रूसी क्रांति के सभी विवरणों से प्रतीत
होता है कि उसमें शहरों की मुख्य भूमिका थी । वर्तमान सदी के भी विक्षोभ
प्रदर्शनों में शहर एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में सामने आए हैं । ऐसे में इस
मजेदार आयाम के बारे में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से एन्डी विलिमोट की किताब ‘लिविंग
द रेवोल्यूशन: अर्बन कम्यून्स & सोवियत
सोशलिज्म, 1917-1932’ का प्रकाशन हुआ । कहने की जरूरत नहीं
कि रूसी क्रांति के शहरी होने के कारण मजदूरों, सैनिकों के
साथ ही शहरी समुदाय के अनुभव भी उस क्रांति के रूप को समझने में मदद करते हैं ।
लेखक ने भूमिका में शुरुआत ही उस रोमांच से किया है जो किसी क्रांति में शिरकत से
पैदा होता है । इसमें बदलाव की तरंगों से नई दुनिया की संभावना खुलती है, एक नई शुरुआत के वादे और ऊर्जा का अनुभव होता है । अक्टूबर क्रांति के बाद
युवा कार्यकर्ताओं ने पहलकदमी लेकर साथ रहने का नया आदर्श स्थापित करने के मकसद से
शहरी कम्यूनों का निर्माण किया था ।
इसी साल आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से
एस ए स्मिथ की किताब ‘रशिया इन रेवोल्यूशन: ऐन एम्पायर इन क्राइसिस, 1890 टु 1928’
का प्रकाशन हुआ है । लेखक का कहना है कि यह किताब उन पाठकों के लिए लिखी गई है जो
इस विषय से अब तक अछूते रहे हैं । इसमें हाल के शोधों से तो सहायता ली ही गई है
कुछ प्रचलित मान्यताओं पर सवाल भी उठाया गया है । इसमें उन्नीसवीं सदी के अंत से
लेकर पहली पंच वर्षीय योजना के आरम्भ तक के समय का जायजा लिया गया है । जिन सवालों
का जवाब देने की कोशिश की गई है उनकी सूची भी लेखक ने पेश की है । वे हैं- जारशाही
का अंत क्यों हुआ? 1917 की फ़रवरी क्रांति के बाद संसदीय लोकतंत्र स्थापित करने की
कोशिश भी क्यों सफल नहीं हुई? एक छोटी सी चरमपंथी समाजवादी पार्टी सत्ता पर कब्जा
करने और गलाकाटू गृहयुद्ध में जीत हासिल करने में कामयाब कैसे हुई? स्तालिन के हाथ
में शासन कैसे आया? उन्होंने जबरिया समूहीकरण और उद्योगीकरण का तरीका क्यों
अपनाया? लेखक को लगता है कि येन केन प्रकारेण सत्ता में बने रहने की जिद के चलते
समूची सामाजिक व्यवस्था भहरा गई थी या जो लोग बेहतर समाज बनाना चाहते थे वे शासन
पर पकड़ बनाए रखने के चक्कर में भ्रष्ट हो गए । सोवियत संघ के खात्मे के बाद
प्राप्त नई सामग्री ने हाल के दशकों में रूसी क्रांति के बारे में समझदारी बदली है
। फिर भी इसकी व्याख्या में मतभेद बना हुआ है ।
इस शताब्दी वर्ष में ही वर्सो से स्लोवाज
ज़ाइज़ैक के संपादन में उनकी भूमिका के साथ ‘लेनिन 2017: रेमेम्बरिंग, रिपीटिंग, ऐंड
वर्किंग थ्रू’ का प्रकाशन हुआ । किताब का उपशीर्षक फ़्रायड के एक लेख से लिया गया
है जिसे सौ साल बाद अक्टूबर क्रांति को याद करने के सिलसिले में लेखक सर्वोत्तम
रुख समझते हैं । इस रुख में पहला काम याद करने का है । इस क्रिया में ध्यान
अतीतबद्ध रहता है इसलिए दूसरा चरण वर्तमान में उसे दोहराने का होना चाहिए ।
दोहराने की इस कोशिश में बाधाओं का पता चलता है तो उन्हें दूर करने का प्रयास
तीसरा चरण होता है । ज़ाइज़ैक का कहना है कि इस तरह से अतीत के इस क्रांतिकारी
प्रयास को समकालीन बनाया जा सकेगा ।
2017 में ही वेलरेड बुक्स से एलन वुड की
किताब ‘बोल्शेविज्म: द रोड टु रेवोल्यूशन’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ । पहली
बार यह किताब 1999 में छपी थी । लेखक का कहना है कि रूसी क्रांति का ऐतिहासिक महत्व
संदेह से परे है । पचहत्तर साल का इसका जीवन तो रहा ही समूची बीसवीं सदी पर इसकी छाया
पड़ी । ऊपर से इसके साथ महान बुर्जुआ क्रांतियों की समानता महसूस होती है लेकिन इस क्रांति
का स्वरूप समाजवादी था और समाजवादी क्रांति के लिए मजदूर वर्ग के स्वत:स्फूर्त
नहीं, बल्कि सचेत आंदोलन की जरूरत होती है ।
इस साल छपने वाली इन किताबों के इस
संक्षिप्त सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि फिलहाल बोल्शेविक क्रांति के मूल्यांकन
और विश्लेषण में उसके जन भागीदारी परक चरित्र को उभारा जा रहा है । इससे ठीक एक
साल पहले छपी किताबों में भी कुछ गंभीर बातें की गई हैं । 2016 में ज़ीरो बुक्स से पीट डोलाक की किताब
‘इट’स नाट ओवर: लर्निंग फ़्राम
द सोशलिस्ट एक्सपेरिमेन्ट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है
कि किताब भविष्य के बारे में है लेकिन इसके शुरुआती अध्याय अतीत के बारे में हैं ।
अतीत का यह अध्ययन वर्तमान की समझदारी के लिए तो जरूरी है ही, आगामी दुनिया को बेहतर
बनाने का रास्ता खोजने के लिए भी जरूरी है । लेखक को लगता है कि अतीत को भूल जाना भविष्य
को भी भूल जाना है । किताब में जिन कोशिशों का अध्ययन किया गया है वे पूंजीवाद से भिन्न
आधार पर समाज को संगठित करने के प्रयास थे । ऐसे प्रयासों में सबसे महत्वपूर्ण सोवियत
संघ की स्थापना था जो समूची बीसवीं सदी में पूंजीवाद के लिए चुनौती बना रहा । लेखक
को लगता है कि हालांकि भविष्य में उसकी नकल नहीं की जा सकती लेकिन उससे सीखा तो जा
ही सकता है । सोवियत संघ के टूटने के बीस साल बाद उस प्रयास का वस्तुगत अध्ययन आसान
हो गया है । जब तक सोवियत संघ मौजूद रहा उसके विरुद्ध घोर वैचारिक अभियान चलाया जाता
रहा । अब इस अभियान में थोड़ी नरमी आई है । जो लोग उसे बुराई का गढ़ मानते हैं उनके लिए
वैसे भी ढेर सारी सामग्री उपलब्ध है । इसके लिए तर्क मुहैया कराना लेखक का काम नहीं
है । उनका मकसद सोवियत प्रणाली की उस कमजोरी का पता लगाना है जिसके कारण वह समाप्त
हो गया । इसे समझने के लिए लेखक ने चेकोस्लोवाकिया और निकारागुआ की कार्यपद्धति का
भी अध्ययन किया है । इसके साथ ही लेखक का यह भी मत है कि पूंजीवादी दुनिया और समाजवादी
दुनिया का आपसी रिश्ता समझना जरूरी है । समाजवादी प्रयोग चलाने वाले देशों पर बड़े पूंजीवादी
देशों का गहरा असर पड़ा । कुछ समाजवादी देशों का गला भी पूंजीवादी देशों ने घोंटा ।
अनेक क्रांतियों की विकृति का कारण बहुत कुछ उनके विध्वंस के पूंजीवादी प्रयास थे ।
रूस और निकारागुआ अतीत से प्राप्त अपनी ढेर सारी कमजोरियों के चलते ही शायद बाहरी दखलंदाजी
से पार नहीं पा सके ।
लेखक का कहना है कि दरअसल पूंजीवाद की समस्याओं
का सीधा उत्तर समाजवाद है । इसीलिए समाजवादी प्रयोगों का संबंध निरंतर पूंजीवादी राज्यों, पूंजीवाद
विरोधी आंदोलनों और उत्तर पूंजीवादी राज्यों से बना रहा । पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं
की भिन्न परिणति की व्याख्या के सिलसिले में मनोवैज्ञानिक वजहें भी प्रस्तुत की गई
हैं । मनुष्य के भीतर लोभ की प्रवृत्ति को इसके मूल में बताया गया है । पूंजीवादी विचारधारा
का दावा है कि मनुष्य को प्रेरित करने वाली एकमात्र चीज धन और मुनाफा है । थोड़ा सा
सोचने से ही इस दावे की कलई खुल जाती है । बच्चे पैदा करने से मुनाफा न होने के बावजूद
लोग बाग बच्चों को जन्म देते हैं । बिना मजूरी लिए तमाम तरह के काम लोग करते हैं जिनके
बगैर कोई भी समाज नहीं चल सकता । सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता आम तौर पर बिना धन
लिए बहुत सारा काम करते हैं । एकजुटता और आपसी सहयोग भी होड़ या प्रतियोगिता जितनी ही
स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं ।
रूसी क्रांति से गहरे जुड़ा प्रसंग
त्रात्सकी और स्तालिन का विवाद है । इस सिलसिले में सबसे प्रामाणिक स्रोत के रूप
में वेलरेड बुक्स से लिओन त्रात्सकी की किताब ‘स्तालिन: ऐन अप्राइजल आफ़ द मैन ऐंड हिज इनफ़्लुएन्स’ का प्रकाशन
हुआ । यह किताब त्रात्सकी का आखिरी लेखन था । इसे अमेरिकी प्रकाशन हार्पर
& ब्रदर्स के अनुरोध पर लिखा गया था । उनके देहांत के बाद प्रकाशक
ने जिससे इसका अनुवाद और संपादन कराया उन्होंने इसे अपनी मौलिक सूझ से भर डाला था ।
लेकिन त्रात्सकी के समर्थक मार्क्सवादियों की एक टोली, खासकर
एलन वुड्स ने मूल किताब का उद्धार करके उसे प्रकाशित किया है ।
इसी प्रसंग में एक और आधिकारिक स्रोत के
बतौर 2008 में हेमार्केट बुक्स से लियोन त्रात्सकी की किताब के अंग्रेजी अनुवाद
‘हिस्ट्री आफ़ द रशियन रेवोल्यूशन’ को एक जिल्द में छापा गया । पहले तीन जिल्दों
में इसका प्रकाशन 1932 में यूनिवर्सिटी आफ़ मिशिगन प्रेस से हुआ था । 1961 में
दूसरी बार इसको छापा गया था । अनुवाद मैक्स ईस्टमैन ने किया है । किताब का महत्व
यह है कि इसे क्रांति के ही एक नेता ने लिखा है । ज्ञातव्य है कि त्रात्सकी 1905
की क्रांति के दौरान पीटर्सबर्ग सोवियत के अध्यक्ष रहे थे और अक्टूबर क्रांति के भी
अग्रणी नेताओं में थे ।
2015 में वर्सो से आइजक ड्यूशर की किताब
‘द प्राफ़ेट: द लाइफ़ आफ़ लियोन त्रात्सकी’
का प्रकाशन हुआ । ड्यूशर ने तीन खंडों में त्रात्सकी की जीवनी लिखी जिसे
एक ही खंड में इस किताब में एकत्र कर दिया गया है । जीवनी का पहला खंड 1879
से 1921 तक के जीवन पर है । दूसरा खंड
1921 से 1929 तक के जीवन की कथा है । आखिरी तीसरा
खंड 1929 से 1940 तक के जीवन को समेटता
है । ये केवल तिथियां नहीं हैं, बल्कि त्रात्सकी के जीवन के तीन
दौर हैं । पहला दौर बचपन से शुरू होकर बोल्शेविक क्रांति के बाद स्थापित सत्ता में
निभाई गई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का विवेचन है । दूसरा दौर लेनिन के देहान्त से शुरू
सत्ता संघर्ष में पराजय के कारण देश छोड़ने तक की कथा है । उनके जीवन का अंतिम दौर रूस
के बाहर से स्तालिन के विरुद्ध संघर्ष और विदेशों में बिताए गए जीवन का है । इन्हीं
तीनों खंडों को एक साथ करके इस किताब को छापा गया है । किताब में न केवल त्रात्सकी
का जीवन है बल्कि उनके जीवन के साथ रूस की सामाजिक संरचना खासकर यहूदियों की उपस्थिति,
उनके प्रति जारशाही का रवैया और इसके बारे में रूसी क्रांतिकारियों का
रुख, रूस की क्रांति के अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप को तय करने में
प्रवासी समुदाय की भूमिका, प्रवासी गुटों के आपसी संघर्ष,
क्रांति की उठान आदि भी पाठक के लिए प्रत्यक्ष होते जाते हैं । त्रात्सकी
की जीवनी होने के बावजूद लेखक ने सभी मौकों पर उनको बचाया नहीं है, बल्कि एक हद तक क्रांतिकारी पक्षधरता के साथ तटस्थ विश्लेषण भी किया है । विशेषकर
लेनिन के साथ उनके टकराव को बेहद संतुलित होकर लेखक ने प्रस्तुत किया है ।
इसी क्रम में एक अन्य बोल्शेविक की कहानी के
माध्यम में उस दौर की हकीकत प्रस्तुत करने की चेष्टा के तहत 2015 में ब्रिल से
बारबरा सी एलेन की किताब ‘अलेक्जेंडर श्ल्यापनिकोव, 1885-1935: लाइफ़ आफ़ ऐन ओल्ड
बोल्शेविक’ का प्रकाशन हुआ । किताब में एक व्यक्ति के माध्यम से पुराने सामाजिक
मूल्यों से रूसी क्रांति के वातावरण में संक्रमण, फिर नई सोवियत सत्ता की रक्षा,
मजदूरों में ट्रेड यूनियन की चाहत, नई आर्थिक नीति के दौर में राजनीतिक बदलाव,
उद्योगीकरण और पार्टी में शुद्धीकरण, गिरफ़्तारी और निर्वासन की कथा कही गई है ।
इस क्रांति के नेता लेनिन के बारे में 2015
में मंथली रिव्यू प्रेस से तमास क्राउज़ की हंगारियाई भाषा में लिखित किताब का
अंग्रेजी अनुवाद ‘रीकंस्ट्रक्टिंग लेनिन: ऐन इंटेलेक्चुअल बायोग्राफी’ शीर्षक से
प्रकाशित हुआ । अनुवाद बालिन्त बेथलेनफ़ाल्वी ने मारियो फ़ेन्यो के साथ मिलकर किया
है । लेनिन के जीवन के बारे में अधिकतर लेखन रूसी में हुआ लेकिन रूस के बाहर के इस
लेखन से भिन्न नजरिया प्रकट होता है । लेखक का कहना है कि मार्क्स का जो भी सपना
था उसे अमल में लाने की गंभीर और सचेत कोशिश लेनिन ने की । उन्होंने राज्य को
समाप्त करना चाहा था लेकिन विडम्बना थी कि सोवियत राज्य के सत्तर साल का इतिहास
उनके साथ जुड़ गया ।
स्तालिन और त्रात्सकी की बहस को एक नई रोशनी
में देखते हुए 2014 में ब्रिल से थामस एम ट्विस की किताब ‘त्रात्सकी ऐंड द
प्राब्लेम आफ़ सोवियत ब्यूरोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ । किताब इस मामले में
महत्वपूर्ण है कि नौकरशाही की समस्या पर विचार करते हुए लेखक ने ऐसा कोई रास्ता
नहीं अपनाया है जिसमें लेनिन या स्तालिन को दोष देकर छुट्टी पा ली जाती है बल्कि
लेखक ने पूरी सैद्धांतिक गंभीरता के साथ इस समस्या पर विचार किया है ।
2014 में हेमार्केट बुक्स से लेनिन की
मशहूर किताब ‘स्टेट ऐंड रेवोल्यूशन’ का टाड क्रेटियन की प्रस्तावना और टिप्पणियों
के साथ पुन:प्रकाशन हुआ है । अक्टूबर क्रांति के सभी अध्येता जानते हैं कि यह
किताब 1917 के जुलाई विद्रोह के दमन के बाद गुप्त जीवन बिताते हुए लेनिन ने लिखी
और इसे क्रांति के बाद बनने वाले राज्य के सिलसिले में सैद्धांतिक तैयारी का
दस्तावेज माना जाता है । रूसी भाषा में 1918 और 1919 में पहले
और दूसरे संस्करण के प्रकाशन के बाद 1921 में ही इसका अंग्रेजी
अनुवाद अमेरिका की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्यों की शिक्षा के लिए इस्तेमाल किया जाने
लगा था । उपलब्ध अंग्रेजी अनुवाद को अमेरिकी अंग्रेजी के हिसाब से थोड़ा दुरुस्त किया
गया है ।
लेखक का मानना है कि आर्थिक संकट, पारिस्थितिकी
के विनाश, हिंसक सैन्यवाद और सामाजिक उत्पीड़न के वर्तमान दौर
में राजसत्ता पर कब्जे का सवाल प्रासंगिक हो चला है । लेनिन ने यह किताब अपने समय के
सवालों के जवाब के रूप में लिखी थी । वे रूसी क्रांति के संदर्भ में मार्क्स-एंगेल्स के राज्य संबंधी चिन्तन के प्रयोग का विश्लेषण करते हुए इसका दूसरा
भाग लिखना चाहते थे लेकिन उसे कभी पूरा नहीं कर सके । आज की रोशनी में ही इसमें निहित
अंतर्दृष्टियों का उपयोग संभव है ।
प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक लेनिन को पूंजीवादी
और सर्वहारा राज्य में अंतर संबंधी मार्क्स-एंगेल्स के लेखन की गलत समझ से जूझने की जरूरत
महसूस नहीं हुई थी । लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के समय कुछ मार्क्सवाद के समर्थकों के
रुख में उन्हें गलती नजर आई खासकर काउत्सकी उन्हें इस गलत समझ के प्रतिनिधि प्रतीत
हुए । इस सिलसिले में लेनिन को यह तो लगा था कि रूसी ज़ार और तानाशाहीपूर्ण राज्य को
क्रांतिकारी बल प्रयोग के जरिए उखाड़ फेंका जाएगा लेकिन उन्हें यह स्पष्ट नहीं था कि
जिन देशों में लोकतांत्रिक या अर्ध लोकतांत्रिक शासन पद्धति स्थापित है वहां राज्य
का क्या होगा । कुछ उदारपंथी समाजवादी चिंतकों का मानना था कि चुनावों के जरिए मजदूर
वर्ग शांतिपूर्ण तरीके से मौजूदा पूंजीवादी राज्यों पर कब्जा कर लेगा और कानून बनाकर
समाजवादी सुधार किए जाएंगे । लेनिन बहुत पहले से मानते आए थे कि वर्ग संघर्ष और पूंजीवाद
से समाजवाद में संक्रमण आसानी से नहीं होगा । वे मानते थे कि पूंजीपति वर्ग लोकतांत्रिक
चुनाव परिणाम को मंजूर करके शांतिपूर्वक अपने आपको बेदखल नहीं होने देगा । लोकतांत्रिक
पूंजीवादी राज्य में भी आत्म-रक्षा के बहुस्तरीय उपाय अंतर्निहित
होते हैं जिनका संबंध सत्तासीन व्यक्तियों या राजनीतिक पार्टियों से ही नहीं होता ।
इस प्रारंभिक मान्यता की पुष्टि 1917 में हुई । तत्कालीन उदारपंथी
समाजवादी चिंतन का विरोध लेनिन के साथ ही बुखारिन ने भी किया था । बुखारिन का मानना
था कि पूंजीवादी राज्य को मजदूर वर्गीय क्रांति के मकसद के लिए रूपांतरित नहीं किया
जा सकता । पूंजीवाद के विरुद्ध मजदूर वर्ग की तानाशाही या मजदूर वर्ग के राज्य के निर्माण
के लिए पहले पूंजीवादी राज्य को नष्ट करना होगा । इसके बाद समाजवादी मानवता के मुक्त
विकास के लिए मजदूर वर्ग की राजसत्ता का यह अस्थायी रूप भी समाप्त हो जाएगा । राज्य
के संबंध में मार्क्सवादी समझ में काउत्सकी के जरिए जो विकृति पैदा हुई उसके चलते दूसरे
इंटरनेशनल की अधिकतर पार्टियों ने प्रथम विश्व युद्ध में अपनी सरकारों का विरोध करने
के बदले उनका साथ दिया ।
काउत्सकी जर्मन कम्यूनिस्ट आंदोलन के नेता
थे इसलिए क्रेटियन ने थोड़ा ठहरकर आंदोलन के बारे में जानकारी दी है । 1848 की
असफल क्रांति के नेता होने के चलते मार्क्स-एंगेल्स को जर्मनी
की सरकार ने कभी जर्मनी आकर राजनीति करने की इजाजत नहीं दी इसलिए वे जर्मनी के अपने
समर्थकों के लिए प्रवासी सलाहकार की भूमिका निभाने को मजबूर थे । लंबे दिनों तक अर्ध
कानूनी हालात में धीरज के साथ काम करने के बाद उनके ये समर्थक उदारपंथी समाजवादी लासाल
के अनुयायियों के साथ मिल गए । मार्क्स-एंगेल्स ने भी मजबूत संगठन
के हक में इस एकता को ठीक माना लेकिन उन्हें लगा कि अपने नए सहयोगियों को साथ रखने
के लिए उनके समर्थक दक्षिण की ओर कुछ ज्यादा ही झुक गए हैं । ऊपर से सेंसर के नियमों
के चलते नई पार्टी को सार्वजनिक रूप से गोलमोल भाषा बोलनी पड़ती थी । इसके साथ ही
हुआ यह कि 1870 के बाद जर्मनी के अर्थतंत्र में उछाल आया जिसके चलते शहरी कामगारों
की संख्या में बढ़ोत्तरी आई । साथ ही ट्रेड यूनियनों और नई पार्टी की सदस्यता भी
बढ़ी । इसके बावजूद हड़तालें नहीं हुईं क्योंकि औद्योगिक शांति और लगातार मुनाफ़े के
चक्कर में कारखानों के मालिक वेतन बढ़ा देते और ट्रेड यूनियनों की गतिविधियों को भी
सहन करते । सरकार ने भी 1890 में समाजवाद विरोधी कानून हटा लिए । समाजवादियों की
ताकत में इजाफ़ा हुआ और जर्मनी की संसद में प्रथम विश्व युद्ध से पहले के वर्षों
में लगभग तिहाई सीटें समाजवादी जीतते थे । इन सबके चलते कुछ लोग खुलकर कहने लगे कि
जर्मनी में क्रांति की जरूरत के मामले में मार्क्स-एंगेल्स की राय शायद सही नहीं
थी । मार्क्स-एंगेल्स इस प्रवृत्ति पर हमला करते रहे और पार्टी के भीतर पैदा हो
रहे अवसरवाद से सावधान करते रहे । एंगेल्स के देहान्त के बाद जर्मनी के समाजवादी
नेता बर्नस्टाइन ने कहा कि समाजवाद और क्रांति के बारे में मार्क्स-एंगेल्स के
विचार पुराने पड़ चुके हैं । उनका यह भी मानना था कि जर्मनी की तत्कालीन परिस्थिति
में पार्टी का कर्तव्य बनता है कि वह पूंजीवाद में धीरे धीरे सुधार लाने की कोशिश
करे । रोजा लक्जेमबर्ग और कार्ल काउत्सकी ने इस धारणा का विरोध किया । क्रांति का
समर्थक होने के बावजूद दोनों में कुछ अंतर भी था । रोजा ने चुनाव में भाग लेने का
तो समर्थन किया लेकिन वे मानती थीं कि मजदूर वर्ग की मुक्ति जन संघर्षों के जरिए
ही होगी । दूसरी ओर काउत्सकी भी गैर संसदीय संघर्षों का समर्थन करते थे लेकिन
क्रांति के बारे में उन्होंने कहा कि जरूरी होने के बावजूद खतरनाक होने के कारण
इससे परहेज करना चाहिए । उनके अनुसार उस समय मजदूर वर्ग का कर्तव्य जर्मनी की संसद
में प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराना था ताकि समाज में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत की जा
सकें । काउत्सकी की इसी धारणा को लेनिन ने राज्य के बारे में भ्रामक माना था और इसके
विरोध में मार्क्स-एंगेल्स की राज्य संबंधी विचारों को प्रस्तुत
किया था ।
2010 में डब्ल्यू डब्ल्यू नार्टन
& कंपनी से फिलिप पोम्पर की किताब ‘लेनिन’स ब्रदर: द ओरिजिन्स आफ़ द अक्टूबर रेवोल्यूशन’
का प्रकाशन हुआ । लेखक इतिहासकार हैं और लेनिन के बड़े भाई अलेक्जेन्डर
उल्यानोव की यह शोधपूर्ण जीवनी लिखते हुए रूसी क्रांति में उनकी भूमिका से पाठक को
परिचित कराना ही किताब का मकसद है । उल्लेख्य है कि अलेक्जेन्डर अराजकतावादी क्रांतिकारी
धारा के थे और ज़ार की हत्या के आरोप में इक्कीस साल की उम्र में उन्हें फांसी दी
गई थी ।
एक किताब थोड़ा हटकर छपी है । 2006 में येल
यूनिवर्सिटी प्रेस से अलेक्जेन्डर वातलिन और लारिसा मालाशेंको के संपादन में छपी रूसी
किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘पिगी फ़ाक्सी ऐंड द स्वर्ड आफ़ रेवोल्यूशन: बोल्शेविक
सेल्फ़-पोर्ट्रेट्स’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद सिमोन सेबाग मोन्टफ़ायर ने किया है ।
अनुवादक का कहना है कि अक्टूबर क्रांति से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक बोल्शेविक
लगातार उथल पुथल से गुजरते रहे । इस त्रासदी से पार पाने के लिए उन्होंने हास्य-व्यंग्य
का भी सहारा लिया । इस किताब में इसी तरह की तस्वीरों और कार्टूनों का संग्रह और उनका
विश्लेषण किया गया है । इन कार्टूनों के विषय चित्रकार और राजनेता बनाए गए थे ।
इनमें से कई कार्टूनों के चित्रकार सत्ता के कोप भाजन भी बने । इन चित्रों से
नेताओं का मानवीय चेहरा प्रकट होता है जिनमें आपसी ईर्ष्या-द्वेष के
साथ साथ महात्वाकांक्षा की भी प्रचुर उपस्थिति थी ।
इक्कीसवीं सदी के समाजवाद के बारे में
गंभीरता के साथ विचार करने वाले माइकेल लेबोविट्ज़ की किताब ‘द कंट्राडिक्शंस आफ़
“रीयल सोशलिज्म”: द कंडक्टर ऐंड द कंडक्टेड’ का प्रकाशन 2012 में मंथली रिव्यू
प्रेस से हुआ । समाजवादी मुल्कों में क्रांति के संपन्न होने के बाद समय बीतने के
साथ जो कुछ घटित हुआ था उसे वस्तुपरक तरीके से देखने का मौका बढ़ रहा है । इसी तरह के
विश्लेषण का फल लेबोविट्ज़ की यह किताब है ।
इसी तरह की एक किताब 2011 में कार्नेल
यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविड एल हाफ़मैन की ‘कल्टिवेटिंग द मासेज: माडर्न स्टेट
प्रैक्टिसेज ऐंड सोवियत सोशलिज्म, 1914-1939’ का प्रकाशन हुआ । ध्यान देने की बात
है कि मार्क्सवादी मान्यता के मुताबिक राज्य का खात्मा होना था लेकिन क्रांति के बाद
एक नया राज्य स्थापित हुआ । इस विडम्बना को समझने की कोशिश इस किताब में की गई है
।
2011 में प्रेजर से एन्थनी दागोस्तिनो की
किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन, 1917-1945’ का प्रकाशन हुआ । रूसी क्रांति कि अवधि के बारे में इसमें नया नजरिया तो
अपनाया ही गया है स्तालिन की मौजूदगी के बारे में स्थिति भी स्पष्ट की गई है ।
लेखक का मानना है कि प्रथम विश्व युद्ध, महामंदी और फ़ासीवाद
के उदय से परिभाषित होने वाली अंतर्राष्ट्रीय स्थिति शीतयुद्ध के दौरान पूरी तरह
से बदल गई । इस अर्थ में रूस की क्रांतिकारी विचारधारा ने नाज़ीवाद के कहर से
पाश्चात्य लोकतंत्र को बचाया । शीतयुद्ध के खात्मे के बाद तो न रूस रहा न रूसी
क्रांतिकारी सत्ता । ऐसे में लेखक ने मुख्य रूप से इस सवाल पर विचार किया है कि
रूसी क्रांति कोई ऐतिहासिक विकार/अपवाद थी या हमारी वर्तमान
दुनिया के निर्माण में उसका कोई योगदान है । लोकतंत्र के निर्माण के लिहाज से वे
इसे इंग्लैंड की सत्रहवीं सदी की क्रांति, फ़्रांस की
अठारहवीं सदी की क्रांति तथा अमेरिका के स्वाधीनता संघर्ष जैसी निर्णायक घटनाओं
में से एक मानने पर जोर देते हैं ।
2009 में पालग्रेव मैकमिलन से राबर्ट सर्विस की
किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन, 1900-1927’ का चौथा संस्करण प्रकाशित हुआ । 1986 में पहली बार छपने
के बाद 1991 और 1999 में इसके विभिन्न संस्करण
छपे थे । राबर्ट सर्विस ने लगातार रूसी क्रांति के बारे में शोधपूर्ण लेखन किया है
।
2008 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से शीला
फ़िट्ज़पैट्रिक की किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन’ का तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ । किताब के पहले संस्करण का लेखन
1979 में हुआ था । दूसरे संस्करण की पांडुलिपि 1993 में तैयार हुई थी । दूसरे संस्करण के प्रकाशन के समय जो लोग विद्यार्थी थे
उन्होंने रूस संबंधी शोध किया और उसका उपयोग इस तीसरे संस्करण के लिए हुआ है । दूसरे
संस्करण का प्रकाशन सोवियत संघ के पतन की नाटकीय घटनाओं के बाद हुआ था । इसके चलते
संग्रहालय तक शोधकर्ताओं की पहुंच हो गई थी ।
2007 में इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस से
अलेक्सांद्र राबिनोविच की किताब ‘द बोल्शेविक्स इन पावर: द फ़र्स्ट ईयर आफ़ सोवियत
रूल इन पेत्रोग्राद’ का प्रकाशन हुआ ।
2007 में पालग्रेव मैकमिलन से केटी टर्टन की किताब
‘फ़ारगाटेन लाइव्स: द रोल आफ़ लेनिन’स सिस्टर्स इन द रशियन रेवोल्यूशन, 1864-1937’ का प्रकाशन
हुआ । यह तो सर्वविदित है कि लेनिन के बड़े भाई को फांसी दी गई थी लेकिन उनकी बहनों
के बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिलती । उनकी दो बहनें पार्टी की महत्वपूर्ण कार्यकर्ता
थीं । रूसी क्रांति के सिलसिले में स्त्रियों की भूमिका बहुत कुछ अनदेखी रह जाती है
जबकि बोल्शेविक पार्टी की ढेर सारी स्त्रियों ने क्रांति में जबर्दस्त भूमिका निभाई
थी । लेनिन के व्यक्तित्व की आड़ में उनकी बहनों का योगदान छिप जाता है । लेखिका का
कहना है कि यह दिक्कत केवल लेनिन की बहनों के बारे में नहीं है । जब भी किसी प्रसिद्ध
पुरुष के साथ जुड़ी स्त्रियों के बारे में बात होती है तो उनका स्वतंत्र व्यक्तित्व
पीछे रह जाता है । लेनिन के साथ उनकी पत्नी क्रुप्सकाया, बहनें
अन्ना और मारिया उलियानोवा तथा कोलंताई और इनेसा आर्मंड जैसी स्त्रियां जुड़ी रहीं ।
एक बहन ओल्गा 1890 में ही गुजर गई थीं । लेनिन की जीवनियों में
इन स्त्रियों का उल्लेख भर होता है । बहनें तो संयोग से जुड़ गईं इसलिए उनके बारे में
विशेष क्या सोचना ! उनका जिक्र लेनिन के बचपन के प्रसंग में आता
है या फिर उनकी बीमारी के प्रसंग में । लेनिन की जीवित बची दोनों बहनों के बारे में
यह बेहद जरूरी किताब है ।
रोनाल्ड कोवाल्सकी की किताब ‘द रशियन
रेवोल्यूशन 1917-1921’ का प्रकाशन रटलेज से पहली बार 1997 में हुआ था । इसके बाद 2005
में टेलर & फ़्रांसिस ई-लाइब्रेरी से उसका इलेक्ट्रानिक प्रकाशन हुआ । शीर्षक से
ही स्पष्ट है कि लेखक ने क्रांति की निरंतरता को केवल आरम्भिक पांच वर्षों तक स्वीकार
किया है । रूसी क्रांति के आरम्भ और समाप्ति के समय से लेखकों का पक्ष स्पष्ट हो जाता
है । जो लोग स्तालिन को बदनाम करना चाहते हैं उनके लिए रूसी क्रांति लेनिन के देहांत
के साथ समाप्त हो जाती है । ज्ञातव्य है कि रूसी क्रांति के ही महत्व को खारिज करने
वाले लोगों ने भी अपने राजनीतिक तर्कों के साथ कोई समझौता नहीं किया है और उसी तरह
हिटलर के हमले को नाकाम करने का श्रेय देने के बदले गाली देने के लिए स्तालिन का बहाना
लेने वाले भी पूर्ववत अपनी बात पर कायम हैं । अंत की तरह ही आरम्भ चुनने वालों की भी
राजनीतिक राय निश्चित होती है । अगर आप 1917 की क्रांति को सामाजिक हलचल का नतीजा मानते
हैं तो स्वाभाविक रूप से उसकी प्रक्रिया पीछे से शुरू होती है लेकिन अगर आप उसे तख्तापलट
या षड़यंत्र समझते हैं तो उसकी कहानी कुछ महीनों तक की होगी और मुट्ठी भर नेताओं के
इर्दगिर्द घूमती रहेगी ।
एलन वुड की किताब ‘द ओरिजिन्स आफ़ रशियन
रेवोल्यूशन 1861-1917’ का प्रकाशन पहली बार 1987 में हुआ था । 1993 में उसका दूसरा
संस्करण रटलेज से छपा । फिर 2003 में इसका तीसरा संस्करण रटलेज से ही छपा । 2005
में टेलर & फ़्रांसिस ई-लाइब्रेरी से उसका इलेक्ट्रानिक प्रकाशन हुआ । किताब इस
मामले में रूसी क्रांति से जुड़े लेखन से अलग है कि वह उसके मूल को 1861 में रूस के
भूदासों की मुक्ति में देखती है ।
2005 में द यूनिवर्सिटी आफ़ मिशिगन प्रेस
से मोशे लेविन की किताब ‘लेनिन’स लास्ट स्ट्रगल’ का प्रकाशन हुआ । किताब मूल रूप
से लेनिन द्वारा संकट के समय अपनाई गई नई आर्थिक नीति से जुड़े संघर्षों का
विश्लेषण करती है । नई आर्थिक नीति का महत्व यह है कि उसके जरिए लेनिन ने योजना और
बाजार के समन्वय की दिशा में एक गंभीर प्रयोग किया था । इसी के साथ लेनिन इस
समस्या से भी जूझ रहे थे कि जो क्रांति जनता की मुक्ति के लिए हुई थी उससे उत्पन्न
राज्य अपने आपमें ऐसा ढांचा बन गया जो मुक्ति के लिए बाधक साबित हो रहा था । ये
दोनों समस्याएं आपस में जुड़ी हुई थीं । अर्थतंत्र और प्रशासन के क्षेत्र में जनता
की पहलकदमी और पार्टी ढांचे के बीच तालमेल की कोशिश ही लेनिन के जीवन के अंतिम साल
का सबसे घनघोर संघर्ष था ।
2005 में वर्सो से ग्रेगोरी इलियट के संपादन में
मोशे लेविन की किताब ‘द सोवियत सेंचुरी’ का प्रकाशन हुआ । इतिहास में प्रथम विश्व युद्ध के बीच रूसी क्रांति की बदौलत
सोवियत सत्ता की स्थापना से लेकर बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में उसके ध्वंस तक को सोवियत
शताब्दी मानने पर जोर दिया जा रहा है । उसी समझ को इस किताब में व्यक्त किया गया है
।
रूसी क्रांति से उपजी सत्ता के बारे में ऐसी
छवि बनाई जाती है मानो वह नागरिकों के बोलने पर पाबंदी के भरोसे ही कायम रही । इस आम
छवि को तोड़ती हुई किताब 2005 में रटलेजकर्ज़न से ब्रूस एडम्स की
‘टाइनी रेवोल्यूशंस इन रशिया: ट्वेन्टीएथ-सेन्चुरी सोवियत ऐंड रशियन हिस्ट्री इन एनेक्डोट्स’ का
प्रकाशन हुआ । किताब में लेनिन से लेकर पुतिन तक विभिन्न शासकों के बारे में प्रचलित
मजाकों का विश्लेषण किया गया है । लेखक सोवियत इतिहास और संस्कृति के अध्यापक रहे हैं
और अपनी कक्षाओं में इन मजाकों का अक्सर इस्तेमाल करते रहे हैं । उनको लगता है कि मजाक
आम तौर पर आलोचना की जगह इस्तेमाल होते हैं इसलिए यह इतिहास भी प्रशंसात्मक न होकर
आलोचनात्मक है । लेखक द्वारा प्रयुक्त मजाक रूसी भाषा में छपे संग्रहों से ही लिए गए
हैं । किताब इस तथ्य का प्रमाण है कि रूसी जनता ने अपार कष्ट सहे लेकिन उनके बीच भी
अपना हास्य बोध कायम रखा ।
2004 में रटलेज से नील एडमंड्स के संपादन
में ‘सोवियत म्यूजिक ऐंड सोसाइटी अंडर लेनिन ऐंड स्तालिन: द बेटन ऐंड सिकल’ का
प्रकाशन हुआ । भूमिका में संपादक का कहना है कि संगीत पर विचारधारा के सकारात्मक
और नकारात्मक दोनों ही तरह के प्रभावों का मूल्यांकन इस किताब में किया गया है । विभिन्न
लेखों के लेखकों की पृष्ठभूमि में पर्याप्त विविधता है । इन सबके चलते किताब में
पूर्व स्वीकृत मान्यताओं पर सवाल भी खड़ा किया गया है । कुछेक प्रमुख संगीतकारों पर
ही ध्यान केंद्रित करने की जगह उनके साथ के गौण संगीतकारों पर भी किताब में लेख
शामिल किए गए हैं । इनके महत्व के बावजूद इन पर ध्यान न देने का कारण बताते हुए
संपादक कहते हैं कि शीत युद्ध के समय पश्चिमी दुनिया में उन्हीं संगीतकारों पर बात
की गई जिनके साथ सोवियत सत्ता का टकराव रहा । जिन्होंने सत्ता के साथ सहयोग किया
उनकी उपेक्षा या निंदा की गई । लेकिन ऐसे संगीतकारों ने शौकिया सांगीतिक
गतिविधियों को प्रोत्साहित करने और जनता में संगीत की चेतना प्रसारित करने में
बहुत जरूरी भूमिका निभाई । सोवियत शासन का आदर्शवाद और क्रांतिकारी उत्साह उनकी
संगीत रचनाओं में मुखर हुआ । उनका यह भी कहना है कि आज के कम्यूनिस्ट विरोधी माहौल
में यह अटपटा लग सकता है कि अक्टूबर क्रांति और बोल्शेविक शासन से कलाकारों और
संगीतकारों को प्रेरणा और उत्साह प्राप्त हो लेकिन सचाई यही है । इन संगीतकारों के
साथ न्याय करने के लिए संगीत की व्यापक धारणा में लोकप्रिय संगीत को भी शामिल किया
गया है । कुछ लेखों में संगीत के साथ उनकी प्रस्तुति के लिए बने सभागारों का भी
विवेचन किया गया है क्योंकि इनके साथ आधुनिकता के विकास का संबंध रहा है । उनके
भीतर बने मंच भी कलाकारों की कल्पना के विश्लेषण का माध्यम बने हैं । इनमें से कुछ
संगीत रचनाओं ने वाम हलकों से आगे बढ़कर हालीवुड की फ़िल्मी दुनिया में भी जगह बनाई
क्योंकि उस समय द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ और अमेरिका हिटलर के विरोध में
सहयोगी थे ।
2004 में रटलेज से रेक्स ए वाडे के संपादन में
‘रेवोल्यूशनरी रशिया: न्यू अप्रोचेज’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका के अतिरिक्त किताब में चार खंड हैं ।
पहले खंड के तीन लेख सामाजिक इतिहास लेखन के ढांचे में लिखे हुए हैं । इनमें
क्रांति के समय के पेत्रोग्राद को जनता की निगाह से देखा गया है, क्रांति के समय
की हड़तालों का विवेचन किया गया है तथा उस समय पेत्रोग्राद में अपराध, पुलिस और भीड़
के न्याय की परिघटना का विश्लेषण है । दूसरे खंड का विवेच्य विषय भाषा और पहचान
संबंधी दावे हैं । इसके तहत फ़रवरी क्रांति के दौरान राजनीतिक चेतना में लोकतंत्र
की धारणा का स्वरूप, रूसी क्रांति का देहाती इलाके की भाषा पर प्रभाव और विभिन्न
जातीय क्रांतियों का लेखा जोखा लिया गया है । तीसरे खंड में अस्थायी सरकार में
शामिल उदारपंथी नेताओं की राजनीतिक विफलता से जुड़े लेख संकलित हैं । इस खंड में
अस्थायी सरकार के साथ ग्रामीण इलाकों में मजबूत प्रभाव वाले समाजवादी
क्रांतिकारियों के संबंध के अतिरिक्त उस समय के हालात के मद्दे नजर उदारपंथी
समाजवादियों की राजनीतिक धारा के उदय और उनकी भाषा में वर्गीय राजनीति के असर पर
केंद्रित लेख शामिल हैं । आखिरी चौथे खंड के तीन लेखों में सत्ता पर बोल्शेविकों
के कब्जे पर पुनर्विचार किया गया है । इसके तहत विद्रोह की कला, सोवियत नामक
संस्था के साथ बोल्शेविक नेताओं के रिश्तों और संविधान सभा की संभावना पर सुचिंतित
लेखन किया गया है । स्पष्ट है कि यह किताब रूसी क्रांति के बारे में लिखी किसी भी
पुस्तक की तरह नहीं है बल्कि इस किताब में अक्टूबर क्रांति को लेकर रूस के भीतर जारी
गंभीर मंथन का प्रतिनिधित्व हुआ है ।
2003 में रटलेज से स्टीफेन जे ली की किताब
‘लेनिन ऐंड रेवोल्यूशनरी रशिया’ का प्रकाशन हुआ । किताब इस बात का सबूत है कि
मार्क्स के नवोत्थान के साथ उस क्रांतिकारी मार्क्सवादी परंपरा का भी उत्थान हो
रहा है जिसे कम्यूनिस्ट आंदोलन की आंतरिक बहसों की गरमी में त्याग सा दिया गया था
।
1999 में यू सी एल प्रेस से जेन मैकडर्मिड और
अन्ना हिलयार की किताब ‘मिडवाइव्स आफ़ द रेवोल्यूशन: फ़ीमेल बोल्शेविक्स ऐंड वीमेन वर्कर्स इन 1917’ का प्रकाशन
हुआ । रूसी क्रांति का यह पहलू निश्चय ही अहम है । इससे सभी क्रांतियों के बारे
में एक सामान्य निष्कर्ष निकाला जा सकता है । हम सभी जानते हैं कि फ़्रांसिसी
स्त्री समुदाय के जुझारू व्यक्तित्व के निर्माण में फ़्रांसिसी क्रांति की निर्णायक
भूमिका है । लगता है कि क्रांतियां आबादी के सताए गए हिस्सों को खास तरह की
स्वतंत्र सामाजिक भूमिका सौंपते हैं । रूसी क्रांति ने जिस तरह बीसवीं सदी के
आरम्भ में प्रमुख रूप से उस एशियाई मुल्क में स्त्री समुदाय को स्वतंत्र और सशक्त
बनाया बहुत कुछ उसके कारण ही विनाशकारी गृहयुद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में
व्यापक जन हानि सहने के बावजूद रूसी समाज अपने आपको कायम रख सका । स्त्रियों की इस
सामाजिक भूमिका का प्रभाव केवल शहरी इलाकों तक सीमित नहीं था बल्कि रूसी देहात को
बदलने में भी स्त्री समुदाय के भीतर के इस बदलाव का भारी योगदान था ।
1999 में यू सी एल प्रेस से मर्क सैंडल की
किताब ‘ए शार्ट हिस्ट्री आफ़ सोवियत सोशलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । इसमें उन्होंने
1917 से 1991 तक के इतिहास को सोवियत समाजवाद का इतिहास माना है । लेखक का कहना है
सोवियत संघ के पतन का धूल धक्कड़ बैठ जाने के बाद रूसी बुद्धिजीवियों के साथ सार्थक
संवाद संभव हो सका है । इसके साथ ही पुरानी बहसें और पुराने सवाल भी उभर आए हैं
।
1998 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से आदम बी
उलम की किताब ‘द बोल्शेविक्स: द इंटेलेक्चुअल
ऐंड पोलिटिकल हिस्ट्री आफ़ द ट्रायम्फ आफ़ कम्यूनिज्म इन रशिया’ का दूसरा संस्करण नई भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ । पहली बार 1965 में यह किताब छपी थी ।
1997 में कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस से
माइकेल डेविड-फ़ाक्स की किताब ‘रेवोल्यूशन आफ़ द माइंड: हायर लर्निंग एमांग द
बोल्शेविक्स, 1918-1929’ का प्रकाशन हुआ । किताब का महत्व इस बात में है कि इससे
आम तौर पर पश्चिमी दुनिया में प्रचारित रूसी क्रांति के नायकों की साजिशकर्ता की
छवि खंडित होती है । बोल्शेविक क्रांतिकारी रूसी समाज के नेता थे । लेनिन की सरकार
के लगभग सभी मंत्री अपने यूरोपीय समकक्षों पर भारी पड़ते थे । इसकी बदौलत ही
क्रांति के बाद की संकटपूर्ण हालत में भी विशाल और विविधता से भरे हुए देश में
समाज के बदलाव और संगठन का लगभग असंभव कार्यभार पूरा करना मुमकिन हो सका ।
रूस के अंदरूनी हालात के लिहाज से
महत्वपूर्ण 1997 में प्लूटो प्रेस से एरिक हाब्सबाम की भूमिका के साथ तानिया
रोज के संपादन में मोर्गन फिलिप्स प्राइस की किताब ‘डिस्पैचेज
फ़्राम द रेवोल्यूशन: रशिया 1916-18’ का
प्रकाशन हुआ । किताब में प्राइस द्वारा मान्चेस्टर गार्जियन के लिए भेजी गई रूसी क्रांति
की खबरों, क्रांति संबंधी उनके संस्मरणों और प्रत्यक्षदर्शी के
रूप में दी गई गवाहियों का संकलन किया गया है । भूमिका में हाब्सबाम ने बताया है कि
रूसी क्रांति को देखने वालों में प्राइस सर्वाधिक योग्य थे । वे रूस से भली प्रकार
परिचित थे, रूसी धड़ल्ले से बोलते थे और 1910 से रूस के देहाती क्षेत्रों में घूम रहे थे । आए तो थे व्यापारिक मकसद से लेकिन
निजी रुचि विज्ञान और वानिकी में थी । तीन पीढ़ियों से परिवार के लोग ब्रिटेन में सांसद
चुने जा रहे थे । प्राइस ने लिबरल पार्टी छोड़कर लेबर पार्टी का पल्ला पकड़ा और
1922 से 1924 तक कम्यूनिस्ट पार्टी में रहे ।
1914 से 1918 तक मान्चेस्टर गार्जियन के विशेष
संवाददाता का काम रूस में किया । रूस में रहते हुए रूसी क्रांति के पक्षधर हो गए थे
और इसीलिए रूस के आंतरिक मामलों में मित्र शक्तियों द्वारा हस्तक्षेप का घनघोर विरोध
किया । हाब्सबाम के मुताबिक रूसी क्रांति को देखने के मामले में प्राइस की नजर पर ब्रिटेन
का असर नहीं है । फ़रवरी क्रांति के समय वे जार्जिया में थे और उसके तुरंत बाद मास्को
होते हुए पेत्रोग्राद के लिए निकल पड़े । अक्टूबर से पहले विभिन्न इलाकों में घूमकर
खबरें भेजते रहे और ऐन क्रांति से पहले पेत्रोग्राद लौट आए थे । इस अवधि में भेजी गई
उनकी खबरों से बोल्शेविकों के पक्ष में तेजी से माहौल पलटने का अनुभव होता है ।
पिछले बीस सालों में प्रकाशित इस सामग्री से
पता चलता है कि रूसी क्रांति के बारे में पुरानी मान्यताओं में नई सदी में भी कोई बुनियादी
बदलाव नहीं आया है । जिन्हें रूसी क्रांति को हिंसा, अराजकता और तबाही के उदाहरण
के बतौर प्रस्तुत करना था, उन्होंने बीसवीं सदी में जो रुख अपनाया
था उसी रुख से अब भी रूसी क्रांति को देख रहे हैं । जिन्हें क्रांति में लेनिन की भूमिका
की प्रशंसा करते हुए स्तालिन की निंदा करनी थी, उन्होंने भी अपनी
राय नहीं बदली है । जो लोग इस क्रांति को पूंजीवाद की मार्क्सवादी आलोचना का विस्तार
मानते हैं वे भी अपने रुख पर कायम हैं । इससे साबित होता है कि वाम बौद्धिक दुनिया
में नई सदी पुरानी सदी से बाहर नहीं आ सकी है । इसे हठ के बतौर समझना ठीक नहीं होगा
। इसकी जड़ें व्यापक वास्तविकता में हैं । कभी मार्क्स के सिलसिले में कहा गया कि तुम्हारे
दुश्मन नहीं बदले, दोस्त भले बदल गए हों । उसी तरह कहा जा सकता
है कि जिन सवालों ने 1917 की बोल्शेविक क्रांति को जन्म दिया
था उनमें कोई बुनियादी बदलाव न आने से रुख में भी बदलाव न आना स्वाभाविक है । याद करिए
कि बोल्शेविक क्रांति का नारा ‘रोटी, जमीन
और शांति’ था । इन तीनों ही मामलों में क्या कुछ खास बदलाव आया
है ? इस सदी में नवउदारवाद के परदे में निजी पूंजीवाद के
पुनरागमन और वैश्वीकरण के नाम पर साम्राज्यवाद की वापसी ने पुराने मुद्दों में अलबत्ता
नई जान फूंक दी है ।