परिवार और निजी संपत्ति के उदय के साथ राज्य की उत्पत्ति के बारे में भी विचार किया और कहा कि राज्य को बाहर से लाकर समाज पर थोपा नहीं गया, न वह किसी नैतिक विचार या विवेक का साकार रूप है । वह समाज के विकास की निश्चित अवस्था में उसके भीतर से ही पैदा होता है । इसके जन्म से यह पता चलता है कि समाज कुछ असमाधेय अंतर्विरोधों में फंस गया है और उनसे बाहर निकलना उसके लिए सम्भव नहीं रह गया है । ये अंतर्विरोध आपसी स्तर पर विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्गों के बीच हैं । इसके कारण उन वर्गों के बीच संघर्ष शुरू हो गया है । इस संघर्ष में ये वर्ग अपने आपको और समूचे समाज को नष्ट न कर डालें इसलिए एक ऐसी ताकत जरूरी बन गयी जो उनके ऊपर नजर आये । इससे संघर्ष को हल्का किया जा सकता था और उसे कथित व्यवस्था की सीमाओं के भीतर ही सीमित रखा जा सकता था । समाज से उत्पन्न होकर भी उससे ऊपर और अलग दिखने वाली इसी संस्था को उन्होंने राज्य कहा । उनका यह भी कहना था कि यदि वर्गों के बीच के विरोध का समाधान उनके समन्वय से हो सकता तो राज्य का जन्म ही नहीं होता । असल में राज्य के जरिए एक वर्ग दूसरे वर्ग पर प्रभुत्व कायम करता है और उसका उत्पीड़न करता है । इसके सहारे ही ऐसी व्यवस्था बनायी जाती है जो वर्गीय टकरावों को मंद करके उत्पीड़न को कानूनी और मजबूत बनाती है ।

राज्य के बारे में इस बुनियादी धारणा को स्पष्ट करने के बाद वे इसके जन्म की कहानी को थोड़ा विस्तार देते हैं । इसका जन्म कबीलाई समाज में हुआ तो पुरानी तरह के संगठन की जगह आयी इस नयी संस्था ने प्रजा को प्रदेशानुसार बांटा । यह विभाजन पुराने गोत्र आधारित संगठन के साथ लम्बे समय तक संघर्षरत रहा था । इसके अतिरिक्त कुछ और नयी चीजें नजर आने लगीं जो पुराने समाज में थीं ही नहीं । एक तो यह कि नयी सार्वजनिक सत्ता का उदय होता है जो सशस्त्र होती है और अपने आपको खुद ही संगठित करने वाली जनता से उसका मेल नहीं रह जाता । असल में जब समाज वर्गों में बंट जाता है तो उसका अपने आप संगठित होना मुश्किल हो जाता है । हथियार से सुसज्जित यह सार्वजनिक सत्ता प्रत्येक राज्य में होती है । उसके पास इन हथियारबंद लोगों के अतिरिक्त जेलखाने और तरह तरह की दमनकारी संस्थाओं का जाल भी आ जाता है । इन चीजों की मौजूदगी पुराने समाज में कभी थी ही नहीं ।

इससे पहले के समाज में लोग खुद को हथियारों के साथ संगठित कर सकते थे लेकिन राज्य के उदय के साथ यह अधिकार केवल उसके पास ही रह जाता है । इसका उनके समय ठोस रूप फौज और जेलखाने की शक्ल में था जिसके बारे में एंगेल्स कहने की कोशिश करते हैं कि इनका खास समय पर जन्म हुआ है इसलिए इनकी समाप्ति भी हो सकती है । बहुतेरे लोग समाज के इस प्रकार के संगठन को स्वाभाविक मानते हैं । वे इससे पहले के खुद ही संगठित हो सकने की क्षमता की कल्पना भी नहीं कर पाते जबकि एंगेल्स समाज के ऐसे संगठन को ही स्वाभाविक समझते हैं । राज्य के विशेष रूप के आगमन का कारण समाज का वर्गों में विभाजन था । तात्पर्य कि वर्ग विभाजन का अंत होते ही राज्य के इस रूप का औचित्य समाप्त हो जाता है ।       

वर्ग विभाजन के बाद उन वर्गों के बीच हितों के संघर्ष में हथियारों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर काबू पाने के लिए ही राज्य ने यह अधिकार केवल अपने हाथ में रख लिया था । इस तरह वे दो किस्म के रूपों की बात करते हैं । एक में कुछ ही लोग हथियार रखने के अधिकारी होते हैं और दूसरे में सारे लोग खुद को संगठित करने में सक्षम होते हैं । कुछ इलाकों में राज्य की सार्वजनिक सत्ता कमजोर भी होती है लेकिन वर्ग विरोधों के बढ़ने, पड़ोसी राज्यों का विस्तार होने और आबादी बढ़ने के साथ यह सार्वजनिक सत्ता मजबूत होती जाती है । वर्ग संघर्ष और देश विजय की होड़ इस सार्वजनिक सत्ता को विराट बनाती जाती है और पूरे समाज के लिए खतरा बन जाती है ।

समाज के ऊपर खड़ी इस सार्वजनिक सत्ता को बनाये रखने के लिए टैक्स और राजकीय ॠण की जरूरत होती है । इस काम के लिए एक भारी भरकम तंत्र का निर्माण करना होता है जिसे समाज के ऊपर स्थित अधिकारी वर्ग के बतौर पहचाना जा सकता है । इन अधिकारियों के प्राधिकार की रक्षा के लिए नियम कानून बनाने पड़ते हैं । राज्य के जन्म की परिस्थितियों के कारण ही वह आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली वर्ग का राज्य होता है । इस राज्य का सहारा पाकर वह वर्ग राजनीतिक क्षेत्र में भी दबदबा कायम कर लेता है । इस तरह उसे उत्पीड़ित वर्ग को दबाकर रखने और शोषण करने का नया साधन मिल जाता है । इस नयी व्यवस्था में धनिक समुदाय और भी कारगर तरीके से असर डालता है । सरकारी अधिकारियों के भ्रष्टाचार के साथ ही सरकार और सट्टा बाजार के बीच गठबंधन भी इसका उपकरण बन जाते हैं । धन की यह स्वतंत्र सत्ता राजनीतिक मशीनरी पर निर्भर नहीं रह जाती । राजनीतिक सत्ता इस वास्तविक सत्ता का ऊपरी खोल बनकर रह जाती है । इसके बावजूद एंगेल्स ने सार्विक मताधिकार को मजदूर वर्ग की परिपक्वता की कसौटी कहा ।

एंगेल्स का कहना था कि चूंकि राज्य का जन्म समाज में वर्ग विभाजन से जुड़ा है और ऐसी स्थिति आ रही है जिसमें वर्गों का अस्तित्व न केवल अनावश्यक बल्कि उत्पादन के विकास के लिए बाधा बन जाएगा इसलिए वर्गों का विनाश हो जाएगा और उनके साथ साथ राज्य भी मिट जाएगा । आगामी समाज उत्पादकों के स्वतंत्र तथा समान सहयोग की बुनियाद पर चलेगा वह राज्य की पूरी मशीनरी को अजायबघर में रख देगा । इस नयी स्थिति का वर्णन करते हुए एंगेल्स कहते हैं कि जब मजदूर वर्ग राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लेता है तो सबसे पहले उत्पादन के साधनों को राजकीय संपत्ति में बदल देता है । ऐसा करके वह अपने आपको मजदूर के रूप में खत्म कर देता है । इसके साथ वर्ग संघर्ष भी समाप्त हो जाता है और चूंकि राज्य की जरूरत वर्ग संघर्ष में ही थी इसलिए राज्य के रूप में राज्य का भी अंत हो जाता है ।

राज्य की एक और विशेषता को बताते हुए एंगेल्स कहते हैं कि राज्य पूरे समाज का अधिकृत प्रतिनिधि होता था । उसके रूप में पूरा समाज संयुक्त रूप से साकार हो जाता था । असल में राज्य उस वर्ग का राज्य होता था जो खुद ही अस्थायी तौर पर शासक के बतौर पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करता था । मजदूर वर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता के आने के बाद राज्य सचमुच समूचे समाज का प्रतिनिधि बन जाता है और तब वह एकदम अनावश्यक हो जाता है । उस समय ऐसा कोई वर्ग नहीं रह जाता जिसे पराधीन बनाकर रखने की जरूरत हो । लोगों के निजी जीवन संग्राम पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था की अराजकता से उपजे हैं और उसी वजह से संघर्ष और ज्यादतियों की मौजूदगी होती है । इनके खात्मे के बाद किसी वर्ग को दबाकर रखने की जरूरत नहीं रह जाती और तब दमन की इस मशीनरी का भी अंत हो जाता है । समूचे समाज का प्रतिनिधि होने के लिए ही वह समाज के नाम पर उत्पादन के साधनों को अपने अधिकार में ले लेता है । राज्य के रूप में यही उसका आखिरी काम होता है । इसके बाद क्रमश: सामाजिक संबंधों की दुनिया में उसका हस्तक्षेप अनावश्यक होता जाता है । व्यक्तियों पर शासन की जरूरत नहीं रह जाती । वस्तुओं का प्रबंधन और उत्पादन की प्रक्रिया का संचालन समाज करने लगता है और इस तरह राज्य का लोप अपने आप हो जाता है ।

मार्क्स ने भी इस मान्यता को स्पष्ट करते हुए कहा था कि शोषक वर्गों को शोषण की व्यवस्था जारी रखने के लिए राजनीतिक प्रभुत्व की जरूरत होती है लेकिन शोषित वर्गों को हर प्रकार के शोषण के पूरी तरह से खात्मे के लिए इसी राजनीतिक प्रभुत्व की जरूरत होती है । मकसद के इस अंतर से इन राज्य के प्रति इन दोनों के रुख में भी अंतर आ जाता है । उनका मानना था कि पूंजीवाद ने ही शोषित वर्गों में किसानों आदि को जहां विखंडित और विभाजित किया वहीं मजदूरों को एकत्र, एकताबद्ध और संगठित किया इसलिए पूंजीवादी शासन के विरुद्ध संघर्ष में वही शोषित वर्ग का नेतृत्व कर सकता है । उसे खुद को पूंजीपति के विरोध में शासक के बतौर खड़ा होना पड़ता है । यही मजदूर वर्ग का राजनीतिक प्रभुत्व होता है और इसके लिए उसे राजसत्ता की जरूरत होती है । मार्क्स कहना चाहते थे कि राज्य को आम तौर पर पूंजीपतियों का वर्ग अपने कब्जे में रखता है और इस नाते खुद को समाज का प्रतिनिधि और राष्ट्र घोषित करता है । मजदूर वर्ग की जिम्मेदारी है कि पूंजीपति वर्ग को इस स्थिति से हटाकर अपने को इस स्थिति में ले आये । इस काम के लिए वह राज्य की पूंजीपति वर्ग द्वारा बनायी गयी इस मशीनरी का इस्तेमाल करता है ।

राज्य की मशीनरी के रूप में मार्क्स ने नौकरशाही और फौज नामक दो निकायों को चिन्हित किया और इन्हें डरावना परजीवी निकाय कहा । इसकी पैदाइश सामंती समाज के खात्मे के समय हुई थी और इसने सामंतवाद के खात्मे की प्रक्रिया को तेज किया था । प्रभुत्व के लिए होड़ करने वाली पार्टियों ने इस विशालकाय राजकीय ढांचे पर अपने अधिकार को जीत का पुरस्कार माना है । इस क्रम में उन्होंने इसे और भी मजबूती प्रदान की जबकि असली सवाल इस उत्पीड़क विशाल तंत्र को तोड़ फेंकने का है । इस प्रकरण में मार्क्स ने राजकीय तंत्र के विकास की कहानी सुनायी है और उसके संबंध में मजदूर वर्ग का ठोस क्रांतिकारी काम सुझाया है । उनके अनुसार राज्य के नौकरशाही और फौज नामक निकाय हजारों तरीकों से पूंजीपति वर्ग के साथ बंधे रहते हैं ।

ये दोनों निकाय पूंजीवादी समाज की जरूरत से पैदा होने के बावजूद परजीवी की तरह उसका खून चूसते हैं । सामंतवाद के पतन के बाद यूरोप में ढेर सारी पूंजीवादी क्रांतियां हुईं और उन सबने इन निकायों को सुधारा और मजबूत बनाया । इन निकायों के जरिए समाज के अन्य वर्गों के कुशल और महत्वाकांक्षी लोगों को पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगाया जाता है । इनमें शामिल होते ही ये लोग सामान्य जनता से ऊपर उठ जाते हैं । इस तरह ये संस्थान समाज में पूंजीवादी शासन की पहुंच को विस्तारित करते हैं और वैधता भी प्रदान करते हैं । इसलिए मार्क्स ने इसके विनाश को मजदूर वर्ग का ध्येय कहा । राज्य के नाश के बाद की स्थिति को साफ ढंग से उन्होंने पेरिस कम्यून के अनुभव के बाद बताया ।

उन्होंने देखा कि पूंजीवादी शासन की लोकतांत्रिक पद्धति में भी मजदूर वर्ग के दमन की कार्यवाही के मामले में राज्य की मशीनरी का बल बढ़ा और इसके लिए नौकरशाही और फौज में लगातार बढ़ोत्तरी की गयी । इसलिए मजदूर वर्ग इस राज्य का तख्तापलट देते हैं और अंत में उसका संपूर्ण उन्मूलन कर देते हैं । जब वे राज्य को अपने कब्जे में लेते हैं तो वे नये ढंग के जनवाद की स्थापना करते हैं । पेरिस कम्यून के ही अनुभव के आधार पर मार्क्स ने घोषणापत्र की राज्य संबंधी धारणा में बदलाव किया । उन्होंने कहा कि राज्य की पहले से ही बनी बनायी मशीनरी का इस्तेमाल करके मजदूर वर्ग अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता । उसे इस पुरानी मशीन को तोड़ देना होगा और अपने मकसद को हासिल करने के लिए नये किस्म की मशीन को खड़ा करना होगा । पुरानी नौकरशाही और फौज पर आधारित मशीन को उखाड़ फेंकना मार्क्स के लिए किसी भी क्रांति की पूर्वशर्त थी । उस समय वे किसानों और मजदूरों को साथ लेकर की जाने वाली क्रांति का जरूरी काम इस मशीन को खत्म करना बता रहे थे ।

इसके खात्मे के बाद की वैकल्पिक मशीन का आदर्श उन्हें पेरिस कम्यून का ढांचा महसूस हुआ । इसे उन्होंने मजदूर वर्ग का सच्चा शासन कहा । इसने स्थायी सेना को समाप्त कर दिया था और उसकी जगह हथियारबंद जनता की निगरानी की धारणा प्रस्तुत की । कम्यून के सभी ढांचे सार्विक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित हुए थे और उनमें जो भी जिम्मेदार पदों पर थे उन्हें इसी तरह कभी भी उनके पद से हटाया जा सकता था । कम्यून के ये निर्वाचित जिम्मेदार अधिकारी मजदूरों के सच्चे प्रतिनिधि थे । पुलिस को भी केंद्रीय सरकार के एजेंट की भूमिका से आजाद कर दिया गया था । इसका राजनीतिक चरित्र खत्म करके इसे सार्विक मताधिकार से निर्वाचित कम्यून के प्रति ही जवाबदेह ठहराया गया । प्रशासन की अन्य सभी शाखाओं के मामले में भी यही नियम लागू किया गया था । कम्यून के अधिकारियों के सभी विशेषाधिकार खत्म करके उनके खास भत्ते भी बंद कर दिये गये थे । उनका वेतन भी मजदूरों के वेतन की संगति में लाया गया था । न्याय विभाग पर से धार्मिक तंत्र की जकड़ समाप्त करके उसे भी जनता के प्रति जवाबदेह बनाया गया था । उन्हें भी निर्वाचित होना था और उसी प्रक्रिया से उन्हें पदमुक्त भी किया जा सकता था । राज्य की पुरानी मशीन की जगह पर कम्यून ने लोकतांत्रिकता की स्थापना की जिसमें सभी अधिकारियों का निर्वाचन होना था और मताधिकार से ही उन्हें पदमुक्त भी किया जा सकता था । इसे मार्क्स ने कुछ संस्थाओं के आगमन की जगह एकदम नये तरह के संस्थान की स्थापना माना । इसके रास्ते ही उन्हें राज्य के निषेध का उपाय लागू होता महसूस हुआ ।

यह नया संस्थान अब भी पूंजीवादी तत्वों का दमन करता है लेकिन उसके पक्ष में बहुसंख्यक जनता होती है । यह जनता ही राज्य होती है । इस जनता की पहलकदमी के कारण अब इस काम के लिए किसी विशेष निकाय की जरूरत ही नहीं रह जाती । राज्य के लिए निर्धारित कामों को जितना ही जनता पूरा करती जाती है उतना ही राज्य के पुराने अंग, चरित्र और रूप की जरूरत भी क्रमश: समाप्त होती जाती है । इस सिलसिले में मार्क्स ने प्रतिनिधित्व के भत्तों और अधिकारियों के विशेषाधिकारों के अंत का खासकर उल्लेख किया था । उन्हें भी राज्य के मजदूर मानकर उनकी मजदूरी भी एक स्तर तक ले आयी गयी थी । यह बात दमनकारी ताकत के रूप में राज्य के उत्पीड़कों को जनता द्वारा अनुशासित करने का और जनता की ताकत में बुनियादी बदलाव का पक्का उपाय मानी गयी थी । राज्य के अधिकारियों के वेतन में घटोत्तरी और उसे मजदूरों के स्तर तक लाना भी कोई हवाई आदर्श नहीं बल्कि पूंजीवाद से समाजवाद की ओर जाने की दिशा में एक कदम महसूस हुआ । इसके बिना पूरी जनता द्वारा राजकाज का संपादन किसी तरह सम्भव नहीं होगा । कम्यून की ये सीधी सादी कार्यवाहियां राज्य का पुनर्निर्माण करने तथा समाज के राजनीतिक पुनर्निर्माण से जुड़ी हैं । इनके सहारे ही समाज फिर से उस राज्य को अपने काबू में ला सकता है जो उससे ही जन्म लेकर केवल उससे अलग हो गया था बल्कि उस पर ही शासन थोपने का साधन बन गया था इसके बाद ही वह निर्णायक कदम उठाया जाना था जिसके जरिये समाज की ओर से राज्य उत्पादन के साधनों को सबमें बांटकर संपत्ति के अपहर्ताओ की संपत्ति का अपहरण कर लेगा

इसके अलावे कम्यून ने स्थायी सेना और नौकरशाही को खत्म करके पूंजीवादी क्रांति के सस्ती सरकार के ही वादे को पूरा किया था हमने पहले राज्य के जिन निकायों में शरीक होने के आकांक्षी समूहों का जिक्र किया उनका बहुत छोटा सा हिस्सा ही इसमें शरीक हो पाता है । शेष बची विशाल बहुसंख्या का सपना तो सस्ती और सुलभ सरकार ही होता है । इस सपने को पूरा करने का माद्दा मजदूर वर्ग में ही होता है । मार्क्स मानते थे कि संसदीय लोकतंत्र ही लोकतांत्रिक शासन का आखिरी और एकमात्र रूप नहीं है । संसदीय लोकतंत्र की यह मार्क्सी आलोचना उसके निषेध की जगह उसकी कमियों को दूर करने का प्रयास थी । कम्यून ने संसद जैसी तमाम प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं को गप्पबाजी के अड्डे के मुकाबले कार्यशाली संस्था में बदल देना चाहा था । असल में सभी लोकतांत्रिक देशों में राज्य के असली काम तो परदे की ओट से नौकरशाही करती है । संसद केवल ऊपरी आवरण बनकर रह जाती है । कम्यून ने इन संस्थाओं को वास्तविक तौर पर कार्यशाली बनाने की कोशिश की । उसने संसद जैसी प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं को असली ताकत प्रदान करने का उपाय किया । इसे ही पुराने समाज के गर्भ से नये समाज के जन्म की प्रक्रिया का आदर्श रूप समझना होगा । इसके तहत कम्यून पुरानी नौकरशाही को तत्काल ध्वस्त करके ऐसी नयी मशीनरी के निर्माण में लग गया जो धीरे धीरे तमाम किस्म की नौकरशाही को ही समाप्त कर दे । इसमें राज्य के ऊंचे पदाधिकारियों के हुक्म देने की आदत की जगह पर सीधे सादे मुनीमों के ऐसे काम होने थे जिन्हें प्रत्येक नागरिक पूरा कर सकता था । इसलिए ही उसका वेतन मजदूरों की मजदूरी के बराबर रखने का प्रस्ताव किया गया था । यह नये तरह की व्यवस्था वाला राज्य होगा जिसमें नियंत्रण और हिसाब किताब के काम आसान होते जाएंगे, उन्हें हर कोई बारी बारी अंजाम दे सकेगा और फिर वे आदत बन जाएंगे तो मनुष्य के विशेष तरीके के कामों के रूप में उनका खात्मा हो जायेगा ।

इसका एक और रूप सत्ता का विकेंद्रीकरण था जिसके तहत पेरिस कम्यून ने छोटे से छोटे गांव के भी कम्यून की कल्पना की थी जिनका चुना हुआ प्रतिनिधिमंडल पेरिस कम्यून होना था । कम्यून के शासन में देश की एकता को भंग नहीं होना था बल्कि उसे संगठित किया जाना था । उस समय की राजसत्ता अपने को राष्ट्र से स्वाधीन और श्रेष्ठ समझते हुए राष्ट्र की एकता का मूर्तिमान रूप समझती थी लेकिन असल में वह राष्ट्र के लिए परजीवी से अधिक कुछ नहीं थी । ऐसी सत्ता के नाश से राष्ट्र की एकता मजबूत बनती । उसके शासन तंत्र के दमनकारी अंगों को काटकर अलग कर दिया जाता और उसके वाजिब काम जिम्मेदार कर्ताओं के हाथ में सौंप दिये जाते । फिलहाल उन कामों को करने वाली सत्ता खुद को समाज से अधिक शक्तिशाली समझती थी इसलिए लोगों पर बोझ थी । मार्क्स ने असल में पूंजीवादी शासन की मशीनरी को पूरी तरह ध्वस्त करने का दायित्व पेरिस कम्यून से सीखा था । राष्ट्र की एकता के संबंध में मार्क्स के ये विचार जनता के हाथ में अधिकार और सत्ता से जुड़े हैं । इनको छोड़कर राष्ट्र की एकता नौकरशाही और फौज के बल पर जबरन थोपी एकता हो जाती है ।

मार्क्स ने पेरिस कम्यून के संविधान में राज्य के विलोप की सम्भावना देखी और उनका मानना था कि यह काम मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही हो सकता था । इससे पहले के सरकार के सभी रूप दमनकारी थे जबकि कम्यून उत्पादक वर्ग के संघर्ष की उपज था । उनके अनुसार कम्यून ऐसा राजनीतिक रूप था जिसमें श्रम की आर्थिक मुक्ति सम्भव थी । मार्क्स का मानना था कि राज्य का लोप अवश्य होगा और इसका संक्रमणकालीन रूप शासक वर्ग के रूप में संगठित मजदूर वर्ग होगा । पेरिस कम्यून को उन्होंने पूंजीवादी राजकीय मशीनरी को ध्वस्त करने का पहला सचेत प्रयत्न माना और उसकी जगह पर कायम होने वाली व्यवस्था का नमूना समझा ।                                                                                                          

 

Monday, June 23, 2025

मार्क्स और भारत

 

मार्क्स ने जीवन के आखिरी सालों में भारत के इतिहास पर विस्तृत टीपें दर्ज की थीं । उनकी शुरुआत 666 ईसवी से होती है तो अंत 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन से होता है । वैसे भी हमारा देश तत्कालीन अंग्रेजी राज के लिए भारी महत्व का था । इसलिए वहां के अखबारों में भारत के बारे में पर्याप्त सामग्री मिल जाती थी । इसके अतिरिक्त ब्रिटिश संग्रहालय में भी उन्हें भारत के बारे में बहुत कु देखने को मिलता थाइस सामग्री के गहन अध्ययन के आधार पर मार्क्स ने अन्य बहुतेरे प्रसंगों में तो भारत का उल्लेख किया ही, खासकर 1857 की लड़ाई के बारे में उनका लेखन बेहद महत्वपूर्ण है । 1853 से 1861 तक उन्होंने न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून में लगातार भारत के बारे में लेख लिखे । उनके भारत संबंधी लेखन को उनके समग्र उपनिवेशवाद विरोध से जोड़कर देखा जा सकता है ।

मार्क्स के भारत संबंधी लेखन में नजर आता है कि उन्हें इस देश में पूंजीवाद से पहले की ऐसी उत्पादन पद्धति महसूस हुई जो यूरोपीय सामंतवाद से अलग तरह की थी । इससे पहले उन्होंने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में पूंजीवाद से पहले के समाजों का जिक्र करते हुए प्राचीन रोम और मध्ययुगीन यूरोप का नाम लिया था । उन्हें भारत में भिन्न किस्म का समाज नजर आया । इसमें न तो दासता थी और न ही भूदास प्रथा थी । ग्रुंड्रिस में उन्होंने इस समाज की दो विशेषताओं का उल्लेख किया है । पहला कि सामुदायिक खेती के बिना भी ग्रामीण समुदाय की मौजूदगी थी और दूसरा कि ऐसा निरंकुश राज्य था जो जमींदार के लगान की तरह जमीन का कर वसूल करता था । दास प्रथा और सामंतवाद से इसके अंतर के कारण ही उन्होंने इसे एशियाई कहा और प्राचीन, सामंती और पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के साथ इसका भी जिक्र राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान की भूमिका में किया । दास प्रथा और सामंतवाद पर आधारित न होने के बावजूद यह पद्धति वर्गविहीन नहीं थी क्योंकि मार्क्स ने ग्रामीण समुदाय में भी वर्गों के अस्तित्व को स्वीकार किया । असल में निरंकुश राज्य के ही साथ शासक वर्ग का वह व्यापक तंत्र भी जुड़ा था जो अधिकांश अधिशेष का अधिग्रहण कर लेता था ।

उन्होंने भारत की इस व्यवस्था को पूंजीवाद से पहले की अवस्था ही माना और भारत से संबंधित अधिकांश सामग्री का इस्तेमाल ‘पूंजी’ के पहले खंड में यह बताने के लिए किया कि पूंजीवादी विशेषताओं के बिना भी पूंजीवाद से पहले के समाज लम्बे समय तक कारगर तरीके चलते रहे हैं । मसलन भारत में हस्तशिल्प की दुनिया में एक किस्म का श्रम विभाजन था जिसमें ढाका का बुनकर अत्यंत अनगढ़ औजारों का प्रयोग करते हुए अपने पैतृक कौशल के सहारे सर्वोत्तम मलमल का उत्पादन कर सकता था । इसके बरक्स पूंजीवादी मैनुफ़ैक्चर में कौशल का विशेषीकरण होने लगा तथा औजारों में विविधता आती गयी । इसी ग्रंथ में उन्होंने ऐसे भारतीय धनिकों का जिक्र किया है जो शिल्पियों को लगाकर अपने उपयोग की वस्तुएं बनवाते थे । इस तरह पूंजी के हस्तक्षेप के बिना ही उत्पादन और पुनरुत्पादन बढ़ता रहता था ।               

इस सिलसिले में यह भी ध्यान में रखने की बात है कि रेल का आगमन उसी समय भारत में हुआ । स्वाभाविक है कि हमारे देश में इस रेल व्यवस्था का निर्माण तत्कालीन औपनिवेशिक शासन ने अपने व्यावसायिक लाभ के लिए किया था । खास बात कि रेलवे के निर्माण के लिए ही उस समय भूमि अधिग्रहण कानून लाया गया था । रेल निश्चय ही भारत के लिए भारी बदलाव लेकर आयी थी । औपनिवेशिक हस्तक्षेप से ही बात शुरू करना ठीक होगा । मार्क्स ने सबसे पहले अपने आपको ऐसे चिंतकों से अलगाया है जो भारत के किसी स्वर्णकाल का दावा करते थे ।

इसमें वे विलासिता के संसार और क्लेश के संसार की मौजूदगी एक साथ देखते हैं । इसके बावजूद उनका मानना है कि भारत पर अंग्रेजों द्वारा ढाई गयी मुसीबतें पहले की किसी भी मुसीबत से भिन्न हैं । इसे वे यूरोपीय तानाशाही से अधिक विनाशकारी मानते हैं । भारत में जिस तरह की कंपनियों का राज स्थापित हुआ उनकी बानगी देने के लिए उन्होंने हालैंड की कंपनी का उदाहरण दिया है जो अपने कामगारों का उतना भी ध्यान नहीं रखती थी जितना ध्यान गुलामों के मालिक अपने गुलामों का रखा करते थे । कारण कि गुलामों के शरीर खरीदने के लिए धन देना पड़ा था लेकिन अंग्रेजों को इस तरह का कोई खर्च नहीं करना पड़ा था । इस तरह की नृशंसता को तो वे यूरोपीय उपनिवेशकों का सहज आचरण मानते हैं । उनका मानना है कि अंग्रेजी शासन ने इससे भी अधिक गहरा और विनाशकारी हस्तक्षेप भारत में किया है । कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत का समूचा सामाजिक ढांचा ही नष्ट कर दिया और उसके पुनर्निर्माण के कोई निशान नहीं नजर आते ।

उनका कहना है कि पहले से ही भारत में शासन के तीन विभाग काम करते रहे हैं । पहला राजस्व या वित्त विभाग था जिसे वे देश की जनता की लूट का विभाग कहते हैं । दूसरे को वे युद्ध विभाग कहते हैं जिसका काम दूसरे देशों की जनता को लूटना था । इन दोनों के साथ ही सार्वजनिक निर्माण का विभाग भी हुआ करता था । इसका प्रमुख काम उन्होंने खेती के लिए सिंचाई की कृत्रिम व्यवस्था करना बताया है । इसके लिए नहरों के निर्माण और देखरेख की बात खास तौर पर उन्होंने की है । यूरोप में यही काम स्वैच्छिक तरीके से हुआ था लेकिन भारत में खेती की जमीन इतनी अधिक थी कि इसके लिए राजकीय प्रबंध जरूरी था । जब कभी पहले की सरकारों ने इस काम की ओर ध्यान नहीं दिया तो जमीन बंजर होने लगती थी । अंग्रेजों ने पहले के शासन से देश की अंदरूनी और बाहरी लूट के राजस्व और युद्ध विभाग तो ले लिये लेकिन साथ के तीसरे सार्वजनिक कल्याणकारी निर्माण के विभाग को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया । मार्क्स के इस सूक्ष्म पर्यवेक्षण से हम अंग्रेजी राज में अकालों की भयावहता को समझ सकते हैं । असल में अंग्रेजों से पहले खेती अगर किसी एक शासन में बरबाद होती थी तो शासक बदल जाने के बाद फिर पनपने लगती थी । इसका मतलब कि खेती की सेहत का सीधा रिश्ता शासन की गुणवत्ता से होता था । अंग्रेजी शासन ने इस व्यवस्था की रीढ़ ही तोड़ दी । इससे भी भारत की स्थिति उस हद तक बर्बाद न होती जितनी हुई अगर इस देश के कारीगरों को तबाह न किया जाता । यहां मार्क्स ने भारत की एक और विशेषता का जिक्र किया है । उनके अनुसार भारत में तमाम राजनीतिक उथल पुथल के बावजूद समाजिक स्थिरता नजर आती है । करघा और चरखा को वे इस सामाजिक स्थिरता का मूल मानते हैं जिनकी वजह से अनगिनत बुनकर पैदा होते रहते थे । सारे यूरोप में इन बुनकरों के बनाये वस्त्र जाते रहे और बदले में भारत में मूल्यवान धातुओं का आगमन होता रहा । इन धातुओं से जुड़े सुनार समुदाय का भी उन्होंने उल्लेख किया है और भारत की इस मामले में संपन्नता का सबूत यह माना है कि सबके पास कोई न कोई आभूषण अवश्य होता है । कान की बाली, गले में आभूषण और उंगली में अंगूठी के लोकप्रिय प्रचलन को उन्होंने रेखांकित किया है । अंग्रेजों ने इस करघे को तोड़ा और चरखे को तबाह किया । अंग्रेजी प्रयास से भारत के बने कपड़ों को यूरोप के बाजार से बाहर किया गया और फिर भारत को अपने देश के कपड़ों से पाट दिया गया । सार्वजनिक निर्माण की तबाही और देश भर में फैली इस दस्तकारी के विनाश ने भारत को स्थायी नुकसान पहुंचाया ।

इसे मार्क्स ने सामाजिक क्रांति का नाम दिया और कहा कि इंग्लैंड ने यह काम निकृष्टतम सवार्थों से प्रेरित होकर किया । इसके बावजूद वे अंग्रेजी शासन को इस बदलाव का अनजाना वाहक कहा । उनका यह निष्कर्ष बहुधा विवाद का कारण बनता रहा है । ध्यान देने की बात है कि अंग्रेजी शासन के अपराधों पर मार्क्स ने कभी परदा नहीं डाला । इस शासन की संचालक ईस्ट इंडिया कंपनी के बारे में उन्होंने साफ लिखा कि सरकार को रिश्वत देकर ही वह शक्तिशाली बनी और अपनी इस शक्ति को कायम रखने के लिए बार बार रिश्वत देती रही । भारत के साथ व्यापार पर उसका एकाधिकार था और इसका विरोध इंग्लैंड में हुआ करता था इसलिए जब भी उसके एकाधिकार की अवधि खत्म होने को आती, वह सरकार के सामने नये कर्जों के प्रस्ताव पेश करके तथा नये नये उपहार देकर अपना अधिकार पत्र बहाल करवाती थी ।

उनका कहना था कि भारत में अंग्रेजी शासन ने दोहरी भूमिका निभाने का लक्ष्य रखा । उसकी एक भूमिका विनाशकारी थी जिसके तहत उसने भारत के पुराने समाज को तहस नहस कर दिया । उन्होंने देशी समुदायों को छिन्न भिन्न करके, देशी उद्योग को जड़ से उखाड़कर और उस समाज में जो कुछ भी उन्नत तथा श्रेष्ठ था उसे नष्ट करके भारतीय सभ्यता का नाश किया । अंग्रेजी राज का इतिहास कुल मिलाकर नाश की ही कहानी है । देश को जिस तरह अंग्रेजों ने खंडहर बना दिया था मार्क्स के मुताबिक उसमें रचनात्मक काम शायद ही दिखाई पड़ें । फिर भी कुछ नये कामों की शुरुआत उन्होंने देखी और दर्ज की । इसमें सबसे पहले उन्होंने इस देश की एकता का उल्लेख किया और बताया कि भले उसे अंग्रेजों ने तलवार के जोर से कायम किया लेकिन अब वह बिजली के तार से मजबूत होगी और उसे स्थायित्व हासिल होगा । इसके बाद उन्होंने भारतीय सेना का जिक्र किया है जिसकी बदौलत भारत अपने प्रयत्नों से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा और फिर किसी हमलावर का शिकार न बनेगा । इसके बाद उन्होंने आजाद अखबार के आगमन को देश के लिए महत्वपूर्ण माना जिसे भारतीय और यूरोपीयों के वंशज चला रहे थे । इसके बाद उन्होंने आधुनिक शिक्षा के कारण पैदा होने वाले नये वर्ग का भी उल्लेख किया जो देश का शासन चलाने की आवश्यक जानकारी रखता है और जिसने यूरोप के विज्ञान को भी अपनाया है । इन नयी सामाजिक ताकतों की उनकी पहचान किसी भी लिहाज से बेहद अंतर्दृष्टिपूर्ण और उल्लेखनीय है ।

उनके अनुसार इंग्लैंड के शासकों में से अभिजात जहां भारत को जीतना चाहते थे, थैलीशाह लूटना चाहते थे और उद्योगपति अपने सस्ते माल के जरिए उसके बाजार पर कब्जा करना और उसके उद्योगों को खत्म करना चाहते रहे थे । लेकिन इस स्थिति में मार्क्स को बदलाव आता नजर आया । अब इंग्लैंड के उद्योगपति भारत को उत्पादक देश बनाने में रुचि लेते नजर आये । इसी वजह से रेलों का जाल बिछा देने का इरादा भी उन्होंने महसूस किया । यातायात की इस आधुनिक व्यवस्था को भी मार्क्स ने भारत के लिए बदलाव का प्रेरक अनुभव किया । रेल से खेती की उपज को इधर उधर ले जाने की सुविधा के अतिरिक्त मिट्टी खोदने से तालाब और उनकी श्रृंखला से सिंचाई, फौजी छावनी आदि की व्यवस्था तथा सड़क मार्ग से संचार और सम्पर्क की भी आसानी उन्हें महसूस होती है । उनका कहना है कि अंग्रेज इस व्यवस्था को कच्चा माल पाने के लिए बना रहे हैं लेकिन एक बार बन जाने के बाद यह ढांचा भारत के उद्योगीकरण का रास्ता खोल देगा । इससे उन्हें जाति प्रथा के पुश्तैनी श्रम विभाजन को भी धक्का पहुंचने की उम्मीद थी । लेकिन इन सबकी पूर्वशर्त के रूप में मार्क्स ने इन्हें जनता की मिल्कियत में ले आने का जिक्र किया । इन सभी सकारात्मक बदलावों का लाभ भारत को तभी मिलने की सम्भावना मार्क्स ने देखी जब या तो इंग्लैंड में मजदूर वर्ग शासक सत्ता को उखाड़कर उसकी जगह ले ले या भारतीय लोग ही अपनी मजबूती के भरोसे अंग्रेजों के जुए को उतार फेंकें । उन्हें भविष्य में भारत के पुनरुत्थान की उम्मीद थी क्योंकि भारत के लोग पराधीनता में भी अपनी गरिमा बरकरार रखते हैं, अपनी बहादुरी से अफ़सरों को चकित कर देते हैं और सबसे बढ़कर वे भारत को यूरोपीय भाषाओं और धर्मों का स्रोत बताते हैं ।

उनका कहना है कि भारत में अंग्रेजी शासन से पूंजीवादी सभ्यता का घोर पाखंड और स्वभावगत बर्बरता नंगी होकर प्रकट हुई है जो इंग्लैंड के भीतर भद्रता की चादर ओढे रहती है और उपनिवेशों में अपना असली नंगा रूप दिखाती है । कहने की जरूरत नहीं कि इसी परिस्थिति ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को जन्म दिया । 1857 संबंधी उनके लेखन की तुलना के लिए हम पेरिस कम्यून के बारे में उनके लेखन की याद कर सकते हैं जिसमें उन्होंने विद्रोह न करने की सलाह देने के बावजूद विद्रोह शुरू हो जाने के बाद उसकी तारीफ में जान लड़ा दी । एक समय उन्हें अंग्रेजी राज के कुछ अनजाने ही सही सकारात्मक पहलू नजर आये थे लेकिन विद्रोह के शुरू हो जाने के बाद उसे मार्क्स की सहानुभूति ही मिली ।

1857 पर इन लेखों के सिलसिले में यह भी ध्यान देने की बात है कि इनके लेखक बहुधा एंगेल्स हुआ करते थे और एंगेल्स की प्रतिष्ठा सेना और युद्ध के विशेषज्ञ की थी इसलिए इन लेखों में विद्रोहियों के पक्ष में रणनीतिक सूझबूझ भी मिलती है । उन्होंने सैनिक रणनीति विशारद की तरह विद्रोहियों की गतिविधियों का लगभग दैनिक लेखा दर्ज किया ।

मार्क्स ने इस बात पर भी ध्यान दिया कि शुरू में अपने शासन के विस्तार के लिए अंग्रेज बांटो और राज करो की नीति पर चले लेकिन जबसे उनकी सत्ता पूरी तरह स्थापित हुई तबसे उन्होंने सेना से पुलिस का काम लेना शुरू कर दिया था । इसमें नस्ली भेदभाव की परिघटना आम हो चली थी । सेना में भारतीय सिपाहियों की तादाद तो बढ़ती गयी । साथ ही उन्हें अपने साथ अफ़सरों के भेदभावपूर्ण बरताव का अहसास भी गहराई से होने लगा । यही कारण था कि विद्रोह की शुरुआत जुल्म के मारे किसानों की जगह इन सिपाहियों ने की । लेकिन वे इस बात की याद भी दिलाते हैं कि विद्रोह की मुख्य प्रेरणा भारत की जनता से ही मिली थी । असहनीय औपनिवेशिक उत्पीड़न से संघर्ष के लिए वे एकजुट होकर खड़े हो गये थे । अंग्रेजी शासन ने इसे सिपाही विद्रोह मात्र प्रचारित किया था जिसका खंडन करने के लिए मार्क्स ने उसके जन चरित्र को उजागर किया । उन्होंने इसमें अलग अलग धर्मों और जातियों के लोगों की शिरकत पर बल दिया और इसे देश को एकताबद्ध करने वाला साबित किया । अंग्रेजी अखबारों ने विद्रोह में जनता की भागीदारी पर परदा डालना चाहते थे लेकिन मार्क्स ने विद्रोह को मिले व्यापक समर्थन का तथ्य जान बूझकर उठाया । उन्होंने लिखा कि किसानों ने इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाग लिया । किसानों की सक्रिय सहानुभूति के बिना विद्रोह इतना फैल नहीं सकता था और अंग्रेजों को अपनी वफ़ादार फौज को गोलबंद करने में जिन मुसीबतों का सामना करना पड़ा उसका कारण भी यह समर्थन ही था । उनका यह भी कहना था कि स्वतंत्र देशी शासकों के इलाकों को अपने कब्जे में लेने की ब्रिटिश नीति भी इस विद्रोह का कारण थी । जिन इलाकों पर कब्जा किया गया उसके बाशिंदों को तकलीफ झेलनी पड़ी और जमीन दखल की यह योजना उन्हें पसंद नहीं आयी । देशी रियासतों के साथ अंग्रेजों ने जो समझौते किये थे उनके उल्लंघन ने उन्हें जनता की नजर में घोर अविश्वसनीय बना दिया ।                                                                                 

मार्क्स की सहानुभूति विद्रोहियों के साथ थी और वे उनकी विजय की कामना भी करते थे लेकिन उन्हें अंदाजा था कि दक्षिण और मध्य भारत में इसके भौगोलिक प्रसार के बिना सफलता संदिग्ध थी । विद्रोहियों की उस समय की विफलता की बड़ी वजह उन्हें विद्रोहियों की सैनिक तैयारी की कमी के मुकाबले ब्रिटिश सेना के पेशेवर प्रशिक्षण में दिखायी पड़ी । विद्रोह की समाप्ति के बाद उसके दमन की क्रूरता का भी मार्क्स ने रहस्योद्घाटन किया ताकि अंग्रेजों की तथाकथित दयालुता का जमकर भंडाफोड़ किया जा सके । उनकी सभ्य सेना ने पराजित विद्रोहियों के साथ बर्बर व्यवहार किया और विद्रोही शहर और देहाती इलाकों में जमकर लूटपाट की । विद्रोह ने अंग्रेजी शासन का अंत तो नहीं किया लेकिन भारत की औपनिवेशिक दासता के प्रति जनता की नफ़रत को उघाड़कर रख दिया तथा देश की मुक्ति की ललक, उसके लिए संघर्ष की क्षमता और दृढ़निश्चय को जाहिर कर दिया । सत्ता को शासन के तरीके और रूप में थोड़ा बदलाव करने के लिए बाध्य होना पड़ा । कहना न होगा कि ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का खात्मा इस विद्रोह की वजह से ही हुआ ।         

Sunday, June 22, 2025

मार्क्स का अर्थशास्त्र

 


मार्क्स की सबसे बड़ी देन अर्थशास्त्र के ही क्षेत्र में मानी जाती है । बीस पचीस साल की उम्र में ही पत्रकारिता के दौरान उन्हें इसके अध्ययन की जरूरत महसूस हुई थी । फिर फ़्रांस में रहते हुए एंगेल्स के लेख पढ़ने से यह इच्छा और भी तीव्र हुई । 1848 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों से ही इस क्षेत्र में हाथ आजमाना शुरू किया । लंदन पहुंचने के बाद तो लगभग समूचा समय इसी अध्ययन में गुजरा । इसका नतीजा शुरू में उनकी राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान नामक किताब थी । बाद में जिस विशालकाय परियोजना में उन्होंने हाथ डाला उसके पहले खंड को ही जीवित रहते पूरा कर सके । उनकी दार्शनिक पृष्ठभूमि ने इस क्षेत्र में उनके लेखन को विशिष्टता प्रदान की । उनके आर्थिक सिद्धांतों में कुछ महत्वपूर्ण को ही गिनाना सम्भव है । इनमें मूल्य का श्रम सिद्धांत मशहूर है । इसके जरिये उन्होंने मूल्य के निर्धारण में मांग और आपूर्ति को सबसे महत्वपूर्ण मानने की धारणा का खंडन किया ।

मार्क्स के अर्थशास्त्र को पारम्परिक अर्थशास्त्र की आलोचना के रूप में देखा जाता है । उनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘पूंजी’ का उपशीर्षक ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना’ है । असल में पूंजीवाद के आगमन के साथ एक गुत्थी भी पैदा हुई । तमाम अध्ययनों के बाद भी पूंजीपति के मुनाफ़े के स्रोत का पता नहीं चल रहा था । मार्क्स का उक्त विशाल ग्रंथ इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश के तहत लिखा गया । उन्होंने बताया कि ऊपर से देखा जाए तो सब कुछ नियम के हिसाब से चलता नजर आता है । जिस जमीन पर कारखाना खड़ा होता है उसका सारा किराया जमीन के मालिक को मिल जाता है । मजदूर जिस मजदूरी पर काम करने के लिए राजी होता है उसे वह मजदूरी दी जाती है । कारखाने में जिस कच्चे माल का इस्तेमाल होता है उसकी कीमत भी अदा कर दी जाती है । तो फिर मालिक के पास पूंजी जमा होते जाने की वजह क्या है । इस समस्या को सुलझाने के लिए मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को समझने पर जोर दिया । इस उत्पादन प्रक्रिया की सबसे बड़ी जो विशेषता है वह यह कि इसमें उत्पादन प्रमुख रूप से बिक्री के लिए किया जाता है । बिक्री बाजार में होती है । बाजार में बिक्री के लिए वस्तुओं को उपयोगी होना होता है । उनके भीतर के इस गुण को मार्क्स उपयोग मूल्य कहते हैं । दो उपयोगी मूल्यों के बीच लेनदेन ही बिक्री है और इस प्रक्रिया में वस्तु में विनिमय मूल्य भी पैदा हो जाता है । प्रत्येक उपयोगी वस्तु को बेचा जाना जरूरी नहीं, कुछ का निजी उपभोग भी हो सकता है लेकिन जिसे बेचा जाना है उसका उपयोगी होना जरूरी है । प्रकृति से कच्चे माल की तरह मिली वस्तु को उपयोगी बनाने में मनुष्य का श्रम लगता है इसलिए वस्तु के भीतर यह मूल्य मनुष्य के श्रम से पैदा होता है । मनुष्य का यह श्रम अलग अलग किस्म की वस्तुओं को बनाने में अलग अलग तरीके से लगता है । अलग अलग तरीके के इस श्रम को मूर्त श्रम कह सकते हैं । इस श्रम से बनी वस्तुओं की आपस में खरीद बिक्री के लिए उनके बीच साझा मानव श्रम को आपस में विनिमेय होना जरूरी होता है । इसके लिए हमें इन भिन्न भिन्न वस्तुओं को बनाने में लगे औसत श्रमकाल को लेनदेन की इकाई बनाना पड़ता है । इसी को अमूर्त श्रम कहा जा सकता है । वस्तुओं की खरीद बिक्री में इसका ही लेनदेन होता है इसलिए इसे विनिमय मूल्य का जनक माना जाता है । इस मूल्य को बाजार तय करता है । इस आधार पर पहले दो तरह के मालों के बीच सीधे अदला बदली होती थी । उसे वस्तु विनिमय कहा जाता है ।

इस व्यापार में बदलाव तब आया जब धातुओं का आविष्कार हुआ । धातु खनिज पदार्थ था जिसे उपयोगी बनाने के क्रम में दस्तकारी का जन्म हुआ । अब खेती के साथ एक नया पेशा ही पैदा हो गया । खनिक नामक एक नये तरह के मजदूर का भी उदय हुआ । खरीद बिक्री भी एक स्वतंत्र आर्थिक गतिविधि हो गयी । शहरों की स्थापना के साथ खेती की उपज भी खरीद बिक्री के मातहत आ गयी । व्यापार के लिए सामान ढोने वाले रथ और नावों की जरूरत पड़ी । व्यापार में बढ़ोत्तरी के साथ पुराना वस्तु विनिमय मुश्किल हो गया । इस मुश्किल का हल मुद्रा के जरिए हुआ । मुद्रा में मूल्य की अभिव्यक्ति होती है । आम तौर पर यह मुद्रा कोई न कोई धातु होती है । इस मुद्रा का भी उसके उत्पादन में लगे अमूर्त श्रमकाल के अनुरूप निश्चित मूल्य होता था । विनिमय या खरीद बिक्री की सुविधा के लिए यह मूल्य मानक की तरह काम करने लगा । मतलब इसमें शेष सभी मूल्यों को व्यक्त किया जाने लगा । धातु की मुद्रा की विशेषता थी कि उसमें टिकाऊपन था, उसे दूर देश ले आना जाना आसान था और उसे छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा जा सकता था । इनसे बने सिक्कों का उपयोग इसी वजह से खरीद बिक्री में शेष वस्तुओं से अधिक होने लगा । अब आर्थिक गतिविधि जिस स्तर पर चली गयी थी उसमें मुद्रा का स्वतंत्र उपयोग होने लगा । उसे कर्ज पर चलाकर सूद हासिल किया जा सकता था । इससे मुद्रा के संचालन और संग्रह से और अधिक बढ़ी हुई मुद्रा की कमाई होने लगी । इसने सूदखोर पूंजी की नींव डाली । इससे ऐसी व्यापारिक व्यवस्था कायम हुई जिसमें कोई वस्तु बेचने के लिए ही खरीदी जाने लगी । इसमें व्यापारी माल के उत्पादन में हाथ भी नहीं डालता लेकिन मुनाफ़ा हासिल करता है । इस मुनाफ़े का एक हिस्सा वह अपने उपभोग पर खर्च कर सकता है लेकिन उसका प्रमुख उद्देश्य मुनाफ़ा ही होता है । इस व्यवस्था ने दूर दूर के लोगों को करीब ला दिया और उनका एक दूसरे पर असर पड़ने लगा । इस वजह से दूरी जनित अलगाव और जड़ता टूटी ।

इधर खेती के कामों में धातुओं के इस्तेमाल के कारण उत्पादन में बढ़ोत्तरी आयी और श्रम विभाजन और तेज हो गया । कामगारों में उत्पादन की दिलचस्पी पैदा करने के लिए उत्पादन के साधन, जैसे जमीन पर उनकी मिल्कियत कुछ हद तक मंजूर करना जरूरी हो गया । श्रम विभाजन के विस्तार के साथ मनुष्यों के समूह नये नये कामों में कुशलता प्राप्त करने लगे । व्यापार का पैमाना बहुत बड़ा हो गया । समुद्र के रास्ते भी दूर दूर देशों से व्यापार शुरू हुआ । विलासिता के सामान और हथियारों के निर्माण के लिए खानों और आरम्भिक दर्जे के कारखाने भी स्थापित हुए । बादशाहों और राजाओं ने भी व्यवसाय और व्यापार में रुचि ली और निवेश भी किया । अब ऐसा वातावरण बन चुका था जिसमें आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था ने जड़ जमा ली ।

उसी समय अमेरिका की खोज हुई, अफ़्रीका होते हुए भारत, इंडोनेशिया, चीन, जापान आदि तक समुद्री सम्पर्क का नया रास्ता मिला तथा दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप के संसाधनों की खुली लूट ने अपार सम्पदा उपलब्ध कराई । इन सबके कारण वैश्विक व्यापार का नया दौर शुरू हुआ । इसने खरीद बिक्री के लिए माल उत्पादन के क्षेत्र में भी क्रांति कर दी । नये दौर के इस व्यापार ने आज की मल्टी नेशनल कंपनियों जैसी बड़ी कंपनियों को भी जन्म दिया । तमाम पश्चिमी देशों ने ईस्ट इंडिया कंपनियों की स्थापना की । इसी समय गुलाम व्यापार ने भी व्यवस्थित रूप प्राप्त किया । इस दौर को लोकप्रिय भाषा में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की भ्रूणावस्था कह सकते हैं । इस दौर में तमाम आपराधिक कार्यों से जो हासिल किया गया उसे मार्क्स ने पूंजी का आदिम संचय कहा है । इस प्रक्रिया के तहत जिन कारनामों को अंजाम दिया गया उनमें समुद्री लूटपाट के अलावा खेती की जमीन से किसानों की जबरन बेदखली और सामुदायिक जमीन की छीनाझपटी हुई । इसी दौर में भारत तथा अमेरिका में सोने की खानों का पता चलने और गुलामों के जरिए सोने के बड़े पैमाने पर खनन और उत्पादन के कारण सोने की कीमत में गिरावट आयी । विभिन्न देशों की मुद्रा की कीमत भी गिर गयी और वस्तुओं की कीमत बढ़ गयी । इससे वेतनभोगी कर्मचारी तबाह हुए और जिन अमीरों के पास सोना जमा था उसकी कीमत बहुत कम रह गयी । इस तरह कर्मचारियों और अमीरों की संपत्ति व्यापारी पूंजीपतियों के पास चली गयी । व्यापार में अधिक मुनाफ़ा देखकर व्यवसायी राजघरानों ने भेड़ की ऊन का निर्यात अधिक फ़ायदेमंद पाया । नतीजे के तौर पर भेड़ पालन में व्यावसायिक रुचि बढ़ी तो खेती की जमीन को चारागाह में बदल दिया गया और किसानों को भगा दिया गया । खेती की जमीनों के बड़े बड़े भूस्वामी पैदा हुए और खेती से बेदखल होकर किसान शहरों के कारखानों में काम करने वाले मजदूर बन गये । कामगारों की उपलब्धता हो जाने के बाद कारखाने के लिए अन्य सामान जुटाने का अभियान उपनिवेशों में चलाया गया । यूरोप की व्यापारी कंपनियों ने उपनिवेशों में भी राजनीतिक सत्ता हथिया ली थी । इससे उपनिवेशों की लूट खसोट में आसानी हुई । वहां से सस्ती कीमत पर कच्चा माल और सस्ते श्रमिक उपलब्ध हुए । इसके बाद भी पूंजी जुटाने के लिए सार्वजनिक बान्ड या ॠणपत्र जारी किये गये । आम लोगों ने इन्हें खरीदा और इनसे अच्छा खासा धन जुटाया गया । बैंकों में जमा धन से भी कर्ज की व्यवस्था की गयी । इसके बाद भी कारखानों के उत्पादन से अपेक्षित लाभ न होता देखकर घरेलू बाजार की रक्षा के लिए दूसरे देशों के सामान की बिक्री पर रोक लगायी गयी । अपने देश के ही पूंजीपति को लाभ पहुंचाने के इस उपाय को संरक्षणवाद कहा जाता है । आज भी बहुतेरे देश अपने देश के बने माल की खपत के लिए इस उपाय का सहारा लेते हैं । साफ है कि पूंजी के इस आदिम संचय की प्रक्रिया में झूठ, धोखे, साजिश और खून से बखूबी काम लिया गया।

इन नये हालात में बिक्री के लिए वस्तुओं के उत्पादन की मांग बढ़ती गयी लेकिन इस मांग को पूरा करने लायक उत्पादन उस समय की व्यवस्था के लिए सम्भव नहीं था । आहिस्ता आहिस्ता व्यापारिक पूंजीवाद से अगले चरण में जाने का उपक्रम शुरू हुआ । पहले कुछ छोटे पैमाने के कारखाने स्थापित हुए । इनमें कुछ कारीगर एक ही जगह उस्ताद कारीगर की देखरेख में निश्चित समय तक काम करते थे । इससे काम का अनुशासन पैदा हुआ और कारीगरों के बीच होड़ भी बढ़ी । अब भी एक ही कारीगर कोई भी वस्तु तैयार करता था और काम के समय के बाद वे खेती आदि का भी काम करते थे । काम भी कारीगर अधिकतर वे ही करते जो उनके वंशानुगत थे । काम करने के औजार भी उनके अपने होते थे । वस्तुओं की मांग इतनी अधिक थी कि इस व्यवस्था से भी पर्याप्त उत्पादन नहीं हो पा रहा था । फिर दस्तकारी की शुरुआत हुई जिसमें कारखाने के भीतर श्रम विभाजन देखने में आया । एक ही वस्तु के अलग अलग हिस्से अलग अलग कामगार तैयार करते और समूची वस्तु अनेक्कामगारों के सहकारी श्रम से तैयार होती थी लेकिन काम अब भी हाथ से ही होता था । इसके बाद आधुनिक उद्योग का समय आया और औद्योगिक पूंजीवाद का वह रूप सामने आया जिसका ही व्यवस्थित विश्लेषण करने के लिए मार्क्स मशहूर हैं । इस बदलाव की खासियत को अलग से बताने के लिए इसे औद्योगिक क्रांति भी कहा जाता है ।

इसने यूरोप में अपना प्रसार तेजी से किया । इसमें काम के लिए मशीनों का इस्तेमाल प्रमुखता से होने लगा और हाथ का काम उन मशीनों को चलाना भर रह गया । इसने मनुष्य के हाथ से चलने वाले औजारों को पुराना बना दिया और इसमें बहुतेरे औजार एक साथ काम करने लगे । मशीन को चलाने के लिए भाप के इंजन के उपयोग ने इस बदलाव को नयी ऊंचाई पर पहुंचा दिया । अब काम के दौरान रुकावट की जरूरत समाप्त हो गयी और काम की निरंतरता ने मजदूर को ही मशीन की गति का गुलाम बना दिया । इससे समय की बचत हुई और कच्चे माल की बर्बादी भी कम हो गयी । इनके लिए पूंजी तो अधिक लगी लेकिन मशीन के लम्बे जीवन और उसकी उत्पादन क्षमता ने नुकसान की भरपाई कर दी । लागत बहुत कम हो गयी और श्रम की उत्पादकता बढ़ गयी । इससे तैयार माल की कीमत कम हो गयी और उससे उत्पादन के पुराने तरीके खत्म हो गये । ऐसा उन देशों में तो हुआ ही जहां औद्योगिक क्रांति हुई थी जिन देशों से व्यापार होता था उन पर भी इसका असर पड़ा । इस प्रकार मशीनों के प्रयोग ने ऐसे आधुनिक मजदूर वर्ग को जन्म दिया जिसके पास अपना कोई भी औजार नहीं होता था । उत्पादन का प्रत्येक साधन उससे छीना जा चुका था । दूसरी ओर इन मशीनों को बनाना बहुत खर्चीला था इसलिए इन्हें वे ही बना सकते थे जिनके पास आदिम संचय से हासिल अपार पूंजी थी । वे औद्योगिक पूंजीपति हुए । समाज में ये दो नये वर्ग सामने आये । एक जिसके पास कुछ नहीं था और दूसरा जिसके पास सब कुछ था ।

मशीन अपने आप उत्पादन नहीं कर सकती थी । उसका संचालन तभी सम्भव था जब उसे चलाने वाला मजदूर भी हो और श्रम करने की अपनी क्षमता को बेचे । नये पूंजीपति और नये मजदूर के बीच इस सामाजिक संबंध से ही उत्पादन की नयी ताकतों का विकास हो सकता था । इन नयी ताकतों ने इस तरह के आपसी संबंध को जन्म दिया । मजदूर कारखाने में ही काम करे, किसी अन्य तरीके से अपना पेट न पाल सके इसके लिए नये कानून बनाये गये । भीख मांगने पर प्रतिबंध भी इसी कारण लगाया गया । पूंजीपति की एकमात्र दिलचस्पी इस बात में थी कि अधिक से अधिक उत्पादन हो, उत्पादित वस्तु बाजार में बिके और उसे जल्दी से जल्दी मुनाफ़ा मिले । माल तैयार करने और मुनाफ़ा मिलने के रास्ते की सभी बाधाओं को उसने कानूनन भी हटवाया । इसके लिए उसे श्रमिक के अन्य कामों से उसे आजाद कराना पड़ा और जागीरों के बतौर बेकार पड़ी संपत्ति को भी बाजार में लाना पड़ा । व्यापार पर भी उसे कोई नियंत्रण बर्दाश्त नहीं था, वह मुक्त व्यापार चाहता था । इसके लिए उसे पुराने सामंती मालिकों से बैर मोल लेना पड़ा और उसने यह बैर मोल लिया भी । राज्य की शक्ति पर अधिकार हासिल करके उसने सामंती ताकतों को कुछ हद तक परास्त किया और धीरे धीरे दुनिया पूंजीवादी युग में दाखिल हो गयी । इस युग में पूंजीपति की आर्थिक ताकत के लगातार बढ़ते रहने का रहस्य अतिरिक्त पूंजी का उत्पादन था । मार्क्स की इसी खोज को एंगेल्स ने उनकी सबसे महत्व की खोज कहा था ।

हमने पहले ही देखा कि व्यापारी भी माल बेचने के लिए ही खरीदता था और खरीद के मुकाबले ऊंचे दाम पर बेचता था ताकि उसका मुनाफ़ा मिल सके लेकिन इस प्रक्रिया में अब नयापन आया । व्यापारी जिस माल को खरीदता था उसको ही बेचता था लेकिन औद्योगिक मजदूर जो माल खरीदता था उसे ही नहीं बेचता बल्कि उससे नया माल तैयार कर उसे बेचता है । इस प्रकार उसकी पूंजी उत्पादक हो जाती है । उसकी यह उत्पादकता ही उसे शेष अन्य किस्म की पूंजियों से विशेष बनाती है । औद्योगिक पूंजीपति अपने पास की मुद्रा से मशीन, कच्चा माल और कामगार की श्रम करने की क्षमता को खरीदता है, उनसे नया माल तैयार करता है और उसे बाजार में बेचकर अधिक मात्रा में मुद्रा प्राप्त करता है । उसकी बढ़ी हुई यह मात्रा तभी हासिल हो सकती है जब पूंजी लगातार चलती रहे । मुद्रा पूंजीपति की जेब से निकलकर बढ़ी हुई मात्रा में फिर उसकी ही जेब में वापस लौट आती है । यही बढ़ोत्तरी उसके अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य बन जाता है ।

पूंजी की इसी बढ़ोत्तरी का स्रोत मार्क्स ने विक्रेय वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया में देखा । उन्होंने कहा कि मजदूर की मजदूरी उसकी श्रमशक्ति का मूल्य होती है । इस मूल्य का निर्धारण भी अन्य वस्तुओं के मूल्य की तरह ही होता है । इस श्रमशक्ति के उत्पादन में लगे औसत श्रमकाल को ही उसका मूल्य मानना होगा । इस श्रमशक्ति को कामगार के शरीर से अलग नहीं किया जा सकता इसलिए उसके उत्पादन की लागत का अर्थ है काम करने और संतानोत्पत्ति की क्षमता के लिए आवश्यक भोजन, कपड़ा आदि के उत्पादन में लगा औसत श्रमकाल । इस खास प्रकार की वस्तु की विशेषता यह है कि इसके उत्पादन का जो मूल्य होता है उससे अधिक मूल्य यह पैदा करता है । मार्क्स का अनुमान था कि अगर मजदूर किसी कारखाने में आठ घंटे काम करता है तो चार घंटे के श्रम से ही वह अपने उत्पादन का मूल्य अदा कर देता है । शेष जितनी भी देर वह काम करता है उससे ही अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है । काम करना उसकी मजबूरी होती है क्योंकि जीवन चलाने के अन्य साधन उससे छीने जा चुके हैं । उनकी मजबूरी हो जाती है कि वे अपनी श्रमशक्ति को पूंजीपति के हाथ बेचकर ही जीवित रह सकते हैं । उसकी श्रमशक्ति को खरीद लेने के बाद पूंजीपति उसका मालिक हो जाता है । वही काम के घंटे तय करता है । कामगार अपनी श्रमशक्ति के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल के अतिरिक्त जितना भी समय काम करता है वह श्रमकाल अतिरिक्त होता है और इससे ही अतिरिक्त पूंजी का सृजन होता है जो पूंजीपति के अनंत मुनाफ़े का स्रोत होती है । इसलिए ही पूंजीपति मजदूर के काम में समय की कंजूसी को भारी महत्व देता है ।

इन सबसे साबित होता है कि मुनाफ़ा उत्पादन की प्रक्रिया में ही निहित होता है । जिस मूल्य पर कोई भी माल बाजार में बिकता है उसमें एक हिस्सा मशीन, औजार और कच्चा माल यानी अचल पूंजी का होता है और दूसरा हिस्सा श्रमशक्ति का मूल्य यानी चल पूंजी होता है । इस चल पूंजी  की खूबी यह होती है कि वह अपनी लागत से अधिक मूल्य पैदा करती है । यह मूल्य ही अतिरिक्त मूल्य होता है । इस अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने की कोशिश कोई भी पूंजीपति हमेशा करता है । इसके दो तरीके होते हैं । पहला तो काम के घंटे बढ़ाना जिसे मार्क्स ने निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य कहा है । दूसरा उपाय है श्रम की उत्पादकता बढ़ाना जिसे मार्क्स ने सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य कहा है । कहने की जरूरत नहीं कि इन वजहों से ही काम के घंटों और मजदूरी की दर के सवाल पर पूंजीपति और मजदूर का टकराव लगातार होता रहता है । पूंजीपति को जो मुनाफ़ा मिलता है उससे वह मशीनों की खरीदारी करके अचल पूंजी का अनुपात बढ़ाता है । इससे मजदूरों का एक हिस्सा श्रम प्रक्रिया से बाहर हो जाता है । मार्क्स ने उसे मजदूरों की रिजर्व (आरक्षित) फौज कहा है । इस हिस्से के सहारे मजदूरी की दर को ऊपर बढ़ने से रोका जाता है ।

चल पूंजी और अचल पूंजी के इस रिश्ते में मार्क्स की मुनाफ़े की दर में घटोत्तरी की धारणा का रहस्य छिपा है इसलिए इसे कुछ विस्तार से देखना ठीक होगा । मार्क्स ने उद्योगों में दो प्रकार देखे । पहला है उत्पादन के साधनों का उत्पादन करने वाले मसलन मशीन निर्माण उद्योग और दूसरा है उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करने वाले उद्योग । मशीन निर्माण के उद्योगों में चल पूंजी के मुकाबले अचल पूंजी की मात्रा अधिक होती है जबकि उपभोक्ता सामग्री का निर्माण करने वाले उद्योगों में इसका उलटा होता है । दोनों किस्म के उद्योगों में अतिरिक्त पूंजी का सृजन अलग अलग होता है लेकिन पूंजी के बाजार के जरिए मुनाफ़े की औसत दर कायम रखी जाती है । इसीलिए पूंजी लगातार बड़े उद्योगों की ओर भागती रहती है । इसका एक और भी अर्थ निकलता है कि पूंजी की दुनिया में लगातार छोटे और मंझोले उद्योगों की पूंजी बड़े उद्योगों की ओर जाती रहती है । बड़े उद्योगों में चल पूंजी कम होने से अतिरिक्त मूल्य कम पैदा होता है लेकिन पूंजीपति इस बदलाव को रोक नहीं सकता क्योंकि श्रम की उत्पादकता बढ़ाने का यह कारगर जरिया होता है इसलिए पूंजीवाद में उसके ही गति के नियमों की वजह से मुनाफ़े की दर गिरने की प्रवृत्ति होती है । इस प्रवृत्ति को काबू में रखने और मुनाफ़ा कायम रखने के लिए पूंजीपति को लगातार बदलाव करते रहना पड़ता है इसलिए पूंजीवाद की एक विशेषता अस्थिरता भी होती है । इस नुकसान की भरपाई उपनिवेशों प्राकृतिक और मानव संसाधन के अंधधुंध दोहन से भी की जाती है ।

पूंजी का एक हिस्सा स्थिर रहता है और दूसरा हिस्सा माल के रूप में बाजार में चलन में रहता है । इस माल की बिक्री जितना जल्दी हो जाती है उतना ही जल्दी पूंजीपति का मुनाफ़ा उसकी जेब में वापस लौट आता है । इस कारण औद्योगिक पूंजीपति को व्यापारी पूंजीपति की जरूरत बनी रहती है । यहां तक कि माल की जल्दी बिक्री के लिए मुनाफ़े में उसे भी हिस्सा देना पड़ता है । उत्पादक पूंजीपति का मुनाफ़ा वापस आते ही फिर से उसका निवेश नये माल के उत्पादन के लिए कर दिया जाता है । इस तरह चलन वाली पूंजी को स्थिर पूंजी में बदलते जाना ही औद्योगिक क्रांति का सार है । बिक्री की जल्दी के लिए परिवहन की व्यवस्था में भी चुस्ती लायी जाती है । पूंजी का जो हिस्सा माल के रूप में बाजार में रहता है उसकी अनुपस्थिति में भी उत्पादन जारी रखने के लिए कर्ज की व्यवस्था कायम की जाती है । माल उत्पादन के लिए दिया गया कर्ज छोटी अवधि का होता है जबकि निवेश का कर्ज लम्बी अवधि का होता है । कर्ज की यह व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था का ही अंग होती है और संकट के समय काम आती है ।

कर्ज की इस व्यवस्था के अलावे पूंजीपति बाजार में शेयर जारी करके भी पूंजी जुटाता है । शेयर खरीदने वालों को सूद प्राप्त करने की अग्रिम गारंटी दी जाती है । इन पर मुनाफ़े का लाभांश भी मिलता है । शेयरों के इस बाजार में भी छोटे खिलाड़ियों की रकम बड़े निवेशक हड़प जाते हैं । कहने को तो शेयरधारक को कंपनी के प्रबंधन में मतदान का अधिकार भी होता है लेकिन इस मामले में भी बड़े निवेशक हमेशा लाभ में रहते हैं । इनके जरिए भी पूंजी का संकेंद्रण होता है क्योंकि बड़े पूंजीपति छोटे निवेशकों का धन हड़प लेते हैं ।

पूंजीवाद का यह समूचा तंत्र वैसे तो पूंजीवाद के सहज संचालन में सुविधा के लिए ही बनाया जाता है लेकिन असल में यह संकट का कारण बन जाता है । पूंजी की प्रवृत्ति मुनाफ़ा कमाने की ओर होती है । उसका प्रवाह भी उन्हीं उद्योगों की ओर अधिक होताहै जहां मुनाफ़ा अधिक मिले । मुनाफ़े की होड़ में मशीनीकरण तेज होता जाता है जिससे मजदूरों का एक हिस्सा बेकार होता जाता है । जो बेकार हो जाता है उसकी माल खरीदने की क्षमता समाप्त हो जाती है । इसका परिणाम यह निकलता है कि बाजार में माल की बिक्री कम हो जाती है । खरीदने वालों की आमद बाजार में नहीं होती और सामान अनबिके पड़े रहते हैं । जिन वस्तुओं का उत्पादन होता है उनका उपयोग मूल्य तो बना रहता है लेकिन बिक्री न होने से उनका विक्रेय मूल्य खत्म हो जाता है । उनकी खरीद के लिए मुद्रा का अभाव हो जाता है । कारखाने बंद होने लगते हैं । अति उत्पादन की एक नयी महामारी देखने में आती है । यह समूची परिघटना ही मंदी कहलाती है । मार्क्स ने पूंजीवाद की इस गति के भीतर ही एक ओर पूंजी के संकेंद्रण और दूसरी ओर आम जनता के दरिद्रीकरण की प्रवृत्ति को पहचाना था ।

मंदी की इस परिघटना के बारे में मार्क्स ने दस साल में उसकी आवृत्ति का अनुमान लगाया था । इस तरह मार्क्स का यह भी कहना था कि पूंजीवाद में अराजकता का होना निश्चित है । इस व्यवस्था में श्रम का रूप तो सामाजिक होता जाता है लेकिन मुनाफ़ा निजी हाथों में पहुंचता है । इस व्यवस्था के साथ जुड़े संकटों ने साबित कर दिया कि मंदी का सबसे अधिक नुकसान मजदूरों को उठाना पड़ता है क्योंकि उनकी आजीविका के अन्य स्रोत पहले ही नष्ट किये जा चुके थे । इस व्यवस्था की इन्हीं विशेषताओं के कारण कामगार और पूंजीपति वर्ग के बीच लगातार संघर्ष चलता रहता है । इस संघर्ष के समाधान के लिए मार्क्स कहते हैं कि जिन लोगों ने भी आम जनता की संपत्ति का हरण करके उसे निजी संपत्ति में बदल दिया था उनकी संपत्ति का हरण करके उसका समाजीकरण कर दिया जाना चाहिए ।                                                                                                                     

 

Thursday, June 19, 2025

मार्क्स तथा साहित्य और कला

 

 

          

साहित्य और कला के संदर्भ में मार्क्स अथवा एंगेल्स के विचारों की बात करने से पहले स्पष्ट करना जरूरी है कि इन दोनों ने साहित्य और कला के बारे में कोई स्वतंत्र लेख नहीं लिखा । अन्यान्य प्रसंगों या कुछ पत्रों के आधार पर उनकी मान्यताओं के बारे में मोटी रूपरेखा ही प्रस्तुत की जा सकती है । इसके बावजूद इन दोनों के लेखन में बहुत सारे साहित्यिक संदर्भ आये हैं । ये संदर्भ इतने प्रचुर हैं कि इनके आधार पर रामविलास शर्मा ने जर्मन दर्शन, ब्रिटिश अर्थशास्त्र और फ़्रांसिसी समाजवाद की तरह ही यूरोपीय साहित्य को भी मार्क्सवाद का घटक माना है । जिस तरह की जटिल परिघटना के बारे में ये दोनों लिख रहे थे उसकी सटीक अभिव्यक्ति की राह में साहित्यिक रचनाओं की सहायता उन्होंने खुलकर ली है । इसके कारण क्लासिकीय साहित्य से उद्भूत तमाम पौराणिक पात्रों की उपस्थिति उनके लेखन में अनायास बनी रहती है । इसके अतिरिक्त समकालीन रचनाओं से भी वे बिना किसी संकोच के उद्धरण आदि दिया करते थे । जर्मनी, फ़्रांस और इंग्लैंड उनके लिए घर जैसे ही थे इसलिए इन भाषाओं की रचनाओं से परिचित होने के अतिरिक्त वे रूसी भाषा और साहित्य से भी ठीक से परिचित थे । इन सभी भाषाओं के लेखकों से उनके निजी संबंध भी रहे थे ।            

साहित्य के साथ इन दोनों के इस गहरे रिश्ते का कारण यह भी था कि दोनों ने युवावस्था में कविता लिखने में हाथ आजमाया था । मार्क्स ने बर्लिन में रहते हुए जेनी की याद में कविताओं की एकाधिक कापियां भर डाली थीं । एंगेल्स ने भी आरम्भिक दिनों में स्थानीय अखबारों में तरह तरह की कविता लिखी । बाद में रुचि का क्षेत्र बदल जाने पर भी साहित्य के प्रति उनका अनुराग ताउम्र कायम रहा । साहित्य और कला के बारे में मार्क्सवादी नजरिये की बात करते हुए सबसे पहले ध्यान रखना होगा कि साहित्य और कला संबंधी उनकी सभी मान्यताओं का रिश्ता उनके दार्शनिक पद्धति से है । इस तरह कला के स्वरूप तथा उसके विकासपथ, उसके कार्यभार और सामाजिक प्रवृत्तियों से उसके संबंध का विवेचन मार्क्स और एंगेल्स के लेखन में हुआ है । इसके आधार पर मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को भी तैयार करने की कोशिशें हुई हैं ।            

इस मामले में मार्क्स को कला और साहित्य में यथार्थवाद के साथ सबसे अधिक जोड़ा जाता रहा है । इसके लिए उन्होंने अपनी द्वंद्वात्मक भौतिकवादी पद्धति का इस्तेमाल किया । कला के मूल, उसके विकास और क्षरण को मार्क्स ने मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व से जोड़कर समझा । कला और साहित्य को वे सामाजिक चेतना का ही एक रूप मानते थे इसलिए उसके बदलावों के कारण खोजने के लिए वे मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व की ओर ध्यान देते थे । कला और साहित्य की सामाजिकता पर जोर देने के साथ ही उन्होंने इसके लगातार विकसनशील स्वरूप पर भी रोशनी डाली । उन्होंने कहा कि वर्ग विभाजित समाज में साहित्य और कला पर वर्ग संघर्ष, वर्गीय हित, राजनीति और विचारधारा का प्रभाव पड़ता है । साथ ही उन्होंने इस बात को भी रेखांकित करना जरूरी समझा कि इनकी उपस्थिति रचना में सतह पर नहीं होती बल्कि ये चीजें रचना में जितना अधिक समाई हों, रचना उतना ही कलात्मक होती है ।

उन्होंने सौंदर्यबोध के मूल की भी भौतिकवादी व्याख्या प्रस्तुत की । उनके मुताबिक मनुष्य की सारी कलात्मक योग्यता, दुनिया को सौंदर्यात्मक तरीके से समझने की उसकी क्षमता, सुंदरता को सराहने की उसकी क्षमता और रचने की उसकी योग्यता मानव समाज के दीर्घकालीन विकास का नतीजा है तथा यह सब कला और साहित्य उसके श्रम की उपज भी हैं । 1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों में ही उन्होंने सौंदर्य का बोध प्राप्त करने, उसे मूर्त रूप देने और सौंदर्य के नियमों के अनुसार वस्तुओं का सृजन करने की मानव क्षमता के विकास में श्रम की भूमिका बता दी थी । इस बात को एंगेल्स ने प्रकृति का द्वंद्ववाद में और भी स्पष्ट करते हुए कहा कि श्रम के कारणमनुष्य के हाथों ने वह दक्षता प्राप्त की जिसकी बदौलत राफाएल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसेन की सी मूर्तिकारी और पागानीनी का सा संगीत पैदा हो सके। साफ है कि मनुष्य की सौंदर्यानुभूति उसका कोई जन्मजात गुण नहीं बल्कि सामाजिक रूप से अर्जित गुण होती है ।                  

उन्होंने मानव चिंतन के स्वरूप पर विचार करते हुए उसमें कलात्मक सृजनशीलता का तत्व भी शामिल किया । भौतिक दुनिया के विकास तथा समाज के इतिहास के साथ ही कला के विकास का भी उन्होंने विवेचन किया और कहा कि कला की अंतर्वस्तु तथा उसके रूप हमेशा के लिए स्थापित नहीं होते बल्कि वे विकसित और परिवर्तित होते रहते हैं । प्रत्येक काल के अपने खास सौंदर्यात्मक आदर्श होते हैं जिनके अनुरूप कलाकृतियों का सृजन होता है । अन्य ऐतिहासिक और सामाजिक अवस्थाओं में उनकी पुनरावृत्ति इसलिए भी नहीं हो पाती । अपनी किताब जर्मन विचारधारा में उन्होंने स्पष्ट किया कि राफाएल की कला तत्कालीन रोम की स्थितियों पर आधारित थीं, लियोनार्डो की कला उस समय के फ़्लोरेंस के हालात पर और तिशियां की कलाकृतियों की रचना बाद के वेनिस के वातावरण की उपज थी ।     

साहित्य और कला के क्षेत्र में पुरानी अंतर्वस्तु और रूप के दुहराव की सम्भावना न होने का कारण मार्क्स की निगाह में यह था कि कलात्मक रचनाओं की अंतर्वस्तु तथा खास कलात्मक या साहित्यिक विधा का प्रचलन समाज के विकास के स्तर तथा सामाजिक ढांचे से निर्धारित होता है । इस मामले में मार्क्स की समझ यांत्रिक नहीं थी, उनकी नजर में सामाजिक चेतना के रूपों और उनके आधार के बीच गतिशील संबंध होता है । उनकी आपसी क्रियाशीलता में सामाजिक ढांचे का प्रत्येक तत्व अन्य तत्वों को प्रभावित करता है । इससे कला को समझने की उनकी जटिल और परिष्कृत पद्धति का जन्म हुआ जिसमें आधार से उत्पन्न सामाजिक चेतना के विभिन्न रूप उस सामाजिक यथार्थ को भी प्रभावित करते हैं जिससे उनका जन्म होता है ।

कलात्मक सृजन की भोंड़ी समझ को पनपने से पहले ही रोक देने के मकसद से मार्क्स और एंगेल्स ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि सामाजिक जीवन तथा विशेष वर्गों की विचारधारा का प्रतिबिम्बन कला में यांत्रिक तरीके से एकदम ही नहीं होता । कलात्मक सृजनशीलता सामाजिक चेतना का खास रूप होती है इसलिए उसकी अपनी विशेषताएं होती हैं और उसे संचालित करने वाले नियम भी अलग किस्म के होते हैं ।   

इस सिलसिले में मार्क्स की एक और मान्यता का उल्लेख जरूरी है । अगर कलाकृतियां अपने समय के खास सामाजिक रूपों से जुड़ी होती हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि इन सामाजिक रूपों के गायब हो जाने के बाद उनसे जुड़ी कलाकृतियों की प्रासंगिकता भी समाप्त हो जाती है । इस मामले में उन्होंने यूनानियों की कला और महाकाव्यों का हवाला देते हुए कहा कि ये अब भी सौंदर्यात्मक आनंद प्रदान करते हैं और कुछ मामलों में मानक भी बने हुए हैं । इस मामले में उन्होंने यूनानी कला और काव्य के इस आकर्षण के लिए मानवता के बचपन का रूपक भी इस्तेमाल किया है । इस प्रसंग से यह बात भी निकलती है कि मार्क्स कला और साहित्य में खास सामाजिक स्थितिं और संबंधों का प्रतिबिम्ब देखने के साथ उनमें कुछ शाश्वत मूल्यों की मौजूदगी भी मानते थे । इस अपवाद को मार्क्स ने 1857-58 की आर्थिक पांडुलिपियों की भूमिका में भी दर्ज किया है । उनका कहना है कि कला के कुछ शिखरों का समाज के आम विकास के साथ मेल नहीं है । न केवल इतना बल्कि भौतिक आधार के साथ भी उनका मेल स्पष्ट नहीं है । इसका मतलब कि मार्क्स किसी भी समय की आत्मिक संस्कृति को उस समय के भौतिक उत्पादन के स्तर पर ही निर्भर नहीं मानते, इसका स्रोत वे उस समय के सामाजिक संबंधों के स्वरूप में भी तलाशते हैं । अर्थात कला और साहित्य का संबंध किसी समय के खास सामाजिक संबंधों के स्वरूप, वर्ग विरोध के स्तर और मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास की खास अवस्था की मौजूदगी जैसे बहुतेरे कारकों से भी होता है ।

इन तमाम कारकों का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने पूंजीवाद के तहत उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और निजी मालिकाने के बीच के अंतर्विरोध के आधार पर माना कि पूंजीवादी उत्पादन आत्मिक उत्पादन के कुछ रूपों, मसलन कला तथा काव्य से शत्रुता रखता है । भौतिक मामले में विकास के बावजूद कला का विकास नहीं होता । ऊपर वर्णित असंतुलन की अभिव्यक्ति पूंजीवाद के भीतर इसी तरह होती है । असल में शोषण की पूंजीवादी व्यवस्था ही उन मानवतावादी आदर्शों के विरोध में होती है जो सच्चे कलाकारों को रचना हेतु प्रेरित करते हैं । कलाकार में इन आदर्शों तथा पूंजीवादी यथार्थ के बीच के इस विरोध की जितनी ही अधिक चेतना होती है उसकी रचना में पूंजीवाद की इस अमानवीयता के प्रति उतना ही अधिक विरोध प्रकट होता है । कला के प्रति पूंजीवादी समाज की इस शत्रुता के कारण ही पूंजीवाद समर्थक साहित्य तक में किसी न किसी रूप में पूंजीवाद की आलोचना मिल जाती है । इसी वजह से पूंजीवादी समाज ने अत्यंत प्रतिभाशाली ऐसे तमाम लेखकों को भी जन्म दिया जो अपने समय तथा अपने वर्गमूल से ऊपर उठकर शोषण की पूंजीवादी व्यवस्था की बुराइयों की जोरदार कलात्मक शक्ति के साथ आलोचना में समर्थ हुए । इसके बावजूद इन बड़े लेखकों पर भी यथार्थ जीवन के चित्रण की उनकी प्रतिबद्धता के अलावे सत्तारूढ़ वर्गों के विचारों और हितों का दबाव पड़ता था ।

मार्क्स का मानना था कि विभिन्न वर्गों के बीच विचारधारात्मक संघर्ष में बहुधा साहित्य और कला महत्वपूर्ण अस्त्र साबित होते हैं । शोषकों की ताकत को मजबूत बनाने के साथ ही वह उसकी जड़ भी खोद सकते हैं । अगर वर्गीय उत्पीड़न को जायज ठहरा सकते हैं तो जनता की शिक्षा और उसकी चेतना की उन्नति में भी मदद कर सकते हैं । इससे जनता की मुक्ति में भी मदद मिलती है । उन्होंने सामंती और पूंजीवादी साहित्य में प्रगति तथा प्रतिक्रिया का साथ देने वाली प्रवृत्तियों में अंतर करने पर बल दिया और कहा कि उसका मूल्यांकन करते हुए जनता के हितों का पक्ष लेना चाहिए ।

वर्गों के साथ साहित्य और कला को जोड़ने के क्रम में मार्क्स ने वर्ग की भी गतिशील धारणा बनायी । उनका मानना था कि वर्ग अचल नहीं होते और उनके आपसी रिश्ते इतिहास की धारा के साथ बदलते रहते हैं, समाज के जीवन में भी वर्गों की भूमिका समय के साथ बदलती है । इसी वजह से जब पूंजीवाद का संघर्ष सामंतवाद से जारी था तो उस समय आत्मिक मूल्यों का बड़े पैमाने पर सृजन कर सका लेकिन सत्ता मिल जाने के बाद  उसकी भूमिका बदल गयी । जब उसने देखा कि उसकी पीठ पर मजदूरों के रूप में नया क्रांतिकारी वर्ग आ गया है तो उसने अपने ही क्रांतिकारी अतीत और विरासत से पल्ला झाड़ लिया । ऐसी स्थिति में उससे जुड़े लेखक अपने क्रांतिकारी अतीत को याद करके वर्तमान हालात की आलोचना शुरू करते हैं तो उनकी टक्कर पूंजीवादी व्यवस्था और समाज से होने लगती है ।                       

उनका मानना था कि जहां एक ओर यह कलात्मक सृजन यथार्थ को प्रतिबिम्बित करता है तो दूसरी ओर उसे अनुभव करने और पहचानने का साधन भी होता है । यह मानवजाति के आत्मिक विकास का उत्तोलक भी होता है । इससे समाज की प्रगति में कलात्मक सृजन के सामाजिक महत्व तथा प्रमुख भूमिका की भौतिकवादी समझ बनती है । इसलिए भी उन्होंने साहित्य में यथार्थवाद को किसी भी रचना में यथार्थ के सबसे सटीक चित्रण के अर्थ में व्याख्यायित किया । साहित्य में यथार्थवाद को वे विश्व कला की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे । एंगेल्स ने कहा कि यथार्थवाद का मतलब साहित्यिक कृति में आम चरित्रों का सच्चाई भरा पुनर्सृजन है ।

यथार्थवादी चित्रण को मार्क्स ने यथार्थ की नकल मात्र नहीं माना । वे मानते थे कि यह किसी भी परिघटना के सार तक पैठने का एक तरीका है । इसे कलात्मक सामान्यीकरण के सहारे हासिल किया जाता है तथा इसके कारण किसी भी समय के आम गुणों को उजागर करना सम्भव हो पाता है । महान यथार्थवादी लेखकों के लिखे साहित्य में उन्हें यही गुण सबसे अधिक आकर्षित करता था । इन लेखकों की जीवंत और ओजपूर्ण किताबों ने तमाम पेशेवर राजनेताओं, पत्रकारों और उपदेशकों द्वारा प्रस्तुत सत्य के मुकाबले अधिक प्रामाणिक राजनीतिक और सामाजिक सच को प्रस्तुत किया । इसके सबूत के बतौर एंगेल्स द्वारा बाल्जाक के बारे में इस मान्यता को पेश किया जाता है जिसमें एंगेल्स ने पाठक के सामने फ़्रांसिसी समाज का अत्यंत यथार्थ इतिहास का स्रोत उनकी ह्यूमन कामेडी को माना और कहा कि आर्थिक ब्यौरों के मामले में भी बाल्जाक इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों और सांख्यिकी के विशेषज्ञों से भी अधिक प्रामाणिक जानकारी प्रदान करते हैं ।

मार्क्स और एंगेल्स ने साहित्यकारों से अपेक्षा की कि वे सच्चाई के साथ चित्रण और वर्णन करें । साथ ही जिस घटना का भी वे जिक्र करें उसके प्रति ठोस ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाना उन्हें साहित्य में प्रिय था । पात्रों के मामले में भी वे जीवंत और व्यक्तिगत गुणों से युक्त पात्रों का सृजन बेहतर समझते थे । उन्हें इन पात्रों के भी खास वर्गीय परिवेश और उनकी विशेष मन:स्थिति के चित्रण की अपेक्षा रहती थी । उनका मानना था कि कोई भी सच्चा साहित्यकार पाठक के पास अपने विचार दर्शन बघारकर नहीं, ऐसे बिम्बों के निर्माण से पहुंचाता है जिनकी कलात्मक अभिव्यक्ति से पाठक की चेतना और अनूभूति पर प्रभाव पड़ता है । इसी कारण उन्होंने लासाल को शिलर में निहित शब्दाडंबर के प्रति लगाव का अनुकरण करने के मुकाबले शेक्सपियर से सीखने की सलाह दी

लासाल को लिखे पत्रों में उन्होंने साहित्य तथा जीवन के बीच और साहित्य तथा समय के बीच के संबंधों को स्पष्ट किया उनका यह भी मानना था कि यथार्थवादी लेखकों को समसामयिक समस्याओं से वास्ता रखना चाहिए इसी लिहाज से वे साहित्य को प्रयोजनमुखी देखना पसंद करते थे इसे वे वैचारिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता मानते थे लेकिन इसके नाम पर प्रवचन या उपदेश के घनघोर विरोधी थे उनका मानना था कि जीवंत बिम्बों को पिटे पिटाये पूर्वनिर्धारित सांचों में नहीं बदला जाना चाहिए कलात्मक दृष्टि से घटिया पात्रों की भरपाई राजनीतिक तर्कों से करने का उन्होंने विरोध किया एंगेल्स का तो यह भी मानना था कि उद्देश्य को वर्णित स्थिति तथा क्रिया में, विशेष रूप से लक्षित हुए बिना अपने आप प्रकट होना चाहिए उनके अनुसार लेखक का काम सामाजिक टकरावों का समाधान प्रस्तुत करना नहीं होता है उसके वर्णन से पाठक को इस समाधान तक अपने आप पहुंचने देना चाहिए । लासाल के एक नाटक में उन्हें विचार और कलात्मकता की एकता का अभाव नजर आया जबकि इसे ही वे सच्ची यथार्थवादी कला का आवश्यक गुण समझते थे ।

साहित्य और कला की मार्क्सवादी आलोचना का बुनियादी ढांचा भी मार्क्स के इन्हीं विचारों से तैयार हुआ । उन्होंने मध्य युग के आदर्शीकरण का खंडन किया लेकिन उसे सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर प्रतिगामी मानने की धारणा से भी असहमति जाहिर की । इस युग के साहित्य में उन्होंने दास प्रथा की आलोचना देखी क्योंकि सामंती समाज दास प्रथा के मुकाबले आगे बढ़ा हुआ समाज था । इसके सबूत उन्हें लोक गाथाओं और महाकाव्यों में साफ नजर आये । जन समूह की इन कृतियों में उन्हें कबीलाई प्रणाली की आरम्भिक मंजिल से यूरोपीय जातियों के गठन तक की अवधि से जुड़ी सामाजिक चेतना के नये स्तर और क्रमिक संक्रमण की प्रक्रिया के प्रतिबिम्ब नजर आये । मध्य युग के शूरवीर प्रशंसक महाकाव्यों में प्राचीन महाकाव्यों की तुलना में नये सामाजिक, सांस्कृतिक और सौंदर्यात्मक गुण उन्होंने पहचाने । इनके साथ ही रचित प्रेम प्रणय प्रधान गीतिकाव्य में भी यह नयापन नजर आया । उन्होंने माना कि इस समय के पहले व्यक्तिगत यौन प्रेम की वैसी धारणा नहीं मिलती जैसी इन गीतिकायों में प्रकट हुई । व्यक्तिगत प्रेम का प्रकट होना और उसका गुणगान प्राचीनता की तुलना में आगे की बात थी । इन प्रेम प्रणय प्रधान कविताओं ने आगामी पीढ़ियों को प्रभावित किया और आधुनिक युग की कविता का रास्ता हमवार किया ।

साहित्य और कला के भीतर यह आधुनिक काल यूरोपीय पुनर्जागरण से जुड़ा है । एंगेल्स के मुताबिक यह पुनर्जागरण एक नया युग था और इसका स्रोत वे आर्थिक तथा राजनीतिक बदलाव थे जिनके कारण मध्य युग से नये युग में संक्रमण सम्भव हुआ । उस युग के साहित्य और कला की उपलब्धियां परिपक्व पूंजीवादी समाज में भी हासिल नहीं की जा सकीं । इन कलात्मक छ्लांगों के स्रोत को एंगेल्स ने एकदम सही तरीके से पहचाना । उनका कहना था कि इन रचनाओं का जन्म व्यवस्थित पूंजीवादी समाज में नहीं, क्रांति के हालात में हुआ था । उस समय सामाजिक संबंध लगातार गतिशील ढंग से बदल रहे थे और व्यवस्थित पूंजीवादी समाज में निजी पहल, प्रतिभा और योग्यता पर जो रुकावट लग जाती है उससे कुछ हद तक आजादी बनी हुई थी । उसके इसी क्रांतिकारी स्वरूप की बदौलत उस समय अभूतपूर्व बड़े प्रगतिशील परिवर्तन हुए । उस समय को महामानवों की जरूरत थी और समय ने इन महामानवों को पैदा भी किया । ये रचनाकार अपनी सोच में, ज्ञान और विद्या के क्षेत्र में सचमुच के महामानव थे । इसी वजह से पूंजीवादी परियोजना के ये बौद्धिक अग्रधावक पूंजीवाद की सीमाओं से पूरी तरह आजाद थे । एक और तत्व का जिक्र करते हुए एंगेल्स बताते हैं कि ये चिंतक श्रम विभाजन की दासता से बंधे नहीं थे । उनके बाद के लोगों में इस श्रम विभाजन की वजह से एकांगीपन और संकोच पैदा हुआ । इसका उदाहरण देते हुए एंगेल्स ने लियोनार्दो दा विंची का नाम लिया है जो चित्रकार, गणितज्ञ, यांत्रिकीविद और इंजीनियर भी थे । भौतिकी की दुनिया भी उनकी ॠणी है । पुनर्जागरण के समय के अधिकांश रचनाकार इसी तरह की बहुज्ञता से संपन्न जोरदार प्रतिभा के धनी थे ।                                            

उस समय के इन महामानवों के प्रति मार्क्स और एंगेल्स के मन में अपार और उत्कट श्रद्धा थी । उनकी इन विशेषताओं को लक्षित करते हुए एंगेल्स ने कहा कि आंदोलन और संघर्ष के बीच ही उन सबका जीवन और आम क्रियाकलाप संचालित होता था । वे सब किसी न किसी पक्ष में रहकर लड़ते थे । उनमें से कुछ बोल और लिखकर लड़ते थे तो कुछ तलवार लेकर और कुछ तो दोनों ही तरीकों का समय समय पर इस्तेमाल करते थे । यह वर्णन उनके खुद के सक्रिय जीवन का औचित्य बताता है तो भविष्य के क्रांतिकारी रचनाकार से उनकी अपेक्षा का भी इससे पता चलता है । पुनर्जागरण के रचनाकार इन्हीं गुणों के कारण बाद के पेशों की संकीर्णता में कैद तथाकथित तटस्थ रचनाकारों से बहुत ऊपर उठे नजर आते हैं । इसी कारण वे महामानव समाजवादी संस्कृति के आदर्श बन सके । क्रांतिकारी आंदोलनों के आंगिक रचनाकार भी उनके भीतर अपना आदर्श मानव देखते आ रहे हैं ।

मार्क्स और एंगेल्स ने दान्ते को उन महान लेखकों में से एक माना है जिनकी रचनाओं में पुनर्जागरण की ओर युग के संक्रमण की आहट मिलती है । दान्ते को वे मेधावी कवि तथा चिंतक और अदम्य योद्धा भी मानते थे और कहते थे कि उनकी कविता में स्पष्ट पक्षधरता थी । उनकी कविता उनके राजनीतिक आदर्श और आकांक्षा से अभिन्न थी । मार्क्स को उनकी रचनाएं कंठस्थ थीं और बहुधा वे उन्हें पूरा का पूरा सुना भी दिया करते थे । पूंजी की भूमिका का समापन उन्होंने दान्ते की पंक्तियों से किया था । वे उन्हें गेटे, एस्खिलुस और शेक्सपीयर के बराबर की जगह देते थे । इसी तरह मार्क्स और एंगेल्स ने स्पेनी लेखक सर्वान्तेज का भी बहुत आदर के साथ नाम लिया है । वे उन्हें बाल्जाक के बराबर का मानते थे और शेष उपन्यासकारों से ऊपर का स्थान देते थे । शेक्सपीयर के प्रति उनका प्रेमभाव सबको मालूम है । वे शेक्सपीयर के नाटकों में उनके समय का व्यापक चित्रण पहचानते थे और उनके पात्रों को यथार्थवादी नाटक का नमूना मानते थे । उन्हें शेक्सपीयर के मामूली से मामूली पात्र भी याद थे । उनके पूरे परिवार में इस महान अंग्रेज नाटककार की लगभग पूजा होती थी ।                 

लासाल को लिखे एक पत्र में मार्क्स ने संस्कृति के विकास को भी अपनी भौतिकवादी समझ के अनुरूप प्रस्तुत किया । उनसे पहले संस्कृति पर विचार करते हुए अक्सर उसकी वर्गीय अंतर्वस्तु की अनदेखी कर दी जाती थी । मार्क्स ने अठारहवीं सदी के ज्ञानोदय को केवल सामाजिक चिंतन के क्षेत्र तक सीमित आंदोलन मानने से इनकार कर दिया और उसे महान फ़्रांसिसी क्रांति की पूर्ववेला में सामंती निरंकुशता के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार प्रगतिशील पूंजीपति वर्ग के हितों की वैचारिक अभिव्यक्ति माना । वे इस दौर के अंग्रेज और फ़्रांसिसी लेखकों और चिंतकों के कथा साहित्य और सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन की बहुत इज्जत करते थे । इन लेखकों और चिंतकों की गतिविधियों का जो विश्लेषण मार्क्स ने किया है उससे फ़्रांसिसी क्रांति की तैयारी के समय समाज के जीवन तथा वर्ग संघर्ष के साथ इन गतिविधियों के घनिष्ठ जुड़ाव का पता चलता है । उनकी इस सक्रियता को वे क्रांतिकारी विरासत का अंग मानते थे । ज्ञानोदय के लेखकों की दार्शनिक, साहित्यिक और आर्थिक रचनाओं का उन्हें भरपूर पता था । वे डेफ़ो, स्विफ़्ट, वोल्तेयर, दिदेरो और रूसो आदि की चर्चा भर नहीं करते बल्कि उनका गहन और सटीक मूल्यांकन भी करते हैं । उल्लेखनीय है कि मार्क्स के साथ एंगेल्स भी दिदेरो को बेहद पसंद करते थे । ज्ञानोदय के समय के जर्मन लेखकों का भी उन्होंने विश्लेषण किया और बताया कि जर्मन साहित्य के महान युग की अधिकांश हस्तियों तक के लेखन पर जर्मनी की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा था । उस समय की सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह और आक्रोश की प्रचंड भावना के बावजूद ये लेखक तत्कालीन शासन के प्रति प्रशंसा और दासता से अपने आपको मुक्त नहीं कर सके थे । एंगेल्स ने तो कहा कि गेटे और हेगेल अपने अपने क्षेत्र में अतुलनीय थे लेकिन जर्मन कूपमंडूकता से ये भी खुद को मुक्त नहीं रख सके थे । असल में उस समय जर्मनी में निम्न पूंजीपति वर्ग ही प्रभुत्वशाली सामाजिक वर्ग था जिसके भीतर उपर्युक्त लक्षण गहरे समाये हुए थे । इन लेखकों की दुर्बलता को ध्यान में रखने के बावजूद मार्क्स ने उनके विश्वव्यापी महत्व को कभी कम करके नहीं आंका । मार्क्स और एंगेल्स, दोनों ने गेटे के महत्व के पक्ष में तर्क भी दिये हैं ।                

मार्क्स ने पश्चिम यूरोपीय स्वच्छंदतावादी साहित्य का भी गहराई से जायजा लिया । इसे उन्होंने फ़्रांसिसी क्रांति के बाद के युग का प्रवर्तक माना । इसमें उन्हें उस समय के तमाम सामाजिक अंतर्विरोधों का प्रतिबिम्ब नजर आया । इसके बावजूद उन्होंने इसमें पूंजीवाद को ठुकरा देने और भविष्योन्मुखी क्रांतिकारिता के बीज भी देखे । इस प्रगतिशील प्रवृत्ति को उन्होंने पूंजीवाद की अतीतोन्मुखी स्वच्छंदतावादी आलोचना से अलगाया । इस अतीत प्रेमी आलोचना के लेखकों में भी उन्होंने उनको सही माना जिनके कल्पनावाद और आदर्शों की दुहाई के भीतर जनवादी तत्व छिपे होते थे । इसके विपरीत जिनकी अतीत पूजा में सामंती हितों की वकालत होती थी उनकी तीखी आलोचना की । मार्क्स और एंगेल्स को बायरन या शेली जैसे क्रांतिकारी स्वच्छंदतावादी साहित्यकार बहुत ही प्रिय थे ।

अपने समय की यथार्थवाद की परम्परा को वे पूर्ववर्ती साहित्यिक प्रक्रिया की चरम परिणति मानते थे और उसके मूल को विद्रोही पूंजीवाद की अवस्था से जोड़कर देखते थे । साहित्य और कला के प्रति मार्क्स का रुख सही अर्थों में अंतर्राष्ट्रवादी था । उनका मानना था कि हरेक समाज साहित्य के विश्व भंडार में अपना योगदान करता है । वे इंग्लैंड, फ़्रांस, जर्मनी, इटली और स्पेन के साथ रूसी साहित्य और कला की भी खोज खबर रखते थे । साथ ही आयरलैंड, आइसलैंड तथा नार्वे जैसे छोटे देशों की भी साहित्यिक और कलात्मक उपलब्धि पर उनकी निगाह रहती थी । अमेरिकी मूलवासियों और आप्रवासियों की सांस्कृतिक विशेषताओं पर भी उन्होंने समय समय पर ध्यान दिया ।

उन्होंने अपने समय के जनवादी और क्रांतिकारी कवियों और लेखकों पर विशेष ध्यान दिया । इन प्रगतिशील लेखकों को समाजवादी आंदोलन की ओर खींचने, उनको शिक्षित करने, उनके सृजन के कमजोर पहलुओं को दूर करने में उनकी मदद की ताउम्र कोशिश करते रहे । हेनरिक हाइने की रचनाओं पर मार्क्स का जबर्दस्त असर था । उनकी आपसी मुलाकात पेरिस में हुई थी । जर्मन प्रतिक्रियावाद के विरोध में संघर्ष करते हुए अक्सर हाइने की व्यंग्यात्मक कविताओं का जिक्र किया जाता था । हाइने की कला के विकास में मार्क्स के वैचारिक प्रभाव का योगदान था । इसी तरह जर्मन कवि फ़ैलिग्राथ के साथ भी उनका रिश्ता आपसी सहकार का था । चार्टिस्ट नेता अर्नेस्ट जोन्स के साथ भी उनका रिश्ता परस्पर सहयोग का ही था । मार्क्स के देहांत के बाद एंगेल्स ने भी उन अंग्रेज लेखकों के साथ निकटता कायम रखी जो समाजवादी आंदोलन के करीब थे ।     सिद्ध है कि मार्क्स और एंगेल्स ने ऐसे लेखक और कलाकारों के विकास में रुचि ली जो क्लासिक साहित्य की सर्वोत्तम परम्पराओं को आत्मसात करते हुए मुक्ति के लिए संघर्ष का सक्रिय भागीदार बनें और इस संघर्ष के अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ें । मार्क्स मानते थे कि शोषण से मुक्त श्रम ही तमाम आत्मिक सृजन का स्रोत बन जाता है । उनके अनुसार आर्थिक, राजनीतिक और आत्मिक स्वतंत्रता की स्थिति में ही मनुष्य की समस्त सृजनात्मक योग्यता का विकास सम्भव है । पूंजीवादी समाज के अंतर्गत थोपी गयी सीमाओं की समाप्ति के ही बाद कलात्मक संस्कृति की अनंत प्रगति हो सकती है । इस प्रगति के आधार पर ही मानव जाति के उच्चतर नैतिक और सौंदर्यात्मक मूल्यों को मूर्त रूप देने की परिस्थितियों को जन्म दिया जा सकता है ।