2018 में वर्सो से
स्वेन-एरिक लीदमान की स्वीडिश में 2015 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘ए वर्ल्ड टु विन: द लाइफ़ ऐंड
वर्क्स आफ़ कार्ल मार्क्स’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद जेफ़्री एन
स्किनेर ने किया है । इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में मार्क्स-एंगेल्स की जीवनी
लिखने का तर्क स्पष्ट करते हुए लेखक बताते हैं कि बर्लिन की दीवार गिरने और सोवियत
संघ के बिखरने से मार्क्स को समझने का नया मौका मिला है और मेगा की सामग्री के
सामने आने के बाद उनके लिखे को सम्पूर्णता में देखने का लाभ उठाया जा सकता है ।
गारेथ स्टेडमान जोन्स लिखित जीवनी के चलते भी उन्हें यह किताब लिखने की प्रेरणा
मिली । जोन्स ने तमाम अल्पजीवी मजदूर आंदोलनों का विस्तार से जिक्र किया है जिनके
बीच सामाजिक जनवादी पार्टियों ने आकार लेना शुरू किया था । जोन्स ने मार्क्स को
प्रभावित करने वाले तत्वों का भी बहुत विस्तार से उल्लेख किया है । जोन्स ने दोनों
ही प्रसंगों में जो विस्तार किया है उसके मुकाबले लेखक ने संक्षेप से काम लेते हुए
मार्क्स के लेखन के विवेचन पर अधिक ध्यान दिया है । गारेथ जोन्स ने ‘पूंजी’ के लिखे जाने और इंटरनेशनल के गठन के दौर को
ही उनकी सक्रियता में अधिक ध्यान से देखा है जबकि लेखक ने उनके समग्र लेखन को उनकी
सक्रियता के भीतर ही गिना है । जोन्स ने कम्यूनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र और पूंजी
पर तो ध्यान दिया है लेकिन शुरुआती पांडुलिपियों और पूंजी की तैयारी संबंधी
सामग्री पर उनकी नजर कम ठहरी है । आम तौर पर मार्क्स की अधिकतर जीवनियों में मान
लिया गया है कि 1870 के बाद उनके लेखन में रुकावट आ गई लेकिन हाल के शोधों से इस
धारणा का खंडन होता है । थियोडोर शानिन तो युवा मार्क्स और परिपक्व मार्क्स की
तर्ज पर प्रौढ़ मार्क्स को स्वीकार करने का प्रस्ताव करते हैं । लेखक ने मार्क्स के
लेखन को शुरू से अंतिम दिनों तक समझने की कोशिश की है । लेखक ने इसके लिए उनके
समकालिक चिंतन के साथ उनके संवाद पर ध्यान दिया है । इस सिलसिले में प्रकृति विज्ञान
पर विशेष ध्यान दिया गया है । एंगेल्स के विज्ञान संबंधी काम पर उन्होंने एक किताब
भी लिखी थी । नई सामग्री के सामने आने के बाद मार्क्स की भी विज्ञान संबंधी रुचि को
समझने का मौका मिला । इसके चलते वे पूंजी में हेगेलीय द्वंद्ववाद और समकालीन वैज्ञानिकता
के बीच के तनाव को भी देख सके । लेखक को लगता है कि मार्क्स ने समाज और इतिहास का विश्लेषण
करने के लिए जिन उपकरणों का इस्तेमाल किया है उनकी उपयोगिता बहुत ज्यादा है क्योंकि
हमारा भी समय मार्क्स के समय से मिलता जुलता होने लगा है । जोर उनके जीवन के विस्तृत
वर्णन के मुकाबले वर्तमान समय में उनकी उपयोगिता को उभारने पर है ।
आगे वे बताते हैं कि
मार्क्स का समय अंधेरे में डूबा हुआ अतीत लगता है लेकिन उनका नाम बार बार उभरकर सामने
आ जाता है । सोवियत संघ के पतन से एकबारगी लगा कि उनका नाम दफ़न हो गया क्योंकि सोवियत
संघ और चीन में जो भी हुआ उसे मार्क्स की कल्पना का साकार रूप कहा गया । लेकिन जल्दी
ही पता चला कि इन मुल्कों की करनी के अतिरिक्त भी उनका अस्तित्व है । देरिदा ने सबसे
पहले कहा कि मार्क्स का देहांत तो हो गया लेकिन अन्याय की बढ़ोत्तरी वाली दुनिया में
वे भूत की तरह मंडरा रहे हैं । उन्हीं के देश और भाषा के दार्शनिक एटीन बलीबार ने घोषित
किया कि सोवियत संघ के खात्मे के बाद मार्क्स का दर्शन और भी प्रासंगिक हो गया है ।
कुछ ही दिनों बाद सदी के मोड़ पर मार्क्स की चर्चा शुरू हुई । न्यू यार्कर ने
उन्हें आगामी सदी का सबसे महत्वपूर्ण चिंतक घोषित किया । बी बी सी के एक मतदान में
वे बीती सहस्राब्दी के चिंतकों में सबसे ऊपर माने गए । एरिक हाब्सबाम ने बताया कि
मशहूर धन्नासेठ जार्ज सोरोस ने उनसे मार्क्स की चर्चा की । जब पिकेटी की किताब छपी
तो उसकी समीक्षाओं में मार्क्स का उल्लेख सबसे अधिक हुआ । पारंपरिक अर्थशास्त्रियों
ने पिकेटी को उन सभी गालियों से नवाजा जिनसे मार्क्स को नवाजा करते थे । प्रशंसकों
ने इसके शीर्षक में मार्क्स के ग्रंथ की प्रतिध्वनि सुनी । जबकि पिकेटी का सरोकार श्रम
और पूंजी का टकराव नहीं बल्कि वित्तीय पूंजी था । दोनों के बीच समानता दीर्घ ऐतिहासिक
नजरिया और विषमता के मामले में थी । पिकेटी भी अनंत पूंजी संचय की मार्क्सी धारणा को
वर्तमान के लिए प्रासंगिक बताते हैं । विषमता के प्रश्न पर अपने आपको उत्तर-मार्क्सवादी माननेवाले गोरान थेर्बार्न
ने भी विचार किया है और विषमता की धारणा को विस्तारित करते हुए उसमें अन्य पहलुओं को
भी शामिल किया है । पर्यावरण के सवाल पर भी मार्क्स के विचारों की छानबीन जारी है ।
नई सदी में पैदा होनेवाले कामगार का विश्लेषण करते हुए भी उनके नाम का उपयोग किया जाता
है । इस सिलसिले में गाई स्टैंडिंग ने तीन स्तरों का उल्लेख किया है- एक वे जो अनुद्योगीकरण के चलते रोजगारविहीन हो गए हैं; दूसरे वे जो विभिन्न संकटों के चलते पैदा हुई शरणार्थियों की फौज में शामिल
हुए और सामाजिक रूप से हाशिए पर हैं और; तीसरे वे शिक्षित जो
अस्थायी और अनिश्चित किस्म की नौकरियों में हैं । इनमें विविधता तो बहुत है लेकिन श्रम
बाजार और काम के हालात इन्हें एक सूत्र में भी बांधते हैं । रोजगार के अस्थायित्व और
बेरोजगारी के बीच अंतर खत्म होता जा रहा है और सामाजिक सुरक्षा के समूचे ढांचे के ढह
जाने से कामगारों की हालत एक जैसी होती जा रही है । मार्क्स में पैदा नई रुचि इसी वातावरण
का नतीजा है ।
सोवियत संघ के बिखराव
के साथ मार्क्स की समाप्ति न होने को समझने के लिए लेखक ने मार्क्स के समय की चर्चा
की है । उद्योगीकरण और मजदूर आंदोलन का विकास मार्क्स के समय के सबसे बड़े सामाजिक बदलाव
थे । वह समय दूर भी लगता है और करीब भी लगता है । जिन देशों में बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण
हुआ था वे उत्तर औद्योगिक सामाजिक अवस्था में चले गए हैं लेकिन वही हालात कुछ अन्य
देशों में पैदा हो गए हैं । इसके चलते दुनिया के पैमाने पर भारी वर्गभेद पैदा हो गया
है । अस्थिर हालात में भरोसा पैदा करने के लिए अर्थशास्त्री लोग दीर्घकालीन संतुलन
की बातें कर रहे हैं लेकिन कम्यूनिस्ट घोषणापत्र की आरम्भिक पंक्तियां जैसे आज के
दौर के लिए लिखी महसूस होती हैं । समूचे वातावरण में इतनी क्रूर आर्थिकी व्याप्त
है कि वह लगभग अदृश्य है । सबका ही जीवन बाजार से संचालित हो रहा है और सरकारें
व्यवसाय की तरह चलाई जा रही हैं । 1980 दशक के बाद के इस कटु यथार्थ के विरोध में
वर्तमान मार्क्स को खड़ा होना होगा ।
इस समय मार्क्स की
कुल चर्चा के बावजूद उनका प्रभाव पचास या सौ साल पहले के मुकाबले नगण्य रह गया है
। ऐसी स्थिति में गहराई के साथ उनके बारे में जानना बेहद जरूरी है । लेखक ने इसके
लिए सबसे पहले उनके बारे में फैली झूठी बातों का निराकरण किया है । डार्विन को ‘पूंजी’ के
समर्पण के सिलसिले में वे बताते हैं कि मार्क्स ने छपी हुई प्रति उन्हें भेजी थी
जिसके लिए डार्विन ने धन्यवाद दिया था लेकिन कुछेक पृष्ठों से अधिक देखने के
प्रमाण नहीं मिलते । धर्म को अफीम कहने के सिलसिले में स्पष्ट करते हैं कि जनता पर
धर्म थोपा नहीं जाता बल्कि जनता उसमें राहत खोजती है । उनका कहना है कि मार्क्स के
बारे में कुछ भ्रम अच्छे इरादे से पैदा किए गए हैं । इतिहास के विभिन्न चरणों का
निर्धारणवाद मार्क्स के बाद विकसित मार्क्सवाद की देन है । हाल के शोध बताते हैं
कि उन्होंने प्रवृत्तियों का जिक्र किया था । उन्होंने खुद ही सांयोगिक स्थितियों
के असर का उल्लेख किया है । इसके बाद लेखक ने मार्क्स की अन्य जीवनियों का
विश्लेषण किया है ।
पहली जीवनी जैसी
चीज उनकी पुत्री एलीनोर ने लिखी । उसमें बिखराव और अपूर्णता होने के बावजूद
अंतर्दृष्टि है । ठीक से लिखी पहली जीवनी मेहरिंग की थी जो 1918 में छपी थी ।
मेहरिंग एंगेल्स को जानते थे फिर भी उनकी जीवनी की सीमा मार्क्स के प्रकाशित लेखन
के अभाव से तय होती है । इसके बाद सोवियत संघ के सत्तर साला इतिहास में छपी
सामग्री पर मार्क्स के बारे में उस दौर की समझ की छाया है । उन्हें सोवियत शासन की
प्रेरणा के रूप में चित्रित किया गया और जो स्थिति बनी उन तमाम हालात की
जिम्मेदारी मार्क्स को दे दी गई । फिर भी कुछ जीवनियां पश्चिमी देशों या अमेरिका
में ऐसी छपीं जो थोड़ा भिन्न किस्म की थीं । इनके लेखकों को मार्क्स विरोधी प्रचार
अभियान का भी सामना करना पड़ता था । कुछ जीवनियों में व्यक्ति को केंद्र में रखा
गया तो कुछ में मार्क्स के लेखन से उद्धरणों की भरमार थी । इनमें डेविड मैकलेलन की
किताब ऐसी थी जिसमें बहुत हद तक व्यक्ति और चिंतक के बीच संतुलन बनाए रखा गया था ।
इसके बाद विश्लेषणात्मक मार्क्सवाद का समय आया जिसमें जान एल्सटर की किताब जीवनी
के करीब कही जा सकती है । साठ के दशक में चार भागों में मार्क्स और एंगेल्स के
बारे में अगस्त कार्नू ने लिखा लेकिन वे 1846 से आगे नहीं बढ़ सके । उनकी किताब में
ढेर सारे विवरण हैं । इसी तरह की एक किताब हाइन्ज़ मोन्ज़ की भी है जिसमें मार्क्स
के बचपन के प्रामाणिक विवरण मिल जाएंगे ।
सोवियत संघ के पतन
के बाद छपी जीवनियों का स्वर बदला हुआ है । अब के लेखक को किसी शासन या सत्ता के
लिहाज से नहीं लिखना है । इस दौर की शुरुआत फ़्रांसिस ह्वीन की जीवनी से हुई । जीवनी
रोचक तो है लेकिन उसमें यह स्पष्ट नहीं कि मार्क्स की आज क्या जरूरत है । जोनाथन
स्पर्बर की जीवनी में मार्क्स की अध्ययन की भूख का संदर्भ गायब ही है । उनके
विस्तृत अध्ययन का सबूत जो अधूरी नोटबुकें हैं उनके बारे में स्पर्बर अत्यंत
संक्षेप में जिक्र करते हैं । इसके मुकाबले जैक अताली की फ़्रांसिसी भाषा में 2005
में छपी जीवनी में मजेदार ढंग से मार्क्स के बहुमुखी व्यक्तित्व को उजागर किया गया
है । फिर भी वह किताब उनके काम के मुकाबले जीवन को केंद्र में रखती है । उनके जीवन
की खूबसूरत विविधता को खोलने के बावजूद किताब उनकी प्रासंगिकता को साबित नहीं कर
पाती ।
अगर किसी को
मार्क्स के लेखन से गम्भीर परिचय प्राप्त करना हो तो इन जीवनियों के मुकाबले
माइकेल हाइनरिह की 1991 की जीवनी काम की होगी जिसमें ‘पूंजी’ को उनके समूचे
बौद्धिक जीवन का लक्ष्य मानकर उनका विकास परखा गया है । इसको पढ़ने में मेहनत तो
लगती है लेकिन उसका परिणाम बेहद लाभप्रद है । कभी इतालवी लोगों ने मार्क्स और मार्क्सवाद
के बारे में बहुत कुछ काम का लिखा था लेकिन जबसे इतालवी कम्यूनिस्ट पार्टी वाम
खेमे की सामान्य पार्टी बन गई है तबसे वहां कुछ खास लेखन देखने में नहीं आ रहा ।
हाल के दिनों में उनके लेखन को नई पीढ़ी हेतु सुबोध बनाने के लिए अनेक टीकाओं का
प्रकाशन हुआ है । इनमें सबसे अधिक महत्व की किताबें टेरी ईगलटन की हैं जो मार्क्स
को वर्तमान सदी का चिंतक समझते हैं । स्वेन को अपनी यह जीवनी भी उसी तरह की लगती
है । स्वेन को लगता है कि मार्क्स की जीवनियों की इस सूची की सीमा यह है कि उन्हें
अनेक भाषाओं का ज्ञान नहीं ।
इसके बाद वे विचार
करते हैं कि इतनी किताबों के बावजूद उनकी किताब की जरूरत क्या है । पहली बात कि
इसमें जीवन की तमाम जानकारियों के साथ उनके लेखन को ओझल नहीं होने दिया गया है ।
माना गया है कि अपने लेखन के कारण ही मार्क्स स्मरणीय, प्रभावी और महत्वपूर्ण हैं
। इसके तहत पूर्ण दस्तावेजों के साथ अधूरी पांडुलिपियों पर भी विचार किया गया है ।
‘पूंजी’ को केंद्र में रखते हुए उसके हालिया विश्लेषणों का भी जिक्र किया गया है
और उसे देखने का एक नया नजरिया भी पेश करने की कोशिश की गई है । इस अर्थ में लेखक
ने चिंतक मार्क्स की तस्वीर के पुनरुद्धार की कोशिश की है । मार्क्स ने अलगाव की
जो धारणा शुरुआती लेखन में विकसित की उसे बाद में बदला तो लेकिन बाद के लेखन में
भी उसकी मौजूदगी है । विचारधारा संबंधी अपनी धारणा को वे पूरी तरह विकसित नहीं कर
सके लेकिन इसके जरिए मार्क्स का पुरखों के साथ रिश्ता व्याख्यायित होता है । लेखक
का मानना है कि उन्नीसवीं सदी में अवस्थित होने के बावजूद मार्क्स वर्तमान सदी के
पूंजीवाद के प्रबलतम आग्नेय आलोचक प्रतीत होते हैं ।
लेखक का कहना है कि
मार्क्स ने जितना लिखा उसका थोड़ा हिस्सा ही उनके जीवित रहते छप सका था । उसका
अधिकांश अपूर्ण पांडुलिपियों की शक्ल में रखा था । एंगेल्स ने ‘पूंजी’ की छपाई को
पूरा किया । इसके बाद आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां का प्रकाशन 1930 के आस पास
हुआ । फिर ग्रुंड्रिस का पता चला । जर्मनी में छापने की योजना बनी लेकिन 1933 में
हिटलर ने उस पर रोक लगा दी । 1956 के बाद मार्क्स-एंगेल्स समग्र की छपाई पूर्वी
जर्मनी में शुरू हुई । इस पर तत्कालीन सोवियत संघ के राजनीतिक माहौल की छाया थी ।
कुछ खंडों के प्रकाशन के बाद सोवियत संघ के साथ ही पूर्वी जर्मनी में शासन का
सहयोग मुश्किल हो गया । अब फिर से उस काम में गति आई है और सच में समग्र के
विभिन्न खंड तेजी से छापे जा रहे हैं ।
इस किताब से लेखक
मार्क्स और उनके लेखन की समग्र तस्वीर तो खींचना चाहते ही हैं, आगे भी पढ़ने के लिए
प्रेरित करना चाहते हैं । लेखक मार्क्स के लेखन का अध्ययन पचास साल से करते आ रहे
हैं । सबसे पहले उनके शुरुआती लेखन का एक संग्रह किया । फिर युवा मार्क्स के बारे
में किताब लिखी । इसके बाद एंगेल्स के दर्शन पर गम्भीरता से काम किया । इस तरह
1965 से ही वे मार्क्स और एंगेल्स के बारे में लिखते रहे । प्रस्तुत किताब अब तक
लिखी सभी किताबों में सबसे बड़ी है । मार्क्स ने जो कुछ लिखा उसे देखने की कोशिश
इसमें की गई है । लेखक ने मार्क्स के लेखन में प्रवेश करने का रास्ता भी सुझाया है
लेकिन उसे नितांत निजी कहा है । कम्युनिस्ट घोषणापत्र के पहले अध्याय को सबसे पहले
जरूरी चीज बताते हैं । समूचे घोषणापत्र पर तो 1840 की छाया है लेकिन शुरुआती
हिस्सा मानो हमारे ही समय के लिए लिखा गया है । इसके बाद आर्थिक और दार्शनिक
पांडुलिपियों से मानव जीवन को जैसा होना चाहिए और पूंजीवादी समाज वैसा क्यों नहीं
होने देता समझने की चीज है । उनके समाज संबंधी चिंतन में प्रवेश करने के लिए
इंटरनेशनल के सदस्यों के लिए लिखित व्याख्यान मूल्य, कीमत और मुनाफ़ा सबसे बेहतरीन
चीज है । उसी समय वे ‘पूंजी’ का पहला खंड लिख रहे थे इसलिए उसकी कुछ धारणाओं को
उसमें बीज रूप में प्रकट किया है । इसके बाद तो आपके लिए उनका लिखा सब कुछ उपलब्ध
है ही ।
किताब के पहले
अध्याय में औद्योगिक और राजनीतिक क्रांतियों की पृष्ठभूमि है जिसमें बिजली ने
दुनिया बदल दी थी और सामाजिक जनवादी पार्टियों की स्थापना शुरू हुई थी । इसके बाद
के चार अध्यायों में 1848 की क्रांतियों तक मार्क्स के जीवन का विवरण प्रस्तुत
किया गया है । बचपन, जवानी, विवाह और जर्मनी से फ़्रांस जाने तक का किस्सा इनमें है
। इसके बाद उन्नीसवीं सदी का पेरिस है जिसमें ऐश्वर्य और दरिद्रता साथ साथ मौजूद
थे । एक ओर आलीशान सैलून थे तो दूसरी ओर वे अंधेरी जगहें थीं जहां विद्रोही कामगार
एकत्र होते और गोपनीय योजनाएं बनाते । वहीं उस परियोजना का जन्म हुआ जिसे बाद में
‘पूंजी’ का नाम दिया गया । प्रशियाई पुलिस के जासूस हर कहीं उनके पीछे पड़े हुए थे
और आखिरकार उन्हें पेरिस से निकलवाकर दम लिया । उन्हें ब्रसेल्स में शरण लेनी पड़ी
। वहीं दोस्त एंगेल्स के साथ मिलकर एक छोटा विद्रोही केंद्र गठित किया और जल्दी ही
लंदन के विद्रोहियों से सम्पर्क कायम हो गया । इन्हीं लोगों के लिए कम्युनिस्ट
घोषणापत्र लिखा । उसकी छपाई हुई नहीं कि क्रांति फूट पड़ी । पहले पेरिस और फिर
यूरोप भर में उसकी व्याप्ति हो गई । जाने को तो वे पेरिस लौट सकते थे लेकिन गए
कोलोन और वहां विद्रोह के ज्वालामुखी पर बैठकर पत्रकारिता शुरू की । उनके अखबार को
बंद कर दिया गया ।
अब उनके रहने लायक
केवल ब्रिटेन था । शेष जीवन परिवार सहित वहीं बिताया । किताब के बाकी अध्याय लंदन
के उनके जीवन और गतिविधियों से भरे हुए हैं । लंदन का जीवन भयंकर परेशानियों से
भरा रहा । राहत केवल एंगेल्स से मिलने वाली आर्थिक मदद से मिलती थी । इसके बावजूद
उनके बच्चे बीमार होते रहे और उनकी अकाल मृत्यु होती रही । इन समस्याओं से निजात
पाने के लिए मार्क्स ने पत्रकारिता में भी हाथ आजमाया । लेखक ने एक अध्याय में
उनकी पत्रकारिता पर विचार किया है खासकर न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून के साथ उनके
संबंधों का जायजा लिया गया है । कभी कभी इस काम में एंगेल्स को भी मदद करनी पड़ती
थी क्योंकि मार्क्स अपने ग्रंथ ‘पूंजी’ की तैयारी में लगे रहते थे । वैसे अधिकतर
लेख खुद मार्क्स के लिखे हुए हैं और इनको हटा देने पर मार्क्स की कोई भी तस्वीर
मुकम्मल नहीं हो सकती । इनसे पता चलता है कि अपने समय का उनका आकलन कितना ठोस था ।
फिर भी उनके लेखन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा तो ‘पूंजी’ ही है । 1850 दशक के अंत
में एक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संकट को क्रांति का पूर्वाभास समझकर तेजी से काम करते
हुए कुछ महीनों के भीतर ही सात सौ पृष्ठ की पांडुलिपि पूरी की जिसे बाद में
ग्रुंड्रिस कहा गया । इसमें काफी बिखराव है लेकिन कुछ जगहों पर बेहद मौलिक विवेचन है
। उसका भी इसीलिए विस्तार से विवेचन किया गया है । इससे खुद मार्क्स ही संतुष्ट नहीं
थे इसलिए एक दूसरा रूप तैयार किया जो
1867 में ‘पूंजी’ के पहले
खंड के रूप में छपा । अन्य खंड भी लिखे जाने थे लेकिन मार्क्स उन्हें पूरा न कर सके
। उनके देहांत के बाद एंगेल्स ने दूसरा और तीसरा खंड छपवाया । खासकर तीसरे खंड में
एंगेल्स ने प्रचुर योगदान किया । अब सभी पांडुलिपियों के मिलने से तुलना बहुत आसान
हो गई है । ‘पूंजी’ के बारे में किताब में
सबसे गम्भीर और बड़ा अध्याय शामिल किया गया है । लेखक ने उस अध्याय के अंतिम हिस्से
को खासकर पढ़ने की सलाह दी है अगर पाठक को बोझिल पढ़ाई से थकान होने लगे ।
लेखक का मानना है कि
मार्क्स और एंगेल्स को एक दूसरे से अलगाने पर दोनों को ही समझना मुश्किल हो जाएगा ।
उनके बीच साम्य और वैषम्य के बारे में काफी विवाद है । कभी कहा जाता है कि वे बौद्धिक
जुड़वां थे और कभी कहा जाता है कि एंगेल्स ने मार्क्स को गलत तरीके से व्याख्यायित किया
है । लेखक मानते हैं कि वे दोनों स्वतंत्र व्यक्तित्व थे लेकिन उनमें घनिष्ठतम आपसदारी
थी । इस रिश्ते में एंगेल्स ने खुद को हमेशा दोयम का दर्जा दिया । उनकी बौद्धिक रुचियां
आंशिक रूप से समान थीं । मार्क्स इस बात से एकदम अनजान नहीं थे कि एंगेल्स ने ‘ड्यूहरिंग मत खंडन’ या ‘प्रकृति में द्वंद्ववाद’ जैसी
रचनाओं के सहारे एक दार्शनिक ढांचा खड़ा किया है लेकिन मार्क्स का लेखन उससे अप्रभावित
रहा ।
मार्क्स की राजनीति
के बारे में भी एक अलग अध्याय है । अपने जीवन के अनेक कालखंडों में वे राजनीतिक रूप
से सक्रिय रहे । राजनीति को वे समाजिक अंतर्य का रूप मानते थे । राजनीतिक सत्ता वास्तविक
शक्ति संबंधों की अभिव्यक्ति होती है लेकिन इसी क्षेत्र में लोग अपने विभिन्न हितों
के प्रति सचेत होते हैं । राजनीति के बारे में मार्क्स की इसी बुनियादी समझ से पता
चलता है कि अपनी राजनीतिक गतिविधियों के दौरान वे क्यों कभी तो वाम को एकत्र करने के
लिए सभी तरह के समझौतों के लिए तैयार हो जाते हैं और कभी भिन्न विचार रखने वालों से
जबर्दस्त वैचारिक संघर्ष छेड़ देते हैं । इंटरनेशनल में उन्होंने ऐसा कार्यक्रम तैयार
किया जो समाज बदलने वाले तरह तरह के लोगों को संतुष्ट कर सके लेकिन जब बाकुनिन के समर्थकों
के साथ लड़ाई हुई तो संगठन भले खत्म हो गया लेकिन कोई समझौता नहीं किया । पेरिस कम्यून
का स्वागत शुरू में संदेह के साथ किया लेकिन बाद में भरपूर उत्साह से भर गए । जर्मन
सामाजिक जनवादियों के साथ उनका रिश्ता दुचित्तेपन से भरा हुआ था । उनके प्रथम पार्टी
कार्यक्रम की उन्होंने निर्मम आलोचना की जो उनके भविष्य के लिए जरूरी साबित हुई ।
इन सबके बाद लेखक ने
सबसे जरूरी सवाल उठाया है कि मार्क्स और मार्क्सवाद के बीच क्या रिश्ता समझा जाए ।
इस सवाल पर उनका मानना है कि मार्क्स की खोज कभी बंद नहीं हुई थी । अंतिम समय तक वे
अपने निष्कर्षों से संतुष्ट नहीं हुए और नए रास्तों की तलाश करते रहे । इस मामले में
यह कहना जरूरी है कि हालांकि वे संवाद और समझौते के सहारे भी काम करते थे लेकिन उनका
स्वाभाविक माध्यम वैचारिक संघर्ष ही था । अपनी बात को वे पर्याप्त बल और ऊर्जा के साथ
पेश करते थे । इसी बल और ऊर्जा ने मार्क्स को ऐसी आभा दी जिसके चलते वे आज के निर्मम
पूंजीवादी समय भी प्रासंगिक बने हुए हैं । अपूर्ण लेखन और पुस्तकों का सार एकत्र करने
में उनका कोई सानी नहीं है । वे पत्रकारीय संल्गनता के साथ ‘पूंजी’ की वस्तुनिष्ठता
भी निभा सकते थे । वे भी आलोचना से मुक्त नहीं माने जा सकते । उनके लेखन में जो महत्वपूर्ण
है और जो तात्कालिक है सब कुछ को कड़ी निगाह से गुजरना होगा । इसके लिए उनकी उपलब्धियों
का गहन विवेचन आवश्यक है । कथा, विवेचन और विश्लेषण को आपस में
गुंथा होना चाहिए । मार्क्स के अध्ययन के लिए अतीत प्रेम कोई अच्छी बात नहीं । हमें
उनकी जरूरत वर्तमान और भविष्य के लिए है ।