आजमगढ़ के विजय बहादुर राय से मेरा परिचय उनकी पुत्री से विवाह के बाद हुआ । इस रिश्ते की जटिलता के
भीतर और बाहर उनके साथ लम्बा सम्पर्क रहा । इसके चलते कभी कभी तनाव भी पैदा हुआ और
प्रेम का भी अवसर आया । मेरे विवाह के कुछ ही समय बाद से लेकर अंत तक उन्हें विधुर
का जीवन बिताना पड़ा था । इसी अवस्था में उन्हें तीन पुत्रियों का विवाह संपन्न
करना पड़ा । आजमगढ़ जैसी जगह पर पांच पुत्रियों के ऐसे पिता की भूमिका में वे जीवन
भर रहे जिनका जीवन बेहद सार्वजनिक था । इन सभी मुश्किल भूमिकाओं को निभाने में
उनके पास अपार धैर्य का खजाना हमेशा साथ रहा ।
इस धैर्य ने न केवल पत्नी के निधन के
बाद इन पारिवारिक जिम्मेदारियों के निभाने में मदद की वरन पुत्रियों के भी वैवाहिक
जीवन की समस्याओं को बर्दाश्त करने की क्षमता प्रदान की । सबसे दुखद यह था कि एक
पुत्री को असमय वैधव्य का दुर्भाग्य झेलना पड़ा । उनके एकमात्र पुत्र ने प्रेम
विवाह किया था । आज शहर में रहते हुए हम इसे जितना भी सामान्य समझें लेकिन किसी
पिछड़े समाज में इस तरह का विवाह पिता के लिए खास सम्मानजनक नहीं होता । इस तरह के
विवाह से बने संबंध को उन्होंने यथोचित गरिमा से निभाया । बाद में उनके पौत्र के
साथ स्नायविक मस्तिष्काघात की घटना घटी जिसके कारण उनके पुत्र और वे भी स्थायी रूप से बहुत
परेशान रहे । इस तरह के पारिवारिक जीवन को निभा ले जाने वालों में मेरे लेखे वे
आखिरी थे । इन सभी विकट झटकों को गिनाने का एकमात्र कारण यह जताना है कि उनकी
सार्वजनिक उपस्थिति के पीछे उनकी अदम्य जीवटता थी । पारिवारिक दायित्व और
सार्वजनिक सक्रियता के बीच तनाव की स्थिति में उन्होंने कभी सार्वजनिक जीवन को
छोड़ने का सुविधाजनक रास्ता नहीं अपनाया ।
इस मामले में उनकी सबसे महत्वपूर्ण
देन पुत्रियों को विपरीत परिस्थितियों से भी लड़ लेने की हिम्मत देने की थी जिसके कारण
उन सबने बहुतेरी कठिनाइयों का साहस के साथ मुकाबला किया । जिस सामाजिक माहौल से वे
आये थे उससे लड़ते हुए उन्होंने पुत्रियों के साथ सहज रिश्ता तो बनाया ही जाति के
सवाल पर भी खुद के संस्कारों के साथ लड़ते हुए लोकतांत्रिक रुख का विकास किया ।
इस जीवटता ने उनका साथ सेहत की खराबी
के दिनों में भी दिया । मधुमेह और बवासीर की ताउम्र चलने वाली कठिनाई को उन्होंने
झेला । घुटने जवाब देने लगे तो कसरत से खुद को चलने फिरने लायक बनाये रखा । पुराने
राजनीतिकों की तरह कचहरी और एक स्थानीय अखबार का दफ़्तर उनका लगभग स्थायी ठिकाने थे
। अशक्त होने पर भी वे इन जगहों पर चले आते । यहां तरह तरह के लोगों से मुलाकातें
हो जातीं । गपशप होती और जीवंतता कायम रहती । बुढ़भस उन पर कभी छायी नहीं । हमेशा
युवकों के साथ लगे रहते थे । इनमें वे तमाम आजमगढ़ी शामिल थे जिनसे मिट्टी का मोह
छूटा नहीं । इन युवकों की टोली ने उन्हें हमेशा युवा जैसा ही बनाये रखा । आखिरी
कुछेक सालों में खासकर कोरोना और उसके बाद के दौर में बार बार वे लगभग मौत के मुख
से बाहर निकलकर जीवंत रंगढंग अपना लेते थे । उनकी इस पुनर्नवता को सबने अचम्भे के
साथ देखा और महसूस किया है ।
विद्यार्थी जीवन में ही वे समाजवादी
धारा के साथ हो गये । तब विद्यार्थी राजनीति में विपक्ष का तेवर होता था जिसका
प्रतिनिधित्व लोहिया की विचारधारा में होता था । इनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के
युवाओं में राजनारायण की राजनीतिक लोकप्रियता बहुत थी । विजय बहादुर राय भी उनके
मुरीद हुए और जीवन भर उनसे प्रतिबद्ध रहे । उनका नाम लेकर सत्ता की सीढ़ी चढ़ने
वालों के साथ उनकी कभी नहीं पटी और उनके निधन के बाद धीरे धीरे इस धारा से राय
साहब की दूरी बनती गयी लेकिन अपने जमाने के ईमानदार समाजवादियों के साथ उनके
रिश्ते हमेशा मधुर बने रहे । बहुत दूर दूर के समाजवादियों को बहुत बाद तक उनसे
सुपरिचित देखा है । उनकी सोच और लहजे से यह संस्कार कभी नहीं गया इसलिए मलाई काटने
वालों से कभी उनकी बनी नहीं ।
इंडियन पीपुल्स फ़्रंट के नेता
जयप्रकाश नारायण के साथ उनकी मित्रता थी । उनके आजमगढ़ लौटने के बाद राय साहब भाकपा
(माले) के करीब आते गये । वार्धक्य जनित स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बावजूद उनको
किसी भी प्रतिरोध सभा में भाग लेते देखा जा सकता था । कांग्रेसी शासन में जब आजमगढ़
को बदनाम करने का सुनियोजित अभियान चला तो श्री विजय बहादुर राय ने अपने इस जीवन
की सर्वाधिक सक्रिय पारी खेली । पूरे शहर में जब कहीं प्रेस को संबोधित करने की
जगह नहीं मिली तो अपने घर पर उन्होंने यह बेहद जरूरी आयोजन बहादुरी के साथ किया और
पुलिसिया आतंक को बेअसर करने का कठिन काम उठाया । उस समय वे आजमगढ़ की आत्मा बनकर
खड़े हुए और प्रखर माले नेता जयप्रकाश नारायण जैसे चंद साहसी लोगों के साथ मिलकर
मीडिया द्वारा घनीभूत कर दिये गये भय के माहौल को तोड़ने का बीड़ा उठाया ।
उनका यह दौर बहुत ही उल्लेखनीय रहा ।
जुलूसों और सभाओं में डटकर खड़े रहने के अतिरिक्त ऐसी पहलों में भी उन्होंने सक्रिय
हिस्सा लिया जिन्हें कार्यकर्ताओं की छोटी लेकिन सक्षम टोली ने आयोजित किया । मुझे
एक संगोष्ठी की याद है जिसमें नंदिता हक्सर और भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य दिल्ली से आजमगढ़ गये थे । स्थानीय युवकों के अतिरिक्त आजमगढ़ के बौद्धिक
समुदाय से भी उनके रिश्ते बने और उनके साथ ही मिलकर किताबें रखना और पढ़कर बहस करने
की आदत डाल ली । जिस भी व्यक्ति के बारे में उन्हें लगा कि उसके आने से
सांप्रदायिक माहौल से लड़ने में आसानी होगी उससे सम्पर्क करके बुलाने का उन्होंने
भरपूर प्रयास किया । इसी क्रम में वैकल्पिक मीडिया से जुड़े दिल्ली के पत्रकारों की
टोली भी उनसे कभी कभार मिलती रहती थी । अल्पसंख्यक समुदाय के साथ उनके
सौहार्दपूर्ण रिश्ते किसी लाभ की आकांक्षा पर आधारित नहीं थे । ईद और बकरीद पर
उनके यहां आने वाली सौगातों को हमने प्रत्यक्ष देखा है ।
प्रसिद्ध कहानीकार हेमंत यादव की
कहानियों के संग्रह के विमोचन के अवसर पर विश्व पुस्तक मेले की उनकी यात्रा उनके
जीवन की आखिरी दिल्ली यात्रा थी । बहस मुबाहिसा और विचारों का टकराव देखना सुनना
उन्हें पसंद था । आखिरी दिनों में अपने सभी परिचितों से लगातार वे देश का हाल लेने
की कोशिश करते रहते । अभी हाल में पता चला कि अपनी पुत्रियों के अतिरिक्त अपने
दामादों और नातियों से भी वे दूर दूर के समाचार जानने के लिए फोन खटखटाते रहते थे
। इस बेचैनी के पीछे देश के भीतर निरंतर व्याप्त होता धार्मिक पाखंड, बहुसंख्यक
सांप्रदायिकता और तानाशाही की प्रवृत्ति थे । आजमगढ़ की मिली जुली संस्कृति की
रक्षा के लिए चिंता के अलावे आपातकाल के उनके अनुभव ने भी उन्हें वर्तमान शासन
व्यवस्था का पक्का विरोधी बना दिया था ।