Saturday, May 4, 2019

‘पूंजी’ की लेखन प्रक्रिया और व्यवधान


                 
                                              
मार्क्स ने ग्रुंड्रिस की लिखाई को अंतिम रूप मानचेस्टर में एंगेल्स के पास रहकर दिया था और वहीं ‘पूंजी’ के कुछ हिस्से भी लिखने शुरू कर दिए थे । वहां से लंदन लौटने के बाद प्रकाशक के पास सामग्री भेजने की जगह विषय से सम्बंधित एकाध और नई किताबों को देखने लगे । कुछ नया मिलने की आशा तो नहीं थी लेकिन बौद्धिक अंत:करण को देखे बिना चैन नहीं मिलता । सेहत मानचेस्टर जाने से पहले की हालत में लौट आई । तंगहाली भी गम्भीर हो चली । पूंजीवाद को आर्थिक संकट से निजात मिली और बाजार सामान्य तरीके से काम करने लगा । क्रांति की आशा पर तुषारापात हो गया । इंग्लैंड में मजदूर आंदोलन में बुर्जुआ सुधारवाद के लक्षण नजर आने लगे । इस सच को स्वीकार करना पड़ा कि संकट के मनचाहे सामाजिक और राजनीतिक नतीजे नहीं निकले । पूंजीवाद का वैश्विक प्रसार हो रहा था । इसके साथ ही यूरोप में समाजवादी क्रांति की उम्मीद भी बनी हुई थी । इस समय एंगेल्स को लिखे पत्रों में प्रगतिशील खेमे के राजनीतिक विरोधियों की तीखी आलोचना मिलती है । ये सभी लोग 1848 के वस्तुगत विश्लेषण और उसमें क्रांति की पराजय को स्वीकार करने की जगह हवाई कल्पना या अवसरवाद में डूबे हुए थे । इसके विपरीत मार्क्स ने तय किया था कि वर्ग संघर्ष जब उतार पर होगा तो व्यर्थ के षड़यंत्रों या निजी उठापटक से परहेज बरतेंगे । खामोशी के साथ उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान को पूरा किया । ग्रुंड्रिस तो इसका खाका भर था ।
दुर्भाग्य से 1860 में उनके आर्थिक काम में एक और व्यवधान पैदा हुआ । इस व्यवधान के बारे में मार्क्स के अधिकतर जीवनी लेखक बहुत सहानुभूति से बात नहीं करते । कार्ल फ़ोग्ट नामक एक वाम नेता थे जो जेनेवा में प्रवासी के रूप में रहते हुए प्रकृति विज्ञान का अध्यापन करते थे । उन्होंने अपने लेखन में बोनापार्त समर्थक विदेश नीति जाहिर की । इसके विरोध में किसी ने गुमनाम रहकर उन पर बोनापार्त के समर्थन में लिखने और लिखवाने के लिए पत्रकारों को घूस देने का आरोप लगाया । यह आरोप एक जर्मन अखबार में छपा जिसमें मार्क्स-एंगेल्स भी यदा कदा लिखते थे । नाराज फ़ोग्ट ने अखबार पर मुकदमा दायर किया । अखबार हार गया । फ़ोग्ट ने जीत के उल्लास में जो लिखा उसमें मार्क्स पर मजदूरों को धोखा देने का आरोप लगाया । उन्होंने कहा कि जो भी उनका साथ देगा उसे देर सबेर पुलिस की गिरफ़्त में आना पड़ेगा । कहा कि मार्क्स मजदूरों को उनके रोजगार से विमुख करके उन्हें षड़यंत्र में शामिल करते हैं । जो भी मजदूर उनके झांसे में आ जाते हैं उन्हें बरबादी के सिवा कुछ नहीं मिलता । फ़ोग्ट ने इन कामों के लिए जिम्मेदार जिस ब्रिमस्टोन गिरोहका हवाला दिया था उसके बारे में मार्क्स को फ़ोग्ट की किताब से पहले कुछ भी पता नहीं था । इन आरोपों को फ़्रांस और इंग्लैंड के अखबारों ने भी प्रमुखता से जगह दी । जर्मनी में विरोधियों को तो जैसे मसाला मिल गया । एक अखबार ने दो अंकों में विस्तार से इन आरोपों को छापा । मार्क्स ने मानहानि का दावा किया लेकिन अदालत ने दावा खारिज कर दिया ।
नतीजतन मार्क्स के पास अपनी और नजदीकी साथियों की प्रतिष्ठा बचाने का लेखन के अलावे कोई और रास्ता न बचा । उन्होंने फ़ोग्ट के आरोपों के जवाब में किताब लिखने का फैसला किया क्योंकि जर्मनी के लोग प्रवासियों के बीच की घटनाओं की सचाई नहीं जानते थे और फ़ोग्ट ने तमाम तरह की झूठी बातों का सहारा लिया था । लिखने के लिए मार्क्स ने अपने तमाम पुराने दोस्तों से फ़ोग्ट के बारे में तथ्य जुटाए । आदत के अनुरूप जब लिखना शुरू किया तो उसका आकार विस्तृत होने लगा । एंगेल्स ने लिखा कि सतही तौर पर निपटा दें । उनकी इच्छा थी कि प्रकाशन लंदन की जगह जर्मनी में हो । जर्मनी में प्रकाशक नहीं मिला तो हारकर लंदन में ही छापना पड़ा । खर्च निकलने के लिए चन्दा जुटाना पड़ा । इस काम में पूरा साल लग गया । इस काम को उस समय भी बहुतेरे लोगों ने ऊर्जा का क्षय ही माना । बाद में भी इसे साहित्य संबंधी प्रसंगों के लिए ही याद रखा जाता है ।
इसमें उनके व्यक्तित्व के दो गुण व्यक्त हुए । एक तो यह कि वे किसी भी लेखन में शैली को बहुत अधिक महत्व देते थे । प्रतिपक्षी के आक्रमण का बेहतर तरीके से उत्तर देकर वे उसे निरस्त्र कर देते थे । दूसरे कि विरोधी पर वे भरपूर तैयारी के साथ हमला करते थे । विरोधी चाहे दार्शनिक हों, अर्थशास्त्री हों या फिर राजनीतिक कार्यकर्ता हों वे उनकी धारणाओं का खोखलापन हरेक तरीके से उजागर कर देते थे । जब कभी वे इस काम में जुटते तो हेगेल और रिकार्डो जैसे चिंतकों के साथ ग्रीक, इतालवी, फ़्रांसिसी, अंग्रेज और जर्मन साहित्यकारों को भी सहायता के लिए बुला लेते थे । इस किताब पर फ़ोग्ट समेत समूची बौद्धिक जमात ने चुप्पी बरती और मार्क्स के जीवित रहते इसका कोई दूसरा संस्करण नहीं छप सका । संक्षिप्त फ़्रांसिसी संस्करण का प्रकाशन भी प्रतिबंधित हो गया ।
गरीबी और बीमारी पुराने दुश्मन थे, साथ साथ लगे हुए थे । कर्जदारों के तगादों और बिचौलियों की धमकियों से बचने के लिए सब कुछ गिरवी रख देना पड़ा था । जेनी को चेचक हो गई, लगा नहीं बचेंगी । जब तक वे बीमारी से उठ नहीं गईं मार्क्स ने अपना काम मुल्तवी रखा । दिमागी बेचैनी को काबू रखने के लिए गणित में दिल लगाते । इसी हालत में दांत दर्द हुआ तो उसे उखड़वाना पड़ा । बहरहाल डार्विन की साल भर पहले छपी किताब पढ़ डाली और कहा कि इससे प्रकृति के इतिहास में हमारे विचारों की पुष्टि होती है । अगले साल पता चला कि लीवर में सूजन है । लिखने पर रोक लग गई । रोम का इतिहास पढ़ना शुरू किया और स्पार्टाकस से बहुत प्रभावित हुए ।
एकाध महीने में तबीयत सुधरी तो आर्थिक मदद मांगने चाचा के पास हालैंड गए । उन्होंने वसीयत में प्राप्य हिस्से के एवज में 160 पौंड कर्ज देना मंजूर किया । छिपकर जर्मनी पहुंचे और महीने भर लासाल के अतिथि रहे । वे चाहते थे कि दोनों मिलकर पार्टी का मुखपत्र निकालें । लासाल भरोसेमंद नहीं लगे इसलिए इस पर गम्भीरता से सोचा भी नहीं । जर्मनी में नागरिकता बहाल करने के अनुरोध खारिज हो गए थे । इंग्लैंड में नागरिकता ली नहीं इसलिए शेष जीवन वे अनागरिक और राष्ट्रविहीन ही रहे । जर्मनी का वह एक महीना उनके लिए बेहद उबाऊ रहा था । लासाल उनके स्वागत में प्रतिष्ठित किस्म की संगत जुटाने की कोशिश करते । मार्क्स को इस कुलीनता से भारी चिढ़ शुरू से थी ।
वापस आकर अपने आर्थिक लेखन की सुध ली । उसके पहले न्यू यार्क ट्रिब्यून और वियेना के एक जर्मन अखबार के लिए लिखना शुरू किया । चिट्ठियों में अधिकतर अमेरिकी गृहयुद्ध का जिक्र मिलता है । उनके अनुसार इस लड़ाई में सर्वाधिक लोकप्रिय स्वशासन और सर्वाधिक घृणित मानव दासता एक दूसरे के सम्मुख हैं । उनकी यह मान्यता गैरिबाल्डी से पूरी तरह अलग थी जो इसे सत्ता का संघर्ष मात्र मानते थे । मार्क्स ने उनकी इस राय को बेवकूफी करार दिया था । इस समय के लेखों में मार्क्स ने अमेरिकी संघर्ष के बारे में इंग्लैंड की राय और संघर्ष के आर्थिक प्रभावों पर विचार किया । उनका मानना था कि इंग्लैंड के अखबार दास मालिकों का साथ दे रहे हैं । ऊपर से वे गुलामी के विरोध में घड़ियाली आंसू बहाते हैं लेकिन वस्त्र उद्योग के लिए रुई की जरूरत उनकी भावनाओं पर भारी पड़ती है । आखिरकार अगस्त 1861 से अर्थशास्त्र के अधूरे पड़े काम को फिर से उठा सके ।
दो सालों में मुद्रा के पूंजी में रूपांतरण, व्यावसायिक पूंजी और अतिरिक्त मूल्य को समझाने की विभिन्न अर्थशास्त्रियों की कोशिशों के सवाल पर तेईस नोटबुकें भर डालीं । जिस काम की योजना बनाई थी उसकी पहली किस्त के रूप में राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान को पूरा कर डालना चाहते थे । इस बीच पत्रकारीय लेखन से नियमित आमदनी शुरू हो चुकी थी । लगा कि पांव तले जमीन मिल गई है । फिर भी कर्ज की समस्या से मुक्ति नहीं मिली थी । हारकर माता और कुछ अन्य रिश्तेदारों से उधार मांगा । न्यू यार्क ट्रिब्यून में भी संकट आने से लेख छपने बंद हो चले । मार्च 1862 में आखिरी लेख छपा । उसी महीने मकान मालिक ने बकाया किराया वसूलने की धमकी दी । बहरहाल इस दौरान अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांतों पर शोध आरम्भ हुआ ।
दस नोटबुकों में इस सवाल पर अन्य अर्थशास्त्रियों के विचारों का जायजा लिया । उनका कहना था कि लगभग सभी अर्थशास्त्रियों ने अतिरिक्त मूल्य का अध्ययन उसके शुद्ध रूप में करने की जगह मुनाफ़ा और किराया जैसे उसके विशेष रूपों में किया है । फिजियोक्रैट्स को वे आधुनिक राजनीतिक अर्थशास्त्र का सच्चा जनक मानते थे । उन्होंने पूंजीवादी उत्पादन के विश्लेषण की भी बुनियाद रखी । वे इस बात को समझते थे कि अतिरिक्त मूल्य पैदा करने वाला श्रम ही उत्पादक श्रम कहलाता है । फिर भी तत्कालीन परिस्थितियों में उनकी सोच से अतिरिक्त मूल्य प्रकृति की देन लगता था क्योंकि कृषि संबंधी श्रम को वे उत्पादक श्रम समझते थे । इसके बाद स्मिथ के विचारों की परीक्षा की । स्मिथ कृषि संबंधी श्रम से ही अतिरिक्त मूल्य के सृजन को सही नहीं मानते थे । उन्होंने पहचाना कि पूंजीपति जीवित श्रम के एक हिस्से का भुगतान किए बिना उसका अधिग्रहण कर लेते हैं । फिर भी उनके चिंतन की सीमा अतिरिक्त मूल्य को मुनाफ़ा या किराया जैसे उसके विशेष रूपों तक सीमित करके समझने में निहित है । इनमें से ढेर सारे विचारों को 1862 में मानचेस्टर प्रवास के दौरान लिख लिया था । लौटकर लासाल को सूचित किया कि आगामी दो महीनों से पहले वे किताब समाप्त न कर सकेंगे । फिर कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों के बारे में लिखा । थोड़ा और गहराई से उत्पादक और अनुत्पादक श्रम के बारे में विचार किया । स्मिथ ने इन दोनों के बीच अंतर किया था । वहां भी उन्हें फिजियोक्रैट्स की धारणा पुष्ट होती महसूस हुई । उत्पादक श्रम वही है जो अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करे । आगे की नोटबुकों में किराया संबंधी सिद्धांत पर विचार किया गया है जिसे वे आगामी पुस्तक में अतिरिक्त अध्याय के रूप में शामिल करना चाहते थे । जानलेवा गरीबी के बीच यह सब कुछ जारी था । रिकार्डो जमीन के निरपेक्ष किराये की जगह जमीन की भौगोलिक स्थिति और उत्पादकता के सापेक्ष किराये की बात कर रहे थे । काम की प्रगति को लेकर संतुष्ट थे । मकान मालिक और उधारी पर सामान देने वाले अदालत में घसीटने की धमकी दे रहे थे । किसी रेल कंपनी में क्लर्क की नौकरी के लिए परीक्षा दी लेकिन खराब और अपाठ्य हस्तलेख के कारण उन्हें छांट दिया गया । बहरहाल दो और नोटबुकें भर डालीं । इनमें माल्थस और जेम्स मिल की धारणाओं की समीक्षा की । अपने अध्ययन को वाणिज्यिक पूंजी के विश्लेषण तक विस्तारित किया । पूंजीवादी पुनरुत्पादन में मुद्रा की भूमिका का भी अध्ययन किया । इससे आगे बढ़कर अतिरिक्त पूंजी और मुनाफ़े में अंतर किया ।
साल का अंत आते आते राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान से आगे की किताब की संरचना स्पष्ट होने लगी । पहली बार उसका नाम 'पूंजी' सूझा और जो नाम इतने दिनों से सोच रहे थे उसे उपशीर्षक तय किया । नए साल में पांडुलिपि तैयार करके खुद जर्मनी ले जाने का निश्चय किया । इस काम और पहले के काम में अंतर महसूस हो रहा था । पिछली किताब अमूर्त लगी जबकि यह सुबोध प्रतीत हो रही थी । लगा कि किसी भी स्थापित अनुशासन में क्रांतिकारी काम लोकप्रिय नहीं हो सकता । नए विचारों की बुनियाद रखे जाने के बाद लोकप्रिय लेखन आसान हो जाता है । साल के शुरू में थोड़ा विस्तार से प्रस्तावित पुस्तक की रूपरेखा तैयार की । उसमें 1) विषय प्रवेश, माल, मुद्रा; 2) मुद्रा का पूंजी में रूपांतरण; 3) निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य; 4) सापेक्षिक अतिरिक्त मूल्य; 5) निरपेक्ष और सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य का संश्रय; 6) अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में फिर से रूपांतरण, आदिम पूंजी संचय, वेकफ़ील्ड का उपनिवेशीकरण सिद्धांत; 7) उत्पादन प्रक्रिया का परिणाम; 8) अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत; 9) उत्पादक और अनुत्पादक श्रम का सिद्धांत के मुताबिक विषय को पेश किया जाना था । वे अपनी किताब के पहले खंड की योजना पर ही नहीं ठहरे । ‘पूंजी और मुनाफ़ा’ संबंधी प्रस्तावित तीसरे खंड की योजना भी बनाई । उसमें 1) अतिरिक्त मूल्य का मुनाफ़े में रूपांतरण, अतिरिक्त मूल्य की दर से भिन्न मुनाफ़े की दर की पहचान; 2) मुनाफ़े का औसत मुनाफ़े में रूपांतरण; 3) एडम स्मिथ और रिकार्डो का मुनाफ़े और उत्पादन की कीमत संबंधी सिद्धांत; 4) किराया; 5) रिकार्डो के तथाकथित किराया सिद्धांत का इतिहास; 6) मुनाफ़े की दर में गिरावट का नियम; 7) मुनाफ़े के सिद्धांत, 8) मुनाफ़े का औद्योगिक मुनाफ़े और ब्याज में बंटवारा; 9) राजस्व और उसके स्रोत; 10) सम्पूर्ण पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया में मुद्रा की अवगति; 11) भोंड़ा अर्थशास्त्र; 12) निष्कर्ष, पूंजी और मजूरी श्रम के क्रम में विषय का विवेचन होना था ।
आगामी साल के शुरू में भी मार्क्स ने व्यापारिक पूंजीवाद का विश्लेषण जारी रखा । निजी आर्थिक दिक्कतें कम नहीं हो रही थीं । एंगेल्स को खबर की कि फ़्रांस और जर्मनी में उधार लेने की कोशिशों का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला । बच्चों के पास घर से बाहर निकलने लायक कपड़े और जूते नहीं हैं । निश्चय किया कि बड़े बच्चे घरों में काम करेंगे और पत्नी तथा छोटी बच्ची के साथ खुद कहीं रह लेंगे । बीमारियों ने फिर धर दबोचा । आंख में सूजन के चलते पढ़ना लिखना बाधित हो गया । हफ़्ते भर अंधा या पागल होने की मानसिक कल्पनाओं के बाद उबरे तो लीवर की लम्बे समय तक चलने वाली कठिनाई ने आ घेरा । उनके डाक्टर ने पूरा आराम करने की सलाह दी होती इसलिए एंगेल्स से किसी दूसरे डाक्टर से सलाह लेने के लिए कहा । बहरहाल एकाध महीने बाद फिर से काम शुरू किया और अतिरिक्त मूल्य से संबंधित कुछ पहलुओं के बारे में दो रजिस्टर लिख मारे । मई तक अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अर्थशास्त्रीय अध्ययन को संक्षेप में लगभग सौ पन्नों में उतार लिया । लग रहा था कि किताब के पहले खंड की पांडुलिपि तैयार करने में काफी विलम्ब हो चुका है इसलिए लीवर की सूजन के बावजूद काम शुरू किया और ब्रिटिश पुस्तकालय में नियमित रूप से दस दस घंटा बैठना शुरू किया । अब पांडुलिपि को अंतिम रूप देने का आत्मविश्वास आ गया था ।
1863 की गर्मियों से आखिरकार लिखने का काम शुरू हुआ । तबसे 1865 के अंत तक पहले और तीसरे खंड का मसौदा लिख गया और दूसरे खंड का आरम्भिक खाका तैयार हुआ । शुरू में जो छह किताबों की योजना बनाई थी उससे जुड़े ढेर सारे विषयों को इन तीन खंडों में समेट लिया । लग रहा था कि किताब सुबोध और पठनीय बन रही है । फिलहाल पहले खंड को पूरा करने के लिए जान लड़ा दी । सच में काल से होड़ लगी थी । फोड़ों और फफोलों के चलते महीने भर जीवन खतरे में पड़ा रहा । इस बीच मां का देहांत हुआ और विरासत के सवाल को निपटाने के लिए जर्मनी की यात्रा करनी पड़ी । यात्रा में तबीयत खराब हुई और लौटते हुए नीदरलैंड में चाचा के पास ठहरना पड़ा । भयंकर फफोलों के चलते रात में नींद नहीं आती थी । लंदन लौटकर भी तबीयत दुरुस्त नहीं रही इसलिए तुरंत काम शुरू नहीं हो सका । पांच महीनों के व्यवधान के बाद फिर से हाथ लगा सके । अब तीसरे खंड पर काम आगे बढ़ाया ।
इस दौरान इंटरनेशनल का काम भी करना पड़ा । खासकर उद्घाटन भाषण और नियमावली लिखी । इस समय ही एक मजदूर साथी को पत्र लिखा और कहा कि अर्थशास्त्र का मेरा काम कुछ महीनों में छप जाएगा । यह किताब बुर्जुआ व्यवस्था के लिए इतनी जोरदार सैद्धांतिक चोट होगी जिससे वह कभी उबर नहीं सकेगा । इंटरनेशनल का काम निपटाकर मुनाफ़े की गिरती दर के बारे में लिखना शुरू किया । बीमारी ने फिर पटका । इसके बाद थोड़ी सांस लेकर 1865 में जनवरी से मई तक दूसरे खंड का लेखन जारी रखा । इनमें कुछ नई धारणाओं का निर्माण किया और पहले तथा तीसरे खंड के सिद्धांतों को आपस में जोड़ने की कोशिश की । बीच बीच में फोड़े फफोले उगते रहे । इंटरनेशनल का काम भी समय लेता था । कभी कभी सुबह के चार बज जाते थे ।
बीच में ‘मजदूरी, कीमत और मुनाफ़ा’ शीर्षक पुस्तिका लिखी । इसमें उन्होंने मजदूरी बढ़ाने की मांग को नाजायज मानने वालों का विरोध किया और बताया कि मजदूरी में आम बढ़ोत्तरी से मुनाफ़े की आम दर में गिरावट आती है और वस्तुओं की कीमत में बहुत अंतर नहीं आता । इरादा तो था कि समूची किताब का लेखन खत्म हो जाए तभी उसका कोई भी हिस्सा छपने के लिए भेजा जाए लेकिन समय के अभाव के चलते पहले हिस्से को पहले पूरा करके छपाने का विचार भी आता रहता था । उन्हें पता था कि काम खत्म कर लेने से इस बोझ से मुक्त होकर दूसरे जरूरी काम करने की फ़ुर्सत मिलेगी । आर्थिक दिक्कतों और सेहत की खराबी ने फिर से दस्तक दी । इंटरनेशनल का सम्मेलन लंदन में होने जा रहा था । सम्मेलन के बाद कुछ समय एंगेल्स के पास बिताया । वापस लौटते ही परेशानियों ने आ घेरा । एक चाची के देहांत से विरासत का कुछ हिस्सा मिलने की उम्मीद पैदा हुई ।
बहरहाल 1866 के शुरू में ‘पूंजी’ के पहले खंड को पूरा करने का इरादा किया । दो महीने में पांडुलिपि पूरा हो जाने की आशा थी लेकिन सेहत से जूझते हुए पूरा साल निकल गया । किताब को जल्दी पूरा करने के चक्कर में खुद के प्रतिमानों से समझौता भी किया । लिखा कि कार्यदिवस वाला हिस्सा ऐतिहासिक हो गया है लेकिन मूल तौर पर उसे वैसा नहीं होना था । पूरा करने के लिए जरूरत थी कि बिना रुके लगातार लिखें । एंगेल्स को चिंता हुई और घबराकर सलाह दी कि किताब में कुछ विलम्ब हो तो भी थोड़ा आराम कर लिया करें । 
उन्होंने एक डाक्टर को भी तैयार किया कि पहले खंड को छपा लेने के लिए राजी करें । जवाब में मार्क्स ने काम की प्रगति के बारे में बताया । कहा कि दिन में संग्रहालय पढ़ने जाते हैं, रात में लिखते हैं । जमीन के किराए वाला आखिरी अध्याय ही स्वतंत्र पुस्तक की शक्ल लेता जा रहा है । इस नुक्ते के बारे में दो साल पहले जो कुछ देखा था उसके बाद ढेर सारी सामग्री प्रकाशित हुई थी । पांडुलिपि जिस हाल में थी उस हाल में छपाने के बारे में सोचना मुश्किल था । यह भी कहा कि साल के शुरू में किताब को प्रस्तुत करने लायक बनाना आरम्भ किया था कि फोड़ों ने दबोच लिया । माना कि पहला खंड पूरा होते ही प्रकाशन के लिए भेज देंगे लेकिन उसके लिए बैठना जरूरी था । एक फोड़े को खुद ही चीरा लगाया था । एंगेल्स ने इलाज कराने का निवेदन किया । आखिरकार मार्च में मार्क्स ने काम को कुछ समय के लिए परे किया और समुद्र के तीर पर घूमने गए । तबीयत तो संभली लेकिन इस बीच दो महीने बरबाद होने की शिकायत बनी रही । लंदन लौटकर भी कुछ दिन चैन के बीते और जून में सूचित किया कि बीते दिनों में कोई फोड़ा नहीं निकला । जुलाई में फिर से मुसीबतों की नई खेप प्रकट हुई । काम करने का समय इतना कम मिलता था कि किताब की पांडुलिपि अक्टूबर तक ही तैयार कर पाने का अनुमान लगाया । इस बार भी उम्मीद कुछ ज्यादा ही लगा बैठे थे । नवंबर तक भी हालात से जूझ रहे थे । अगले साल 1867 की फ़रवरी में ही जाकर एंगेल्स को पांडुलिपि के पूरा होने की खबर दे सके । उसे लेकर प्रकाशक के पास जर्मनी जाने के लिए कपड़े और घड़ी को बंधक से छुड़ाना जरूरी था । पांडुलिपि लेकर जर्मनी गए । रास्ते में सेहत के दुरुस्त रहने की सूचना एंगेल्स को दी । जवाब में उन्होंने कहा कि किताब ही आपकी समस्याओं की जड़ थी । उसके पूरा होने से आपका नया जन्म हुआ है । 1 अगस्त 1867 की सुबह दो बजे प्रूफ़ के सुधार का काम सम्पन्न हुआ । एंगेल्स को किताब की दो मुख्य बातें सुझाईं । एक- श्रम का दोहरा चरित्र जिसके मुताबिक वह उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य के बतौर प्रकट होता है और दूसरा- अतिरिक्त मूल्य को उसके विशेष रूपों से अलगाकर स्पष्ट करना । 14 सितम्बर 1867 को ‘पूंजी’ का पहला खंड बिक्री के लिए बाजार में आया । प्रकाशित होने के बाद भी इस पहले खंड में तमाम संशोधन अभी होने थे ।                                                                                                           


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