2011 में बेसिक बुक्स से ब्रांको मिलानोविक की किताब ‘द हैव्स ऐंड द हैव-नाट्स: ए ब्रीफ़
ऐंड इडियोसिंक्रेटिक हिस्ट्री आफ़ ग्लोबल इनइक्वलिटी’ का प्रकाशन
हुआ । लेखक के अनुसार किताब में इतिहास और वर्तमान में आय और संपत्ति संबंधी विषमता
का विवेचन किया गया है ।
उनका कहना है कि सत्ता और संपत्ति का भेद सभी मानव समाजों में
पाया जाता है । विषमता सामाजिक परिघटना है और यह सापेक्षिक होती है । इसका अस्तित्व मनुष्यों
के ऐसे समूह में होता है जिनके बीच सरकार, भाषा, धर्म या स्मृतियों की साझेदारी हो । किताब में मनोरंजक तरीके से बताया गया
है कि हमारे दैनंदिन जीवन के कई क्षेत्रों में आय और संपत्ति संबंधी विषमता मौजूद है
। अपने सुपरिचित प्रसंगों को भी दूसरे कोण से देखने पर विषमता नजर आ सकती है । मकसद
यह दिखाना है कि अमीरी और गरीबी हमारे जीवन में मौजूद रहे हैं ।
किताब में तीन तरह की विषमताओं को उजागर किया गया है । एक तो
वह जो किसी एक ही समुदाय के विभिन्न व्यक्तियों के बीच होती है । इसे हम बहुत आसानी
से पहचान सकते हैं क्योंकि यह शब्द सुनते ही सबसे पहले हमारे दिमाग में इसी किस्म की
विषमता का ध्यान आता है । दूसरी वह जो विभिन्न
देशों के बीच मौजूद होती है । जब भी हम किसी अन्य देश की यात्रा पर जाते हैं या अंतर्राष्ट्रीय
समाचार देखते हैं तो इस प्रकार की विषमता नजर आती है । कुछ देशों में अधिकांश लोग गरीब
नजर आते हैं जबकि कुछ अन्य देशों में अधिकतर लोग अमीर नजर आते हैं । देशों के बीच की
यह विषमता प्रवास में भी झलकती है जिसके तहत गरीब देशों के कामगार संपन्न देशों में
बेशी कमाई के लिए जाते हैं । तीसरा प्रकार वैश्विक विषमता का है जो ऊपर बताई गई दोनों
प्रकार की विषमता का जमाजोड़ है । यह चीज वैश्वीकरण के बाद उभरी है क्योंकि उसके बाद
ही हम अपनी हालत की तुलना दूसरे देश के लोगों के साथ करने के आदी हुए हैं । जैसे जैसे
वैश्वीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी इस तरह की विषमता का प्रसार होगा ।
इन विषमताओं को स्पष्ट करने के लिए किस्सों का सहारा लिया गया
है । तीनों खंडों के शुरू में संबंधित विषमता के बारे में अर्थशास्त्रियों के लेख दिए
गए हैं । किस्सों के मुकाबले लेख थोड़ा अधिक ध्यान की मांग करते हैं । किताब के अंत
में आगे के अध्ययन के लिए एक पुस्तक सूची भी दी गई है । लेखक पिछले पचीस सालों से विषमता
का अध्ययन कर रहे थे जिसके चलते उनके पास आंकड़ों, सूचनाओं और किस्सों का भंडार
जमा हो गया था इसलिए लिखते समय विशेष असुविधा नहीं हुई । साफ है कि किताब के लेखन में
लेखक को संख्याओं और इतिहास से अपने लगाव से भारी मदद मिली । इसके जरिए जो लक्ष्य वे
पाना चाहते थे वे थे- रोचक तरीके से किस्से पढ़ते हुए पाठक का
कुछ नए तथ्यों से परिचय कराना, संपत्ति और आमदनी के मामले में
विषमता के दबा दिए गए मुद्दे को चर्चा में ले आना और पुराने किस्म की सामाजिक सक्रियता
को प्रेरित करने के लिए खासकर संकट के समय अमीरी गरीबी के सवाल को बहस के केंद्र में
स्थापित करना । वे चाहते हैं कि लोग अश्लील किस्म की अमीरी के औचित्य पर सवाल खड़ा करें
। वे यह भी चाहते हैं कि देशों के भीतर और देशों के बीच मौजूद भारी विषमता को भी स्वीकार
न कर लिया जाए ।
ये ऐसे सवाल हैं जिनकी उपेक्षा आसानी से जनमत के तमाम निर्माता कर बैठते हैं ।
उनका तर्क होता है कि सभी विषमताओं का जन्म बाजार से होता है और इस पर बहस करने से
कोई लाभ नहीं है । लेकिन लेखक का कहना है इनका जन्म बाजार से न होकर राजनीतिक शक्ति
की सापेक्षिकता से होता है और बाजार का नाम लेकर इन पर बात करने से बचना मुश्किल है
। बाजार आधारित अर्थतंत्र भी समाज की रचना है और इसका निर्माण जनता की सुविधा के लिए
हुआ है । इसलिए किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जनता के पास इसके संचालन के बारे में
सवाल करने का अधिकार होगा । अंत में लेखक ने कहा है कि उनके तमाम निष्कर्ष विश्व बैंक
के सर्वेक्षणों पर आधारित गणना से हासिल है ।
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