Saturday, October 18, 2025

राहुल की नजर में यूरोपीय दर्शन (साइंस की छाया में दर्शन)

 

                                                         

दर्शन दिग्दर्शन’ किताब की भूमिका में ही राहुल जी ने दर्शन के दो दौर गिनाये हैं । इसमें दूसरा दौर 1760 ईसवी के बाद का है जब आधुनिक आविष्कारों का सिलसिला शुरू होता है । इस दौर में उसकी बात की ओर लोगों का ध्यान तभी खिंचता है जब कि वह प्रयोगआश्रित चिंतन-साइंस- का पल्ला पकड़ता है ।  

‘दर्शन दिग्दर्शन’ में यह तीसरा प्रकरण यूरोपीय दर्शन का है । इस प्रकरण की खास बात यह है कि इस्लामी दर्शन के यूरोप तक पहुंचते पहुंचते यूरोप में साइंस का प्रवेश होने लगा था । राहुल जी की इस किताब को पढ़ते हुए ध्यान रखना होगा कि जिस अर्थ में आज विज्ञान का प्रयोग होता है उस अर्थ के लिए वे साइंस का प्रयोग करते हैं । उस समय बहुतेरे धर्मांध ईसाई इस्लामी दर्शन के असर को खत्म करना चाहते थे लेकिन राहुल जी के अनुसार गेलेलियो की दूरबीन, न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण और भाप के इंजन ने चुपचाप यह काम कर दिया । इस संक्षिप्त कथन से भी साबित होता है कि दर्शन का रिश्ता समूचे माहौल से बहुत गहरा होता है ।      

र्शन के इस उभार की शुरुआत राहुल जी ने ल्योनार्दो दा विन्ची से की है जिसे हम सभी चित्रकार के बतौर ही अधिक जानते हैं । इस समय तक आते आते वैचारिक माहौल में स्वतंत्रता की जो मौजूदगी नजर आने लगती है उसका एक कारण राहुल छपाई को भी मानते हैं क्योंकि ‘पोप-पुरोहित परिश्रम से देर में लिखी दो-चार कापियों को जलवा सकते, किन्तु छापे ने सैकड़ों हजारों कापियों को तैयार कर उनके प्रयत्न को बहुत हद तक असफल कर दिया’ ।  न केवल छपाई बल्कि बहुतेरे बदलाव आ रहे थे जिनसे सोच विचार की दुनिया प्रभावित हो रही थी । उसका खाका प्रस्तुत करते हुए राहुल बताते हैं ‘कोलम्बस (1447-1506), वास्को-दा-गामा (1466-1524) ने अमेरिका और भारत के रास्ते खोले । परासेल्सस (1493-1541) और फ़ान हेल्मोन्ट (1577-1644) ने पुस्तक पत्रे की गुलामी को छोड़ प्रकृति के अध्ययन पर जोर दिया । उस वक्त के विश्वविद्यालय धर्म की मुट्ठी में थे, और साइंस-संबंधी गवेषणा के लिए वहाँ कोई स्थान न था; इसीलिए साइंस की खोजों के लिए स्वतंत्र संस्थाएँ स्थापित करनी पड़ीं । लेलेसियो (1577-1644) ने ऐसी गवेषणाओं के लिए नेपल्स में पहली रसायनशाला खोली । 1543 में वेसालियस (1515-64 ईसवी) ने शरीर शास्त्र पर साइंस सम्मत ढंग से पहली पुस्तक लिखी’ । स्वाभाविक है कि ऐसे हालात में ‘धर्म बहुत परेशानी में पड़ा हुआ था, वह मृत्यु के डर से साइंस की प्रगति को रोकना चाहता था’ । इसके विपरीत ‘भारत में अकबर उदारता पूर्वक साइंस वेत्ताओं के खून के प्यासे--ईसाई पुरोहितों और दूसरे धर्मियों के साथ समानता का बर्ताव करते हुए--एक नये धर्म द्वारा उनके समन्वय करने के प्रयत्न में लगा हुआ था’ ।

यूरोप में धर्म और साइंस के बीच की जंग में दर्शन की दो धाराओं का उदय हुआ राहुल जी ने उन्हें इस तरह अलगाया है(1) कुछ का कहना था, कि इन्द्रिय-प्रत्यक्ष, और तजर्बा (प्रयोग) ही ज्ञान का एक-मात्र आधार है, इन्हें प्रयोगवादी कहते हैं आजकल इन दार्शनिकों को अनुभववादी भी कहा जाता है (2) दूसरे दार्शनिक ज्ञान को इन्द्रिय या प्रयोगगम्य नहीं बुद्धिगम्य मानते थे इन्हें बुद्धिवादी कहा जाता है। अंग्रेजी में इन दोनों को क्रमश: एम्पीरिसिज्म और रैशनलिज्म कहते हैं । इन दोनों में शुरुआत वे प्रयोगवादियों या अनुभववादियों से करते हैं । इस धारा की विशेषता है कि वह ‘तजर्बे को ज्ञान का साधन बतलाता है, किन्तु प्रयोग के जरिए जिस सच्चाई को वह सिद्ध करता है वह केवल भौतिक तत्व, केवल विज्ञान तत्व- अर्थात अद्वैत भी हो सकता है- अथवा भौतिक और विज्ञान दोनों तत्वों को मानने वाला द्वैतवाद भी’ । इस दार्शनिक भाषा को थोड़ा खोलने की जरूरत है । जो लोग अनुभव को ही ज्ञान का स्रोत मानते हैं वे केवल भौतिक को मानने वाले हो सकते हैं या वे केवल आत्मतत्व को भी मान सकते हैं । ये दोनों ही अद्वैतवादी होंगे । अनुभव को ही ज्ञान का स्रोत मानने वाले इन दोनों को अलगाकर देखने के कारण द्वैतवादी भी हो सकते हैं । इसमें मार्के की बात यह है कि भौतिकवाद में भी अद्वैत की गुंजाइश है । विज्ञान या आत्मतत्व (इसे चेतना भी कह सकते हैं) में तो अद्वैत माना ही जाता है । अनुभवाश्रित ज्ञान की प्रक्रिया में भौतिक और आत्मतत्व दोनों की मौजूदगी स्वीकार करना द्वैतवाद है ।

अलग अलग दार्शनिकों की बात करते हुए उन्होंने अद्वैत-भौतिकवाद के तहत हाब्स और टोलैंड का जिक्र किया है । हाब्स अंग्रेज थे और इस तथ्य को प्रस्तुत करते हुए राहुल जी कहते हैं ‘जो देश उद्योगधंधे और पूँजीवाद का बानी बनने जा रहा था, यह जरूरी था, कि उसका नंबर स्वतंत्र-विचारकों में भी पहला हो’ । उनके वैचारिक निर्माण में तत्कालीन इंग्लैंड के माहौल के योगदान को स्पष्ट करते हुए राहुल कहते हैं कि सामंतवाद विरोधी क्रामवेल की क्रांति का हाब्स ने विरोध किया और फ़्रांस भाग गये लेकिन ‘उसे यह समझने में देर न लगी, कि गुजरा ज़माना नहीं लौट सकता, और--उसने क्रामवेल से समझौता कर लिया’ । उनके विचारों का सार प्रस्तुत करते हुए राहुल जी बताते हैं कि ‘उसके अनुसार दर्शन कारणों से कार्य और कार्यों से कारण के ज्ञान को बतलाता है ।---दर्शन गति और क्रिया का विज्ञान है, ये गति-ज्ञान प्राकृतिक पिंडों के हो सकते हैं, राजनीतिक पिंडों के भी । मनुष्य का स्वभाव, मानसिक जगत, राज्य, प्राकृतिक घटनाएँ उन्हीं गतियों के परिणाम हैं ।---जिसे हम मन कहते हैं, वह मस्तिष्क या सिर के भीतर मौजूद इसी तरह के किसी प्रकार के भौतिक पदार्थ की गतिमात्र है । विचार या प्रतिबिंब, मस्तिष्क और हृदय की गतियाँ-अर्थात भौतिक पदार्थों की गतियाँ- हैं’ । इस तरह ‘भौतिक तत्त्व और गति ये मूलतत्त्व हैं, वे जगत की हरेक वस्तु- जड़, चेतन सभी- की व्याख्या करने के लिए पर्याप्त हैं’ ।

मनुष्य के प्रति हाब्स की राय को राहुल ने इन शब्दों में उद्धृत करते हुए बताया है ‘मनुष्य हमेशा धन, मान, प्रभुता, या शक्ति की प्रतियोगिता में रहता है; उसका झुकाव अधिक के लोभ तथा द्वेष और युद्ध की ओर होता है । जब उसके रास्ते में दूसरा प्रतियोगी आता है, तो फिर उसे मार डालने, अधीन बना लेने, या भगा देने की कोशिश करता है’ । इन्हीं वृत्तियों के कारण वह मनुष्य को अरस्तू की तरह सामाजिक प्राणी न कहकर उसकी जगह मानव भेड़िया कहता था । ब्रिटेन के ही टोलैंड की राय भी हाब्स से मिलती जुलती थी । वे मानते थे कि ‘भौतिक तत्व शक्ति है, और गति, जीवन, मन, सब इसी शक्ति की क्रियाएँ हैं । चिन्तन उसी तरह मस्तिष्क की क्रिया है, जिस तरह स्वाद जिह्वा का’ ।

इसके बाद वे अद्वैत-विज्ञानवाद के प्रवर्तक के रूप में स्पिनोज़ा का जिक्र करते हैं । उनके यहूदी होने के बारे में सभी जानते हैं । फ़्रांसिसी दार्शनिक देकार्त के प्रभाव से वे स्वतंत्र दार्शनिक चिंतन की ओर आकर्षित हुए । धर्म विरोध के कारण उन्हें यहूदी धर्म से बाहर निकाल दिया गया । नतीजे के तौर पर उन्हें एम्सटर्डम छोड़ना पड़ा और आजीविका चलाने के लिए घड़ीसाज का पेशा अपनाना पड़ा । यही कारण था कि ‘शताब्दियों तक स्पिनोज़ा को नास्तिक समझा जाता था, और ईसाई, यहूदी दोनों उससे घृणा करने में होड़ लगाये हुए थे’ ।

उनके चिंतन की विशेषता बताते हुए राहुल कहते हैं किस्पिनोज़ा पहला दार्शनिक था, जिसने मध्यकालीन लोकोत्तरवाद तथा धर्म-रूढ़िवाद को साफ शब्दों में खंडन करते हुए बुद्धिवाद और प्रकृतिवाद का जबर्दस्त समर्थन किया: हर तरह के शास्त्र या धर्म-ग्रंथ के प्रमाण से बुद्धि ज्यादा विश्वसनीय प्रमाण है । धर्मग्रंथों को भी सच्चा साबित होने के लिए बुद्धि की कसौटी पर ठीक उतरना होगा, जिस तरह कि दूसरे ऐतिहासिक लेखों या ग्रंथों को करना पड़ता है। असल मेंबुद्धि का काम है यह जानना कि, भिन्न-भिन्न वस्तुओं का आपस का क्या संबंध है । प्राकृतिक घटनाएँ परस्पर संबद्ध हैं । यदि उनकी व्याख्या के लिए प्रकृति से परे की किसी लोकोत्तर चीज़ को लाते हैं, तो वस्तुओं का वह आन्तरिक संबंध विच्छिन्न हो जाता है, और सत्य तक पहुँचने के लिए जो एक जरिया हमारे पास था, उसे ही हम खो देते हैं। इसके बावजूदउसका जोर भौतिक तत्त्व पर नहीं बल्कि आत्मतत्त्व पर थाउनका मानना था कि कोई भी वस्तु अपनी सत्ता के लिए अन्य अनगिनत तत्वों पर निर्भर है और वे भी अन्य तत्वों पर निर्भर हैं । इसलिए कोई ऐसा तत्व होना चाहिए जो स्वयं अपना आधार हो और सभी आधेयों को अवलम्ब दे । इसके लिए प्रकृति के परे जाने की जरूरत नहीं है । वह स्वयं सर्वमय, अनन्त और पूर्ण है । वह गतिशून्य नहीं बल्कि सक्रिय परिवर्तनशील है । वही ईश्वर है । मनुष्य उसके गुणों में से दो, विस्तार और चिंतन को जानता है और ये ही भौतिक और मानसिक शक्तियां हैं । भौतिक पिंड और घटनाएं विस्तार गुण की विभिन्न अवस्थाएं हैं और मन तथा मानसिक अनुभव चिंतन गुण की ।

इसके बाद राहुल द्वैतवादियों में लाक का जिक्र करते हैं । वे मानते थे कि प्रयोग या अनुभव से परे कोई वस्तु नहीं होती है । ज्ञान भी विचारों से परे नहीं पहुंच सकता । विचारों को भी वस्तुओं की सत्यता स्वीकार करनी होगी । मतलब उन्हें प्रयोग के विरुद्ध नहीं जाना होगा । उनके अनुसार मन पर छाप पड़ती है । इसी तरह ज्ञान का स्रोत अनुभव होते हैं । ‘इन्द्रियों से प्राप्त वेदना या उस पर होने वाला विचार ही हमें देश-काल विस्तार, भेद-अभेद, आचार तथा दूसरी बातों के संबंध का ज्ञान देते हैं; यही हमारे ज्ञान की सामग्री को प्रस्तुत करते हैं ।’ राहुल जी के मुताबिक लाक दर्शन को प्रकृति के अध्ययन में लगाना चाहते थे ।

बुद्धिवादियों में वे द कार्त और लाइबनिट्ज़ का जिक्र करते हैं । द कार्त को हम देकार्त के नाम से जानते हैं । वे अपने इस महावाक्य के लिए जाने जाते हैं कि मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं । इनके अलावे स्पिनोज़ा का नाम भी इस प्रवृत्ति के तहत लिया जा सकता है लेकिन राहुल जी ने कहा कि उनके दर्शन में विज्ञानवाद और भौतिकवाद का मिश्रण है तथा प्रकृति की वास्तविकता पर कुछ अधिक ही जोर है इसलिए उनका नाम इन दोनों के साथ नहीं लिया गया । देकार्त गणित को उसकी नपी तुली नियमबद्ध प्रक्रिया के कारण बहुत महत्व देता था । उसने प्रत्येक वस्तु पर तो संदेह किया लेकिन अपने होने पर संदेह नहीं किया जा सकता इसलिए माना कि यह सच है । मतलब कि जो स्पष्ट और संदेह से एकदम परे है वह सच है । इस तरह के सच उसे ईश्वर, रेखागणित के स्वयंसिद्ध और नहीं से कुछ नहीं पैदा होने जैसे नियम मिले । ईश्वर को उन्होंने स्वयंसिद्ध मान तो लिया लेकिन उसकी सिद्धि के लिए अलग से भी कोशिश करनी पड़ी उन्होंने इस संसार के भी स्पष्ट और असंदिग्ध अंश को सत्य कहा था और संसार का निर्माण ईश्वर ने किया है तथा संसार अपनी स्थिति को कायम रखने के लिए ईश्वर पर निर्भर है ईश्वर ने संसार के दो भाग बनाये- काया और मन इस काया की गति को आत्मा संचालित करता है दकार्त के समकालीन हाब्स थे लेकिन दोनों के दर्शन एक दूसरे के विपरीत हैं हाब्स प्रत्येक समस्या का समाधान प्रकृति में खोजने के पक्षधर थे काया और मन के स्पष्ट अलगाव की धारणा का असर बहुत लोगों पर रहा उनका कहना था कि ईश्वर ने गति और विश्राम से साथ प्रकृति को पैदा किया जो गति उसने शुरू में पैदा की उसे उसी मात्रा में जारि रखने के लिए उसे लगातार सक्रिय रहना पड़ता है आत्मा या मन का काम संदेह करना, समझना, ग्रहण-समर्थन-अस्वीकार-इच्छा-प्रतिषेध आदि है । इन विचारकों के साथ सत्रहवीं सदी का अंत हो जाता है । इसके बाद अठारहवीं सदी में दर्शन के विकास का वर्णन राहुल करते हैं ।                          

इसके बाद दर्शन का जो भी विकास हुआ उस पर राहुल जी के अनुसार न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत और विश्व की यांत्रिक व्याख्या का गहरा असर पड़ा । साइंस के विभिन्न विभागों में होने वाली खोजों से दुनिया की भौतिकवादी व्याख्या पर लोगों का अधिक भरोसा पैदा हुआ । खगोलशास्त्र, भौतिकी, रसायन, भूगर्भशास्त्र और चिकित्सा की दुनिया की इस अद्भुत प्रगति का विवरण देने के बाद राहुल उसके प्रभाव को ह्यूम जैसे संदेहवादी के साथ ही भौतिकवाद के विरोधी बर्कले और कान्ट तक में देखते हैं । इन सबकी खूबी यह है कि साइंस की प्रगति से जो भौतिकवादी माहौल बन रहा था उसका इन्होंने निषेध नहीं किया बल्कि उनका मकसद इस चुनौती के समक्ष धर्म की रक्षा करना था । बर्कले ने देकार्त, स्पिनोज़ा या लाइबनिट्ज़ से अलग रास्ता अपनाया । ये सभी किसी न किसी रूप में भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार करते थे लेकिन बर्कले ने अपने दर्शन द्वारा भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व को ही मिटा देना चाहा । उसका कहना था कि मनुष्य के विचार या वेदनाएँ हैं वे किन्हीं बाह्य तत्त्वों की प्रतिकृति या प्रतिबिंब नहीं हैं । विचारों का सादृश्य विचारों से ही होता है । भौतिक पदार्थों और उनके गुणों से अभौतिक विचारों का कोई मेल नहीं होता । ज्ञान का विषय भी हमारे विचार ही होते हैं उनसे परे या बाहर कोई भौतिक तत्त्व ज्ञान का वास्तविक विषय नहीं हो सकता ।

कान्ट को भी राहुल ऐसे ही दार्शनिकों की कोटि में रखते हैं जो भौतिकवाद की चुनौती से धर्म की रक्षा करना चाहते थे । उसके समय तक साइंस का विकास और उसके प्रति शिक्षितों का सम्मान इतना बढ़ गया था कि उसकी पूरी तरह अवहेलना संभव नहीं थी । हालांकि वह भौतिकवाद का विरोधी था फिर भी उसे घुमावदार रास्ता अपनाना पड़ा । वह भाग्यवद, भावुकतावाद या मिथ्या विश्वास का विरोधी था । उस समय तक इंग्लैंड और फ़्रांस में सामन्तवाद को खत्म करके पूँजीवाद की ओर प्रगति की शुरुआत हो चुकी थी । खासकर फ़्रांस में वोल्तेर और रूसो जैसे अधार्मिक विचारकों की प्रतिष्ठा हो रही थी । रूसो के साथ समानता के विचार लोकप्रिय हुए और दोल्वाश ने भौतिकवादी नजरिए को प्रमुखता दी थी । कान्ट को लगा कि धर्म की चहारदीवारी को बढ़ाकर ही ईश्वर, कर्मस्वातंत्र्य और आत्मा के अमरत्व जैसे सिद्धांतों की रक्षा की जा सकती है । उन्होंने मानव बुद्धि को अनुभव पर आधारित माना और कहा कि इसके सहारे बुद्धि बहुत दूर तक जा सकती है लेकिन उसकी गति अनन्त तक नहीं हो सकती । यही उसकी सीमा है । ईश्वर, परलोक या परजीवन इस नाते अनुभव की सीमा से बाहर हैं । उनके बारे में तर्क नहीं हो सकता । तर्क से वे न तो सिद्ध हो सकती हैं और न ही उनका खंडन किया जा सकता है । उन्हें श्रद्धा के साथ माना जा सकता है । सैद्धांतिक रूप से यह श्रद्धा कमजोर मालूम होती है लेकिन व्यवहारमूलक होने से बहुत प्रबल होती है । इन सबमें विश्वास से व्यक्ति और समाज में संयम का प्रचार होता है यही इनको मानने के लिए काफी है ।

कान्ट वस्तु निज रूप को अज्ञेय मानते थे । उनके इस तर्क का परिचय देते हुए राहुल बताते हैं कि कान्ट के मुताबिक वास्तविक ज्ञान सार्वदेशिक और आवश्यक होता है । इंद्रियों से इस ज्ञान का मसाला मिलता है जिसे मन अपने स्वभाव के अनुकूल तरीकों से क्रमबद्ध करता है । ईसी वजह से जो ज्ञान हमें मिलता है वह वस्तुएँ- अपने- भीतर जैसी हैं, वैसा नहीं होता । इस तरह कान्ट वस्तुओं के निज रूप को लगभग अज्ञेय ठहरा देता है । इसे राहुल ने कान्ट का सन्देहवाद कहा है । अनुभव से जो कुछ आता है उन्हें मन अपने स्वभाव के अनुरूप ग्रहण करता है । इस तरह मन का अपना निर्णय बाह्यार्थ से असंबद्ध होता है । राहुल के मुताबिक कान्ट कहते हैं कि ज्ञान विधि या निषेधात्मक निश्चय के रूप में प्रकट होता है । यदि यह निश्चय सार्वदेशिक और आवश्यक नहीं है तो वह साइंस-सम्मत नहीं हो सकता । असल में किसी भी वस्तु को प्रत्यक्ष करने के लिए उसके भौतिक तत्त्व या उसके भीतर की वेदना और आकार को बुद्धि देशकाल के चौखटे में क्रमबद्ध करती है । इस तरह मन या आत्मा अपनी आत्मानुभूति की शक्ति द्वारा वस्तुओं को प्रत्यक्ष करता है । तभी वह अपने से बाहर देश और काल में रंग को देखता है या शब्द को सुनता है । उनका कहना है कि वस्तुओं के न होने पर भी मनुष्य का मन देशकाल को स्वतंत्र वस्तु के तौर पर प्रत्यक्ष करता है । आन्तरिक मानस क्रिया काल की सीमा के भीतर होती है तो बाहरी इंद्रिय-ज्ञान देश की सीमा के भीतर होता है । हमारी इंद्रियाँ जिस प्रकार विषयों को ग्रहण करती हैं वे इंद्रियों के ही स्वरूप या क्रियाएँ हैं । स्पष्ट है कि बाहरी जगत का संबंध इंद्रियों से होता है । वे उसकी सूचना मन को देती हैं और मन उसकी व्याख्या स्वेच्छा से करता है । इंद्रियों का संपर्क वस्तुओं के बाहरी दिखावे से होता है । इसी की सूचना के बल पर मन वस्तु की व्याख्या करता है । इसलिए वस्तु निज रूप का ज्ञान इंद्रिय या अनुभव का विषय नहीं है । वह इंद्रिय की सीमा से परे होता है । प्रत्यक्ष से या तो हमें वस्तु की आभा मिलती है या उसके संबंध का ज्ञान होता है । यह ज्ञान वस्तु निज रूप का नहीं होता । उसके होने का पता आन्तरिक आत्मानुभूति से लगता है । इस तरह उसका ज्ञान इंद्रियों की सीमा के परे हो जाता है । ऐसी चीजों को राहुल ने सीमापारी कहा है ।  

सीमा के परे की ऐसी ही चीजों में कान्ट ने आत्मा को भी शामिल किया है । उनका कहना है कि आत्मा का ज्ञान या साक्षात्कार तो नहीं किया जा सकता लेकिन उसके अस्तित्व पर मनन किया जा सकता है । इस आत्मा को सीधे इंद्रियों की सहायता से हम नहीं जान सकते क्योंकि वह सीमा के परे या इंद्रिय-अगोचर है । सीमा के परे की इस तरह की वस्तुओं का होना भी संभव है । इस तरह वस्तु निज रूप अज्ञेय तो है लेकिन है जरूर क्योंकि बाहरी जगत या वस्तु की जिस आभा का ज्ञान हमें होता है उसके पीछे वस्तु निज रूप जरूर है जो मन से परे की चीज है, हमारी इंद्रियों को प्रभावित करता है और हमारे ज्ञान के लिए विषय प्रस्तुत करता है । इस वस्तु निज रूप (इसे राहुल वस्तुसार भी कहते हैं) के बिना वह झाँकी नहीं मिलती जिसकी बुनियाद पर हमारा सारा ज्ञान खड़ा है । राहुल के अनुसार कान्ट ने बुद्धि और समझ में भी अंतर किया है । समझ इंद्रियों द्वारा लायी सामग्री अर्थात वेदना पर आधारित है लेकिन बुद्धि इस समझ से परे जाती है और इंद्रिय-अगोचर ज्ञान को उपलब्ध करना चाहती है । बुद्धि की साधारण क्रिया को समझ कहते हैं जो हमारे अनुभवों को नियमों और सिद्धांतों के अनुसार एक दूसरे के साथ संबंध कराती है और इस प्रकार हमें निश्चय प्रदान करती है । निश्चय के ये संबंध इंद्रिय-गोचर विषयों में ही हैं, सीमापारी विषयों में नहींम । इस तरह कान्ट ने भी वही काम किया जो बर्कले ने किया था । यदि बर्कले ने भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व का ही खंडन किया तो कान्ट ने भौतिक तत्त्वों के ज्ञान की सच्चाई पर संदेह पैदा कर दिया । राहुल जी ने कान्ट की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए हाइनरिख हाइने की राय का सहारा लिया है जिसके मुताबिक कान्ट ने ईश्वर को निर्वासित करने के बाद चोर दरवाजे से उसका प्रवेश करा दिया ।

इसके बाद राहुल जी ने ह्यूम के संदेहवाद का जिक्र किया है । ह्यूम तक पहुंचने के रास्ते का जिक्र करते हुए राहुल ने बर्कले से शुरू किया जिसने बुद्धि की आंख में धूल झोंककर वस्तु सत्य को मिटाकर ईश्वर, धर्म, आत्मा, फ़रिश्तों को चुपके से सामने ला बैठाया । कान्ट को यह कोशिश भोंड़ी लगी इसलिए उसने भौतिक तत्त्व की सत्ता को आंशिक सत्य के रूप में स्वीकार किया लेकिन असली तत्त्व को सीमापारी और अज्ञेय बना दिया । इसी क्रम में ह्यूम आते हैं । राहुल के मुताबिक उन्होंने बीच का रास्ता निकाला । उनके अनुसार हम जो कुछ जान सकते हैं वह है हमारी अपनी मानसिक छाप का संसार । इसमें प्रत्यक्ष के साथ अनुमान भी शामिल है । इसके आगे के ज्ञान का हमारे पास कोई साधन नहीं है । हमारे ज्ञान की सारी सामग्री बाहरी और भीतरी वस्तुओं के स्पर्शों से प्राप्त होती है । हमारे सभी मनोभाव जब जब आत्मा में पहले-पहल प्रकट होते हैं तो सबसे सजीव साक्षात्कार स्पर्श ही हैं । बाहरी स्पर्श आत्मा के भीतर अज्ञात कारणों से पैदा होते हैं । इसी तरह भीतरी स्पर्श अधिकतर हमारे विचारों से आते हैं । ज्ञान से संबद्ध दूसरी महत्वपूर्ण चीज ये विचार ही हैं । ये असंबद्ध या संयोगवश मिले हुए नहीं होते । उनके बीच की एकता को ही विचार-संबंध कहा जाता है । कार्य और कारण का संबंध ह्यूम नहीं मानते । वे इन्हें बस एक दूसरे के बाद होता हुआ घटनाक्रम देखते हैं । ह्यूम का संदेहवाद इस बात में है कि ज्ञान का आधार प्रत्यक्ष है और इसमें वस्तु की केवल बाहरी सतह और उसमें भी एक भाग का ही प्रत्यक्ष होता है । दार्शनिक विचार या आत्मानुभूति से अधिक जानने की कोई आशा नहीं क्योंकि दार्शनिक निर्णय भी साधारण जीवन का नियमित और शोधित प्रतिबिंब मात्र है । इस तरह हमारा ज्ञान सतही यानी ऊपरी होता है और उससे किसी चीज की वास्तविकता नहीं स्थापित हो सकती । जिसे आत्मा कहा जाता है उसमें भी प्रत्यक्ष ही मिलता है । वहां शुद्ध अनुभव कभी नहीं मिलता । इसी कारण आत्मा को साबित नहीं किया जा सकता । उनका समग्र मूल्यांकन करते हुए राहुल कहते हैं कि हालांकि ह्यूम ने बर्कले और कान्ट के तर्कों पर काफी प्रहार किया और दर्शन को धर्म का पिछलग्गू बनने से रोकने का प्रयास किया लेकिन दूसरी ओर ज्ञान को असंभव भी बना दिया ।

भौतिकवाद के विरोधी इन तीनों चिंतकों का परिचय देने के बाद राहुल जी ने उस समय के भौतिकवाद का उल्लेख किया है और कहा है कि भौतिकवादियों को बहुत परिश्रम की जरूरत नहीं थी क्योंकि समूचा साइंस ही भौतिकवाद को आगे बढ़ा रहा था । उस समय के भौतिकवादी हर्टली की मान्यता थी कि मनोविज्ञान भी शरीर का एक अंश है । इसी तरह दकार्त की निम्न श्रेणी के प्राणियों के बारे में इस मान्यता ने कि वे चलते-फिरते यंत्र भर हैं ने भी भौतिकवाद के विकास में मदद की । राहुल ने ला-मैत्री की इस धारणा का उल्लेख किया है कि अगर यह बात निम्न शेणी के प्राणियों के लिए सत्य है तो फिर मनुष्य में भी आत्मा की कोई जरूरत नहीं रह जाती । इसी तरह की बात शरीर और आत्मा की एकता के सहारे भी कही गयी और माना गया कि भौतिक तत्त्वों के नियम मानसिक आचारिक घटनाओं पर भी लागू होते हैं ।

इसके बाद राहुल उन्नीसवीं सदी के दर्शन का जायजा लेते हैं । अठारहवीं सदी में साइंस का प्रारम्भ हुआ था लेकिन उसके बाद उन्नीसवीं सदी में उसके विकास और विस्तार और गति में तीव्र बढ़ोत्तरी हुई । इस समय दर्शन को साइंस की सहायता जरूरी लगी थी और यह सहायता उसने बिना हिचक ली । खगोल, गणित, भौतिकी, रसायन और प्राणिशास्त्र संबंधी खोजों और प्रगति का राहुल विस्तार से उल्लेख करते हैं । नये ग्रहों-उपग्रहों की खोज, बेहतर ज्यामिति, परमाणु और एलेक्ट्रान, बिजली की सार्वजनिक पहुंच, जीवाणु, बेहोशी की दवा और जीवन विकास का सिद्धांत इनमें से कुछेक हैं । इस माहौल में भौतिकवाद के विरोध की धारा में फ़िख्टे, हेगेल, शोपनहार के साथ ही शेलि और नीट्शे जैसे दैतवादी बुद्धिवादी, स्पेन्सर जैसे अज्ञेयवादी और मार्क्स जैसे भौतिकवाद के समर्थक दार्शनिक का जन्म हुआ ।

फ़िख्टे के बारे में राहुल बताते हैं कि कान्ट ने वस्तुसार को सीमापारी अगम्य वस्तु साबित किया था । फ़िख्टे ने उसे भी मन की ही उपज कहा । इसको साबित करने के लिए फ़िख्टे के तर्क का परिचय देते हुए राहुल बताते हैं कि फ़िख्टे के अनुसार समस्त अनुभव और मन के आकार परम आत्मा से उत्पन्न हुए हैं लेकिन उनकी उत्पत्ति में वैयक्तिक मन ने भी भाग लिया है । असल में परम आत्मा ने अपने को ही ज्ञाता और ज्ञेय में बांट लिया है क्योंकि आत्मा के आचारिक विकास के लिए ऐसे बाधा डालने वाले पदार्थों की जरूरत है जिनको आत्मा प्रयत्न से पार करे । इसके लिए परम आत्मा को अनेक आत्माओं में विभाजित होना पड़ता है । ऐसा न होने से इन आत्माओं को अपना कर्तव्य पूरा करने का अवसर नहीं मिलेगा । अलग अलग आत्माओं में परम आत्मा का ही प्रकाश है । यह परम आत्मा स्थिर नहीं बल्कि सजीव प्रवाह है । इस परम आत्मा की क्रिया का प्राकट्य आत्मा है । इस आत्मा की सीमा है । विचार में वह इंद्रिय-प्रत्यक्ष और मनन से परे नहीं जा सकता और व्यवहार में वह परम आत्मा के विश्व-प्रयोजन से परे नहीं जा सकता । ईश्वर ही यह परम आत्मा है । इसके बाद राहुल ने हेगेल का जिक्र किया है । उनके दर्शन को राहुल ने अभौतिकवादी दर्शन के नये प्रवाह की चरमसीमा कहा है ।

राहुल के अनुसार हेगेल के दर्शन के विकास में अफलातूँ, अरस्तू, स्पिनोज़ा और कान्ट का विशेष योगदान है । उन्होंने दर्शन का काम सारे संसार को प्रकृति और अनुभव के आधार पर यथातथ्य जानना निश्चित किया । यह वास्तविकता बुद्धिसंगत है इसलिए हम अपने चिन्तन या ज्ञान की प्रक्रिया को भी बुद्धिसंगत घटना के रूप में पाते हैं । प्रकृति में विकास की तरह ही दर्शन का भी विकास होता है । यह विकास निम्न से उच्च की ओर होता है । प्रकृति किसी अज्ञात तत्त्व का बाहरी आभास नहीं स्वयं परमतत्त्व है । मन और भौतिक तत्त्व अलग-अलग चीजें नहीं परमतत्त्व के आत्मप्रकाश के एक ही प्रवाह के दो अभिन्न अंग हैं । मन के लिए भौतिक जगत की जरूरत है लेकिन भौतिक जगत भी मनोमय है । भौतिक जगत लगातार बदल रहा है इसीलिए विचार, बुद्धि, समझ या सच्चा ज्ञान भी सक्रिय, प्रवाहयुक्त घटना अर्थात विकास की धारा है ।

निम्न से उच्च की ओर विकास के इस क्रम में वस्तु जब अविकसित रहती है तो विशेषतारहित होती है । जब वह विकसित होती है तो उसमें विशेषता पैदा हो जाती है और वह विभाजित होकर भिन्न-भिन्न आकारों को ग्रहण करती है । ये भिन्न भिन्न आकार एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं । इनका विरोधी गुणों और क्रियाओं के कारण आपस में द्वंद्व चल रहा होता है तो भी वे जिस पूर्ण के अवयव हैं उसमें एक होते हैं । इस तरह होने वाला विकास निम्न स्थिति का ही प्रयोजन, अर्थ और सत्य होता है । निम्न में जो छिपा होता है उच्च अवस्था में वह प्रकट हो जाता है । विकास की यह धारा अपनी प्रत्येक अवस्था में पहले की सारी अवस्थाओं को लिये रहती है और सभी आगामी अवस्थाओं की झांकी देती है । संसार प्रत्येक स्थिति में पहले की उपज और भविष्य भी होता है । उच्च अवस्था में पहुंचने पर निम्न अवस्था का अभाव हो जाता है लेकिन इस उच्च अवस्था में निम्न अवस्था भी सुरक्षित रहती है । इस तरह निम्न से ऊपर पहुंचना विरोधी अवस्था में बदल जाना है । इसे ही हेगेल द्वंद्वात्मक घटना कहते हैं और इस द्वंद्व को सभी तरह के जीवन और गति का स्रोत मानते हैं । द्वंद्व या विरोध का यही सिद्धांत संसार पर शासन करता है । इस क्रम में प्रत्येक वस्तु बदलकर विरोधी अवस्था में परिणत होना चाहती है । द्वंद्व के न होने से न जीवन होता, न गति, न वृद्धि और सभी चीजें मुर्दा तथा स्थिर होतीं । विरोधी हो जाने के बावजूद गति तो जारी ही रहती है और इसके लिए ये विरोधी किसी एक ही पूर्ण शरीर के अवयव बन जाते हैं । ये परस्पर विरोधी ही मिलकर पूर्ण शरीर को बनाते हैं । इस तरह वास्तविकता चलता बहता प्रवाह या द्वंद्वात्मक निरंतरता है । इस क्रम में कोई भी वस्तु बदलते बदलते अपने विरोधी रूप में परिणत हो जाती है । सम्पूर्ण भी और कुछ नहीं इन्हीं परस्पर विरोधी अवयवों का योग होता है । समस्त विकास का लक्ष्य वह परमात्मतत्त्व है जो सनातन है । इस तरह हेगेल का परिवर्तन का प्रवाह ही अपना महत्व खो बैठता है और उनके परमतत्त्व की एकता में विश्व की विचित्रता खप जाती है ।

इसके बाद राहुल जी शोपनहार के दर्शन का विवेचन करते हैं । शापेनहावर के नाम से विख्यात इस दार्शनिक के बारे में राहुल का कहना है कि तृष्णा ही उनके दर्शन का मूल है । यह कालातीत, देशातीत, मूलतत्त्व और कारण-विहीन क्रिया है । वही तृष्णा मनुष्य की आत्मा है और शरीर भी उसी का आभास है । पत्थर में तृष्णा अंधी शक्ति के तौर पर प्रकट होती है, मनुष्य में वह चेतना युक्त बन जाती है । प्रकृति में सर्वत्र तृष्णा की ही जाति की शक्तियाँ काम कर रही हैं । अपनी जरूरत को पूरा करने लायक शरीर तृष्णा ही बनाती है । यह न देश से सीमित है, न काल से, किन्तु व्यक्तियों में देश-काल से परिसीमित हो प्रकट होती है । इससे दुख पैदा होता है । इससे बचने का एक ही रास्ता है और वह है तृष्णा का पूर्णतया त्याग । कहने की जरूरत नहीं कि इस दर्शन पर बौद्ध दर्शन का बहुत प्रभाव पड़ा है । इसके बाद द्वैतवाद के प्रसंग में निट्ज्शे का और अज्ञेयवाद के प्रसंग में स्पेन्सर का जिक्र हुआ है । इसी सदी के भौतिकवादी दार्शनिकों के तौर पर वे लुड्विग फ़्वेरबाख (इन्हें फ़ायरबाख के नाम से भी जाना जाता है) और मार्क्स का विवेचन करते हैं ।                        

बीसवीं सदी में साइंस की प्रगति और भी तेज हुई । जब उसका असर मनुष्य के ज्ञान के विस्तार में निकला तो ईश्वर और धर्म जैसी धारणाओं की रक्षा के लिए दर्शन की जरूरत पड़ी । कभी कभी ही इसमें भौतिकवाद का उभार हुआ । बीसवीं सदी में ईश्वरवाद को ह्वाइटहेड का सहारा मिला । उसके साथ यूकेन भी था । इनसे अलग बर्गसाँ और बर्टरंड रसल थे । इन दोनों के अलावे विलियम जेम्स नामक द्वैतवादी दार्शनिक का भी जिक्र राहुल सांकृत्यायन ने किया है ।                                                                                                                          

Wednesday, October 8, 2025

‘दर्शन दिग्दर्शन’ में दर्शन का विकास

 

        

                                      

राहुल सांकृत्यायन की इस किताब का सबसे ओझल पहलू इसमें विन्यस्त दर्शन का विकास है । इस तरह की किताबों के साथ यह आम कठिनाई है । अलग अलग दार्शनिकों के बारे में जानने में पाठक का ध्यान इतना अधिक केंद्रित हो जाता है कि उनको जोड़ने वाले अंतर्निहित सूत्र को पकड़ना ही वह भूल जाता है । राहुल जी की इस किताब को पढ़ने में सबसे पहली सावधानी उनकी शब्दावली के सिलसिले में बरतनी चाहिए । वे सबसे अधिक भ्रामक प्रयोग विज्ञान शब्द का करते हैं । आज जिस अर्थ में हम इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं उस अर्थ में राहुल जी साइंस शब्द का प्रयोग करते हैं । विज्ञान का प्रयोग वे आध्यात्मिक या ईश्वरीय ज्ञान के अर्थ में करते हैं । यह किताब राहुल जी ने ‘मानव समाज’ और ‘विश्व की रूपरेखा’ के साथ लिखी थी इसलिए यह भी स्पष्ट है कि वे दर्शन को अन्य अनुशासनों से अलग नहीं, उनके साथ गहरे संयुक्त मानते थे ।

अपनी इस किताब की खूबी उन्होंने ही दो मामलों में बतायी है । एक कि दर्शन ‘राष्ट्रीय की अपेक्षा अंतर्राष्ट्रीय ज्यादा है’ इसलिए ‘दर्शन क्षेत्र में राष्ट्रीयता की तान छेड़ने वाला खुद धोखे में है और दूसरों को धोखे में डालना चाहता है’ । दूसरे कि ‘दर्शन को विस्तृत भूगोल के मानचित्र पर एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को सामने रखते हुए देखने की कोशिश की है’ । और कि ‘दर्शन को समझने का यही ठीक तरीका है’ लेकिन ‘अभी तक किसी भाषा में दर्शन को इस तरह अध्ययन करने का प्रयत्न नहीं किया गया है ।’ साफ है कि राहुल अपनी इस किताब की मौलिकता अच्छी तरह जानते थे । इस ग्रंथ की कमी भी उन्होंने स्वीकार की है कि इसमें चीन और जापान की दार्शनिक धारा का निदर्शन नहीं कराया जा सका है । उनके इस स्वीकार में ही अब तक की बौद्धिकता की कमी जाहिर हो जाती है । कहने की जरूरत नहीं कि आजकल ढेर सारे बेकार के कारणों से हम चीन के साथ किसी सकारात्मक बात की कल्पना भी नहीं कर सकते । उनके इस वक्तव्य से यह भी जाहिर होता है कि वे दर्शन की कुछ भूस्थानीय परम्पराओं को मान्यता देते हैं और साथ ही उसकी अंतर्राष्ट्रीयता को भी शामिल करते हैं ।

किताब में वे मुख्य रूप से दुनिया की चार दार्शनिक परम्पराओं का विश्लेषण करते हैं । मोटे तौर पर ये यूनानी दर्शन, इस्लामी दर्शन, यूरोपीय दर्शन और भारतीय दर्शन की धाराएं हैं । इसके आधार पर हम कम से कम एक बात के लिए तो राहुल को याद रख सकते हैं कि उन्होंने इस्लाम के सिलसिले में दर्शन का जिक्र किया है । यूनानी दर्शन का जिक्र आने पर हम सामान्य तौर पर सुकरात, प्लेटो और अरस्तू का नाम सुनते हैं लेकिन राहुल जी ने उनका नाम बाद में लिया है । शुरुआत वे यूनान की विशेष भौगोलिक स्थिति से करते हैं जिसके कारण वहां दर्शन आरम्भ हुआ । उनके अनुसार यूनान असल में क्षुद्र एसिया और यूरोप के समुद्र के बीच में बसा था । इनके नागरिक नाविक जीवन और व्यापार के लिए दूर दूर की सामुद्रिक और स्थलीय यात्रायें करते रहते थे । ये व्यापारी दूसरे देशों में जाकर सिर्फ सौदे का ही परिवर्तन नहीं करते थे, बल्कि विचारों का भी दान-आदान करते थे । तब मिश्र और बाबुल की सभ्यता सम्माननीय समझी जाती थी । सौदागरों ने इन पुरानी सभ्यताओं से प्राकृतिक-विज्ञान, ज्योतिष, रेखा-गणित, अंक-गणित और वैद्यक की कितनी ही बातें सीखीं और सीखकर उन्हें आगे भी विकसित किया ।

इसी क्रम में तत्त्वजिज्ञासु दार्शनिकों का विकास हुआ । तत्त्वजिज्ञासा का अर्थ है उस मूलतत्त्व का पता लगाना जिससे विश्व की सारी चीजें बनी हैं । इन दार्शनिकों की खास बात यह है कि वे ‘यह प्रश्न नहीं उठाते कि इन तत्त्वों को किसने बनाया’ । वे जानना चाहते हैं कि ये कैसे बने । उनमें से ही एक अनक्सिमन्दर ने ‘उस वक्त की ज्ञात दुनिया का नकशा बनाया’ और ‘यही नकशा बहुत समय तक व्यापारियों’ का पथ-प्रदर्शक रहा । उनके लिए ‘गरजते-बादल, चलती-नदी, लहराता-समुद्र, हिलता-वृक्ष, काँपती-पृथ्वी’ जैसे भौतिक तत्त्व सजीव थे इसलिए उनसे अलग किसी अन्तर्यामी की कल्पना की जरूरत उन्हें नहीं पड़ी । इनके बाद वे पिथागोर का जिक्र करते हैं जो इन मूर्त भौतिक तत्त्वों से आगे बढ़कर अमूर्त धारणा की दुनिया में प्रवेश करता है । उसने मूलतत्त्व के रूप में आकार को स्वीकार किया । यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि जिनका नाम राहुल जी ने पिथागोर लिखा है ये वही हैं जिनकी मशहूर प्रमेय को रेखागणित में पाइथागोरस की प्रमेय कहते हैं । सिद्ध है कि गणित की इस शाखा से उनके जुड़ाव की वजह से अमूर्तन की उनकी धारणा विकसित हुई । अमूर्त की इसी धारा का विकास राहुल जी ने प्लेटो और अरस्तू में देखा है ।

दर्शन के विकास में केवल यही नहीं होता कि एक विचारक के बाद दूसरा विचारक बिना किसी बाधा के आता रहता है और दार्शनिक धारणाओं का निरंतर विकास होता जाता है । इस तरह की यांत्रिक धारणा की जगह राहुल दर्शन के साथ अन्य तमाम कारकों की ओर भी ध्यान देते हैं क्योंकि अंतत: दर्शन भी इस समाज में ही फलता फूलता है । यूनानी दर्शन में आगे के बदलावों की जानकारी देते हुए राहुल जी ईरान के शहंशाह द्वारा यूनान पर कब्जे के फलस्वरूप यूनानियों के पलायन का जिक्र करते हैं जिस क्रम में पिथागोर के कुछ अनुयायी इताली जा पहुंचे । यूरोप के साथ इस संसर्ग से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इसके बाद ही यूरोप को यूनानी दर्शन का पता लग गया किसी अन्य भूमि पर आये हुए विचार का पनपना या जड़ जमा लेना भी इससे ही नहीं तय होता कि कुछ लोग उन विचारों के साथ नयी जगह गये इसके लिए नयी जगह पर अनुकूल माहौल होने की भी जरूरत होती है जो अभी यूरोप में नहीं पैदा हुआ  था इसलिए भी यूनानी दर्शन के यूरोप की सोच में लोकप्रिय होने का समय और रास्ता थोड़ा भिन्न और रोचक रहा । इताली में पहले से ही कुछ विचारक थे इसलिए राहुल ने उनके विचारों का परिचय दिया है । पिथागोर का बहुत असर वहां नहीं पड़ा । कारण यह कि पिथागोर के मत के साथ मठ और साधक होते थे किंतु इताली के दार्शनिक शुद्ध दार्शनिक पहलू पर अधिक जोर देते थे । इस जगह के दार्शनिकों के साथ ही राहुल जी ने ग्रीक दार्शनिकों में हेराक्लितु का भी जिक्र किया है

भारतीय दर्शन संबंधी लगभग आधी किताब होने के बावजूद वे लगभग सभी विचारकों के प्रसंग में खासकर उनके समकालीन भारतीय दार्शनिक का जिक्र जरूर करते हैं शायद उनके मन में ऐसा पाठक बसा है जो भारतीय दर्शन से भली तरह परिचित है हेराक्लितु के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि उसका समय बुद्ध का था और उसके विचार भी बुद्ध से मिलते जुलते हैं बहरहाल वह यूनानी दार्शनिकों की तरह ही मूल तत्त्व की बात करता है जो उसके अनुसार अग्नि है अग्नि की इस प्रधानता की जगह हेराक्लितु के संदर्भ में राहुल जी ने परिवर्तन की उसकी धारणा पर जोर दिया और कहा कि उसके मुताबिक परिवर्तन ही विश्व का जीवन है यहां हमारा साबका संसार के अस्तित्व को समझने के दार्शनिक प्रयास से पड़ना शुरू होता है संसार की स्थिरता को इताली के दार्शनिक अधिक सही मानते थे जबकि हेराक्लितु ने परिवर्तन को सत्य समझा           

कहने की जरूरत नहीं कि ये विचार दार्शनिक तो थे लेकिन इनका सामाजिक पहलू भी था । राहुल जी ने भी हेराक्लितु को ‘अनजाने ही दुनिया के जबर्दस्त क्रांतिकारी दर्शन- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का विधाता’ बना दिया है । हेराक्लितु के बाद राहुल जी ने देमाक्रितु का नाम लिया है जिसके साथ परमाणुवाद की धारणा जुड़ी है इस धारणा की व्याप्ति वे बहुत दूर तक देखते हैं जब कहते हैं कि भारतीय दर्शन में परमाणुवाद का प्रवेश यूनानियों के सम्पर्क से ही हुआ यह परमाणु गतिशून्य तत्त्व नहीं है, बल्कि उनमें स्वाभाविक गति होती है इस गति के कारण उनका दूसरों के साथ संयोग बनता है और इस तरह जगत और उसके सारे पिंड बनते हैं राहुल ने इस चिंतन की समानता यांत्रिक भौतिकवाद से देखी है

पिथागोर के अनुयायी तो भागकर इताली गये लेकिन अन्य विचारकों ने एक जगह रहने के बदले घुमन्तू या परिव्राजक होकर रहना पसंद किया । इन्हें राहुल ने सोफी कहा है और इस्लाम के ऐसे ही परिव्राजकों के सूफी नाम को, दर्शनों के भारी भेद के बावजूद, इससे उत्पन्न बताया है । इससे हमारे सामने दर्शन का एक अन्य पहलू उजागर होता है । आम मान्यता के अनुसार हम दर्शन को किताब या किसी संस्थान से जोड़कर देखते हैं लेकिन राहुल जी की निगाह में दार्शनिकों का यह भी एक रूप होता है जिसमें वे घूम घूमकर ज्ञान का संग्रह और वितरण करते रहते हैं । खुद राहुल भी लम्बे समय तक साधु रहे थे और घुमक्कड़ तो वे थे ही । कदाचित इस अनुभव ने उन्हें दर्शन का यह रूप दिखाया हो । बहरहाल इन सोफियों ने समाज में ज्ञान की प्यास जगा दी और चारों ओर ज्ञान की चर्चा होने लगी । उन्हीं के समय एथेंस यूनानी दर्शन का केंद्र बना और सुकरात, प्लेटो तथा अरस्तू का जन्म हुआ ।

इन नामों से दर्शन का प्रत्येक विद्यार्थी परिचित है फिर भी बस इतना कि राहुल जी प्लेटो को हमेशा अफलातूँ लिखते हैं सम्भवत: अरबी स्रोतों के कारण ऐसा हुआ है । सुकरात के प्रसंग में उन्होंने कहा कि वह सोफियों की बहुतेरी बातों को मानता था खास बात तो प्लेटो के प्रसंग में आयी है और उसके आधार पर किसी भी दार्शनिक के विचारों के एक और स्रोत का पता चलता है व्यक्ति की सामाजिक स्थिति और उसके जीवन के अनुभव अक्सर उसके विचारों को आकार देते हैं राहुल जी बताते हैं कि वह रईस घराने का था जिस वर्ग की प्रभुता का ह्रास हो चुका था और उनकी जगह व्यापारी शक्तिशाली बन चुके थे दूसरी ओर उसने अपने निरपराध गुरु सुकरात को जनसम्मत तरीके से मारे जाते देखा था इन दोनों बातों ने उसके विचारों को प्रभावित किया था तत्कालीन समाज को हटाकर वह नया ही समाज कायम करना चाहता था उसके इस आदर्श समाज में शासक की जगह दार्शनिकों के लिए सुरक्षित थी और इन दार्शनिकों को सांसारिक वैभव की जगह अपनी बौद्धिकता को ही अपना धन समझना था उसके प्रसंग में ही राहुल जी ने स्वत:सिद्ध चीजों का जिक्र किया है और उसे पादटिप्पणी में Apriori लिखा है । कहने की जरूरत नहीं कि दर्शन का कोई भी विद्यार्थी इसे बहुत बाद में कांट के प्रसंग में देखता है लेकिन इस धारणा का मूल राहुल जी ने प्लेटो के चिंतन में पहली बार देखा है । इसका आसान अर्थ यह है कि प्रत्यक्ष इंद्रियानुभव से पहले ही हमारे दिमाग में कुछ बौद्धिक उपकरण होते हैं जिनके सहारे हम प्रत्यक्ष को ग्रहण करते हैं संख्या, भाव, अभाव, सादृश्य, भेद, एकता, अनेकता जैसी धारणाओं के साथ ही हम वास्तविकता को जान पाते हैं इसी को प्लेटो कहते हैं कि विज्ञान (ऊपर इसका स्पष्टीकरण दिया गया है) और वास्तविकता का सामंजस्य ज्ञान है दुनिया में इस वास्तविकता के विभिन्न रूप नजर आते हैं जिनके सार को ग्रहण करना बुद्धि का काम है भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त विशेष के भीतर मौजूद सामान्य ही उनका सार होता है प्लेटो की इस बौद्धिकता की जगह उसका अनुयायी अरस्तू अधिक वस्तुवादी था शायद इसीलिए उसके विचारों का प्रसार अधिक हुआ अरस्तू के वस्तुवाद के प्रसंग में राहुल जी उसके पादपशास्त्री होने का उल्लेख करते हैं इसी प्रसंग में वे वैद्यक का भी जिक्र करते हैं क्योंकि वनस्पतिशास्त्र का वैद्यक से गहरा रिश्ता है । शुरू से ही हम इस बात को देख रहे हैं कि प्रकृति की मौजूदगी मनुष्य के चिंतन में लगातार बनी रहती है आगे चलकर दर्शन के विकास में वैद्यक की और भी महत्वपूर्ण भूमिका हमें नजर आयेगी

यहां आकर अब हमारा परिचय दर्शन की जटिलताओं से शुरू होता है और उसकी ज्ञानात्मक व्यापकता का पता चलता है । यह अनायास नहीं है कि किसी भी ज्ञानानुशासन की जड़ में इन दोनों दार्शनिकों की मान्यताओं का उल्लेख अनिवार्य रूप से होता है । अरस्तू ने सिकंदर को शिक्षा दी थी लेकिन सिकंदर तो अरस्तू से भी अधिक वस्तुवादी था इसलिए वह अपने गुरु की सारी शिक्षा मानने के लिए उद्यत नहीं हुआ । अरस्तू ने प्रचुर लेखन किया था । वह मानता था कि विचार और भौतिक तत्त्व को अलग करके समझा तो जा सकता है लेकिन उन्हें वास्तव में अलग करना सम्भव नहीं है क्योंकि दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं । इसका उदाहरण देते हुए राहुल जी ने मूर्ति की बात की है जिसमें मिट्टी या पत्थर तो भौतिक तत्त्व है लेकिन उसका आकार मूर्तिकार के दिमाग से निकला है । पृथ्वी, जल, आग और हवा भी बिना आकार के नहीं हैं और ये भी रूक्षता, नमी, उष्णता, सर्दी आदि मूलगुण के भिन्न भिन्न योगों से बने हैं । उसका मानना था कि सच्चा ज्ञान केवल घटना का परिचय नहीं बल्कि यह भी जानना है कि किन कारणों या स्थितियों से वैसा होता है । तर्कशास्त्र को भी जन्म देने के लिए उसे जाना जाता है । इसी सिलसिले में राहुल जी फिर से भारतीय दर्शन का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि सिकंदर जब भारत आया था तो उस समय यूनान उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुआ था । उसके साथ आये यूनानी हमारे देश में घुल मिल गये और उनकी ज्ञान संपदा भी हमारे ज्ञान में समा गयी ।

इसके बाद यूनान का पराभव शुरू हुआ और मकदूनिया से उसे हारना पड़ा । राहुल की टिप्पणी है कि पराजित यूनान हेराक्लितु, देमोक्रितु, अफलातूँ, अरस्तू के जैसे स्वच्छन्द सजीव दर्शन को नहीं प्रदान कर सकता था । स्वाभाविक है कि नये शासक उतनी आजादी पराधीन जनता को नहीं देना चाहते रहे होंगे जितनी आजादी के माहौल में उपर्युक्त दार्शनिकों का विकास हुआ था । अब दर्शन के क्षेत्र में एक अन्य धारा का प्रवेश होता है जिसे राहुल जी ने इस्लामी दर्शन कहा है । इस्लाम में दर्शन के आगमन का संदर्भ स्पष्ट करने के लिए राहुल जी ने इस्लाम का विस्तार से जिक्र किया है और उस समाज के विकासक्रम में उन कारकों की पहचान की है जिन्होंने दर्शन की जगह बनायी ।

इस्लाम का जन्म अरब के कबीलाई समाज में हुआ था । सभी कबीलाई समाजों की तरह वहां भी आपस में लड़ाई झगड़े होते रहते थे और लूटपाट जीविका का वैध साधन था । इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद साहब को तरह तरह के समाजों का अनुभव था क्योंकि अपने चाचा के साथ उन्होंने व्यापारिक यात्राएं बहुत कीं । इसी वजह से वे समाज में रुढ़िवश मानी जाती हर एक बात को बिना ननु-नच के मानना नहीं पसंद करते थे । अपनी व्यापारिक यात्राओं के क्रम में उन्हें ईसाई और यहूदी धार्मिक रिवाजों को देखने का मौका मिला था तथा गिरजाघर और यहूदियों की मूर्तिरहित एक-ईश्वर-भक्ति उन्हें पसंद आयी थी । व्यापार के विकास के लिए शांति का महत्व भी उन्हें इन्हीं यात्राओं से स्पष्ट हुआ था । इसके लिए उन्होंने सभी कबीलों को मिलाकर एक राज्य और लूटमार की जगह शांति (इस्लाम) की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया । वे समझते थे कि लूटमार को पूरी तरह बंद कर देने से आजीविका के स्रोत पर चोट पड़ेगी इसलिए उसे गैर अरबी लोगों पर विजय से प्राप्त आमदनी के बतौर परिभाषित किया और उसका 1/5 सरकारी खजाने में जमा करके शेष को सभी योद्धाओं में बांट देने का नियम बनाया । इससे दो लक्ष्य पूरे हुए । एक, इस्लामी सेना में भरती होने का भारी आकर्षण पैदा हुआ और दूसरे, बलशाली संगठित शासन की बुनियाद पड़ी । इस्लाम के भीतर समानता की भावना को भी मजबूत करने में इस प्रथा का योगदान राहुल जी ने स्वीकार किया है । उनके मुताबिक ‘इस्लाम ने विजित जाति के अधिकांश धनी और प्रभु-वर्ग को जहाँ पामाल किया, वहाँ अपनी शरण में आने वाले-खासकर पीड़ित- वर्ग को विजय-लाभ में साझीदार बनाने का रास्ता बिलकुल खुला रखा । इसने ‘शासक वर्ग के नीचे की साधारण जनता के कितने ही भाग को आकर्षित और मुक्त करने में सफलता’ पायी ।

जो आर्थिक व्यवस्था बनी उसके ही कारण आगे चलकर इस्लाम में फूट पड़ी, मजबूत राज्य और योद्धाओं की बड़ी संख्या ने दो तरह के समुदायों को जन्म दिया । दूसरी ओर उसके प्रसार ने बहुतेरे ऐसे लोगों को इस्लाम के भीतर दाखिल किया जिनके साथ नये विचार भी आये । इसी क्रम में बहुत सारे यूनानी दार्शनिकों के भी ग्रंथों के अरबी  में अनुवाद हुए किंतु इस्लामिक दार्शनिक सदा अरस्तू का ही अनुसरण करते रहे इसलिए राहुल जी ने अरस्तू की कृतियों की जीवन यात्रा पर नजर डाली है । उसके निधन के बाद उसके ग्रंथ उसके शिष्यों के साथ ही रहे लेकिन जब रोमनों ने यूनान पर अधिकार किया तो उसके ये ग्रंथ बाजार में बिकने को आये तो उन्हें एक अमीर ने खरीद लिया । बाद में एक रोमन सेनापति अपने साथ रोम ले गया और सार्वजनिक पुस्तकालय में रख दिया । इस तरह दो सौ साल बाद उन ग्रंथों को समझदार दिमागों पर असर डालने का मौका मिला ।

इसके साथ एक अन्य प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है । रोमन साम्राज्य के पड़ोस में उसका प्रतिद्वंद्वी ईरानी साम्राज्य था । उसके शासक नौशेरवाँ ने अनाथ यूनानी दार्शनिकों को शरण दी थी । इसमें उसकी उदार-हृदयता का उतना हाथ न था जितना अपने प्रतिद्वंद्वी के विरोधियों को शरण की भावना का हाथ था । उसने एक विद्यापीठ कायम किया जिसमें दर्शन और वैद्यक की शिक्षा खास तौर से दी जाती थी । वहां पठन पाठन के अतिरिक्त कितने ही यूनानी दर्शन तथा दूसरे ग्रंथों का अनुवाद हुआ । अनुवाद इसके साथ ही सीरिया की भाषा में भी हुए क्योंकि सीरीयन लोग व्यापारी थे और व्यापार के साथ धर्म, संस्कृति का आदान-प्रदान होना स्वाभाविक है । सीरीयन विद्वानों ने यूनानी सभ्यता के साथ उनके दर्शन को भी फैलाया । इन सुरियानी अनुवादों में अरस्तू के तर्कशास्त्र का अनुवाद मशहूर है । इन्हीं सुरियानी अनुवादों की मदद से बाद में अरबी अनुवाद हुए । इसी रास्ते ऐसा वातावरण बना जिसमें शाहजादों की शिक्षा कुरान, उसकी व्याख्याओं और परम्पराओं तक ही सीमित नहीं रही और उसमें यूनानी दर्शन, भारतीय ज्योतिष और गणित भी शामिल होते गये । इसी प्रसंग में राहुल जी ने एक ऐसा वाक्य लिखा है जिसे अनुवाद के प्रत्येक विद्यापीठ में प्रसारित होना ही चाहिए । उनके मुताबिक ‘अनुवाद द्वारा अपनी भाषा को समृद्ध तथा अपनी जाति को सुशिक्षित बनाना हर एक उन्नतिशील सभ्य या असभ्य जाति में देखा जाता है’ । इसके उदाहरण के बतौर उन्होंने इन अरबी अनुवादों के साथ ही चीनी और तिब्बती अनुवादों का भी उल्लेख किया है ।

दर्शन की दुनिया के इन तमाम प्रभावों के चलते इस्लाम में मतभेद उठने शुरू हुए । ये मतभेद दार्शनिक होते हुए भी पूरी तरह सामाजिक टकरावों से जुड़े थे । उदाहरण के लिए विवाद उठा कि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है या नहीं । यदि वह स्वतंत्र नहीं है तो उसे कर्मों का दंड नहीं मिलना चाहिए । इस धारणा को नवोदित शासक समुदाय अधिक  पसंद करता था क्योंकि इस धारणा की आड़ में वह अपने उत्पीड़न की जवाबदेही से मुक्त हो जाता था । इसके विपरीत कर्म-स्वातंत्र्य के प्रचार द्वारा विद्रोही नेता शासकों के अत्याचार के विरुद्ध जनता को भड़काया करते थे । इस विद्रोही मोतज़ला संप्रदाय के लोग यह भी मानते थे कि ईश्वर सिर्फ़ भलाइयों का स्रोत है । वह दयालु भी है और इसलिए जिन वस्तुओं पर दया आदि गुण प्रदर्शित करता है वे भी सदा से मौजूद हैं । साथ ही वे यह भी मानते थे कि अन्याय करने में सक्षम न होने के कारण ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं रह जाता । वे यह भी कहते थे कि हर एक पदार्थ के अपने स्वाभाविक गुण होते हैं जो बदल नहीं सकते । वे संसार को ईश्वर की रचना मानते थे और इसी वजह से उनके लिए कुरान भी अनादि नहीं कहा जा सकता । इस विंदु को खोलते हुए राहुल जी ने लिखा ‘कुरान को सादि बतला मोतज़ली अल्लाह के प्रति अपनी भारी श्रद्धा दिखाते हों यह बात न थी, इससे उनका अभिप्राय यह था कि कुरान भी अनित्य ग्रंथों में है, इसलिए उसकी व्याख्या करने में काफी स्वतंत्रता की गुंजाइश है; और इस प्रकार पुस्तक की अपेक्षा बुद्धि का महत्व बढ़ाया जा सकता है’ । यह दूसरा मुद्दा था जिसके आधार पर धर्म की आड़ में ही उसकी आलोचना हो रही थी । वे कहते थे कि ईश्वर ने मनुष्य में भलाई-बुराई, सच्चाई-झुठाई को परखने तथा भगवान को जानने की बुद्धि भी प्रदान की । इस प्रकार वे, राहुल जी के मुताबिक ‘ग्रंथोक्त धर्म की अपेक्षा निसर्ग(बुद्धि)-सिद्ध धर्म पर ज्यादा ज़ोर देना चाहते थे’ । इसी कारण सनातनी मोतज़लियों को क्षमा नहीं कर सके । हालांकि मोतज़ली यूनानी दर्शन तथा अरस्तू के तर्कशास्त्र के सख्त दुश्मन थे लेकिन इस दुश्मनी में बुद्धि के हथियार का ही इस्तेमाल करते थे जिसके कारण उन्हें बहुधा इस्लाम के सीधे रास्ते से भटक जाना पड़ता था । खास बात यह कि इन मोतज़ली मान्यताओं का विरोध करने के लिए गज़ाली को कार्य-कारण संबंध तक से इनकार करना पड़ा ।

इन शुरुआती कोशिशों के बाद इस्लाम के भीतर दार्शनिक चिंतन थोड़ा और गम्भीर हुआ । इसका केंद्र ईरान और इराक बना । इस सिलसिले में राहुल जी ने अज़ुज़ीद्दीन राज़ी का नाम लिया है । उन्होंने धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त गणित, वैद्यक और पिथोगोरीय दर्शन का अध्ययन किया था । वे बगदाद में प्रधान चिकित्सक भी रहे । शरीर और आत्मा के बीच आत्मा को उन्होंने प्रमुखता दी और माना कि वैद्य आत्मा का भी चिकित्सक होता है । राज़ी ने जिन पांच तत्वों को नित्य माना उनमें कर्ता अर्थात ईश्वर के साथ ही विश्व जीव और मूल भौतिक तत्व भी है । इनकी नित्यता के साथ ही उसने एक कर्ता भी माना । उसका कहना था कि इस कर्ता के साथ ही विराट शरीर भी था । शरीर की छाया से गर्मी, सर्दी, रूक्षता और नमी जैसे चार स्वभाव उत्पन्न होते हैं । इन स्वभावों से आकाश और धरती के सभी पिंड बने हैं । सृष्टि सदा से होती आयी है इसलिए ये तत्व नित्य हैं । साफ है कि उन्होंने बीच का रास्ता निकाला जिसमें संसार की नित्यता के साथ ईश्वर भी जोड़ दिया गया । जीव की नित्यता के साथ ईश्वर के जुड़ाव की समस्या को सुलझाने के लिए माना गया कि मानव जीव भूत से बना तो है लेकिन विकास करते करते वह आत्मा बन जाता है । अन्य प्राणियों के साथ मनुष्य की समानता इंद्रियों तक ही सीमित है । इससे आगे मनुष्य की विशेषता विचार, वाणी और तदनुरूप क्रिया है । मनुष्य की इसी विशेषता का अंग उसमें मौजूद प्रेम का भाव है । जीव के परमात्मा से मिलने की बेकरारी ही प्रेम है । अब हम सूफी चिंतन के पास पहुंचने लगते हैं । पहले ही उन्होंने संकेत किया था कि यूनान के सोफी में इस्लाम के सूफी का स्रोत है । इस दौर में जो सवाल इस्लाम में उठे उन सवालों के संदर्भ में राहुल जी ने अक्सर भारतीय वेदांत का उल्लेख किया है ।                                                              

भारतीय दर्शन के प्रसंग में राहुल जी की मौलिकता का प्रमाण उपनिषदों का उनका विवेचन है । उपनिषद का जिक्र करते हुए आम तौर पर उन सबको एक साथ रखकर विश्लेषित किया जाता है । इसके मुकाबले राहुल जी ने उनके विकास को समझने के लिए उन्हें एकाधिक कालों में विभक्त किया है । सबसे पहले प्राचीनतम उपनिषदों में ईशावास्य, छान्दोग्य और बृहदारण्यक का विवेचन किया गया है । इसके बाद द्वितीय काल की उपनिषदों में वे ऐतरेय और तैत्तिरिय को उठाते हैं । फिर तृतीय काल की उपनिषदों के तहत प्रश्न, केन, कठ, मुंडक और मांडूक्य का वर्णन किया गया है । इसके बाद उन्होंने चतुर्थ काल की उपनिषदों के रूप में कौषीतकि, मैत्री और श्वेताश्वतर उपनिषद का विवरण प्रस्तुत किया है । औपनिषदिक चिंतन के विश्लेषण में शायद ही किसी अन्य विद्वान ने यह ऐतिहासिक दृष्टि अपनायी होगी । उपनिषदों के ही संदर्भ में राहुल जी ने आत्मा की धारणा पैदा होने का कारण स्वप्न बताया है । एकाधिक कथाओं को इस सिलसिले में उन्होंने उद्धृत किया है जिसमें सो जाने के बाद भी विचरण करने वाले के बारे में जिज्ञासा की गयी है । इसी उत्सुकता ने मनुष्य के भीतर एक और अस्तित्व की कल्पना की जगह बनायी होगी और सुप्तावस्था में भी उसके सक्रिय रहने के कारण उसकी अमरता की धारणा का जन्म हुआ होगा ।

राहुल जी ने यही बताने का प्रयास किया है कि दर्शन का क्रमिक विकास हुआ है और अमूर्त सवालों पर बात करने के बावजूद वह समाज से घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है । एक समाज से दूसरे समाज तक दर्शन के जाने में अनेक कारकों का योगदान होता है । इस आवागमन से संसार के सभी दर्शनों की तरह भारतीय दर्शन भी अछूता नहीं रहा है । किसी भी नये समाज में बाहर से आने वाले दर्शन को जड़ जमाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों की जरूरत होती है अन्यथा कहीं और से लाकर रोपे गये पौधे की तरह गीली जमीन न मिलने से विचार भी सूख जाते हैं । इस लेख में उद्धरण चिन्हों के अतिरिक्त भी राहुल जी की शब्दावली का खुलकर उपयोग किया गया है । लेख का उद्देश्य मूल किताब को पढ़ने में पाठक की रुचि जगाना है ।