शमसुर्रहमान फ़ारुकी का उपन्यास 'कई चाँद थे सरे- आसमाँ' पूरी तरह से राजनीतिक उपन्यास है । वैसे तो उपन्यास वजीर खानम नामक एक महिला की कहानी है लेकिन उस महिला की खोज के क्रम में इतिहास के अनेक अनछुए कोनों की भी यात्रा करता है । फ़िर वजीर खानम के सामने आने के बाद अंग्रेजों के साथ प्रारम्भिक भारतीय संपर्कों के विविधवर्णी तारों को छूता हुआ ऐन 1857 के पहले खत्म हो जाता है । इस तरह यह उपन्यास उस भारत की तस्वीर हमारे सामने पेश करता है जिसकी घायल आत्मा 1857 में उठ खड़ी हुई थी । उपन्यास महात्वाकांक्षी है और इसे पढ़ते हुए अनायास दुनिया के महान उपन्यास याद आते रहते हैं ।
उपन्यास की तकनीक कुछ ऐसी है कि सीधे सीधे कथासार बताना मुश्किल है । कथाकार विभिन्न पात्रों की स्मृतियों के जरिए वजीर खानम की कहानी प्राप्त करता है । यह खोज भी उपनिवेशवाद के दौर में भारत के साथ अंग्रेजों के बरताव को स्पष्ट करती है । खानम साहिबा के कोई वारिस वसीम जाफ़र लेखक को मिलते हैं जो लंदन में '18वीं- 19वीं सदी के ऐसे कुछ खानदानों और घरानों के हालात ढूंढ़ने में मसरूफ़ थे जो अपने जमाने तो बहुत मशहूर थे, लेकिन अब वक्त ने उन्हें पन्नों के ढेर में दाब दिया था और उनके नाम अब किसी को मालूम थे तो वो चंद विशेषज्ञ इतिहासकार ही थे ।'
इन्हीं वसीम जाफ़र से लेखक को वजीर खानम के बारे में विस्तार से पता चलता है । पता चलने के अलावा मुख्य बात यह है कि 'वसीम जाफ़र खुद से पूछते थे कि क्या सियासी वजूहात को अनदेखा करके भी नए हिंदुस्तान की तरक्की में उन लोगों का पतन लाजिमी था,----।' यही वह सवाल है जिसके संदर्भ में इस उपन्यास का माने मतलब बनता है ।
जाफ़र साहब हिंदुस्तान के इस गुमशुदा इतिहास को जानने के प्रसंग में इस सच्चाई पर पहुँचते हैं कि 'ब्रिटिश लाइब्रेरी और वी एंड ए म्यूजियम में बहुत सारा माल हिंदुस्तानियों का है ।'
यही नहीं 'यही कैफ़ियत उस माल की भी है जो दूसरे अजायबघरों और निजी हवेलियों, कोठियों, बकिंघम पैलेस वगैरा में है ।' इस जानकारी के बाद जाफ़र साहब को लगा कि अंग्रेज तो इन्हें लौटाने से रहे क्योंकि ' क्या अब्दुल हमीद लाहौरी का "पादशाहनामा"
अंग्रेजों ने वापस किया ? क्या कोहिनूर इन लोगों ने वापस किया ?' अजीब तरीके से जाफ़र साहब को वजीर खानम की तस्वीर मिलती है । उन्होंने पढ़ा कि ' लार्ड राबर्टस की डायरी में---बादशाह के और मिर्जा
फ़तहुल्मुल्क के निजी कागजात का भी जिक्र था कि किले की लाइब्रेरी और दफ़्तरों की लूट
में कुछ चीजें उसके हाथ लगीं---वो सब कागजात इंडिया
आफ़िस में जमा'
हैं । खोजते हुए जाफ़र
साहब को पता चला
'कि 1857 के बहुत से कागजात, जिन्हें गैर-अहम करार दिया गया था, वो लाइब्रेरी की
फ़ेहरिश्त में दर्ज ही नहीं हुए थे । उन्हें बक्सों में बंद करके तहखाने में रखवा दिया
गया था---।' इन्हीं बक्सों
में जाफ़र साहब को वह तस्वीर मिली तो बगैर किसी अपराध बोध के उन्होंने उसे रख लिया ।
जाफ़र साहब का इंतकाल होने के बाद लेखक को एक पैकेट के जरिए वह किताब मिलती है जिसमें
अतीत दर्ज है । किताब के जरिए वजीर खानम की कहानी खुलती जाती है ।
और यह कहानी सिर्फ़
वजीर खानम की नहीं,
बल्कि अंग्रेजों के
आने से पहले के हिंदुस्तान की कहानी है । कहानी राजस्थान में किशनगढ़ के चित्रकारों
से शुरू होती है जिन्होंने 'किशनगढ़ की राधा' को जन्म दिया । उपन्यास न सिर्फ़ हिंदुस्तान की पारंपरिक सांस्कृतिक समृद्धि
को उपनिवेश विरोधी चेतना के साथ रेखांकित करता है वरन हरेक पेशे में हिंदू-मुस्लिम साझेदारी पर भी बल देता है । किशनगढ़ के इन चित्रकारों के प्रसंग में- 'खास गाँव में तीन घर को छोड़कर आबादी सरासर गैर मुस्लिम थीः एक-दो पंडिताने,पाँच-सात घर राजपूतों
के, बाकी मुख्तलिफ़ कारीगरों के । चित्रकारी उनकी रोजी
का जरिया थी ।---सरहद से जरा बाहर कुछ मुसलमान और हिंदू चरवाहों और
ऊँटवानों के घर जरूर थे ।---उन सबके बारे में मुद्दतों से शक था कि ठग हैं और
खून बहाए बगैर कत्ल करना,
लाश को लूटना और गहरे
दाबकर इस तरह गायब कर देना कि कभी पता न लगे, उनका धर्म था ।---उनमें कुछ लोग मुसलमान थे, कुछ दूसरी जातियों के, यहाँ तक कि एक
के बारे में कहते थे कि पंडित है ।मुसलमान तो रोजा-नमाज के पाबंद थे और हिंदू अपनी अपनी जात के एतबार से देवी देवताओं की पूजा
करते थे ।' इसी गाँव के मियाँ मख्सूसुल्लाह ने एक ख्याली तस्वीर
बनाई । मियाँ हिंदू थे या मुसलमान यह भी कहना मुश्किल था ।
अब इसे उपन्यास
की खूबी कहें या खामी लेकिन उपन्यासकार जहाँ कहीं उसे मौका मिलता है हिंदी के सूफ़ी
कवियों की तरह विस्तार में चला जाता है । चित्रकारी के प्रसंग में- 'यहाँ के चितेरों ने जड़ी-बूटियों, पत्तियों और दरख्तों की छालों, फूलों और फलों, और कुछ कीड़े-मकोड़ों से रंग निकालने के तरीके अपने पूर्वजों से
परंपरा में पाये थे । उनके रंगों में बाहरी तेल का हिस्सा बिलकुल न होता था; सिवाय उस तेल के जो खुद उस कीड़े या फल में हो जिसका रंग उतारा जा रहा हो ।' फिर रंग बनाने की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन । मियाँ ने इन्हीं रंगों से जो
तस्वीर बनाई वह महज ख्याली दिखती न थी । गाँव के महारावल को पता चला कि यह तस्वीर उनकी
छोटी बेटी से मिलती जुलती है । महारावल गाँव में लाव लश्कर के साथ आये, बेटी को कत्ल किया और गाँव को उजाड़ गये । मियाँ सहित गाँव के लोग बारामूला
चले आये ।
'जब काफ़िला बारामूला पहुँचा तो मियाँ चितेरा बहुत सारी
राजस्थानी बोली भूल चुका था । फिर कुछ ही महीने गुजरे कि वह किशनगढ़ कलम की चित्रकारी
के लिए रंग बनाना भी भूल गया ।---मियाँ ने कुछ दिन
लकड़ी पर बेल-बूटे बनाने का काम किया; और हक ये है कि खूब किया ।' इसमें भी उनका
मन नहीं रमा तो अंततः कश्मीर के कालीन बनाने की तालीम हासिल की । यहाँ भी कालीन बनाने
की कला का विस्तार से वर्णन है जिसमें उस्ताद के दिमाग में रंग रेशे रहते हैं, वह उन्हें बोलता जाता है और शागिर्द उसके अनुसार बुनाई करते हैं । यहाँ इस
बात को दर्ज करना जरूरी है कि कलाओं के मामले में लेखक का नजरिया दार्शनिक अर्थों में
भाववादी है । यह नजरिया विस्तृत बहस की माँग करता है लेकिन समीक्षा में उसकी जगह कम
है । बहरहाल, रंगों की छटा देखते ही बनती है । कभी पंडित हजारी
प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि अकेले पीले रंग के लिए संस्कृत में पचीस शब्द हैं । यहाँ
भी रंगों के नाम देखें-
उस्ताद ने ऊँची
आवाज में कहाः
"एक चीनी ।
"एक जर्द ।
"नौ चीनी ।
"तीन मलाई ।
"एक बादामी ।
"एक अनारी ।
"एक चीनी ।
"नौ गुलाबी ।"
मियाँ ने कश्मीर
में ही शादी कर ली थी । बच्चा होने के कुछ दिन बाद घर से निकले और बर्फ़ में गर्क हो
गये । बच्चा भी बड़ा फ़नकार हुआ । कभी लाहौर गया और वहीं उसकी मुलाकात राजस्थानी कलाकारों
की एक टोली से हुई । फिर कश्मीर में कहाँ दिल लगता । उसके दो बेटे थे गायकी के फ़नकार
। बाप गुजर गये तो बेटों ने राजस्थान की राह पकड़ी । यह पूरा प्रसंग भारत की जड़ ग्राम
समाजों वाली तस्वीर को तार तार कर देता है । बेटे दाऊद और याकूब राजस्थान के एक गाँव
पहुँचे और वहाँ कुएँ पर पानी भरने वाली दो लड़कियों पर फ़िदा हो गये । उन्हें साथ लिये
दिये फ़र्रुखाबाद पहुँचे ।
फ़र्रुखाबाद से
दोनों भाई अंग्रेजों की फ़ौज के साथ चले क्योंकि फ़र्रुखाबाद में इन्होंने जेवर बनाने
का काम सीखा था और उन्हें सब्जबाग दिखाए गये थे कि 'क्या सिपाही क्या कमीदान सबकी औरतें जेवर बहुत बनवाती हैं ।' लेकिन हुआ यह कि मराठा फ़ौज के साथ लड़ाई के दौरान दोनों भाई कहीं खो गये और
उनका एक बेटा बचा रहा । इस बेटे का निकाह अकबरी बाई कि बेटी असगरी से हुआ । इन्हीं
की आखिरी संतान वजीर खानम थीं । वजीर की दो और बहनें थीं । बड़ी बहन अनवरी को 'बचपन से ही अल्लाह-रसूल से बेहद लगाव
था ।' मंझली बेगम किसी तरह 'नवाब साहब मुबारक की पनाह में आ गईं ।' तीसरी वजीर की जिंदगी ही शेष उपन्यास की विषयवस्तु है । 'दस बरस की उम्र से ही उसका ज्यादा वक्त नानी के ऐशखाने में गुजरता । वहाँ उसने
थोड़ा-बहुत गाना-बजाना जरूर हासिल किया, वर्ना वहाँ उसकी
असल तालीम उन बातों की हुई जिनको सीख-समझकर औरत जात
मर्दों पर राज करती है । सात या आठ बरस की थी जब उसे अपने हुस्न और और उससे बढ़कर उस
हुस्न की कुव्वत और उस कुव्वत को बरतने के लिए अपनी बेजोड़ ताकत का अहसास हो गया था
।' वजीर पंद्रहवें में थी जब माँ का इंतकाल हुआ । शादी
के लिए वजीर तैयार न थी । वजह "---बच्चे
पैदा करें, शौहर और सास की जूतियाँ खाएं, चूल्हे-चक्की में जल-पिसकर वक्त से पहले बूढ़ी हो जाएं ।" और वजीर को यह सब सख्त नापसंद था ।
संयोग से वजीर
पर एक अंग्रेज मार्स्टन ब्लेक का दिल आ गया । वजीर खानम ने पता लगाया, मार्स्टन ब्लेक
'अट्ठाईस साल की ही उम्र
में कप्तान और उस पर तुर्रा यह कि असिस्टेंट पालिटिकल एजेंट बन गया था ।' सो वजीर उसके साथ जयपुर चली गयीं । जयपुर में 'वह न देहली के हिंदू-मुसलमान शरीफ़ों
की दुनिया में थी और न अंग्रेज साहिबाने आलीशान की दुनिया में ।' यहाँ आकर
'उसे मालूम हुआ कि बीबियाँ
सब बीबियाँ हैं । हिंदू या मुसलमान, कम जात या ऊँची
जात, पढ़ी लिखी या दस्तकार, ऐसी कोई कैद नहीं है, न तादाद की कोई
शर्त है । फिर यह कि सबका मर्तबा आपस में बराबर है, इस फ़र्क के साथ कि जिस बीबी का साहब जितना बड़ा आदमी होगा, उतनी ही बुलंद हैसियत उस बीबी की भी होगी ।' वहाँ आलम यह था कि 'अगर कोई अंग्रेज
अपनी बीबी के हक में ऐलान भी कर देता या बयान करता कि यह मेरी निकाही या "बीबी"
है तो भी अंग्रेजी कानून
और कंपनी के नियमों में ऐसी शादी के कुछ मानी न थे ।' बाद में जो कुछ वजीर के साथ हुआ वह वहाँ का आम चलन था- 'अंग्रेजों की निकाही बीबियों का भी अपनी औलाद पर कोई खास हक या दावा न होता
था ।---बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का ज्यादातर हिस्सा फ़िरंगी उसूलों पर तैयार किया जाता और अक्सर सात-आठ बरस का होने पर बच्चे (लड़का हो या लड़की) को माँ से जबरन या उसकी मर्जी से लेकर विलायत रवाना कर दिया जाता ।' ब्लेक से वजीर को एक लड़का और एक लड़की हुए लेकिन ब्लेक को महाराजा के कत्ल के
शुबहे में एक भीड़ ने मार डाला और फिर उन बच्चों के साथ भी यही हुआ ।
वजीर दिल्ली वापस
आ गयी । बहुत दिनों तक सोगवार रही । फिर एक दिन दिल्ली के रेजिडेंट बहादुर विलियम फ़्रेजर
के बुलावे पर एक मुशायरे में गयी । खुद विलियम फ़्रेजर उस पर फ़िदा था । लेकिन मुशायरे
में उसकी नजर शमसुद्दीन अहमद खाँ पर टिकी । मुशायरे के जरिए दिल्ली के तत्कालीन साहित्यिक
वातावरण को, जिसमें गालिब भी मौजूद थे, उभारा गया है । शमसुद्दीन अहमद खाँ का पूरा आख्यान अंग्रेजों के साथ स्थानीय
कुलीनों के टकराव का आख्यान बन जाता है । शमसुद्दीन अहमद खाँ के साथ वजीर के इश्क का
वर्णन उपन्यास का खासा हिस्सा घेरता है और उनकी आपसी बातचीत उर्दू की नफ़ीस शब्दावली
का मुजाहिरा पेश करती है । फ़्रेजर प्रेम में पराजित होकर शमसुद्दीन अहमद खाँ के खिलाफ़
षड़यंत्र करता है । शमसुद्दीन अहमद खाँ उससे लड़ने उसके घर जाते हैं और घायल होकर लौटते
हैं । अंततः उनकी जागीर फ़्रेजर के षड़यंत्रों के कारण उनसे छिन जाती है । उन्हें सोगवार
देखकर उनका एक भरोसेमंद आदमी फ़्रेजर को कत्ल करने का बीड़ा उठाता है और कामयाब हो जाता
है । दोनों पर एक तरह की कंगारू अदालत में फ़्रेजर के कत्ल का मुकदमा चलता है और शमसुद्दीन
अहमद खाँ को फांसी दे दी जाती है । यह पूरा प्रकरण तकरीबन सद्दाम हुसैन की फांसी की
याद दिला देता है । अंग्रेजी राज में फांसी पर चढ़ने वाले हमेशा ही अपने कातिलों से
ऊँचे ठहरे थे और शमसुद्दीन अहमद खाँ भी ठहरते हैं ।
शमसुद्दीन अहमद
खाँ से वजीर को जो पुत्र हुआ वही बाद में 'दाग' देहलवी के नाम से मशहूर हुआ । शमसुद्दीन अहमद की कब्र
हिंदुस्तानियों के लिए पूजनीय हो गयी । उनकी फांसी के बाद वजीर फिर अकेली हो गयी ।
शमसुद्दिन अहमद ने एक कोठी वजीर को दे दी थी । उसी में वजीर कुछ नौकरानियों के साथ
अपना रँड़ापा काटने लगी ।
बेटे नवाब मिर्जा
बड़े हो गये थे लेकिन बाप के बारे में उनसे सच नहीं बताया गया था । शमसुद्दीन अहमद की
कब्र कदम शरीफ़ के नाम से मशहूर थी । वहाँ नवाब मिर्जा के साथ बहुत दिन बाद वजीर गयी
। इस मौके पर लेखक कि भाषा का मिजाज देखते ही बनता है- 'इसके कई महीने बाद जब शमसुद्दीन अहमद की जिंदगी का दरख्त पतझड़ का शिकार हो
चुका और मिट्टी का जिस्म कदम शरीफ़ के आँगन में मौलसिरी के एक पेड़ के नीचे हमेशा की
नींद सुला दिया गया और जुलाई 1834 की उस इश्क और
जिंदगी के रहस्यों से भरी रात के बाद वजीर खानम के दिल का सुख पहली बार उसके पहलू में
था हालाँकि खाक के नीचे था और वजीर खानम उसके बेटे को लेकर उसकी खिदमत में हाजिर हुई
थी, तो वजीर के कुछ कहे बगैर नवाब मिर्जा ने आपी आप कहा, "अम्मा जान,
मेले अब्बा जान के हकीम
छाब कहाँ हैं
?"' असल में बेटे को
बताया गया था कि अब्बा हकीम साहब के यहाँ हैं ।
वक्त ने इस घाव
को भी भर दिया । नवाब मिर्जा रामपुर रहते थे । इधर दिल्ली में वजीर के पिता कि मौत
हुई और 'बाप की मौत ने बहनों को एक बार फिर मुहब्बत के रिश्ते
में बाँध दिया । तीनों का आपस में पहले की तरह मिलना जुलना होने लगा, पुरानी शिकवे शिकायत भुला दिये गये ।' नवाब मिर्जा की उम्र ग्यारह की हो गयी, उनकी मसें भीगने लगीं । मूंछें तराशने की रस्म में वजीर रामपुर आईं । यहीं
वजीर की तीसरी शादी आगा मिर्जा तुराब अली से हुई । आगा साहब तबीयत से शायराना थे, सो वजीर भी पुराने फ़न को जिंदा करने लगीं । दोनों की जिंदगी मजे से गुजर रही
थी कि आगा साहब ने हाथियों और घोड़ों की खरीद के लिए सोनपुर जाने का इरादा किया । मेले
से लौटते हुए ठगों ने उनकी जान ले ली । लेखक ने यहाँ ठगों के बारे में एक पूरा अध्याय
विस्तार से समाजशास्त्री की तरह लिखा है । बहरहाल, मिट्टी के नीचे दबाई गयी उनकी लाश को खोजने का विवरण हमें ऐसे आलिमों की याद
दिला देता है जो जमीन पर खड़े खड़े कुआँ खोदने की सही जगह बता देते थे । दो ऐसे ही खोजने
वालों ने प्रकृति में बिखरे हुए संकेतों के आधार पर उनकी लाश को खोज निकाला । वजीर
फिर से बेसहारा हो गयी । दिल्ली वाली कोठी थी । वहीं आकर नवाब मिर्जा के साथ रहने लगी
।
लेकिन भाग्य के
खेल निराले ! उनकी खूबसूरती के किस्से दिल्ली बादशाह के वली अहद
सोयम मिर्जा फ़तहुल मुल्क तक पहुँचे । उन्होंने वजीर खानम की तस्वीर बनवाकर मँगवाई और
तस्वीर से ही इश्क कर बैठे । बहरहाल, वजीर की चौथी शादी
ने उन्हें मुल्क के बादशाह के घर में पहुँचा दिया । नवाब मिर्जा भी साथ थे । गिरती
बादशाहत थी । प्रसाद के नाटकों की तरह दरबारी षड़यंत्र थे । लेकिन बादशाहत का वैभव पूरे
उभार पर था । जाने कहाँ से इस शानो शौकत के लिए आवश्यक धन का भी बंदोबस्त हो जाता था
। 'कुछ लोगों को यकीन था कि बादशाह के कब्जे में पारस
पत्थर है और वह जब और जितना चाहते हैं, सोना बना लेते
हैं ।---एक ख्याल यह था कि हुजूर के पास दस्ते गैब है, जब चाहते हैं,
जितना चाहते हैं, उन्हें मिल जाता है । एक और राय यह थी कि बादशाह के कब्जे में कई जबरदस्त जिन्न
हैं, वह हर माँगी हुई चीज पलक झपकते में हाजिर कर देते
हैं । इन बातों पर भी वही एतराज था कि अगर ऐसा है तो और भी ज्यादा शानो शौकत होनी चाहिए
थी । कुछ नहीं तो किले के लूटे हुए कीमती पत्थर सोने चाँदी के पत्तर तो दोबारा लगवा
लिए गए होते ।'
तो बुझते दिये का आखिरी
भभका था और स्वाभिमानी गरीबी का ऐश्वर्य था । अंत में 'कई साल की बातचीत के बाद अंग्रेज ने फ़तहुल मुल्क को वली अहद तस्लीम कर लिया
लेकिन इस शर्त पर कि हुजूर बादशाह पिरो मुर्शिद के इंतकाल के बाद बादशाही खत्म हो जायेगी, किला मुअल्ला खाली कर दिया जायेगा और संप्रभुता के तमाम निशानात बिलकुल मिटा
दिये जायेंगे ।'
वजीर के दुर्भाग्य ने
उसका पीछा न छोड़ा और फ़तहुल मुल्क 1856 में गुजर गये ।
उनकी मौत के बाद वजीर को किला खाली करना पड़ा ।
वजीर खानम ने किला
छोड़ते हुए जो कहा वह मानो सिर्फ़ उसकी नहीं सारी औरत जात की चीख है । 'सारी जिंदगी मैं हक की तलाश में रही हूँ । वह पहाड़ों की किसी खोह में मिलता
हो तो मिलता हो,
वरना इस आसमान तले तो
कहीं देखा नहीं गया ।'
इस संक्षिप्त सी
समीक्षा में साढ़े सात सौ पृष्ठों के इस उपन्यास की खूबियों खामियों के बारे में बताना
संभव नहीं । नरेश
'नदीम' ने बहुत ही उम्दा अनुवाद किया है और उपन्यास को उर्दू का ही रहने दिया है ।
इसके कारण अरसा बाद उर्दू की रवानी हिंदी पाठकों की नजर के सामने आई है । उपन्यास न
सिर्फ़ उर्दू गद्य का नमूना है वरन उर्दू शायरी के स्वर्णकाल की छटा पूरी तरह स्पष्ट
करता है । फ़ारसी और उर्दू शायरी समूची कथा के साथ गुँथी हुई है । शायरी के अलावा भी
कला के हरेक रूप-
चित्रकारी, गायकी,
सुनारी, बुनाई,
यहाँ तक कि ठगी भी- सारे विवरणों सहित उपन्यास में दर्ज किये गये हैं ।
उपन्यास की सबसे
महत्वपूर्ण विशेषता उस औपनिवेशिक समझ से छुटकारा दिलाने की कोशिश है जिसके चलते हम
हरेक चीज को हिंदू मुसलमान के खाँचे में बाँटकर देखते हैं । उपन्यास में किसी के कर्म
को ही उसका धर्म माना गया है और हरेक पेशे में हिंदू मुसलमान दोनों की सहभागिता दिखाई
गयी है । सारतः उपन्यास अनेक मायनों में संदर्भ ग्रंथ की तरह पढ़े और रखे जाने लायक
है ।