एकाधिक
संयोगों के चलते इस पुस्तक के लेखक से थोड़ी लम्बी निजी मुलाकात हुई । उनकी इस
मुलाकात से घुमक्कड़ी के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला । उसी अवसर पर उनकी किताब
‘कदम कदम किन्नौर’ भी देखने को मिली । उनसे मिलकर समझ में आया कि हमारे सामाजिक
जीवन के बहुतेरे पहलू बहुधा सामान्य जीवन में अलक्षित रह जाते हैं । ऐसा जीवन जीने
वाले लोगों को विशेष समझकर हम उनकी दुनिया में प्रवेश करने की जहमत नहीं उठाते और उनकी
खास किस्म की सौंदर्यबोधीयता से वंचित रह जाते हैं । घुमक्कड़ी भी ऐसी ही दुनिया है
जिससे परिचय के संयोग यदा कदा आ जुटते हैं । लेखक ने इस लत की खूबी से परिचय कराया
। राहुल सांकृत्यायन जैसे घुमक्कड़ों के बारे में जानने के कारण उत्सुकता तो रहती
थी कि आखिर किसी व्यक्ति को यह रोग लगता कैसे है लेकिन कभी किसी घुमक्कड़ से
प्रत्यक्ष परिचय न होने से इसके समाधान का रास्ता नहीं था । डाक्टर बी मदन मोहन ने
बताया कि प्रकृति का अनंत सौंदर्य देखने की उत्कंठा इसका सबसे प्रमुख आकर्षण है । दूर क्षितिज की रोशनियों को दिखाकर वे उस नगर की जगहों का जीवंत वर्णन करते हैं तो दूरी सिमटकर पास आ जाती है और हम उनके साथ दुर्गम प्रदेश के यात्री बन जाते हैं । बातचीत की तरह ही उनके लेखन में भी यही खूबी उभर आयी है ।
आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ने अपने मशहूर निबंध ‘कविता क्या है’ में बताया है कि मनुष्य की
संवेदना उन चीजों के वर्णन से सबसे अधिक उत्तेजित होती है जिनसे उसका साहचर्य बहुत
पुराना है । इसका कारण बहुत कुछ यह भी है कि मनुष्य भी प्रकृति का अभिन्न अंग है ।
प्रकृति के साथ उसका आदिम साहचर्य उसे बार बार बुलाता है । प्रसंगवश चिंतामणि के
चौथे भाग में संग्रहित ‘मानस सरोवर और कैलास की भूमिका’ के कुछ अंश देखना उचित
होगा । इस तरह के लेखन का औचित्य बताते हुए उन्होंने लिखा ‘हमारा देश इतना विस्तृत
है, उसके भीतर जलवायु, जन-समाज, प्राकृतिक दृश्यों इत्यादि की इतनी अनेकरूपता है कि
एक प्रदेश के निवासी को दूसरे दूरस्थ प्रदेश के विवरण में कुतूहल और मनोरंजन की
पर्याप्त सामग्री मिल सकती है’ । उन्हें इस बात का क्षोभ है कि ‘न तो किसी पुराने
तीर्थ-यात्री ने सागर-चुंबित मलय-प्रदेश का वर्णन लिखा, न उत्तराखंड के गगनचुंबी
शिखरों का’ । शुक्ल जी ने जिन दो क्षेत्रों का नाम लिया है उनमें से एक उत्तराखंड
संबंधी लेखन के अभाव की पूर्ति इस पुस्तक से कुछ हद तक होती है । खास बात कि तीर्थयात्री
न होने से ही मदन मोहन जी यह लिख सके । इस तरह के लेखन के लिए शुक्ल जी ने साहस के
साथ जिज्ञासा का प्राचुर्य और निरीक्षण की शक्ति की जरूरत बतायी थी । मदन मोहन जी
के इन यात्रावृत्तों से स्पष्ट होता है कि उनमें ये तीनों गुण भरपूर हैं ।
मदन मोहन जी
ने बताया कि प्रकृति सचमुच प्रत्येक क्षण अपना रूप बदलती रहती है इसलिए उसका
आकर्षण कभी पुराना नहीं होता । राहुल सांकृत्यायन ने आत्मकथा में हिमालय का जिस
तरह वर्णन किया है उसे पढ़कर रोमांच हो आता है खासकर एक भोटिया कुत्ते के मिले
आकस्मिक साथ और उसके देहांत का वर्णन तो रुला देता है । ऐसा ही कुत्ता लेखक को भी
एक यात्रा में मिला और समूह की रक्षा करते हुए साथ साथ लगा रहा । इससे सिद्ध होता
है कि प्रकृति के विस्तार का वर्णन मानवेतर प्राणी जगत की मौजूदगी को अपने साथ
लेकर आता है ।
इन
यात्रावृत्तों में प्रकृति के केवल ललित स्वरूप के ही चित्र नहीं मिलते । अमिताभ
घोष ने लिखा है कि प्रकृति के लालित्य का बोध हालिया है । असल में तो प्रकृति का
रूप भैरव ही होता है । पाठक के लिए खतरों से भरी यात्रा का वर्णन रोमांचक तो होता
ही है, जानकारी से भी भरा होता है । निरीक्षण के साथ ही वर्णन में प्रत्यक्ष करा
देने की क्षमता भी आवश्यक है ।
जानकारी के
स्तर पर इन यात्रावृत्तों को पढ़ने से देश की सांस्कृतिक विविधता का पता चलता है ।
इस समय देश में इस विविधता के सहज स्वीकार के महत्व से इनकार शायद ही कोई करेगा ।
हिंदी इलाकों के लोग आस पास की जीवन पद्धति को ही पूरे देश का सच मानते हैं । इन
यात्रावृत्तों में हमें उत्तराखंड की देवभूमि में ऐसे भी लोगों के दर्शन होते हैं
जो कौरवों की पूजा करते हैं । कहने की जरूरत नहीं कि दिल्ली के ठीक बगल में रावण
की पूजा करने वाले भी रहते हैं ।
पूर्वोत्तर
भारत के अपने पांच साला प्रवास की वजह से इन यात्रावृत्तों के अंतस्तल को समझने
में सुविधा हुई । देश की विविधता के प्रति सम्मान के बिना देश को देख पाना भी नहीं
हो पाता । दुर्भाग्य से इस समय देश को पर्यटन के अनुकूल बनाने की चाहत में इसकी
तमाम दुर्लभ धरोहर का अमेरिकीकरण किया जा रहा है । शासक मानकर चलते प्रतीत होते हैं कि पर्यटक हमारे देश को नहीं देखने आते बल्कि अपने जाने बूझे वातावरण की ही प्रतिकृति सर्वत्र खोजते हैं!
मदन मोहन जी
कवि भी हैं । इसके चलते कभी कभी उनका कवि उनके गद्यकार को पीछे छोड़ देता है । गद्य
में अधिकतर अभिधा कारगर होती है । जिस तरह निरभ्र आकाश और वनस्पति विहीन पर्वत भी
सुंदर लगते हैं उसी तरह सादा और निरलंकार भाषा भी बहुत सुंदर होती है । भाषा की इस
शक्ति का मदन मोहन जी को और भी उपयोग करना चाहिए ताकि पाठक की मानसिक आंखों के
सामने वह दृश्य आये, न कि लेखक को सूझी हुई कोई उपमा ।
इन यात्रावृत्तों की विस्तार से चर्चा अनुचित होगी क्योंकि सिनेमा देखने से पहले उसकी कहानी बताना सही नहीं होता । पाठक होने के नाते आपको सुविधा होगी कि आप सुरक्षित रहते हुए भी उन रोमांचक पलों को महसूस कर सकेंगे जब जान जाने के खतरे का सामना करते हुए लोग सूरज के निकलने का इंतजार करते हैं । इन्हीं हालात ने उसे देवत्व प्रदान किया होगा । भय का ऐसा रोमांचक वर्णन बहुत कम पढ़ने को मिलता है जब आपकी सांस भी संकट में फंसे लोगों के साथ ही अटक जाये और उनके बच जाने पर आप भी राहत की सांस लें । इन वर्णनों में एकाधिक स्थानों पर ऐसा ही हुआ है । दुर्गम प्रकृति के साथ इनमें समूचा परिवेश जीवंत हो गया है । रास्ता, आश्रय स्थल, मनुष्य, नदी, पेड़ और भोजन के साथ ही राहगीर, साथी, विश्राम स्थलों के कामगार भी अत्यंत सजीव बन पड़े हैं । मनुष्य समाज का ही अंग देवी-देवता और उनके निवास भी होते हैं । कदाचित इसीलिए उनकी भी उपस्थिति भरपूर है ।
मदन मोहन जी में
पर्युत्सुकी भाव के साथ ही विनम्रता का प्राचुर्य है । इसने उनके इन यात्रावृत्तों
को अतिरिक्त आभा प्रदान की है । आस पास की प्राकृतिक छटा को मुग्ध भाव से देखते
हुए भी वे मानव समाज को कभी नहीं भूलते । असल में प्राकृतिक सौंदर्य मनुष्य की
उपस्थिति के साथ होता है । प्रकृति का एक अर्थ मानव स्वभाव यूं ही नहीं है । बाह्य
प्रकृति के साथ ही आंतरिक प्रकृति भी मनुष्य को गहन समृद्धि प्रदान करती है ।
स्वभाव की बात ही छोड़िए, हमारा शरीर तक हमारा सचेतन निर्माण होता है । हम उसे कभी
जस का तस नहीं छोड़ते । बहुत प्राचीन सभ्यताओं में भी प्रसाधन सामग्री मिली है
जिससे पता चलता है कि प्रकृति से प्राप्त को सजाने की इच्छा पर्याप्त पुरानी
परिघटना है । इसी वजह से सभ्यता और संस्कृति में तमाम कोशिश के बावजूद कोई
बुनियादी अंतर स्थापित नहीं किया जा सका । इन यात्रावृत्तों में मनुष्य और प्रकृति
की यह आपसदारी भी कुछ हद तक नजर आती है । आपसदारी की बात चली तो याद आया कि इन
यात्रावृत्तों में मदन मोहन जी का पारिवारिक जीवन भी अद्भुत रूप से प्रकट हुआ है ।
आम तौर पर घुमक्कड़ी को पुरुष केंद्रित परिघटना ही माना जाता है लेकिन मदन मोहन जी
की पत्नी और पुत्री भी इन यात्रावृत्तों में भरपूर उपस्थित हैं । राहुल
सांकृत्यायन ने भी स्त्री घुमक्कड़ों का आवाहन किया था ।
इन यात्रावृत्तों में
हमारे देश के मानव समाज के कुछ ऐसे तत्व भी दिखायी देते हैं जिन पर श्रद्धा से
अभीभूत लोगों की नजर बहुधा नहीं पड़ती । धार्मिकता के साथ जाति व्यवस्था आधारित
अमानुषिक भेदभाव भी हमारे समाज की सचाई है । लेखक ने अत्यंत संवेदनशील तरीके से इस
पहलू को भी दिखाया है । धर्म और जाति की जटिलता को ईमानदारी के साथ लेखक ने
प्रस्तुत किया है । मंदिर के बाहर बैठे दलितों का चित्र इस सारी जटिलता को पाठक के
सामने खोल देता है । ये दलित मंदिर के भीतर भी नहीं जा सकते लेकिन ईश्वर को त्याग
भी नहीं सकते । आखिर ईश्वर पर भी तो उनका अधिकार बनता ही है । समाज की इस विडम्बना
को हल करने में भक्ति आंदोलन ही कुछ हद तक कामयाब हुआ था । संतों ने जिस हद तक
ईश्वर को शासकों की कैद से मुक्त कराया था उस विरासत पर खड़ा होकर स्वाधीनता आंदोलन
के पुरोधा धर्म सुधार के आवरण में समाज सुधार का कार्यभार पेश करने में सफल हुए थे
। उनके प्रयासों से स्त्री के मामले में बहुत कुछ हासिल किया जा सका लेकिन जाति
आधारित हमारी समाज व्यवस्था की भेदभाव संबंधी यह गांठ सुलझने के लिए अब भी
प्रतीक्षारत है ।
आप भी इसे पढ़ें । तय है कि अच्छा लगेगा । इसलिए भी पढ़ें ताकि अपने इस समृद्ध देश और उसके लोगों को उनकी समग्र विविधता के साथ सराह सकें । मुझे इस भूमिका को लिखने लायक किताब के लेखक मदन मोहन जी ने समझा इसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता जताता हूं ।