Friday, November 28, 2025

नयी सदी का समाजवाद


2025 में ब्रिल से टोनी स्मिथ की किताब ‘ए सोशलिज्म फ़ार द ट्वेन्टी-फ़र्स्ट सेन्चुरी: टुवर्ड्स द ‘फ़ुल ऐंड फ़्री डेवलपमेंट आफ़ इवरी इंडिविजुअल’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने सबसे पहले कुछ दावे किये हैं । पहला कि इस समय पूंजीवाद के साथ कुछ गम्भीर गड़बड़ चल रही है । इस दावे को बहुत कम लोग गलत कह पा रहे हैं । मौजूदा हालात के दुरुस्त होने की घोषणा शायद ही कोई कर सकता है । दक्षिणपंथी लोग इसकी वजह अपने बनाये ‘अन्य’ में तलाश कर रहे हैं । उनकी शिकायत बहुतों से है । उनके दुश्मनों की सूची काफी लम्बी है । उदारवादी कुलीन, धर्म निरपेक्षता को थोपने वाले नास्तिक, देश के प्रति श्रद्धा पर सवाल उठाने वाले अध्यापक, असली नागरिकों की जगह संसाधनों पर कब्जा करने वाले आप्रवासी, अनुचित लाभ उठाने वाले तमाम विदेशी राष्ट्र, पत्थरदिल नारीवादी, विपथगामी जीवनशैली अपनाने वाले, इन सबको मदद देने के लिए तंत्र की ताकत का खुशी से इस्तेमाल करने वाले नौकरशाह आदि इत्यादि । इस मामले में दक्षिणपंथी लोग बेहद रचनात्मक होते हैं और कल्पना से इनकी तादाद बढ़ाते रहते हैं

लेखक का कहना है कि प्रतिक्रियावादी सामाजिक ताकतों को राजनीतिक रूप से पराजित करना बेहद जरूरी है लेकिन फिर इनकी आलोचना क्या करनी जैसे मार्क्स के समय प्राचीन शासन की रक्षा को आलोचना का विषय बनाना लगभग गैर जरूरी था । वर्तमान पूंजीवाद के सबसे गम्भीर बौद्धिक को अच्छी तरह पता है कि गड़बड़ी कहां है । मार्टिन वोल्फ़ इसके बेहतर नमूने हैं । उनकी किताब ‘द क्राइसिस आफ़ डेमोक्रेटिक कैपिटलिज्म’ को वैश्वीकरण, वित्तीकरण, तकनीकी बदलाव और आर्थिक संकेंद्रण की वामपंथी आलोचना से बहुत अलग नहीं कहा जा सकता । वे विषमता में बढ़ोत्तरी, सामाजिक गतिशीलता में कमी, कर्जखोरी का अप्रत्याशित विस्फोट, टैक्स चोरी की लत, बड़ी कारपोरेट कंपनियों और धन्नासेठों के निर्लज्ज भ्रष्टाचार, मानवभक्षी किराया वसूली, नीति निर्माण में अमीरों के बढ़ते दबदबे, राजनीतिक सत्ता पर पकड़ मजबूत रखने के लिए जनता के भीतर मौजूद नस्ली, जातीय और सांस्कृतिक विभाजनों को हवा देने वाले अल्पतंत्र के नुमाइंदों की इजारेदारी तथा पर्यावरणिक चुनौती का मुकाबला करने के लिए आवश्यक और प्रभावी कदम उठाने में विफलता को दर्ज करते हैं । अन्य सिद्धांतकार भी उनके सरोकार से अपनी सहमति प्रकट करते हैं । मसलन नूरिएल रूबिनी की हालिया किताब का शीर्षक है ‘मेगाथ्रेट्स’ । इसके विभिन्न अध्याय ही आज के खतरों को गिनाने के लिए काफी हैं । कर्ज की फांस, अर्थव्यवस्था में उतार चढ़ाव के चक्र तथा कर्ज संकट की बात वे भी करते हैं । मुद्रा की कीमत में अस्थिरता तथा वित्तीय उठापटक के साथ धरती के निवासयोग्य न रह जाने की चिंता उनके लेखन में भी नजर आती है । इसी परिघटना को द्योतित करते हुए एडम टूज़ ने इतिहास के इस समय को बहुसंकटग्रस्त समय (पोलीक्राइसिस) कहा है ।

इतनी गम्भीर समस्या के लिए उतने ही गम्भीर विश्लेषण और गम्भीर प्रतिक्रिया की जरूरत है । आम तौर पर ऐसा हो भी रहा है । इसके सम्मुख जो वैचारिक माहौल बन रहा है उसे लेखक ने उदार लोकतांत्रिक ग़णतंत्र की विभिन्न किस्मों का नाम दिया है । लेकिन यह वैचारिकी पूंजीवाद को समझने और उससे पैदा सामाजिक व्याधियों का समाधान करने में अक्षम साबित हुई है । गणतंत्रवाद के नये रूप की कल्पना इस किताब में प्रस्तुत की गयी है इसलिए लेखक ने इस मामले को थोड़ा विस्तार से समझाया है । समाज सिद्धांत की दुनिया में आम तौर पर उदारवाद, लोकतंत्र और गणतांत्रिकता को भिन्न और आपस में असंगत समझा जाता रहा है । वर्तमान संदर्भ में गणतांत्रिकता को दो दावों के अर्थ में देखे जाने की जरूरत लेखक को लगती है । पहला कि संप्रभुता को किसी बादशाह या किसी कुलीन तबके के मुकाबले आम जनता में निहित माना जाए । इस जनता को लेखक ने सामाजिक अंत:क्रिया में संलग्न सामाजिक व्यक्तियों का समूह समझा है । दूसरा कि व्यक्ति बिना किसी की अधीन हुए अपनी पसंद का जीवन जीने के लिए स्वतंत्र हो । आधुनिक चिंतन में इस गणतांत्रिकता के अनेक रूप रहे हैं । उदाहरण के लिए हाब्स ने प्राधिकारी गणतांत्रिकता का पक्ष लिया लेकिन लाक की उदार गणतांत्रिकता में समाज द्वारा सरकार को प्रदत्त अधिकारों से समाज को सुरक्षित रखा जाना था । सरकार के विभिन्न अंगों में राजनीतिक सत्ता के विकेंद्रीकरण को इसी आधार पर उचित माना जाता है और निर्वाचित निकाय को कानून निर्माण की ही शक्ति प्रदान की गयी । अभिव्यक्ति की आजादी, एकत्र होने की आजादी, धर्म का पालन करने की आजादी, संपत्ति के स्वामित्व की आजादी और संविदा की आजादी समेत सभी नागरिक अधिकारों को शासन के दबदबे के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण के रूप में ही देखा जाता है । इसमें लोकतंत्र का तत्व दोनों ही प्रकार की गणतांत्रिकता से इस नयी धारणा को अलगा देता है । इन गणतांत्रिक सोचों में जनता के भीतर राजनीतिक समुदाय के सभी सदस्य शामिल हैं । उनमें वर्ग, नस्ल, लिंग, जातीयता आदि के आधार पर कोई भी विभाजन नहीं किया जाता । राजनीतिक नागरिकता की इस समानता का अर्थ सामाजिक आजादी की कान्टीय धारणा का विस्तार भी है । कान्ट की धारणा के मुताबिक गणतांत्रिकता का अर्थ अपने लिए खुद ही बनाये कानूनों के अधीन रहना है । कान्ट उस तार्किक समझौते को खुशी से स्वीकार कर लेते हैं जिसके तहत अत्यंत सीमित मताधिकार के आधार पर निर्वाचित विधायिका कानून बनाती है और उसे उतनी ही कम जवाबदेह कार्यपालिका लागू करती है । इसके विपरीत लोकतंत्र के पक्षधर कहते थे कि अपने ऊपर शासन का मतलब सार्विक मताधिकार पर आधारित चुनाव से आये लोगों को ही राजनीतिक सत्ता सौंपी जा सकती है और इसी आधार पर उनसे यह सत्ता वापस भी ली जा सकती है । इसके अलावे राजनीतिक नागरिकता की औपचारिक समानता ही पर्याप्त नहीं है । व्यक्तियों को इस सामाजिक दुनिया में भी बराबरी चाहिए जिसका मतलब है आजादी के साथ विकसित होने और बुनियादी मानव क्षमताओं को बरतने का उचित अवसर उपलब्ध होना । इसके लिए शिक्षा, आवास, सेहत, रोजगार आदि का भी सार्वभौमिक अधिकार होना चाहिए ।

उदार लोकतांत्रिक गणतांत्रिकता के समर्थक कहते हैं कि पूंजीवादी बाजार समाजों में आजादी के रूप सैद्धांतिक तौर पर तो मौजूद हैं । कारण कि जब तक सबको मनोनुकूल काम करने के अधिकार का सम्मान है तब तक व्यक्तियों को अपने मकसद, उसके लिए जरूरी कौशल, उस कौशल के लिए उपयुक्त रोजगार, मनपंसद जीवन जीने के लिए आवश्यक सामान, आमदनी से बचत की मात्रा तथा इस बचत के निवेश आदि के बारे में फैसला का हक होता है । हालांकि पूंजीवादी बाजार समाज बहुतेरा अपने सदस्यों को ये अधिकार नहीं प्रदान करते लेकिन उदार लोकतंत्र के विश्वासी बौद्धिक इसे उन समाजों का अंतर्निहित गुण मानने की जगह अपवाद और आपदधर्म मानते हैं । इसी मामले में यह व्यवस्था दास प्रथा, सामंतवाद या नौकरशाही के नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था से अलग मानी जाती है । उनका यह भी मानना है कि पूंजीवादी बाजार समाज में उत्पादक गतिशीलता होती है । बाजार की होड़ और उसके लाभ का लोभ उत्पादकों को सामान्य लोगों की जरूरत की वस्तुओं को उनकी हैसियत के मुताबिक कीमत पर बनाने और बेचने के लिए मजबूर करते हैं । नतीजा यह कि उत्पाद की दर और उसकी प्रक्रिया में नयापन अभूतपूर्व हो गये हैं । इसी वजह से भौतिक समृद्धि भी पहले के सभी युगों से अधिक है तथा मनुष्य का जीवन दीर्घतर और बेहतर हुआ है । उनको लगता है कि अन्य कोई व्यवस्था मनुष्य के लिए इतनी खुशहाली नहीं ला सकती थी । लेकिन ये लोग भी पूंजीवाद के पक्ष में ढोल नगाड़ा नहीं बजा रहे हैं । इन्हीं बौद्धिकों ने बहुसंकटग्रस्ति और भयावह खतरों की बात उठायी है । उन्हें उदार लोकतांत्रिक गणतांत्रिकता के बुनियादी मूल्यों को भी खतरा महसूस हो रहा है । इसके बावजूद उनको लगता है कि पूंजीवादी बाजार इन अनचाहे और अस्वीकार्य नतीजों को काबू कर लेगा । मसलन मार्टिन वोल्फ़ निश्चिंत भाव से केवल सफल अर्थतंत्रों की जगह सारे संसार में निवेश की वकालत कर रहे हैं ताकि धरती के अस्तित्व पर आसन्न गंभीर चुनौतियों का मुकाबला किया जा सके और अर्थतंत्र में सुधार किया जा सके साथ ही वे आजकल की नयी असुरक्षाओं के कारण नये किस्म के सामाजिक बीमा की वकालत भी करते हैं । रोजगार छिनने, उद्यम बरबाद होने के अलावे सेहत की खराबी इस समय की नयी असुरक्षा को जन्म दे रहे हैं । इसके अतिरिक्त वे सामाजिक और राजनीतिक नयेपन की वकालत करते हैं । उनके मुताबिक बीसवीं सदी के मध्य में ऐसा नयापन किया गया था ।

इन सभी कामों को बाजार के भरोसे नहीं किया जा सकता । सरकारों को ही इन मामलों में नीति बनानी होगी । उदाहरण के लिए जलवायु संकट के क्षेत्र में वैज्ञानिक खोज में निवेश बढ़ाना, नयी तकनीकों को लागू करने में आर्थिक सहायता, पूरक तकनीक को करके सिखाने में निवेश, जीवाश्म ईंधन को सहायता बन्द करना, कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कार्बन को कीमती बनाना तथा कई विकासशील देशों में वित्त को सुरक्षित रखना जरूरी होगा । वोल्फ़ को दुख है कि इस मामले में वैश्विक उथल पुथल को रोकने के लिए जितना काम करने की जरूरत है उतना करने लायक नीतियों के निर्माण में ढिलाई बरती जा रही है ।

इन बौद्धिकों में इस बात को लेकर मतभेद है कि आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करने वाली नीतियां बनाने में सरकार को किस हद तक छूट दी जाय । मध्यमार्गी उदारवादी लोग बाजार को प्रेरित करने वाली नीतियों को बनाने के पक्ष में हैं तो इनसे अधिक वामपंथी लोग ग्रीन न्यू डील हेतु राजकीय सहायता, सबके लिए रोजगार तथा निश्चित न्यूनतम आय की बात करते हैं । इनके समर्थक और साथ ही इनके आलोचक भी इन्हें समाजवादी कहते हैं । लेकिन ये लोग भी बाजार आधारित पूंजीवाद से परे नहीं जाना चाहते । मध्यमार्गी उदारवादियों की तरह ही ये भी बाजार पूंजीवाद का स्वीकार्य रूप ही स्थापित करना चाहते हैं । दोनों ही समकालीन पूंजीवाद के रक्षणीय पहलुओं की रक्षा के लिए प्रतिक्रियावाद विरोधी जरूरी राजनीतिक ताकतों को गोलबंद करना चाहते हैं । साथ ही वे उदार लोकतांत्रिक गणतांत्रिकता के अधूरे कामों को भी पूरा करना चाहते हैं ।

लेखक का मानना है कि पूंजीवाद के स्वीकार्य रूप की स्थापना असम्भव है । इसका मतलब यह नहीं कि पूंजीवाद में सही निर्णय लेने वाले, बेहतर नीतियों वाले या नैतिक लोग होते ही नहीं । कभी कभी ऐसे लोग शासन में भी आ जाते हैं जो सत्ता का उपयोग लोगों की भलाई के लिए ईमानदारी से करना चाहते हैं । फिर भी पूंजीवादी बाजार समाजों के मूल्यांकन के मकसद से यह बात बेमतलब की है । असल सवाल मानव मुक्ति के विरुद्ध कार्यरत बुनियादी ढांचों और प्रमुख प्रवृत्तियों का है । उदारवादी भलेमानुस लोग पूंजीपति वर्ग को वह ताकत प्रदान करते हैं जो उनके ही लक्ष्य के विपरीत काम करना चाहती है । पूंजीवाद का इतिहास ही खुली विषमता, दमन, बढ़ते उत्पीड़न और शोषण का रहा है । बीच बीच में जरूर ऐसे लमहे आये हैं जब सुधार के लिए संघर्षरत प्रगतिशील आंदोलन भी उठते रहे और इनके कारण उदार लोकतांत्रिक गणतांत्रिकता का मुक्ति का वादा क्रूर मजाक में तब्दील होने से कुछ हद तक बचा रहा । इन सभी आंदोलनों से जो भी सुधार लागू हुए उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर बारम्बार विषमता, उत्पीड़न, दमन और शोषण के नये नये रूप प्रकट होते रहे । जब भी आर्थिक हालात या सामाजिक शक्ति संतुलन में बदलाव आया तो इन सुधारों को तुरंत उलट दिया गया । वैसे भी इन सुधारों ने कुछ ही लोगों के हालात बेहतर किये और नीचे तक पहुंचने में एकदम नाकाम रहे । इसी कारण इन सभी सुधारों के बावजूद समाज में समता नहीं आ सकी और सामूहिक स्वशासन सपना ही बना रहा ।

मध्यमार्गी उदारवादियों और सामाजिक जनवादियों ने पूंजीवाद के तहत संपत्ति और उत्पादन संबंधों को जिस तरह परिभाषित किया है उसके बारे में किताब के दूसरे अध्याय में ठीक से विचार किया गया है । इन संबंधों की तेजी का कारण जो तकनीकी गतिशीलता रही है और जिसने पूंजीवादी बाजार समाजों को बल प्रदान किया है उसके कारण ही इन समाजों की आर्थिक गतिशीलता बाधित हो रही है । यही गुत्थी इन समाजों की सामाजिक रुग्णता में व्यक्त हो रही है । सर्वाधिक मूलगामी सुधार भी इससे पार पाने में सक्षम नहीं नजर आते । विश्व इतिहास के जिस क्षण विशेष में हम रह रहे हैं उसकी चुनौतियों से पार पाने में अगर पूंजीवादी ढांचे के भीतर सर्वाधिक प्रगतिशील कदम भी अपर्याप्त हो गये हैं तो उत्तर पूंजीवादी वैकल्पिक ढांचे पर ही उम्मीद लगायी जा सकती है ।

इस सिलसिले में लेखक ने समाजवादी प्रयोगों का सर्वेक्षण किया है । उनका कहना है कि बीसवीं सदी में दुनिया भर के लाखों लोगों ने सोवियत समाजवाद के बारे में माना कि यह बाजार आधारित पूंजीवाद से आगे का भविष्य है । यही उम्मीद आज की तारीख में चीनी समाजवाद से लगायी जा रही है । सोवियत संघ की उपलब्धियों में कोई संदेह नहीं है । खासकर दूसरे विश्वयुद्ध में फ़ासीवाद की पराजय में उसका योगदान अविस्मरणीय है । इसी तरह चीन में भी वैज्ञानिक और तकनीक के मोर्चे पर अपार सफलता मिली है । इसके बावजूद इस किताब का कहना है कि राजकीय समाजवाद पूंजीवादी बाजार समाजों का स्वीकार्य विकल्प नहीं पेश कर सकता । असल में राजकीय समाजवाद में सत्ता पर काबिज नौकरशाह टोली विस्तार से केंद्रीय स्तर पर आर्थिक योजना बनाती है । सामाजिक उत्पादन के इस रूप की आलोचना में लेखक को सचाई महसूस होती है । स्थानीय प्रबंधक अपने इलाके की जरूरत को बढ़ाकर और अपनी उत्पादकता को घटाकर बताते हैं । केंद्र की योजना में इसके कारण गड़बड़ी पैदा होती है । नीचे के लोग नयापन लाना नहीं चाहते क्योंकि सफलता का सारा श्रेय केंद्र लेना चाहता है तथा विफलता का सारा दोष नीचे वालों पर मढ़ देता है । मजदूरों की भागीदारी उत्पादन के फैसलों में नहीं होती इसलिए वे अपनी ओर से कोई कोशिश नहीं करते । कम उत्पादन होने से उनको कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि केंद्र सारी जिम्मेदारी लेता है । केंद्र अगर मशीन या हथियारों में निवेश को प्राथमिकता देता है तो उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन की कमी से गृहस्थों को झेलना पड़ता है ।

इसी तरह की एक और व्यवस्था आर्थिक वृद्धि के लिए और तकनीक के मामले में आगे बढ़ने के लिए बाजार की ताकतों को मुक्त करने का प्रयास करती है । बाजार को काबू में रखने के लिए महत्वपूर्ण उद्यमों को सरकारी स्वामित्व में रखा जाता है, क्षेत्र विशेष या किसी सेक्टर में निवेश का फैसला केंद्रीय बैंक के निर्देशानुसार या आर्थिक सहायता और नियमन के आधार पर लिया जाता है । सोवियत संघ के आखिरी दशकों में जो ठहराव आ गया था उससे बचने के लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी निजी पूंजी का विदेशी प्रत्यक्ष निवेश भी ले आती है लेकिन साथ ही अर्थतंत्र के औद्योगिक और वित्तीय क्षेत्र में सर्वोच्च स्तर पर सरकारी नियंत्रण बनाये रखती है । इस तरह की रणनीति के समर्थकों के अनुसार उत्पादक शक्तियों का विकास अभी उस स्तर पर नहीं हो सका है कि समाजवाद की स्थापना घोषित कर दी जाय । इनमें समाजवाद की प्रमुखता है जिसका लक्षण मात्रात्मक और गुणात्मक स्तर पर राजकीय स्वामित्व की प्रमुखता, वित्त में सरकारी हिस्से की बहुतायत, योजना और पार्टी की सत्ता है । समाजवादी आर्थिक व्यवस्था को परिभाषित करने के मामले में ये लोग उत्पादन के प्रमुख साधनों के राजकीय स्वामित्व को विस्तारित करना चाहते हैं और उसके तहत राजकीय क्षमता की धारणा प्रस्तुत करते हैं जिसके तहत अनेक क्षेत्र शामिल हो सकते हैं । कम्युनिस्ट पार्टी की क्षमता में बढ़ोत्तरी को ये लोग समूची मानवता के लिए लाभप्रद विश्व व्यवस्था की स्थापना में देखते हैं ताकि पर्यावरणिक विध्वंस से मानवता को बचाया जा सके ।

राजकीय समाजवाद के इस प्रयोग में चूंकि बाजार का व्यापक इस्तेमाल होता है इसलिए बाजार समाजवाद की आलोचना लेखक को जरूरी लगती है । शक्तिशाली और जवाबदेहीविहीन नौकरशाही द्वारा निर्देशित इस प्रयोग के सिलसिले में लेखक ने सबसे पहले मार्क्स के तर्कों को देखा है । हेगेल की आलोचना करते हुए मार्क्स ने हेगेल द्वारा जवाबदेहीविहीन सरकारी नौकरशाही को समुदाय की भलाई की खास जानकारी के आधार पर सार्वभौमिक वर्ग मानने की प्रवृत्ति पर हमला बोलते हुए कहा कि अपार आंकड़े जुटा लेने के बावजूद यह जानकारी किसी भी समूह का निजी खजाना नहीं होती । समूचे समुदाय की भलाई के लिए समस्त समुदाय की भागीदारी के साथ सामूहिक प्रक्रिया अपनाने की जरूरत होती है । जब सरकारी नौकरशाही इस प्रक्रिया में सार्वभौमिक कल्याण की शक्ति का दावा करते हुए दखल देती है तो जिस समाज के नाम पर यह शासन करती है उसके लिए बाहरी ताकत हो जाती है । इसके बाद अपनी वैधता को और सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने के नाम पर वह सामाजिक जरूरत को पूरा करने का ढोंग तो करती है लेकिन उसका असली सामाजिक मकसद अपनी सत्ता की रक्षा और उसका विस्तार हो जाता है । मार्क्स के परवर्ती लेखन से भी पता चलता है कि उनकी यह आलोचना प्रशियाई नौकरशाही के प्रसंग में हेगेल और उनके रुख तक ही सीमित नहीं थी । पेरिस कम्यून का पक्ष लेते हुए भी उन्होंने पुलिस को सरकार का एजेंट बनाये रखने के बरक्स कम्यून द्वारा जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के तथ्य पर बल दिया । प्रशासन की सभी शाखाओं को भी कामगार के वेतन पर सबके लिए सुलभ बनाने का कदम भी उनकी तारीफ का बायस बना । इस तरह सरकारी कामकाज केंद्रीय सरकार की निजी संपत्ति नहीं रह गये ।

नौकरशाही पदानुक्रम पर आधारित जवाबदेहीविहीन व्यवस्था मार्क्स की कल्पना का सामाजिक संगठन नहीं हो सकती भले ही उसके पदाधिकारी समाजवाद का कितना भी नाम लें । मार्क्स तो हमेशा यही मानते रहे कि पूंजीवादी बाजार समाजों का कोई सच्चा विकल्प मजदूर वर्ग की आत्ममुक्ति पर ही आधारित हो सकता है । दूसरों द्वारा निर्णीत केंद्रीय योजना को थोपना मजदूरों को अधीनावस्था में ले आती है । बाजार को शरीक करने वाली योजना भी यही काम करेगी । कार्यस्थल पर पूंजीपतियों के दबदबे का समाधान न खोजने के कारण अगर उदारवादी लोगों के नुस्खों को खारिज करना जरूरी है तो उसके विकल्प के नाम पर प्रभुता की किसी दूसरी व्यवस्था को भी मंजूर करना ठीक नहीं होगा । सामाजिक जीवन में राजकीय नौकरशाही की भूमिका जितनी अधिक होगी उतनी ही कम जगह मजदूरों की आत्ममुक्ति के लिए रहेगी । पूंजीवाद के आगे की मंजिल का सूचक महज आर्थिक वृद्धि या उत्पादक शक्तियों के विकास में तथाकथित बाधा पर विजय होगा । पूंजीवाद को उसकी ही शर्तों पर पराजित करके उसका विकल्प नहीं बनाया जा सकता ।

राजकीय समाजवाद की इस आलोचना का तात्पर्य है कि उदारवाद को पूंजीवाद की वैचारिक अभिव्यक्ति कहकर ही खारिज नहीं किया जा सकता । उसमें थोड़ी बहुत सचाई का भी अंश है । किताब का कहना है कि मानव इतिहास में पूंजीवाद से आगे की किसी भी सामाजिक व्यवस्था में उदारवाद की विसंगतियों से किनारा करते हुए उसके मुक्तिकारी वादे को अंगीकृत करना होगा । उदारवाद की विसंगति से राजकीय समाजवाद परहेज तो कर ले जाता है लेकिन उसके मुक्तिकारी वादे को नहीं अपनाता । पूंजीवाद का कोई बेहतर विकल्प बेहतर गणतांत्रिकता का भी पक्षधर होना चाहिए । शासक कुलीनों या प्राकृतिक शासकों की जगह जनता में निहित प्रभुसत्ता की धारणा में पूंजीवादी सोच अनिवार्य रूप से मौजूद नहीं है । यह भी पूंजीवादी धारणा नहीं है कि जनता के भीतर वर्ग, नस्ल, लिंग, जातीयता या ऐसे ही विभाजनों से परे राजनीतिक समुदाय के सभी लोग शरीक हैं । यह भी कोई पूंजीवादी बात नहीं है कि सामाजिक आजादी का मतलब अपने ही बनाये कानूनों से शासित होना है । इसमें भी कोई पूंजीवादी बात नहीं है कि सामाजिक आजादी का मतलब व्यक्तियों को किसी की प्रभुता के बिना अपने पसंद का जीवन जीने का अधिकार होता है । यह तो एकदम ही पूंजीवाद नहीं है कि कुछ लोगों के हाथ में सामाजिक सत्ता का अतिशय संकेंद्रण मुक्त समाज के साथ मेल में नहीं होता या सार्विक मताधिकार, बोलने और एकत्र होने की आजादी तथा धर्म का पालन करने या संपत्ति के स्वामित्व का अधिकार सार्थक चीजें हैं । इसमें भी पूंजीवाद नहीं है कि समाज का अंतिम लक्ष्य जिनसे उसका गठन हुआ है उनकी खुशहाली है या शिक्षा, आवास, सेहत, संतोषजनक काम और आराम की सुविधा आदि मनुष्य की खुशहाली के लिए जरूरी हैं । इनके लिए अतीत में हुए संघर्ष मुक्ति के संघर्ष रहे हैं और अगर उनमें हार मिली है तो उस पर फिर से विचार किया जाना चाहिए ।