Monday, October 21, 2013

नेतृत्व का संकट

                

आज़ादी के 66 साल बीतने के बाद समूचे देश में इस बात का गहरा अहसास है कि देश का मौजूदा नेतृत्व कुल मिलाकर मजबूरी का चुनाव है । मजबूरी यह भी कि जनता ने देश का नेता नहीं चुना है । प्रधानमंत्री के पद पर बैठे मनमोहन सिंह खुद ही अपने आपको स्वाभाविक नेता नहीं मानते । तथ्य भी इस बात की गवाही देते हैं कि विश्व बैंक से लिए गए कर्ज़ की सौगात के बतौर वे नरसिंहा राव को सौंपे गए थे ताकि इस कर्ज़ का प्रबंधन बतौर वित्तमंत्री अच्छी तरह से कर सकें । प्रधानमंत्री पद पर उनकी ताजपोशी कोई संयोग नहीं थी बल्कि उससे अधिक उनके इसी प्रबंधन की निरंतरता का सबूत थी । बात सिर्फ़ राजनीतिक नेतृत्व की नहीं है । बल्कि कहा जा सकता है कि हमने नेतृत्व का अर्थ राजनीतिक नेतृत्व तक सीमित कर दिया है, बदले में राजनीतिक नेतृत्व ने इसे और भी घटाकर आर्थिक प्रबंधन की कुशलता तक सीमित कर लिया है और अपनी भूमिका यानी बुनियादी काम कारपोरेट घरानों के लिए निवेश का माकूल माहौल बनाना स्वीकार कर लिया है । यह स्थिति भी हमारे सामूहिक सामाजिक जीवन की दरिद्रता का परिचायक है जिसमें हमने स्वीकार कर लिया है कि नेतृत्व हमारे भीतर से नहीं पैदा होगा बल्कि हमारे सिर पर आ गिरेगा।
ऐसा आम तौर पर जीवन के हालात को नियंत्रित करने वाली ताकतों के सामने समर्पण कर देने से होता है । मजेदार बात यह है कि इन ताकतों को जन्म हमने ही दिया है लेकिन अब उनकी ताकत बेकाबू होने की हद तक बढ़ी हुई महसूस हो रही है । उदाहरण के लिए शासकों द्वारा वस्तुओं की कीमत के सवाल पर कहा जाता है कि ऐसा बाजार के चलते हो रहा है और हम पूछते भी नहीं कि बाजार को कौन चला रहा है । इस परिस्थिति ने लोगों के मन में एक तरह की असहायता को जन्म दिया है जिसे शासक वर्ग अपने लिए बहुत ही अच्छा समझते हैं । शासकों के लिए इससे अच्छी कोई बात नहीं होती कि जनसमुदाय ने बनी बनाई व्यवस्था को ही अपनी नियति मान लिया है और इसी में थोड़े बहुत सुधार से आगे का सपना देखना बंद हो गया है । सभी शासकों की कोशिश रहती है कि कुछेक चीजों पर सामाजिक सर्वानुमति कायम हो जाए और उन पर सवाल उठाना पाप समझा जाने लगे । जैसे पूंजीवाद की कोशिश रहती है कि मजदूर उसे शोषक नहीं, बल्कि अपने जीवन की एकमात्र गारंटी मान ले और इस तरह अपनी मेहनत को लूटने वाली व्यवस्था की रक्षा करने लगे उसी तरह पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था में शासन चलाने वालों की कोशिश रहती है कि जनता वर्तमान शासन पद्धति का विकल्प न तलाशे, बल्कि जिस व्यवस्था में उसकी इच्छा का प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर होता है उसे ही खुद के प्रतिनिधित्व का सर्वोत्तम तरीका मान ले।
भारत में इस समय राजनीतिक वर्ग ने संसदीय लोकतंत्र को लेकर ऐसा माहौल बनाने में एक हद तक सफलता पा ली है । हाल में विभिन्न आंदोलनों के विरोध में संसद में मौजूद दक्षिण से लेकर वाम तक जिस तरह संसदीय प्रणाली की श्रेष्ठता साबित करने के लिए लामबंद हो गए उससे इस प्रणाली के बने रहने में इनके न्यस्त स्वार्थ की झलक ही मिली । संसद की रक्षा के लिए भाजपा के शासनकाल में सेना बुलाई गई थी तो इसे भविष्य में आनेवाली स्थितियों का संकेत नहीं समझा गया । अब वह घटना एक प्रतीक जैसी लगती है जिसमें संसद इतनी असुरक्षित हो गई है कि उसकी रक्षा के लिए सेना के हथियारबंद जवानों की जरूरत पड़ा करेगी । कांगेस के दस साला शासन में सेना तो नहीं बुलाई गई लेकिन ऐसा माहौल जरूर बना दिया गया कि याद भी न आए कि जब इन चुनावों की बस शुरुआत ही हुई थी तभी प्रेमचंद ने उनकी सड़ांध को सूंघ लिया था । यह भी किसी ने याद नहीं किया कि दुनिया भर में फ़ासीवाद संसदीय लोकतंत्र के रास्ते ही आया है । मार्गरेट थैचर द्वारा आविष्कृत नारादेयर इज नो अल्टरनेटिवहमारे देश में वर्तमान शासन की रक्षा का सर्वोत्तम नारा बन गया है । सभी शासक विकल्पहीनता की भावना को अपने लिए सबसे अधिक शुभ संकेत मानते हैं । इसी कारण से नेतृत्व का सवाल विकल्प का सवाल भी बन जाता है ।
असल में किसी भी नेतृत्व का जन्म दोतरफ़ा प्रक्रिया का नतीजा होता है । समूचे समाज की किसी खास दिशा में जाने की अचेतन इच्छा को जब कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह स्वर देने लगता है तो नेतृत्व का जन्म होता है । मध्यकाल में यह नेतृत्व बहुत कुछ धार्मिक आलोड़न से सामने आता था और उसे दिशा देता था, लेकिन सारत: यह आलोड़न सामाजिक हुआ करता था । आखिर धर्म की आवश्यकता भी तो एक सामाजिक आवश्यकता ही होती है । आधुनिक काल में धर्म की जगह राजनीति ने ले ली है लेकिन मूल में यह सामाजिक आवश्यकता ही है जो राजनीतिक हलचलों के पीछे मौजूद रहती है । दिक्क्त यह है कि सामाजिक हलचल का उत्पाद होने के बावजूद राजनीतिक नेतृत्व एक स्वतंत्र वर्ग की तरह आचरण करने लगता है और उसका एक सामूहिक स्वार्थ बन जाता है जिसकी पूर्ति के लिए वे तमाम मतभेदों के बावजूद एकताबद्ध हो जाते हैं । हमारे देश का राजनीतिक वर्ग इस समय इसी तरह का आचरण कर रहा है । इसलिए नेतृत्व के सवाल पर सोचते हुए सिर्फ़ राजनीतिक नेतृत्व को ही देखने के बंधन से दिमाग को मुक्त करने की जरूरत है ।
हमारे देश के हालिया अतीत में स्वाधीनता आंदोलन ऐसा आलोड़न था जिसने नेतृत्व को जन्म दिया था । वह नेतृत्व पारंपरिक अर्थों में राजनीति कही नहीं था । अगर उस नेतृत्व को गांधी तक भी महदूद माना जाय तो उनके व्यक्तित्व में सामाजिक, आध्यात्मिक, नैतिक और राजनीतिक को अलगाना मुश्किल हो जाता है । अन्य नेताओं की बात करें तो आंबेडकर के व्यक्तित्व में पुन: राजनीतिक और सामाजिक का विभाजन खत्म हो जाता है । इतिहास में होने वाले तमाम तरह के नए शोध यह बता रहे हैं कि ऐसा महज राष्ट्रीय पैमाने पर नहीं था, बल्कि छोटी छोटी जगहों पर भी स्थानीय नेतृत्व का जन्म हुआ था जिसे पुन: अलग अलग खांचों में बांटना असंभव है। स्वाधीनता आंदोलन भारतीय समाज को गढ़ने के सपने से जुड़ा हुआ था जो औपनिवेशिक सत्ता और मानस से मुक्ति के जरिए होना था । दुर्भाग्य से 1947 में सत्ता मिलने के बाद जो वर्ग सत्तासीन हुआ उसने इसी सवाल पर समझौता करना शुरू कर दिया । ऐसा नहीं कि आजादी के आंदोलन के दौरान ही इस वर्ग के निशानात नहीं दिखाई पड़े थे । भगतसिंह, प्रेमचंद और अन्य तमाम ईमानदार लोगों ने आशंका जाहिर की थी कि जिस वर्ग को सत्ता मिलने जा रही है वह देश को स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों की दिशा में आगे ले जाने की जगह उलटी दिशा में ले जाएगा । तथ्य यह भी बताते हैं कि स्वाधीनता आंदोलन की सबसे प्रभावी आवाज महात्मा गांधी भी एक तरह से सत्ताकांक्षी समूह द्वारा हाशिए पर पहुंचा दिए गए थे । बहरहाल सत्ताधारी समूह ने जैसे जैसे उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की भावना के साथ गद्दारी की वैसे ही वैसे नेतृत्व का कद घटता गया । निष्कर्ष यह कि आत्मविश्वास से भरपूर भारत देश की संकल्पना का एक बुनियादी तत्व साम्राज्यवाद का विरोध है । इस विरोध को तिलांजलि देने की प्रक्रिया में ही सुनील खिलनानी के शब्दों मेंआइडिया आफ़ इंडियाकी क्रमिक और धीमी मौत निहित है जो हमारे देश के वर्तमान नेतागण करने पर आमादा हैं।
वैकल्पिक नेतृत्व की आशा स्वाभाविक रूप से वामपंथ से होती है लेकिन शुरुआती नेताओं के चिंतन और आचार की व्यापकता के बाद अनेक कारणों के चलते भारतीय वामपंथ संसदीय बौनेपन का शिकार होता गया और जनता की स्वतंत्र दावेदारी का हथियार होने की बजाए उनके लिए राहत का औजार बनने में अपनी सार्थकता समझने लगा । उसने साम्राज्यवाद विरोध का मतलब अमेरिका से नजदीकी के कारण पाकिस्तान का विरोध समझ लिया जो भारतीय शासक वर्ग को भी रास आने लगा था । इसी तरह क्षेत्रीय आंदोलनों में जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति देखने की जगह उसने इसे भारत की एकता और अखंडता पर हमले की साम्राज्यवादी चाल समझ लिया और इस मामले में भी शासक वर्ग के साथ खड़ा हो गया । भारत के शासक वर्ग ने राष्ट्रवाद की ऐसी परिभाषा विकसित कर ली है जो साम्राज्यवाद विरोध की जगह पाकिस्तान के विरोध पर आधारित है और दुर्भाग्य से उसका एक सांप्रदायिक पहलू भी उभरकर सामने आया है । स्वाभाविक रूप से इसका सबसे अधिक लाभ उन्मादी ताकतें उठाती हैं । इस नाम पर हथियारों की खरीद से लेकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तथा अगर चीन का सवाल जोड़ दें तो कम्युनिस्ट विरोध तक सध जाता है फिर भी संसदीय वामपंथ राष्ट्रवाद की इस धारणा का विरोध करके वैकल्पिक जनपक्षीय धारणा प्रतिपादित नहीं करता । विकास के भी शासक धारणा का विकल्प प्रस्तावित न करने के चलते नए सामाजिक आंदोलनों के साथ उसका सार्थक संवाद नहीं बन पाया है ।
यही चीज है जो व्यापक जनता के भीतर बड़े पैमाने पर अलगाव को जन्म दे रही है । यह अलगाव एक हद तक चिंताजनक है क्योंकि ऐसी स्थितियां किसी भी फ़ासीवादी आंदोलन के उभार के लिए मुफ़ीद होती हैं जो जनसमुदाय के भीतर सक्रियता की झूठी भावना पैदा करता है । कार्पोरेट समर्थक वर्तमान कांग्रेसी निजाम के विरोध के नाम पर राजनीतिक परिदृश्य के दूसरे छोर से ऐसी गोलबंदी उभरती हुई दिखाई दे रही है । दक्षिणपंथी स्तंभ लेखिका तवलीन सिंह काफी दिनों से हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ के रविवारी स्तंभ में यह साबित करने पर तुली रहती हैं कि नरेंद्र मोदी भारत के राजनीतिक वर्ग में बनी आम सहमति के विरोध हैं । तात्पर्य यह कि वे ऐसे नेता हैं जिनके पास नए भारत का सपना है । सचाई यह है कि सभी मायनों में तवलीन सिंह की तरह ही वे भी अंबानी-अदानी गिरोह के मुनाफ़े के लिए बड़े कार्पोरेट घरानों की मनपसंद विकास की नीति के उन्मादी प्रतीक योद्धा हैं और सभी उन्मादियों की तरह ही कुछ दिनों बाद अमेरिकी पसंद भी बन जाएंगे ।
नेतृत्व अक्सर वहां नहीं होता जहां हम उसे खोजते हैं । आखिरकार नेतृत्व भविष्य का बीज संजोए रहता है । राहुल सांकृत्यायन की एक किताब का नाम हीनए भारत के नेताहै जिसमें गुलाम देश के ऐसे नेताओं का जीवन परिचय है जो तब बहुत मशहूर नहीं थे । लेकिन इन नामालूम नेताओं को आपस में जोड़नेवाली चीज स्वाधीनता आंदोलन था । आज भी अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की दैत्याकार ताकत से लड़ते जूझते यहां वहां के छिटपुट लड़ाकुओं के बारे में सोचिए जो विकास के एक प्रभावी माडल का विरोध कर रहे हैं तो लगता है कि इस माडल की पराजय का नेतृत्व ये ही तो करेंगे । जैसे जैसे विकास का यह दमनकारी सांचा थोपा जा रहा है वैसे वैसे दिमागी और व्यावहारिक तौर पर उसके विरोधी इकट्ठा भी हो रहे हैं और चूंकि हमला सर्वावेशी है इसलिए विरोध भी लगभग सभी मोर्चों पर विकल्प प्रस्तावित कर रहा है । अगर नेतृत्व का कोई सकारात्मक संकेत है तो वह इसी दिशा में है ।


Thursday, October 10, 2013

मुक्ति का मार्क्सवादी विमर्श

              
                                                                 
मुक्ति का सवाल मानवजाति के लिए एक ऐसा सवाल रहा है जिसके प्रसंग में सभी विचारकों ने कुछ न कुछ सोचा समझा है । संगोष्ठी में विचारणीय सभी चिंतक (गांधी, अंबेडकर और मार्क्स) इस तरह के चिंतक हैं कि उनके सोच के किसी भी पहलू पर बात करते हुए उनके समूचे सैद्धांतिक ढाँचे को ध्यान में रखना पड़ता है । मार्क्स भी इसी तरह के चिंतक हैं जिनकी मानव मुक्ति की परियोजना पर विचार करते हुए उनकी समूची चिंता को दृष्टिगत रखना होगा । मार्क्स के लिए मानव मुक्ति का सवाल दो तरह से खड़ा होता है । वे मनुष्य को सृजनात्मक श्रम का स्रोत मानते हैं और कहते हैं कि श्रम के जरिए मनुष्य अपने को साकार करता है । न सिर्फ़ इतना बल्कि श्रम के जरिए वह अपनी कर्मेंद्रियों की क्षमता को समझता और उनके उपयोग से इस दुनिया को अपने रहने लायक बनाता है । श्रम की प्रक्रिया की ही उपज उसका समूचा शरीर है । मनुष्य के बाहर प्रकृति नहीं होती बल्कि उसका शरीर भी प्रकृति का अंग होता है । अपनी इंद्रियों के सृजनात्मक इस्तेमाल से वह इस प्रकृति का सही उपयोग सीखता है इसीलिए श्रम मनुष्य के लिए सुख का स्रोत होता है और वह इसमें आनंद का अनुभव करता है लेकिन पूँजीवाद संबंधी अपने विवेचन में मार्क्स उस पर यह आरोप लगाते हैं कि वह (पूँजीवाद) मनुष्य की इस विशेषता को नष्ट कर देता है । मुक्ति संबंधी उनका विमर्श बंधन के ठोस स्वरूप की पहचान करता है । इस मामले में वे मानव मुक्ति के अन्य विमर्शों से पृथक हो जाते हैं क्योंकि अन्य विमर्श मनुष्य की कोई रहस्यमय धारणा बनाकर उसकी मुक्ति का प्रश्न भी इसी तरह आध्यात्मिक स्तर पर हल करने की कोशिश करते हैं । मार्क्स के लिए मनुष्य की पराधीनता कोई धारणात्मक कोटि नहीं है बल्कि इसी दुनिया में उसके अस्तित्व से जुड़ी हुई है ।
मानव मुक्ति संबंधी मार्क्स के चिंतन में अलगाव की उनकी धारणा का महत्वपूर्ण स्थान है । मार्क्स को पूँजीवादी समाज मानव विरोधी नजर आता है उन्हें लगा कि पूँजीवादी समाज में मजदूरों की बदहाली का सही विश्लेषण नहीं हो रहा है इसीलिए इसका इलाज भी नहीं खोजा जा सका है । इस बदहाली को दूर करने के नीम हकीमी नुस्खे उस समय बहुतेरे थे । मसलन नागरिक अधिकारों के ढाँचे में मजदूरों की समस्या को दूर करने के प्रयास हो रहे थे जिन्हें हम फ़्रांसिसी काल्पनिक समाजवादियों के चिंतन में ठोस रूप में देख सकते हैं । इसके अलावा उस समय नव-हेगेल पंथियों में धर्म को लेकर बहुत सारा आलोचनापरक चिंतन हो रहा था धर्म संबंधी इस समस्त विवेचन को मार्क्स ने सामाजिक आलोचना में बदला क्योंकि जनता में धर्म की मान्यता के पीछे सामाजिक स्थितियों को वे जिम्मेदार समझते थे और उन स्थितियों के परिवर्तन से ही धर्म पर मनुष्य की निर्भरता का अंत संभव मानते थे । उनकी यह धारणा तत्कालीन अनेक उत्साही नास्तिकतावादियों से अलग थी । इन स्थितियों के प्रभाव के विवेचन के लिए उन्होंने अलगाव की धारणा का उपयोग किया तथा इसके साथ श्रम की प्रक्रिया में अलगाव की बात उठाई उन्होंने यह भी माना कि उदारवादी समाज में प्राप्त अधिकारों को मजदूरों को प्रदान करने से भी उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । मार्क्स हाब्स से लेकर फ़ायरबाख तक के भौतिकवाद की आलोचना इसलिए करते हैं कि वह दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को मंजूर नहीं करता तो दूसरी ओर हेगेल में अपनी पूर्णता को पहुँचा हुआ भाववाद भी ऐतिहासिकता को स्वीकार करने के बावजूद समस्त बदलाव को महज चिंतन के बदलाव तक सीमित कर देता है हेगेल की तरह वे मानते हैं कि मनुष्य अपने आपको और दुनिया को सांसारिक गतिविधि के जरिए बदलता है लेकिन उनके विपरीत कहते हैं कि यह बदलाव महज चिंतन के क्षेत्र में नहीं बल्कि वास्तविक दुनिया में होता है इस गतिविधि का एक महत्वपूर्ण पहलू उत्पादक गतिविधि या श्रम है
मार्क्स ने श्रम के अलगाव को इस तरह प्रस्तुत किया कि पूँजीवाद के तहत मनुष्य का सार यानी उत्पादक श्रम उसके अस्तित्व से जुदा हो जाता है मार्क्स के अनुसार मनुष्य सारत: उत्पादक प्राणी होता है । वैसे तो अन्य प्राणी भी उत्पादन करते हैं लेकिन उनकी उत्पादक गतिविधि उनकी भौतिक जरूरतों की संतुष्टि तक सीमित रहती है जबकि मनुष्य अपने श्रम से अन्य मनुष्यों की जरूरतें भी पूरी करने लायक सामानात बनाता है । दूसरी बात यह कि अन्य प्राणियों का श्रम बहुत कुछ अचेतन गतिविधि होता है जबकि मनुष्य सचेत रूप से यह काम करता है । छत्ते बनाने में सबसे अधिक माहिर मधुमक्खी से सबसे खराब राजगीर को जो चीज जुदा करती है वह यह कि राजगीर किसी भी भवन का निर्माण सबसे पहले अपने दिमाग में करता है । यही श्रम का मानवीय चरित्र है लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में उसे अमानवीय स्थितियों में मेहनत करनी पड़ती है क्योंकि जिस वस्तु का वह निर्माण करता है उस पर उसकी कोई छाप नहीं रह जाती । वह अपनी ही बनाई हुई चीजों से अलगा दिया जाता है । इस अलगाव का पहला रूप यह है कि मनुष्य अपनी मेहनत से पैदा हुई चीज यानी श्रम के फल से अलग कर दिया जाता है मार्क्स के अनुसार जिस भी वस्तु के हम अपने आसपास दर्शन करते हैं वह मनुष्य की मेहनत के जरिए उस रूप में आई होती है बात यह है कि संसार के ऐसा होने के बावजूद हम उसे अपनी मेहनत का ही उत्पाद स्वीकार नहीं करते इस तरह हम अपनी ही बनाई दुनिया में अजनबी की तरह रहते हैं ये वस्तुएँ सिर्फ़ पराई और रहस्य ही प्रतीत नहीं होतीं बल्कि हम पर राज भी करने लगती हैं मान लीजिए हम कहते हैंबाज़ार की ताकतेंऔर हमारी बनाई हुई चीज होने के बावजूद हम उन्हें इस तरह समझते हैं मानो वे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति जैसी कोई चीज हों इस तरह बाज़ार हम पर शासन करने लगता है
अतीत में इस अलगाव ने ईश्वर को जन्म दिया जो मानव निर्मित होने के बावजूद उस पर शासन करता था तो आज की दुनिया में इसी अलगाव ने मनुष्य और उसकी बनाई हुई वस्तु के बीच एक मध्यस्थ को जन्म दिया है जो मनुष्य की समूची सामाजिक सत्ता का न सिर्फ़ हरण कर लेता है बल्कि उसका प्रतिनिधित्व करने लगता है । मनुष्यों के समाजिक संबंधों के मध्यस्थ के बतौर उसने पूँजी को जन्म दिया है जो मानव निर्मित होने के बावजूद उस पर ईश्वर की तरह ही शासन करती है ।
पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था में मनुष्य ऊपर से तो स्वतंत्र दिखाई पड़ता है लेकिन असल में वह नए किस्म की गुलामी का शिकार हो जाता है । उदाहरण के लिए मनुष्य के लिए श्रम बाध्यता का नहीं बल्कि स्वेच्छा का प्रश्न होना चाहिए लेकिन हम सभी जानते हैं कि पेट भरने के लिए मेहनत बेचना पूँजीवादी व्यवस्था में आपका चुनाव नहीं मजबूरी बन जाता है । श्रम की जिस प्रक्रिया में पहले तकरीबन सभी मनुष्य  मेहनत के औजारों का अपनी मर्ज़ी के मुताबिक उपयोग करते थे, अब वे औजार के चालक नहीं रह जाते बल्कि मशीन ही एक हद तक उनको चलाने लगती है । शुरू में शहरों के कामगारों के गिल्ड में फिर भी सभी लगभग हरेक काम जानते या करते थे लेकिन आधुनिक उद्योग के आने के साथ एक आदमी एक ही काम का विशेषज्ञ होने लगा । इसका नतीजा यह निकला कि एक कामगार से दूसरा अलग हो गया । न सिर्फ़ मनुष्य अपने श्रम-फल से अलगाया जाता है बल्कि एक दूसरे से भी अलग हो जाता है ।
तीसरी बात यह कि वह अपने आप से भी अलग हो जाता है । बाज़ार में दो व्यक्ति आपस में दो स्वतंत्र व्यक्तियों की तरह एक दूसरे से नहीं मिलते बल्कि उनकी भेंट खरीदार या विक्रेता के बतौर एक दूसरे से होती है । खरीदने-बेचने की प्रक्रिया में मनुष्य अपना समूचा सामाजिक अस्तित्व अपनी वस्तुओं को सौंप देते हैं और अपने सामान के मालिक की बजाए उसके अभिभावक रह जाते हैं । बेचने वाले की हैसियत उसके पास मौजूद माल की कीमत तक महदूद रह जाती है तो खरीदने वाले की सामाजिक हैसियत उसके पास मौजूद पूँजी से तय होने लगती है । इस तरह मनुष्य की संपूर्णता का विनाश होता है और उसका खंडित अस्तित्व प्रकट होता है ।
मार्क्स के लिए मानव मुक्ति की परियोजना इस अलगाव के अंत के जरिए मनुष्य द्वारा अपने सार को दोबारा हासिल करने में निहित है जिसके बाद ही मनुष्य का प्राक-इतिहास खत्म होगा और वह अपना वास्तविक इतिहास शुरू कर पाएगा । जिसमें मनुष्य आज़ादी के साथ सुबह घुड़सवारी करने के बाद दोपहर में लकड़ी की मेज़ तैयार करेगा, शाम को कविता लिखेगा और रात को दार्शनिक उलझनों को सुलझाएगा लेकिन किसी एक ही तरह के काम का गुलाम नहीं होगा इसे वे अनिवार्यता से स्वतंत्रता के क्षेत्र में लगाई गई छलांग कहते हैं जो एक वर्ग विभाजित समाज में संभव नहीं है बल्कि इस समाज के खात्मे के बाद ही अर्जित किया जा सकता है