Tuesday, January 31, 2017

जलवायु परिवर्तन और अमिताभ घोष

       
                                                   
2016 में पेंग्विन से अमिताभ घोष की किताब ‘द ग्रेट डीरेंजमेन्ट: क्लाइमेट चेन्ज ऐंड द अनथिंकेबल’ का प्रकाशन हुआ । मुख्य रूप से उपन्यास लेखक होने के बावजूद अमिताभ घोष लगातार अपने समय के महत्वपूर्ण सवालों पर वैचारिक लेखन करते रहते हैं । एक और उपन्यासकार अरुंधती राय इससे भी आगे जाकर आंदोलनों में शामिल होती हैं । इन दोनों ने ही पोखरण विस्फोट पर बेहतरीन किताबें लिखीं । किताब को अमिताभ ने तीन हिस्सों में बांटा है । पहले हिस्से में कहानियां सुनाने के बाद दूसरे हिस्से में इतिहास और तीसरे हिस्से में राजनीति की बात की गई है ।
कहानी की शुरुआत उन्होंने खुद से ही की है और बताया है कि उनके पूर्वज अब के बांग्लादेश के रहने वाले थे और पद्मा नदी के तीर पर उनका गांव था । 1850 दशक में कभी नदी ने रास्ता बदला और गांव को लील गई । लेखक के पूर्वज पश्चिम दिशा की ओर सरकते सरकते बिहार में गंगा नदी के तीर पर आकर स्थिर हुए । यह तो खैर पानी की कारस्तानी थी लेकिन पानी की तरह हवा भी खतरनाक हो सकती है । 1988 में कांगो में कार्बन डाई आक्साइड का बादल एक झील से उठा और आस पास के गांवों पर मातम बनकर छा गया । इस हादसे में 1700 मनुष्य और अनगिनत जानवर मारे गए । जरूरी नहीं कि भयानक खबरें तूफान की शक्ल में ही आएं । हवा के हिंसक होने की घटना यूं भी हो सकती है । दिल्ली और बीजिंग के लोगों के फेफड़े इसका प्रमाण हैं ।
इन सबके बावजूद जलवायु संबंधी बदलाव साहित्यिक कथा लेखन में पर्याप्त गंभीरता के साथ प्रकट नहीं हो रहा है । जलवायु परिवर्तन की बात कथेतर लेखन का अंग मानी जाती है । जहां कहीं यह कथा साहित्य में आता भी है तो उसे आलोचक गंभीरता से नहीं लेते । इसका उल्लेख होते ही संबंधित कथा को विज्ञान कथा की विधा में गिन लिया जाता है । ऐसा लगता है मानो साहित्यिक कल्पना के लिहाज से जलवायु परिवर्तन किसी अन्य ग्रह की कथा हो । मानव अस्तित्व के लिए खतरनाक बन चुकी इस परिघटना के बारे में अगंभीरता अकल्पनीय है । इसे तो दुनिया भर के लेखकों का प्रमुख सरोकार होना चाहिए लेकिन ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है । कारण क्या है ? वैश्विक तापवृद्धि को वर्णन के भीतर लाना मुश्किल हो गया है ? हम ऐसी हालत में पहुंच चुके हैं कि मुश्किल चीजें ही आसपास मौजूद होंगी । जो साहित्यिक रूप इन मुश्किलों को व्यक्त नहीं कर सकेंगे वे असफल साबित होंगे । सूचना की कमी तो इसका कारण नहीं ही है । कम ही लेखक दुनिया भर में जारी जलवायु संबंधी उथल पुथल से अपरिचित होंगे । फिर भी जब उपन्यासकार जलवायु परिवर्तन के बारे में लिखते हैं तो लगभग हमेशा ही कथेतर में चले जाते हैं । शायद इसकी वजह कथा साहित्य की हमारी धारणा है । असल में तो जलवायु परिवर्तन का सवाल संस्कृति का सवाल भी है । संस्कृति खास तरह से रहने की इच्छा को जन्म देती है और हमारे रहन सहन के तरीके से मुख्य तौर पर कार्बन अर्थतंत्र का संचालन होता है । जिस संस्कृति का हमने निर्माण किया है वह दुनिया को गढ़ने वाले पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के इतिहास से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है । हमारी सांस्कृतिक गतिविधियों में यह इतिहास घुला मिला है । युद्ध, पर्यावरणिक विनाश या तरह तरह के संकट हमारे सांस्कृतिक सृजन में प्रकट होते रहे हैं फिर जलवायु परिवर्तन के बारे में ऐसा दुराव क्यों ? हम लोगों को खुद से पूछना होगा कि अपनी रचनाओं में हम किस हद तक बाजार से प्रभावित होते हैं । उदाहरण के लिए स्थापत्य में शीशे और धातु के सहारे खड़ी होने वाली चमकदार इमारतें किसकी इच्छा को संतुष्ट करती हैं । उपन्यासकार के बतौर जब हम किसी पात्र को आकार देने के लिए विभिन्न ब्रांडों का उल्लेख करते हैं तो एक हद तक बाजार के असर में होते हैं । इस बात के मद्दे नजर यह पूछना और भी जरूरी हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन में ऐसा क्या है कि गंभीर कथा साहित्य में उसका प्रवेश वर्जित है । जिस समय हमारे ज्यादार शहर मनुष्य के रहने लायक नहीं रह गए हैं उस समय के हमारे सांस्कृतिक सृजन को देखकर भविष्य के लोग तो यही नतीजा निकालेंगे कि हम आत्म-चेतस युग में रहने की जगह महान विक्षिप्ति के दौर में जीवित थे ।
इसके बाद अमिताभ फिर एक निजी प्रसंग की ओर वापस आते हैं । 17 मार्च 1978 को जब दिल्ली में अचानक तूफान आया था तो अमिताभ दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे और साथ ही पत्रकारिता भी कर रहे थे । संयोग से वे तूफान के ऐन बीच में आ गए । एक इमारत की बालकनी में छिपकर उनकी जान बची थी । चारों ओर साइकिलें, स्कूटर, लैम्प पोस्ट, टिन के छज्जे और चाय की दुकान हवा में चक्कर काट रहे थे । शोर खत्म होने के बाद शांति पसर गई थी । बालकनी से बाहर निकलते ही विनाशलीला के दर्शन हुए । बसें उलट गई थीं, स्कूटर पेड़ों में फंसे हुए थे, दीवारें इमारतों से अलग हो गई थीं और कमरों के भीतर छत से लटके पंखे तुड़ मुड़ गए थे । तूफान में 30 लोग मरे और 700 घायल हुए थे । यह विनाशलीला कुल चार मिनट चली थी । यह अभूतपूर्व था । इसके लिए अखबारों को सही शब्द ही नहीं सूझा ।
इस घटना का साक्षी होने के चलते जीवन भर वे इस तरह की घटनाओं के विश्लेषण में रुचि लेते रहे लेकिन उनके किसी उपन्यास में, अन्य प्राकृतिक दुर्घटनाओं की मौजूदगी के बावजूद इस तूफान के अनुभव का रचनात्मक उपयोग न हो सका । उन्हें लगता है कि ऐसा कोई वर्णन अविश्वसनीय लगेगा शायद इस वजह से इसका चित्रण न हो पाया हो । ऐसी असंभव स्थिति का उपयोग तभी करना चाहिए जब कोई अन्य उपाय न बचे । लेकिन आधुनिक उपन्यास के जन्म से पहले तो कथा के भीतर असंभाव्यता की प्रचुर उपस्थिति रहती ही थी । आधुनिक उपन्यास में कथा का यह ढंग छिपा रहता है । उपन्यास में अश्रुतपूर्व पृष्ठभूमि में चला जाता है और दैनंदिन उभरकर प्रत्यक्ष हो जाता है । पहले की कथा में बताया जाता था जबकि आधुनिक उपन्यास में दिखाया जाता है । कथा का यह नया तरीका बुर्जुआ जीवन के खुशनुमा रोजमर्रा के मेल में था । अघट और अप्रत्याशित को चेतना से बाहर कर दिया गया था । यह चीज केवल कला तक ही नहीं सीमित रही, विज्ञान में भी पहुंच गई थी । भौगोलिक इतिहास को क्रमिक बदलावों के वर्णन में तब्दील कर दिया गया था । प्रकृति भी वर्तमान की गति का ही अनुगमन करती प्रस्तुत की जाती थी । वास्तविकता तो ऐसी थी नहीं लेकिन उस पर परदा डालने के लिए तबाही और विनाश को हाशिये पर धकेल दिया गया था । यह काम भूगर्भ विज्ञान और उपन्यास में एक साथ हुआ । हद तो तब हो गई जब कथा के पुराने तरीके को आदिम के साथ जोड़ दिया गया । कहा गया कि जब मनुष्य प्राकृतिक घटनाओं को नहीं समझ पाता था तो सूर्यग्रहण, भूकम्प, बाढ़ या पुच्छल तारे जैसी परिघटनाओं को भूत, प्रेत या अप्राकृतिक तत्वों की कारस्तानी बता देता था ।
लगता है कि निश्चिंत बुर्जुआ जीवन का यह माहौल जलवायु परिवर्तन के साथ समाप्त हो चला है । विचित्र लगेगा लेकिन उन्नीसवीं सदी में सचमुच कथा साहित्य और भूगर्भ विज्ञान में प्रकृति व्यवस्थित और नम्र मालूम पड़ती थी । आदिम और भीषण के बरक्स यही आधुनिक विश्व दृष्टि थी । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक इस सोच की प्रमुखता बनी रही । इसे वे उपन्यास से जुड़ी हुई विडम्बना कहते हैं कि यथार्थवादी वर्णन में ही यथार्थ पर परदा डाला जाता था । अब तो हम ऐसे ही समय में जी रहे हैं जिसमें अचानक जलप्लावन, सैकड़ों साल में कभी कभी आने वाले तूफान, बरसों चलने वाला सूखा, अभूतपूर्व गर्मी, धरती का धंसना और बादल फटने की घटनाएं आम हो चली हैं । 2012 में न्यूयार्क में तबाही बरपाने वाला सैन्डी तूफान मौसम वैज्ञानिकों के लिए भी अत्यंत असंभावित था । वैसा तूफान उस क्षेत्र के मौसम वैज्ञानिक इतिहास में कभी नहीं आया था । इसलिए उसके खतरों को भांपने और तदनुसार आपात कदम उठाने में चूक हुई । असल में बात इतनी ही नहीं है । अमिताभ का कहना है कि इसका संबंध नियमित बुर्जुआ जीवन में बढ़ते विश्वास से उपजे सहज बोध से है । स्वभावत: लोग अघट के लिए तैयार रहते हैं लेकिन पृथ्वी की असंभाव्यता के उनके सहज बोध की जगह धीरे धीरे एकरूपवाद में विश्वास आ बैठता है । इसको आंकड़ों और संभावना पर टिके सरकारी आचरण का भी बल प्राप्त हो जाता है । उदाहरण के लिए इटली के 2009 के विराट भूकम्प के पहले आने वाले झटकों के चलते सहज बोध के आधार पर लोग घरों की जगह खुली जगहों पर निकल आए लेकिन सरकारी हस्तक्षेप के चलते उन्हें घरों में लौटना पड़ा । नतीजतन जब भूकम्प आया तो घर के भीतर फंसकर ज्यादा लोग मारे गए । न्यूयार्क में जब सैंडी आया तो ऐसा कोई सहज बोध नहीं था । अमेरिकी नागरिकों के लिए तूफान में मरने की बात दूर देश की बात थी । इसी तरह ब्राज़ील में 2004 में जब कटरीना तूफान समुद्री तट से टकराया तो लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ । वैश्विक तापवृद्धि के जमाने में कोई भी जगह सुरक्षित नहीं रही, व्यवस्थित बुर्जुआ जीवन की प्रत्याशा को हर कहीं चुनौती मिल रही है । लगता है कि धरती ही आलोचक होकर उपन्यास में व्यक्त यथार्थ की सीमा समझा रही हो । इस युग की मौसम संबंधी घटनाएं वर्तमान कथा लेखन और आम समझ को मुंह चिढ़ा रही हैं । गंभीर गद्य कथा लेखन की गद्यात्मक दुनिया में इनका समायोजन मुश्किल हो रहा है ।
अमिताभ का कहना है कि कुल कहानी इतनी ही नहीं रही है । असंभव को लेखन के भीतर ले आने के लिए अतियथार्थवादी या जादुई यथार्थवादी उपन्यास के रूप भी आजमाने पड़े हैं । फिर भी इन उपन्यासों में व्यक्त घटनाओं और वर्तमान मौसम संबंधी घटनाओं में अंतर है । वर्तमान घटनाएं न तो अति यथार्थ हैं न जादुई यथार्थ । ये असंभव घटनाएं वास्तविक हैं । इसलिए इन्हें जादुई या रूपकात्मक तरीके से रखना उचित नहीं है । इससे उनकी वास्तविकता का अपहरण हो जाएगा । इन घटनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके जरिए लंबे समय से उपेक्षित मानवेतर तत्वों की मौजूदगी और उनकी निकटता के बारे में हम सचेत हुए हैं । इनके कारण हमें पता चल रहा है कि मनुष्य कभी अकेला नहीं था । जिन चीजों को वह अपनी संपदा मानता रहा है उनमें अन्य प्राणियों का भी साझा है । लोग समझ रहे हैं कि जंगल जैसी कुछ चीजें हमारी चिंतन प्रक्रिया में प्रविष्ट हो सकती हैं । लगता है कि धरती ने भी देकार्तीय द्वैत पर टिकी हमारी सोच को संशोधित करने का बीड़ा उठा लिया है जिसके तहत बुद्धि और कर्तापन मनुष्य तक सीमित कर दिया जाता था और अन्य सभी सजीव चीजों को उनसे रहित मान लिया जाता था । इसका मतलब है कि मानवेतर ताकतें हमारी सोच में हस्तक्षेप करने में सक्षम रही हैं और हमारे अनजाने वे इसे आकार भी देती रही हैं । इन संभावनाओं का संबंध साहित्यिक कथा लेखन से है । वैसे तो उपन्यासों में भूत प्रेतों की उपस्थिति रही है लेकिन जलवायु परिवर्तन से उद्भूत चीजों और अतिप्राकृतिक तत्वों में भेद है । भूत प्रेत फिर भी अतीत के मनुष्य होते हैं लेकिन तूफान आदि का मानव समाज से कोई रिश्ता नहीं दिखाई देता है । लेकिन ये प्राकृतिक घटनाएं भी तो मानव आचरण के ही संचयी परिणाम हैं । पुराने जमाने की प्राकृतिक घटनाओं के मुकाबले वर्तमान समय की घटनाओं से हमारा ज्यादा गहरा रिश्ता है । हमारे ही कृत्य अकल्पनीय रूपों में हमारे पास लौट आए हैं । साहित्य जिस नजर से प्रकृति को देखने का आदी रहा है उससे वैश्विक ताप वृद्धि जनित घटनाओं को देखना कठिन है । प्रकृति को हम सुरम्य समझते हैं वह इतनी बलवान, प्रचंड और खतरनाक तरीके से उठ खड़ी हुई है कि लयात्मक या रोमांटिक मुद्रा में उसके बारे में लिखना प्राय: असंभव हो गया है । इन हालात की अभिव्यक्ति के लिए नई भाषा की जरूरत है ।
इसी क्रम में अमिताभ 2004 में आई सुनामी की चर्चा करते हैं । इसके बारे में लिखने के लिए वे अंडमान-निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर गए थे । शहर शरणार्थियों से भरा हुआ था लेकिन तबाही बहुत नहीं हुई थी । सेना के वायुयान से हालात को निकट से देखने वे निकोबार गए । वहां समुद्र के किनारे मलक्का नामक कस्बे में घरों के फ़र्श ही रह गए थे, कहीं कहीं दीवारों के ठूंठ खड़े थे । इसके विपरीत नारियल के पेड़ सही सलामत झूम रहे थे । विचित्र बात यह दिखाई पड़ी कि तबाही किनारे से केवल आधे मील की दूरी तक हुई थी । जो लोग अधिक संपन्न थे उन्होंने अपने आवास समुद्र के किनारे बनाए थे इसलिए असर उन्हीं पर अधिक पड़ा था । इन मध्यवर्गीय शिक्षित लोगों को यकीन था कि असंभवप्राय घटनाएं तो कल्पनालोक में घटती हैं । वायुसेना के क्वार्टरों में बड़े अधिकारियों के मकान समुद्र के नजदीक बने थे, छोटे अधिकारी सुरक्षित दूरी पर रहते थे । जब सुनामी आई तो कमांडर का घर सबसे पहले धराशायी हुआ । सेना का यह आवासीय पैटर्न राजकीय अभियंताओं ने बनाया था । सेना और सरकार के सहयोग से बसावट के इस विक्षेप को अंजाम दिया गया था । जिन्होंने यह नक्शा तैयार किया था उनके लिए स्वर्ग में खास जगह आरक्षित होनी चाहिए ! यह नक्शा औपनिवेशिक दिमाग की उपज था । उसी दिमाग ने बाम्बे, मद्रास, न्यूयार्क, सिंगापुर और हांगकांग जैसे नगरों को समुद्र के तट पर बसाया था । समुद्र के तट पर बसना समृद्धि और शिक्षा का प्रतीक बन गया था । समुद्र के किनारे होने से संपत्ति कीमती हो जाती थी । जल के पास बसने का औपनिवेशिक स्वप्न पूरी दुनिया में मध्यवर्गीय जिंदगी में समा चुका है । हालांकि पुराने जमाने में लोग भरण पोषण की सुविधा के लिए समुद्र में जाते थे लेकिन स्थायी निवास समुद्र से दूर बनाते थे । पुराने जमाने के यूरोपीय नगर समुद्र से थोड़ा हटकर नदी या घाटी के किनारे बसे हुए हैं । एशियाई देशों में भी यही दिखाई पड़ता है । लगता है कि पुरानी दुनिया में समुद्र के क्षोभ से बचने के लिए सुरक्षा सहज बोध का अंग था । सोलहवीं सदी में जब यूरोप का विश्वव्यापी प्रसार शुरू हुआ तो भी यह सावधानी बरती जाती थी । सत्रहवीं से उन्नीसवीं सदी के दौरान औपनिवेशिक नगर निर्माण में समुद्र की निकटता को वरीयता दी गई और अब यही निर्माण जलवायु परिवर्तन के सीधे निशाने पर आ गए हैं । 1660 दशक में यूरोपीय साम्राज्य द्वारा निर्मित होने के कारण मुम्बई और न्यूयार्क अनेक भिन्नताओं के बावजूद इस मामले में समान हैं ।
2012 में न्यूयार्क में सैंडी तूफान की तबाही के बाद अमिताभ घोष ने मुम्बई की भौगोलिक विचित्रता के बारे में सोचना शुरू किया । उन्हें फिर याद आया कि मुम्बई तो बंगाल की खाड़ी के मुकाबले अरब सागर के किनारे है और अरब सागर में कोई तूफान बहुत दिनों से नहीं आया है । 2004 की सुनामी भी भारत के पूर्वी हिस्से को प्रभावित कर सकी थी । फिर उन्होंने पश्चिमी तट पर तूफानों और भूकम्प के बारे में जानने की कोशिश शुरू की । अगर इस क्षेत्र में बहुत दिनों से ऐसा कुछ नहीं हुआ है तो निकट भविष्य में ऐसा होने की संभावना बढ़ जाती है । पिछले एकाध दशक में इस इलाके में भी तूफानों के संकेत मिले हैं । 2007 में अरब सागर में आए तूफान का असर ईरान, ओमान और पाकिस्तान पर पड़ा था । पता यह भी चला कि 1618 में पहली बार बाम्बे में बादल फटने और तूफान की घटना हुई थी । इसमें दो हजार लोग मारे गए थे । फिर 1740 में भीषण तूफान आया । इसके बाद 1783 में आए तूफान में 400 लोग मरे । उन्नीसवीं सदी में भी समुद्री तूफान आए जिनमें सबसे भयंकर 1854 में आया था । इसके बाद किसी बड़ी हलचल की सूचना नहीं मिलती लेकिन अब बदलाव आ रहे हैं । 2009 में तूफान आया था और 2015 में पहली बार इस इलाके में बंगाल की खाड़ी से अधिक हलचल दिखाई पड़ी है । मुम्बई में पहले जब तूफान आते थे तो शहर की आबादी खास नहीं थी । अब इसकी विराट आबादी के चलते भारी बरसात भी मुश्किल पैदा कर दे रही है । 26 जुलाई 2005 को आई बारिश में 500 लोग मरे और लोगों को महसूस हुआ कि मुम्बई में जिंदगी दुबारा पहले जैसी नहीं रहेगी । लेकिन दस साल बाद फिर से जब भारी बारिश का कहर बरपा तो 2005 के मुकाबले पानी कुल एक तिहाई बरसने के बावजूद नजारा वैसा ही दिखाई पड़ा । मुम्बई में तूफान की तैयारी उस तरह की नहीं है जिस तरह की तैयारी बंगाल की खाड़ी वाले हिस्से में है । मियामी और अन्य तटीय नगरों की तरह ही मुम्बई में भी कीमती इमारतें उसी इलाके में बन रही हैं जिधर समुद्री तट है । अगर खरीदारों को खतरे की सूचना दी जाएगी तो संपत्ति की कीमतें घटनी तय है । पिछले दो दशकों के वैश्वीकरण के दौरान भू संपदा के मालिकान की ताकत में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी आई है । खतरों से आंख मूंदकर ही विकास हो रहा है । मुम्बई के साथ खतरे की सबसे बड़ी बात ट्राम्बे स्थित भाभा परमाणु संयंत्र है । थोड़ी दूर तारापुर में एक और परमाणु संयंत्र है । इन्हें समुद्र के किनारे ठंडा रखने के लिए बनाया जाता है लेकिन जलवायु परिवर्तन के मद्दे नजर ये बहुत बड़ी मुसीबत बन गए हैं । जलवायु परिवर्तन से पैदा हालात से व्यक्तिगत स्तर पर निपटना कठिन है इसके लिए सरकारों की योजना की जरूरत है । चीन या हालैंड जैसी सरकारों के अलावे और कोई इस दिशा में सोच भी नहीं रहा है ।
औपनिवेशिक नगरों की स्थापना शुरुआती वैश्वीकरण के दौरान हुई थी । इनके साथ पश्चिम की समृद्धि बढ़ाने वाला व्यापार भी जुड़ा हुआ है । इन नगरों ने उन्हीं प्रक्रियाओं के चालक की भूमिका निभाई है जिससे अब इन्हें खुद ही खतरा पैदा हो गया है । शायद इसीलिए इन नगरों में शुरू में बसने वालों ने अपने मूल निवास छोड़ने में हिचक महसूस किया था । पारसी लोग सूरत और नवसारी छोड़कर बाम्बे नहीं आना चाहते थे इसलिए उन्हें आर्थिक लोभ देना पड़ा । इसी तरह चीन में किंग वंश के अधिकारियों को हांगकांग बसाने के अंग्रेजों के फैसले पर अचरज हुआ था कि ऐसी डांवाडोल जगह पर आवास कैसे बनाए जा सकते हैं । धीरे धीरे पीढ़ियों से अर्जित ज्ञान को किनारे करके लोग समुद्र के पास बसने लगे । फ़ुकुशिमा में मध्य युग में समुद्री तट पर पत्थरों की बाड़ लगाकर चेता दिया गया था कि इसके बाद न बसें फिर भी न केवल बसावट बनी बल्कि वहीं परमाणु संयंत्र लगा दिया गया । हालांकि प्रत्येक संस्कृति में जल के साथ प्रलय जैसी धारणाओं की मौजूदगी चेतावनी के रूप में थी फिर भी औपनिवेशिक आधुनिकता की आंधी में इन्हें साहित्यिक कल्पना बताकर किनारे किया गया । इनका लोप न केवल नए नगरों के संस्थापकों के दिमाग से हुआ बल्कि साहित्यिक कल्पना के क्षितिज से भी ये गायब हो गए । पश्चिम में भी साहित्य की दुनिया में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से पहले प्रकृति की भीषणता और विनाशक शक्ति कम नहीं हुई थी । लेकिन उपनिवेश के चालकों और आधुनिक नगरों के संस्थापकों ने इससे काफी पहले पृथ्वी की विध्वंसक शक्ति के प्रति उपेक्षा अर्जित कर ली थी । इसकी छानबीन के क्रम में अमिताभ खास तरह की चिंतन प्रक्रिया की पहचान करते हैं जिसके तहत चीजों को निरंतरता में नहीं देखा जाता, उन्हें संबद्ध विराटता से विच्छिन्न कर दिया जाता है ।
उपन्यास के भीतर से इस प्रक्रिया को समझने के लिए वे विभिन्न उपन्यासों की बात करते हुए बताते हैं कि उपन्यास किसी स्थान के टुकड़े को चुनता है जहां वह कहानी को अवस्थित करे, इसके लिए उस स्थान को उसकी शेष पारिस्थितिकी से अलगाया जाता है । यह स्थान सीमित होकर राष्ट्र-राज्य मात्र रह गया है । इसी तरह का बरताव काल के साथ भी किया जाता है । महाकाव्यों के विपरीत उपन्यास में युगों या अब्दों की समय सीमा नहीं अपनाई जाती, पूरी कहानी को कुछेक पीढ़ियों के जीवनकाल में समाप्त करना पड़ता है । जलवायु परिवर्तन हमारे सामने सोचने की इस आदत के लिए चुनौती पेश कर रहा है । पृथ्वी में होने वाले बदलाव अब आपको निरंतरता और विराटता में ही स्पष्ट हो सकते हैं । सुंदरबन को डुबोने वाला पानी मियामी तट को भी प्लावित कर रहा है । चीन के साथ पेरू में भी रेगिस्तान बढ़ रहा है । दावानल आस्ट्रेलिया के साथ टेक्सास और कनाडा में भी फैल रहा है । मौसमी और भूगर्भीय ताकतें हमारे जीवन को हमेशा से प्रभावित करती रही हैं लेकिन उनका दबाव इतना अनवरत और प्रत्यक्ष कभी नहीं रहा था । उनका कहना है कि पिछली दो सदियों में हमने विचारों और उनकी अभिव्यक्ति में मानवेतर तत्वों को जिस तरह बहिष्कृत कर रखा था वह समाप्त हो चला है ।
इन मानवेतर तत्वों को साहित्य, खासकर कथा में प्रवेश करने से रोकने के लिए हमने विज्ञान कथा को साहित्य की मुख्य धारा से बाहर कर दिया है । यह अलगाव किसी दिन अचानक नहीं, धीरे धीरे और क्रमश: हुआ है । फिर भी इसका संबंध एक घटना से है । 1815 में बाली से 300 किलोमीटर पूरब भूकम्प के चलते ज्वालामुखी फूट पड़ा था । लावा और धूल सारी दुनिया में छा गया । सूरज छिप गया और तापमान तीन डिग्री से छह डिग्री तक नीचे गिर गया । आगामी अनेक वर्षों तक जलवायु की गड़बड़ी जारी रही । दुनिया के अनेक हिस्सों में 1816 को गरमी रहित वर्ष माना जाता है । इसी साल बायरन और शेली परिवार जेनेवा में घूमने गया था । बारिश में घिरे होने से उन्होंने भूतों की कहानियां लिखने का फैसला किया । मेरी शेली ने फ़्रैंकस्टीन लिखना शुरू किया । 1818 में छपने पर इस उपन्यास की बड़ी चर्चा हुई । उस समय इसे विज्ञान कथा नहीं माना गया था । बाद में इसे पहली विज्ञान कथा माना गया । हमें जानना होगा कि आधुनिकता में आखिर क्या ऐसा था कि साहित्य की मुख्य धारा से विज्ञान कथा को अलगाने की जरूरत पड़ी । ब्रूनो लातूर का कहना है कि आधुनिकता प्रकृति और संस्कृति के बीच काल्पनिक विभाजन पैदा करने पर आधारित है । इसमें प्रकृति को विज्ञान के हवाले कर दिया जाता है और संस्कृति से उसे दूर कर दिया जाता है । इस विभाजन का इतिहास अपने आपमें एक महाकाव्य है । हालांकि साहित्यिक संस्कृति की निगाह से देखने पर पता चलता है कि इस विभाजन का लगातार विरोध हुआ है । यह विरोध कविता में ज्यादा हुआ है, उपन्यास में कम । आधुनिकता के आरम्भ में साहित्य और विज्ञान में दूरी नहीं, निकटता थी । उन्नीसवीं सदी में भी यह हेल मेल जारी रहा था । इसके पक्ष में ढेर सारे प्रमाण अमिताभ ने गिनाए हैं । बाद में शुद्धीकरण के उत्साह में दोनों के भीतर से मिश्रित चीजों को हटाया गया । इसी क्रम में विज्ञान कथा को साहित्य की मुख्य धारा से बाहर करने की जरूरत पड़ी । सिर्फ़ विधाओं की सफाई के लिए ही इस विभाजन की उपयोगिता है । फिलहाल इस विभाजन के खत्म होने की आशा अमिताभ घोष को नहीं है । उनको लगता है कि जैसे जैसे इस विभाजन पर सवाल उठेंगे गंभीर साहित्य के संरक्षक उतना ही ऊंची दीवार खड़ी करते जाएंगे । इस विभाजन के चलते साहित्य को ही नुकसान पहुंचा है । वैसे जलवायु परिवर्तन की अभिव्यक्ति के लिए नई विधा भी पैदा हो रही है जिसमें भविष्य के गर्भ में निहित तबाहियों की कहानी कही जा रही है लेकिन मानव जनित जलवायु परिवर्तन तो हालिया अतीत और वर्तमान को भी समेटे हुए है । इन्हें अब भी मौजूदा यथार्थ के मुकाबले दूरस्थ अद्भुत का ही अंग समझा जा रहा है ।
अमिताभ का कहना है कि कला के भीतर जलवायु परिवर्तन के प्रवेश पर प्रतिबंध का एक कारण इसके साथ जुड़े हुए तत्व भी हैं । कोयले की तरह काली चीज साहित्य के भीतर कैसे समाए । कोयले की भौतिकता ही स्थापित व्यवस्था के लिए चुनौती बन जाती है । पश्चिमी संसार में 1870 से प्रथम विश्व युद्ध तक जारी लोकतंत्र के प्रसार के पीछे कोयला खनिक रहे हैं । कोयले की भौतिकता से तेल की भौतिकता अलग होती है । तेल निकालने के लिए ज्यादा मजदूरों की जरूरत नहीं पड़ती इसीलिए इसके राजनीतिक प्रभाव कोयले के विपरीत रहे हैं । शायद इसीलिए अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्य के नेताओं ने बड़े पैमाने पर तेल के इस्तेमाल को बढ़ावा देने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया । सही बात यह है कि कोयला मजदूरों के जुझारू संघर्षों से भयभीत होकर ही द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कोयले की जगह तेल के इस्तेमाल पर जोर दिया जाने लगा । कला के लिए कोयले के विपरीत तेल का सौंदर्यीकरण आसान होता है । तेल के साथ चमचमाती मोटरकार और सड़क का उत्तेजक प्रसंग जुड़ा होता है । दूसरी बात यह है कि उपन्यास को हमने व्यक्ति चरित्रों से जोड़कर देखा है और सामूहिकता को इससे बाहर रखा है । असल में उपन्यास से समूह की बहिष्कृति भी बीसवीं सदी में यूरोपीय उपन्यास लेखन से बना प्रतिमान है । अन्यथा तालस्ताय से लेकर चिनुआ अचेबे तक समूह की भरपूर उपस्थिति दिखाई पड़ती है । कार्बन उत्सर्जन में त्वरण और सामूहिकता से परहेज आधुनिकता के एक खास पहलू के नतीजे हैं जो समय को एक ही दिशा में आगे जाती हुई प्रगति समझती है । लगातार और नाक की सीध में प्रगति की धारणा बीसवीं सदी की साहित्यिक और कलात्मक कल्पना को रूपायित करने वाली शक्ति रही है । ऐसी प्रगति में जीत हार निश्चित है और हार उस लेखन की हुई है जिसमें समूह की बलशाली मौजूदगी थी । इस तरह का कथा साहित्य यथार्थ के नजदीक होने के बावजूद पिछड़ेपन से जुड़ा समझे जाने के चलते पराभूत हुआ । व्यक्ति केंद्रित लेखन में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव व्यक्त नहीं हो पा रहे हैं इसीलिए जिन्हें बाहर कर दिया गया था वैसे लेखकों की प्रासंगिकता फिर से उभर रही है । असल में तो धरती नामक आलोचक ही राजनीति, अर्थशास्त्र और साहित्य में समूह की धारणा की वापसी करा रहा है ।
इसके बाद अमिताभ घोष अभिव्यक्ति के भाषिक माध्यम की सीमाओं की बात शुरू करते हैं । कुत्ते की भौं भौं, चिड़ियों की चहचहाहट और हवा की सांय सांय की आवाजें कथा के लिए रेडियो पर सुनाए जाने वाले समाचार से कम महत्वपूर्ण नहीं होतीं । शब्दों में ही चिंतन नहीं होता, छवियों की भी सोच विचार में भूमिका होती है । कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी के चलते  जलवायु परिवर्तन के बारे में कथा साहित्य के मुकाबले टेलीविजन, फ़िल्म और दृश्य माध्यम अधिक सहजता से बात कर पाते हैं । छपाई की तकनीक के आविष्कार ने भाषा की केंद्रीयता को मजबूत करने में निर्णायक भूमिका निभाई है । इस तकनीक ने पुरानी किताबों के साथ जुड़े रेखांकन आदि चित्रात्मक तत्वों को बेदखल कर दिया । यहां तक कि सजावट को भी कथा से निकालकर कला के खाते में डाल दिया गया । लेकिन इंटरनेट के आगमन ने बाजी पलट दी है और चित्रात्मक उपन्यास सामने आ रहे हैं ।
किताब के पहले हिस्से में इतनी बातें बताने के बाद अमिताभ इतिहास संबंधी दूसरे हिस्से में प्रवेश करते हैं । उनका कहना है कि जलवायु परिवर्तन के इतिहास इस हालत के लिए पूंजीवाद को जिम्मेदार ठहराते हैं । इसमें अमिताभ साम्राज्य और साम्राज्यवाद को भी समान रूप से जिम्मेदार महसूस करते हैं । हालांकि पूंजीवाद और साम्राज्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं लेकिन उनका आपसी रिश्ता सीधा सादा नहीं रहा है । अगर साम्राज्य को एक कारक के रूप में शामिल किया जाएगा तो एशिया नए हालात के केंद्र में आ जाएगा । उसकी केंद्रीयता का प्रमुख पहलू संख्या है । जलवायु परिवर्तन के शिकारों में समूची दुनिया के गरीब तो हैं ही, लेकिन उनकी सबसे बड़ी तादाद एशियाई मुल्कों की होगी । महज शिकारों के कारण नहीं बल्कि एक और वजह से संख्या का महत्व है । 1980 दशक के बाद एशियाई मुल्कों के बढ़ते उद्योगीकरण ने जलवायु परिवर्तन की गति तेज कर दी । एशियाई मुल्कों में यह बदलाव नहीं आता तो भी धरती पर जलवायु संकट देर सबेर आना ही था । आखिर जलवायु संकट के संकेत 1930 दशक से ही मिलने लगे थे । एशियाई मुल्कों के अर्थतंत्र में त्वरण से बहुत पहले 1950 दशक के उत्तरार्ध में ही वातावरण में कार्बन डाइ आक्साइड का संकेंद्रण 300 कण प्रति लाख कण तक पहुंच चुका था ।  उस समय भी पश्चिमी देशों द्वारा उत्सर्जित कार्बन इतनी तेजी से बढ़ रहा था कि वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का संकेंद्रण कम होने का नाम नहीं ले रहा था । एशियाई उद्योगीकरण के चलते संकट थोड़ा जल्दी आ पहुंचा और सबको महसूस होने लगा । इस बात को मान लेने के साथ सवाल उठता है कि एशियाई देशों में उद्योगीकरण बीसवीं सदी के आखिरी हिस्से में ही क्यों शुरू हुआ । इस सवाल का भोला सा जवाब यह दिया जाता है कि उद्योगीकरण की जनक तकनीक का आविष्कार इंग्लैंड में हुआ और उसके प्रसार के अनुरूप ही उद्योगीकरण का भी विस्तार हुआ । यह बखान उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के तापवृद्धि के इतिहास से मेल भी खाता है ।
लेकिन इस इतिहास में एक पेंच है । कार्बन सघन अर्थतंत्र के आगमन से पहले तकनीक के मामले में पुरानी दुनिया और पश्चिम में बहुत बड़ा अंतराल नहीं था । सदियों से मौजूद व्यापारिक रिश्तों के चलते विचार और तकनीक में कोई भी नयापन दूर दूर तक फैल जाता था । गहन और दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का आरम्भ भी सुदूर स्थानों पर लगभग समान समय पर हुआ । शेल्डन पोलाक ने शोध करके बताया है कि भाषाओं का बोलीकरण यूरोप और एशिया में एक साथ हुआ है । दोनों ही जगहों पर इसकी प्रेरणा भी इस्लाम के प्रसार से उपजी गतिकी थी । शोध से अब यह भी बात सामने आ रही है कि सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक दुनिया भर में तीव्र और समानांतर परिवर्तन हुए । यही समय जलवायु में भी विराट बदलावों का समय है । इससे लगता है कि आधुनिक काल से पहले के सामाजिक बदलावों की जड़ें जलवायु परिवर्तन में रही हैं क्योंकि जलवायु में बदलाव पृथ्वी के अलग अलग हिस्सों को प्रभावित करता है । जो भी हो तथ्य यह है कि आधुनिक काल से पहले यूरोप, मध्य पूर्व और भारत के बीच तकनीक और ज्ञान का आदान प्रदान तेजी से होता था । पश्चिमी ज्ञान विज्ञान के विकास में पश्चिमेतर के योगदान को धीरे धीरे स्वीकार किया जाने लगा है । उस जमाने में दार्शनिक विचारों का प्रवाह इतना तेज था कि देकार्त के देहान्त के दस बरस के भीतर ही उसके विचारों का पता मुस्लिम, जैन और हिंदू दार्शनिकों को चल गया था । इसका मतलब कि आधुनिकता का कीटाणु पश्चिम से शेष दुनिया में फैला नहीं भी हो सकता है । हो सकता है दुनिया भर में यह परिघटना एक ही समय में पैदा हुई हो । इस संभावना की चर्चा को पश्चिम की आधुनिकता ने अपनी विशिष्टता पर जोर देने के लिए दबा दिया । इसके बावजूद कम से कम जापान के मामले में पश्चिम का दावा खारिज हो जाता है । उसकी आधुनिकता पश्चिम से अलग और उसके समानांतर पैदा हुई । इस बात की व्यापक मान्यता के पीछे जापान की आर्थिक ताकत भी थी । अब चीन, भारत और अन्य अनेक देशों की आर्थिक ताकत में बढ़ोत्तरी के साथ स्पष्ट होता जा रहा है कि आधुनिकता के ढेर सारे रूप हैं जो पुराने समाज के भीतर पनपे ।
इसी तरह जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल का भी लंबा पश्चिमेतर इतिहास है । इसे भुला दिए जाने के बावजूद इस इतिहास से औद्योगिक क्रांति से पहले और तत्काल बाद की उदीयमान आधुनिकताओं के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है । चीन में कोयले का इस्तेमाल बहुत पहले से हो रहा था । तब ब्रिटेन से पहले ही चीन बड़े पैमाने के कोयला अर्थतंत्र में दाखिल क्यों नहीं हो सका । इसका जवाब शायद यह है कि ब्रिटेन की तरह चीन में कोयले के भंडार तक सुगम पहुंच नहीं थी । चीन के सिचुआन प्रांत में तेल और गैस का भी इस्तेमाल होता था । बर्मा में भी तेल का उपयोग होता था । इसकी जानकारी अंग्रेज यात्रियों को थी । कुछ अंग्रेजी कंपनियों के साथ बर्मा के शासकों ने तेल का व्यापार भी किया था । कहा जा सकता है कि आधुनिक तेल उद्योग के निर्माण की दिशा में शुरुआती कदम बर्मा में उठाए गए । लेकिन 1885 में इंग्लैंड ने बर्मा पर हमला करके उसके तेल के स्रोतों पर कब्जा कर लिया इसलिए इस शुरुआत के संभावित परिणामों के बारे में केवल कयास ही लगाया जा सकता है । अगर बर्मा आजाद होता तो वह पेट्रोलियम अर्थतंत्र में आसानी से दाखिल हो सकता था । तेल के उत्पादन का अनुभव उन्नीसवीं सदी के मध्य में बर्मा से अधिक किसी देश को नहीं था । लेकिन तेल के इतिहासकार आधुनिक तेल उद्योग की शुरुआत कर्नल ड्रेक से मानते हैं । यह भी प्रमाण है कि पश्चिमी आधुनिकता खुद के सिवा किसी और को आधुनिकता के आरम्भ का श्रेय नहीं दे सकती । पानी के जहाज के मामले में भी अमिताभ ने इस बात के प्रमाण दिए हैं कि इंग्लैंड के पहले ही भारत के लोगों को इस तकनीक की भरपूर जानकारी थी । इसी वजह से पानी के जहाजों के ज्यादातर कामगार भारतीय हुआ करते थे । कोयला और पानी के जहाज संबंधी भारतीय प्रयास अंग्रेजों ने नष्ट कर दिए । पूरब में बंगाल और पश्चिम में बाम्बे इन कोशिशों के पारंपरिक केंद्र थे । भारत के जहाजों को इंग्लैंड के बंदरों पर जाने से रोकने के लिए ब्रिटेन की संसद में कानून बनाया गया । कहने की जरूरत नहीं कि अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में औद्योगिक नवीनता के लिए पानी के जहाजों की तकनीकी वरीयता आवश्यक थी । इस क्षेत्र में भारतीय प्रतिभाओं की मौजूदगी के ढेर सारे प्रमाण अमिताभ ने दिए हैं । ब्रिटिश उद्योगों की जरूरतों के लिहाज से भारत को ढालने के लिए यहां कार्बन अर्थतंत्र की संभावना खत्म की गई और कच्चे माल की आपूर्ति के लिए इसे सौर आधारित कृषि अर्थतंत्र बनाए रखा गया । वैश्विक कार्बन अर्थतंत्र को पश्चिम के पक्ष में निर्णायक शक्ल देने में भाप की तकनीक के शुरुआती दिनों में एशिया और अफ़्रीका में यूरोपीय ताकतों की राजनीतिक और सैनिक उपस्थिति की महत्वपूर्ण भूमिका थी । उसके बाद से ही कार्बन सघन तकनीकों ने पश्चिमी ताकतों को लगातार आगे बनाए रखा जिसके चलते आधुनिकता के एक ही माडल ने बाकी रूपों को दबाकर, समाहित करके और पचाकर अपना वर्चस्व कायम कर लिया । पश्चिमी ताकतों को जीवाश्म ईंधन से हासिल बरतरी अफीम युद्ध में निर्णायक तौर पर दिखाई पड़ी जब नेमेसिस नामक जहाज के नेतृत्व में हथियारबंद जलपोतों ने तबाही मचाई थी । कार्बन उत्सर्जन शुरू से ही ताकत के साथ निकटता से जुड़ा रहा है । मुक्त व्यापार और अबाध बाजार के नाम पर लड़ा गया पहला बड़ा युद्ध अफीम युद्ध था और तबसे ही यह साफ है कि सैनिक और राजनीतिक ताकत के बिना पूंजीवादी उद्योग और व्यापार फल फूल नहीं सकते । राजकीय हस्तक्षेप इसकी बढ़त के लिए हमेशा जरूरी रहा है । सेना की मदद के बिना एशिया में स्थानीय व्यापार पर पश्चिमी पूंजी का प्रभुत्व कायम नहीं हो सकता था ।
इस इतिहास के बाद अमिताभ एक सवाल उठाते हैं कि अगर प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही साम्राज्य बिखर गया होता तो क्या एशियाई अर्थतंत्रों में पहले ही तेजी आ जाती । अगर इसका उत्तर हां है तो क्या साम्राज्यवाद ने एशियाई और अफ़्रीकी मुल्कों के आर्थिक विस्तार को रोककर जलवायु संकट को टालने में मदद की । जलवायु संकट संबंधी वैश्विक बातचीत में चीन, भारत और अन्य देशों के रुख से यही निष्कर्ष निकलता है । कार्बन अर्थतंत्र के जटिल इतिहास को मान लेने का यह मतलब नहीं कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के मामले में वैश्विक न्याय का तर्क कमजोर हो जाता है । इससे साबित होता है कि दुनिया के गरीब देश इसलिए गरीब नहीं हैं कि वे आलसी या उदासीन हैं । उनकी गरीबी कार्बन अर्थतंत्र द्वारा निर्मित विषमता का परिणाम है । कार्बन अर्थतंत्र का परिणाम संपदा है और दक्षिण के गरीबों को ऐतिहासिक तौर पर इस संपदा से वंचित रखा गया है । वितरण संबंधी न्याय की मांग है कि उन्हें इस अर्थतंत्र का अधिक लाभ मिलना चाहिए । लेकिन इस तर्क में ही भारी छल छिपा हुआ है । हमारे पास अपने ही विनाश की कीमत पर समृद्धि अर्जित करने का रास्ता बचा है ।
इसी क्रम में अमिताभ उन नेताओं और परंपराओं की याद दिलाते हैं जो असीम उद्योगीकरण के विरुद्ध एशियाई मुल्कों में सुनाई पड़ी थीं । इस सिलसिले में वे भारत में गांधी और चीन में ताओ, कन्फ़ूशियसी और बौद्ध परंपराओं का जिक्र करते हैं । पूंजीवादी आधुनिकता के इस प्रतिरोध पर धीरे धीरे काबू पाया जा सका । जिन एशियाई देशों में पहले पहल उद्योगीकरण हुआ वे पश्चिम के रास्ते पर नहीं चले । कोरिया और जापान ने अलग राह अपनाई । इन देशों में अलग अलग किस्म की पर्यावरणिक चिंता भी इसके पीछे थी । चीन की एक संतान की नीति की भी अमिताभ प्रशंसा करते हैं । अगर ये सब रुकावटें न होतीं तो खतरे का निशान बहुत पहले ही पार हो चुका होता । इस बात को भी कहा जाना जरूरी है कि भारत और चीन पर आज जलवायु बदलाव के लिए जो भी जिम्मेदारी डाली जाए, दोनों देशों में ऐसे नेता रहे हैं जिन्होंने जलवायु वैज्ञानिकों से बहुत पहले दुनिया की बहुसंख्यक आबादी द्वारा औद्योगिक सभ्यता को अपनाने के खतरों को पहचाना था । हालांकि वे अपने देशवासियों को वैकल्पिक रास्ते पर नहीं ले जा सके लेकिन जिस दुनिया में कार्बन सघन अर्थतंत्र को ही संपदा समझा जाता है वहां भौतिक त्याग के पक्ष में बोलने के लिए उन्हें यथोचित सम्मान दिया जाना चाहिए । जलवायु संबंधी भरपाई की मांग तो जायज है लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि संकट को जन्म देने में थोड़ी भागीदारी हमारी भी है ।
इस सबके बाद किताब के आखिरी हिस्से में वे राजनीति की बात करते हैं । उनका कहना है कि जलवायु परिवर्तन ने आधुनिक युग की सबसे महत्वपूर्ण धारणा यानी स्वतंत्रता के समक्ष गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है । यह धारणा समकालीन राजनीति के अतिरिक्त मानविकी, कला और साहित्य के लिए भी महत्वपूर्ण रही है । प्रबोधन के बाद से ही स्वतंत्रता के दार्शनिकों ने इसे मनुष्य केंद्रित समझा और माना कि दूसरे मनुष्यों या मानव निर्मित व्यवस्था के अन्याय, उत्पीड़न, विषमता और एकरूपता से बचाव में यह स्वतंत्रता निहित है । प्रकृति से आजादी को स्वतंत्रता का लक्षण माना जाता था । जो अपने पर्यावरण की बेड़ियों को तोड़ सकें उन्हें ही कुछ करने में सक्षम समझा गया । इतिहास तो इन्हीं का होता था अन्य लोगों के अतीत मात्र होते थे । धरती की हलचलों ने जब साबित कर दिया है कि हम कभी मानवेतर तत्वों से आजाद नहीं रहे हैं तो इन धारणाओं पर पुनर्विचार करना होगा । उनके मुताबिक यही सवाल प्रकृति से अलग मानव केंद्रित साहित्य और कला के प्रसंग में भी उठेंगे । आधुनिकता को अपनाने के चक्कर में एशियाई लेखकों ने अपनी परंपरा से नाता तोड़ लिया था । स्वतंत्रता को भौतिक से मुक्त होने के अर्थ में व्याख्यायित किया गया था । जिससे मुक्त होना था उस भौतिक में मानवेतर जगत शामिल था । इस नजरिए से सोचने में पुरानी सोच को झटका तो जरूर लगेगा । लगता है कि लेखक अपने युग का नेतृत्व करने के जोश में धरती पर मंडराते पर्यावरण संबंधी खतरे के प्रति अचेत और असावधान रहे हैं ।
ऐसा केवल लेखकों और साहित्यकारों के साथ नहीं हुआ बल्कि पूरा बौद्धिक संसार ही इसका शिकार रहा प्रतीत हो रहा है । राजनीतीकरण के बावजूद हम लोग व्यापक परिप्रेक्ष्य में जलवायु परिवर्तन के संकट के प्रति उदासीन रहे हैं । राजनीतिक गोलबंदी और जलवायु संकट के बीच यह संबंध विच्छेद सबसे अधिक दक्षिण एशिया के उन्हीं देशों में दिखाई पड़ा जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं । भारत में पर्यावरण से जुड़े ढेर सारे संगठन होने के बावजूद गोलबंदियों या बहसों में जलवायु परिवर्तन की बात नहीं सुनाई देती । पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में भी यही हाल है । यह तब है जब समूचे भारतीय उप महाद्वीप में जलवायु परिवर्तन से लोग बड़े पैमाने पर प्रभावित हो रहे हैं और इन सवालों पर सामाजिक राजनीतिक टकराव भी शुरू हो चुके हैं । पर्यावरणिक तबाही लोगों के जीवन और भरण पोषण पर असर डाल रही है लेकिन राजनीति में धर्म, जाति, भाषा और लिंग आधारित अस्मिता के सवाल जोर पकड़ते जा रहे हैं । साझा हितों और सार्वजनिक दुनिया के बीच पैदा हुई यह फांक राजनीति की प्रकृति में बुनियादी बदलाव का संकेत करती है । शायद अब राजनीति का सामूहिक निर्णय प्रक्रिया से नाता टूट चुका है ।
साहित्यिक कल्पना के बारे में भी यह सवाल उठता है । राजनीति से जुड़े होने के बावजूद वह सामूहिक जीवन के प्रश्नों से कटी क्यों है । उपन्यास को व्यक्ति से जोड़ देने के कारण शायद कथात्मक कल्पना से समूह गायब हो गया है । वे कहते हैं कि साहित्य और राजनीति को आपस में जोड़ने वाली चीज नैतिकता है । इस शब्द में थोड़ी धार्मिक छाया भी है । इसीलिए राजनीति और साहित्य में शुचिता और प्रामाणिकता महत्वपूर्ण मूल्य बन जाते हैं । अगर साहित्य को प्रामाणिक अनुभूति की अभिव्यक्ति समझा जाएगा तो कथा को झूठ ही माना जाएगा । कथा की शक्ति दुनिया को जस का तस पेश कर देने मात्र में नहीं होती, वह संभाव्य की कल्पना के लिए भी जगह बनाता है । जलवायु संकट ने मानव अस्तित्व के अन्य रूपों की कल्पना करने की चुनौती पेश कर दी है । दुनिया जैसी है उसी तरह से उसके बारे में सोचना सामूहिक आत्महत्या को दावत देना है । उसे जैसा होना चाहिए उसकी कल्पना की जरूरत है । दिक्कत यह है कि चुनौती तब उपस्थित हुई है जब कथा साहित्य किसी और काम में लगा हुआ है । राजनीति और कथा को वैयक्तिक मानने की यही कीमत और विडंबना है । इस मान्यता से संभावना और विकल्प की जगह कम हो जाती है । राजनीति से मानवेतर तत्व वैसे ही बहिष्कृत होता है । अब तो राजनीति और प्रशासन भी अलग हो चुके हैं । प्रशासन के अपने स्वतंत्र अदृश्य संस्थान कायम हो गए हैं । राजनीति बहुत कुछ प्रदर्शन में तब्दील हो गई है इसलिए सत्ता संचालन उससे बाहर होता जा रहा है । इसका ठोस उदाहरण है कि इराक युद्ध के विरोध में लाखों लोग सड़क पर उतरे लेकिन उन्हें भी युद्ध बंद होने की कोई आशा नहीं थी । इससे जाहिर हुआ कि नीतियों को प्रभावित करने की जन समाज में क्षमता नहीं बची । उसके बाद तो लगभग सभी चीजें बेकाबू हो चली हैं । नागरिकों को प्रतिनिधियों द्वारा अपने हितों के प्रतिनिधित्व की उम्मीद नहीं रह गई है । राजनीतिक यथार्थ में यह बदलाव विश्व अर्थतंत्र में पेट्रोल के दबदबे का परिणाम हो सकता है क्योंकि यह कोयले से भिन्न होता है । कोयले के मामले में मानवीय हस्तक्षेप की गुंजाइश रहती है । तेल के आगमन के बाद जनता के हाथों से ताकत निकल गई है । लोग शक्ति के उत्पादक नहीं उपभोक्ता मात्र बना दिए गए हैं । ऐसी परिस्थिति में सड़क पर जनता की लोकप्रिय इच्छा के प्रदर्शन से वास्तविक कानून निर्माण और प्रशासन का कोई लेना देना नहीं रह गया है । राजनीति से उसकी अंतर्वस्तु यानी सत्ता की शक्ति का प्रयोग निकाल बाहर कर दिया गया है और वह महज आत्माभिव्यक्ति होकर रह गई है । इसका सबसे बेहतरीन वाहक इंटरनेट है जिसमें सोशल मीडिया के जरिए आत्माभिव्यक्ति के नाना रूप उपलब्ध करा दिए गए हैं । जो जीवन था वह केवल मुजाहिरा होकर रह गया है । यह चीज संवाद से पूरी तरह अलग है क्योंकि संवाद में समीक्षा या सुधार की गुंजाइश रहती है । कारपोरेट शासन के लिए यह सबसे अच्छा वातावरण है । जलवायु परिवर्तन से इनकार के लिए तेल का व्यापार करने वाले कारपोरेट घराने बिना किसी वजह के धन नहीं देते । पश्चिमी देशों में भागीदारीपरक राजनीति की बढ़ती हुई आकांक्षा के पीछे वंचना का यही अहसास है । लेकिन इसी हालत के कारण हिंसा का सहारा लेने वाले चरम नकारपंथी आंदोलन भी पैदा हो रहे हैं । पर्यावरण के कार्यकर्ताओं की हताशा का पता इसी से चलता है कि जो समस्या व्यवस्था ने पैदा की है उसके समाधान के लिए व्यक्तियों की अंतरात्मा को जगाने की बात हो रही है जबकि जरूरत सामूहिक कार्यवाही की है । निजी नैतिकता का सवाल उठाकर हम इस व्यवस्थाजनित समस्या के हल की ओर नहीं बढ़ सकते हैं । गांधी के उदाहरण से हम नैतिक उपायों की अपर्याप्तता समझ सकते हैं । वे भारत को अंग्रेजों से तो आजाद करा सके लेकिन देश को वैकल्पिक आर्थिक रास्ते पर नहीं चला सके । बस वे सर्वभक्षी कार्बन सघन अर्थतंत्र की राह में सरपट दौड़ने को कुछ समय के लिए रोक सके । वर्तमान जलवायु संकट के समक्ष ऐसी राजनीति की सफलता की आशा व्यर्थ है । भविष्य की पीढ़ियां संकट के प्रति अचेत रहने का आरोप नेताओं और राजनीतिज्ञों पर तो लगाएंगी ही, वे कलाकारों और साहित्यकारों से यह भी कहेंगी कि वैकल्पिक संभावना तलाशने की जिम्मेदारी केवल नेताओं और नौकरशाहों की नहीं होती ।
जलवायु परिवर्तन की वैश्विक राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण कारक आज की दुनिया में अंग्रेजी की भूमिका है । अंग्रेजी अब किसी राष्ट्रीय इकाई से जुड़ी नहीं रह गई है । अब वह अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यू ज़ीलैंड की भाषा है जो जासूसी और निगरानी की संरचना को सारी दुनिया में संचालित करने वाली ताकतें हैं । जलवायु संकट में मुख्य बात यह है कि इस भाषा क्षेत्र में मुक्त व्यापार की धारणा का दबदबा है । इसलिए जलवायु परिवर्तन से इनकार सबसे अधिक इसी भाषा क्षेत्र में किया जा रहा है । लेकिन इसी भाषा क्षेत्र में इस मसले पर राजनीतिक पहल भी सबसे मजबूती से ली जा रही है । समूचे अंग्रेजी भाषा क्षेत्र में और खासकर अमेरिका में इन दोनों विपरीत प्रवृत्तियों के बीच का तनाव जलवायु परिवर्तन की सार्वजनिक राजनीति को परिभाषित कर रहा है । इस मामले में हालैंड और डेनमार्क की तरह कोई ठोस कदम उठाने या मालदीव और बांग्लादेश की तरह आस्तित्विक संकट महसूस करने की जगह अमेरिका में यह सवाल राजनीतिक ध्रुवीकरण का बायस बन गया है । दक्षिणपंथी राजनेता इसे समाजवाद और कम्यूनिज्म के साथ जोड़कर षड़यंत्र की तरह प्रचारित कर रहे हैं । इन नेताओं ने पर्यावरण वैज्ञनिकों को डराया धमकाया है । इस राजनीति को कारपोरेट घरानों और तेल के अरबपति व्यापारियों से क्षमता, प्रोत्साहन और धन मिलता है । मीडिया पर भी इनका ही कब्जा है । इसके बरक्स अमेरिका के रक्षा विभाग में जलवायु परिवर्तन से सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर गंभीरता है । अमेरिका के सुरक्षा के सबसे बड़े अफ़सर ने सीनेट को बताया कि जलवायु परिवर्तन से खाद्यान्न और ऊर्जा बाजार में उथल पुथल रहेगी, राज्य कमजोर होंगे, शरणार्थी बढ़ेंगे और दंगों, सामाजिक अशांति तथा लूटपाट में इजाफ़ा होगा । राजनेताओं के लगातार इनकार के बावजूद अमेरिका के साथ मिलकर ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया के सैनिक संस्थान जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने की तैयारी कर रहे हैं । एशियाई देशों के उभार को रोकने के लिए यथास्थिति को बरकरार रखना सबसे बड़ी समस्या हो गई है । जलवायु संकट के शरणार्थियों को देश की सीमा से बाहर रोके रखने के लिए तरह तरह की बंदिशें लगाना पश्चिमी राष्ट्र-राज्य का सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार हो गया है ।
मानवता ने अपने ही विरुद्ध लड़ाई तो छेड़ ही रखी है, धरती के साथ भी युद्धरत है । हम जिस दुनिया में रह रहे हैं उसे साम्राज्य और उसकी विषमताओं ने गढ़ा है । जलवायु संकट ने इन विषमताओं को और बढ़ाने में मदद की है । इसी मायने में जलवायु परिवर्तन के परिणाम साम्राज्य को मजबूत कर रहे हैं । अमिताभ के अनुसार जलवायु संकट के समय की घटनाओं से औपनिवेशिक समय की समानता है । उन्हीं दिनों की तरह अमीर देशों के आम नागरिकों के एक हिस्से का निहित स्वार्थ वहां के शासन को मजबूती पहुंचा रहा है । उसी समय की तरह गरीब देशों के ऊपरी तबके के स्वार्थ, शासक देश के अमीरों के साथ जुड़ गए हैं और दक्षिण के गरीबों को इस संकट की मार झेलने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है ।
किताब के अंत में अमिताभ पेरिस में हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के पाखंड का परदाफ़ाश करते हैं और बताते हैं कि पेरिस के आतंकवादी हमले ने सरकार को पर्यावरण आंदोलनकारियों के विरुद्ध दमन का बहाना मुहैया करा दिया था । पिछले दो दशकों में सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय कारपोरेट घरानों ने एक ही काम में महारत हासिल की है और वह है आंदोलनकारियों का दमन । सम्मेलन के सुरक्षित वातावरण से जो समझौता निकला उसमें जलवायु परिवर्तन का दंश झेलने वालों को हुए नुकसान की भरपाई का कानूनी रास्ता बंद कर दिया गया और अमीर देशों की खैरात का उन्हें मुहताज बना दिया गया । इस समूचे निराशाजनक वातावरण में भी कुछ सकारात्मक बातें अमिताभ को दिखाई पड़ रही हैं । सरकारों और जनता के भीतर तत्काल कुछ करने की बेताबी नजर आ रही है, वैकल्पिक ऊर्जा के ठोस समाधान उभरे हैं, दुनिया भर में इस सवाल पर सक्रियता बढ़ी है और पर्यावरण आंदोलन को कुछ जीतें भी हासिल हुई हैं । सबसे बड़ी बात कि इस मसले पर पारंपरिक राजनीतिक ढांचों से बाहर के लोगों का सरोकार गहराया है । हमारे पारंपरिक राजनीतिक ढांचों की सबसे बड़ी सीमा राष्ट्र-राज्य के हितों से उनका जुड़ाव है । अमिताभ को यकीन है कि दुनिया भर में खड़े होने वाले धर्म निरपेक्ष विरोध प्रदर्शन, जड़ता को तोड़कर बुनियादी बदलाव ले आएंगे । उनके सामने एक तो समय की कमी है । दूसरे विभिन्न देशों में कार्यकर्ताओं के दमन के लिए सुरक्षा संस्थानों ने भारी सरंजाम एकत्र कर लिए हैं । आंदोलनों, संगठनों और वैकल्पिक समुदायों को मोर्चा संभालना होगा । यही लोग नए तरह के कला और साहित्य का भी सृजन करेंगे ।                                                                                                                                                     

Monday, January 16, 2017

चुनाव के सवाल पर मार्क्स की निरंतरता में लेनिन

             
                                                     
2014 में पालग्रेव मैकमिलन से अगस्त एच निम्ज़ की किताबलेनिनस एलेक्टोरल स्ट्रेटेजी फ़्राम मार्क्स ऐंड एंगेल्स थ्रू द रेवोल्यूशन आफ़ 1905: द बैलट, द स्ट्रीट्स- आर बोथका प्रकाशन हुआ । भूमिका में लेखक ने बात यहां से शुरू की है कि रूसी क्रांति दुनिया की पहली और अकेली क्रांति है जिसमें संसद में भागीदारी का इस्तेमाल मजदूर वर्ग द्वारा राजसत्ता पर कब्जे के लिए किया गया । आज भी जो लोग सड़क और संसद के झमेले में उलझे रहते हैं उनके लिए लेनिन के क्रांतिकारी संसदवाद का महत्व असंदिग्ध है । लेखक ने चार बातें जोर देकर कही हैं । पहली तो यह कि क्रांति के लिए चुनाव और संसद का इस्तेमाल लेनिन से अधिक कुशलता के साथ किसी और ने नहीं किया । इसके लिए उन्होंने लेनिन के समस्त प्रकाशित लेखन में से 1906 से लेकर प्रथम विश्व युद्ध तक गठित चार ड्यूमाओं में रूसी सामाजिक जनवादी लेबर पार्टी को प्रदत्त नेतृत्व समेत सभी चुनावी गतिविधियों का सार प्रस्तुत किया है । यह काम आसान नहीं था क्योंकि किसानों के अलावे अन्य किसी विषय पर लेनिन ने उतनी कलम नहीं चलाई जितनी चुनाव पर । इसमें आसानी इसलिए हो गई क्योंकि अलग अलग अवसरों पर भी लेनिन ने अपने अधिकतर तर्क दोहराए हैं । दूसरी यह कि सड़क और संसद संबंधी लेनिन की नीति की जड़ें मार्क्स और एंगेल्स की राजनीति में हैं । उनके तर्कों के मूल मार्क्स और एंगेल्स की समझ में निहित हैं । मार्क्स के बारे में ज्यादातर लेखन में उनकी चुनाव संबंधी समझ पर बात नहीं की जाती लेकिन लेखक को उनका यह पहलू भी बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ । लेनिन के बारे में भी कुछ कम नहीं लिखा गया लेकिन मार्क्स-एंगेल्स के चुनाव संबंधी चिंतन में लेनिन की राजनीति की जड़ तलाशने वाली कोई किताब लेखक को नहीं दिखी । इस सिलसिले में लेखक का दावा है कि लेनिन की पीढ़ी में दूसरा कोई भी लेनिन से अधिक मार्क्स को नहीं समझ सका था । तीसरी यह कि लेनिन और दूसरे इंटरनेशनल के सामाजिक जनवादियों के बीच विभाजन प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने से पहले ही चुनाव और संसद के इस्तेमाल की सही मार्क्सवादी नीति के सवाल पर हो चुका था । इसके लिए लेखक ने लेनिन के लेखन को कालक्रमिक तरीके से देखा और महसूस किया कि लेनिन को पश्चिमी यूरोपीय मार्क्सवादियों और खुद के बीच असहमति और भिन्नता की जानकारी अच्छी तरह से थी । इस लेखन को देखने से पता चलता है कि जो औपचारिक विभाजन प्रथम विश्व युद्ध के आरम्भ में हुआ असल में वह एक दशक से जारी प्रक्रिया की परिणति था । चौथी कि चुनाव संबंधी लेनिन की नीति के चलते ही 1917 में रूस के अन्य राजनीतिक समूहों के मुकाबले बोल्शेविक आगे निकल सके । यह मार्क्स-एंगेल्स की राजनीति को गहराई से समझने के कारण संभव हुआ । इस अर्थ में रूसी क्रांति कम्यूनिस्ट आंदोलन के जनक द्वय की राजनीति की निरंतरता में घटित हुई थी । लेखक ने इन सब बातों का महत्व समसामयिक आंदोलनों के लिहाज से समझा और समझाया है । आज के अधिकतर आंदोलन सड़क और संसद का संबंध सही ढंग से न समझने के कारण ही अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पा रहे हैं । जब लेखक किसी को अपनी इस किताब की विषय वस्तु के बारे में बताते थे तो लोगों को विश्वास नहीं होता था । लेनिन की छवि इस तरह की नहीं है कि उनकी चुनाव संबंधी रणनीति को गंभीर चीज समझा जाए । इस छवि को बनाने में उनके दुश्मनों से कम योगदान उनके दोस्तों का नहीं है । लेनिन के नाम पर एक सदी तक जो कुछ हुआ दुश्मन तो उसका इस्तेमाल लेनिन की मूर्ति पर कोलतार पोतने के लिए करते ही हैं । उनकी मृत्यु के बाद विकसित नौकरशाही की जिम्मेदारी भी जान बूझकर उन्हीं पर डाल दी जाती है । लेकिन एक दशक तक का लेनिन का चुनाव और संसद संबंधी लेखन और क्रियाकलाप उनके दुश्मनों के लिए काफी असुविधाजनक है इसलिए भी उनके इस पहलू पर कम बात की जाती है ।
इस क्रम में लेखक ने इस तथ्य को उभारना जरूरी समझा है कि चुनाव के बारे में सही मार्क्सवादी नीति को सूत्रबद्ध करने के लिए लेनिन को रूसी उदारपंथियों से लड़ना पड़ा था क्योंकि वे मजदूरों और किसानों को अपनी क्रांति विरोधी राजनीति के पक्ष में लामबंद करने की कोशिश करते थे । चुनाव अभियानों के दौरान लेनिन लोकतंत्र और उदारपंथ के बीच अंतर करने पर बल देते थे । रूसी उदारपंथ की इस तीखी आलोचना के चलते भी उदारपंथी कतारों में उन्हें बहुत अच्छी नजर से नहीं देखा जाता । 1848-49 में यूरोपीय उदारपंथ की गतिविधियों की मार्क्स द्वारा की गई आलोचना से लेनिन को इस राजनीतिक प्रवृत्ति के प्रति रुख तय करने में मदद मिली थी । लेखक को यह किताब लिखने की प्रेरणा कुछ लोगों की इस मान्यता से मिली कि अल्पसंख्यक होने के कारण मजदूर वर्ग की पार्टियों को अन्य सामाजिक तबकों की पार्टियों के साथ अनिवार्य रूप से समझौता करना पड़ता है, इसके लिए उन्हें पश्चिमी यूरोपीय सामाजिक जनवादियों की तरह अपनी मांगों को कुर्बान करके सुधारवादी राजनीति करनी पड़ती है । इसी समझ और मान्यता के प्रतिवाद के रूप में लेखक ने चुनाव संबंधी बोल्शेविक नीति की छानबीन की है । लेनिन ने भी ऐसे तर्क सुने थे लेकिन उनके सामने झुके नहीं ।
चुनाव के सिलसिले में लेनिन ने जिन सवालों पर विचार किया वे हैं- अलोकतांत्रिक चुनावों में भाग लिया जाए या उनका बहिष्कार किया जाए, चुनाव अभियान कैसे चलाया जाए, चुनाव में गठबंधन किया जाए या नहीं, चुने हुए प्रतिनिधियों को पार्टी के प्रति जवाबदेह कैसे बनाया जाए, सशस्त्र संघर्ष के साथ चुनावी राजनीति का संतुलन कैसे बिठाया जाए और सबसे आगे बढ़कर मजदूर-किसान संश्रय यानी बहुसंख्यक क्रांतिकारी गठबंधन बनाने के लिए चुनावी/संसदीय प्रक्रिया का किस तरह इस्तेमाल किया जाए । इस समूची प्रक्रिया में पार्टी की अंदरूनी बहसों की छाया बनी रही । इन बहसों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक जनवाद की क्रांतिकारी और सुधारवादी धाराओं के बीच विभाजन का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है । यह विभाजन रूस में क्रांति की पहली कोशिश, उसमें हासिल पराजय, क्रांतिकारी गतिविधियों के पुनरुत्थान और प्रथम विश्व युद्ध के शुरू होने तक लगातार बना रहा । युद्ध छिड़ने पर ड्यूमा के बोल्शेविक प्रतिनिधियों को युद्ध के बारे में उनकी राय के चलते गिरफ़्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया । फ़रवरी क्रांति के बाद लेनिन ने अक्टूबर में राजसत्ता दखल हेतु सशस्त्र विद्रोह के लिए सही समय चुनने और बोल्शेविकों की ताकत तौलने में चुनाव संबंधी एक दशक के अनुभव का लाभ उठाया । तथ्यों से सिद्ध होता है कि अक्टूबर क्रांति में बोल्शेविक नेतृत्व की सफलता के पीछे भी चुनाव संबंधी मार्क्स-एंगेल्स की समझदारी का योगदान था । पूरी किताब में लेखक ने कोशिश की है कि पाठक को लेनिन की आवाज सुनाई पड़े, लेखक की व्याख्या नहीं ।

किताब के लेखन का समय लेखक के ध्यान में हमेशा बना रहा है । 2010 में दुनिया के अलग अलग मुल्कों में उठा तूफान तीन दशकों की भारी चुप्पी के बाद आया है । इस तूफान का मेल 250 साल पुरानी पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में पैदा हुए सबसे गंभीर संकट के साथ हो गया है । इसमें उठान और गिरावट के दौर आएंगे लेकिन 1905 में 35 साला लेनिन की तरह ही इस समय के जिम्मेदार नेताओं को अपने अनुभवों से सीखना होगा । लेखक ने यह किताब भविष्य के इन्हीं लेनिनों को समर्पित की है इस उम्मीद के साथ कि वर्तमान समय ऐतिहासिक साबित होगा ।

Wednesday, January 4, 2017

वोट के लुटेरे

                              
                                               
2012 में सेवेन स्टोरीज से ग्रेग पलास्त की किताब ‘बिलिनेयर्स ऐंड बैलट बैंडिट्स: हाउ टु स्टील ऐन एलेक्शन इन 9 इजी स्टेप्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब की भूमिका राबर्ट एफ़ केनेडी जूनियर ने लिखी है । किताब में शामिल कार्टून टेड राल के बनाए हुए हैं । किताब की विषय वस्तु अमेरिकी चुनावों पर थैलीशाहों का बढ़ता कब्जा है ।
भूमिका से पता चलता है कि इस बार ट्रंप के चुनाव में जो कुछ खुलेआम हुआ उसकी प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी थी । इस प्रक्रिया का एक घटक वहां के सर्वोच्च न्यायालय का सिटिज़ेन्स यूनाइटेड के मामले में 2010 का यह फैसला है कि कारपोरेशन व्यक्ति हैं और तब निश्चित है कि धन ही उनकी बोली होगी । स्वाभाविक है कि जिसके पास जितना अधिक धन होगा लोकतंत्र में उसकी आवाज सबसे ऊंची होगी और गरीब अमेरिकियों की आवाज सुनाई नहीं देगी । सबूत यह है कि पिछले दो दशकों के चुनावों में वही प्रत्याशी विजयी हुए जिन पर सबसे अधिक धन लगाया गया था । लेखक को लगता है कि मजबूत मध्यवर्ग के आधार पर टिका हुआ अमेरिकी लोकतंत्र धीरे धीरे अरबपतियों के अल्पतंत्र में बदलता जा रहा है ।
इस माहौल में भूमिका लेखक को अपने बचपन की याद आती है जब उन्हें लैटिन अमेरिका में अनेक देशों के स्थानीय दलालों के सहयोग से चंद धनी बाहरी लोगों के हाथों में देश के शासन की बागडोर दिखाई पड़ती थी । देश की जमीन और तमाम संसाधन इन्हीं थैलीशाहों के कब्जे में होते थे और राष्ट्रपति का पद इनके बीच ही घूमता रहता था । इस तरह के शासन को चलाने के लिए जनता को धोखे में रखने वाले प्रचारतंत्र, प्रेस पर नियंत्रण, चुनाव में धोखाधड़ी, जनता के संगठनों पर हमले और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर शक्तिशाली और क्रूर पुलिस राज्य को बरकरार रखने की जरूरत होती थी । अब उन्हें अपना देश अमेरिका भी उसी तरह का बनता नजर आ रहा है । उनके मुताबिक देश ऐसी व्यवस्था की गिरफ़्त में आता जा रहा है जिसमें देश के प्रति किसी भी निष्ठा से रहित पारदेशीय बहुराष्ट्रीय निगमों के व्यापारिक हितों की सेवा राजनीति का सबसे बड़ा काम हो गया है । इन ताकतों का सब तरह के संचार माध्यमों पर कब्जा हो गया है । अमेरिका के इतिहास में पहली बार कारपोरेट घरानों और मीडिया के हित एक दूसरे के साथ नत्थी हो गए हैं ।
कारपोरेट घरानों के हाथ में अकूत धन और मीडिया के आ जाने के बाद वे अमेरिकी लोगों को वोट देने से रोककर प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र को स्थायी रूप से अपंग बना देने की साजिश कर रहे हैं । तमाम तरह के ऐसे भेदभावपरक कानून बनाए जा रहे हैं जिनके कारण गरीब, अल्पसंख्यक समुदाय, वरिष्ठ नागरिक और विद्यार्थी मतदान के अधिकार से वंचित होते जा रहे हैं । मतदाताओं का दमन कानूनी अपराध है और इससे बचने के लिए विशेष समुदाय के मतदाताओं को बड़े पैमाने पर जेल में डालकर उनको मताधिकार से वंचित करने का महीन रास्ता अपनाया जाता है । विभिन्न तरह के पहचान पत्रों को अनिवार्य बनाकर भी यह काम किया जाता है ।
1778 में अमेरिका एकमात्र लोकतांत्रिक देश था । आज 166 देशों में लोकतांत्रिक सरकारें हैं । लेखक ने व्यंग्यपूर्वक लिखा है कि हम अमेरिकी एक ओर तो अफ़गानिस्तान और इराक़ में लोकतांत्रिक सरकार बनवाने के लिए कत्लेआम कर रहे हैं और दूसरी ओर अपने ही देश में लोगों को वोट देने से रोकने के तमाम उपाय खोज रहे हैं और उन्हें बेरहमी से लागू कर रहे हैं । इसी सिलसिले में कार्ल रोव ने बताया कि अगर अमेरिका के एक प्रतिशत अश्वेत मतदाताओं में से चौथाई को मतदान से रोक दिया जाए तो चुनाव में बाजी पलटी जा सकती है ।
अरबपति लोग विभिन्न प्रत्याशियों पर किसी देशभक्तिपूर्ण भावना के तहत धन नहीं लुटाते बल्कि वे अमेरिकी जनता के सभी आदर्शों, सपनों और आकांक्षाओं पर प्रहार करने के मकसद से राजनेताओं को खरीदने के लिए यह निवेश करते हैं । सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त फैसले को जान मैककेन ने इक्कीसवीं सदी का सबसे बुरा फैसला कहा था । इस फैसले ने प्रत्याशियों पर पूंजी लगाने से कारपोरेट घरानों को रोके रखने के सौ सालों के कानूनी और वैधानिक इतिहास को मटियामेट कर दिया । उनका दिया हुआ चंदा असल में लोकतंत्र का स्वामित्व हासिल करने के लिए चुकाई गई फ़ीस होता है । लेखक के मुताबिक चुनाव अभियान में पूंजी लगाने की इजाजत कानूनी घूसखोरी की अनुमति देना है । कारपोरेट घरानों के चंदे की बदौलत चुनाव जीतने वाले राजनेता बाद में सर्वसुलभ हवा, पानी, जंगल, पहाड़ और सार्वजनिक जमीन को निजी मुनाफ़ाखोरी के लिए जनता से छीनकर कारपोरेट घरानों को सौंप देने का षड़यंत्र करते हैं । तेल, कोयला, गैस और परमाणु ईंधन की खरीद बिक्री का काम करने वाले ये व्यापारी पर्यावरण की परवाह किए बिना धरती और वातावरण को बरबाद करके नरक से भी इन सब चीजों को खींच निकालते हैं और मनुष्य के लिए जिंदगी जीना सबसे कठिन काम बना देते हैं । दूसरी ओर शेयर बाजार ऐसा जुआघर बन चुका है जहां जनता का धन अबाध रूप से लगातार बैंकों के जरिए इन थैलीशाहों की जेब में पहुंचता रहता है ।
लेखक को लगता है कि अमेरिका अब वैसी ही सरकारें बनाता जा रहा है जैसे शासन से छुटकारा पाने के लिए उसने आजादी की लड़ाई लड़ी थी । यूरोपीय बादशाहतों की मनमानी से भागकर इस देश के बाशिंदों ने आजादी मिलने पर लोकतंत्र को अपनाया था । लोकतांत्रिक शासन की इस परंपरा को ध्वस्त करने के लिए जनता को मतदान से वंचित करना पहला कदम है । लोकतंत्र का नाश करने वाली मशीन को ऐसा करने की ताकत पूंजी से मिलती है । लोगों को मतदान के अधिकार के साथ ही साफ हवा, साफ पानी, व्यापार में ईमानदारी और पारदर्शिता तथा कारगर लोकतांत्रिक शासन का भी अधिकार है । लेखक ने नागरिकों से इस अधिकार को वापस हासिल करने की लड़ाई छेड़ने की अपील की है ।