मुहावरे के बतौर इसका इस्तेमाल मौलिकता के विरोध में होता है । लेकिन कई बार इसी तरह किसी नई किताब का पता भी चलता है । गणेश सखाराम देउस्कर ने स्वदेशी आंदोलन के समय एक किताब लिखी थी ‘देशेर कथा’ । उसका हिंदी अनुवाद बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया था । इससे पता चलता है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौर में हिंदी प्रदेश का बौद्धिक इतना आत्मकेंद्रित या पश्चिमाभिमुखी नहीं हुआ था । उसे देश की अन्य भाषाओं में लिखे की खबर रहती थी । साहित्य की तो रहती ही थी, साहित्येतर भी आपस में देखा सुना जाता था । हमारे देश में जबसे नव उपनिवेशीकरण की शुरुआत हुई तबसे ही स्वाधीनता आंदोलन के दौर के लेखन में रुचि बढ़ी । इस लेखन में साहित्यिक के साथ साहित्येतर पर ध्यान रामविलास शर्मा ने दिलाया । इस दिशा में मैनेजर पांडे ने भी ठोस योगदान किया । उन्होंने उस
अनुवाद की नई भूमिका लिखकर उसे प्रकाशित करवाया । भूमिका में उन्होंने श्रीनारायण चतुर्वेदी की किताब ‘आधुनिक हिंदी का आदिकाल’ का उल्लेख किया था । इस किताब के बारे में भी बहुत कम जानकारी देखी जाती है । इसका कारण शायद यह है कि इसमें हिंदी का आदिकाल विवेचित है, हिंदी साहित्य का आदिकाल नहीं ।
हिंदी साहित्य के अध्यापक और विद्यार्थी अक्सर शुरुआती लेखकों के पत्रकारिता से जुड़ाव को उदासीन भाव से तथ्य की तरह ग्रहण करते हैं । चतुर्वेदी जी की किताब बहुत हद तक हिंदी पत्रकारिता को आधुनिक हिंदी का अदिकाल बताती है ।
साहित्य के विद्यार्थी के सामान्य बोध के अनुसार पत्रकारिता दोयम दर्जे की चीज होती
है । वह भारतेंदु मंडल के लेखकों और महावीर प्रसाद द्विवेदी को तो हिंदी पत्रकारिता
के लिए माफ कर देता है लेकिन विश्वविद्यालयी अध्यापन से कुछ अधिक ही प्रभावित होने
के चलते बाद के दिनों में हिंदी के लेखकों में पत्रकारों की मौजूदगी के प्रति सहज नहीं
रहता । निराला, प्रेमचंद से लेकर अज्ञेय, सर्वेश्वर और रघुवीर सहाय जैसे लेखकों को अध्यापन से बाहर होने के चलते कृपापूर्वक
ही जगह दी जाती है । खास बात कि रामस्वरूप चतुर्वेदी ने भी इस किताब का उल्लेख हिंदी
गद्य के विकास के प्रसंग में काफी किया । शायद उसी किताब के संदर्भ से उन्होंने ब्रूटेन
की किताब का भी जिक्र किया । यह उल्लेख चतुर्वेदी जी की किताब ‘हिंदी गद्य: विन्यास और विकास’ में हुआ है । लिखा है- मेजर महोदय ने मुरार-ग्वालियर स्थित अपनी पल्टन के सिपाहियों को जो कविताएं कंठस्थ थीं उन्हें सुन-सुन कर 18वीं शती के अंतिम चरण में तैयार किया था ।
श्री नारायण चतुर्वेदी की यह किताब असम विश्वविद्यालय के सिल्चर परिसर स्थित पुस्तकालय में दिखी । उसमें ‘सेलेक्शंस फ़्राम द पापुलर पोएट्री आफ़ द हिंदूज’ का उल्लेख था । बताया गया था कि यह किताब हिंदुस्तानी फौजियों के मुख से सुनकर किसी अंग्रेज अफ़सर द्वारा हिंदी कविताओं का संग्रह और अंग्रेजी अनुवाद की थी । रुचि हुई क्योंकि कभी अनुवाद भी विशेषज्ञता का क्षेत्र प्रतीत होता था । अब तो उसका अध्ययन इतना जटिल हो चुका है कि अनुवाद कर्म से कोई रिश्ता ही नहीं बनता । लेखन संबंधी जिन विषयों का अध्ययन अध्यापन होता है उनमें शायद पत्रकारिता ही ऐसा है जिसके अध्यापन में कुछ व्यावहारिक स्पर्श होता है । साहित्य के अध्यापन से साहित्य कर्म का संबंध बन ही नहीं सका । बहरहाल अनुवाद के लिहाज से किताब रोचक महसूस हुई । इसके बाद उसकी तलाश शुरू हुई । सिल्चर छूट चुका था । किताब का नाम भूल चुका था । वहां मौजूद प्रभात मिश्र से कहा कि चतुर्वेदी जी की किताब से देखकर अंग्रेजी किताब का नाम बताएं । दिल्ली से उसका पता लगाना संभव लगा । पुस्तकालय से किताब गायब हो चुकी थी । इस बीच जे एन यू के कुछ अध्येताओं से जिक्र किया । उनकी अपनी व्यस्तता थी ।
तभी शोधार्थियों का एक उत्साही दल दाखिल हुआ । किसी भी अध्यापक के जीवन में उनकी उपस्थिति निर्णायक जैसी होती है । उसमें बहुत कुछ शर्मनाक होता है । आजकल सब्जी या गाय भैंस की सेवा तो नहीं होती लेकिन शोषण के अन्य रूप प्रकट हुए हैं । इस गर्हित पक्ष को न आजमाएं तो उनकी नवीनता से समृद्धि प्राप्त होती है । अहंकार में इसे स्वीकार करना मुश्किल होता है । उनसे जिक्र किया तो किताब का मुखपृष्ठ मिला । उसके मुताबिक किताब 1814 में छपी थी । किताब देखने की बेचैनी में फ़्रंचेस्का और उनके एक शोधार्थी गुआनचेन को मेल लिखा । लंदन में उनकी सहायता से कभी ‘हिंदी नवरत्न’ का एक अनुपलब्ध संस्करण मिल गया था । साथ ही मुखपृष्ठ की तस्वीर अपने सहकर्मी शाद नवेद को भेजी । वे भी नायाब किताबों के रसिया हैं । बहरहाल दोनों ही जगहों से लिंक प्राप्त हुए जिन पर किताब मुफ़्त पढ़ी जा सकती थी । खोला तो एक नई दुनिया से साबका पड़ा । कविताओं का संग्रह, संपादन और उनका अंग्रेजी अनुवाद थामस दुएर ब्रूटेन ने किया है । ये सज्जन बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में मेजर के पद पर कार्यरत थे । हिंदी शब्दों के उच्चारण के अनुरूप रोमन अक्षरों में उसे लिखने के लिए आज जो वर्तनी चलती है वही वर्तनी तब नहीं चलती थी । ऊपर से रोमन में लिखी ब्रजभाषा ! खुदा जाने कभी खुल भी सकेगा या नहीं ।
अंदाजा लगा कि पाठ संपादन क्या होता है । जिन्होंने फ़ारसी लिपि में लिखी कविताओं को सुलझाया या पांडुलिपियों में छिपे पाठ खोले होंगे, प्रणम्य हैं । अगर कभी इस उलझन में नहीं पड़े और दूसरों की मेहनत का ही लाभ उठाया तो साहित्य का अध्यापन क्या किया ! कहते हैं अगर आप किसी भाषा को नहीं जानते तो केवल लिपि का ज्ञान होने से उसे पढ़ नहीं सकते । कागजों की इबारत में छिपे शब्द खोजने का आनंद ही कुछ और होता है । किताब में ब्रजभाषा की कविताओं को खोजना तभी संभव होगा जब आप इन कविताओं को जानते हों । तभी टो टो करके उन्हें रोमन अक्षरों के बीच पहचाना जा सकता है । जिनकी कविताओं को शामिल किया गया है वे हैं सूरदास, देव, बिहारी, केशवदास आदि । इन्हें लोकप्रिय कहा जा रहा है ! लोकप्रिय साहित्य के अध्येता इन्हें परम शास्त्रीय घोषित करते हैं । केशव को तो शुक्ल जी के बाद ‘कठिन काव्य के प्रेत’ कहने का रिवाज ही चल पड़ा । इससे एकमात्र यही बात सिद्ध होती है कि लोक और शास्त्र के बीच वैसा विरोध नहीं रहा जैसा बताया जाता है । दूसरी बात कि ये कविताएं हिंदुस्तानी सिपाहियों को याद थीं । मतलब कि साहित्यानुराग का औपचारिक शिक्षा से खास लेना देना नहीं होता । पढ़ने से अरुचि कई बार शिक्षित लोगों में अधिक पाई जाती है । अशिक्षित लोग कमाई के लिए पढ़ाई का उपयोग नहीं करते । शिक्षित लोग उतना ही पढ़ना आवश्यक समझते हैं जितने से कमाई सुचारु रूप से चलती रहे । महत्व की बात यह कि उस समय ब्रजभाषा की कविता सिपाहियों तक को याद हुआ करती थी ।
हिंदी साहित्य का विद्यार्थी इन कवियों के समय को रीतिकाल कहता है जिसके बारे में सामान्य धारणा है कि उसके कवि अधिकतर दरबारी रहे । इससे यह भी निकलता है कि वह कविता दरबारों से बाहर नहीं गई । संकलन से सिद्ध है कि सामान्य युवकों को इन कवियों की कविता मुखस्थ हुआ करती थी । इस किताब के संकलनकर्ता ने दो ऐसी बातें कही हैं जिन्हें याद रखना उचित होगा । एक तो यह कि हम अंग्रेज शासक अपने शेष्ठता बोध के चलते इस देश की कविता को और उसके काव्यात्मक सौन्दर्य को नहीं देखते । तात्पर्य कि इस कविता में काव्यगत सौन्दर्य है । इसका यह भी अर्थ हुआ कि सभी अंग्रेज उपनिवेशवादी नजरिए से ही प्रभावित नहीं थे । एडवर्ड सईद के बाद औपनिवेशिक समय के ज्ञान के बारे में यह आम धारणा बनी कि इसमें उपनिवेशवादी हित होते हैं । इसके बाद भारत के प्रसंग में एकायामी तरीके से समस्त पौर्वत्य ज्ञान को औपनिवेशिक हितों के साथ नत्थी कर दिया गया । दूसरी बात ब्रूटेन ने कही कि हिंदुस्तानी कविता के नाम पर उर्दू कविता की ही जानकारी हमें होती है । इसलिए हिंदी की इस समृद्ध कविता का परिचय नहीं प्राप्त हो पाता । इसलिए भी इस कविता का संकलन और उसका काव्यगत सौन्दर्य स्पष्ट करना उन्हें आवश्यक प्रतीत हुआ ।
ब्रूटेन ने शुरू में अंग्रेज पाठकों को समझाने के लिए लंबी भूमिका लिखी है । इस भूमिका में दोहा (दोहरा), चौपाई, सवैया और कवित्त के बारे में लिखते हुए अंग्रेजी साहित्य की परंपरा में दीक्षित लोगों के लिए बोधगम्य लय और वर्ण विन्यास की शब्दावली का सहारा लिया गया है । अनुवाद को सांस्कृतिक संवाद के रूप में समझने और इस काम की जटिलताओं को उजागर करने के लिहाज से ब्रूटेन का यह काम याद रखा जाना चाहिए ।