Saturday, April 19, 2025

कविता की स्वायत्त समृद्धि

 

           

                             

डाक्टर राधावल्लभ त्रिपाठी की 2023 में कौटिल्य बुक्स से छपी किताब ‘साहित्य का लोकतंत्र: संस्कृत ग्रंथों में गाली, धिक्कार और फटकार’ न केवल अपने वर्ण्य विषय बल्कि कविता मात्र की समझ के लिए जरूरी है । इसके मुखपृष्ठ पर ही इन गालियों को छापकर किसी भी उत्सुक पाठक के लिए इसे आकर्षक बना दिया गया है । राधावल्लभ जी संस्कृत के उन विरल विद्वानों में शामिल हैं जो संस्कृत को पुरोहिताई और कर्मकांड से मुक्त करके उसे जन सामान्य से जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं । उनकी इसी कोशिश का परिणाम यह अनूठी पुस्तक है ।

गाली का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में सबसे पहले वे गालियां आती हैं जो समाज की सामंती वृत्ति का नमूना पेश करती हैं । इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण उनमें स्त्रियों से जुड़े तमाम पूर्वाग्रह हैं जो उनके शरीर के प्रति उपभोगवादी रवैये की अभिव्यक्ति होते हैं । इनमें बलात्कारी संस्कृति की झलक भी मिलती है । इनमें स्त्रीद्वेष के साथ जातियों के सामाजिक अनुक्रम में निचले पायदान पर मौजूद जातियों के प्रति हिकारत भी नजर आती है । बहुधा उनके जातिनाम ही गाली की तरह इस्तेमाल किये जाते हैं । पशु जगत के प्रति मनुष्य की सोच का भी इनसे पता चलता है । कुछ पशु गाली के लिए इस्तेमाल होते हैं तो कुछ अन्य सकारात्मक भी नजर आते हैं । कुत्ते के पालतू होने के बावजूद उसकी इज्जत में बढ़ोत्तरी नहीं हुई । रिश्तों नातों का भी कई बार गालियों की तरह प्रयोग होता है । इनके बारे में प्रसन्न कुमार चौधरी मानते हैं कि ये परिवार और विवाह के पुराने रूपों के भाषिक अवशेष हैं । राधावल्लभ जी ने गालियों के इस पक्ष के विश्लेषण की जगह उनका एक दूसरा ही पक्ष उजागर किया है ।         

तेरह अध्यायों की इस किताब की भूमिका में ही वे इसे भाषा का एक रचनात्मक व्यवहार बताते हुए कहते हैं ‘भाषा का दायरा मनुष्य की सारी अभीप्साओं, आकांक्षाओं को ही नहीं, वह उसकी आशंकाओं, चिन्ताओं, विरोध के स्वरों को भी समाहित करता है’ तब स्वाभाविक है कि ‘संसार की सारी भाषाओं में धिक्कार, गर्हणा या गालियों के लिए शब्दावली’ होती है । इन शब्दों की व्याप्ति बताते हुए वे कहते हैं कि ‘इसमें तिरस्कार, धिक्कार, निन्दा तथा लांछित करने’ के भाव होते हैं । इस तरह की कविता की सामाजिक भूमिका की पहचान करते हुए वे दर्ज करते हैं ‘अन्याय का विरोध करने, मनुष्य के स्वाभिमान को जगाने में ऐसी कविताओं की सकारात्मक भूमिका रहती है’ । साथ ही ‘धिक्कार की कविता गहरे आक्रोश और मनोवेदना से उपजती है, इसकी संरचना में तीखा व्यंग्य और विरूपीकरण हो सकता है’। ऐसी ही कविता का विवेचन इस किताब में किया गया है । उनका कहना है कि ‘संस्कृत साहित्य में अन्याय का विरोध करने की, पापियों तथा आततायियों को धिक्कारने की तेजस्वी परम्परा रही है’ । साथ ही ‘इसको पहचाने बिना भारत की सांस्कृतिक विरासत को सही-सही नहीं समझा जा सकता’ ।        

इसके लिए उन्हें सबसे पहले संस्कृत के बारे में फैली धारणा का प्रतिवाद जरूरी लगा इसलिए वे इसे ‘औपनिवेशिक अधिरचना’ मानते हैं कि ‘भारत मात्र एक आध्यात्मिक देश है, यहाँ वैज्ञानिक विकास की कोई परम्परा नहीं रही है, और संस्कृत एक वर्ग विशेष की, कर्मकांड की तथा पुरोहिताई की भाषा रही है’ । राधावल्लभ जी की संस्कृत में धिक्कार की दीर्घ परम्परा की जो मान्यता है उसके विरोधी सनातनी हो सकते हैं जिनका तर्क होगा कि ‘संस्कृत तो देववाणी है, वह वेदों और पुराणों की पवित्र भाषा है, उसमें गालियाँ हो ही कैसे सकती हैं’ । संस्कृत के बारे में ऐसा मानने वालों की ही प्रभुता है । इसलिए उनकी चिंता को समझा जा सकता है । इन सनातनियों के अलावे जो आधुनिकतावादी होंगे वे कहेंगे कि ‘गालियाँ लोकव्यवहार में प्रचलित भाषाओं में होती हैं, बोलचाल की भाषाओं में होती हैं, संस्कृत बोलचाल की भाषा है नहीं, कई शताब्दियों से वह जीवित भाषा नहीं रही है, इसलिए उसमें गालियाँ नहीं हो सकतीं’ । इस तरह राधावल्लभ जी ने इन दोनों मान्यताओं का विरोध करते हुए संस्कृत कविता की इस विशेषता का उद्घाटन करने के साथ ही संस्कृत को पुरोहिताई से मुक्त करते हुए उसकी लोकबद्ध और कालबद्ध जीवंतता को भी स्थापित करना चाहते हैं ।

इस किताब का मूल कोरोना काल में दिया गया उनका एक आभासी व्याख्यान है जिसके बाद उन्हें अनेक पत्र प्राप्त हुए और उनसे प्रेरित होकर उन्होंने इसे लिपिबद्ध किया इस तरह हिंदी के सामान्य पाठकों के लिए उन्होंने समृद्ध संस्कृत साहित्य की एक अनजानी दुनिया खोलने का उपकार किया     

गालियों के प्रसंग में हमेशा नकारात्मकता का बोध होता है इसलिए सबसे पहले ही अध्याय में उन्होंने इसकी सकारात्मक मौजूदगी को चिन्हित किया है । सभी जानते हैं कि शादी-ब्याह जैसे मांगलिक संस्कार और होली जैसे उत्सवों का अभिन्न अंग गाली होती है । इसकी पुरातनता को सिद्ध करने के लिए आज भी राम के विवाह के अवसर पर मैथिल स्त्रियों की गालियों का जिक्र किया जाता है । इसी तरह वैदिक यज्ञों के आरम्भ में भी ब्रह्मचारी और पुंश्चली के बीच संवाद का अभिनय होता था । इस तरह के संवादों में एक दूसरे पर ताना कसा जाता था । यह कार्य यज्ञवेदी के निकट खड़ा होकर किया जाता था । उनका अनुमान है कि यह कार्य उर्वरकता बढ़ाने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान है । सभी जानते हैं कि धर्म की गति स्थूल नहीं, सूक्ष्म होती है । तात्पर्य कि जिन कामों को ऊपरी तौर पर बुरा समझा जाता है उनसे भी मांगलिक काम शुरू होते रहे हैं । इसका ही अनुकरण नाटकों में पूर्वरंग में किया जाता था जब विदूषक इसी तरह के संवाद बोलता है । इसका ही विस्तार महाकाव्य में खलनिंदा के रूप में हुआ । तुलसी ने खलों की ब्याजस्तुति से निंदा ही की है । धर्म की इसी सूक्ष्मता के कारण अधर्म का नाश हो का नारा लगाने वालों से बहुतेरे जानकार लोग कहते हैं कि अधर्म तो ईश्वर की पीठ है । इस समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य धर्म की समझ में स्थूल नजर का बढ़ता प्रभुत्व है । आशा है कि राधावल्लभ जी जैसे विद्वानों की अधीत सम्मति सुनी जायेगी ।

गालियों का ऐसा ही सकारात्मक प्रयोग राधावल्लभ जी ने आत्मभर्त्सना में भी पहचाना है जिससे आत्मशुद्धि होती है । इसका एक उपयोग मन के उबाल का शांत हो जाना भी है । इसको उन्होंने बीभत्स की मौजूदगी से जोड़ा है । इस संदर्भ में प्रेमचंद के लेख ‘साहित्य में घृणा की उपयोगिता’ की याद आना स्वाभाविक है । हमारे देश में इतना पाखंड व्याप्त है कि साहित्य या पवित्रता को बहुत ही अधिक एकांगी बना दिया गया है । मिलान कुंदेरा ने गलत नहीं कहा था कि मनुष्य मातृभाषा में ही अश्लील हो सकता है । शुद्धता और पवित्रता के उन्मादी आग्रह में लोग भूल जाते हैं कि साहित्यकार ही खलनायक का भी सृजन करता है ।

गालियों के संदर्भ में याद रखने की जरूरत है कि एक ओर तो उनमें हमारी समाज व्यवस्था के पदानुक्रम का प्रतिबिम्ब मिलता है तो दूसरी ओर उनकी एक भूमिका दमित समुदायों के लिए मुक्तिकारी भी होती है विवाह के ही अवसर पर एक रस्म डोमकच की होती है जिसमें स्त्री समुदाय तमाम वर्जित शब्दों के अकुंठ और मुक्त उच्चारण के साथ अवक्तव्य कामों का अभिनय भी करता है इस तरह यदि दमित समूह के पास अन्याय का प्रतिकार करने के भौतिक संसाधन या उपाय नहीं होते तो बहुधा वह गाली को भी अस्त्र की तरह इस्तेमाल करता है कमजोर का हथियार बहुधा गाली होती है इसलिए उस पर प्रतिबंध का भी एक समाजशास्त्र होता है

व्यंग्य के रूप में भी इसके प्रयोग के बहुतेरे उदाहरण राधावल्लभ जी ने इस किताब में दिये हैं मनोरंजन हेतु भी इस तरह की भाषा का उपयोग किया जाता है साहित्य में इस तरह की एक कलात्मक युक्ति का चलन ही रहा है जिसमें द्विअर्थी संवादों की भाषा का प्रयोग होता था इसमें किसी शब्द का एक अर्थ यदि वर्जित और अश्लील होता था तो दूसरा अर्थ शिष्ट और ग्राह्य   इसके अतिरिक्त इस तरह की भाषा से पात्रों का फक्कड़पन भी जाहिर किया जाता रहा है । प्रगाढ़ प्रेम की अवस्था में वर्जित शब्दों के प्रयोग का अनुभव सामान्य है । जैक लंडन ने अपने उपन्यासकाल आफ़ द वाइल्ड (जंगल की पुकार)में कुत्ते के प्रति उसके स्वामी के प्रेमाधिक्य को कुत्ते के कान में गाली बकने के जरिये प्रकट किया है । राधावल्लभ जी ने प्रेम की तरह ही युद्ध में भी गालियों के इस्तेमाल पर रोशनी डाली है । युद्ध में प्रतिपक्षी का मनोबल गिराने के लिए इनका प्रयोग जीवन में और उसी तरह साहित्य में भी किया जाता रहा है । इस सिलसिले में अश्वेत मुक्केबाज मुहम्मद अली ने भी अपनी रणनीति बताते हुए इसका जिक्र किया है जिसमें वह गाली देकर प्रतिपक्षी को उत्तेजित कर देता था । भारत के प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में इस प्रविधि का प्रयोग करते हुए व्यास मुनि ने अनेक पात्रों को दिखाया है जो अस्त्र-शस्त्र के साथ शाब्दिक आरोप प्रत्यारोप भी करते रहते हैं । महाभारत के तो अनेक शिष्ट पात्र भी आपद्धर्म के रूप में गालियों का प्रयोग करते हैं ।

इन सबके बावजूद धिक्कार का असली प्रयोग अन्याय के प्रतिकार में ही होता है । अन्याय के केंद्र धन और राजसत्ता है । इनके प्रति वितृष्णा का भाव कविता में हमेशा व्यक्त हुआ है । इन दोनों से मद पैदा होता है और मनुष्य अपनी मानवीयता से च्युत हो जाता है । इन दोनों का ही समेकन राजसभा में होता है इसलिए अपवादों को छोड़ दें तो कहीं भी राजसभा को प्रशंसा नहीं मिली है । आश्चर्य नहीं कि कर्जन के अंग्रेजी राजदरबार का वर्णन करने के लिए बाल मुकुंद गुप्त को रावण का दरबार ही समतुल्य लगा था । संस्कृत में सबसे अधिक धिक्कार भी इसके लिए ही आया है । राधावल्लभ जी ने सीता द्वारा परित्याग के प्रतिवाद के प्रसंग में बताया है कि वे लक्ष्मण से संदेश देते हुए राम के लिए आर्यपुत्र की जगह राजा का संबोधन करती हैं । राधावल्लभ जी कहते हैं कि पति को केवल राजा कहना उसकी गर्हणा ही है । इसी मामले में कालिदास ने वाल्मीकि के मुख से भी गर्हणा ही निकलवाई है । वे उनका नाम लेने की जगह उन्हें भरत का बड़ा भाई कहते हैं और उनके प्रति अपने मन्यु (कोध) की घोषणा करते हैं ।    

गालियों के प्रयोग के संदर्भ में राधावल्लभ जी ने अथर्ववेद से एक प्रसंग उद्धृत किया है जो आज के लिए भी बहुत ही प्रासंगिक प्रतीत होता है । ॠषि कहते हैंजिस राष्ट्र में ब्रह्मज्ञानी पर अत्याचार होता है, वह राष्ट्र अध:पतित हो जाता है, उस नाव की तरह डूब जाता है जिसमें छेद हो जाने से पानी घुस रहा हो, दुर्भाग्य उस राष्ट्र को मटियामेट कर देता है। इस शाप की प्रासंगिकता के लिए केवल ब्रह्मज्ञानी की जगह बौद्धिक और उनके शिक्षण केंद्र रख लीजिए और दूर देश अमेरिका से लेकर अपने देश तक की अवस्था समझ लीजिए । इस संदर्भ में राधावल्लभ जी ने राम को अयोध्या से निकालने के जन प्रतिकार का वाल्मीकि द्वारा किये गये उल्लेख का जिक्र किया है । इसी तरह से युधिष्ठिर को हरा देने पर हस्तिनापुर के लोगों के सामूहिक विरोध का भी महाभारतीय उल्लेख को याद किया गया है ।

इन दोनों ही महाकाव्यों से राधावल्लभ जी ने अत्यंत शीलवान पात्रों के भी क्रोधयुक्त वचनों का उद्धरण दिया है । इस प्रसंग में उन्होंने शकुंतला की कथा का भी वर्णन किया है जिनके महाभारत के स्वरूप और कालिदास द्वारा उसके नाट्य रूपांतर में भेद को लेकर रोमिला थापर ने गम्भीर विवेचन किया है । शकुंतला और उसके साथ कण्व के आश्रम से दुष्यंत के दरबार गये ॠषिकुमारों की वाणी में जो गहन तेज है वह राजा और उसके दरबार के धिक्कार में ही प्रचुरता से मुखरित होता है । यह तत्त्व यदि महाभारत में बहुत भास्वर है तो उसे कालिदास ने भी थोड़ा बहुत निभाया है ।

इस तरह की कविता का सामाजिक उपयोग राधावल्लभ जी ने खल पात्रों में सुधार की सम्भावना बताया है । यही उनके मुताबिक इस कविता का सौंदर्यशास्त्र है । इस मामले में उनका कहना है किश्रृंगार की कविता जितनी आवश्यक है, समाज को व्यवस्थित करने, मनुष्य को विचारशील बनाने तथा विवेक को जाग्रत रखने के लिए धिक्कार की कविता की भी उतनी ही आवश्यकता है। कहने की जरूरत नहीं कि आज संस्कृत के बारे में भी इस तरह की समझ पैदा करने की उतनी ही प्रबल आवश्यकता है । उसे जिस तरह मिथकीय स्वरूप देकर उसकी जान निकाल लेने का प्रयास हो रहा है उस हालत में तो यह संस्कृत के प्रत्येक सच्चे विद्वान के लिए परम कर्तव्य हो गया है । उसकी प्राणवत्ता को बचाने के लिए उसे कर्मकांड की सीमा से निकालकर जन समाज के भीतर प्रतिष्ठित करना जरूरी है तभी उसके संपन्न दाय का उत्पादक लाभ उठाया जा सकता है । राधावल्लभ जी की यह किताब इस दिशा में बहुत ही मददगार साबित होगी ।