सबसे पहले इस समस्या को समानता के
लिए चलने वाले समग्र आंदोलन का एक हिस्सा राम मनोहर लोहिया ने सप्तक्रांति संबंधी अपनी धारणा के जरिए समझा और पेश किया था ।
असल में इसकी जड़ें आज़ादी के बाद जिस तरह का शासकीय ढांचा अपनाया गया उसमें और शासन में जो लोग
बैठे उनकी सोच में निहित हैं । आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही उस संघीय स्वरूप का खाका
बहुत कुछ तैयार हो गया था जिसे बाद में देश को एक साथ बांधे रखने का सूत्र बनना था
। ध्यान से देखें तो आज़ादी के आंदोलन के समय ही उस सोच की नींव रखी जा चुकी थी जिनके
अधार पर बाद में भाषावार प्रांत बने । इनके जरिए कुछ हद तक संघीयता को मान्यता दी गई
लेकिन यह ढांचा सारी विषमताओं को हल नहीं कर सका क्योंकि एक ही भाषा, तेलुगु,
बोलने वाले दो प्रांतों की मांग कर रहे थे । इसी तरह हिंदी भाषी तीन चार प्रांतों में
बांट दिए गए थे । आसाम में भाषाई रूप से अलग अलग अनेक समुदाय ठूंस दिए गए थे । इन कमियों
ने आगे चलकर अन्य क्षेत्रों को अलग प्रांत हेतु आंदोलन चलाने को मजबूर किया ।
इसके अलावा केंद्र के पास अधिकाधिक शक्तियों
को रखने का मोह कभी केंद्र में काबिज पार्टी छोड़ नहीं सकी । यह महज राजनीतिक
एकाधिकार का मामला नहीं था बल्कि देशी बड़ा पूंजीपति भी सत्ता के इस संकेंद्रण से काफी लाभ पा रहा था । इन्हीं वजहों के चलते आज़ादी के
तुरंत बाद से ही क्षेत्रीय असमानता की प्रवृत्ति दिखाई देने लगी और बाद में अनेक आंदोलनों
और राजनीतिक गोलबंदियों की वजह बनी । लोहिया जी की धारणा बहुत दिनों तक वैचारिक
आलोड़न तक ही सीमित रही क्योंकि हाल हाल में आज़ाद हुए देश में बड़े उद्योगों के आधार
पर आर्थिक आत्म-निर्भरता का सपना बेचना आसान था । लेकिन सत्तर के दशक में शासन में
कांग्रेसी एकाधिकार टूटने के साथ लोकतंत्र का विस्तार होना शुरू हुआ और भारतीय जनता
के नए नए तबके शासन में हिस्सेदारी चाहने लगे । उनकी इस चाहत का प्रतिनिधित्व विपक्षी
दलों ने करना शुरू किया जिनका जनाधार बहुत करके जमींदारी उन्मूलन से सशक्त हुई पिछड़ी
जातियां थीं । ये जातियां देहातों में मजबूत थीं और शुरुआती पंचवर्षीय
योजनाओं में उद्योगों की प्राथमिकता के कारण वंचित महसूस कर रही
थीं क्योंकि ये उद्योग ज्यादातर बड़े शहरों में केंद्रित थे । इसीलिए
क्षेत्रीय विषमता का एक पहलू शहरों में सुविधाओं और धन का संकेंद्रण तथा देहातों में
व्याप्त बदहाली और दरिद्रता का वैषम्य भी रहा है ।
कुछ लोग राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता को परस्पर विरोधी
मानते हैं और उन्हें एक दूसरे के लिए नुकसानदेह
भी समझते हैं । हाल हाल तक अलग प्रांत की मांगों को राष्ट्रीय एकता के लिए अहितकर माना
जाता था । आज भी काश्मीर को स्वायत्तता की बात सुनकर तथाकथित देशभक्त लोग कान खड़ा कर देते हैं । अनेक लोग इन दोनों को ही
केवल सांस्कृतिक स्तर पर परिभाषित करते हैं । राष्ट्र और विभिन्न
क्षेत्रों की संस्कृति अवश्य उन्हें समानता और विशेषता प्रदान करती है
लेकिन राष्ट्रवाद और क्षेत्रीयता केवल सांस्कृतिक परिघटनाएँ नहीं हैं । असल में ये
दोनों ठोस आर्थिक-राजनीतिक परिघटनाएँ हैं । पूँजीवादी आर्थिक
व्यवस्था जहाँ राष्ट्र को एकता प्रदान करती है वहीं ठीक उसी प्रक्रिया में अलग
अलग इलाकों की आकांक्षा जगाकर क्षेत्रीय असमानता के विरुद्ध विक्षोभ
भी पैदा करती है । राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रवाद आर्तिक विकास
एक ही प्रक्रिया की उपज हैं । मजबूत केंद्र के विरोध में क्षेत्रीय हितों
के नाम पर संघर्षरत क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग अक्सर आम जनसमुदाय
को अपने नेतृत्व में एकताबद्ध कर लेता है । लेकिन ऐसा करते हुए
भी वह और कुछ नहीं केंद्रीय स्तर पर हड़पी जा रही मलाई में अपना हिस्सा ही चाह रहा होता
है ।
क्षेत्रीय राजनीति का सबसे घनघोर उभार अस्सी दशक
के उत्तरार्ध में हुआ था । असल में इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के बाद से अतिकेंद्रीकरण
की जो प्रवृत्ति चली थी उसके उत्तर में संघीयता और क्षेत्रीय विकास का नारा लगाती हुई
ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों का विकास हुआ जो पिछले तीस सालों से भारतीय राजनीति की विशेषता
बनी हुई हैं । आश्चर्य नहीं कि ये पार्टियां ज्यादातर पिछड़ी जातियों का सामाजिक आधार
लेकर खड़ी थीं । यानी सत्ता में भागीदारी से वंचित महसूस कर रही लेकिन सामाजिक रूप से
प्रभावशाली शक्तियों की गोलबंदी इस नारे के इर्द गिर्द हुई थी । ऐतिहासिक रूप से देखें
तो ये ताकतें वहीं खड़ी हुई जहां संपन्न खेतिहर जातियों का राजनीतिक उभार हो चुका था
। इसीलिए दक्षिण भारत में ये क्षेत्रीय पार्टियां अधिक शक्तिशाली रहीं
। यही इतिहास इसकी शक्ति होने के साथ साथ उनकी सीमा का भी कारण बना । उस दौर में यह जनता की
किसी गोलबंदी के साथ नहीं हो रहा था बल्कि विभिन्न प्रांतों के मुख्यमंत्रियों के जमावड़े
के रूप में सामने आया था । द्रमुक, तेदेपा आदि के साथ वामपंथ, खसकर माकपा के नेता स्वर्गीय
हरकिशन सिंह सुरजीत इस जमावड़े के सिद्धांतकार के बतौर उभरे थे । इसी के साथ भाजपा के
उभार के खिलाफ़ अवसरवादी तरीके से बिहार से लालू यादव और उत्तर प्रदेश से मुलायम ने
धर्मनिरपेक्षता को इसके साथ जोड़ लिया था । लेकिन न तो केंद्रीयता की ताकत ही कमजोर
थी न क्षेत्रीयता की भावना ही आधारहीन थी इसलिए कभी क्षेत्रीयता की धारा मजबूत होती
रही तो कभी केंद्रीयता के साथ इनकी गोलबंदी होती रही । खासकर कांग्रेस और भाजपा के
नेतृत्व में बनने वाले दो विशाल मोर्चों के इर्द गिर्द इन ताकतों की गोलबंदी भी क्षेत्रीयता
के साथ ही जारी रही थी ।
क्षेत्रीयता की अभिव्यक्ति का सबसे प्रमुख वैचारिक नारा
तीसरे मोर्चे की धारणा है । वैसे भी इसे कोई ठोस ताकत की बजाए एक तरल धारणा ही माना
जाता है जिसकी कोई स्थायी ताकत नहीं है । संसदीय राजनीति में वामपंथी मोर्चे की घटती
के बाद इसे जोड़ने वाला मजबूत फ़ेवीकोल भी नहीं रहा और किसी भी वैचारिक मुद्दे की अनुपस्थिति
में अब इसमें किसी भी पार्टी के शामिल होने में कोई बाधा नहीं रह गई है । अभी पिछले
दिनों मायावती को केंद्र में रखकर माकपा ने इस मोर्चे के गठन की हास्यास्पद कोशिश की
थी । बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार आजकल बिहार के लिए विशेष राज्य का दर्ज़ा देने
की मांग को उठाकर इस तरह की गोलबंदी के भीतर अपनी जगह देख रहे हैं लेकिन इस मामले में
भी यही होने जा रहा है कि भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी चाहने वाली ताकतें ही इससे लाभ
उठाएंगी, जनता का भला तो वे क्या करेंगे जो शिक्षकों पर तो लाठी चलवाते हैं लेकिन रणवीर
सेना से हेल मेल रखते हैं ।