नबारुण दा को सुनते हुए
इस मंगलवार की रात और बुधवार की शाम में बांग्ला के क्रांतिकारी कवि नबारुण भट्टाचार्य को सुनने का मौका मिला। मंगलवार को जेएनयू में रात सवा दस बजे जब मैं पहुंचा तब उनका संबोधन शुरू हो चुका था। करीब सत्तर-अस्सी छात्र थे। बाद में किसी ने बताया कि इतनी तन्मयता से बहुत कम ही लोगों को छात्र सुनते हैं, बीच-बीच में उनकी आवाजाही लगी रहती है। लेकिन वहां आने वाले आते जा रहे थे और चुपचाप बैठकर उन्हें सुन रहे थे। नबारूण दा ने दुनिया में कारपोरेट्स के खिलाफ उभर रहे आंदोलनों और मजदूर आंदोलनों की चर्चा की, मारुति के मजदूरों के आंदोलन का जिक्र किया। नए सिरे से मार्क्सवाद के प्रति दुनिया में बढ़ रहे आकर्षण की चर्चा की। सत्तर के बंगाल और आज के बंगाल की चर्चा की। सीपीआई-एम के प्रति उनका गुस्सा साफ दिखा और उन्होंने ममता को भी सीधे तौर पर खारिज किया। उन्होंने बंगाल में भी मार्क्सवाद के एक नए उभार की संभावना जाहिर की।
जब वे छात्रों को संबोधित कर रहे थे, मैं सबसे पीछे की कतार में मेज पर बैठा था, और आगे की कतारों और हमारे बीच आने-जाने का रास्ता था, यानी वहां से पूरा परिदृश्य किसी क्रांतिकारी पेंटिंग या किसी ऐतिहासिक क्रांतिकारी फिल्म के ऐसे दृश्य की तरह लग रहा था, जिसमें कोई नेता प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहा होता है। गोकि मीटिंग को आइसा ने आयोजित किया था, लेकिन दूसरी वामपंथी धाराओं के कार्यकर्ता भी दिख रहे थे। एक छात्र ने संस्कृति से जुड़ा हुआ सवाल भी उनसे पूछा, खासकर बांग्ला ड्रामा को लेकर, तो नबारुण दा ने आज के नाटकों के प्रति निराशा जाहिर करते हुए संस्कृति के क्षेत्र में सरकारों की बढ़ती फंडिंग और संस्कृतिकर्मियों की जनविरोधी रूझान का जिक्र किया। उस छात्र ने इसका सोल्यूशन पूछा। नबारूण दा का दो टूक जवाब था- सैक्रिफाइस। नबारुण दा के मुंह से सैक्रिफाइस शब्द सुनना कतई असहज नहीं लगा। वे तो उस आत्मबलिदानी पीढ़ी के कवि हैं, जिन्होंने सत्ता की संस्कृति को चैलेंज किया था, जो सिर्फ कविता में ही जनता की बात नहीं करते थे, बल्कि उसे इस हद तक चाहते थे कि उसके लिए जान की बाजी लगाने को तैयार थे। आज जबकि विचार में जनता का नाम लेने और व्यवहार में सत्ताधारियों का कर्म अपनाने वालों की तादाद बढ़ी हुई है, तब नबारूण दा जैसे कवि और विचारक को सुनना जैसे कविता के शस्त्रागार से किसी कारगर औजार को पाने जैसा था। जो संघर्षरत जनता की हाथों में आकर और भी धारदार हो उठता है। जेएनयू के कार्यक्रम से बाहर निकलते वक्त जिस गर्मजोशी और प्यार से नबारूण दा छात्रों और जनता के प्यारे कवि विद्रोही से गले मिले, वह मेरी चेतना में एक बेहद सुकूनदेह अहसास की तरह दर्ज हो गया, जैसे बेचैन दिल को करार आ गया। पूरे देश में, खासकर हिंदी पट्टी में विद्रोही को जनता प्यार करती है, छात्रों के बीच वे बेहद लोकप्रिय हैं। उन्हें अपने लिए कोई कोई फंड, कोई पुरस्कार, सरकारों की कोई नजरे-इनायत नहीं चाहिए, उनके कवि को किसी साहित्यिक प्रोमोटर की जरूरत नहीं है, आइसा, जन संस्कृति मंच, सीपीआई-एमएल के कार्यक्रमों में अक्सर कविता सुनाते नजर आ जाते हैं, आंदोलनकारियों और सामान्य जनता के बीच वे मशहूर हैं, इस कारण भी हिंदी के स्थापित कवियों के लिए वे जलन का भी विषय हो सकते हैं, यह मैंने बेहद कष्ट के साथ महसूस किया है। मैंने मन ही मन नबारूण दा को सलाम किया कि उन्होंने जनता के कवि को सम्मान दिया, उसे अपने से हेय नहीं समझा, शायद यही जनता के क्रांतिकारी कवि की असली पहचान है।
बुधवार की शाम जन संस्कृति मंच की ओर से वीमेंस प्रेस क्लब में नबारूण दा का कविता पाठ और बातचीत का आयोजन था। हिंदी में प्रकाशित उनकी किताब ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ की कविताओं का अनुवाद मंगलेश डबराल ने किया था। जिस कविता के शीर्षक पर इस किताब का नाम है, यह कविता बेहद चर्चित रही है और सत्ताधारियों की हिंसक और फासिस्ट प्रवृत्ति के प्रतिकार की सशक्त आवाज आज भी है-
यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश
यह विस्तीर्ण श्मशान नहीं है मेरा देश
यह रक्त-रंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश
मैं छीन लाऊंगा अपने देश को
सीने में छिपा लूंगा कुहासे से भीगी कास-संध्या और विसर्जन
शरीर के चारों ओर जुगनुओं की कतार
या पहाड़-पहाड़ झूम खेती
अनगिनत हृदय, हरियाली, रूपकथा, फूल-नारी-नदी
एक-एक तारे का नाम लूंगा
डोलती हुई हवा, धूप के नीचे चमकती मछली की आंख जैसा ताल
प्रेम जिससे मैं जन्म से छिटका हूं कई प्रकाश-वर्ष दूर
उसे भी बुलाऊंगा पास क्रांति के उत्सव के दिन।
इस कविता के अंशों को अनेक बार पर्चों और भाषणों में हम उद्धृत कर चुके हैं, कविता पोस्टर बना चुके हैं। बांग्ला में जब नवारूण दा इसे पढ़ते हैं, तो शासकवर्गीय हिंसा के प्रति चुप्पी और यथास्थिति के प्रति घृणा, कत्लेआम के खिलाफ एक ईमानदार गुस्सा और प्रतिरोध का उद्धोष अपनी पूरी ताकत के साथ अभिव्यक्त होता है, कहीं भी कुछ बनावटी नहीं लगता। मानो कोई सुलगती हुई आग है किसी सच्चे दिल की, जिसकी लपट तेज हवा के साथ हमें अपने आगोश में लेकर उस आग का हिस्सा बना देती है, ऐसी ही त्वरा और आंच के रूबरू हम फिर एक बार हुए, जब उन्होंने यह कविता पढ़ी। क्रांतिकारी कविता के अनुवाद के लिए जाने जाने वाले रचनाकार नीलाभ ने इसका हिंदी तर्जुमा पढ़ा। कार्यक्रम की अध्यक्षता त्रिनेत्र जोशी ने की। संचालन पत्रकार-आलोचक अजय सिंह कर रहे थे। इसके पहले काव्यप्रेमियों का स्वागत पत्रकार भाषा सिंह ने किया। पत्रकार उपेंद्र स्वामी के कंधे पर कार्यक्रम के रिकार्डिंग की जिम्मेवारी थी, इस ऐतिहासिक क्षण को दर्ज करने के प्रति वे सचेत थे। पत्रकार-कवि मुकुल सरल वहां पहुंचे लोगों से उपस्थिति पंजी में उनका हस्ताक्षर करवाने में लगे हुए थे। इस मौके पर कवि मदन कश्यप, लेखक प्रेमपाल शर्मा, कवि कुमार मुकुल, कवि कृष्ण कल्पित, आलोचक गोपाल प्रधान, आशुतोष, उमा गुप्ता, अनुपम, कथाकार अंजलि काजल, मिथिलेश श्रीवास्तव आदि भी मौजूद थे.
कार्यक्रम में नबारूण दा द्वारा बांग्ला में पढ़ी गई कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद भी पढ़ा गया। उन्होंने गुजरात जनसंहार पर लिखी गई अपनी कविता भी पढ़ी, जो इस संदर्भ में लिखी गई कई कविताओं से वैचारिक तौर पर ज्यादा सधी हुई थी। फिर बारी आई वहां मौजूद लोगों द्वारा नबारूण दा की कविताओं के पाठ की। मंगलेश जी ने एक ‘साबूत सवाल’ समेत उनकी कुछ नई कविताएं सुनाई। पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा और राजेश जोशी ने जहां एक ओर उनकी मशहूर कविताओं का पाठ किया, वहीं कवयित्री शोभा सिंह, अजंता देव, शंपा भट्टाचार्य और कवि रंजीत वर्मा, मुकुल सरल आदि ने भी हिंदी में अनूदित उनकी कविताएं पढ़ीं। हिंदी में जो कविताएं लोगों के बीच पढ़ने के लिए वितरित की गई थी, संयोग से मेरे हिस्से जो कविता आई थी, उसका शीर्षक था- बुरा वक्त। मैं यही सोच रहा था कि सत्तर के दशक में जिस बुरे वक्त के बारे में नबारूण दा ने लिखा था, आज का वक्त तो उससे कहीं अधिक बुरा है। जब सोवियत संघ का घ्वंस हो चुका था, मार्क्सवाद के अंत की घोषणाएं हो रही थीं, तब हमारी पीढ़ी ने अपने समय के बुरे वक्त का सामना करते हुए अपना व्यवहार और अपनी दिशा तय करना शुरू किया था. जो चीजें हमारी सहयोगी हुईं, उसमें कविता भी थी और उसमें दो ऐसे कवि थे, जो हिंदी के न होते हुए भी हमें हिंदी कवियों से कुछ हद तक ज्यादा ही प्रिय थे- एक पाश और दूसरे नबारूण दा, एक पंजाबी के और दूसरे बांग्ला के। लेकिन जिनकी कविताओं में पूरे उत्पीडि़त, शोषित, वंचित राष्ट्र का गुस्सा मौजूद था, जिनमें हमें हमारी अभिव्यक्ति मिल रही थी। कार्यक्रम में बैठे-बैठे मुझे पाश की कविता भी याद आ रही थी, जो संभवतः इस तरह है कि यह भी हमारे ही समयों में होना था/ कि मार्क्स का सिंह जैसा सिर/ दिल्ली की गलियों में मिमियाता फिरे। नवारुण दा ने कविता पाठ की शुरुआत 'कविता के बारे में कविता’ से की, जिसमें स्पष्ट तौर कविता को गरीब मेहनतकश, अभावग्रस्त-वंचित लोगों से कविता को जोड़ने की, उनकी आवाज बनने पर जोर दिया गया था। मैं उनकी कविता सुन रहा था और हिंदी के काव्य परिदृश्य और राजधानी दिल्ली के बारे में गंभीरता से सोच रहा था। क्या वैसी घृणा, वैसा गुस्सा, क्रांति की आकांक्षा में सारे सुविधाजनक व समझौतापरक रिश्तों और समीकरणों को ठुकरा देने तथा पूंजी के बल पर टिके निजी आजादियों के भव्य प्रलोभनों को धता बता देने की वैसी परंपरा की जरूरत पहले से अधिक नहीं है? नबारुण दा ने जेएनयू के भाषण में कही गई बातों को ही यहां भी दुहराया। मार्क्सवाद के भविष्य की दिशा की चर्चाएं भी हुई। मेरे एक सवाल के जवाब में आज के संस्कृतिकर्मियों और रचनाकारों के लिए उन्होंने एक शब्द में मार्क्सवाद का ही रास्ता बताया, लेकिन मेरे लिए तब भी मेरेलिए सवाल बचा हुआ था कि कलकत्ता के संदर्भ में जिस चौतरफा सांस्कृतिक पतन, सत्ता के प्रलोभन और उपभोक्तावाद और प्राइवेट सत्ता या कहिए कि व्यक्ति सत्ता की बात वे कर रहे थे, क्या वैसी ही परिस्थिति पूरे देश में नहीं है, क्या उससे लड़े बगैर किसी वाद को दिशा मिल सकती है? संयोग यह है कि इसी रोज सुबह जनमत के नए अंक में मंगलेश जी की एक कविता 'नए युग के शत्रु' पढ़ने को मिली थी। जिसमें इस उपभोक्तावादी दौर की कई प्रवृत्तियों को चिह्नित किया गया है, जिसकी आखिरी पंक्तियां हैं-
हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-आने की आहट महसूस होती रहती है
कभी-कभी मोबाइलों पर उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर
आइए हम एक ही थाली में खाएं एक ही प्याले से पियें।
मुझे इस दौरान मुक्तिबोध भी शिदद्त से याद आ रहे थे, उनका आत्मसंघर्ष याद आ रहा था, जो अधिकांश के लिए जहर है, वही कवि के लिए अमृत क्यों है! और मुझे दिनेश कुमार शुक्ल शुक्ल की भी पंक्तियां याद आ रही थी-
न जंगी बेड़ों से न दर्रा खैबर से
आएंगे इस बार वे तुम्हारे भीतर से।
सवाल यह है कि जब भीतर ही दुश्मन विराजमान हों, तब किस तरह मुकाबला किया जाए?
जिस तरह सर ऊँचा करके आज भी नबारूण दा कहते हैं-
गौर से देखो: मायकोव्स्की, हिकमत, नेरुदा, अरागां, एलुआर
हमने तुम्हारी कविता को हारने नहीं दिया
आज कितने कवि हैं जो इस अंदाज में ऐसा कुछ कहने का दम रखते हैं?
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