Monday, October 27, 2025

रूसी क्रांति का लाल तारा

 

                     

                                          

2017 में लेफ़्टवर्ड से विजय प्रसाद की किताब रेड स्टार ओवर द थर्ड वर्ल्डका प्रकाशन हुआ । किताब एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों में रूसी क्रांति के विस्तार का विवेचन है । किताब में कहानी 1917 से शुरू होती है जब रूसी साम्राज्य के एक छोर से दूसरे छोर तक तनाव फैल गया था । सीमा पर सैनिकों को लड़ाई का कोई अंत नजर नहीं आ रहा था । मजदूरों और किसानों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया था । विभिन्न समाजवादी समूह लोगों के बीच जारशाही के विरोध में प्रचार चला रहे थे । मार्च के शुरू में ईंधन की कमी के चलते ब्रेड तैयार नहीं हो सकी । कारखानों में लोगों को भूखे जाना पड़ा । हालात के विरोध में सूती मिल के स्त्री कामगारों ने हड़ताल कर दी । 8 मार्च का दिन था । अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के जुलूस में बच्चों के लिए ब्रेड और सीमा से सैनिकों की वापसी के नारे लगे । इन्हीं स्त्री कामगारों ने रूसी क्रांति की शुरुआत की थी । क्रांति के कारण जिस सोवियत संघ की स्थापना हुई थी उसे बिखरे हुए भी तीन दशक गुजर चुके ।

इसके बावजूद रूसी क्रांति के निशानात मौजूद हैं । ये निशानात रूस के साथ ही समूची दुनिया में मौजूद हैं । क्यूबा से वियतनाम तक और चीन से दक्षिण अफ़्रीका तक रूसी क्रांति की प्रेरणा पहचानी जा सकती है । इस क्रांति ने साबित कर दिया था कि किसान और मजदूर न केवल दोस्त हो सकते हैं बल्कि अपनी आकांक्षा के अनुरूप सरकार भी बना सकते हैं । लोकप्रिय विक्षोभ को दिशा देने वाली राजनीतिक पार्टी की जरूरत भी इसने सिद्ध कर दी । इसी प्रेरणा के चलते तीसरी दुनिया के देशों में चलने वाले लगभग सभी उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के साथ मार्क्सवाद का घनिष्ठ रिश्ता बना । विकसित देशों में भी फ़ासीवाद विरोधी गोलबंदी में इस क्रांति ने निर्णायक भूमिका निभाई । खुद रूसी क्रांति के नेताओं ने भी दुनिया के अलग अलग देशों के हालात का अध्ययन करके उनके मुताबिक क्रांतिकारी रणनीति विकसित करने में व्यक्तिगत रुचि ली थी । क्रांति के बाद जो भी विदेशी पत्रकार लेनिन से मिलने गए उनसे उन्होंने उनके देश के बारे में सवालों की झड़ी लगा दी । पत्रकारों की धारणा बनी कि वे कुछ भी छिपाते नहीं ।

साम्राज्यवादी देशों की क्रांति विरोधी सेनाओं से लड़ाई चल रही थी । भुखमरी और दरिद्रता की पुरानी समस्याओं पर काबू नहीं किया जा सका था । नई सत्ता से अपेक्षाओं की बाढ़ आई थी और लोगों का धीरज समाप्त हो रहा था । अपेक्षा पूरी न होने से निराशा भी फैल रही थी । लेनिन ने यह सब खुलकर बताया । जर्मन लोगों से उनकी क्रांति की विफलता पर झुंझलाते । जर्मनी में नाविकों ने विद्रोह किया और सोवियतों का भी गठन कर लिया । रूस की तरह ही उन्होंने भी रोटी और शांति को अपना नारा बनाया । क्रांतिकारी जोश के चलते कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना भी हुई । जनवरी 1919 में बर्लिन की सड़कों पर क्रांतिकारी सरकार की घोषणा करने के लिए एकत्र भी हुए लेकिन रूस की तरह वे आम जनता में नहीं गए और सरकार के प्रति निष्ठावान बने रहे । दस दिन बाद रोजा और लीबक्नेख्त की हत्या हो गई और क्रांति की भ्रूणहत्या हो गई । अगर एक और यूरोपीय देश मुक्त हो गया होता तो रूस की घेरेबंदी ढीली पड़ती ।

एक जापानी पत्रकार ने जब पूछा कि क्रांति सफल पश्चिम में होगी या पूरब में तो तत्काल उत्तर देने की जगह सोच में पड़ गए । पुरानी धारणा के अनुसार उन्हें लगता था कि साम्यवाद पश्चिम में ही सफल होगा लेकिन तीसरी दुनिया के हालिया विद्रोहों को देखते हुए और साम्राज्यवाद संबंधी अपने अध्ययन के चलते लगा कि पूरबी उपनिवेशों के शोषण से वे अपने देश की अंदरूनी समस्याओं को हल कर पा रहे हैं । साथ ही देखा कि उपनिवेशों को हथियारबंद करके और उन्हें लड़ना सिखाकर अपनी कब्र भी खोद रहे हैं ।

रूसी क्रांति मानवता के इतिहास में सबसे बड़ी घटना थी । किसानों और मजदूरों का राज असम्भवप्राय स्वप्न था । जार के शासन को ही उखाड़ फेंकना पर्याप्त नहीं था । उसके शासन के विरुद्ध फ़रवरी 1917 की क्रांति के लिए भारी बलिदान देना पड़ा था । इस क्रांति से उपजी बुर्जुआ सत्ता नाकाफी थी । मजदूरों और किसानों के नारों में उनके जिन सपनों को स्पष्ट किया गया था उनका गला ही नयी सत्ता घोट देने वाली थी । वह युद्ध को समाप्त करने और लोगों को जमीन सौंपने नहीं जा रही थी । लोगों की जरूरी चाहतों को वह अपना लक्ष्य कभी नहीं बनाने वाली थी । इसी वजह से अक्टूबर-नवम्बर में दूसरी क्रांति हुई और सोवियतों ने सत्ता पर कब्जा कर ही लिया । दुनिया के अभागों नेas अम्भव को सम्भव कर दिया । देश का शासन उसके कामगार भी चला सकते हैं । इससे भी महत्व की बात थी कि सोवियत संघ ने अपने ही नागरिकों के हितों को बुलंद करने की जगह विश्व समाजवाद के हितों को बुलंद करने की घोषणा की । इसी आधार पर कोमिंटर्न का गठन हुआ ।

दुनिया भर में क्रांतिकारी शक्तियों को मदद देना और निर्देशित करना कोमिंटर्न ने अपनी जिम्मेदारी बतायी । उन्हें आपस में जोड़ना और उनकी शिकायतों तथा मांगों को स्वर देना भी उसने अपनी जिम्मेदारी मानी । रूसी क्रांति जारशाही से पीड़ित लोगों की पहल तो थी लेकिन इसने अपने लिए वैश्विक कार्यभार तय किया । मानव इतिहास में कामगारों का शासन पर कब्जा हो इसके बेहद कम नमूने मिलते हैं । राजा रानी इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं । 1789 की फ़्रांसिसी क्रांति ने सबसे पहले इस चलन को तोड़ा । सामान्य जनता ने भूख और युद्ध से परेशान होकर शासन की बागडोर अपने हाथ में ली । स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व उनका नारा था । रूसी क्रांति की तरह ही फ़्रांसिसी क्रांति की भी अनुगूंज बहुत दूर तक सुनायी पड़ी थी । स्पेनी भाषी एक द्वीप में फ़्रांसिसी बगान मालिक के विरुद्ध गुलामों ने विद्रोह कर दिया । यह पहला गुलाम विद्रोह था जिसमें गुलामों ने राज्य स्थापित करने में सफलता पायी । फ़्रांस और हैती की अठारहवीं सदी की इन क्रांतियों से रूसी क्रांति का सीधा रिश्ता था । इन विद्रोहों ने शासकों के दैवी प्रभामंडल को तार तार कर दिया । अब सामान्य लोग भी शासन कर सकते थे ।

लेकिन एक अंतर भी था । अठारहवीं सदी की क्रांतियां पूंजीवाद के आरम्भिक रूपों के विरोध में हुईं । तब संपत्ति को पूंजी की शक्ल मिलनी शुरू हुई थी और उद्योग का जन्म हो रहा था । आर्थिक गतिविधियों में व्यापारियों का दबदबा था । इन क्रांतियों के दशकों बाद उपनिवेशवाद, गुलामी और व्यापार का लाभ उद्योगपतियों को बड़े पैमाने पर मिला । इसी अपार मुनाफ़े के बल पर वस्तुओं और सेवाओं का पुनर्गठन हुआ । विज्ञान और तकनीक का बेहतर इस्तेमाल करते हुए खेती से उखड़े कामगारों को लगाकर उद्योगपतियों ने कारखाना आधारित उत्पादन शुरू किया और संपत्ति तथा सत्ता पर कब्जा मजबूत बनाया । अब इनका नियंत्रण अर्थतंत्र के साथ साथ राजनीति पर भी हो चला । इस प्रक्रिया के आरम्भ में संपन्न फ़्रांस और हैती की क्रांतियों में साधारण लोगों ने तानाशाही तो उखाड़ फेंकी लेकिन इतिहास को मनोवांछित शक्ल देने में कामयाब न हो सके । फ़्रांस की क्रांति का लाभ पूंजीपति वर्ग को मिला । हैती की क्रांति का गला घोटने के लिए अमेरिका ने उस पर पाबंदी लगायी । अमेरिका को डर था कि इससे अमेरिका की दास प्रथा को धक्का लगेगा । इसलिए जेफ़रसन ने हैती के साथ किसी भी किस्म के व्यापार पर रोक लगा दी । इसका मकसद गुलामों के उस गणतंत्र को खत्म करना था । यही काम डेढ़ सौ साल बाद फिर अमेरिका ने किया जब उसने क्यूबा पर पाबंदी लगायी । इसका भी सीधा मकसद अमेरिकी इलाके में रूसी क्रांति के प्रभाव को रोकना था ।

तकनीक और उत्पादन के क्षेत्र में पूंजीवादी प्रतियोगिता ने तेज रफ़्तार से प्रगति की । वस्तुओं का जखीरा लग गया जबकि कामगारों की आमदनी बेहद कम रही । इससे अति उत्पादन और अल्प उपभोग की समस्या सामने आयी । कामगार ढेर सारी वस्तुओं को पैदा तो कर रहे थे लेकिन उन्हें खरीदने के लिए उनके पास धन नहीं था । एक के बाद एक संकटों की बाढ़ आ गयी । पूंजीवाद के इस संकट पैदा करने वाले स्वभाव को मार्क्स ने अपने ग्रंथों में उजागर किया । पूंजीवाद का अभिलक्षण भयावह उत्पादकता और खतरनाक अस्थिरता नजर आयी । विराट सभयता को जन्म देने के लिए उसने कामगारों को दरिद्र बना दिया लेकिन इसी वजह से उसकी जीवनक्षमता भी नष्ट हुई । इन संकटों को हल करने के क्रम में उपनिवेशों और बाजार पर कब्जा कायम रखने के लिए सेनाओं का विस्तार हुआ  और युद्ध रोजमर्रा की बात हो गये । कामगारों में भुखमरी फैली और पूंजीपति छप्पन भोग उड़ाते रहे । इसी संदर्भ में फ़्रांस और हैती की क्रांतियों की प्रेरणा से औद्योगिक केंद्रों में मजदूर आंदोलन और उपनिवेशों में किसान-मजदूर आंदोलन पैदा हुए । ये आंदोलन ही अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद के केंद्रक बने ।

प्रथम विश्वयुद्ध ने समाजवादी आंदोलन की रफ़्तार को तेजी दी । मार्क्सवादियों ने इसके बारे में दुनिया को अराजकता में झोंक देने वाले इस युद्ध के लिए साम्राज्यवाद जिम्मेदार है । पूंजीवादी देशों के शासक वर्गों ने सारे संसार के मानव श्रम और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण से मुनाफ़ा कमाने के लोभ के कारण यह हालत बनायी है । उन्होंने मजदूर वर्ग से इस युद्ध का विरोध करने और अपने सपनों का समाज बनाने की गुजारिश की ।

युद्ध के अंतर्विरोधों ने रूस में गम्भीर संकट पैदा कर दिया । 8 मार्च 1917 को महिला दिवस के अवसर पर कामगार स्त्रियों के प्रदर्शन ने अफरा तफरी पैदा कर दी । दस साल पहले ही समाजवादी स्त्रियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन ने दुनिया भर में इस तारीख को महिला दिवस मनाने का फैसला किया था । पेत्रोग्राद की शाखा ने स्त्री कामगारों से हड़ताल करने का आवाहन किया था । इसके लिए जो पर्चा निकाला गया था उसमें आस्ट्रियाई और जर्मन कामगारों के कत्ल के औचित्य पर सवाल खड़ा किया गया था । युद्ध के मोर्चे पर अपने प्रिय लोगों को भेजने के फैसले को बेकार कहा गया था । कहा गया था कि उन्हें आपस में लड़ने और एक दूसरे की गर्दन काटने के लिए मजबूर किया गया है । युद्ध को पूंजीपतियों के लिए लाभकर भी बताया गया था । युद्ध से उन्हें अमीर होते दिखाया गया था और साथ ही इसका समूचा खर्च मेहनत करने वालों से वसूल किये जाने की भविष्यवाणी की गयी थी । इस अन्याय को खामोश रहकर बरदाश्त करने का विरोध भी इस पर्चे में किया गया था । सरकार को इस युद्ध को शुरू करने और सब पर भुखमरी थोप देने का आरोप लगाया गया था ।

आवाहन करने वालों को इतने भारी समर्थन की उम्मीद नहीं थी । हजारों स्त्रियां कारखानों से बाहर निकल आयीं । पुरुष कामगार और किसान भी उनके समर्थन में आ गये । सिपाही भी उनके साथ आ गये । उनको भी लगा कि यह युद्ध उनका नहीं है । उनका असली युद्ध तो अभिजात वर्ग और उनका तानाशाह शासन है । उनका मुकाबला करना होगा । महिला दिवस के दो दिन बाद पचास हजार मजदूर हड़ताल पर चले गये । रूस के इतिहास में इतना बड़ा प्रदर्शन कभी नहीं हुआ था । एक सप्ताह बाद ही 16 मार्च को सरकारी तंत्र पूरी तरह बैठ गया ।

मजदूरों में शासन करने का आत्मविश्वास बनाना था । यह आत्मविश्वास उनमें धीरे धीरे आया । पहले ल्वोव नामक एक कुलीन फिर केरेंस्की नामक वकील ने शासन संभाला । मजदूर चुप नहीं बैठे । क्रांति की ऊर्जा उन्हें टिकाये हुए थी । अस्थायी सरकार ने जब स्त्रियों को समान अधिकार के सवाल पर आगा पीछा किया तो अलेक्सांद्रा कोलंताई ने हालिया विद्रोह में महिलाओं की भूमिका की याद भी दिलायी । उनकी संयुक्त लड़ाई से हासिल अधिकारों से आधी आबादी को वंचित करने पर उन्होंने सवाल उठाया । समान अधिकारों के लिए 19 मार्च को स्त्रियों का प्रदर्शन हुआ और ये अधिकार उन्हें मिले भी । इसके बाद मजदूरों ने सोवियतों का गठन किया और दुहरी सत्ता कायम हुई । सोवियतों की सत्ता को जनता की ओर से वैधता मिली हुई थी । लेनिन ने मजदूरों की इस रचनात्मकता का स्वागत किया । जनता की इन संस्थाओं की मौजूदगी से दुहरी सत्ता की कल्पना किसी ने नहीं की थी । इसका मतलब था कि मजदूर केवल अस्थायी सरकार के निर्देशों से ही शासित होने को तैयार नहीं थे । उन्होंने अपनी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए इन सोवियतों का निर्माण कर लिया था । व्यापारियों, उद्योगपतियों और बाबुओं की संसद के मुकाबले यह उनकी अपनी संसद थी । लेनिन ने इन सोवियतों को पेरिस के कम्यूनों का वारिस माना । इस तरह की संस्था का निर्माण ब्राजील के गुलामों ने भी विद्रोह के दौरान किया था । पूंजी के मालिकों की धौंस पर आधारित शासन के विपरीत गठित मजदूरों के शासन की इस तरह की संस्थाओं को उनकी चेतना की लोकतांत्रिकता समझा जाना चाहिए ।

इन मजदूरों को लेनिन के रूप में अपना सिद्धांतकार मिला । वे ध्यान से कारखाने और सड़क की हलचलों को सुनते थे और कार्यकर्ताओं से मजदूरों की मानसिकता भांपने की उम्मीद करते थे । अपनी पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं से उनका जीवंत सम्पर्क 1890 के बाद से ही बना हुआ था और उनके जरिए अपने काम की कमजोरी और सम्भावनाओं का उन्हें पता लगता रहता था । इस जमीनी जानकारी के आधार पर उन्हें नीति और सिद्धांत बनाने में सुविधा होती थी । इनके कारण ही फ़रवरी से अक्टूबर के बीच तेजी से बदलते हालात में उन्हें यथोचित फैसले लेने में आसानी हुई थी ।

रूस की खेती में पूंजीवाद के प्रवेश के अपने अध्ययन के कारण लेनिन को किसानों के वर्ग विभाजन के बारे में पता था । यह बात किसानों के बारे में रोमांटिक धारणा रखने वाले क्रांतिकारी स्वीकार नहीं करते थे । अस्सी फ़ीसद से अधिक किसान गरीब और भूमिहीन थे और उनके हालात सर्वहारा जैसे ही थे । रूसी आबादी के भारी हिस्से के हालात बता रहे थे कि वे मजदूर वर्ग की राजनीति का समर्थन ही करेंगे । मजदूरों और किसानों के आपसी संश्रय का यही सैद्धांतिक आधार था । बोल्शेविक पार्टी का यही प्रमुख राजनीतिक आयाम था । इस मोर्चे पर लेनिन अपना अध्ययन लगातार नवीकृत करते रहते थे ।

‘क्या करें’ और ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’  में लेनिन ने दो बातों पर जोर दिया था । सबसे पहली बात कि मजदूरों और ग्रामीण सर्वहारा की अनुशासित पार्टी का गठन जरूरी है । पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को लोगों के बीच रहने, उनका हौसला बढ़ाने और विक्षोभ के फूट पड़ने की स्थिति में तैयार रहने में मदद करती । स्वत:स्फूर्त विरोध प्रदर्शन में पार्टी के अनुभव और राजनीतिक स्पष्टता के कारण दमन के सामने भी हताशा नहीं व्याप्त होती । दूसरे कि मजदूरों और किसानों की क्रांतिकारी ऊर्जा को अपने लक्ष्य में समाहित करने हेतु पार्टी को तैयार रहना चाहिए । बहुतेरा ऐसा होता है कि जनता की भाषा बोलते हुए भी पार्टी के कार्यकर्ता मजदूरों और किसानों की सहजानुभूति से दूर चले जाते हैं । इस तरह मजदूरों के जुझारूपन से वे दगा कर बैठते हैं । अर्थ कि मजदूरों और किसानों की पार्टी को उनकी स्वत:स्फूर्तता के लिए तैयार रहना चाहिए । 1896 में जब कारखानों में हड़तालें फूट पड़ीं तो लेनिन ने कहा कि क्रांतिकारी लोग सिद्धांत और व्यवहार में इस उभार से पीछे रह गये । वे ऐसा संगठन नहीं कायम कर सके थे जो इस समूचे आंदोलन का नेतृत्व कर सकता । इस पिछड़ेपन पर काबू पाना उन्हें जरूरी लगा था । इसके लिए पार्टी को अनुशासित और केंद्रीकृत होने के साथ ही पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और समाजवाद की सैद्धांतिक समझ से लैस भी होना चाहिए । संगठित क्रांतिकारियों के बल पर उन्हें रूस को बदल देने का पक्का भरोसा था ।

साम्राज्यवाद संबंधी अध्ययन के बल पर लेनिन ने विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ रूस की जारशाही के गंठजोड़ को समझ लिया था । एकाधिकारी पूंजीवाद की जकड़ ने रूसी राज्य को बाहर से दबोच रखा था । अगर मजदूरों की सरकार बनती भी तो बिना इस एकाधिकारी पूंजीवाद का मुकाबला किये कोई वैकल्पिक कदम उठाना सम्भव नहीं था । जारशाही को उखाड़ फेंकना जरूरी तो था लेकिन पर्याप्त नहीं था । मजदूरों की सरकार को साम्राज्यवाद से लड़ना होता, उसकी जकड़ से आजाद होना होता और जनता की बेहतरी के लिए देश के भरपूर संसाधनों का इस्तेमाल करना होता । फ़रवरी क्रांति ने जार के शासन का अंत कर दिया था लेकिन केरेंस्की की सरकार ने साम्राज्यवाद को रियायत देना शुरू किया । असल में वह सरकार क्रांतिकारी प्रक्रिया की आत्मा से विश्वासघात कर रही थी । क्रांतिकारियों के सामने सवाल था कि वे क्रांति की इस बरबादी के मूक दर्शक बने रहें या साम्राज्यवाद से लड़ने को अनिच्छुक रूसी पूंजीपति वर्ग से इस क्रांति की रक्षा करने के लिए कुछ करें । लेनिन ने कहा कि मार्क्सवादियों का लक्ष्य मजदूरों के वास्तविक अनुभव से सीखना और इस तरह काम करना है कि मजदूरों और किसानों की सत्ता सामाजिक सत्ता में बदल जाए । इसके लिए फ़रवरी क्रांति को साम्राज्यवाद की सेवा में जुटे पूंजीपति वर्ग द्वारा कब्जा लिये जाने से बचाना होगा ।

7 अप्रैल को लेनिन की अप्रैल थीसिस सामने आयी । इसमें दस विंदुओं में जारशाही को समाप्त करने वाली जनता की भावनाओं को व्यक्त किया गया था । इसमें निहित सिद्धांत की वजह से बोल्शेविक पार्टी का नेतृत्व पक्का हो गया । अप्रैल से अक्टूबर के बीच उनकी सदस्य संख्या दस हजार से बढ़कर पचास हजार हो गयी । इनमें 1) विश्वयुद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध कहा गया । 2) क्रांति अब भी जारी है और सत्ता पूंजीवाद के हाथ से निकलकर मजदूरों और किसानों  के हाथ में आयेगी । 3) अस्थायी सरकार पूंजीपतियों की है इसलिए इसका समर्थन नहीं  करना होगा । 4) सोवियतों में बोल्शेविक अल्पसंख्या में हैं इसलिए उन्हें धीरज के साथ व्यवस्थित रूप से समझाना होगा कि अन्य पार्टियों ने गलती की है और कि समस्त सत्ता सोवियतों को सौंपने का समय आ गया है । 5) नयी सत्ता संसद में होने की जगह मजदूरों, किसानों और कृषि मजदूरों के प्रतिनिधियों की सोवियत में अवस्थित होगी । पुलिस, सेना और नौकरशाही का खात्मा कर दिया जाएगा । 6) सभी जागीरों पर कब्जा कर लिया जाएगा और जमीन का राष्ट्रीकरण होगा । 7) सभी बैंकों का विलय सोवियत नियंत्रित एक ही बैंक में कर दिया जाएगा । 8) समस्त सामाजिक उत्पादन और उसका वितरण सोवियत के नियंत्रण में होगा । 9) पार्टी की कांग्रेस होगी और उसका कार्यक्रम संशोधित होगा । 10) नये अंतर्राष्ट्रीय का गठन किया जाएगा ।

संदेश साफ था । सत्ता को वर्तमान शासक वर्ग के हाथ से निकलकर बहुसंख्यक मजदूरों और किसानों के हाथ में जाना था । सितम्बर 1917 तक मजदूरों में सत्ता पर कब्जा करने की अधीरता नजर आने लगी थी । मजदूरों और किसानों ने अपनी सोवियतों में अपनी सरकार बनाने के प्रस्ताव पारित किये । लेनिन ने विद्रोह को कला की संज्ञा दी । फ़रवरी क्रांति की रक्षा के लिए विद्रोह का समय आ गया था । जान रीड ने लिखा कि खाइयों, गांवों  की चौपालों और कारखानों, नाट्यगृह, सर्कस, स्कूल और छावनी तक में सभा, बहस और व्याख्यान लगातार चलते रहते थे । उन्होंने एक कारखाने का जिक्र किया है जिसके चालीस हजार मजदूर जो कोई बोलना चाहता उसे सुनने एकत्र हो जाते । साथ ही उनकी चाहत सोवियत गणतंत्र भी था । इसी चाहत का प्रतिफलन अक्टूबर क्रांति में हुआ ।                                                                             

सैनिक प्रतिनिधियों की कांग्रेस ने रूसी सोवियत कांग्रेस को पत्र लिखा कि इस समय जनता के प्रति जवाबदेह मजबूत और लोकतांत्रिक सत्ता की जरूरत है । बयान, भाषण और संसदीय वक्तृता बहुत देखी गयी । इसके लिए उन्होंने फ़रवरी क्रांति जैसी दूसरी क्रांति की भी मांग की । बोल्शेविक पार्टी में दाखिल हुई पेत्रोग्राद की कामगार स्त्रियों ने अक्टूबर 1917 में सम्मेलन किया । उसमें कामगारों के साथ जुझारू क्रांतिकारी स्त्रियां भी शामिल थीं । वे केरेंस्की सरकार को उखाड़ फेंकना चाहती थीं । जुलूस लेकर वे लेनिन से मिलीं और सत्ता संभालने की गुजारिश की । लेनिन ने मजदूरों से सत्ता संभालने की प्रार्थना की । अक्टूबर में यह दूसरी क्रांति संपन्न हुई । सोवियतों ने सत्ता पर कब्जा किया, पूंजीवादी संसद को भंग कर दिया और खुद को समाज का प्रशासक नियुक्त किया । लेनिन इस विजय समारोह के लिए पेत्रोग्राद सोवियत गये । उन्होंने सोवियत सरकार को मजदूरों की सत्ता कहा जिसमें पूंजीपतियों को कोई हिस्सा नहीं मिलना था । उत्पीड़ित जनता ने खुद को ही सत्ता के बतौर संगठित किया । पुरानी राजकीय मशीनरी को जड़ से समाप्त करना था और सोवियतों के रूप में नयी सत्ता की प्रशासनिक मशीनरी को स्थापित करना था । यही बात लेनिन ने ‘राज्य और क्रांति’ में कही थी ।

Saturday, October 18, 2025

राहुल की नजर में यूरोपीय दर्शन (साइंस की छाया में दर्शन)

 

                                                         

दर्शन दिग्दर्शन’ किताब की भूमिका में ही राहुल जी ने दर्शन के दो दौर गिनाये हैं । इसमें दूसरा दौर 1760 ईसवी के बाद का है जब आधुनिक आविष्कारों का सिलसिला शुरू होता है । इस दौर में उसकी बात की ओर लोगों का ध्यान तभी खिंचता है जब कि वह प्रयोगआश्रित चिंतन-साइंस- का पल्ला पकड़ता है ।  

‘दर्शन दिग्दर्शन’ में यह तीसरा प्रकरण यूरोपीय दर्शन का है । इस प्रकरण की खास बात यह है कि इस्लामी दर्शन के यूरोप तक पहुंचते पहुंचते यूरोप में साइंस का प्रवेश होने लगा था । राहुल जी की इस किताब को पढ़ते हुए ध्यान रखना होगा कि जिस अर्थ में आज विज्ञान का प्रयोग होता है उस अर्थ के लिए वे साइंस का प्रयोग करते हैं । उस समय बहुतेरे धर्मांध ईसाई इस्लामी दर्शन के असर को खत्म करना चाहते थे लेकिन राहुल जी के अनुसार गेलेलियो की दूरबीन, न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण और भाप के इंजन ने चुपचाप यह काम कर दिया । इस संक्षिप्त कथन से भी साबित होता है कि दर्शन का रिश्ता समूचे माहौल से बहुत गहरा होता है ।      

र्शन के इस उभार की शुरुआत राहुल जी ने ल्योनार्दो दा विन्ची से की है जिसे हम सभी चित्रकार के बतौर ही अधिक जानते हैं । इस समय तक आते आते वैचारिक माहौल में स्वतंत्रता की जो मौजूदगी नजर आने लगती है उसका एक कारण राहुल छपाई को भी मानते हैं क्योंकि ‘पोप-पुरोहित परिश्रम से देर में लिखी दो-चार कापियों को जलवा सकते, किन्तु छापे ने सैकड़ों हजारों कापियों को तैयार कर उनके प्रयत्न को बहुत हद तक असफल कर दिया’ ।  न केवल छपाई बल्कि बहुतेरे बदलाव आ रहे थे जिनसे सोच विचार की दुनिया प्रभावित हो रही थी । उसका खाका प्रस्तुत करते हुए राहुल बताते हैं ‘कोलम्बस (1447-1506), वास्को-दा-गामा (1466-1524) ने अमेरिका और भारत के रास्ते खोले । परासेल्सस (1493-1541) और फ़ान हेल्मोन्ट (1577-1644) ने पुस्तक पत्रे की गुलामी को छोड़ प्रकृति के अध्ययन पर जोर दिया । उस वक्त के विश्वविद्यालय धर्म की मुट्ठी में थे, और साइंस-संबंधी गवेषणा के लिए वहाँ कोई स्थान न था; इसीलिए साइंस की खोजों के लिए स्वतंत्र संस्थाएँ स्थापित करनी पड़ीं । लेलेसियो (1577-1644) ने ऐसी गवेषणाओं के लिए नेपल्स में पहली रसायनशाला खोली । 1543 में वेसालियस (1515-64 ईसवी) ने शरीर शास्त्र पर साइंस सम्मत ढंग से पहली पुस्तक लिखी’ । स्वाभाविक है कि ऐसे हालात में ‘धर्म बहुत परेशानी में पड़ा हुआ था, वह मृत्यु के डर से साइंस की प्रगति को रोकना चाहता था’ । इसके विपरीत ‘भारत में अकबर उदारता पूर्वक साइंस वेत्ताओं के खून के प्यासे--ईसाई पुरोहितों और दूसरे धर्मियों के साथ समानता का बर्ताव करते हुए--एक नये धर्म द्वारा उनके समन्वय करने के प्रयत्न में लगा हुआ था’ ।

यूरोप में धर्म और साइंस के बीच की जंग में दर्शन की दो धाराओं का उदय हुआ राहुल जी ने उन्हें इस तरह अलगाया है(1) कुछ का कहना था, कि इन्द्रिय-प्रत्यक्ष, और तजर्बा (प्रयोग) ही ज्ञान का एक-मात्र आधार है, इन्हें प्रयोगवादी कहते हैं आजकल इन दार्शनिकों को अनुभववादी भी कहा जाता है (2) दूसरे दार्शनिक ज्ञान को इन्द्रिय या प्रयोगगम्य नहीं बुद्धिगम्य मानते थे इन्हें बुद्धिवादी कहा जाता है। अंग्रेजी में इन दोनों को क्रमश: एम्पीरिसिज्म और रैशनलिज्म कहते हैं । इन दोनों में शुरुआत वे प्रयोगवादियों या अनुभववादियों से करते हैं । इस धारा की विशेषता है कि वह ‘तजर्बे को ज्ञान का साधन बतलाता है, किन्तु प्रयोग के जरिए जिस सच्चाई को वह सिद्ध करता है वह केवल भौतिक तत्व, केवल विज्ञान तत्व- अर्थात अद्वैत भी हो सकता है- अथवा भौतिक और विज्ञान दोनों तत्वों को मानने वाला द्वैतवाद भी’ । इस दार्शनिक भाषा को थोड़ा खोलने की जरूरत है । जो लोग अनुभव को ही ज्ञान का स्रोत मानते हैं वे केवल भौतिक को मानने वाले हो सकते हैं या वे केवल आत्मतत्व को भी मान सकते हैं । ये दोनों ही अद्वैतवादी होंगे । अनुभव को ही ज्ञान का स्रोत मानने वाले इन दोनों को अलगाकर देखने के कारण द्वैतवादी भी हो सकते हैं । इसमें मार्के की बात यह है कि भौतिकवाद में भी अद्वैत की गुंजाइश है । विज्ञान या आत्मतत्व (इसे चेतना भी कह सकते हैं) में तो अद्वैत माना ही जाता है । अनुभवाश्रित ज्ञान की प्रक्रिया में भौतिक और आत्मतत्व दोनों की मौजूदगी स्वीकार करना द्वैतवाद है ।

अलग अलग दार्शनिकों की बात करते हुए उन्होंने अद्वैत-भौतिकवाद के तहत हाब्स और टोलैंड का जिक्र किया है । हाब्स अंग्रेज थे और इस तथ्य को प्रस्तुत करते हुए राहुल जी कहते हैं ‘जो देश उद्योगधंधे और पूँजीवाद का बानी बनने जा रहा था, यह जरूरी था, कि उसका नंबर स्वतंत्र-विचारकों में भी पहला हो’ । उनके वैचारिक निर्माण में तत्कालीन इंग्लैंड के माहौल के योगदान को स्पष्ट करते हुए राहुल कहते हैं कि सामंतवाद विरोधी क्रामवेल की क्रांति का हाब्स ने विरोध किया और फ़्रांस भाग गये लेकिन ‘उसे यह समझने में देर न लगी, कि गुजरा ज़माना नहीं लौट सकता, और--उसने क्रामवेल से समझौता कर लिया’ । उनके विचारों का सार प्रस्तुत करते हुए राहुल जी बताते हैं कि ‘उसके अनुसार दर्शन कारणों से कार्य और कार्यों से कारण के ज्ञान को बतलाता है ।---दर्शन गति और क्रिया का विज्ञान है, ये गति-ज्ञान प्राकृतिक पिंडों के हो सकते हैं, राजनीतिक पिंडों के भी । मनुष्य का स्वभाव, मानसिक जगत, राज्य, प्राकृतिक घटनाएँ उन्हीं गतियों के परिणाम हैं ।---जिसे हम मन कहते हैं, वह मस्तिष्क या सिर के भीतर मौजूद इसी तरह के किसी प्रकार के भौतिक पदार्थ की गतिमात्र है । विचार या प्रतिबिंब, मस्तिष्क और हृदय की गतियाँ-अर्थात भौतिक पदार्थों की गतियाँ- हैं’ । इस तरह ‘भौतिक तत्त्व और गति ये मूलतत्त्व हैं, वे जगत की हरेक वस्तु- जड़, चेतन सभी- की व्याख्या करने के लिए पर्याप्त हैं’ ।

मनुष्य के प्रति हाब्स की राय को राहुल ने इन शब्दों में उद्धृत करते हुए बताया है ‘मनुष्य हमेशा धन, मान, प्रभुता, या शक्ति की प्रतियोगिता में रहता है; उसका झुकाव अधिक के लोभ तथा द्वेष और युद्ध की ओर होता है । जब उसके रास्ते में दूसरा प्रतियोगी आता है, तो फिर उसे मार डालने, अधीन बना लेने, या भगा देने की कोशिश करता है’ । इन्हीं वृत्तियों के कारण वह मनुष्य को अरस्तू की तरह सामाजिक प्राणी न कहकर उसकी जगह मानव भेड़िया कहता था । ब्रिटेन के ही टोलैंड की राय भी हाब्स से मिलती जुलती थी । वे मानते थे कि ‘भौतिक तत्व शक्ति है, और गति, जीवन, मन, सब इसी शक्ति की क्रियाएँ हैं । चिन्तन उसी तरह मस्तिष्क की क्रिया है, जिस तरह स्वाद जिह्वा का’ ।

इसके बाद वे अद्वैत-विज्ञानवाद के प्रवर्तक के रूप में स्पिनोज़ा का जिक्र करते हैं । उनके यहूदी होने के बारे में सभी जानते हैं । फ़्रांसिसी दार्शनिक देकार्त के प्रभाव से वे स्वतंत्र दार्शनिक चिंतन की ओर आकर्षित हुए । धर्म विरोध के कारण उन्हें यहूदी धर्म से बाहर निकाल दिया गया । नतीजे के तौर पर उन्हें एम्सटर्डम छोड़ना पड़ा और आजीविका चलाने के लिए घड़ीसाज का पेशा अपनाना पड़ा । यही कारण था कि ‘शताब्दियों तक स्पिनोज़ा को नास्तिक समझा जाता था, और ईसाई, यहूदी दोनों उससे घृणा करने में होड़ लगाये हुए थे’ ।

उनके चिंतन की विशेषता बताते हुए राहुल कहते हैं किस्पिनोज़ा पहला दार्शनिक था, जिसने मध्यकालीन लोकोत्तरवाद तथा धर्म-रूढ़िवाद को साफ शब्दों में खंडन करते हुए बुद्धिवाद और प्रकृतिवाद का जबर्दस्त समर्थन किया: हर तरह के शास्त्र या धर्म-ग्रंथ के प्रमाण से बुद्धि ज्यादा विश्वसनीय प्रमाण है । धर्मग्रंथों को भी सच्चा साबित होने के लिए बुद्धि की कसौटी पर ठीक उतरना होगा, जिस तरह कि दूसरे ऐतिहासिक लेखों या ग्रंथों को करना पड़ता है। असल मेंबुद्धि का काम है यह जानना कि, भिन्न-भिन्न वस्तुओं का आपस का क्या संबंध है । प्राकृतिक घटनाएँ परस्पर संबद्ध हैं । यदि उनकी व्याख्या के लिए प्रकृति से परे की किसी लोकोत्तर चीज़ को लाते हैं, तो वस्तुओं का वह आन्तरिक संबंध विच्छिन्न हो जाता है, और सत्य तक पहुँचने के लिए जो एक जरिया हमारे पास था, उसे ही हम खो देते हैं। इसके बावजूदउसका जोर भौतिक तत्त्व पर नहीं बल्कि आत्मतत्त्व पर थाउनका मानना था कि कोई भी वस्तु अपनी सत्ता के लिए अन्य अनगिनत तत्वों पर निर्भर है और वे भी अन्य तत्वों पर निर्भर हैं । इसलिए कोई ऐसा तत्व होना चाहिए जो स्वयं अपना आधार हो और सभी आधेयों को अवलम्ब दे । इसके लिए प्रकृति के परे जाने की जरूरत नहीं है । वह स्वयं सर्वमय, अनन्त और पूर्ण है । वह गतिशून्य नहीं बल्कि सक्रिय परिवर्तनशील है । वही ईश्वर है । मनुष्य उसके गुणों में से दो, विस्तार और चिंतन को जानता है और ये ही भौतिक और मानसिक शक्तियां हैं । भौतिक पिंड और घटनाएं विस्तार गुण की विभिन्न अवस्थाएं हैं और मन तथा मानसिक अनुभव चिंतन गुण की ।

इसके बाद राहुल द्वैतवादियों में लाक का जिक्र करते हैं । वे मानते थे कि प्रयोग या अनुभव से परे कोई वस्तु नहीं होती है । ज्ञान भी विचारों से परे नहीं पहुंच सकता । विचारों को भी वस्तुओं की सत्यता स्वीकार करनी होगी । मतलब उन्हें प्रयोग के विरुद्ध नहीं जाना होगा । उनके अनुसार मन पर छाप पड़ती है । इसी तरह ज्ञान का स्रोत अनुभव होते हैं । ‘इन्द्रियों से प्राप्त वेदना या उस पर होने वाला विचार ही हमें देश-काल विस्तार, भेद-अभेद, आचार तथा दूसरी बातों के संबंध का ज्ञान देते हैं; यही हमारे ज्ञान की सामग्री को प्रस्तुत करते हैं ।’ राहुल जी के मुताबिक लाक दर्शन को प्रकृति के अध्ययन में लगाना चाहते थे ।

बुद्धिवादियों में वे द कार्त और लाइबनिट्ज़ का जिक्र करते हैं । द कार्त को हम देकार्त के नाम से जानते हैं । वे अपने इस महावाक्य के लिए जाने जाते हैं कि मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं । इनके अलावे स्पिनोज़ा का नाम भी इस प्रवृत्ति के तहत लिया जा सकता है लेकिन राहुल जी ने कहा कि उनके दर्शन में विज्ञानवाद और भौतिकवाद का मिश्रण है तथा प्रकृति की वास्तविकता पर कुछ अधिक ही जोर है इसलिए उनका नाम इन दोनों के साथ नहीं लिया गया । देकार्त गणित को उसकी नपी तुली नियमबद्ध प्रक्रिया के कारण बहुत महत्व देता था । उसने प्रत्येक वस्तु पर तो संदेह किया लेकिन अपने होने पर संदेह नहीं किया जा सकता इसलिए माना कि यह सच है । मतलब कि जो स्पष्ट और संदेह से एकदम परे है वह सच है । इस तरह के सच उसे ईश्वर, रेखागणित के स्वयंसिद्ध और नहीं से कुछ नहीं पैदा होने जैसे नियम मिले । ईश्वर को उन्होंने स्वयंसिद्ध मान तो लिया लेकिन उसकी सिद्धि के लिए अलग से भी कोशिश करनी पड़ी उन्होंने इस संसार के भी स्पष्ट और असंदिग्ध अंश को सत्य कहा था और संसार का निर्माण ईश्वर ने किया है तथा संसार अपनी स्थिति को कायम रखने के लिए ईश्वर पर निर्भर है ईश्वर ने संसार के दो भाग बनाये- काया और मन इस काया की गति को आत्मा संचालित करता है दकार्त के समकालीन हाब्स थे लेकिन दोनों के दर्शन एक दूसरे के विपरीत हैं हाब्स प्रत्येक समस्या का समाधान प्रकृति में खोजने के पक्षधर थे काया और मन के स्पष्ट अलगाव की धारणा का असर बहुत लोगों पर रहा उनका कहना था कि ईश्वर ने गति और विश्राम से साथ प्रकृति को पैदा किया जो गति उसने शुरू में पैदा की उसे उसी मात्रा में जारि रखने के लिए उसे लगातार सक्रिय रहना पड़ता है आत्मा या मन का काम संदेह करना, समझना, ग्रहण-समर्थन-अस्वीकार-इच्छा-प्रतिषेध आदि है । इन विचारकों के साथ सत्रहवीं सदी का अंत हो जाता है । इसके बाद अठारहवीं सदी में दर्शन के विकास का वर्णन राहुल करते हैं ।                          

इसके बाद दर्शन का जो भी विकास हुआ उस पर राहुल जी के अनुसार न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत और विश्व की यांत्रिक व्याख्या का गहरा असर पड़ा । साइंस के विभिन्न विभागों में होने वाली खोजों से दुनिया की भौतिकवादी व्याख्या पर लोगों का अधिक भरोसा पैदा हुआ । खगोलशास्त्र, भौतिकी, रसायन, भूगर्भशास्त्र और चिकित्सा की दुनिया की इस अद्भुत प्रगति का विवरण देने के बाद राहुल उसके प्रभाव को ह्यूम जैसे संदेहवादी के साथ ही भौतिकवाद के विरोधी बर्कले और कान्ट तक में देखते हैं । इन सबकी खूबी यह है कि साइंस की प्रगति से जो भौतिकवादी माहौल बन रहा था उसका इन्होंने निषेध नहीं किया बल्कि उनका मकसद इस चुनौती के समक्ष धर्म की रक्षा करना था । बर्कले ने देकार्त, स्पिनोज़ा या लाइबनिट्ज़ से अलग रास्ता अपनाया । ये सभी किसी न किसी रूप में भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार करते थे लेकिन बर्कले ने अपने दर्शन द्वारा भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व को ही मिटा देना चाहा । उसका कहना था कि मनुष्य के विचार या वेदनाएँ हैं वे किन्हीं बाह्य तत्त्वों की प्रतिकृति या प्रतिबिंब नहीं हैं । विचारों का सादृश्य विचारों से ही होता है । भौतिक पदार्थों और उनके गुणों से अभौतिक विचारों का कोई मेल नहीं होता । ज्ञान का विषय भी हमारे विचार ही होते हैं उनसे परे या बाहर कोई भौतिक तत्त्व ज्ञान का वास्तविक विषय नहीं हो सकता ।

कान्ट को भी राहुल ऐसे ही दार्शनिकों की कोटि में रखते हैं जो भौतिकवाद की चुनौती से धर्म की रक्षा करना चाहते थे । उसके समय तक साइंस का विकास और उसके प्रति शिक्षितों का सम्मान इतना बढ़ गया था कि उसकी पूरी तरह अवहेलना संभव नहीं थी । हालांकि वह भौतिकवाद का विरोधी था फिर भी उसे घुमावदार रास्ता अपनाना पड़ा । वह भाग्यवद, भावुकतावाद या मिथ्या विश्वास का विरोधी था । उस समय तक इंग्लैंड और फ़्रांस में सामन्तवाद को खत्म करके पूँजीवाद की ओर प्रगति की शुरुआत हो चुकी थी । खासकर फ़्रांस में वोल्तेर और रूसो जैसे अधार्मिक विचारकों की प्रतिष्ठा हो रही थी । रूसो के साथ समानता के विचार लोकप्रिय हुए और दोल्वाश ने भौतिकवादी नजरिए को प्रमुखता दी थी । कान्ट को लगा कि धर्म की चहारदीवारी को बढ़ाकर ही ईश्वर, कर्मस्वातंत्र्य और आत्मा के अमरत्व जैसे सिद्धांतों की रक्षा की जा सकती है । उन्होंने मानव बुद्धि को अनुभव पर आधारित माना और कहा कि इसके सहारे बुद्धि बहुत दूर तक जा सकती है लेकिन उसकी गति अनन्त तक नहीं हो सकती । यही उसकी सीमा है । ईश्वर, परलोक या परजीवन इस नाते अनुभव की सीमा से बाहर हैं । उनके बारे में तर्क नहीं हो सकता । तर्क से वे न तो सिद्ध हो सकती हैं और न ही उनका खंडन किया जा सकता है । उन्हें श्रद्धा के साथ माना जा सकता है । सैद्धांतिक रूप से यह श्रद्धा कमजोर मालूम होती है लेकिन व्यवहारमूलक होने से बहुत प्रबल होती है । इन सबमें विश्वास से व्यक्ति और समाज में संयम का प्रचार होता है यही इनको मानने के लिए काफी है ।

कान्ट वस्तु निज रूप को अज्ञेय मानते थे । उनके इस तर्क का परिचय देते हुए राहुल बताते हैं कि कान्ट के मुताबिक वास्तविक ज्ञान सार्वदेशिक और आवश्यक होता है । इंद्रियों से इस ज्ञान का मसाला मिलता है जिसे मन अपने स्वभाव के अनुकूल तरीकों से क्रमबद्ध करता है । ईसी वजह से जो ज्ञान हमें मिलता है वह वस्तुएँ- अपने- भीतर जैसी हैं, वैसा नहीं होता । इस तरह कान्ट वस्तुओं के निज रूप को लगभग अज्ञेय ठहरा देता है । इसे राहुल ने कान्ट का सन्देहवाद कहा है । अनुभव से जो कुछ आता है उन्हें मन अपने स्वभाव के अनुरूप ग्रहण करता है । इस तरह मन का अपना निर्णय बाह्यार्थ से असंबद्ध होता है । राहुल के मुताबिक कान्ट कहते हैं कि ज्ञान विधि या निषेधात्मक निश्चय के रूप में प्रकट होता है । यदि यह निश्चय सार्वदेशिक और आवश्यक नहीं है तो वह साइंस-सम्मत नहीं हो सकता । असल में किसी भी वस्तु को प्रत्यक्ष करने के लिए उसके भौतिक तत्त्व या उसके भीतर की वेदना और आकार को बुद्धि देशकाल के चौखटे में क्रमबद्ध करती है । इस तरह मन या आत्मा अपनी आत्मानुभूति की शक्ति द्वारा वस्तुओं को प्रत्यक्ष करता है । तभी वह अपने से बाहर देश और काल में रंग को देखता है या शब्द को सुनता है । उनका कहना है कि वस्तुओं के न होने पर भी मनुष्य का मन देशकाल को स्वतंत्र वस्तु के तौर पर प्रत्यक्ष करता है । आन्तरिक मानस क्रिया काल की सीमा के भीतर होती है तो बाहरी इंद्रिय-ज्ञान देश की सीमा के भीतर होता है । हमारी इंद्रियाँ जिस प्रकार विषयों को ग्रहण करती हैं वे इंद्रियों के ही स्वरूप या क्रियाएँ हैं । स्पष्ट है कि बाहरी जगत का संबंध इंद्रियों से होता है । वे उसकी सूचना मन को देती हैं और मन उसकी व्याख्या स्वेच्छा से करता है । इंद्रियों का संपर्क वस्तुओं के बाहरी दिखावे से होता है । इसी की सूचना के बल पर मन वस्तु की व्याख्या करता है । इसलिए वस्तु निज रूप का ज्ञान इंद्रिय या अनुभव का विषय नहीं है । वह इंद्रिय की सीमा से परे होता है । प्रत्यक्ष से या तो हमें वस्तु की आभा मिलती है या उसके संबंध का ज्ञान होता है । यह ज्ञान वस्तु निज रूप का नहीं होता । उसके होने का पता आन्तरिक आत्मानुभूति से लगता है । इस तरह उसका ज्ञान इंद्रियों की सीमा के परे हो जाता है । ऐसी चीजों को राहुल ने सीमापारी कहा है ।  

सीमा के परे की ऐसी ही चीजों में कान्ट ने आत्मा को भी शामिल किया है । उनका कहना है कि आत्मा का ज्ञान या साक्षात्कार तो नहीं किया जा सकता लेकिन उसके अस्तित्व पर मनन किया जा सकता है । इस आत्मा को सीधे इंद्रियों की सहायता से हम नहीं जान सकते क्योंकि वह सीमा के परे या इंद्रिय-अगोचर है । सीमा के परे की इस तरह की वस्तुओं का होना भी संभव है । इस तरह वस्तु निज रूप अज्ञेय तो है लेकिन है जरूर क्योंकि बाहरी जगत या वस्तु की जिस आभा का ज्ञान हमें होता है उसके पीछे वस्तु निज रूप जरूर है जो मन से परे की चीज है, हमारी इंद्रियों को प्रभावित करता है और हमारे ज्ञान के लिए विषय प्रस्तुत करता है । इस वस्तु निज रूप (इसे राहुल वस्तुसार भी कहते हैं) के बिना वह झाँकी नहीं मिलती जिसकी बुनियाद पर हमारा सारा ज्ञान खड़ा है । राहुल के अनुसार कान्ट ने बुद्धि और समझ में भी अंतर किया है । समझ इंद्रियों द्वारा लायी सामग्री अर्थात वेदना पर आधारित है लेकिन बुद्धि इस समझ से परे जाती है और इंद्रिय-अगोचर ज्ञान को उपलब्ध करना चाहती है । बुद्धि की साधारण क्रिया को समझ कहते हैं जो हमारे अनुभवों को नियमों और सिद्धांतों के अनुसार एक दूसरे के साथ संबंध कराती है और इस प्रकार हमें निश्चय प्रदान करती है । निश्चय के ये संबंध इंद्रिय-गोचर विषयों में ही हैं, सीमापारी विषयों में नहींम । इस तरह कान्ट ने भी वही काम किया जो बर्कले ने किया था । यदि बर्कले ने भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व का ही खंडन किया तो कान्ट ने भौतिक तत्त्वों के ज्ञान की सच्चाई पर संदेह पैदा कर दिया । राहुल जी ने कान्ट की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए हाइनरिख हाइने की राय का सहारा लिया है जिसके मुताबिक कान्ट ने ईश्वर को निर्वासित करने के बाद चोर दरवाजे से उसका प्रवेश करा दिया ।

इसके बाद राहुल जी ने ह्यूम के संदेहवाद का जिक्र किया है । ह्यूम तक पहुंचने के रास्ते का जिक्र करते हुए राहुल ने बर्कले से शुरू किया जिसने बुद्धि की आंख में धूल झोंककर वस्तु सत्य को मिटाकर ईश्वर, धर्म, आत्मा, फ़रिश्तों को चुपके से सामने ला बैठाया । कान्ट को यह कोशिश भोंड़ी लगी इसलिए उसने भौतिक तत्त्व की सत्ता को आंशिक सत्य के रूप में स्वीकार किया लेकिन असली तत्त्व को सीमापारी और अज्ञेय बना दिया । इसी क्रम में ह्यूम आते हैं । राहुल के मुताबिक उन्होंने बीच का रास्ता निकाला । उनके अनुसार हम जो कुछ जान सकते हैं वह है हमारी अपनी मानसिक छाप का संसार । इसमें प्रत्यक्ष के साथ अनुमान भी शामिल है । इसके आगे के ज्ञान का हमारे पास कोई साधन नहीं है । हमारे ज्ञान की सारी सामग्री बाहरी और भीतरी वस्तुओं के स्पर्शों से प्राप्त होती है । हमारे सभी मनोभाव जब जब आत्मा में पहले-पहल प्रकट होते हैं तो सबसे सजीव साक्षात्कार स्पर्श ही हैं । बाहरी स्पर्श आत्मा के भीतर अज्ञात कारणों से पैदा होते हैं । इसी तरह भीतरी स्पर्श अधिकतर हमारे विचारों से आते हैं । ज्ञान से संबद्ध दूसरी महत्वपूर्ण चीज ये विचार ही हैं । ये असंबद्ध या संयोगवश मिले हुए नहीं होते । उनके बीच की एकता को ही विचार-संबंध कहा जाता है । कार्य और कारण का संबंध ह्यूम नहीं मानते । वे इन्हें बस एक दूसरे के बाद होता हुआ घटनाक्रम देखते हैं । ह्यूम का संदेहवाद इस बात में है कि ज्ञान का आधार प्रत्यक्ष है और इसमें वस्तु की केवल बाहरी सतह और उसमें भी एक भाग का ही प्रत्यक्ष होता है । दार्शनिक विचार या आत्मानुभूति से अधिक जानने की कोई आशा नहीं क्योंकि दार्शनिक निर्णय भी साधारण जीवन का नियमित और शोधित प्रतिबिंब मात्र है । इस तरह हमारा ज्ञान सतही यानी ऊपरी होता है और उससे किसी चीज की वास्तविकता नहीं स्थापित हो सकती । जिसे आत्मा कहा जाता है उसमें भी प्रत्यक्ष ही मिलता है । वहां शुद्ध अनुभव कभी नहीं मिलता । इसी कारण आत्मा को साबित नहीं किया जा सकता । उनका समग्र मूल्यांकन करते हुए राहुल कहते हैं कि हालांकि ह्यूम ने बर्कले और कान्ट के तर्कों पर काफी प्रहार किया और दर्शन को धर्म का पिछलग्गू बनने से रोकने का प्रयास किया लेकिन दूसरी ओर ज्ञान को असंभव भी बना दिया ।

भौतिकवाद के विरोधी इन तीनों चिंतकों का परिचय देने के बाद राहुल जी ने उस समय के भौतिकवाद का उल्लेख किया है और कहा है कि भौतिकवादियों को बहुत परिश्रम की जरूरत नहीं थी क्योंकि समूचा साइंस ही भौतिकवाद को आगे बढ़ा रहा था । उस समय के भौतिकवादी हर्टली की मान्यता थी कि मनोविज्ञान भी शरीर का एक अंश है । इसी तरह दकार्त की निम्न श्रेणी के प्राणियों के बारे में इस मान्यता ने कि वे चलते-फिरते यंत्र भर हैं ने भी भौतिकवाद के विकास में मदद की । राहुल ने ला-मैत्री की इस धारणा का उल्लेख किया है कि अगर यह बात निम्न शेणी के प्राणियों के लिए सत्य है तो फिर मनुष्य में भी आत्मा की कोई जरूरत नहीं रह जाती । इसी तरह की बात शरीर और आत्मा की एकता के सहारे भी कही गयी और माना गया कि भौतिक तत्त्वों के नियम मानसिक आचारिक घटनाओं पर भी लागू होते हैं ।

इसके बाद राहुल उन्नीसवीं सदी के दर्शन का जायजा लेते हैं । अठारहवीं सदी में साइंस का प्रारम्भ हुआ था लेकिन उसके बाद उन्नीसवीं सदी में उसके विकास और विस्तार और गति में तीव्र बढ़ोत्तरी हुई । इस समय दर्शन को साइंस की सहायता जरूरी लगी थी और यह सहायता उसने बिना हिचक ली । खगोल, गणित, भौतिकी, रसायन और प्राणिशास्त्र संबंधी खोजों और प्रगति का राहुल विस्तार से उल्लेख करते हैं । नये ग्रहों-उपग्रहों की खोज, बेहतर ज्यामिति, परमाणु और एलेक्ट्रान, बिजली की सार्वजनिक पहुंच, जीवाणु, बेहोशी की दवा और जीवन विकास का सिद्धांत इनमें से कुछेक हैं । इस माहौल में भौतिकवाद के विरोध की धारा में फ़िख्टे, हेगेल, शोपनहार के साथ ही शेलि और नीट्शे जैसे दैतवादी बुद्धिवादी, स्पेन्सर जैसे अज्ञेयवादी और मार्क्स जैसे भौतिकवाद के समर्थक दार्शनिक का जन्म हुआ ।

फ़िख्टे के बारे में राहुल बताते हैं कि कान्ट ने वस्तुसार को सीमापारी अगम्य वस्तु साबित किया था । फ़िख्टे ने उसे भी मन की ही उपज कहा । इसको साबित करने के लिए फ़िख्टे के तर्क का परिचय देते हुए राहुल बताते हैं कि फ़िख्टे के अनुसार समस्त अनुभव और मन के आकार परम आत्मा से उत्पन्न हुए हैं लेकिन उनकी उत्पत्ति में वैयक्तिक मन ने भी भाग लिया है । असल में परम आत्मा ने अपने को ही ज्ञाता और ज्ञेय में बांट लिया है क्योंकि आत्मा के आचारिक विकास के लिए ऐसे बाधा डालने वाले पदार्थों की जरूरत है जिनको आत्मा प्रयत्न से पार करे । इसके लिए परम आत्मा को अनेक आत्माओं में विभाजित होना पड़ता है । ऐसा न होने से इन आत्माओं को अपना कर्तव्य पूरा करने का अवसर नहीं मिलेगा । अलग अलग आत्माओं में परम आत्मा का ही प्रकाश है । यह परम आत्मा स्थिर नहीं बल्कि सजीव प्रवाह है । इस परम आत्मा की क्रिया का प्राकट्य आत्मा है । इस आत्मा की सीमा है । विचार में वह इंद्रिय-प्रत्यक्ष और मनन से परे नहीं जा सकता और व्यवहार में वह परम आत्मा के विश्व-प्रयोजन से परे नहीं जा सकता । ईश्वर ही यह परम आत्मा है । इसके बाद राहुल ने हेगेल का जिक्र किया है । उनके दर्शन को राहुल ने अभौतिकवादी दर्शन के नये प्रवाह की चरमसीमा कहा है ।

राहुल के अनुसार हेगेल के दर्शन के विकास में अफलातूँ, अरस्तू, स्पिनोज़ा और कान्ट का विशेष योगदान है । उन्होंने दर्शन का काम सारे संसार को प्रकृति और अनुभव के आधार पर यथातथ्य जानना निश्चित किया । यह वास्तविकता बुद्धिसंगत है इसलिए हम अपने चिन्तन या ज्ञान की प्रक्रिया को भी बुद्धिसंगत घटना के रूप में पाते हैं । प्रकृति में विकास की तरह ही दर्शन का भी विकास होता है । यह विकास निम्न से उच्च की ओर होता है । प्रकृति किसी अज्ञात तत्त्व का बाहरी आभास नहीं स्वयं परमतत्त्व है । मन और भौतिक तत्त्व अलग-अलग चीजें नहीं परमतत्त्व के आत्मप्रकाश के एक ही प्रवाह के दो अभिन्न अंग हैं । मन के लिए भौतिक जगत की जरूरत है लेकिन भौतिक जगत भी मनोमय है । भौतिक जगत लगातार बदल रहा है इसीलिए विचार, बुद्धि, समझ या सच्चा ज्ञान भी सक्रिय, प्रवाहयुक्त घटना अर्थात विकास की धारा है ।

निम्न से उच्च की ओर विकास के इस क्रम में वस्तु जब अविकसित रहती है तो विशेषतारहित होती है । जब वह विकसित होती है तो उसमें विशेषता पैदा हो जाती है और वह विभाजित होकर भिन्न-भिन्न आकारों को ग्रहण करती है । ये भिन्न भिन्न आकार एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं । इनका विरोधी गुणों और क्रियाओं के कारण आपस में द्वंद्व चल रहा होता है तो भी वे जिस पूर्ण के अवयव हैं उसमें एक होते हैं । इस तरह होने वाला विकास निम्न स्थिति का ही प्रयोजन, अर्थ और सत्य होता है । निम्न में जो छिपा होता है उच्च अवस्था में वह प्रकट हो जाता है । विकास की यह धारा अपनी प्रत्येक अवस्था में पहले की सारी अवस्थाओं को लिये रहती है और सभी आगामी अवस्थाओं की झांकी देती है । संसार प्रत्येक स्थिति में पहले की उपज और भविष्य भी होता है । उच्च अवस्था में पहुंचने पर निम्न अवस्था का अभाव हो जाता है लेकिन इस उच्च अवस्था में निम्न अवस्था भी सुरक्षित रहती है । इस तरह निम्न से ऊपर पहुंचना विरोधी अवस्था में बदल जाना है । इसे ही हेगेल द्वंद्वात्मक घटना कहते हैं और इस द्वंद्व को सभी तरह के जीवन और गति का स्रोत मानते हैं । द्वंद्व या विरोध का यही सिद्धांत संसार पर शासन करता है । इस क्रम में प्रत्येक वस्तु बदलकर विरोधी अवस्था में परिणत होना चाहती है । द्वंद्व के न होने से न जीवन होता, न गति, न वृद्धि और सभी चीजें मुर्दा तथा स्थिर होतीं । विरोधी हो जाने के बावजूद गति तो जारी ही रहती है और इसके लिए ये विरोधी किसी एक ही पूर्ण शरीर के अवयव बन जाते हैं । ये परस्पर विरोधी ही मिलकर पूर्ण शरीर को बनाते हैं । इस तरह वास्तविकता चलता बहता प्रवाह या द्वंद्वात्मक निरंतरता है । इस क्रम में कोई भी वस्तु बदलते बदलते अपने विरोधी रूप में परिणत हो जाती है । सम्पूर्ण भी और कुछ नहीं इन्हीं परस्पर विरोधी अवयवों का योग होता है । समस्त विकास का लक्ष्य वह परमात्मतत्त्व है जो सनातन है । इस तरह हेगेल का परिवर्तन का प्रवाह ही अपना महत्व खो बैठता है और उनके परमतत्त्व की एकता में विश्व की विचित्रता खप जाती है ।

इसके बाद राहुल जी शोपनहार के दर्शन का विवेचन करते हैं । शापेनहावर के नाम से विख्यात इस दार्शनिक के बारे में राहुल का कहना है कि तृष्णा ही उनके दर्शन का मूल है । यह कालातीत, देशातीत, मूलतत्त्व और कारण-विहीन क्रिया है । वही तृष्णा मनुष्य की आत्मा है और शरीर भी उसी का आभास है । पत्थर में तृष्णा अंधी शक्ति के तौर पर प्रकट होती है, मनुष्य में वह चेतना युक्त बन जाती है । प्रकृति में सर्वत्र तृष्णा की ही जाति की शक्तियाँ काम कर रही हैं । अपनी जरूरत को पूरा करने लायक शरीर तृष्णा ही बनाती है । यह न देश से सीमित है, न काल से, किन्तु व्यक्तियों में देश-काल से परिसीमित हो प्रकट होती है । इससे दुख पैदा होता है । इससे बचने का एक ही रास्ता है और वह है तृष्णा का पूर्णतया त्याग । कहने की जरूरत नहीं कि इस दर्शन पर बौद्ध दर्शन का बहुत प्रभाव पड़ा है । इसके बाद द्वैतवाद के प्रसंग में निट्ज्शे का और अज्ञेयवाद के प्रसंग में स्पेन्सर का जिक्र हुआ है । इसी सदी के भौतिकवादी दार्शनिकों के तौर पर वे लुड्विग फ़्वेरबाख (इन्हें फ़ायरबाख के नाम से भी जाना जाता है) और मार्क्स का विवेचन करते हैं ।                        

बीसवीं सदी में साइंस की प्रगति और भी तेज हुई । जब उसका असर मनुष्य के ज्ञान के विस्तार में निकला तो ईश्वर और धर्म जैसी धारणाओं की रक्षा के लिए दर्शन की जरूरत पड़ी । कभी कभी ही इसमें भौतिकवाद का उभार हुआ । बीसवीं सदी में ईश्वरवाद को ह्वाइटहेड का सहारा मिला । उसके साथ यूकेन भी था । इनसे अलग बर्गसाँ और बर्टरंड रसल थे । इन दोनों के अलावे विलियम जेम्स नामक द्वैतवादी दार्शनिक का भी जिक्र राहुल सांकृत्यायन ने किया है ।