अनुज लुगुन और जसिंता
केरकेट्टा की कविताओं में हमारे समय की खल शक्तियों का गहन प्रतिरोध सुनाई पड़ता है
। व्यापक हमले का यह प्रतिरोध भी व्यापकता लिए हुए है । इनमें सौभाग्य से वर्तमान
के साथ अतीत के घाव भी खोले गए हैं । भावुक नकार की जगह समय की गहरी पहचान से
प्रतिरोध के लिए ठोस जमीन खोजी गई है । इन दोनों ही कवियों ने विषयवस्तु से लेकर
रचाव तक हिंदी कविता का फलक विस्तारित किया है । इनके सामाजिक और बौद्धिक परिवेश
ने इन्हें वह भाषा उपलब्ध कराई है जिससे आसपास की अतिपरिचित सचाई भी नई संवेदना के
साथ संप्रेषित हो जाती है । रोजमर्रा के भीतर से कविता निकाल लेना इनकी विशेषता है
।
हमारे समय को परिभाषित
करते हुए ध्यान रखना होगा कि वर्तमान, अतीत की कुछेक परिघटनाओं की आवृत्ति जैसा लगते हुए
भी इसमें भरपूर नयापन है । कविता में इस नएपन को पकड़ने के क्रम में इन कवियों ने
प्रतिरोध की भाषा को भी नई धार दी है । इन दोनों ही कवियों को अभी लम्बा रास्ता तय
करना है इसलिए कह सकते हैं कि हम हिंदी कविता के इतिहास के सम्भावनाशील संक्रमण के
साक्षी हैं । असल में अस्सी के बाद से ही हिंदी के रचना जगत में मध्यवर्गीय जीवन
प्रभावी हो चला था । नक्सलबाड़ी के बाद की विद्रोही ऊर्जा को नवउदारवादी घटाटोप ने
ढक लिया था । इस दौर में देश का पुराना मध्यवर्ग वैश्विक होने की राह पर था । उसे
राष्ट्रवाद का उन्मादी स्वर पसंद आने लगा था । हिंदी कविता में प्रतिरोध की धारा
में प्रतीकात्मकता से काम चलाया जा रहा था । देश और समाज में
मची इस उथल पुथल ने वंचित समूहों के भीतर नई आकांक्षाओं को जन्म दिया । आकांक्षाओं
के इस विस्फोट ने यथास्थिति की ताकतों में भी बेचैनी पैदा की । उथल पुथल का यह दौर
कविता के तत्कालीन मुहावरे में नहीं व्यक्त हो रहा था । साहित्य के नए पाठक प्रतीकात्मकता
की मध्य वर्गीय अभिव्यक्ति से असंतुष्ट तो था लेकिन उसे कोई रास्ता नहीं दीख रहा था
। उस समय इन नए
कवियों ने अभिव्यक्ति के तरीके के साथ भाषा की उस थोड़ी पुरानी पड़ चुकी घेरेबंदी को तोड़कर यथार्थ से उपजी भाषा के
खुरदुरेपन का कविता में प्रवेश कराया और तमाम बहिष्कृत सवालों को भी उसकी चौहद्दी
में घुसा दिया ।
हम सभी जानते हैं कि यथार्थ को देखने की हमारी
शक्ति से हमारी सामाजिक स्थिति का गहरा रिश्ता होता है । यथार्थ हमारी चेतना और दृष्टि
के समक्ष अपने आपको हमारी सामाजिक हैसियत के मुताबिक ही उजागर करता है । असल में
स्त्री, दलित, आदिवासी या धार्मिक तथा लैंगिक अल्पसंख्यक होने से किसी भी घटना को
देखने का नजरिया बदल जाता है । इसके चलते एकदम सामान्य सी लगने वाली घटना भी कुछ
नया रूप दिखाती है ।
उदाहरण के लिए अनुज लुगुन की पहली कविता ‘ताश के
पत्ते’ को देखें । इस शीर्षक से हमें बेकार युवकों की याद आती है लेकिन अनुज उनसे
जुड़े उनके परिवार का उल्लेख करके इसे बेकारों की निजी की जगह व्यापक सामाजिक
समस्या बना देते हैं । इस खेल से लगाव में उनकी ऊब ही नहीं निर्णायक होने की उनकी
दमित आकांक्षाओं की भूमिका भी होती है । बीच में कविता उनके प्रति समाज की क्रूर
धारणा का भी जिक्र करती है । अंत में कविता इस झूठी आशा के बिखराव को जब बैलेट
पेपर के बिखराव से जोड़ती है तो वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य भी मूर्तिमान हो जाता है
। इस तरह मामूली के सहारे व्यापक की जटिलता को उजागर करना उनकी प्रत्येक कविता की
विशेषता के रूप में सामने आती है । इस यथार्थ में कुछेक समूहों का सचेत बहिष्करण
सबसे विराट सवाल की तरह उभरता है । कविताएं यह भी बताती हैं कि यह सांगोपांग
बहिष्करण वर्तमान में तो चल रहा ही है उसके साथ सुदूर अतीत से भी होता आ रहा है ।
जेसिन्ता केरकेट्टा की
कविता अनुज की तरह मामूलीपन को उघाड़ने की जगह विराट के बहुपर्ती जगत को उठाती है ।
विराट पर केंद्रित होने के बावजूद इन कविताओं में हमारा राजनीतिक वर्तमान अधिक
मुखर है । इस वर्तमान की काव्य अभिव्यक्ति के लिए विडम्बना का रचनात्मक इस्तेमाल
किया गया है । यह वर्तमान धार्मिक अंधश्रद्धा से बना है जिसका वर्णन करते हुए कवि
उसके घर यानी मन्दिर में बलात्कार का जिक्र करता है तो अचानक हमें कठुआ की आसिफ़ा
याद आ जाती है । ईश्वर पर मजदूर से अधिक मालिक का अधिकार साबित होता है । विडम्बना
को व्यक्त करने के लिए ‘हत्या और दया/ लूट और दान’ को एक साथ चलते देखना पर्याप्त
है । इसी तरह देश की नसों में नफ़रत भले फैले पर स्वच्छता का घोष होगा । असल में इस
गन्दगी के विस्तार के लिए ही सफाई का नाटक जरूरी होता है उसी तरह जैसे सती को चिता
में लिटाने के बाद ढोल नगाड़े के शोर की जरूरत पड़ती है । इसी क्रम में एक और
विडम्बना आदिवासी को सभ्य बनाने से जुड़ी हुई है । यह प्रक्रिया असल में उसे
‘आदमीपन से नीचे’ गिराती है । इन कविताओं में पर्याप्त प्रतिरोधी मुखरता दिखाई
पड़ती है ।