2000 में स्टेट
यूनिवर्सिटी आफ़ न्यू यार्क प्रेस से अउगस्त एच निम्ज़, जूनियर की किताब ‘मार्क्स ऐंड एंगेल्स: देयर कंट्रीब्यूशन टु द डेमोक्रेटिक ब्रेकथ्रू’
का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि मार्क्स-एंगेल्स की परियोजना
के साथ राजनीतिक लोकतंत्र के विरोध की बात बीसवीं सदी में संसार भर में सत्य की
तरह मानी जाती थी, यह किताब उसका खंडन करने के लिए लिखी गई
है । इसी क्रम में मार्क्स-एंगेल्स को केवल चिंतक बना देने का भी खंडन किया गया है
। उनका कहना है कि मार्क्स-एंगेल्स उन्नीसवीं सदी में होनेवाले लोकतांत्रिक
आंदोलनों के प्रबल योद्धा थे । इन्हीं आंदोलनों के जरिए लोकतंत्र के लिए सदियों से
जारी संघर्ष में निर्णायक जीत मिली थी । मार्क्स-एंगेल्स के इस योगदान का कारण
उनका चिंतक से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ता होना था । इसी वजह से वे अपने राजनीतिक
कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से प्रसारित कर सके थे । 1848 की क्रांतिकारी उथल पुथल
में अपनी सक्रिय भागीदारी के चलते ही वे लोकतंत्र के लिए जारी संघर्ष में प्रभावी
हस्तक्षेप लायक निष्कर्ष निकाल सके थे । असल में उनके लिए समाजवाद के लिए संघर्ष
में ही लोकतंत्र की अग्रगति निहित थी ।
उन्नीसवीं सदी के
उत्तरार्ध में लोकतंत्र की स्थापना के अध्येता इसके पीछे सार्वभौमिक मताधिकार, निर्वाचित संसद के प्रति सरकार
की जवाबदेही और नागरिक अधिकारों को हासिल करने के आंदोलनों के क्रम में मजदूरों के
संगठन की ताकत मानते हैं । इस मजदूर वर्ग का निर्माण तो पूंजीपति वर्ग ने किया था
लेकिन उसके आर्थिक संघर्षों में राजनीतिक चेतना पैदा करने में मार्क्स-एंगेल्स की
निर्णायक भूमिका रही थी । इस उन्नत चेतना के चलते ही वे व्यापक लोकतांत्रिक
आकांक्षा के पुरस्कर्ता बने । उस समय कम्यूनिस्ट अपने आपको लोकतांत्रिक आंदोलन की
सबसे मजबूत आवाज मानते थे । उनके सक्रिय सिद्धांतकार के रूप में मार्क्स-एंगेल्स
ने लोकतांत्रिक क्रांति के साथ साथ राष्ट्रीयता के सवाल को मजबूती से उठाया । उस
समय लोकतंत्र के लिए लड़ने वालों में तुलनात्मक रूप से सबसे सुसंगत स्वर उनका ही
महसूस होता है । लोकतंत्र के लिए योद्धाओं में से एक के देहांत के बाद उनके साथी
ने शेष उम्र इस लड़ाई में गुजारी । उनके बारे में किसी और नजरिए से सही तस्वीर नहीं
बनती ।
उन्हें सक्रिय
आंदोलनकारी के मुकाबले महान चिंतक साबित करनेवाले ब्रिटिश पुस्तकालय के उनके
अध्ययन का हवाला देते हैं । अपने आखिरी महाग्रंथ ‘पूंजी’ के लेखन की तैयारी के लिए वे
लगातार इस पुस्तकालय में पढ़ते रहते थे । इस सोच के पीछे बौद्धिकों का खुद को
महत्वपूर्ण समझना है । मार्क्स विचारों की इस महत्ता से सहमत नहीं थे । उनके
मुताबिक विचारों के कार्यान्वयन के लिए सक्रिय मनुष्य की व्यावहारिक ताकत की जरूरत
होती है । मार्क्स-एंगेल्स क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे और समझते थे कि लिखे को
सक्रिय व्यवहार में उतारना होगा और इस अनुभव के आधार पर लिखना सीखना होगा । ‘पूंजी’ के लेखन के दौरान भी वे पार्टी निर्माण का
काम करते रहे । इस काम के चलते ही उनके विचार छोटी सी समाजवादी धारा से बाहर फैलकर
शेष लोकप्रिय क्रांतिकारी विचारों से अधिक प्रभावशाली बन सके । मजदूर वर्ग की स्वतंत्र
राजनीतिक कार्यवाही आजीवन उनका मार्ग निर्देशक सिद्धांत बना रहा । 1848 की
क्रांतियों की पराजय के जरिए इतिहास की वास्तविक गति ने सिद्ध कर दिया कि लोकतंत्र
के लिए संघर्ष करने की इच्छा और माद्दा न तो बुर्जुआ उदारवादियों में है और न ही
मध्य वर्गीय सुधारवादियों में । किसानों और शहरी निम्न बुर्जुआ के साथ मिलकर
सर्वहारा ही इसकी जीत की गारंटी कर सकता है ।
इसी प्रसंग में
लेखक ने मार्क्स के बारे में दो भ्रमों का उल्लेख किया है । एक कि उन्हें किसानों
की चिंता नहीं थी । दूसरे कि उनका परिप्रेक्ष्य विकासशील देशों पर लागू नहीं होता
। इनका निराकरण करने के अतिरिक्त लेखक ने इस बात पर जोर दिया है कि
मार्क्स-एंगेल्स के बीच जितना भी अंतर हो लेकिन राजनीतिक कार्यवाही के मामले में
उनमें जबर्दस्त एकता थी । मार्क्स के देहांत के बाद एंगेल्स की राजनीतिक सक्रियता
को देखने से इस बात की पुष्टि होती है । किताब के लिखने में लेखक को
मार्क्स-एंगेल्स समग्र से मदद मिली है । उनके कथन के सही संदर्भ को समझने के लिए
प्रचलित संक्षिप्त उद्धरणों की जगह लम्बे उद्धरण दिए गए हैं । सही बात है कि उनका
लिखा सब कुछ समान महत्व का नहीं है । फिर भी लेखक ने उनकी चिट्ठियों को भी भरपूर
तवज्जो दी है । इस मामले में एंगेल्स के अंतिम दशक के पत्रों में बहुत महत्व की
बातें हैं । अपनी किताबों में जो बातें वे नहीं कह सके थे उन्हें इन चिट्ठियों में
दर्ज किया है । इसके अतिरिक्त प्रथम इंटरनेशनल की जनरल कौंसिल की बैठकों के विवरण
भी खासे महत्व के लगते हैं ।
किताब के लिखने के
आम माहौल के बतौर वे सोवियत खेमे के पतन और पूंजीवाद के वैश्विक संकट का उल्लेख
करते हैं । इन दोनों का परिणाम दुनिया भर में फ़ासीवाद का उभार है ।
मार्क्स-एंगेल्स ने इस परिणति का विकल्प प्रस्तावित किया था । इसीलिए उनके बारे
में जानना जरूरी है । उन्होंने लोकतंत्र के लिए संघर्ष को जरूरी समझा था और इसे
सामाजिक क्रांति का अविभाज्य घटक माना था । दुर्भाग्य से इस सबक को बीसवीं सदी की
क्रांतियों में पर्याप्त रूप से याद नहीं रखा गया था । उनकी राजनीति का असली
मूल्यांकन वर्ग संघर्ष यानी सर्वहारा की लड़ाइयों के साथ जुड़े व्यवहार की
प्रयोगशाला में ही होगा ।
'किसानों की चिंता और विकासशील देशों के संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता' इस पर लिखते न, क्या कहती है पुस्तक! फिर भी, इतनी सुंदर समीक्षा का आभार।
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