(साहूजी महाराज की जयंती के दिन सत्यशोधक विद्यार्थी संघटना के फ़ेसबुक लाइव
में व्याख्यान का संपादित रूप । इसका लिप्यंतरण प्रवीण वर्मा ने किया ।)
मार्क्सवाद
एक वैश्विक विचारधारा रही है और अम्बेडकर का उस विचारधारा से एक तरह का संवाद जीवन भर बना रहा है | यह संवाद उनके
जीवन में तो चला ही, तबसे अब तक इस संवाद की यात्रा जारी है । इसे समझने के लिए
हमें वर्तमान स्थिति को भी ध्यान में रखना होगा । आमतौर पर कहा जा सकता है कि अतीत हमारे वर्तमान को प्रभावित करता है लेकिन सत्य केवल इतना ही नहीं होता | सत्य यह भी होता है कि कई बार हमारा वर्तमान भी हमारे अतीत को प्रभावित करता है | कहने का तात्पर्य यह है कि जिस विशेष स्थिति में हम होते हैं, उस स्थिति के कारण भी अतीत को देखने की हमारी निगाह बनती है |
यह
जो हमारा विशेष समय है इस समय के कारण भी हम इस समय मार्क्सवाद और अम्बेडकर के सम्बन्धों को थोड़ा अलग तरीके से देख सकते हैं | आज की परिस्थिति भिन्न तरह की परिस्थिति है और इतिहास में हमेशा ही होता है कि दो विचारकों के सम्बंध हमेशा के लिए स्थिर नहीं होते, बल्कि वे समय के प्रवाह में निरंतर बदलते रहते हैं । जैसे हमारा जीवन है, अगर दो मनुष्य एक साथ रह रहे हैं तो पूरे जीवन में दो मनुष्यों के सम्बंध एक ही तरह कायम नहीं रहेंगे बल्कि भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के हिसाब से, हमारी आयु के हिसाब से, दोनों के हालात बदलने के चलते हमारे आपसी सम्बन्ध भी प्रभावित होते हैं | उसी तरह से दो विचारकों के भी सम्बन्ध, उनके जीवित न रहने के बाद जो इतिहास का प्रवाह होता है उससे गहराई से प्रभावित होते हैं
| इसलिए
अम्बेडकर जब जीवित थे उस समय जो मार्क्सवादी लोग थे और अभी की जो परिस्थिति है, उन दोनों ही समयों में इनके आपसी रिश्ते अलग रहे ।
इसके साथ अभी की जो परिस्थिति है, इन तीनों ही चीजों पर ध्यान दें तो यह सम्बन्ध स्थिर नहीं रहा है
|
संसार
में निरन्तर बदलाव आता रहता है | बल्कि ऐतिहासिक परिस्थियाँ जब
बदलती हैं उनके बदलने से सम्पूर्ण इतिहास भी प्रभावित होता है | अतीत को देखने की हमारी दृष्टि भी प्रभावित होती है । इसी चीज को ध्यान में रखते हुए वाल्टर बेंजामिन ने
कहा था कि फासिस्टों से जीवित लोगों
को
जितना अधिक खतरा होता है कई बार उससे ज्यादा खतरा मृतकों को होता है | जो मरे हुए लोग हैं, उनका सत्व निकालकर, उनका सार निकालकर और उनके क्रांतिकारी अन्तर्य को समाप्त करके उन्हें सिर्फ पूजा की वस्तु में बदल दिया जाता है | असल में हमारे समाज में जब बकरे की बलि चढ़ानी होती है उसकी बड़ी पूजा की जाती है | उसी तरह से ये जो नए तानाशाह हैं, उन्हें अतीत के विचारकों से शिक्षा ग्रहण नहीं करनी है, बल्कि सिर्फ अपनी तानाशाही के लिए उनका समर्थन प्राप्त करना है और उसके लिए इन विचारकों को नखदन्तविहीन कर दिया जाता है, उनके विचारों की अंतर्वस्तु को समाप्त कर
दिया
जाता है । वाल्टर बेंजामिन का कहा गया कथन उचित ही प्रतीत होता है कि जो लोग मर चुके हैं उनकी विरासत का इस्तेमाल करने के लिए उनकी
मनमानी व्याख्या होती है
। जाहिर है
कि अम्बेडकर
और मार्क्सवाद के बारे में सोचते हुए नई तरह की परिस्थितियों का ध्यान रखना होगा |
इस
सन्दर्भ में देखें तो बाबा साहब अम्बेडकर के जन्मदिन के दिन उनके जिन नवासे को देश की सरकार ने गिरफ्तार करने का हुक्म सुनाया और गिरफ्तार भी किया, उन्होंने
बाबा साहब अम्बेडकर की रचनाओं का एक संचयन किया है
‘इंडिया ऐंड
कम्युनिज्म’ जो 2017 में लेफ़्टवर्ड से प्रकाशित
हुआ है
| उन्हीं आनंद
तेलतुम्बड़े ने इस पुस्तक में लम्बी भूमिका लिखी है । उसमें वे कहते हैं कि अम्बेडकर और मार्क्सवादियों के बीच का जो तनावपूर्ण सम्बन्ध दिखाई पड़ता है उसके मूल में यह बात नहीं कि अम्बेडकर मार्क्स के सिद्धान्तों का विरोध कर रहे हैं । असल में मार्क्स के विचारों का उतना अधिक
विरोध वे नहीं करते थे जितना
भारत के कम्युनिस्टों द्वारा किये जाने वाले कार्यों का विरोध करते थे | इस सवाल पर गम्भीरता से विचार करना होगा ।
वर्तमान
परिस्थितियों में हमें अम्बेडकर और मार्क्स के संदर्भ में नए तरह की समझदारी दिखानी होगी | हम सब जानते हैं कि मार्क्स को भी पूरी दुनिया में एक ही तरह से नहीं समझा गया । मसलन जहाँ पर कृषि प्रधान देश थे वहाँ पर मार्क्स को समझने के लिए अन्य तरीकों का इस्तेमाल किया गया | मार्क्स और अंबेडकर में
जो सम्वाद हुआ है वह वास्तविक संवाद नहीं बल्कि वैचारिक सम्वाद है, उसको समझकर आज की चुनौतियों और परिस्थितियों का मुकाबला करना होगा | इसके लिए दोनों के संबंध को देखना जरूरी है | उन दोनों के बीच विरोध की बात को बहुत ज्यादा फैलाया गया है । आनंद तेलतुम्बड़े ने उस भूमिका में कहा है कि उनके बीच में जितना ज्यादा विरोध है, उससे अधिक उस विरोध को प्रस्तुत किया गया है । उस विरोध को इस तरह बढ़ा
चढ़ाकर प्रस्तुत
करने पीछे भी राजनीति रही है | बाबा
साहब ने अपनी
पुस्तक
जाति प्रथा का विनाश (annihilation of caste) के दूसरे अध्याय में कहा है कि समाजवादी लोग, जब वे समाजवादी कहते हैं तो उनका मानना है मार्क्स के विचारों से प्रभावित लोग, मनुष्य को मूलतः आर्थिक जीव समझते हैं | बाबा साहब अम्बेडकर की मार्क्स के बारे में यह एक धारणा है | सही है कि मार्क्स के चिंतन की समझ में एक खास समय राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना, अर्थतंत्र के ही इर्द-गिर्द सारी
चीजों को समझने की कोशिश करने का दौर रहा है | लेकिन मार्क्स को देखने की कुछ नयी दृष्टियाँ भी पैदा हुई हैं | इनका कहना है कि मार्क्स के चिंतन में सामाजिक कोटि बहुत महत्वपूर्ण है । उदाहरण के लिए मार्क्स, पूंजी को एक सामाजिक सम्बन्ध मानते हैं । उनका ‘पूंजी’ नामक एक ग्रंथ है जिसमें वे कहते हैं कि जब किसी कारखाने का मालिक और उस कारखाने में काम करने वाला मजदूर, दोनों लेबर मार्किट में मिलते हैं तो दोनों के बीच में एक तरह की समानता होती है | बल्कि मजदूर के पास ज्यादा अधिकार होता है क्योंकि मेहनत करने का एकमात्र साधन उसका शरीर होता
है और अपने
शरीर पर उसका अधिकार है | उस नाते ही वह अपनी मजदूरी का मोल-तोल करता
है | मान लिया, उनका सौदा तय हो जाता है कि इतनी मजदूरी में आदमी इतनी देर काम (आठ घण्टे) करेगा | इस संदर्भ में मार्क्स कहते हैं कि ज्यों
ही यह सौदा तय होता है, दोनों की चाल-ढाल में बदलाव आ जाता है | इस अर्थ में कि पूंजीपति आगे-आगे सीना फुलाए हुए चलता है और पीछे-पीछे मजदूर सिर झुकाए हुए चलता है | इस तरह से देखें तो यह जो पूंजी है सिर्फ आर्थिक रूप में ही नहीं मौजूद होती, बल्कि सामाजिक रूप में भी बदल जाती है | हमारे समाज में आर्थिक तत्व सिर्फ आर्थिक नहीं होता, बल्कि सामाजिक परिघटना में बदल जाता है | उदाहरण के लिए जिसके पास पैसा होता है उसकी सामाजिक हैसियत भी बढ़ जाती है, यह आर्थिक पहलू केवल आर्थिक नहीं होता है | इसी अर्थ में मार्क्स का जो चिंतन है उसको लोगों ने नए दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की है | एक जमाने में लेनिन की जिस पार्टी ने क्रान्ति की थी उसका नाम सामाजिक जनवादी लेबर पार्टी था |
सामाजिक
जनवाद क्या है ? सामाजिक जनवाद है लोकतंत्र | जनवाद केवल पॉलिटिकल नहीं होना चाहिए | पॉलिटिकल जनवाद एक औपचारिक डेमोक्रेसी है | इस बात को देखने
के लिए एक संदर्भ जरूरी है । जब
सामंतवाद से
पूंजीवाद लड़
रहा था तब पूंजीवाद यह कहता था कि संसद में हमारे ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधि
चुनकर जाएं | यह उसके लिए एक तरह का राजनीतिक लोकतंत्र था | तो वह राजनीतिक लोकतंत्र की मांग कर रहा था | उसके बदले में इस धारणा से बहस करते हुए
मार्क्स ने कहा कि असल में लोकतंत्र सामाजिक होना चाहिए क्योंकि सामाजिक लोकतंत्र महत्वपूर्ण है, केवल राजनीतिक संस्थानों में औपचारिक लोकतंत्र उतना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है | यह जो लड़ाई है लोकतंत्र की उसमें मार्क्सवादियों ने बहुत योगदान दिया है | हम सब जानते हैं कि मजदूर वर्ग का जैसे-जैसे मताधिकार बढ़ता गया वैसे-वैसे लोकतंत्र और ज्यादा मजबूत होता गया | इस लड़ाई में सवाल यही था कि वोट देने के अधिकार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे और सबको वोट देने का अधिकार हासिल हो जाए | जो ‘नागरिक’ शब्द है वह खुद ही एक तरह के अधिकार से जुड़ा शब्द है, लोकतंत्र में रहने का मतलब है कि हम सत्ता से सवाल पूछ सकते है, नागरिक के रूप में हमें
यह अधिकार है | इस तरह से सामाजिक लोकतंत्र की धारणा को लेकर मार्क्स आए | इस तरह मार्क्स का चिंतन केवल आर्थिक ही नहीं है बल्कि उसमें सामाजिक पहलू भी बहुत महत्वपूर्ण है | क्रांति के बारे
में वे
कहते भी हैं कि अब सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है | क्रांति को उन्होंने कभी भी केवल राजनीतिक क्रांति नहीं कहा, बल्कि सामाजिक क्रांति कहा है | उनके लिए क्रांति तभी महत्वपूर्ण होती है जब समूचे समाज में उसके कारण परिवर्तन आए | यहाँ तक कि मनुष्य की जो धारणा है, उसको भी जब वे परिभाषित करते हैं, तब यही कहते हैं कि अपने सामाजिक अस्तित्व के पुनरुत्पादन के क्रम में हम कुछ ऐसे संबंधों में प्रवेश करते हैं जो हमारी इच्छा से स्वतंत्र और अपरिहार्य होते हैं | कहने का मतलब कि मनुष्य अपने सामाजिक अस्तित्व का पुनरुत्पादन करता है और इस क्रम में वह खास तरह के सामाजिक बंधन में बंधता जाता है | हमारा ज़ोर यहाँ इस बात पर है कि आज जब हम मार्क्स को देखने की कोशिश करें तो उनके बारे में बाबा साहब अंबेडकर ने जो बात लिखी और जो इस जमाने में भी मानी जाती कि
मार्क्स
केवल आर्थिक पहलू पर ज़ोर देते थे, वह एक हद तक सही नहीं है, बल्कि अब मार्क्स को जिस तरह से लोग देख रहे हैं, उनको महसूस हो रहा है कि मार्क्स के चिंतन में भी सामाजिक पक्ष ज्यादा महत्वपूर्ण है | वे सामाजिक क्रांति पर ज़ोर देते हैं, पूंजी को एक सामाजिक संबंध मानते हैं, सामाजिक सम्बन्धों में उलट-फेर को क्रांति मानते हैं | मार्क्स के चिंतन
में यह
जो सामाजिक परिघटना है वह बेहद महत्वपूर्ण परिघटना है | लोकतंत्र को भी वे केवल राजनीतिक लोकतंत्र तक ही सीमित नहीं मानते हैं, बल्कि उसे सामाजिक लोकतंत्र में तब्दील कर देना चाहते हैं | उसमें भी उनका जोर समाज के सबसे वंचित तबके के लोगों पर है | उन्होंने लिखा है कि सर्वहारा वह होता है जिसके पास उत्पादन का कोई साधन न रह जाए | इससे पहले किसान तक के पास, यहाँ तक कि जो दस्तकार होते थे, उसके पास भी कोई न कोई अपना उपकरण हुआ करता था, लेकिन सर्वहारा या मजदूर की विशेषता ही यही है कि उसके पास से सब कुछ छीना जा चुका है | उसके पास
अपने
शरीर के अलावा और कुछ नहीं रह गया है और इसलिए उन्होंने कहा है कि जो पूंजी पैदा होती है उसके पोर पोर से खून टपकता रहता है | मनुष्य को चूस करके वह आकार ग्रहण करती है | इस तरह कह लीजिए, वह सर्वहारा समाज का सबसे अधिकारविहीन तबका होता है | उसकी तरफ खड़ा होकर उन्होंने पूंजी के साम्राज्य की परीक्षा की और उसकी आलोचना की | इसके लिए उन्होंने कहा कि हमें ऐसी आलोचना में विश्वास करना होगा जिसे किसी भी चीज से नहीं डरना चाहिए, किसी भी सत्ता की तानाशाही से नहीं डरना चाहिए, सत्य को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए कि आखिर यह पूंजी पैदा कहाँ से होती है | आज जब हम मार्क्स को देखें तो केवल आर्थिक पहलू पर न देखकर यह देखें कि आर्थिक को वे जिस तरह देखते थे वह भी एक तरह का सामाजिक संबंध होता था | इसमें वे बदलाव करना चाहते थे | वे चाहते थे कि अर्थतंत्र, समाज के मातहत आये | समाज पर शासन अर्थतंत्र न करे, बल्कि समाज अर्थतंत्र पर शासन करे | पूंजी को वे समाज की सेवा में लगाना चाहते थे, न कि समाज पूंजी की सेवा करे | इस तरह से वे सामाजिक परिवर्तन घटित करना चाहते थे |
मार्क्स
को नए ढंग से समझने की कोशिश करनी चाहिए कि कैसे वे आम जनता को, वंचित समुदायों को अधिकारसम्पन्न बनाने के आंदोलन में संसाधनों तक उसकी पंहुच को
शामिल कर रहे हैं | ध्यान दें कि अर्थतंत्र
कोई ऐसी चीज नहीं है जो केवल पैसे की शक्ल में चलती है, उसमें संसाधन बहुत महत्वपूर्ण तत्व होता
है | हम सब जानते हैं कि जिस तरह के भी संसाधन हैं उनमें मनुष्य की क्षमता के अलावा, मेहनत के अलावा, सबसे बड़ा संसाधन है- जमीन । जमीन का जो मालिकाना होता है उसमें एक तरह का जातीय पैटर्न होता है । एक खास तरह के जातिगत ढांचे के अनुरूप जमीन के मालिकाना का ढांचा बना हुआ है | तो यह एक सामाजिक प्रक्रिया है | जमीन के साथ जुड़ा हुआ है- जंगल, लकड़ी, फल तथा जो कुछ पैदा होता है | उसके अतिरिक्त एक बड़ा संसाधन
पानी के स्रोत हैं और हम सब जानते हैं कि नदियां बेची जा रही हैं | नदियों को पानी की बोतल में ढाला जा रहा है | मनुष्य के स्वास्थ्य का सबसे बड़ा ढांचा है पेयजल | पानी के लिए बाबा साहब ने कितनी भयंकर लड़ाई की थी कि पानी तक सबकी पंहुच होनी चाहिए | प्राकृतिक संसाधन भी पूंजी का एक रूप है इसलिए अर्थतंत्र केवल पैसे में सीमित नहीं रहता है, बल्कि वह संसाधनों के रूप में भी मौजूद होता है | इस तरह जो आर्थिक पहलू है जिसका आरोप मार्क्स पर लगता रहा है, उस आर्थिक पहलू के भी सामाजिक आयाम होते हैं | जब हम मार्क्सवाद और अंबेडकर के संबंधों की बात कर रहे हैं, तो दूसरी बात जातिभेद की है । जो बाबा साहब अंबेडकर का भाषण था, उसमें आप देखेंगे कि वे समाजवादियों के साथ बहस करते हैं । इस बात पर तो लोग ध्यान देते हैं कि उन्होंने अपने आपको समाजवादियों से कितना
अलग दिखाया है, लेकिन वे यह देखने से चूक जाते हैं कि बाबा साहब समाजवादियों से किस स्तर तक सहमत हैं | वे जब इस बात का विरोध करते हैं कि केवल आर्थिक पहलू महत्वपूर्ण नहीं होता है व्यक्ति में, वे दो और पहलुओं की चर्चा करते हैं लेकिन आर्थिक पहलू को खत्म नहीं करते हैं | कारकों के बतौर जब वे कहते हैं धर्म और दूसरा कहते हैं सामाजिक स्थिति तो इसके साथ ही
तीसरा कारक कहते हैं संपत्ति | तो संपत्ति का तत्व
समाप्त नहीं कर दिया है |
उनका
यह कहना है कि तीन पहलुओं में से एक पहलू संपत्ति भी है |
जब
हम बाबा साहब को पढ़ते हैं इस दृष्टि से कि उन्होंने मार्क्सवाद का कितना विरोध किया है तो उसमें बहुत कुछ मनचाहा मिल सकता है | लेकिन साथ ही साथ हमें इस पर भी ध्यान देना होगा कि उन्होंने कहाँ तक सहमति दिखाई | एक सहमति की अभी मैंने चर्चा की, वह है पानी । पानी एक संसाधन है और पानी के स्रोत तक आपकी पंहुच होती है आपकी हैसियत के हिसाब से ।
इस प्रसंग में आज
लॉकडाउन में हम देख सकते हैं कि मनुष्य कितनी तरह की चीजों से जुड़ा हुआ है और किस तरह उसका जीवन चलता है | उदाहरण के लिए नदी | बंगाल के अद्वैत मल्लबर्मन महत्वपूर्ण दलित उपन्यासकार थे | अद्वैत मल्लबर्मन की एक किताब है तितास एक नदी का नाम | उसकी विशेषता यह है कि नदी एक सम्पूर्ण अर्थतंत्र के बतौर
चित्रित है
| हम सब जानते है मल्लाहों की बिरादरी ऐसी है जो नदी के भरोसे अपना जीवन चलाती है, समुद्र के आस-पास मछुआरे रहते हैं । संसाधन के रूप में
पानी
है, तो केवल
पानी नहीं है बल्कि साफ पानी हो और उस तक सबकी पहुंच हो | प्राकृतिक संसाधनों तक मनुष्य की पहुंच जातिगत भेद-भाव के आधार पर निर्धारित होती है | इस बात को बाबा साहब ने पहचाना और इसके विरोध में आंदोलन चलाया | यह बात स्वाभाविक तौर पर उन्हें मार्क्सवादी सिद्धांतों से जोड़ती है | वे कहते हैं कि मनुष्य की हैसियत
को निर्धारित करने में संपत्ति भी एक फैक्टर है, धर्म और सामाजिक हैसियत तो है ही ।
बाबा
साहब के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण तत्व रहा था क्योंकि शिक्षा भी एक संसाधन है | शिक्षा तक पहुंचना, और
हम जानते हैं आज की स्थिति में, शिक्षा कितनी महत्वपूर्ण है | इस संदर्भ में लगातार संघर्ष चलते रहे हैं | यहाँ तक किसकी पहुँच
रहेगी, कौन लोग उसमें दाखिल होंगे, इसी को निरंतर नियंत्रित करने की कोशिश की जाती रही है | कोशिश होती है कि जो आरक्षण भारी संघर्षों के बाद हासिल हुआ है, उसे किस तरह से समाप्त किया जाए | कभी-कभी न्यायालयों के कुछ फैसलों के जरिए या अनेक तरह के नए-नए उपायों के जरिए कोशिश की जाती है कि शिक्षा तक लोगों की पहुंच कम की जाये । वर्तमान पूंजीवाद जब संकट में आया तो उसने दो चीजों को अपने मुनाफे का सबसे बड़ा स्रोत बनाया | उनमें से एक है शिक्षा और इसके लिए गली-गली में पुराने
स्कूलों को समाप्त करके कान्वेंट स्कूल खुले, जो पूँजीपतियों के माध्यम से चलते हैं और बहुत सारे नेताओं का दो नंबर का पैसा भी उनमें लगा होता है | जो पुराने सरकारी स्कूल थे और ये जो नये स्कूल हैं उनमें क्या फर्क है ? फर्क यह है कि जो पुराने स्कूल थे उनके प्रबंधन पर निगाह रखने के लिए सामाजिक प्रतिनिधियों का भी दखल
हुआ
करता था | लेकिन ये जो निजी किस्म के स्कूल हैं, शिक्षा की जो दुकानें हैं, इन पर समाज का कोई नियंत्रण नहीं है और ये सामाजिक नियंत्रण के विरोध में खोले जाते हैं | यह एक तरह से शिक्षा तक सभी लोगों की पहुंच पर सुनियोजित हमला है
| यहाँ शिक्षा को माध्यम बनाया गया और इसमें प्राथमिक शिक्षा से उन्होंने शुरुआत की । प्राथमिक शिक्षा को लगभग बर्बाद कर डाला है और अब उच्च शिक्षा तक पहुंचे हैं |
असल में जैसे जैसे अधिकाधिक
लोग शिक्षा के भीतर आते गये हैं, आरक्षण के जरिए भीतर आते गये हैं । स्त्रियों
और वंचित समुदायों के विद्यार्थियों के आने से उच्च शिक्षा संस्थानों में आने वाले विद्यार्थियों की स्थिति में सामाजिक बदलाव आया है | इस बदलाव के आस-पास सरकार ने सरकारी स्तर की सहायता से चलने वाले लगभग सभी विश्वविद्यालयों
को नष्ट करने की प्रक्रिया शुरू की और उच्च शिक्षा में भी निजी विश्वविद्यालयों की शुरुआत हुई | हम जानते हैं कि बाल श्रम कानून को पूरी तरह ध्वस्त करने के लिए एक कानून लाया गया है | अब पारिवारिक व्यवसाय में बच्चों को लगाया जा सकता है | ये जो निजी विश्वविद्यालय शुरु हुए तो वहां पर आरक्षण लागू करने की कोई गारंटी नहीं थी | वे लोग आरक्षण को गुणवत्ता एवं प्रतिभा के नाम पर ध्वस्त करने में लगे रहे |
प्राकृतिक
संसाधनों के अलावा
मानव
सृजित संसाधन है श्रम | रोजगार के अवसरों
की समानता तो खत्म की ही जा रही है, पारिवारिक व्यवसाय में बच्चों को लगाने की
इजाजत देकर नये किस्म का वर्णाश्रम भी कायम किया जा रहा है । पेशे की आजादी सीमित करने के लिए पूरी कोशिश की जा रही है | यह एक नई परिस्थिति है, इस परिस्थिति में
जब हम अंबेडकर को देखते हैं तो इस बात को समझने की कोशिश करते हैं कि अंबेडकर केवल उतना ही नहीं है जितना आमतौर पर समझा जाता रहा है, बल्कि मार्क्सवाद के साथ उनका एक तरह का संवाद रहा है, जीवन भर का संवाद | यह संवाद समस्या को देखने की दृष्टि को भी प्रभावित करता है | वे कहते हैं कि जो दलित समुदाय है, उस समुदाय को किस तरह से पराधीन बनाया गया, किस तरह से उनको गुलाम बनाया गया ? तो उसके लिए वे कहते हैं कि उनको ज्ञान से वंचित कर दिया गया और आज भी शिक्षा संस्थानों
से उन्हें बाहर करने के प्रयास में यही उपाय नजर आता है । आज के दौर में पूंजीवाद की एक बड़ी विशेषता पैदा हुई है, क्योंकि बीच में पूंजीवाद उस तरह का नहीं रह गया था | रूस के खत्म होने के बाद पूंजीवाद ने अपना स्वरूप बदला है और इस बात पर बहुत सारे लोग विचार कर रहे हैं कि एक तरह की वर्ण व्यवस्था का जन्म पश्चिम देशों में भी हुआ है | जो शिक्षा है, उच्च शिक्षा है, वहाँ तक वही लोग पहुंच पा रहे हैं, जिनके पास अपार संपत्ति है, जो शिक्षित है, उसी का पुत्र शिक्षित होगा | पश्चिम के देशों में एक तरह की वर्ण व्यवस्था जैसी चीज विकसित हो रही है | उन्होंने व्याख्यान में इस बात को रखा कि हमारे देश में जो जाति व्यवस्था थी, इसने सबसे पहले दलित समुदाय को ज्ञान से वंचित किया, दूसरा हथियार रखने के अधिकार से वंचित किया | यह बड़ा ही नाजुक सवाल है । पूरे अमेरिका में, अमेरिका में वे पढ़े थे और वहाँ की इस डिबेट को जानते थे कि हथियार रखने का अधिकार नागरिक को भी होना चाहिए | केवल राज्य के पास यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह हथियार रखे, सामान्य लोगों के पास भी यह अधिकार होना चाहिए कि वे हथियार रख सकते हैं | यह अति महत्वपूर्ण सवाल है | भगतसिंह ने इस बात को लिखा है कि 1857 के बाद हमारे देश में आर्म्स एक्ट लाया गया | हम लोग अपने बचपन में सुनते रहे हैं कि 1857 के बाद जब पुलिस ने गाँव में खोजबीन शुरू की तो लोगों ने अपने हथियार दीवारों में छिपा दिए थे | हथियार रखने को गैर-कानूनी मानना 1857 के बाद आर्म्स एक्ट के जरिए किया गया | इसका विरोध भगतसिंह ने भी किया | खुद गांधी जी कहते है कि अंग्रेजी राज में हमें बलहीन, कायर बना दिया गया | उन सबमें महत्वपूर्ण बात है कि हथियार रखने का अधिकार अंग्रेजी राज ने केवल और केवल अपने पास रख लिया, बाकी किसी और को हथियार रखने का अधिकार नहीं रह गया | इसी तरह से बाबा साहब कहते हैं कि वर्णव्यवस्था में भी हथियार रखने का अधिकार वंचित समुदाय को न था | केवल एक वर्ण के पास हथियार रखने का अधिकार था । इसके अलावा और किस चीज से उनको वंचित किया गया ? संपत्ति से | यह फिर बहुत ही महत्वपूर्ण बात है जो बाबा साहब के अनुभव से उपजी हुई बात है, क्योंकि वे अमेरिका में रहे थे |
हम
इस बात को जानते हैं कि वहां माना जाता है और
पूंजीवाद के भीतर यह आम मान्यता है कि जो मेहनत
करेगा वह आगे बढ़ सकता है लेकिन हम सब इस बात को भी जानते हैं कि हमारे देश में जो पूंजीपति हैं, पिछले दिनों इस बात पर खोजबीन हुई कि हमारे देश के सबसे ज्यादा पैसे वाले जो भी अमीर लोग हैं, उनकी जातिगत संरचना को देखेंगे तो एक ही जगह के, एक ही जाति के लोग सबसे ज्यादा हैं । इसलिए संपत्ति के मामले में, पूंजी के मामले में जातिप्रथा अभी खत्म नहीं हुई है, बल्कि वह बहुत गहरे में जड़ जमाए बैठी हुई है | उसका कारण यह है कि जैसा लोग समझते हैं, पूंजी उसी तरह से नहीं चलती है | कहा जाता है और यह भ्रम बहुत फैला
हुआ है कि आप कोई
व्यवसाय खोलना चाहें और आप बहुत मेहनत करें तो व्यवसाय चल जाएगा | बात इतनी सीधी नहीं है, बात यह है कि कोई भी व्यवसाय चलाने के लिए आपको सामाजिक संबंधों की जरूरत पड़ती है | हम सब देख रहे हैं कि इस समय प्रचार किया जा
रहा है कि मुसलमानों
से सब्जी मत खरीदिये । व्यवसाय एक सामाजिक संबंध है
| आप
कोई दुकान खोलकर बैठ जाइए और वह चलने लगेगी, ऐसा नहीं होता है बल्कि जो आपको सामान देता है, जो-जो समान खरीदते हैं, यह एक तरह का नेटवर्क होता है । यह भी खास तरह के सामाजिक संबंधों के जरिए चलाया जाता है और इसलिए जो व्यवसाय है, वह पूंजी पैदा करने का साधन है | वह भी जाति प्रथा से बाहर नहीं है बल्कि पूंजी के चलने का जो रास्ता है वह जाति के भीतर से ही आता है | वह जातीय सम्बन्धों के जरिए चलती है और इसलिए जब एक खास तरह के लोग कोई भी व्यवसाय शुरू करते हैं तो उनके पास पहले से ही सामाजिक संपर्क मौजूद होते हैं जहां से वे माल उठा सकते हैं | एक खास तरह की बाज़ार की समझ उनको पहले से
ही होती
है | जहां पर उनका माल जा सकता है, वहाँ भी एक तरह का सामाजिक संपर्क पूंजी के रूप
में मौजूद होता है
|
बाबा
साहब ने कहा कि वर्ण व्यवस्था में दलित समुदाय को पूंजी से वंचित किया गया | इसका आधुनिक रूप क्या है ? इसका आधुनिक रूप हैं- बैंक | आप सब जानते हैं कि बैंक में कर्ज़ लेते-देते हैं, क्योंकि कोई भी व्यवसाय चलाने के लिए कर्ज़ लेना पड़ता है | कर्ज़ लेने के लिए जब आप जाते हैं तो ऐसा नहीं है कि मैनेजर से कहिए, मुझे कर्ज़ लेना है और वो आपको कर्ज़ दे देगा | ऐसा नहीं होता है वह तो आपसे गारंटी की उम्मीद करता है | यह गारंटी कई शक्लों में होती है, कहने का मतलब कि आपके पास कुछ न कुछ ऐसी संपत्ति होनी चाहिए जिससे बैंक इस बात का भरोसा कर सके कि उसका पैसा नहीं डूबेगा | इसका अर्थ है कि जिसके पास संपत्ति है, उसी को बैंक से ऋण मिलेगा | हम सब जानते हैं कि जितने पूंजीपति बैंक से
कर्ज़ लेकर विदेश
भागे, उनका एक विशेष पार्टी से लेना देना, संपर्स-संबंध रहा है | कहने का मतलब कि पूंजी का और बैंक का जो संबंध है वह लिखित कानूनों से बाहर कुछ सामाजिक सम्बन्धों का साकार रूप होता है |
जब
बाबा साहब बात कर रहे थे वंचना की तो भारत की जाति व्यवस्था को वे केवल अस्पृश्यता के रूप में नहीं देखते थे, बल्कि इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी शब्द ग्रेडेड इनइक्वलिटी का प्रयोग किया है
| वह एक तरह की विषमता का विस्तार है, एक फिक्स किस्म
की विषमता | इस तरह की चीज़ के रूप में वह देखते थे और एक सामाजिक, सांस्कृतिक
परिघटना के रूप में देखते थे । उसको देखने का उनका नज़रिया स्वाभाविक तौर पर आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना है | उन्होंने इस बात का प्रयोग किया है कि प्रत्येक वोट का मूल्य बराबर है- एक व्यक्ति- एक वोट, एक वोट- एक मूल्य | व्यावहारिक दुनिया
में अभी
इसको अनूदित होना है । इसमें एक व्यक्ति- एक वोट, अभी हम सिर्फ इतना कर पाये हैं | राजनीतिक स्तर पर
औपचारिक समानता लाने में हम सफल हो पाये हैं | इसे अभी सामाजिक समानता,
सामाजिक सामर्थ्य
में अनूदित होना है | जब संविधान अपनाया जा रहा था तब उन्होंने कहा था कि हमने एक तरह की पोली बुनियाद पर यह इमारत खड़ी की है क्योंकि समाज में विषमता मौजूद है और ऊपर के ढांचे में, कानून में समानता लाने की कोशिश की है | उनको यह लगता था कि आगामी लड़ाई समाज में समानता लाने की लड़ाई होनी है | इसी अर्थ में हम दोनों के बारे में एक तरह का संवाद देख रहे हैं | हम जानते हैं कि जो अंतिम लेखन अंबेडकर ने लिखा वह भी मार्क्स और बुद्ध की तुलना करते हुए लिखा था | मार्क्स उनके जीवन से कभी भी गायब नहीं हुए । जहां उन्होंने नाम लिया है और जहां नाम उन्होंने नहीं भी लिया है, वहां पर भी उनकी दृष्टि हमेशा मार्क्सवादियों की रही |
जिस
तरह की चीज, जिस तरह की दुनिया निर्मित करने का मार्क्स ने सपना देखा था- वहाँ पर मनुष्य की हैसियत है और उनकी चाह थी थी कि मनुष्य की बराबर की हैसियत हो | इस बराबरी की चाहत में जितनी भी दीवारें मौजूद हों, उन सबको गिरा दिया जाना चाहिए- चाहे वह नस्ल के आधार पर गैर-बराबरी हो, चाहे लिंग के आधार पर या जाति के आधार पर या पूंजी के आधार पर हो रही हो, उन सबको गिरा दिया जाना चाहिए और सभी मनुष्यों को मनुष्य होने के नाते जो अधिकार है, सम्मान है, वह प्राप्त होना चाहिए | यही मार्क्स और बाबा साहब अंबेडकर का सपना था ।
हम
सभी जानते हैं कि भारत का जो संविधान है, यह कोई मामूली परिवर्तन नहीं हैं उसमें हम भारत के लोग लिखा है
|
उन्होंने बता दिया है कि सरकार के मालिक यहाँ के लोग हैं जिनकी सेवा सरकार करती है । आज इस बात को सोचने में बड़ा अजीब लगता है क्योंकि आज सरकार यह समझती है कि वही मालिक है, बाकी लोग उनकी सेवा करते हैं | लॉकडाउन के समय में जो कुछ भी सरकार कह रही है, उससे यही चेतना दिखाई पड़ रही है कि कैसे वह लोगों को अपनी सेवा करने वाला समझती है | हम जो आदेश देंगे, उसका पालन लोगों को करना होगा | इस सरकारी सोच के विपरीत संविधान
की जो मूल आत्मा है वह यह है कि जो सम्प्रभुता है, जो
सत्ता का मूल है, जो प्राधिकार है, वह जनता में निहित है, वह सरकार में निहित नहीं है | उन्होंने हम भारत के लोग कहा और वहाँ भी केवल नागरिक नहीं है, जो लोग वोट देते हैं, उन्हीं की चिंता सरकार को नहीं करनी चाहिए | सरकार को उनकी भी चिंता करनी चाहिए जो अभी वोट देने लायक नहीं हुए हैं | यानी बच्चों का भी एक बड़ा समुदाय है, जिसकी चिंता उनको करनी चाहिए | इसलिए हम भारत के लोग और हम सभी लोग उसमें शामिल हैं | इसमें धर्म के आधार पर कोई विभाजन नहीं है, नस्ल के आधार पर, लिंग के आधार पर, जाति
के
आधार पर कोई विभाजन नहीं है |
स्वाभाविक
रूप से बाबा साहब को यह यकीन था कि जो संविधान मैं बना रहा हूँ और जिस तरह के ढांचे खड़ा कर रहा हूँ, इनके जरिये सामाजिक समानता आ जायेगी | लेकिन इसमें उन्हें संदेह भी था | इसलिए उन्होंने लिखा भी है कि हम अंतर्विरोधों से भरी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं और कंट्राडिक्शन नाम की जो शब्दावली है, वह मार्क्स की बड़ी प्रिय शब्दावली है | अंबेडकर भी कह रहे
हैं कि हम
अंतर्विरोधों की दुनिया में प्रवेश करने जा रहे हैं | उनको इसमें संदेह था कि हम ऊपर तो औपचारिक लोकतंत्र लाये हैं वह सामाजिक लोकतंत्र में अनूदित नहीं भी हो सकता है, उसके लिए संघर्ष करना होगा ।
हम
सभी इस बात को जानते हैं कि वोट का जो अधिकार संवैधानिक रूप से मिला हुआ है, इसके लिए दलितों को बहुत लड़ना पड़ता है, तरह-तरह की चीजों के जरिए लड़ना पड़ता है | वोट देने के लिए जो बूथ होते हैं वे आमतौर
पर सवर्ण बस्तियों में होते हैं । जैसे सवर्ण लोग कभी कोई विवाद पैदा होने पर दलितों के बाहर जाने का रास्ता बंद कर देते हैं, उसी तरह से वोट देने के अधिकार को भी, कई बार अपनी ताकत के जरिए, इस ताकत के जरिए कि वोट देने का जो बूथ है वह हमारे मोहल्ले में है, रोक देते हैं | संविधान के जरिए जो अधिकार हमें मिले हैं उनको लागू कराने के लिए कदम-कदम पर लड़ते रहना पड़ा है |
हमने
पहले कहा कि जब बकरे की बलि दी जानी होती है तो उसकी काफी पूजा की जाती है, माला आदि पहनाई जाती है | उसी तरह से संविधान के प्रति भी पूजा का भाव पैदा किया जा रहा है ताकि उसकी आत्मा को मार सकें | समाज को और अधिक अधिकारविहिन बना देने के लिए उसका दुरुपयोग किया जा रहा है | यहाँ तक कि एक समय तक दलित समुदाय के प्रतिनिधि संसद में अपने आपको अधिकार सम्पन्न महसूस करते थे | उसकी जगह हम देख रहे हैं कि धीरे- धीरे संसद में, खासकर राज्यसभा में पूँजीपतियों का बड़े पैमाने पर प्रवेश हो रहा है | जैसे विजया माल्या, जो पैसे लेकर भाग गये वे राज्यसभा के सदस्य थे | जिन लोगों का भी कर्ज़ा माफ हो रहा है वे संसद में जा रहे हैं | जहाँ जनता के
प्रतिनिधि को जाना चाहिए, जहाँ सार्वजनिक हितों की देखभाल करने वालों को पहुंचना चाहिए, वहाँ पूंजीपति लोग पहुंच रहे हैं | पूंजीपति लोग जब संसद में पहुँचते हैं तो सभी जानते हैं कि क्या होता है | वे लोग ऐसी विभिन्न कमेटियों में नामित होते हैं जो कानून बनाती हैं । ऐसी कमेटियों में जब कानून पूंजीपति बनायेंगे तो स्वाभाविक तौर पर अपने फायदे के लिए बनायेंगे | लोकतंत्र में जो थोड़ी सी जगह बची हुई थी, आरक्षण एवं जनप्रतिनिधित्व के जरिए जो कुछ भी वंचित समुदायों के हित की इस सरकार में भी, और तंत्र में भी जो संभावना मौजूद थी, उसको दिन प्रतिदिन नष्ट किया जा रहा है |
ऐसी
स्थिति में स्वाभाविक रूप से, दोनों ही समुदायों का या संघर्षमय समुदायों का, आपसी संबंध बनाने की गुंजाइश पैदा हुई है । इसमें जमीन का सवाल है | जमीन का सवाल बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल है- जमीन आपकी एक जगह होती है | आप बाशिंदे हैं, शहरी हैं, आपके पास एक
जगह है, जहाँ आपको जमीन का अधिकार हासिल है | जमीन की लड़ाई बहुत बड़ी है और इसके लिए बहुत संघर्ष हुआ है
|
बाबा साहब अंबेडकर इसलिए भूमि का राष्ट्रीकरण करना चाहते थे | जो लोग भी अंबेडकर के बारे में बात करते हैं वे लोग इस पहलू के बारे में कभी बात नहीं करते | उनके दिमाग में एक नक्शा था, उनकी परिकल्पना थी कि जमीन पर जमींदारों की जकड़बंदी तोड़ने के लिए,
जमींदारी प्रथा
को समाप्त करने के लिए भूमि का राष्ट्रीकरण किया जाना चाहिए | भूमि का राष्ट्रीकरण करने का मतलब ही हुआ कि वह निजी अधिकार में नहीं रह जायेगी | राजकीय समाजवाद का उनका सपना था जिसके आधार पर उनको लगता था कि समाज में मौजूद विषमता से पीड़ित लोगों को कुछ हद तक राहत मिल सकती है । हम सब जानते हैं कि जो स्कूल है, रेल है, और जो तमाम सरकारी संसाधन हैं, उनके जरिए विषमता मूलक सामाजिक ढांचे से उत्पीड़ित लोगों को थोड़ी सी राहत मिलती है | इस सपने को लेकर वे आगे बढ़ रहे थे | इन सार्वजनिक संस्थानों के जरिए ऐसा होने की उनको उम्मीद थी |
दुर्भाग्य से उनकी उम्मीद के विपरीत उनकी आशंका ही सही साबित हुई और जो विशेषाधिकार तबके थे उन्होंने इस पूरी प्रक्रिया को उलट दिया है | हम सब जानते हैं कि न्यायालयों में तरह-तरह के फैसले आ रहे हैं, दलितों पर अत्याचार भयानक रूप से बढ़ रहे हैं, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में उनकी आवाज़ को खामोश कर देने की कोशिश की जा रही है | ऐसी स्थिति में मार्क्सवादियों और संघर्षरत अंबेडकरवादियों के बीच में एक संवाद और सहकार की गुंजाइश पैदा हुई है | उस गुंजाइश के आस-पास तरह-तरह की चीजें सोची जा रही हैं | उनसे दोनों ही विचारकों को नई रोशनी में देखने की कोशिश हो रही है | यह कोशिश ऐसी नहीं होती कि केवल विचारधारा के क्षेत्र में हो, बल्कि संघर्ष और विचारधारा के क्षेत्र एक दूसरे से संवाद करते हैं | उदाहरण के लिए संघर्ष के लिए आप जब कोई मांग रखते हैं, तो उसके पीछे कोई विचारधारा शामिल होती है । इसी तरह से जो मांग आप सूत्रबद्ध करते हैं वह किस पर निर्भर करती है? वह इस पर निर्भर है कि आप किन
समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं । यह व्यावहारिक राजनीति और वैचारिक संघर्ष का क्षेत्र है, जिसमें दोनों ही एक दूसरे के साथ संवादरत होते हैं ।
यह
जो नया दौर है, इस नये दौर में मार्क्स और अंबेडकर के बीच एक नए किस्म के संवाद की गुंजाइश पैदा हुई है | इसमें समझ आ
रहा है कि दोनों
के बीच जो साझा है, वह सामाजिक क्रांति है, सामाजिक बदलाव है | इस क्षेत्र में मनुष्य को पराधीन बनाने वाली सभी ताकतों को समाज के कब्जे में ले आना, अर्थतंत्र को समाज के कब्जे में ले आना, संसाधनों पर सभी लोगों की पहुंच बढ़ाना आदि
शामिल हैं | इन सब पर समान अधिकार कायम करने के
लिए उपाय करने होंगे | समाज में जो वर्णव्यवस्था है, जो परम्परा है कि पिता का पुत्र भी समुदाय के काम को ही आगे बढ़ायेगा, यह
जो वर्णव्यवस्था है वह सामाजिक गतिशीलता में रुकावट पैदा करता है | बाबा साहब ने कहा है कि हमारी जाति व्यवस्था की खूबी यह है कि यह ऐसी बहुमंजिला इमारत है जिसकी एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाने का कोई रास्ता नहीं है | जो जिस मंजिल में पैदा हुआ है, वहीं पर मर जाता है | यह सामाजिक गतिशीलता में रुकावट
पैदा करना है | सामाजिक गतिशीलता है
ऊपर
से नीचे आना, नीचे से ऊपर जाना | उनका मकसद ऐसी व्यवस्था बनाना था, ऐसा समाज बनाने की ओर वे जाना चाहते थे जिसमें संसाधनों तक आम लोगों की पहुंच हो और समाज में गतिशीलता बनी रहे | उस गतिशीलता के कारण मनुष्य के भीतर जो भी संभावनाएं हैं, उन्हें वह
पूरी तरह से प्रकट कर सके; पूर्ण मनुष्य के रूप में उसे मान्यता मिले; खंडित मनुष्य के रूप में नहीं, जिसे केवल उसकी जाति के आधार पर पहचाना जाए, उसके लिंग के, उसके नस्ल के आधार पर पहचाना जाए । इसकी जगह हो कि यह पूर्ण मनुष्य है | किसी ने कहा भी है, जब कोई भी बच्चा पैदा होता है- चाहे वह लड़की हो, लड़का हो, दलित के घर में पैदा हुआ हो या मुस्लिम के घर में, तो वह अपने आप को एक मनुष्य ही समझता है | धीरे-धीरे समाज उसको सिखाता है कि वह क्या है तो ये सब जो विभाजन हैं वे समाज में निर्मित किये गये हैं | इन सभी विभाजनों को समाप्त करके ही, सम्पूर्ण मनुष्य के रूप में स्वंय को सिद्ध करके कोई भी व्यक्ति
समूचे समाज की एक इकाई के रूप में अपनी सार्थकता बना सकता है ताकि इस दौर में वह अपने को अधिकार सम्पन्न रूप में समझ सके, अपने भाग्य को
निरूपित
कर सके | यह जो सपना है और उस सपने के लिए जो लड़ाई है उसमें मार्क्स और अंबेडकर दोनों के बीच में संवाद बने रहने की गुंजाइश बनती है |