Tuesday, March 8, 2011

लोकसभा चुनाव 2004 : कुछ विचार


इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से मतदान के साथ हमारा देश विकसित देशों की सूची में शामिल होने के और करीब आ गया । संभवतः यह दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ तकनीक में असंदिग्ध विश्वास के कारण इसे मतदान के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है । इसका आविष्कर्ता (संभवतः एडिसन) जब इसे लेकर सीनेट के तत्कालीन अधिकारियों के यहाँ गया था तो उन्होंने दल बदलकर मत डालने वाले प्रतिनिधियों की पहचान न हो सकने का तर्क देकर इसे खारिज कर दिया था । अमेरिका में भी आगामी राष्ट्रपति चुनावों में इसका प्रयोग होगा या नहीं, अभी नहीं कहा जा सकता । फिर भी तकनीक से अपने लगाव के कारण हमने इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया । इस तरह हम परमाणु बम, निरक्षरता, भुखमरी जैसे मामलों में अग्रणी देशों की तरह इस मामले में भी अग्रणी हो गए हैं । अंग्रेजी की मशहूर मसल है- जहाँ देवदूत पाँव धरते थर्राते हैं, वहाँ अनाड़ी लपक पड़ते हैं । सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी ! ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल के मामले में भी यही हुआ । जिन देशों में मतदान से सरकार बनती है उनमें से सिर्फ़ तीन देशों में इस पर प्रतिबन्ध नहीं है और उनमें से एक अमेरिका है । सो चुनाव आयोग और सरकार ने ऐसा बैडमिन्टन खेला कि मुद्दा ही गायब हो गया ।

भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में यह चुनाव कई कारणों से याद रखा जायेगा । आवारा और बड़ी पूँजी का लोकतन्त्र पर ऐसा प्रभाव शायद ही पहले कभी भारत में देखा गया हो । भाजपा के अनेक विरोधी सांप्रदायिकता विरोध को तात्कालिक और दूरगामी रणनीतियों में बाँटकर देखते हैं । किसी भी राजनीतिक अभियान के तात्कालिक कदम उसके दूरगामी लक्ष्यों को मजबूत करते हैं और दूरगामी लक्ष्यों की रोशनी में तात्कालिक योजनाएं बनाई जाती हैं । जब हम भाजपाई शासन में फ़ासीवाद की आहटें सुन रहे हैं तो ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ कहीं फ़ासीवाद आया है वह संसदीय लोकतन्त्र के ही रास्ते आया है । कारण यह है कि पूँजीवाद आम तौर पर तो लोकतान्त्रिक तरीके से ही अपने हितों के पक्ष में सामाजिक सहमति बनाना पसन्द करता है लेकिन पूँजी की आम संरचना में वित्तीय पूँजी के प्रतिक्रियावादी हलकों का दबदबा बढ़ने से जो संकट पैदा होता है उसमें सर्वसत्तावादी राज्य की जरूरत पैदा होने लगती है । ऐसी स्थिति में पहला हमला लोकतन्त्र के दिखावे पर होता है । वैसे भी पूँजीवाद को जो सामन्ती विरासत मिली है उसके कारण पूँजीवादी लोकतन्त्र का आधार कमजोर ही रहा है । उसने अपने वर्गीय हितों को लोकतान्त्रिक माँगों की शक्ल में पेश तो किया लेकिन मजदूर वर्ग को अपनी पीठ पर देखकर सामन्ती ताकतों से समझौता कर लिया और उसके आचरण की नकल करने लगा । कौन नहीं जानता कि सार्वजनिक बालिग मताधिकार एक एक कदम लड़कर हासिल किया गया है अन्यथा पूँजीवाद की अपनी पसन्द तो विशेषाधिकार प्राप्त पुरुष समुदाय तक ही मताधिकार को सीमित रखना था । जब जब पूँजी को अबाध विकास की जरूरत पड़ती है वह मताधिकार को सीमित करने से शुरू कर सर्वसत्तावाद तक पहुँचती है ।

पूँजी के मनमाना शोषण के खिलाफ़ पैदा हो रहे जन विक्षोभ को दबाने के लिए भी ऐसे शासन की जरूरत पड़ती है । इसी सामान्य परिप्रेक्ष्य में हम लोकतन्त्र और चुनाव में हो रहे बदलावों तथा बुद्धिजीवियों की तंगनजरी की परीक्षा करने की कोशिश करेंगे ।

सबसे पहले पूँजी के चरित्र में आए बदलावों पर ध्यान दीजिए । अस्सी का दशक सिर्फ़ उदारीकरण के लिए नहीं बल्कि कम्प्यूटर क्रान्ति और सांप्रदायिकता के लिए भी मशहूर है । उदारीकरण ने आपाततः दो भिन्न परिघटनाओं को जन्म दिया । एक साथ हमने इक्कीसवीं और उन्नीसवीं सदी की ओर कदम बढ़ाए लेकिन इन दोनों में समकालिकता ही नहीं थी बल्कि सहसम्बन्ध भी था । इसी सहसम्बन्ध से कांग्रेस और भाजपा में घालमेल का दौर शुरू हुआ । एक तरफ़ राजीव गांधी हरेक हल के पीछे कम्प्यूटर लटकाते घूम रहे थे, दूसरी तरफ़ रामजन्मभूमि का ताला खोल रहे थे । कांग्रेसी नेता कर्ण सिंह विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष थे और आर एस एस कांग्रेस का प्रचार कर रही थी । नब्बे का दशक आते आते उदारीकरण का दर्शन और आचरण नये दौर में पहुँच गया और सकल घरेलू उत्पाद में प्राथमिक तथा द्वितीयक क्षेत्रों के मुकाबले तृतीयक क्षेत्र का हिस्सा बढ़ने लगा । सट्टा बाजार अर्थतन्त्र का संवेदी सूचकांक बन गया । चुनाव ज्योतिष (और वह भी फलित) तो अस्सी के दशक से ही शुरू हो गया था । अब इसमें सट्टा बाजार की भाषा भी घुस गई है । सटोरियों की शरण में बुद्धि ! सरस्वती के सिर पर लक्ष्मी सवार ! इस प्रक्रिया की परिणति अर्थतन्त्र में पूँजी पतियों की नयी नस्ल पैदा होने में हुई जिसके मुखिया रिलायंस और सहारा जैसे संस्थान थे ।

ठीक इस बदलाव के साथ ही हम लोकतन्त्र में हो रहे बदलावों को भी पढ़ सकते हैं । सबसे पहले राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त दलों को अलगाया गया । फिर मान्यता प्राप्त दलों को ऐसी सुविधाएं दी गयीं जो छोटी पार्टियों को नुकसान पहुँचाती हैं । मसलन दूरदर्शन और रेडियो पर प्रसारण समय के आवन्टन में यह भेदभाव शुरू किया गया । समूचा शासक वर्ग दो ध्रुवीय चुनाव व्यवस्था लागू करने पर आमादा हो गया । गैर मान्यता प्राप्त दलों के प्रत्याशियों के मारे जाने पर चुनाव स्थगित होना बन्द हो गया । मान्यता प्राप्त दलों को मतदाता सूची मुफ़्त दी जाने लगी और अन्य प्रत्याशियों को पैसा लेकर ।

मतदान सम्बन्धी सुधारों की दूसरी खेप फ़ोटो पहचान पत्र से शुरू हुई । भारत जैसे देश में फ़ोटो पहचान पत्र उन्हीं का बनेगा जिनका स्थायी निवास हो जबकि बेघर लोगों की तादाद दिनो दिन बढ़ रही है । स्पष्ट है कि यह कदम फ़र्जी वोट रोकने की बजाए बेघर लोगों का मताधिकर सीमित करता है ।

तीसरी खेप इस बार के चुनावों में लागू हुई है । चुनाव की तिथियाँ तय करने में स्कूलों की परीक्षाओं का तो ध्यान रखा गया लेकिन दूर दराज काम करने जाने वाले खेतिहर मजदूरों की असुविधा को आराम से भुला दिया गया । कोढ़ में खाज यह कि बूथ रैशनलाइजेशन के नाम पर एक तिहाई बूथ रह गये । जिन्हें भी गाँव के बारे में थोड़ी जानकारी हो वे यह समझ सकते हैं कि इसका अर्थ मतदान केन्द्रों का सवर्ण बस्तियों में पहुँच जाना है । जिस भी गाँव में अनबन होती है वहाँ सवर्ण सबसे पहले गरीबों के बाहर जाने का रास्ता रोकते हैं । उनकी बस्ती से गुजरकर वोट डालने जाना साफ तौर पर दलितों की राजनीतिक भागीदारी पर उल्टा असर डालता है । ई वी एम की अविश्वसनीयता के साथ मिलकर ये कदम और कुछ नहीं छोटी पार्टियों को खत्म करने और मताधिकार को सीमित करने के सुनियोजित प्रयास हैं ।

इन कानूनी प्रावधानों के अलावा और भी तरह से तकनीक ने पार्टियों के चरित्र पर प्रभाव डाला है । दूरदर्शन पर राजनीतिक प्रसारण के साथ पार्टियों में चिकने चुपड़े चेहरों और तकनीकदाँ लोगों का महत्व बढ़ गया । फिर मतदाता को रिझाने के लिए फ़िल्मी सितारों की बाढ़ आई । इस बार तो दूरदर्शनी धारावाहिकों के कलाकारों और क्रिकेट खिलाड़ियों की आमद भी अभूतपूर्व पैमाने पर हुई । इनका महत्व आम राजनीतिक कार्यकर्ताओं के मुकाबले कई गुना निकला ।

इस बार चुनावशास्त्री (नजूमी) भी एक पार्टी की तरह बहस में उतरे । इस बहस में कई तरह के मुद्दे उठाए गए हैं इसलिए उन पर विस्तार से विचार करने की जरूरत है । मेरे एक मित्र ने कहा कि इस बार इन अटकलों पर इतने सवाल उठ खड़े हुए हैं कि अब इसकी जिन्दगी लम्बी नहीं होगी । लेकिन इस बात पर ध्यान दें कि फ़िल्मों में माफ़िया का पैसा लगा होने की सूचना से उनकी लोकप्रियता को शुरुआती झटका लगा लेकिन फ़िल्मों का बनना जारी रहा । इसी तरह क्रिकेट में सट्टेबाजी और फ़िक्सिंग का तथ्य सामने आने पर उसको शुरुआती झटका लगा लेकिन पूँजी निवेश इतना जबर्दस्त था कि क्रिकेट जारी रहा । ऐसे ही चुनावी फलित ज्योतिष सामान्य अर्थों में पत्रकारिता नहीं है । गंगा कोई नदी है ? कामधेनु क्या गाय है ? यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है । इसमें बड़ी पूँजी लगी हुई है । अनेक बुद्धिजीवियों का जीवन इसी से चलता है । बोर्दू ने हरेक जगह दिखने की इच्छा को एक स्वतन्त्र शक्ति माना है जो बौद्धिकों को मौके के मुताबिक अपने आपको ढाल लेने के लिए विवश कर देती है ।

यह शास्त्र सबसे पहले दो ध्रुवीय राजनीतिक गोलबन्दी की पूर्वाशा करता है । प्रसिद्ध चुनाव ज्योतिषी योगेन्द्र यादव ने कहा कि बहुकोणीय मुकाबला इस शास्त्र के लिए दुःस्वप्न की तरह होता है । अगर दो से अधिक दलों के बीच काँटे की टक्कर दुःस्वप्न है तो स्वप्न क्या है यह कहने की जरूरत नहीं रह जाती । दरअसल ऐसी ही परिस्थिति में एक का नफ़ा दूसरे का सीधे नुकसान होता है । लेकिन दो ध्रुवीय राजनीति लोकतन्त्र के लिए बहुत अच्छी नहीं होती । पूँजीपतियों को यही प्रणाली पसन्द आती है क्योंकि इसमें सर्वानुमति बनाने में आसानी होती है, खरीदार कम होते हैं, बहुत मोलतोल नहीं होता । भारत जैसे देश में विभिन्न सामाजिक समुदायों के भीतर राजनितिक चेतना की बढ़ोत्तरी के साथ चुनावों का बहुध्रुवीय होना निश्चित है । यह शास्त्र बौद्धिकों के भीतर दो ध्रुवीयता की चाहत बढ़ाकर सच्चाई को समझने की उनकी शक्ति को कम करता है और छोटी पार्टियों को प्रोत्साहित करता है कि वे अपनी पहचान किसी बड़े संश्रय के साथ जोड़ लें ।

इन सब चीजों का गहरा सम्बन्ध सभ्य समाज (सिविल सोसाइटी) से भी है । ऐतिहासिक तौर पर यह सभ्य समाज पूँजीवाद के विकास के साथ अस्तित्व में आया और कमोबेश उसकी मनपसन्द शासन पद्धति के लिए मतनिर्माताओं की तरह काम करता रहा है । भारत में यह सभ्य समाज आखिर कितना सभ्य है ? इसमें कुछ अवकाश प्राप्त नौकरशाह, मोटी सुविधायें ग्रहण करने वाले पत्रकार, प्रोजेक्ट प्रेमी प्रोफ़ेसरान और एन जी ओ मालिकान शामिल हैं । आम तौर पर ये सभी अपने साम्राज्य में खुली प्रतियोगिता से भयभीत, प्रचंड जातिप्रेमी, आरक्षण विरोधी और खामोश क्रूरता के साथ काम करने वाले होते हैं । इन्होंने चुनाव ज्योतिष पर रोक लगने की सम्भावना के मद्दे नजर सूचना की स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल उठाया ।

पैसे और रसूख के आधार पर बँटे हुए समाज में कोई भी अधिकार निरपेक्ष नहीं होता । ऐसे समाज में हरेक अधिकार और समानता असरदार के लिये अधिक और कमजोर के लिये कम में बदल जाती है । सी एन एन, रूपर्ट मरडोक, आब्जर्वर और एन डी टी वी का सूचना का अधिकार कई बार गरीबों के सूचना के अधिकार का गला घोंटने के काम आता है । संचार माध्यमों में किस हद तक समझौता परस्ती आई है इसका उदाहरण अरुन्धती राय के एक लेख का हश्र है । यह लेख आई जी खान स्मृति व्याख्यानमाला के अन्तर्गत दिया गया भाषण था । 'हिन्दुस्तान' में छपे उस लेख को जब 'हिन्दू' ने अंग्रेजी में छापा तो इसमें से रिलायंस और सहारा जैसे संस्थानों के नाम तो गायब थे ही, ऐसे संदर्भ भी गायब थे जो असुविधाजनक हो सकते थे । अब तो यही कहा जा सकता है कि सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति ।

इन सबके बावजूद यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि तकनीकप्रेमी सुविधाभोगी शासक वर्ग के प्रचारक व्यापक भारतीय समाज की राजनीतिक जिन्दगी पर नियन्त्रण कर सकेंगे । इन चुनावों में जनसमुदाय ने अपनी हैसियत दर्ज करा दी है । यह मत सांप्रदायिकता के विरोध में तो होगा ही, उदारीकरण के समूचे दर्शन के विरोध में भी होगा । यह शासकों द्वारा जनता को भेंड़ मानकर मनमानी करने के विरोध में भी होगा । लेकिन एक और परिघटना पर ध्यान देना आवश्यक है ।

पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक नेताओं का एक स्वतन्त्र वर्ग तैयार हुआ है । तथाकथित स्थिरता इसी वर्ग की चाहत है । पाँच साल तक किसी भी स्थिति में सांसद और विधायक बने रहने से अनेक आर्थिक तथा अन्य सुविधाएं प्राप्त होती हैं । बहुत पहले इंग्लैंड में राजनीतिक सुधारों के लिए एक आंदोलन हुआ था जिसे चार्टिस्ट आंदोलन कहा जाता है । उसकी सारी माँगें पूरी हो चुकी हैं सिवा इस माँग के कि हरेक वर्ष चुनाव होना चाहिए । इस माँग के पीछे तर्क यह था कि सामाजिक स्थितियों में होने वाला परिवर्तन इसी तरह संसदीय राजनीति में प्रतिबिम्बित हो सकता है । आज कौन कहेगा कि एक जमाने में स्थिरता को भी लोकतन्त्र के लिये घातक समझा जाता था । स्थिरता का आकांक्षी यह राजनीतिक वर्ग पिछली सरकार के अनेक गुनाहों के बावजूद सत्ता में उसके बने रहने के अनेक कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण था ।

इसी प्रक्रिया में इस वर्ग के हित वित्तीय घरानों के साथ जुड़ते गये हैं । उत्तर प्रदेश के पिछले दिनों के अनुभव बताते हैं कि कोई भी राजनीतिक दल, कोई भी जनप्रतिनिधि ऐसा नहीं रह गया है जो बिकाऊ न हो । हो सकता है त्रिशंकु संसद की हालत में केन्द्रीय सरकार का गठन भी होटलों में तिजोरी लेकर बैठे उद्योगपति करें । एन डी ए की ही सरकार बने और पाँच साल तक चले इसके लिए तिजोरियाँ जब खुलेंगी तो क्या होगा कहना मुश्किल है ।

वैसे भी गैर भाजपाई सरकार से बहुत आशा करना आर्थिक नीतियों पर बनी आम सहमति की उपेक्षा करना होगा ।

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