Friday, September 26, 2014

दर्शन की दुनिया में मार्क्स का प्रवेश

                   
                                             
2000 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से पहली बार ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शनयोजना के तहत मार्क्स पर पीटर सिंगर द्वारा 1980 में लिखी और 1996 में पुनर्प्रकाशित किताब को छापा गया है । इसमें लेखक ने पहले अध्याय में संक्षिप्त जीवनी लिखने के बाद दूसरे अध्याय में हेगेल के दर्शन में मार्क्स द्वारा किए गए रूपांतरण की प्रक्रिया को अच्छी तरह से समझाया है । इस प्रक्रिया पर ध्यान देने से यह भी स्पष्ट होता है कि विचारकों के चिंतन को सामाजिक शक्तियों के प्रतिनिधि समय की मांग के अनुरूप इस्तेमाल कर लेते हैं । लेखक के मुताबिक हेगेल की किताब ‘फेनोमेनोलाजी आफ़ माइंड’ में माइंड के लिए जिस जर्मन शब्द का उपयोग किया गया है उसका अंग्रेजी अनुवाद स्पिरिट या आत्मा के बतौर किया जाता है । हेगेल ने इसका प्रयोग ब्रह्मांड के आध्यात्मिक पहलू के रूप में किया है और इस मामले में यह विश्वात्मा जैसी चीज होगी । मेरी, आपकी या अलग अलग चेतन प्राणियों की आत्मा इसी विराट आत्मा की विशेष, सीमित अभिव्यक्तियां होती है । इस पर विवाद है कि हेगेल की यह विश्वात्मा ईश्वर है या समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त चेतना है । हेगेल की किताब में व्यक्ति की आत्मा से इस विश्वात्मा तक के विकास को समझने की कोशिश की गई है । यह विकास द्वंद्वात्मक होता है ।
द्वंद्वात्मकता को स्पष्ट करने के लिए वे एक रूपक का सहारा लेते हैं । मान लीजिए दो स्वतंत्र मनुष्य हैं जो विश्वात्मा के भिन्न भिन्न रूप के बतौर अपनी समानता नहीं पहचानते । उनमें से एक दूसरे को अपनी शक्ति की सीमा या चुनौती समझेगा । उनमें संघर्ष होगा जिसमें जीतने वाला व्यक्ति हारने वाले को गुलाम बना लेगा । मालिक और गुलाम के रिश्ते में उनकी स्थिति बदलती रहती है । पहली नजर में मालिक ही सब कुछ महसूस होता है लेकिन असल में गुलाम काम करता है और अपनी मेहनत से प्रकृति को बदलता है । प्रकृति पर अपनी चेतना की दावेदारी में गुलाम को संतुष्टि मिलती है और वह आत्म-चेतना विकसित करता है । मालिक गुलाम पर निर्भर होता जाता है । गुलाम को मुक्ति मिलती है और दो स्वतंत्र मनुष्यों के बीच का शुरुआती संघर्ष समाप्त हो जाता है ।
अलग अलग मनुष्यों की आत्मा को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि वे विश्वात्मा का अंग है । इसी स्थिति को हेगेल आत्मा का अपने आपसेअलगावकहते हैं । अर्थात कोई एक मनुष्य जिसमें विश्वात्मा का एक अंश है वह उसी विश्वात्मा के दूसरे अंशों यानी दूसरे मनुष्यों को पराया और शत्रु समझने लगता है, एक ही विराट अखंडता का अंश नहीं मानता । इस स्थिति में वह स्वतंत्र नहीं हो सकता क्योंकि उसे अपने संपूर्ण विकास की राह में विरोध और बाधा का अनुभव होता है । आत्मा तो असल में सर्वव्यापी और अनंत है इसीलिए यह विरोध-बाधा सिर्फ़ ऊपरी बात है । यह होता ही इसलिए है क्योंकि आत्मा अपने आपको नहीं पहचान पाती, जो उसी के अंश हैं उन्हें पराया और शत्रु समझती है । ये परायी शक्तियां ही आत्मा की स्वतंत्रता को सीमित कर देती हैं क्योंकि यदि आत्मा को अपनी अनंत शक्तियों का ज्ञान नहीं होगा तो वह दुनिया को अपने मुताबिक संगठित करने के लिए इन शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर सकेगी ।
हेगेल के दर्शन में आत्मा का द्वंद्वात्मक विकास स्वतंत्रता की ओर होता है । स्वतंत्रता की यह चेतना ही विश्व इतिहास है । बहुत दिनों तक उनके दर्शन को अनुयायी नहीं मिले लेकिन मार्क्स की नौजवानी में हेगेल कि विश्वात्मा को समग्र मानव जाति के अर्थ में व्याख्यायित किया जाने लगा था । इसे मनुष्य की स्वतंत्रता की दिशा में प्रगति के रूप में समझा जाने लगा । मार्क्स ने अपने शोध की भूमिका में लिखाअगर किसी दार्शनिक ने सच में समझौता किया है तो उसके अनुयायियों का कर्तव्य है कि वे उसके चिंतन के सार का इस्तेमाल करते हुए उसकी सतही अभिव्यक्तियों को उजागर करें। युवा हेगेलपंथियों के लिए सतही अभिव्यक्ति प्रशियाई राज्य के लिए हेगेल का समर्थन था और उनके चिंतन का सार मनुष्य की आत्म-चेतना की स्वतंत्रता की आकांक्षा थी । इन हेगेलपंथियों में ब्रूनो बावेर से मार्क्स की करीबी थी । बावेर के लिए पारंपरिक ईसाई धर्म ही वह प्रमुख भ्रम था जो मानव की आत्म-चेतना की स्वतंत्रता में बाधा बना हुआ था । उसके विरुद्ध लड़ाई में दर्शन का हथियार के रूप में इस्तेमाल होना था । हेगेल ने ही ईसाई धर्म को अलगाव का एक रूप कहा था । उनकी इसी मान्यता के सहारे बावेर ने घोषित किया कि ईश्वर को मनुष्य ने जन्म दिया है और अपनी ही रचना से उसने खुद को अलग कर लिया है । मनुष्य की मुक्ति के लिए उसके इस अलगाव को खत्म करना जरूरी है और इसके लिए धर्म की आलोचना करनी होगी । धर्म के विरुद्ध हथियार के बतौर हेगेल की पद्धति का सबसे तीखा इस्तेमाल फ़ायरबाख ने किया ।

एंगेल्स पर फ़ायरबाख की ‘एसेंस आफ़ क्रिस्चियनिटी’ का अधिक गहरा असर पड़ा क्योंकि मार्क्स तो बावेर के तर्कों से परिचित थे ही फिर भी फ़ायरबाख के परवर्ती लेखन से वे भी प्रभावित हुए । कारण कि फ़ायरबाख धर्म की आलोचना तक ही नहीं रुके । उन्होंने हेगेल के दर्शन की भी आलोचना की लेकिन यह आलोचना बहुत कुछ उनके रूपांतरण के तरीके से की गई थी । हेगेल की पद्धति के सहारे ही उनके समस्त दर्शन की आलोचना की गई थी । हेगेल ने आत्मा को इतिहास की चालक शक्ति माना था और मनुष्य को उसकी अभिव्यक्ति । फ़ायरबाख के अनुसार ऐसा करके उन्होंने मनुष्य के सार को उससे बाहर स्थापित कर दिया था जिसका मतलब कि धर्म की तरह यह मान्यता भी मनुष्य को उसके सार से अलग करती है । हेगेल को फ़ायरबाख ने उलट दिया । उनके दर्शन के केंद्र में मनुष्य आ गया । मार्क्स ने इसी बात को और आगे बढ़ाते हुए मनुष्यों की तात्कालिक स्थिति की आलोचना के लिए हेगेल की पद्धति का उपयोग किया ।

Thursday, September 11, 2014

हिंदी में प्रगतिशील आंदोलन : अध्यापन हेतु कुछ बातें

            
                                                        
हिंदी में प्रगतिशील आंदोलन की स्थिति को समझने के लिए उसके जन्म के समय की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों पर ध्यान देना जरूरी है सन 1929 से 1935 तक चलने वाली विश्व महामंदी का प्रभाव भारत पर भी पड़ा था उसी दौर में रूस की योजनाबद्ध आर्थिक प्रगति की कथा भी पढ़े-लिखे लोगों के लिए अनजानी थी जर्मनी में हिटलरी नाजीवाद के उदय और रूस में जोसेफ स्तालिन के नेतृत्व में समाजवादी निर्माण की प्रगति ने दोनों दुनियाओं (पश्चिमी और पूर्वी) की इन व्यवस्थाओं (पूंजीवादी और समाजवादी) के इस वैषम्य को दुनिया भर में उजागर कर दिया जब हिटलर ने रूस पर हमला किया तो दुनिया भर के मार्क्सवादी साहित्यकारों ने प्रयास करके इसे मानवता विरोधी युद्ध साबित करने में सफलता हासिल की । इसी के इर्द गिर्द पूरी दुनिया में एक वैचारिक अभियान भी चलाया गया जिसमें मार्क्सवादी साहित्यकारों का साथ ढेर सारे गैर-मार्क्सवादियों ने भी दिया । रूस के साथ युद्ध में हिटलर की ऐतिहासिक पराजय ने मार्क्सवादियों की वैचारिक बरतरी को स्थापित कर दिया । उन्होंने इसे साहित्य की दुनिया में भी अनूदित किया । रूस में लेनिन के नेतृत्व में हुई बोल्शेविक क्रांति के बाद स्थापित तीसरे इंटरनेशनल ने एशिया और अन्य जगहों के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के साथ एका कायम करने की नीति अपनाई थी उसी की निरंतरता में इस दौर में रूसी नीतियों की भारत में लोकप्रियता की परिघटना को देखना चाहिए
इस अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति के साथ राष्ट्रीय परिस्थिति भी वाम के पक्ष में माहौल बना रही थी । भारत में जन भागीदारी के लिहाज से स्वाधीनता आंदोलन का सुनहरा दौर अर्थात असहयोग आंदोलन बीत चुका तो था ही, जिस तरह उसे वापस लिया गया था उसके चलते स्वाधीनता के लिए लड़ रही ताकतों के बीच विभ्रम और हताशा की स्थिति थी । इसका प्रभाव स्वाधीनता की आकांक्षा के तबकाई अनुवाद में दिखाई पड़ने लगा । धीरे धीरे स्वाधीनता आंदोलन के भीतर तबकाई संगठनों का निर्माण शुरू हुआ । इसका एक प्रमुख कारण महामंदी (1929-1935) थी जिसके चलते मजदूरों और किसानों का जीना दूभर होता जा रहा था । मार्क्सवाद की लोकप्रियता के चलते ज्यादातर इन संगठनों का नेतृत्व मार्क्सवादी कर रहे थे । इन संगठनों की स्थापना के समय पर एक नजर मारते ही यह बात साफ होने लगती है । 1925 में कानपुर में मजदूरों का संगठन, 1936 में किसान सभा, लखनउ में ए आई एस एफ़ तथा प्रगतिशील लेखक संघ- ये सभी एक ही ऐतिहासिक प्रक्रिया के अंग थे ।
इसी वजह से प्रलेस की स्थापना के बाद नहीं, बल्कि उसके पहले से ही छायावादी लेखकों में बदलाव आने लगे थे । इस परिवर्तन को प्रगतिशील साहित्यकारों ने अपनी विरासत के रूप में ग्रहण किया । जयशंकर प्रसाद का नाटक ध्रुवस्वामिनीतथा उनका लेखछायावाद और प्रगतिवादइसका प्रबल सबूत हैं । उक्त लेख में प्रसाद जी ने प्रगतिशीलता की सर्वोत्तम परिभाषा दी कि यहलघुता की ओर दृष्टिपातहै । निराला साहित्य- कविता और गद्य दोनों, के भीतर आए बदलावों को रामविलास शर्मा ने विस्तार से गिनाया है । महादेवी का इसके बाद कविता लिखना बंद करके वंचितों के साथ सहानुभूतिपरक गद्य का प्रणयन भी इसी बदलाव का अंग था । पंत द्वाराग्राम्याकी कविताओं का सृजन औररूपाभका संपादन भी इसी बात की पुष्टि करता है ।
प्रगतिशील साहित्यिक हस्तक्षेप का सबसे प्रबल रूप कविता बना तो उसका एक कारण इसके पहले छायावाद के दौर में साहित्य की प्रधान गतिविधि के रूप में इसकी मौजूदगी थी । प्रगतिशील कविता पर बात शुरू करने से पहले उसके समानांतर चलने वाली साहित्यिक धारा अर्थात प्रयोगवाद के बारे में बात करनी होगी अन्यथा प्रगतिशील कवियों की समूची विविधता को समझना मुश्किल होगा । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत में मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद का प्रसार एक साथ हुआ लेकिन 1947 में स्वाधीनता मिलने के बाद हिंदी भाषी मध्यवर्ग को सत्तासीन होने की खुशफ़हमी हुई । इसके कारण प्रगतिशील साहित्य के मुख्य स्वर किसान मजदूरों के जीवन की आशाओं-आकांक्षाओं के चित्रण की जगह मध्यवर्गीय जीवन की चिंताओं को साहित्य में अधिक जगह देने की मुहिम तेज हुई । शीत युद्ध के साथ जुड़ी मार्क्सवाद विरोधी वैचारिक मुहिम ने भी आग में घी डालने का काम किया । हिंदी में इस प्रक्रिया को ठोस सांगठनिक अभिव्यक्ति अज्ञेय के संपादन में निकलने वाले सप्तकों के जरिए हुई इसलिए ये भी इस टकराव के गवाह बने ।
पहला सप्तकतार सप्तकके नाम से 1943 में यानी आजादी से पहले ही प्रकाशित हुआ था । बहुत सारे लोग इससे ही प्रगतिवाद की समाप्ति और इसके विरोध के रूप में प्रयोगवाद की शुरुआत मानते हैं लेकिन अन्य लोग ढेर सारे प्रमाणों के आधार पर इसे प्रगतिशील आंदोलन से ही जुड़ी पहल मानते हैं । इसकी योजनाफ़ासिस्ट-विरोधी लेखक सम्मेलनमें बनी थी जिसकी अध्यक्षता श्रीपाद अमृत डांगे ने की थी । तार सप्तकमें कवि के रूप में रामविलास शर्मा शामिल किए गए थे जो मार्क्सवादी आलोचक के रूप में उभर रहे थे । इसमें शामिल मुक्तिबोध के अलावा अधिकतर कवियों ने मार्क्सवाद और प्रगतिशील आंदोलन के प्रति अपनी निष्ठा कभी नहीं छिपाई । खुद अज्ञेय की शुरुआती मानसिकता में विद्रोह के तत्व प्रबल थे और उनका अस्तित्ववादी संस्कार तब तक नहीं हुआ था । इन सभी के चलते यह कहना ज्यादा सही लगता है कि कम से कमतार सप्तकसे प्रयोगवाद का आरंभ नहीं हुआ था । लेकिन इस पूरी प्रक्रिया के बारे में एक और मत है जिसके अनुसार अज्ञेय शुरू से ही प्रगतिवाद से दूर थे । ऐसी स्थिति में मानना पड़ेगा कि प्रगतिवाद और उसके विरोध में प्रयोगवाद लगभग एक ही साथ शुरू हुए ।तार सप्तककी भूमिका में ही इसके लक्षण दिखाई देने लगे थे । त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल केतार सप्तकमें भी शामिल न होने के पीछे यही कारण महसूस होता है । 51 में जबदूसरा सप्तकऔर 59 मेंतीसरा सप्तकप्रकाशित हुआ तो इस प्रक्रिया में यह दुराव क्रमश: बढ़ता गया । इस टकराव की पृष्ठभूमि में प्रगतिशील कवियों के अलग अलग समूह बनते दिखाई पड़ते हैं ।
पहले समूह में तीन कवि आते हैं जिन्हें हम खांटी प्रगतिशील कवि कह सकते हैं । ये सप्तकों के प्रकाशन के समूचे दौर में सक्रिय रहे लेकिन किसी भी सप्तक में शामिल नहीं हुए । प्रगतिशील आलोचना की बात आगे की जाएगी लेकिन उसके दो धुरंधरों- रामविलास शर्मा और नामवर सिंह- की अवस्थिति इन कवियों के प्रसंग में अलग-अलग रही और इसी रूप में उसे व्यापक हिंदी समाज ने समझा भी । इन कवियों के नाम क्रमश: नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल और त्रिलोचन हैं ।
इनमें नागार्जुन सबसे बीहड़ रचनाकार थे । उन्होंने संस्कृत, मैथिली, हिंदी और बांगला भाषा में कविताओं की रचना की । देव भाषा संस्कृत में लिखी उनकी रचनाओं के नाम ही इस बात को जानने के लिए काफी हैं कि वे इसमें एकदम नया काम कर रहे थे । उनकी किताबों के नाम हैं- लेनिन शतकम और कृषक शतकम । मैथिली कविता में आधुनिकता की बयार उन्होंने ही बहाई । सोचिए कि मैथिल जैसी पोंगापंथी ब्राह्मण संस्कृति में बास्केट बाल खेलती लड़कियों के सौंदर्य पर रीझकर लिखी उनकी कविता का क्या प्रभाव पड़ा होगा । छंद पर अपूर्व पकड़ ही उनकीहम जाय रहल छी आन ठाम, हे माँ मिथिले अंतिम प्रणामकी विशेषता नहीं है बल्कि वैवाहिक घट के फोरि फारि, पुरजन प्रियजन के छोड़ि छाड़िमें सामंती सवर्ण ग्रामीण वातावरण के प्रति विद्रोह भी है । हिंदी में उचित ही निराला के बाद वे सर्वाधिक सम्मानित रचनाकार हैं । उनकी कविताओं में छंद के शास्त्रीय से लेकर लोक प्रचलित रूपों तक का पूरे अधिकार के साथ प्रयोग हुआ है । यहां तक कि चना जोर गरम किस्म के छदों तक का । उन्होंने अपने नाम के साथ भी बहुत सारे प्रयोग किए । उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था । मैथिली कविताओं के लिए उन्होंने ‘यात्री’ उपनाम अपनाया था । हिंदी कविताओं में नागार्जुन नाम मशहूर हुआ । यह नाम उनके बौद्ध दर्शन के साथ संसर्ग से उपजा है । उनकी कविताओं और जीवन को जो ऊपर से देखते रहे उनके लिए यह सोचना भी मुश्किल था कि बौद्ध दर्शन की पारंपरिक शिक्षा की सर्वोत्कृष्ट उपाधि ‘त्रिपिटकाचार्य’ उन्हें प्राप्त थी । इसी नागार्जुन को बाद में उन्होंने अर्जुन नागा में भी बदला था । इसी तरह त्रिलोचन शास्त्री का मूलनाम बासुदेव सिंह था । आखिर इन दोनों ने अपने नाम क्यों बदले । इस सवाल का एक संभावित जवाब यह है कि इन नामों से समाज के सुविधासंपन्न तबकों से जुड़े होने की गंध आती थी जो किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए थोड़ी शर्मिंदगी की बात होती है । शायद इसीलिए इन दोनों कवियों ने माता-पिता के दिए नामों की जगह ये नाम चुने । नागार्जुन की कविता स्वतंत्र भारत का जनता के नजरिए से राजनीतिक इतिहास है । नागार्जुन पारंपरिक अर्थ में राजनीति को नहीं देखते बल्कि उनके लिए सामाजिक बदलाव का उपकरण राजनीति है जिसके प्रति व्यक्त आक्रोश का निशाना केवल नेता नहीं, बल्कि समूची समाज व्यवस्था होती है । उनकी निहायत छोटी छोटी कविताओं में भी कथ्य और रूप का नायाब संतुलन होता है । शिक्षा व्यवस्था परघुन खाए शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बाँचेंहो या चुनाव परलौटे हैं दिल्ली से एक टिकट मार केहो या सांप्रदायिकता- सभी पहलुओं पर नागार्जुन की निगाह जन साधारण की, बल्कि वर्ग सचेत सर्वहारा की निगाह की तरह पड़ती है ।पाँच पूत भारतमाता केतो आधुनिक भारत का राजनीतिक इतिहास है । प्रगतिशील ही नहीं, अपने समकालीन सभी कवियों में प्रकृति वर्णन के मामले में वे अलग हैं ।बहुत दिनों के बादऔरबादल को घिरते देखा हैके साथ हीकालिदास सच सच बतलानाउनकी प्रकृति संबंधी संवेदनशीलता का प्रमाण है ।अकाल और उसके बादतो प्रकृति और मनुष्य के सर्वकालिक साहचर्य का ही चित्रण है । नागार्जुन की एक छोटी कविता हैप्रतिहिंसा ही स्थायिभाव है मेरे कवि का। शासन और संपत्ति के प्रति अपार घृणा और क्रोध ने उनकी कविताओं को सबसे विशिष्ट बना दिया । तभी सियारामशरण गुप्त और मैथिलीशरण उन्हेंजहर को पोटलोकहते थे । इस मामले में वे प्रेमचंद और निराला जैसे हिंदी लेखकों की परंपरा में आते हैं । आश्चर्य नहीं कि इन दोनों लेखकों पर नागार्जुन ने आलोचनात्मक पुस्तिकाएं लिखीं । इसके अलावा हिंदी उपन्यास की यथार्थवादी धारा का अनुगमन करते हुए उन्होंने अनेक उपन्यास भी लिखे । हरिजन गाथाऔर ऐसी ही कुछ अन्य कविताओं में कथा और कविता का भेद भी लगभग मिटाने की कोशिश दिखाई पड़ती है ।
नागार्जुन के हमउम्र केदारनाथ अग्रवाल की प्रतिष्ठा ऐंद्रिक काव्य लेखन के नाते है । शरीरी प्रेम ज्यादातर पत्नी के लिए व्यक्त हुआ है और इसी कारण उन्हेंस्वकीया प्रेमका कवि कहा जाता है । वस्तुत: प्रेम और प्रकृति प्रगतिशील कविता का स्थायी विषय रहे हैं । उनकी कीर्ति का आधार राम विलास शर्मा के साथ उनकी मित्रता भी है जिसका अप्रतिम दस्तावेज इन दोनों का आपसी पत्राचार है । उनकी कविता की प्रमुख विशेषता भाषा की सहजता है जो कभी कभी लोकभाषा के स्तर तक चला जाता है और इसी कारण तथा अपनी बिंबात्मकता और सीधी चोट के चलते भी अत्यंत पठनीय है । केदारनाथ अग्रवाल की कविता की इस सहजता के पीछे के कलात्मक प्रयास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है । उनके मूर्ति विधान, छंद सौष्ठव और वर्ग विभेद की प्रस्तुति में जो कला है वह अब भी पुरानी नहीं हुई है । हवा हूं हवा मैं वसंती हवा हूंमें बसंती हवा में एक अल्हड़ लड़की की चंचलता यगण के अनुशासन में ढल गई है और इसी वजह से जुबान पर चढ़ जाती है । मानव श्रम के सौंदर्य की स्थापना हिंदी की प्रगतिशील कविता का सबसे बड़ा योगदान है और इसमें प्रलेस के स्थापना सम्मेलन में दिए गए प्रेमचंद के भाषण के उस आग्रह की पूर्ति भी है जिसमें उन्होंनेसौंदर्य के मेयारबदलने का आवाहन किया था ।
इन तीन प्रगतिशील कवियों में सबसे बाद में जन्मे और मुक्तिबोध के हमउम्र त्रिलोचन जीते जी किंवदंती बन चुके थे । हिंदी कविता में उन्हें सानेट छंद को प्रचलित करने के लिए हमेशा याद किया जाएगा । कविता में पूरे वाक्य लिखने का प्रयास त्रिलोचन ने किया । सानेट में भी उन्होंने पूरे पूरे वाक्य लिखे और इसके लिए वाक्य को उसी तरह तोड़ने और मोड़ने की कला विकसित की जिस तरह निराला ने उसेसरोज स्मृतिमें बीच बीच में तोड़ा था । उनकीचंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हतीअब क्लासिकल कविता का दर्जा हासिल कर चुकी है । उसमें गद्य में कविता की सहज गति देखी जा सकती है ।
इन तीन कवियों को प्रगतिशील आलोचना के एक बड़े आलोचक नामवर सिंह से हमेशा शिकायत रही कि हिंदी कविता की दुनिया में तमाम किस्म के कलावादी प्रवृत्तियों से इनके संघर्ष के बावजूद नामवर जी ने कभी इनकी कविता को मूल्यांकन का प्रतिमान नहीं बनाया, बल्कि ऐसे काव्य मूल्यों को ही समीक्षा का आधार बनाया जो नयी समीक्षा के थे । कम से कम नागार्जुन (अगर कीर्ति का फल चखना है) और त्रिलोचन (प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है) ने इस आशय की कविताएं लिखीं ।
इनके बाद ऐसे कवियों का जिक्र किया जा सकता है जो सप्तकों में शामिल तो किए गए लेकिन उनकी मार्क्सवादी आस्थाओं पर सवाल नहीं उठाया जा सकता । इनमें सबसे प्रसिद्ध मुक्तिबोध थे । खुद वे अपने को नयी कविता से जोड़कर देखते थे और नयी कविता को प्रयोगवाद का विरोधी मानते थे । उन्हें इसी रूप में हिंदी की दुनिया में समझा भी गया । अगर कुछ प्रतीकों के सहारे देखें तो हिंदी के आधुनिक काव्य-जगत में मुक्तिबोध और अज्ञेय एक दूसरे के विपरीत दिखाई पड़ते हैं । जहां अज्ञेय के लिए मनुष्यनदी के द्वीपहैं तो मुक्तिबोध के लिएमुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते, यदि वह है तो सबके साथहै । जहां अज्ञेय लगभग जीवन भर महानगरों में ही रहे वहीं मुक्तिबोध की छ्टपटाहट मेंदिल्लीका विकल्पउज्जैनहै और सचमुच वे इसी किस्म की छोटी जगहों पर रहे भी । अज्ञेय के जीवन और साहित्य से निश्चिंतता की झलक मिलती है तो मुक्तिबोध के जीवन और साहित्य से बेचैनी की । अगर अज्ञेय मध्य वर्ग के ऊंचे तबकों की रुचि के प्रतिनिधि दिखाई पड़ते हैं तो मुक्तिबोध निम्न मध्य वर्ग का घोषित रूप से पक्षपोषण करते हैं । परंपरा से अज्ञेय का रिश्तापिता-पुत्रका दिखाई देता है जबकि मुक्तिबोध का संबंध आलोचनात्मक है । अनेक मायनों में वे न केवल प्रगतिशील कविता के बल्कि हिंदी की आधुनिक कविता के बहुत विशिष्ट कवि हैं । उनका अनुकरण करने की कोशिशें बहुत हुई हैं लेकिन यह काम लगभग असंभव है । वैसी ऊबड़ खाबड़ लेकिन फिर भी अत्यंत सार्थक शब्दावली हिंदी के किसी आधुनिक कवि के पास नहीं है । उन्हें ठीक ही कुछ लोग निराला के बाद सबसे महत्वपूर्ण कवि मानते हैं । लगता है जीवन भर मुक्तिबोध एक ही कविता लिखते रहे ।
मोटे तौर पर उनकी लगभग सभी कविताओं का कथ्य इस बात के इर्द गिर्द घूमता है कि मध्य वर्ग की वास्तविकता उसे मजदूर वर्ग के साथ मिलने की ओर लगातार ठेल रही है लेकिन वह पूरी तरह से उसके साथ एकाकार नहीं हो पाता और इसी अंतर्विरोध में पिसता रहता है । इसे उन्होंने ज्यादातरमैंशैली में व्यक्त किया है इसलिए व्यक्ति मुक्तिबोध के बारे में भी खासकर रामविलास शर्मा ने मानसिक-स्नायविक परेशानियों का उल्लेख किया है । मुक्तिबोध का शिल्प कविता में कोई कथा कहने की कोशिश करता है । इस कथा शिल्प में मूल रूप से स्वप्न आते हैं । तो उनकी कविताएं बहुधा आपस में विचार की निरंतरता में गुंथी हुई स्वप्नमालाओं का रूप ले लेती थीं जिन्हें शमशेर शक्तिशाली बिंब कहते हैं । इन स्वप्नों में एक आंतरिक काव्य-तर्क होता था  वे खुद अपने शिल्प को फैंटेसी कहते थे । इसके कारण उनकी कविता आम तौर पर लंबी हो जाया करती थी । काफी दिनों तक वे अपनी कविताओं में सुधार-संशोधन करते रहते थे । विचार सघन कविता की एक समृद्ध परंपरा मुक्तिबोध ने विकसित की । उनके कुछ पद अनायास याद हो जाने वाले हैं । मसलनसंवेदनात्मक ज्ञानऔरज्ञानात्मक संवेदनया सच्चिदानंद को तोड़कर बनाया गया पद- ‘सत चित वेदना। अज्ञेय की तरह ही उन पर भी अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव था और उनका काव्य नायक लगातार मन की उलझनों से बाहर निकलने और व्यापक समाज से जुड़ने की कोशिश और संकल्प करता रहता था । कविताओं के अलावा उनकी दूसरी ताकतवर छवि आलोचक के रूप में है जिसके चलते वे लगभग सभी मुद्दों पर रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के मुकाबले एक तीसरा रुख अपनाते दिखाई पड़ते हैं लेकिन उसकी चर्चा प्रगतिशील आलोचना के प्रसंग में की जाएगी । उनका लेखकला का तीसरा क्षणसृजन प्रक्रिया के बारे में बहुत ही मौलिक विचार परक लेख है जिसमें वे मूल प्रेरणा, उसके बाद अन्य प्रसंगों के साथ उसका घुलाव और विस्तार तथा तीसरे क्षण में उसके लेखन का जिक्र करते हैं लेकिन उनका कहना है कि इन सभी समयों में रचना लगातार बदलती रहती है । इसीलिए उनके लिए कविताकभी खत्म नहींहोती । इसके अतिरिक्त जयशंकर प्रसाद के महाकाव्यकामायनीपर उनकी लिखीकामायनी: एक पुनर्विचारइस किताब पर लिखी एकमात्र अच्छी आलोचनात्मक कृति है । उसमें मुक्तिबोध ने पैराणिक कथा के भीतर व्यक्त आधुनिक मनुष्य की समस्या को पहचाना है । प्रसाद जी की पंक्तियां थींज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से न मिल सके, यह विडंबना है जीवन की ।इसको आधुनिक समय की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए मुक्तिबोध ने कहा कि प्रसाद जी ने समस्या बहुत बड़ी उठा दी थी लेकिन समाधान अत्यंत भाववादी प्रस्तुत कर पाये । इसी आधार पर उन्होंनेमनुको आधुनिक मनुष्य तथा उसकी उलझन को पूंजीवादी समाज के व्यक्ति की उलझन साबित किया । मुक्तिबोध ने काफ़्का की तरह ही रूपकात्मक कहानियां भी लिखी हैं ।पक्षी और दीमकसुविधाओं के लिए स्वतंत्रता कुर्बान कर देने की करुण कहानी है ।समझौताशीर्षक कहानी नौकरशाही में बास और मातहत के बीच बाघ और रीछ की खाल ओढ़े झूठे और भय पर आधारित संबंधों की विडंबना को उजागर करती है । इसी तरह हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराने वाले क्लाड ईथरली के अपराध बोध कोक्लाड ईथरलीमें दर्ज किया गया है जिसने असल जिंदगी में उस घटना की पचासवीं सालगिरह पर आत्महत्या कर ली और हरेक साल उसकी बरसी पर हिरोशिमा जाया करता था । बहरहाल मुक्तिबोध के प्रशंसकों का एक हिस्सा ऐसा भी है जो प्रगतिशील आंदोलन को पीटने के लिए उनके नाम का इस्तेमाल करता है ।
मुक्तिबोध के बाद एक और ऐसे कवि के बारे में बात करना जरूरी है जिनकी कविताओं से प्रगतिशील आंदोलन का संबंध सबसे दूर का महसूस होता है । इनका नाम शमशेर है जो हिंदी में सुर्रियलिज्म के एकमात्र प्रयोगकर्ता माने गए । उनकी गति हिंदी के साथ उर्दू में भी थी । अपने कविता संग्रह में हाशियों पर चीनी चित्राक्षरों को छपवाने पर बल को लेकर विजयदेव नारायण साही ने उनके बारे में लिखा कि उनकी क्रांतिकारिता हाशिये तक सीमित है । शमशेर बहुत अच्छे चित्रकार थे और इसका बाकायदे प्रशिक्षण लिया था । उन्होंने ढेर सारे चित्र बनाए भी । उनकी कविता में रंगों के उल्लेख और प्रखर चित्रात्मकता के कारण मुक्तिबोध ने उनके कवि कोसिंहासनच्युत चित्रकारकहा है । उन्होंने साथी प्रगतिशील कवियों पर लेख तो लिखे ही यह भी घोषित किया कि जीने के लिएमार्क्सवाद और आक्सीजनजरूरी चीजें हैं । उनकी लंबी कविताअमन का रागविश्व शांति के लिए दुनिया भर के साहित्यकारों की एकता का आवाहन या उत्सव है । उन्हें इंप्रेशनिस्ट भी कहा जाता है लेकिन आधुनिकतावाद के साथ साम्यवाद भी लगातार उनके लेखन में प्रकट होता रहा ।
प्रगतिशील कवियों की एक ऐसी भी टोली थी जिसे लोकप्रिय लेखन के नाते गंभीरतापूर्वक याद नहीं किया जाता । इस मामले में उर्दू और हिंदी ने अपने लेखकों के साथ अलग अलग व्यवहार किया । उर्दू में फ़िल्मों में लेखन करनेवालों को कभी साहित्य से बहिष्कृत नहीं किया गया । हिंदी से जो भी फ़िल्मों में गये उन्हें काव्य-अभिजात के समर्थक आलोचक और साहित्यकारों ने साहित्य में गिनने से इनकार कर दिया । इनमें गीतों के सिरमौर शंकर शैलेन्द्र हैं । उन्होंने सहज हिंदी खड़ी बोली में इतने जुबान पर चढ़ जाने वाले गीत लिखे कि आश्चर्य यह सोचकर होता है कि उन्हें साहित्य में शामिल न करने से हिंदी का कौन सा भला हुआ । इसी के साथ शील को भी शामिल कर लेना चाहिए । इस लेखन की खूबी आंदोलन के साथ कदम मिलाकर चलना है । इसे राजनीतिक प्रचार का लेखन कहकर इसकी रचनात्मकता को खारिज करने की प्रवृत्ति रही है । खास बात यह कि इस तरह के लेखन की निरंतरता बाद में भी बनी रही और लोकप्रियता तथा गुणवत्ता के बीच संतुलन की बहस इसलिए भी बार-बार उठती रही ।
उपन्यास की दुनिया में प्रेमचंद पहले से ही प्रगतिशील मूल्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । यशपाल और रांगेय राघव ने वर्ग संघर्ष की यांत्रिक समझ को इतिहास में ले जाकर आर्य-द्रविड़ संघर्ष की कहानियां लिखीं । यशपाल ने विभाजन की पृष्ठभूमि परझूठा सचलिखा, साथ हीदिव्यामें औपनिषदिक काल में भारतीय दर्शन के वैचारिक संघर्ष को दास स्त्री की निगाह से विश्लेषित करने की कोशिश की ।दादा कामरेडऔरपार्टी कामरेडकम्युनिस्टों की विद्रोही छवि उकेरने के मकसद से लिखे गए थे । साहित्य में ऐंद्रिकता के चित्रण के चलते रामविलास शर्मा ने उनकी आलोचना की लेकिन स्त्री विमर्श के हालिया दौर में उनके इस लेखन की विशेषता को रेखांकित किया जा रहा है ।
कविता के अतिरिक्त आलोचना हिंदी के प्रगतिशील लेखन का विशेष पहलू है । प्रगतिशील आलोचना को समझने के लिए हिंदी आलोचना की परंपरा को समझना जरूरी है । हिंदी आलोचना के शिखर रामचंद्र शुक्ल थे । उन्होंने साहित्य की वस्तुवादी समझ को हिंदी समाज के सामने स्पष्ट किया । साहित्य को उन्होंने मनुष्य के भावजगत से जुड़ी गतिविधि समझा और मनुष्य के भावों की व्याख्या इस दुनिया में उसके समाजीकरण से जोड़कर की । इसी आधार पर उन्होंने साहित्य को धर्म से अलगाया । साहित्य के इतिहास को उन्होंने समाज के इतिहास से इस तरह जोड़ा कि बहुतेरे लोग उन पर प्रत्यक्षवादी होने का भी आरोप लगाते हैं । शुक्ल जी की जिस मान्यता पर सबसे ज्यादा विवाद हुए वह भक्ति के उदय से जुड़ी हुई है । इस सवाल पर वे एकाधिक प्रस्ताव रखते हैं । पहला तो भक्ति के दक्षिण में उत्पन्न होने को वेभक्ति द्राविड़ उपजी लाये रामानंदके सही होने से मानते प्रतीत होते हैं । दूसरी ओर पूर्वोत्तर से आने वाली योग की धारा की भी स्वतंत्र मौजूदगी देखते हैंगोरख जगायो जोगके जरिए । तीसरे पश्चिमोत्तर से आने वाली सूफी धारा के सबसे महत्वपूर्ण कवि जायसी की महत्ता को वे ही स्थापित करते हैं । ऐसा लगता है कि इन तीनों की आमद को वे मंजूर करते हैं लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्र में उसी समय उनके एक साथ मिलकर प्रमुखता प्राप्त कर लेने की तात्कालिक व्याख्या करते हुए उन्होंने मुसलमानी शासन की स्थापना से पराजित हिंदू मानस को वह माहौल माना है जिसने इसे फैलने का मौका दिया । इसी विंदु पर हजारी प्रसाद द्विवेदी सोचने और देखने का एक दूसरा तरीका प्रस्तावित करते हैं और भक्ति आंदोलन को भारतीय चिंता धारा का स्वाभाविक विकास मानते हैं । थोड़ा आश्चर्य की बात है कि हजारी प्रसाद के समर्थक नामवर सिंह उनकी मान्यताओं कोअदर ट्रेडीशनकी धारणा के जरिए समझते हैं जबकि रामचंद्र शुक्ल के समर्थक रामविलास शर्मा मुख्य धारा की परंपरा में जन पक्षधर तत्वों की तलाश पर बल देते हैं ।
बहरहाल प्रगतिशील आलोचना के दो मुख्य स्तंभ रामविलास शर्मा और नामवर सिंह रहे । इनमें हमने पहले ही कहा कि तीसरे के बतौर मुक्तिबोध को शरीक किया जाता है । रामविलास जी और नामवर सिंह के बीच अंतर की जड़ें कुछ हद तक उन दोनों के बौद्धिक निर्माण के दौर से जुड़ा हुआ है । रामविलास जी का निर्माण तेलंगाना विद्रोह के दिनों में हुआ जबकि नामवर जी उसके दमन के बाद नेहरू शासन के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के हेलमेल के दिनों में विकसित हुए । उम्र में केवल 15 साल के अंतर के बावजूद उनके विचारों के परिप्रेक्ष्य में यह भारी अंतर व्यावहारिक दुनिया और आंदोलनात्मक माहौल के अंतर से पैदा हुआ है ।
प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में प्रेमचंद के अध्यक्षीय भाषण में ही परंपरा के प्रति संपूर्ण नकार के बीज मिलते हैंअब और सोना मृत्यु का लक्षण हैऔर भक्ति साहित्य के प्रति एक तरह की हिकारत में । इसी तरहपल्लवकी भूमिका में भी भक्ति और रीति को एक साथ जोड़कर दोनों को खारिज किया गया है । कहने का मतलब कि परंपरा के प्रति संपूर्ण नकार की प्रवृत्ति प्रगतिशील आंदोलन से पहले से मौजूद रही है । प्रगतिशील आलोचकों के एक हिस्से ने भी इसी तरह शुरू किया । रामविलास शर्मा ने इसका विरोध किया और सामंतवाद विरोध के आधार पर संपूर्ण भक्ति साहित्य में प्रेम की प्रमुखता को सामंतवाद विरोधी एक विराट भक्ति आंदोलन का अंग घोषित करते हुए उसे जनता के जन पक्षधर साहित्य के भीतर समाहित कर लेने की वकालत की । इसी तरह स्वाधीनता आंदोलन के समय लिखे संपूर्ण साहित्य को सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोध का हिस्सा मानने की जरूरत बताई । भक्ति साहित्य के भीतर सगुण-निर्गुण के बीच अंतर्विरोध को सवर्ण और निचली जातियों के बीच विरोध मानने से इनकार किया और आधुनिक साहित्य में मुस्लिम शासन के प्रति विरोध भाव को हिंदू सांप्रदायिकता का प्रभाव नहीं माना और इन सबको उन्होंने गौण अंतर्विरोध माना । नामवर सिंह ने कबीर आदि निर्गुण संतों को दूसरी परंपरा का वाहक माना और तुलसी तथा कबीर के विरोध भाव को लोक और शास्त्र का द्वंद्व समझाया । भक्ति आंदोलन के प्रसंग में इन दोनों की परस्पर विरोधी मान्यताओं के चलते रामविलास शर्मा को रामचंद्र शुक्ल का तो नामवर सिंह को हजारी प्रसाद द्विवेदी का समर्थक माना जाता है । मुक्तिबोध का लेखभक्ति आंदोलन का एक पहलूइसमें तीसरा कोण पैदा करता है । उनका कहना है कि भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति निचली जातियों में निर्गुण धारा के रूप में हुई लेकिन जैसे जैसे आंदोलन शक्तिशाली होता गया ऊंची जातियों के लोग भी उसकी ओर आकर्षित होते गए लेकिन जो लोग भी उसमें शामिल हुए वे अपने संस्कारों को छोड़कर नहीं आए थे, बल्कि वे अपने संस्कारों को लिए दिए आए और उन्होंने आंदोलन को प्रभावित करना शुरू किया । इस प्रभाव के परिणाम स्वरूप भक्ति आंदोलन का आरंभिक क्रांतिकारी आवेग खत्म होना शुरू हुआ । कृष्णभक्ति धारा में उसकी थोड़ी क्रांतिकारिता बची रही थी लेकिन रामभक्ति धारा तक आते आते उसके नख दंत उखाड़ डाले गए । इसे पूरी तरह से भिन्न नजरिया घोषित करते हुए ध्यान रखना चाहिए कि उसके शीर्षक में ही ‘एक पहलू’ लिख दिया गया है । दूसरे कि इसमें एक प्रक्रिया का वर्णन किया गया है, कोई वैकल्पिक नजरिया नहीं प्रतिपादित किया गया है क्योंकि इस प्रक्रिया को बदलाव के किसी भी आंदोलन पर लागू किया जा सकता है ।
भक्ति आंदोलन के अतिरिक्त जिस दूसरे सवाल पर इन आलोचकों की स्थिति में आपसी विरोध दिखाई देता है वह है नयी कविता के प्रति रुख । इस प्रसंग में रामविलास शर्मा ने अनेक लेख लिखकर यह दिखाया कि नयी कविता पर अस्तित्ववाद का प्रभाव है । ये लेख ही बाद में ‘नयी कविता और अस्तित्ववाद’ में संग्रहित किए गए । मुक्तिबोध को मार्क्सवाद से प्रतिबद्ध और प्रगतिशील कवि मानने वालों का कहना है कि इस किताब में उन्होंने मुक्तिबोध के साथ अन्याय किया । रामविलास शर्मा ने कहा कि उन्होंने मुक्तिबोध को कभी मार्क्सवाद विरोधी नहीं कहा । बहरहाल नामवर सिंह ने प्रगतिशील खेमे से दूरी बनाने का आरोप लगने का खतरा उठाकर भी ‘कविता के नये प्रतिमान’ पुस्तक लिखी जिसमें पाश्चात्य नयी समीक्षा की प्रचलित शब्दावली का उपयोग करते हुए नयी कविता को सामयिक यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली साहित्यिक प्रवृत्ति घोषित किया गया । इसमें मुक्तिबोध को नयी कविता के केंद्र में रखने का दावा नामवर सिंह ने किया लेकिन उनके आलोचकों का कहना है कि इस पुस्तक के केंद्र में मुक्तिबोध नहीं, विजयदेव नारायण साही हैं । वैसे भी नामवर सिंह ने मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को ‘अस्मिता की खोज’ कहकर उसके क्रांतिकारी मर्म को धूमिल किया है । उनके मुकाबले रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध को ‘सशस्त्र क्रांति का समर्थक’ कहा था । मुक्तिबोध ने नयी कविता को प्रयोगवाद की विरोधी धारा माना और शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के नेतृत्व में संचालित मार्क्सवाद विरोधी वैचारिक अभियान, जिसमें व्यक्तिवाद, कुंठा और हताशा जैसे मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जा रहा था, का गहरा प्रभाव प्रयोगवाद पर देखा । उन्होंने नयी कविता को निम्न मध्य वर्ग की साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में समझा और नयी कविता के भीतर वैचारिक संघर्ष चलाने के मकसद से ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’ किताब लिखी ।
विवाद के इन विंदुओं को छोड़कर भी इन दोनों के लेखन के बारे में कुछ परिचय आवश्यक है । रामविलास शर्मा के लेखन के तीन आयाम हैं- साहित्य की आलोचना, भाषा चिंतन और भारत के इतिहास के बारे में । एक हद तक ये सभी आपस में जुड़े हुए हैं । इन सबको जोड़ने वाला तत्व उपनिवेशवाद विरोध है । रामविलास शर्मा का समूचा लेखन इतना विपुल है कि इस जगह उसकी रूपरेखा भी प्रस्तुत करना संभव नहीं, लेकिन बिना उसके प्रगतिशील आलोचना की समृद्धि को समझना एकदम असंभव है । उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लिखे गए हिंदी साहित्य की साम्राज्यवाद-सामंतवाद विरोधी जन पक्षधर विरासत को उद्घाटित करने से अपने जीवन भर चलने वाले प्रोजेक्ट की शुरुआत की । इस क्रम में उन्होंने निराला, प्रेमचंद, भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल पर अनेक किताबें लिखीं और प्रगतिशील रचनाकारों को उनसे सीख लेने की सलाह दी । इन साहित्यकारों ने भक्ति साहित्य से प्रेरणा ली थी इसलिए इन पर लिखते हुए भक्ति साहित्य और लगे हाथों संस्कृत के क्लासिक कवियों की भी सामंतवाद विरोधी भूमिका पर भी लिखा । इस तरह जनता के पक्ष में साहित्य की एक विराट परंपरा का उद्घाटन करते हुए उन्होंने परंपरा को प्रगतिशील धारा के पक्ष में खड़ा कर दिया ।भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेशके दो खडों में ॠग्वेद से लेकर आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखे उपनिवेशवाद विरोधी साहित्य तक को उन्होंने इस परंपरा की धारा बना दिया । उन्होंने सुश्रुत की चरक संहिता, कौटिल्य के अर्थशास्त्र और भरत के नाट्यशास्त्र के आधार पर अनुमान किया कि भारत में भौतिकवादी चिंतन की दृढ़ परंपरा के बिना इन ग्रंथों का प्रणयन संभव नहीं था । हम इसी के साथ वात्स्यायन केकामसूत्रको भी जोड़ सकते हैं ।  
भाषा के प्रश्न पर उन्होंने भारतीय भाषाओं को आर्य, द्रविड़ आदि परिवारों में बांटने का विरोध किया और इसे औपनिवेशिक नस्लवादी नजरिए का विस्तार साबित किया । उनका मानना था कि संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश का जननी-पुत्री का संबंध ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं है । उनका कहना था कि कोई भाषा किसी भाषा से पैदा नहीं हुई है वरन उनका आपस में लेन देन का रिश्ता रहा है और इस प्रक्रिया में वे विकसित हुई हैं । भारत की सारी भाषाएं एक दूसरे के साथ आपसी अंत:क्रिया के जरिए विकसित हुई हैं । इसी क्रम में वे आर्य-द्रविड़ विभाजन की औपनिवेशिक विरासत पर सवाल उठाते हैं और अपने जीवन की सबसे विवादास्पद मान्यता प्रतिपादित करते हैं कि आर्य भारत के मूल निवासी थे और सरस्वती के सूख जाने से भीतर और बाहर गए हैं । सिंधु घाटी की सभ्यता आर्य सभ्यता ही थी । उनके जीवन का परवर्ती सारा काम इसी के इर्द गिर्द घूमता रहा और ॠग्वेद पर उन्होंने किसी भी पोंगापंथी भारतविद से अधिक लिखा और सफलतापूर्वक दिखा दिया कि आर्य को बाहर से आयी हुई नस्ल बताना औपनिवेशिक परियोजना का अंग था ।पश्चिम एशिया और ॠग्वेदमें पुष्ट प्रमाण देकर उन्होंने पश्चिमी एशिया में भारतवासियों की बस्तियों की उपस्थिति बताई । इतिहास दर्शनमें इसी परियोजना के तहत उन्होंने कहा कि यूनान तो एशिया माइनर का अंग था और वहां का समूचा दार्शनिक विकास एशियाई सभ्यताओं के विकास का हिस्सा था, पश्चिमी दुनिया से उसका कोई सीधा लेना देना नहीं था लेकिन यूरोप ने पुनर्जागरण के समय अपना अतीत जबर्दस्ती उसके साथ जोड़ा और पूरबी विरासत से इसे काट दिया । यहां के बाद उनके इतिहास संबंधी काम का परिचय दिया जा सकता है ।
इतिहास संबंधी उनके काम की जड़ 1857 के स्वाधीनता संग्राम में अवस्थित है । उनके लिए यह संग्राम भारत के उस रूप की खोज का माध्यम बन जाता है जो वह अंग्रेजों का गुलाम बनने से पहले था । अकेले इस संग्राम पर उनके काम से भारत के इतिहास के शोध के नये रास्ते खुलते हैं । एक तो यही कि शासक अंग्रेज भारत से उन्नत सभ्यता का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे, बल्कि खुद इंग्लैंड में पूंजीवाद उस समय तक सामंतवाद से राजनीतिक सत्ता को छीनने के लिए लड़ ही रहा था । भारत के अपार शोषण और लूट खसोट से इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति में तेजी आई । इस परिघटना के लिए उन्होंने व्यापारिक पूंजीवाद की मार्क्स द्वारा प्रयुक्त कोटि का प्रयोग किया जो सामंतवाद के ही गर्भ में पैदा होता है और उस समय के इंग्लैंड को विकास के उसी चरण में माना । जिसे तमाम भारत का आधुनिकता में प्रवेश बता रहे थे अंग्रेजों के उस शासन से पहले ही भारत में आधुनिकता का आगमन उन्होंने स्वीकार किया । जिसे यूरोपीय पुनर्जागरण कहते हैं उससे बड़ी लेकिन लक्षण में समान परिघटना को उन्होंने भक्तिकाल के समय होता हुआ बताया और इसेलोकजागरणका नाम दिया । बाद में जो हुआ उसे उन्होंनेनवजागरणकहा और इसके मूल में स्वाधीनता संग्राम को चिन्हित किया । 1857 इसी नवजागरण का आरंभ है, भारतेंदु युग दूसरा चरण, द्विवेदी युग तीसरा चरण, छायावाद चौथा चरण है और कहा तो नहीं लेकिन इस कालानुक्रम से स्पष्ट है कि प्रगतिवाद उसी भारतीय नवजागरण का पांचवां चरण है और हिंदी का प्रगतिशील साहित्य उसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति ।
यदि आधुनिकता का प्रवेश भक्तिकाल से होता है तो स्वाभाविक रूप से पूंजीवाद को भी उसके सामाजिक आधार के बतौर होना चाहिए । जिसे हम भारतीय इतिहास का मध्ययुग कहते हैं उस समय व्यापारिक पूंजीवाद की मौजूदगी उन्होंने दिखलाई । इससे जुड़ी एक और धारणा का परिचय होने से यह बात और साफ होगी । उन्होंनेहिंदी जातिकी कोटि का निर्माण किया जो अन्य भाषा भाषी जातियों की तरह थी और हिंदी इसी जाति की भाषा तथा हिंदी साहित्य इस जाति का साहित्य था । इस जाति का निर्माण व्यापारिक पूंजीवाद के दौर में हुआ । हिंदी और उर्दू को वे दो भाषाओं के रूप में मान्यता देने के लिए तैयार नहीं थे और मानते थे कि हिंदी जाति का साहित्य इन दोनों भाषाओं में लिखा जाता है । हिंदी और उर्दू दोनों की शब्द संपदा, वाक्य रचना और क्रिया रूपों की समानता को वे इनकी एकता का सबूत मानते थे और अपने लेखन से प्रमाण देकर सिद्ध किया कि औपनिवेशिक शासन ने इन्हें दो फाड़ करके अपने हित साधे । इन दोनों पर आगरे की ब्रजभाषा का गहरा प्रभाव उन्होंने विस्तार से दिखाया । खड़ी बोली के आरंभिक लेखकों और नजीर अकबराबादी की कविताओं पर यह प्रभाव उन्हें दिखाई पड़ा ।
भक्ति साहित्य को वे भक्ति आंदोलन की अभिव्यक्ति मानते थे, नवजागरणकालीन हिंदी लेखन को हिंदी नवजागरण की और इसी तर्क से प्रगतिशील साहित्य को प्रगतिशील आंदोलन की अभिव्यक्ति माना जा सकता है । अंतिम दिनों में उन्होंने ॠग्वैदिक सभ्यता और संस्कृति की भी जन पक्षधर व्याख्या शुरू की और इसे भी मार्क्सवाद के सामाजिक विकास की व्याख्या के अनुरूप विश्लेषित करना शुरू कर दिया ।
संक्षेप में रामविलास शर्मा ने अपने लेखन से प्रगतिशील आलोचना को हिंदी की तमाम साहित्यिक हलचल का केंद्र बना दिया था । इस काम में उन्हें नामवर सिंह का भी साहचर्य मिला । नामवर सिंह के लेखन का दायरा अधिकतर साहित्त्य तक ही सीमित रहा । समाज उनके साहित्यिक विवेचन की पृष्ठभूमि ही बनाता है । उनकी दूसरी विशेषता यह रही कि उन्होंने मार्क्सवाद विरोधी रूपवादी साहित्यिक आलोचना से लगातार संवाद बनाया ।आलोचनानामक साहित्यिक पत्रिका के जरिए उन्होंने हिंदी की समूची साहित्यिक बिरादरी में प्रगतिशील आलोचना की बरतरी स्थापित की ।
छायावादसे उन्होंने हिंदी की इस रोमांटिक काव्य धारा को सही समाजैतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया । इसे पूंजीवादी व्यक्तिवाद की अभिव्यक्ति बताया और उसकी ताकत तथा कमजोरी को छायावाद की ताकत और कमजोरी साबित किया ।कहानी: नयी कहानीके जरिए स्वतंत्रता के बाद उभरे मध्य वर्ग की मानसिकता को पहचाना और नए हालात के बयान के लिए प्रेमचंदीय कहानी को अपर्याप्त बताते हुए इसकी संरचना की नवीनता के सामाजिक आधार को उद्घाटित किया ।कविता के नये प्रतिमानमें नयी कविता के अस्तित्ववादी व्याख्याताओं से लोहा लेकर उसे तत्कालीन समय और समाज के बयान की अनिवार्य रूपगत अभिव्यक्ति चिन्हित किया ।दूसरी परंपरा की खोजके जरिए पश्चिमी दुनिया में लोकप्रियअदर ट्रेडीशनकी धारणा का रचनात्मक अनुवाद किया ।
हिंदी में प्रगतिशील आंदोलन अपने पूर्ववर्ती हिंदी नवजागरण और भक्ति आंदोलन की तरह ही अखिल भारतीय साहित्यिक आंदोलन था । हिंदी-उर्दू की साझा साहित्यिक अभिव्यक्ति का यह एकमात्र गंभीर प्रयास था । इसके लेखक अपने आपको एक बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक आलोड़न का अंग समझते थे । स्वाधीनता आंदोलन की आंच से तपा यह आंदोलन अनेक उतार चढ़ावों के साथ नये अवतार में अब भी जारी है । हिंदी पट्टी में वाम की कमजोर उपस्थिति के बावजूद इस आंदोलन ने साहित्यिक और बौद्धिक जगत में उसे प्रासंगिक बनाए रखा है ।

                                                                                                 

Wednesday, September 10, 2014

डेविड हार्वे द्वारा ‘पूँजी’ का अध्ययन

            
2010 में वर्सो द्वारा प्रकाशित डेविड हार्वे की किताबए कंपैनियन टु मार्क्सकैपिटलका जिक्र किए बगैर 21वीं सदी में मार्क्सवाद के विकास का कोई भी विवरण अधूरा रहेगा । डेविड हार्वे अमेरिका में न्यूयार्क विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट सेंटर में भूगोल के अध्यापक हैं । इस प्रसंग में खास बात यह है कि मार्क्स-एंगेल्स ने कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रकी भूमिका में अपनी इस किताब की लोकप्रियता को संबंधित देश में मजदूर आंदोलन की स्थिति से जोड़कर देखने का प्रस्ताव किया था और हाब्सबाम ने भी मार्क्सवाद का इतिहास समझने के लिए घोषणापत्र की लोकप्रियता के ही पैमाने का इस्तेमाल किया है, लेकिन मार्क्सवाद की लोकप्रियता के वर्तमान दौर में विभिन्न देशों और भाषाओं में मार्क्स की पूँजीके पहले खंड के अनुवादों और अध्ययनों की भरमार हुई है । इन अनुवादों की लोकप्रियता का एक कारण विश्व पूंजी का वर्तमान संकट तो है ही, इसके अलावा सोवियत संघ के पतन के बाद जवान हो रही पीढ़ी द्वारा मार्क्स को दोबारा समझने की चाहत भी है । हार्वे के काम को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए । डेविड हार्वे मूलत: भूगोलवेत्ता हैं और शहरों पर अपने अध्ययन के क्रम में वे सामाजिक विषयों की ओर आए और फिर मार्क्सवाद का व्यवस्थित अध्ययन किया । रुचिपूर्वक चालीस सालों से वे हरेक साल मार्क्स की ‘पूँजी’ पर अनौपचारिक व्याख्यान देते रहे हैं । यह किताब विद्यार्थियों के लिएपूँजीपर दिए गए उनके व्याख्यानों का सुसंपादित संकलन है । किताब मेंपूँजीके सिर्फ़ पहले खंड का सांगोपांग अध्ययन किया गया है, शायद इसके पीछे यह आग्रह भी हो सकता है कि मार्क्स चूँकि पहला खंड ही अपने जीवन में पूरा कर सके थे इसलिए उसी में उनकी अंतर्दृष्टि सबसे प्रामाणिक रूप से व्यक्त हुई होगी । अपनी किताब को वे महज कंपैनियन इसलिए भी कहते हैं क्योंकि इन व्याख्यानों के पीछे उनका मूल मकसद विद्यार्थियों की रुचि मार्क्स की पुस्तक पढ़ने में जगाना था । लेखक की कोशिश अति सरलीकरण से बचते हुए पुस्तक को सुबोध बनाना है इसीलिए लेखक ने व्याख्या संबंधी विवादों को छोड़ दिया है । लेकिन ऐसा भी नहीं कि यह कोई निस्संग व्याख्या है बल्कि विभिन्न तरह के लोगों को लगभग चालीस बरस तक समझाने के क्रम में उपजी है ।
किताब की शुरुआत लेखक माल और विनिमय संबंधी पहले अध्याय से करता है । हार्वे हमारा ध्यान सबसे पहले प्रथम वाक्य की ओर खींचते हैं और बताते हैं कि इस वाक्य में दो बारप्रकटआता है । एक बार यह किजिन समाजों में पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली व्याप्त है वहाँ सामाजिक संपदा मालों के विशाल संचय के रूप में प्रकट होती हैऔर दूसरी बार यह किकोई एक माल उसके प्राथमिक रूप के बतौर प्रकट होता है ।लेखक इस बात पर जोर देता है किप्रकटहोना औरहोनाएक ही बात नहीं है । यह शब्द मार्क्स की इस पूरी किताब में अनेक बार आया है जिसका मतलब है कि उनके मुताबिक जो ऊपर से दिखाई दे रहा है उसके नीचे कुछ चल रहा है जो असली है । दूसरी बात यह कि मार्क्स सिर्फ़ पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली पर विचार करना चाहते हैं । ये दोनों बातें आगे की बातों को समझने के लिए ध्यान में रखना जरूरी है । माल से बात शुरू करने का लाभ यह है कि सब लोग उसके संपर्क में रोज आते हैं ।
rर्क्स कीपूँजीऐसी किताब है जिसमें दार्शनिकों, अर्थशास्त्रियों, नृतत्वशास्त्रियों, पत्रकारों और राजनीति वैज्ञानिकों के साथ ही तमाम साहित्यकार, परीकथाएँ और मिथक आते रहते हैं । किताब के रूप में इसे पढ़ना अलग तरह का अनुभव है क्योंकि खंडित उद्धरणों से वृहत्तर तर्क के भीतर उनकी अवस्थिति समझ में नहीं आती । सभी तरह के अनुशासनों में दीक्षित लोग इसमें भिन्न अर्थ निकालते हैं क्योंकि यह इतने भिन्न किस्म के स्रोतों की ओर आपका ध्यान ले जाती है । इन स्रोतों को मार्क्स आलोचनात्मक विश्लेषण की धारा से जोड़ते हैं । आलोचनात्मक विश्लेषण का अर्थ पहले के सोच विचार को एकत्र कर उसे नए ज्ञान में बदल देना है । इस किताब में जो धाराएँ मौजूद हैं वे हैं सत्रहवीं से उन्नीसवीं सदी तक मुख्य रूप से इंग्लैंड में विकसित राजनीतिक अर्थशास्त्र की धारा, दार्शनिक गवेषणा की धारा जो ग्रीक दार्शनिकों से शुरू होकर हेगेल तक आती है और इन्हीं के साथ तीसरी धारा काल्पनिक समाजवादियों की धारा है ।
मार्क्स अपनी किताब की समस्याओं के प्रति सचेत थे और इसकी विभिन्न भूमिकाओं में उन्होंने इनकी चर्चा की । फ़्रांसिसी संस्करण की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया कि अगर इसे धारावाहिक रूप से छापा जाए तो मजदूर वर्ग के लिए अच्छा होगा लेकिन उन्होंने सावधान भी किया कि इससे पुस्तक की समग्रता को एकबारगी ग्रहण करने में असुविधा होगी । इस किताब में मार्क्स का मकसद राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना के जरिए पूँजीवाद की कार्यपद्धति को उद्घाटित करना था । इस लिहाज से उन्होंने दूसरे संस्करण की भूमिका में लिखा किप्रस्तुति का रूप गवेषणा की पद्धति से अलग होना ही चाहिए । गवेषणा के दौरान विस्तार से सामग्री एकत्र करके उसके विकास के अलग अलग रूपों का विश्लेषण किया जाता है, उनके आपसी संबंधों की छानबीन की जाती है । इस काम के खत्म होने के बाद ही उस विकास की प्रस्तुति संभव होती है ।मार्क्स की गवेषणा के घेरे में यथार्थ की अनुभूति तथा उस अनुभूति का राजनीतिक अर्थशास्त्रियों, दार्शनिकों और उपन्यासकारों द्वारा वर्णन आता है । इसके बाद वे समस्त सामग्री की गहन आलोचना करते हैं ताकि उस यथार्थ की कार्यपद्धति को स्पष्ट करने वाली कुछ सरल किंतु जोरदार धारणाओं को खोज सकें । आम तौर पर मार्क्स किसी परिघटना को समझने के लिए गहरी धारणाओं के निर्माण के लिए उनके सतही आभास के विश्लेषण से शुरुआत करते हैं । इसके बाद सतह के नीचे उतरकर असल में कार्यरत शक्तियों को उद्घाटित करते हैं ।                
मार्क्स की इस किताब को पढ़ते हुए उनकी धारणाओं को लेकर पहले उलझन होती है कि आखिर ये धारणाएँ आ कहाँ से रही हैं लेकिन धीरे धीरे आप मूल्य और वस्तु पूजा जैसी धारणाओं को समझना शुरू कर देते हैं । दिक्कत यह है कि किताब के खत्म होने पर पूरा तर्क समझ में आता है इसीलिए लेखक हार्वे का सुझाव है कि एक बार आद्यंत खत्म कर लेने के बाद दोबारा पढ़ने से यह किताब मज़ा देती है । खासकर शुरू के तीन अध्याय तो बिना कुछ समझ में आए ही बीत जाते हैं । इसके बाद के अध्यायों में ही पता चलता है कि मार्क्स द्वारा निर्मित धारणाओं का उपयोग क्या है ।
मार्क्स माल की धारणा से शुरू करते हैं । उनके लेखन को देखते हुए उम्मीद बनती है कि बात वर्ग संघर्ष से शुरू होनी चाहिए थी लेकिन तीन सौ पन्नों से पहले इस तरह की कोई बात ही नहीं शुरू होती । या वर्ग संघर्ष नहीं तो फिर मुद्रा से शुरू करते । खुद मार्क्स पहले मुद्रा से ही शुरू करना चाहते थे लेकिन अध्ययन के बाद उन्हें लगा कि पहले मुद्रा की व्याख्या करना जरूरी है । श्रम से भी तो शुरू कर सकते थे? कुछ कागजों से पता चलता है कि बीस तीस सालों तक वे इस समस्या से जूझते रहे थे कि शुरू कहाँ से करें । अंत में उन्होंने माल से शुरू किया और इसकी कोई वजह भी नहीं बताई है । मार्क्स ने जिस धारणात्मक औजार का निर्माण किया है वह सिर्फ़पूँजीके पहले खंड के लिए नहीं बल्कि अपने समूचे विश्लेषण के लिए बनाया है ।
अगर आप पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को समझना चाहते हैं तो तीनों खंड देखने होंगे और फिर भी एक बात ध्यान में रखनी होगी कि जितनी बातें उनके दिमाग में थीं उनका महज आठवाँ हिस्सा ही वे लिख सके थे । अपनी किताब की पूरी योजना उन्होंने कुछ इस तरह बनाई थी-1) सामान्य, अमूर्त निर्धारक जो कमोबेश सभी सामाजिक रूपों में लागू होते हैं—2) वे कोटियाँ जो बुर्जुआ समाज की आंतरिक संरचना की बनावट हैं और जिन पर बुनियादी वर्ग आधारित हैं । पूँजी, पगारजीवी श्रम, भू संपदा । उनका अंतस्संबंध । शहर और देहात । तीन बड़े सामाजिक वर्ग । उनके बीच लेन देन । वितरण । उधारी व्यवस्था (निजी) 3) राज्य के रूप में बुर्जुआ समाज का संकेंद्रण । उसका अपने साथ संबंध ।अनुत्पादकवर्ग । कराधान । सरकारी कर्ज़ । सार्वजनिक उधारी । जनसंख्या । उपनिवेश । उत्प्रवास । 4) उत्पादन का अंतर्राष्ट्रीय संबंध । अंतर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन । अंतर्राष्ट्रीय विनिमय । निर्यात और आयात । विनिमय की दर । 5) विश्व बाज़ार और संकट । मार्क्स अपनी इस परियोजना को पूरा नहीं कर सके । इनमें से ज्यादातर की समझदारी पूँजीवादी उत्पादन को समझने के लिए बेहद जरूरी है । आप देख सकते हैं कि किताब के पहले खंड में मार्क्स पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को सिर्फ़ उत्पादन के नजरिए से समझते हैं । दूसरे खंड (अपूर्ण) में विनिमय संबंधों का परिप्रेक्ष्य अपनाया गया है । तीसरे खंड (अपूर्ण) में पूँजीवाद के बुनियादी अंतर्विरोधों से उत्पन्न संकट-निर्माण पर प्रथमत: ध्यान केंद्रित किया गया है । उसके बाद ब्याज, वित्त पूँजी पर मुनाफ़ा, जमीन का किराया, व्यापारिक पूँजी पर मुनाफ़ा, कराधान आदि के रूप में अधिशेष के वितरण पर विचार किया गया है ।
मार्क्स की पद्धति द्वंद्ववादी थी जिसे, उनके मुताबिक, आर्थिक मुद्दों पर पहले लागू नहीं किया गया था । अब दिक्कत यह है कि अगर आप किसी खास अनुशासन में गहरे धँसे हुए हैं तो संभावना ज्यादा इस बात की है कि द्वंद्ववादी पद्धति का इस्तेमाल आपके लिए मुश्किल होगा । द्वंद्ववाद के मुताबिक प्रत्येक वस्तु लगातार गति में होती है । मार्क्स भी महज श्रम की नहीं बल्कि श्रम की प्रक्रिया की बात करते हैं । पूँजी भी कोई स्थिर वस्तु नहीं बल्कि गतिमान प्रक्रिया है । जब संचरण रुक जाता है तो मूल्य गायब हो जाता है और पूरी व्यवस्था भहरा जाती है । उनकी किताब में अक्सर वस्तुओं की बजाए उनके आपसी संबंधों का जिक्र दिखाई पड़ता है । आज की तारीख मेंपूँजीके अध्ययन की एक और समस्या है । पिछले तीस सालों से जो नव-उदारवादी प्रतिक्रांतिकारी धारा विश्व पूँजीवाद के क्षेत्र में प्रबल रही है उसने उन स्थितियों को और मजबूत किया है जिन्हें मार्क्स ने 1850-60 के दशक में इंग्लैंड में विखंडित किया था । इससे इस किताब के अध्ययन की जरूरत तो सामने आती है लेकिन कठिनाई भी प्रकट होती है ।
बात दोबारा माल से ही शुरू करते हैं । मालों का व्यापार बाज़ार में होता है । सवाल खड़ा होता है कि आखिर यह आर्थिक लेन देन कैसा है । माल मनुष्य के किसी न किसी अभाव, जरूरत या इच्छा को पूरा करता है । यह हमसे बाहर मौजूद कोई वस्तु होती है जिसे हम अधिग्रहित करते और अपनाते हैं । मार्क्स तुरंत ही घोषित करते हैं कि उन्हें उन जरूरतों की प्रकृति से कोई लेना देना नहीं, उन्हें इससे भी कोई मतलब नहीं कि ये पेट से उपजती हैं या दिमाग से । उन्हें सिर्फ़ इससे मतलब है कि लोग उन्हें खरीदते हैं और इस काम का रिश्ता इस बात से है कि लोग जिंदा कैसे रहते हैं । अब माल तो लाखों हैं जिन्हें मात्रा या गुण के हिसाब से हजारों तरह से वर्गीकृत किया जा सकता है । लेकिन वे इस विविधता को एक किनारे धकेलकर उनको उनके सामान्य गुण में बदलते हैं जिसे वे उपयोगिता के बतौर व्याख्यायित करते हैं । वस्तु का यह ‘उपयोग मूल्य’ उनके समूचे चिंतन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । मार्क्स ने कहा था कि सामाजिक विज्ञानों में प्रयोगशाला की सुविधा न होने से हमें अमूर्तन का सहारा लेना पड़ता है । आप देख सकते हैं कि कैसे भिन्न भिन्न वस्तुओं के भीतर से उन्होंने अमूर्तन के जरिएउपयोग मूल्यप्राप्त किया । लेकिन जिस तरह के समाज का वर्णन मार्क्स कर रहे थे यानी पूँजीवादी समाज उसमें माल, विनिमय मूल्य के भी भौतिक वाहक होते हैं । हार्वे हमसे वाहक शब्द पर गौर करने को कहते हैं क्योंकि किसी चीज का वाहक होना और वही चीज होने में फ़र्क है । अब मार्क्स एक नई धारणा से हमारा परिचय कराना चाहते हैं ।
जब हम बाज़ार में विनिमय की प्रक्रिया को देखते हैं तो नाना वस्तुओं के बीच विनिमय की नाना दरें और देश काल की भिन्नता होने से एक ही वस्तु की अलग अलग विनिमय दरें दिखाई पड़ती हैं । इसलिए पहली नजर में लगता है कि विनिमय दरेंकुछ कुछ सांयोगिक और शुद्ध रूप से सापेक्षिकहैं । इससे प्रकट होता है किअंतर्निहित मूल्य, यानी ऐसा विनिमय मूल्य जो वस्तु के साथ अभेद्य रूप से जुड़ा हुआ, उसमें अंतर्निहित है, का विचार आत्म-विरोधी प्रतीतहोता है । यहाँ आकर वे कहते हैं कि भिन्न भिन्न वस्तुओं में आपसी विनिमय के लिए जरूरी है कि वे किसी अन्य वस्तु से तुलनीय हों ।उपयोग मूल्य के रूप में वस्तुएँ एक दूसरे से गुणात्मक तौर पर अलग होती हैं जबकि विनिमय मूल्य के रूप में उनमें सिर्फ़ मात्रा का भेद हो सकता है और उपयोग मूल्य का एक कण भी बचा नहीं रहता ।वस्तुओं की विनिमेयता उनके उपयोग मूल्य पर निर्भर नहीं होती । अब उस तीसरे तत्व का प्रवेश होता है जो इन वस्तुओं के बीच साझा है और वह है कि ये सभीश्रम का उत्पादहैं । मतलब सभी वस्तुएँ अपने उत्पादन में लगे मानव श्रम का वाहक होती हैं । इसके बाद वे पूछते हैं कि आखिर किस तरह का श्रम उनमें साकार हुआ है । यह ठोस-श्रम यानी श्रम-काल तो हो नहीं सकता क्योंकि तब वही वस्तु अधिक कीमती होगी जिसके उत्पादन में ज्यादा समय लगेगा । लोग फिर उस वस्तु को खरीदेंगे जिसे कम समय में बनाया गया होगा । इस समस्या को हल करने के लिए वे मानव श्रम का भी अमूर्तन करते हैं । मूल्य फिर क्या हुआ ? माल मेंसाकारयावस्तूकृतअमूर्त मानव श्रम ।तो यह अमूर्त मानव श्रम है श्रम-शक्ति अर्थात समाज कीसमूची श्रम-शक्ति जो मालों की दुनिया में साकारहोती है ।
इस धारणा में वैश्विक पूँजीवाद की धारणा शामिल है जिसको उन्होंनेकम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रमें पूरी तरह से उद्घाटित किया था । आज का वैश्वीकरण तो उनके समय नहीं था लेकिन वे पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की विश्वव्यापी उपस्थिति को भविष्य में साकार होता देख रहे थे । इसी के आधार पर उन्होंने मूल्य को ‘सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम-काल’ के बतौर परिभाषित किया । जिन्होंने रिकार्डो का लेखन देखा है वे समझेंगे कि मार्क्स ‘सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम-काल’ की धारणा के अलावे ज्यादातर उन्हीं का अनुसरण कर रहे थे लेकिन यह छोटी सी बात बहुत बड़ा फ़र्क पैदा कर देती है क्योंकि तुरंत ही सवाल पैदा होता है कि सामाजिक रूप से अनिवार्य क्या है और उसे तय कौन करता है । मार्क्स इसका कोई जवाब तो नहीं देते लेकिन पूरी किताब में यह विषय समाया हुआ है । पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में आखिर कौन सी सामाजिक अनिवार्यताएँ नत्थी हैं ? यह हार्वे को बड़ा सवाल लगता है और अनिवार्यताओं के विकल्प खोजने के लिए प्रेरित करता है । मूल्य स्थिर नहीं होता बल्कि तकनीक और उत्पादकता में क्रांति होने पर वे बदलते रहते हैं ।
तकनीक और उत्पादकता के साथ ही वे अन्य कारकों की चर्चा भी करते हैं । इसमें शामिल हैंमजदूरों के कौशल का औसत स्तर, विज्ञान के विकास और उसके तकनीकी प्रयोग का स्तर, उत्पादन प्रक्रिया का सामाजिक संगठन, उत्पादन के साधनों का विस्तार और प्रभाव और प्राकृतिक पर्यावरण की स्थितियाँ ।इनकी गणना करना मार्क्स का मकसद नहीं है बल्कि वे महज इस तथ्य पर जोर देना चाहते हैं कि वस्तु का मूल्य स्थिर नहीं होता वरन अनेक कारकों से प्रभावित होता रहता है ।
यहाँ आकर मार्क्स के तर्क में एक पेंच पैदा होता है । वे उपयोग मूल्य की ओर दोबारा लौटते हैं और कहते हैं किमूल्य बने बगैर भी कोई वस्तु उपयोग मूल्य हो सकती है ।हम साँस लेते हैं लेकिन हवा को बोतल में बंद कर अब तक उसे खरीद-बेच नहीं सके हैं । वे यह भी जोड़ते हैं किमाल बने बगैर भी मानव श्रम का कोई उत्पाद उपयोगी हो सकता है ।घरेलू अर्थतंत्र में बहुत सारी चीजों का उत्पादन माल उत्पादन से बाहर किया जाता है । इसलिए पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में सिर्फ़ उपयोग मूल्य नहीं बल्कि दूसरों के लिए उपयोग मूल्य का उत्पादित होना जरूरी है जिसे बाज़ार की मार्फ़त दूसरों तक पहुँचना होता है । मतलब कि माल में उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य होते हैं लेकिन विनिमय मूल्य में निहितमूल्यके साकार होने के लिए उसमें उपयोग मूल्य का होना जरूरी है ।
इसके बाद हार्वे अनुभाग 2 की व्याख्या शुरू करते हैं और बताते हैं कि इसमें मार्क्स अनेक जटिल सूत्रों को उठाते हैं और उन्हें महत्वपूर्ण कहकर आपको समझने के लिए आमंत्रित करते हैं । मार्क्स लिखते हैंउपयोग मूल्य दो तत्वों का संश्रय होता है, प्रकृति द्वारा प्रदत्त सामग्री और श्रम ।इसलिए मनुष्य जब उत्पादनरत होता है तो प्रकृति के नियमों के अनुसार ही आगे बढ़ सकता है । अलग अलग तरह की गुणात्मक रूप से भिन्न उत्पादक गतिविधियों में मानव श्रम ही निवेशित होता है । इसे मार्क्स ‘अमूर्त’ श्रम कहते हैं । सामान्य किस्म का यह श्रम नाना किस्म के वास्तविक उपयोग मूल्यों का उत्पादन करने वाले ठोस श्रम से अलग और विपरीत होता है । मार्क्स की निगाह में अमूर्त श्रम की यह धारणा महज विस्तृत वस्तु विनिमय के दौरान पैदा होने वाले अमूर्तन का प्रतिबिंब है । इस तरह मूल्य की धारणा मार्क्स सरल अमूर्त श्रम की इकाइयों में बनाते हैं । उनका कहना है कि ‘जटिल श्रम’ यानी कुशल श्रम को महज तीव्र अथवा गुणित सरल श्रम मानना होगा यानी थोड़ी मात्रा का जटिल श्रम अधिक मात्रा के सरल श्रम के बराबर माना जाएगा । यह अपघटन होता रहता है । इसका मतलब कि ठोस श्रम और उपयोगी श्रम के बीच महसूस होने वाला गुणात्मक अंतर तथा उपयोगी श्रम की विविधता को शुद्ध रूप से किसी मात्रात्मक और एकसम चीज में अपघटित कर दिया जाता है । मार्क्स का कहना है कि श्रम के अमूर्त यानी एकसम और ठोस यानी विविधता के पहलू श्रम की एकल क्रिया के दौरान एक्यबद्ध होते हैं । यह द्वैत एक ही श्रम प्रक्रिया में निहित रहता है । यानी श्रम के ठोस रूप के बगैर मूल्य साकार नहीं हो सकता लेकिन इस मूल्य को हम इसके विनिमयगत अमूर्तन के बिना जान नहीं सकते । ठोस और अमूर्त श्रम के बीच संबंध यह होता है कि भांति भांति के ठोस श्रम के जरिए ही अमूर्त श्रम का पैमाना पैदा होता है । यह तर्क प्रक्रिया पहले अनुभाग का प्रतिबिंब है । माल में उपयोग मूल्य, विनिमय मूल्य और मूल्य समाहित रहते हैं । इसी तरह श्रम की प्रक्रिया में भी उपयोगी ठोस श्रम और अमूर्त श्रम या मूल्य यानी सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम-काल समाहित रहते हैं जो बाजार में जाकर विनिमय मूल्य का धारक होगा ।
इसके बाद अनुभाग 3 में मार्क्स माल के पीछे बाजार में जाते हैं और मूल्य तथा विनिमय मूल्य के बीच रिश्ते की छानबीन करते हैं । इस अनुभाग में मार्क्स मुद्रा की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं । इसके लिए वे वस्तु विनिमय की स्थिति से शुरुआत करते हैं । मान लीजिए दो लोगों के पास अलग अलग माल हैं । मेरे पास जो माल है उसका सापेक्षिक मूल्य आपके पास मौजूद माल के मूल्य यानी निवेशित श्रम में व्यक्त होगा । इस तरह आपका माल मेरे माल के मूल्य का पैमाना होगा । रिश्ता उलट दीजिए तो मेरे माल को आपके माल के समान मूल्य के बतौर देखा जा सकता है । बाजार में जितने लोग हैं उतने ही माल हैं और उतने ही विनिमय भी होंगे और इसीलिए जितने भी माल हैं उतने ही उनके समतोल मूल्य और विनिमय होंगे । असल में मार्क्स बताना चाहते हैं कि विनिमय की क्रिया हमेशा दोहरी होती है । इसमें सापेक्षिक और समतोल के ध्रुवांत होते हैं जिसमें समतुल्य माल अमूर्त मानव श्रम के साकाररूप में प्रकट होता है । इस तरह माल के भीतर मौजूद उपयोग मूल्य और मूल्य का वैपरीत्य दो मालों, जिनमें से एक उपयोग मूल्य और दूसरा विनिमय मूल्य का प्रतिनिधित्व करता है, के बीच बाहरी विरोध के रूप में सतह पर दिखाई पड़ता है । बाजार जैसी जगह पर किसी भी माल के अनेक संभव समतुल्य होंगे और उसी तरह उस माल के एकल समतुल्य के साथ सभी अन्य मालों के सापेक्षिक मूल्यों का संभावित संबंध होगा । विनिमय मूल्यों की यह बढ़ती हुई जटिलता मूल्य के सामान्य रूप को जन्म देती है । अंतत: एक सार्वभौमिक समतुल्य पैदा होता है, कोई एक माल सामने आता है जो सिर्फ़ मुद्रा मालकी भूमिका निभाने लगता है । यह मुद्रा माल व्यापार व्यवस्था के दौरान, न कि उसके पहले पैदा होता है । इसलिए मुद्रा रूप के सुदृढ़ होने के लिए विनिमय संबंधों का प्रसार आवश्यक होता है । मार्क्स के समय यह भूमिका सोना या चांदी जैसी चीजें यह भूमिका निभाती थीं । इसी अनुभाग की एक और धारणा की ओर हमारा ध्यान हार्वे आकृष्ट करते हैं । मूल्य अभौतिक किंतु वस्तुगत होता है । मूल्य एक सामाजिक संबंध है और सभी सामाजिक संबंधों की तरह आप इसे देख या छू नहीं सकते लेकिन इसकी वस्तुगत मौजूदगी से इनकार नहीं कर सकते । अभौतिक होने के कारण मूल्य को प्रातिनिधिक साधन की जरूरत होती है । इसलिए मुद्रा प्रणाली के उदय यानी मुद्रा के रूप में पार्थिव प्रकटीकरण ही सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम-काल के बतौर मूल्य को विनिमय संबंधों का नियामक बना देता है । मुद्रा आधारित विनिमय का उदय पूंजीवादी उत्पादन संबंध में सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम-काल को निर्देशक शक्ति बना देता है । हार्वे के मुताबिक बुनियादी निष्कर्ष यह है कि मूल्यों तथा मुद्रा के रूप में उनके प्रतिनिधित्व की प्रक्रिया अंतर्विरोधों से भरी हुई है इसलिए यह कभी संपूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं होता । माल और मुद्रा के बीच का यह अंतर्विरोधी संबंध किसी भी वस्तु में निहित उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य के विरोध का परिणाम होता है ।
अनुभाग 4 जड़ वस्तु-पूजा से जुड़ा हुआ है और हार्वे के अनुसार इसकी शैली अनुभाग 3 की शैली से पूरी तरह से अलग यानी साहित्यिक है । यह अनुभाग मूल रूप से एक पाद टिप्पणी था, बाद में स्वतंत्र अनुभाग बना इसलिए मार्क्स के समूचे चिंतन के साथ इस धारणा के रिश्ते को लेकर दुबिधा रही है । जो लोग मार्क्स को ज्यादा आर्थिक सिद्ध करना चाहते हैं उनकी नजर में यह धारणा असुविधाजनक है जबकि जो उन्हें ज्यादा दार्शनिक मानते हैं उनके लिए यह धारणा सबसे अधिक महत्वपूर्ण रही है । खुद हार्वे मार्क्स की इस धारणा को उनकी किताब की महत्वपूर्ण धारणा मानते हैं क्योंकि यह अनेक प्रसंगों में बारंबार सामने आती है । सबसे पहले वे पहचानते हैं कि वस्तु पूजा कैसे पैदा होती है और पूंजीवादी आर्थिक-राजनीतिक जीवन में कैसे बुनियादी तथा अनिवार्य पहलू बन जाती है । इसके बाद वे इस बात की परीक्षा करते हैं कि आम तौर पर बुर्जुआ चिंतन और खास तौर पर क्लासिकी राजनीतिक अर्थशास्त्र में इस जड़ वस्तु पूजा को गलत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है । इसके जन्म की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए मार्क्स बताते हैं कि वस्तुओं के उत्पादक तब तक एक दूसरे के सामाजिक संपर्क में नहीं आते जब तक अपने श्रम से पैदा वस्तुओं में वे लेन देन नहीं करते यानी बाजार विनिमय के जरिए ही वे अपने निजी श्रम की सामाजिक विशेषताओं को जान पाते हैं । इसलिए उत्पादकों को अपने निजी श्रम के बीच का सामाजिक रिश्ता इस तरह का प्रतीत होता है मानो वह उनके मालों के बीच का सामाजिक रिश्ता हो । मार्क्स का मकसद यह बताना है कि कैसे वस्तुओं के विनिमय के जरिए बाजार व्यवस्था और मुद्रा रूप वास्तविक सामाजिक संबंधों को छिपा लेते हैं । यह जड़ वस्तु पूजा पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की अपरिहार्य स्थिति है । जैसे ही उत्पादन की अन्य पद्धतियों के बारे में आप सोचना शुरू करते हैं जड़ वस्तु पूजा की अनिवार्यता खत्म हो जाती है । मार्क्स का उद्देश्य पूंजीवाद के विकल्पों की तलाश को प्रेरित करना है ।
इसके बाद हार्वे विनिमय की प्रक्रिया से संबंधित दूसरे अध्याय की शुरुआत यह बताकर करते हैं कि यह छोटा है तथा मुद्रा रूप से जुड़े हुए तीसरे अध्याय की पीठिका है । माल खुद ही बाजार में नहीं जाते, वे अपने संरक्षकोंको लेकर आते हैं । ये संरक्षक एक दूसरे को निजी संपत्ति के मालिकान मानते हैं । वे मनुष्य के बतौर नहीं मालों के प्रतिनिधि और मालिक के बतौर आपस में मिलते हैं । मार्क्स की किताब में लोग व्यक्ति की तरह नहीं, आर्थिक संबंधों की मूर्तियों के बतौर प्रकट होते हैं और ऐसा पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के चलते होता है । वे इन संबंधों को ढोने वालों की तरह एक दूसरे से मिलते हैं । मार्क्स की नजर लोगों की आर्थिक भूमिकाओं पर है इसलिए वे क्रेता और विक्रेता, कर्जखोर और कर्जदाता, पूंजीपति और मजदूर के बीच रिश्तों की परीक्षा करते हैं । सभी मालों का उनके मालिकों के लिए कोई उपयोग मूल्य नहीं होता और जो उनके मालिक नहीं होते उनके लिए वे उपयोगी होती हैं । असल में वस्तुएं मनुष्यों के लिए बाहरी और इसीलिए विनिमेय होती हैं । माल का कानूनी स्वामित्व पूंजीवादी दुनिया में आपसी अलगाव और अपरिचय के सामाजिक महौल का सहवर्ती होता है ।
तीसरा अध्याय मुद्रा पर केंद्रित है । स्पष्ट है कि माल विनिमय की प्रक्रिया में मुद्रा का उदय होता है । मुद्रा एकल धारणा है लेकिन इसके दोहरे काम, यानी खुद एक माल होना साथ ही अन्य मालों का पैमाना होना, में माल के भीतर मौजूद उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य का अंतर्विरोध प्रतिबिंबित होता है । उसकी इन दोनों भूमिकाओं में तनाव रहता है । उदाहरण के लिए मूल्य के पैमाने के बतौर सोना बहुत बेहतर है लेकिन मालों के छोटे छोटे लेन देन के लिए असुविधाजनक है । मुद्रा के इसी अंतर्विरोध के हल के लिए पूंजी का जन्म होता है । जैसे मुद्रा की संभावना विनिमय की प्रक्रिया में साकार हुई थी उसी तरह पूंजी की संभावना मूल्य के पैमाने के बतौर मुद्रा और वितरण के साधन के बतौर मुद्रा के बीच अंतर्विरोध से साकार होती है । संक्षेप में इस अध्याय का यही कथ्य है ।
इसके अनुभाग 1 में वे मूल्य और कीमत के बीच अंतर स्पष्ट करते हैं । वे बताते हैं कि मुद्राऔर मुद्रा मालमें अंतर होता है । वे मान लेते हैं कि सोना एकमात्र मुद्रा माल है जिसके रूप में, मालों में छिपे हुए श्रम-काल रूपी मूल्य के पैमाने का प्रकटीकरण होता है । मालों के मूल्य की जानकारी और पहचान उनके साकार प्रकटीकरण के बिना नहीं होती । अब एक पेंच पैदा होता है । सबसे पहले तो माल की कीमत तय होती है । मार्क्स का कहना है कि यह कीमत काल्पनिक होती है । जब कोई व्यक्ति माल बनाता है तो उसे बिना बाजार में भेजे उसके मूल्य को नहीं जान सकता । बाजार में उसे मूल्य की एक काल्पनिक धारणा के साथ भेजा जाता है । वही उसकी कीमत है । इस तरह संभावित खरीदार को अपने माल का वांछित मूल्य बताया जाता है । बेचने वाला इसके जरिए बाजार में अपने माल को मिलने वाली कीमत का अंदाजा जाहिर करता है । इस तरह काल्पनिक कीमत और बाजार में हासिल होने वाली असली कीमत के बीच खास किस्म का रिश्ता बनता है जिसमें हासिल कीमत को असली मूल्य होना चाहिए लेकिन वह मूल्य का अपूर्ण प्रकटीकरण, दिखाई देने वाला रूप होता है । हमें तलाश होती है मूल्य के मात्रात्मक प्रतिनिधि के बतौर नापने के स्थायी मानक की लेकिन मिलता है सोना जिसका मूल्य माल होने के नाते अपने रूप में साकार सामाजिक तौर पर आवश्यक श्रम-काल के बराबर होता है और यह स्थिर नहीं होता । उत्पादन की ठोस स्थितियों में हेर फेर से सोने के मूल्य में भी बदलाव आता है । उदाहरण के लिए 1848 में गोल्ड रश के चलते बाजार में सोने की आवक बढ़ जाने से इसका भाव गिर गया था तो बाकी सभी मालों का भाव ऊपर करना पड़ा था । मार्क्स का कहना है कि मूल्य के पैमाने के बतौर और कीमत के मानक के बतौर मुद्रा दो भिन्न काम संपादित करती है, इसे मूल्य के पैमाने और वितरण के माध्यम के रूप में विरोध से अलग समझना होगा । मुद्रा में मौजूद धातु का निश्चित भार ही कीमत का मानक होता है । धीरे धीरे इस धातु भार के मुद्रा नाम अपने मूल भार नामों से अलग और स्वतंत्र हो जाते हैं । इस काम में हम राज्य की उपस्थिति की जरूरत देख सकते हैं । इसके अलावा मार्क्स कुछ और भी बातें उठाते हैं । एक तो यह कि किसी भी माल की कीमत जिस समय वह बाजार में बिकने के लिए लाया गया उस समय बाजार में संबंधित माल की माँग और पूर्ति पर निर्भर होती है, इसे ही क्लासिकी राजनीतिक अर्थशास्त्र माल की प्राकृतिककीमत कहता है, लेकिन मार्क्स के अनुसार माँग और पूर्ति से किसी भी चीज की व्याख्या नहीं होती । दूसरी बात कि प्रतिष्ठा या अंत:करण जैसी चीजें भी माल की तरह खरीदी और बेची जा सकती हैं । अर्थात वस्तुओं की कीमत उनके मूल्य के बगैर भी हो सकती है । बंजर जमीन की कीमत हो सकती है लेकिन मूल्य नहीं क्योंकि उसमें मानव श्रम साकार नहीं हुआ है । कुल मिलाकर यह कि मार्क्स मूल्य के श्रम सिद्धांत पर बहुत जोर देते हैं । उन्हें अपने समय में इसकी रक्षा की कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी क्योंकि हार्वे के मुताबिक उनके समकालीनों में रिकार्डो की यह मान्यता संदेह से परे थी लेकिन आज मूल्य के श्रम सिद्धांत पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं तो थोड़ा विचार कर लेना चाहिए । इसकी रक्षा में मार्क्स शायद जोर देते कि हमारे अस्तित्व के लिए असली उत्पादन यानी श्रम प्रक्रिया के जरिए प्रकृति का वास्तविक रूपांतरण आवश्यक है और यही भौतिक श्रम समस्त मानव जीवन के उत्पादन और पुनरुत्पादन का आधार है । यह मान लेना कि जिन चीजों का हम इस्तेमाल करते हैं वे धन की ताकत के सहारे बाजार से जादू के जोर पर आती हैं, माल की जड़ वस्तु पूजा के सामने पूरी तरह समर्पण कर देना है । इस जड़ पूजा के रहस्योद्घाटन के लिए सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम-काल के बतौर मूल्य की धारणा जरूरी है । माल की बाजार में कीमत उसके इसी मूल्य के इर्द गिर्द चढ़ती उतरती रहती है ।
अनुभाग 2 वितरण के साधन के बतौर मुद्रा पर विचार करता है । इसके शुरू में ही वे मालों के विनिमय की अंतर्विरोधी स्थितियों की याद दिलाते हैं । हार्वे के अनुसार मार्क्स उन तीन अंतर्विरोधी प्रक्रियाओं का जिक्र कर रहे हैं जो हैं-1 ’उपयोग मूल्य अपने विपरीत यानी मूल्य का साकार प्रकट रूप हो जाता है’ 2 ‘ठोस श्रम अपने विपरीत यानी अमूर्त मानव श्रम के प्रकटीकरण का रूप हो जाता हैऔर 3 ’निजी श्रम अपने विपरीत यानी प्रत्यक्ष सामाजिक श्रम का रूप ले लेता है। सोना ऐसा माल है जिसका खास उपयोग मूल्य है और जो कुछ लोगों द्वारा निजी तौर पर उत्पादित और अधिग्रहित होता है फिर भी ये विशेषताएँ गायब हो जाती हैं जब वह सार्वभौमिक मुद्रा माल के रूप में सामने आता है । माल के इस विकास में उसमें निहित अंतर्विरोध खत्म नहीं होते बल्कि उसे ऐसा रूप मिल जाता है जिसमें वे साथ ही बने रहते हैं । यही मार्क्स का द्वंद्ववाद है यानी वस्तुओं में निहित अंतर्विरोधों की मौजूदगी की पहचान । इसमें अंतर्विरोध हल नहीं होते, वृहत्तर पैमाने पर वे लगातार दोहराए जाते हैं । आभासी तौर पर उनका हल होता प्रतीत होता है । इस अनुभाग में वे विनिमय की प्रक्रिया को माल-मुद्रा-मालसंबंध के रूप में व्यक्त करते हैं । इसमें दो प्रक्रियाएँ शामिल हैं- माल से मुद्रा और फिर मुद्रा से माल में रूपांतरण । ऊपर से तो लगेगा कि ये दोनों समान हैं लेकिन ऐसा है नहीं । माल से मुद्रा वाली प्रक्रिया यानी बिक्री का मतलब है किसी माल विशेष के रूप का सार्वभौमिक समतुल्य यानी मुद्रा माल में रूपांतरण । यह विशेष की सामान्य की ओर गति है । आप माल लेकर बाजार गए लेकिन उस माल की किसी को जरूरत नहीं हो तो ? यहाँ विनिमय की प्रक्रिया को प्रभावित करने में माँग और माँग के उत्पादन संबंधी तमाम सवाल उठने लगते हैं । इस तरह माल से मुद्रा में रूपांतरण में जटिलता बहुत हद तक बाजार में मौजूद माँग और पूर्ति संबंधी तात्कालिक स्थितियों से पैदा होती है । बाजार विनिमय की अराजकता और अनिश्चितता इस रूपांतरण में मुश्किलें पैदा करती है । बिक्री के बाद दूसरी प्रक्रिया शुरू होती है यानी मुद्रा का माल में रूपांतरण । इसमें मुद्रा का माल में यानी सामान्य का विशेष में संक्रमण होता है । मुद्रा का मालिक बाजार में वैसी मुश्किल का सामना नहीं करता जैसी मुश्किल माल के मालिक को होती है । मुद्रा का मालिक कोई भी चीज पा सकता है क्योंकि उसके पास सार्वभौमिक समतुल्य है । विनिमय की इस प्रक्रिया में दोनों ओर से मुद्रा का हस्तक्षेप होता है । माल की खरीद और बिक्री में मुद्रा हरेक छिद्र से टपकती है । माल को बेचने से मिलने वाली मुद्रा को उसका मालिक संकट के लिए रोककर या बचाकर भी रख सकता है क्योंकि संकट के समय विशेष माल की बजाए मुद्रा अधिक कारगर होगी । अगर सभी ऐसा करें तो स्वाभाविक रूप से सामान्य संकट पैदा हो जाएगा । मार्क्स के तर्क का अगला चरण मुद्रा के वितरण का विश्लेषण है । इसी अध्याय के अंत में सांकेतिक मुद्रा पर विचार करते हुए अर्थतंत्र में राज्य की भूमिका तथा विश्व बाजार और विश्व मुद्रा की धारणा सामने आती है ।  
अनुभाग 3 मुद्रा पर विचार करता है । फिर से एक बार देखते हैं कि मार्क्स का कहना क्या है । उन्होंने मूल्य के पैमाने के बतौर मुद्रा की परीक्षा की थी और उसके काल्पनिक रूप कीमत तथा मूल्य के बीच अंतर्विरोध की बात की थी । वितरण के साधन के बतौर उसके अंतर्विरोधों का उद्घाटन करते हुए सामान्य संकट की संभावना का जिक्र किया था । इसके बाद वे कहते हैं कि लेकिन मुद्रा तो एक ही है जो मूल्य का पैमाना और वितरण का माध्यम है । वितरण की प्रक्रिया में माल का मुद्रा में रूपांतरण होता है । अब यह मुद्रा रूप विनिमय की मध्यस्थता की जगह खुद ही साध्य हो जाता है । मालों का विक्रेता मुद्रा का जखीरेबाज बन जाता है । जखीरेबाजी की एक वजह मुद्रा की ताकत को इकट्ठा करना तो है ही इसका एक अन्य सामाजिक कारण भी होता है । किसान विक्रेता फसल की बिक्री के समय ही होता है लेकिन खरीदार तो दैनिक होता है इसलिए मुद्रा का एक और काम यानी भुगतान भी इससे जुड़ जाता है । इसी के साथ मार्क्स मुद्रा की एक विशेषता को उजागर करते हुए कहते हैं कि मुद्रा ऐसी सामाजिक शक्ति है जो व्यक्तियों की निजी शक्ति बन जा सकती है । यहाँ आकर हम यह देखते हैं कि पहले मार्क्स ने उस प्रक्रिया का वर्णन किया था जिसमें श्रमिक का निजी श्रम एक सार्वभौमिक समतोल के उत्पादन में संलग्न था अब वे उलटी प्रक्रिया समझा रहे हैं जिसमें व्यक्ति इस सार्वभौमिक समतोल को निजी मकसद से अधिग्रहित कर सकता है । हम वर्गीय शक्ति को मुद्रा के रूप में निजी हाथों में केंद्रित होता हुआ देखने लगते हैं । यह इतिहास के सभी समाजों की नैतिक व्यवस्था का उल्लंघन है । मुद्रा सभी समुदायों का विनाश करके महज एक ही समुदाय पैदा करती है- मुद्रा का समुदाय । मुद्रा की जखीरेबाजी की मात्रा की सीमा और गुण की सीमाहीनता के अंतर्विरोध से संचय का जन्म होता है । ध्यान देने की बात है कि संचय की धारणा पर मार्क्स मुद्रा की जखीरेबाजी में निहित अंतर्विरोध के उद्घाटन के जरिए पहुँचते हैं । पूँजीवादी उत्पादन पद्धति बुनियादी रूप से अनंत संचय और असीम वृद्धि पर आधारित है । मार्क्स मुद्रा के शक्ति संचय की असीम संभावना और उपयोग मूल्य के संचय की प्रत्यक्ष सीमा के बीच अंतर्विरोध से अपना तर्क निर्मित करते हैं । भुगतान के साधन के रूप में मुद्रा के उपयोग की जो बात हुई थी उसी के क्रम में कर्ज लेने देने की व्यवस्था सामने आती है और पूंजी के वितरण की प्रक्रिया शुरू होती है । जो बात माल-मुद्रा-माल के चक्र से शुरू हुई थी, वह मुद्रा-माल-मुद्रा के चक्र तक आती है जिसमें मुद्रा का इस्तेमाल ज्यादा मुद्रा प्राप्त करने के लिए होने लगता है । इस तरह पूँजीवादी समाज के जन्म और विकास की कहानी सामने आती है जो माल विनिमय के प्रसार के साथ क्रमश: आगे बढ़ा है ।
हार्वे की इस पुस्तक का तीसरा अध्याय और मार्क्स की पुस्तक का दूसरा भाग पूँजी से श्रम-शक्ति तक की यात्रा है । हार्वे बताते हैं कि मार्क्स ने शुरुआत माल-माल के वस्तु विनिमय से की फिर माल-मुद्रा-माल के मुद्रा की मध्यस्थता वाले विनिमय से होते हुए मुद्रा-माल-मुद्रा वाली विनिमय की अवस्था तक पहुँचे । इसमें पहले के विनिमय से अंतर यह था कि जितनी मुद्रा चक्र के आरंभ में डाली गई उतनी ही वापस नहीं आती, बल्कि कुछ बढ़कर लौटती है । मुद्रा की यह बढ़ी हुई मात्रा ही अतिरिक्त मूल्य है । सवाल खड़ा होता है कि जब मुद्रा से माल लिया गया और फिर माल देकर मुद्रा अर्जित की गई तो दोनों ही लेन देन समान थे फिर यह अतिरिक्त मुद्रा कहाँ से आई । मार्क्स का कहना है कि अगर विनिमय के नियमों का पालन सही सही हो रहा है तो इस परिघटना की व्याख्या के लिए ऐसा माल होना चाहिए जो अपने मूल्य से अधिक मूल्य पैदा करने की क्षमता से युक्त हो । मार्क्स की किताब के इस दूसरे भाग के अंत में इस सवाल का जवाब श्रम-शक्ति के रूप में इस माल की पहचान से दिया गया है । संक्षेप में यही इस भाग के तीन अध्यायों में कहा गया है । इस तरह माल विनिमय से आगे बढ़कर बात पूँजी संचरण तक आती है ।
इसके साथ ही एक और कहानी भी इन तीन अध्यायों में कही गई है । ग्रुंड्रिस में मार्क्स कहते हैं कि उत्पादन का सबसे विकसित और सर्वाधिक जटिल ऐतिहासिक संगठन बुर्जुआ समाज है इसलिए इसके संबंधों को व्यक्त करने वाली कोटियाँ और इसकी संरचना की समझ हमें इसके पहले के सभी लुप्त सामाजिक रूपों के उत्पादन संबंधों और संरचनाओं के बारे में उसी तरह अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं जैसे मनुष्य का शरीर रचना विज्ञान हमें बंदर की शरीर रचना की जानकारी देता है । लेकिन हार्वे की टिप्पणी के अनुसार इसका अर्थ यह नहीं है कि बुर्जुआ अर्थतंत्र की कोटियाँ सभी किस्म के समाजों के लिए सच हैं । बुर्जुआ क्रांति ने पहले के सभी तत्वों को बुनियादी रूप से बदलकर ही उन्हें नया जीवन दिया है इसलिए हम पूँजीवाद से पहले की इन संरचनाओं को नई रोशनी में देख सकते हैं ।
इन तीन अध्यायों में से पहला अध्याय एक ऐतिहासिक वक्तव्य से शुरू होता है कि विश्व बाजार और विश्व व्यापार का आरंभ सोलहवीं सदी से होता है और तभी से पूँजी का आधुनिक इतिहास भी अपने पन्ने खोलना शुरू करता है तथा माल संचरण पूँजी के प्रथम रूप का साकारीकरण है । स्वाभाविक है कि इतिहास का इतना बड़ा फलक जिसके सामने हो वही साम्यवादी समाज से पहले के समस्त इतिहास को मानवता का प्राक-इतिहास कह सकता है । वे इस बात की परीक्षा करते हैं कि सामंतवाद से पूँजीवाद में संक्रमण के दौरान पूँजी ने भू-संपत्ति की ताकत का कैसे मुकाबला किया । वे पाते हैं कि इस संक्रमण में पूँजी के दो रूपों- व्यापारिक पूँजी और सूदखोर पूँजी- ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । पूँजी के ये रूप आधुनिकऔद्योगिक रूप से अलग थे । सामंती व्यवस्था और भू-संपत्ति की ताकत का खात्मा बहुत हद तक व्यापारिक और सूदखोर पूँजी की ताकत के जरिए हुआ । खासकर सूदखोर पूँजी में मुद्रा और उसके मालिकान की स्वतत्र सामाजिक शक्ति दिखाई पड़ती है जो पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में सामाजिक तौर पर जरूरी होती है । इसी शक्ति के बल पर सूदखोरों ने सामंतवाद को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया । इसके बाद वे अपने मूल विषय की ओर लौटते हैं और बताते हैं कि मुद्रा-माल-मुद्रा के संचरण में जब मुद्रा अपना मौलिक मूल्य तो बरकरार रखती ही है, एक अतिरिक्त मूल्य भी जोड़ लेती है तो उसे ही पूँजी कहा जाएगा । इस तरह पूँजी कोई वस्तु नहीं, बल्कि मूल्य संचरण की एक प्रक्रिया है । पूँजी की यह प्रक्रियापरक परिभाषा बेहद महत्वपूर्ण है और क्लासिकी राजनीतिक अर्थशास्त्र से अलग है क्योंकि क्लासिकी राजनीतिक अर्थशास्त्र में पूँजी को संपदा का जखीरा समझा जाता है । पारंपरिक अर्थशास्त्र में तो इसे उत्पादन का एक कारक मात्र माना जाता है । मार्क्स की परिभाषा के अनुसार समस्त मुद्रा पूँजी नहीं है । अतिरिक्त मूल्य अर्जित करने के बाद वह पूँजी बनती है । सवाल उठता है कि आखिर वह कितना अतिरिक्त मूल्य अर्जित कर सकता है । पहले ही वे बता चुके हैं और उसे दोहराते हैं कि मुद्रा के शक्ति-संचय की संभावना असीम होती है । इसी मुद्रा का मालिक पूँजीपति कहलाता है जिसका फौरी मकसद उपयोग मूल्य कभी नहीं होता, उपयोग मूल्य का उत्पादन वह महज विनिमय मूल्य हासिल करने के लिए करता है । पूँजीपति के अस्तित्व का लक्ष्य इसी अतिरिक्त मूल्य का अर्जन है जिसे लोकप्रिय भाषा में मुनाफ़ा कहा जाता है । वे कहते हैं कि पूँजी गतिमान मूल्य है जो अलग अलग रूपों में दिखाई पड़ता है । कभी मुद्रा के रूप में तो कभी माल के रूप में । यह बारंबार संचरण में प्रवेश करती है और थोड़ा अधिक होकर बाहर निकलती है । अब वे फिर व्यापारिक और सूदखोर पूँजी पर लौटते हैं और हम देखने लगते हैं कि सस्ता खरीदकर महँगा बेचने में मुनाफ़ा प्राप्त होता है और सूदखोरी में मुद्रा ही अधिक मुद्रा अर्जित करती है । इस तरह औद्योगिक, व्यापारिक और सूदखोर, पूँजी के इन सभी रूपों में सामान्य तत्व मुद्रा की निश्चित मात्रा का संचरण की प्रक्रिया में इजाफा है । इसे ही वे पूँजी का सामान्य सूत्र कहते हैं । संचरण के इसी रूप की परीक्षा करने से उसकी बढ़ोत्तरी का रहस्योद्घाटन होगा ।
अगला अध्याय संचरण के इस रूप के अंतर्विरोधों की जाँच परख के जरिए इस सवाल का जवाब पाने की कोशिश है कि यह अतिरिक्त मूल्य कहाँ से आता है । नियमों के मुताबिक तो मुद्रा से माल और माल से मुद्रा में संक्रमण में बराबरी होनी चाहिए । हो सकता है कि कीमत और मूल्य में थोड़ा अंतर हो और किसी को घाटा उठाना पड़े लेकिन ऐसी चीजें माल विनिमय के नियमों का उल्लंघन ही होती हैं । कुछ अर्थशास्त्री मूल्य की इस बढ़ोत्तरी को उपयोग मूल्यों के क्षेत्र में खोज रहे थे लेकिन मार्क्स कहते हैं कि विनिमय मूल्य की दुनिया की समस्या को उपयोग मूल्य की दुनिया में नहीं हल किया जा सकता । अतिरिक्त मूल्य की इस समस्या को हल करने के लिए साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक लूट का हवाला भी दिया जा सकता है लेकिन मार्क्स की नजर में पूँजीवाद के अस्तित्व के लिए उपनिवेश अनिवार्य नहीं होते । मूल्य की इस घटत बढ़त को विनिमय की समानता के भीतर से ही पैदा होना चाहिए । कोई ऐसी बात जरूर होनी चाहिए जिससे सभी पूँजीपतियों को यह अतिरिक्त मूल्य हासिल होता है । इसे उत्पादन की प्रक्रिया में ही खोजना होगा तभी पूँजीवाद के अन्य रूपों, व्यापारिक और सूदखोर पूँजी, पर औद्योगिक पूँजीवाद की बरतरी साबित होगी ।
इस अंतर्विरोध का समाधान श्रम-शक्ति की खरीद बिक्री में मिलता है । श्रम-शक्ति को माल बनने के लिए उसके मालिक के पास उसे बेचने की आजादी होनी चाहिए । दास और भू-दास से वह इसी मामले में अलग होता है कि वह खुद को नहीं, बल्कि मूल्य पैदा करने की अपनी शारीरिक, मानसिक और मानव क्षमता का सौदा करता है । पूँजीपति को भी मजदूर नहीं, एक निश्चित समय के लिए श्रम की या मूल्य पैदा करने की उसकी क्षमता हासिल होती है । मार्क्स इस सवाल पर ध्यान नहीं देते कि आखिर मजदूर अपनी यह क्षमता बेचता क्यों है लेकिन एक बात जरूर कहते हैं कि ऐसा यानी एक ओर तो मुद्रा या माल के स्वामी और दूसरी ओर श्रम-शक्ति के अलावा किसी तरह की संपत्ति से हीन मनुष्य का होना, प्राकृतिक नहीं है, प्रकृति के इतिहास में तो ऐसा अनिवार्य नहीं ही है, मानव इतिहास के भी सभी समयों के लिए सत्य नहीं है । सामाजिक उत्पादन की सारी पुरानी पद्धतियों को नष्ट कर देने वाली आर्थिक क्रांतियों के साथ ही ऐसा घटित हुआ है । पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के जन्म के साथ यह हुआ है । बहरहाल श्रम-शक्ति ऐसा एकमात्र माल है जो मूल्य पैदा कर सकता है । श्रम-शक्ति का संचरण माल-मुद्रा-माल के रूप में होता है यानी वह अपनी श्रम-शक्ति को बेचकर मुद्रा अर्जित करता है और उसके जरिए फिर भरण पोषण के लिए माल खरीदता है । इस विनिमय में उपयोग मूल्य महत्वपूर्ण है । दूसरी ओर पूँजी मुद्रा-माल-मुद्रा के रूप में संचरण करती है । इसमें भी वह मुद्रा का भुगतान श्रम-शक्ति का उपभोग कर लेने के बाद करता है । श्रम-शक्ति के उपभोग की प्रक्रिया मालों और अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया है ।  
अतिरिक्त मूल्य को समझने के लिए जानना होगा कि माल के रूप में श्रम-शक्ति का मूल्य कैसे तय होता है । मार्क्स कहते हैं कि इसका मूल्य इसके उत्पादन और पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक श्रम काल से तय होता है । श्रम-शक्ति के बने रहने के लिए जरूरी भरण पोषण की चीजों के उत्पादन में लगा हुआ श्रम काल ही उसका मूल्य है । एक नजर में यह सूत्र बहुत साधारण लगता है लेकिन जरूरत के निर्धारण में कुछ खास चीजों की ओर ध्यान देना होगा । ये जरूरतें काम की प्रकृति और विभिन्न देशों की जलवायु के हिसाब से भिन्न हो सकती हैं । इसके अलावा जरूरतें और उनके पूरा करने का तरीका संबद्ध देशों की सभ्यता के स्तर से भी तय होता है । यानी श्रम-शक्ति का मूल्य वर्ग संघर्षों के इतिहास से भी जुड़ा हुआ है ।
इसके बाद का अगला अध्याय श्रम प्रक्रिया और अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन पर विचार करता है । हार्वे का कहना है कि इस अध्याय में शुरू के दसेक पृष्ठ अब तक की पद्धति से अलग हैं । अब तक मार्क्स सभी चीजों पर पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के संदर्भ में विचार कर रहे थे लेकिन इन पृष्ठों में वे श्रम प्रक्रिया पर इस तरह विचार करते हैं कि उसे किसी भी पद्धति के साथ लागू किया जा सकता है । वे कहते हैं कि मानव श्रम ऐसी शाश्वत प्राकृतिक अनिवार्यता है जो मनुष्य और प्रकृति के बीच आपसी चयापचय की और इसीलिए खुद मानव जीवन की मध्यस्थता करती है । हार्वे का कहना है कि मार्क्स के कथन को ऐसे ढाँचे में नहीं देखना चाहिए जिसमें मनुष्य और प्रकृति, संस्कृति और प्रकृति, कुदरती और बनावटी, मानसिक और शारीरिक में साफ विभाजन मान लिया जाता है । मार्क्स की नजर में श्रम प्रक्रिया में ऐसा कोई स्पष्ट विभाजन नहीं होता, यह प्रक्रिया एक ही साथ पूरी तरह मानवीय और पूरी तरह प्राकृतिक होती है । लेकिन इस प्रक्रिया में मनुष्य अपने आस पास की दुनिया के साथ सक्रिय संबंध बनाता है, जो प्रकृति की ही एक शक्ति का प्राकृतिक सामग्री के साथ सामना होता है । मनुष्य अपने शरीर के विभिन्न अंगों का प्रयोग करके प्राकृतिक सामग्री को अपनी जरूरत के मुताबिक ढालता है । इस तरह वह प्रकृति को तो बदलता ही है, अपने आपको भी साथ ही बदलता है । अपने आपको बदले बिना आस पास की दुनिया को बदलना संभव नहीं है । उसी तरह आस पास की दुनिया को बदले बिना अपने आपको बदलना संभव नहीं है । इसमें प्रकृति का बाह्यीकरण और सामाजिक का अभ्यंतरीकरण शामिल है । मानव समाज और प्रकृति के विकास को इसी तरह समझा जा सकता है, लेकिन मनुष्य के अलावा अन्य जीव जंतु भी प्रकृति के साथ इसी तरह के द्वंद्वात्मक रिश्ते बनाते हैं । इनके बीच अंतर को रेखांकित करते हुए मार्क्स कहते हैं कि मनुष्य किसी भी चीज को पहले अपने दिमाग में बनाता है, उसके बाद उसे निर्मित करता है ।
हार्वे इसे महत्वपूर्ण स्थापना मानते हैं । उनके मुताबिक मार्क्स मनुष्य की उत्पादक गतिविधि में विचार के, कल्पना के क्षण को जरूरी मानते थे । किंतु यह कल्पना आकाशी नहीं होती, मनुष्य की कल्पनाशीलता प्रकृति की उपलब्ध सामग्री से नियंत्रित होती है । काम की प्रकृति के प्रति आकर्षण ही उसकी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को मुक्त अवकाश देता है और उसका मन लगाता है । मार्क्स का कहना है कि विचार भी किन्हीं अर्थों में पूरी तरह प्राकृतिक होते हैं । वे प्रकृति के साथ चयापचयिक संबंध से पैदा होते हैं और इसके निशान हमेशा उन पर बने रहते हैं । दुनिया के बारे में हमारी मानसिक धारणाएँ हमारे भौतिक अनुभवों से विच्छिन्न नहीं होतीं, लेकिन इस आंतरिक संबंध का अपरिहार्य बाह्यीकरण होता है । जिस बाह्य जगत का हम रूपांतरण करना चाहते हैं उस भौतिक दुनिया से हमारी मानसिक धारणाएँ बाहरी संबंध बनाती हैं । इस बाह्यीकरण की प्रक्रिया में हमारी धारणाओं का दुनिया से रिश्ता उसी तरह टूट जाता है और संकट पैदा हो जाता है जैसे मुद्रा प्रणाली का मूल्य यानी सामाजिक रुप से आवश्यक श्रम से संबंध टूट जाने से संकट पैदा हो जाता है । हार्वे के अनुसार यह धारणा मार्क्स के चिंतन के हाशिए पर नहीं, केंद्र में है ।
मार्क्स श्रम प्रक्रिया के तीन तत्व गिनाते हैं- सोद्देश्य गतिविधि के रूप में श्रम, वह वस्तु जिस पर श्रम किया जाए और वे उपकरण जिनसे यह क्रिया संपन्न हो । जिस वस्तु पर श्रम किया जाता है वह शुद्ध प्रकृति या भूमि है जो कच्चे माल से अलग है क्योंकि कच्चा माल दुनिया का वह पहलू है जिसे मानव श्रम के जरिए अंशत: रूपांतरित किया जा चुका है । इसी तरह का भेद उपकरणों के मामले में भी किया गया है जहाँ डंडा या पत्थर जैसी चीजों को भी मनुष्य अपने उपयोग के लिए छुरी या कुल्हाड़ी में बदल लेता है । श्रम के इन उपकरणों में रूपांतरण हमारे सामाजिक संबंधों को प्रभावित करते हैं और उनसे प्रभावित भी होते हैं । यानी तकनीक और सामाजिक संबंधों में द्वंद्वात्मक संबंध होता है । इस बात को मार्क्स बाद में व्याख्यायित करते हैं । श्रम प्रक्रिया को अगर श्रमिक की ओर से देखा जाए तो यह एक चलायमान गति होती है लेकिन उत्पाद की ओर से देखने पर स्थिर, वस्तु का जड़ रूप प्रतीत होती है । जैसे पूँजी संचरण की प्रक्रिया है वसे ही श्रम निर्माण की प्रक्रिया है । यह उपयोग मूल्य का निर्माण करता है लेकिन पूँजीवाद के तहत इसका अर्थ माल के रूप में दूसरों के लिए उपयोग मूल्य का निर्माण हो जाता है । इस उपयोग मूल्य का तत्काल उपयोग आवश्यक नहीं, इसका भविष्य के लिए ढाँचागत वस्तुओं के रूप में भंडारण भी हो सकता है । श्रम की दैनिक क्रिया के अलावा उत्पादों और वस्तुओं के रूप में एकत्र अतीत का यह श्रम भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । लेकिन अतीत का यह संचित श्रम जीवित श्रम के संपर्क में आने पर ही अपना योगदान कर पाता है । इसी आधार पर निजी उपभोग और उत्पादक उपभोग में अंतर समझा जा सकता है । पूरी तरह से नए उपयोग मूल्य के निर्माण के लिए वर्तमान श्रम प्रक्रिया द्वारा अतीत के श्रम का उपभोग उत्पादक उपभोग है, जबकि मनुष्य द्वारा स्वयं के पुनरुत्पादन के उपभोग निजी उपभोग है । श्रम प्रक्रिया के बारे में ये आम बातें सपष्ट करने के बाद मार्क्स पूँजीवादी श्रम प्रक्रिया के बारे में विचार करते हैं ।                   
श्रम-शक्ति की खरीदारी के बाद मजदूर को पूँजीपति के नियंत्रण में काम करना होता है । जितनी देर का सौदा हुआ होता है उतनी देर के लिए श्रम-शक्ति का मालिक पूँजीपति होता है । दूसरी बात कि इस दौरान की मेहनत से श्रमिक जो कुछ पैदा करता है उसका मालिक भी पूँजीपति ही होता है । पूँजीपति ने जिन भी चीजों को खरीदा था उनके उपयोग मूल्य का उपभोग करता है । श्रम प्रक्रिया में मजदूर की मेहनत लगातार रूपांतरित होती रहती है । उसकी गति के साकार होने के परिणामस्वरूप किसी वस्तु का जन्म होता है । काम खत्म होने पर पूँजीपति को पता चलता है कि उसने मजदूर को जितना भुगतान किया था उससे अधिक का उत्पाद उसे मिल गया है । इसके स्रोत के बारे में तमाम किस्म के झूठ का भंडाफोड़ करते हुए मार्क्स इसका असली स्रोत चिन्हित करते हैं । श्रमिक ने अपनी श्रम-शक्ति बेची, मुद्रा पाई और उस मुद्रा से जीने के लिए जरूरी माल खरीदा । इन मालों की लागत भर काम तो उसने कुछ ही घंटों में कर लिया था । श्रम शक्ति को बनाए रखने की दैनिक लागत और रोज उसके द्वारा मूल्य पैदा करना दो बातें हैं । आधे दिन के काम से ही मजदूर दिन भर जिंदा रहने लायक पैदा कर लेता है लेकिन काम उसे पूरे दिन करना होता है । श्रम-शक्ति को खरीदते समय यही बात पँजीपति के ध्यान में रहती है । श्रम-शक्ति रूपी माल का यही विशेष उपयोग मूल्य पूँजीपति के लिए निर्णायक होता है कि यह न केवल मूल्य का बल्कि अपने से अधिक मूल्य का स्रोत होता है । मार्क्स के शब्दों में श्रम-शक्ति रूपी माल का विक्रेता किसी भी माल की तरह इसके विनिमय मूल्य को साकार करता है और इसके उपयोग मूल्य को अलगाता है । पूँजीपतियों की कुल भलमनसाहत के बावजूद उनका व्यवहार आपसी होड़ से तय होता है । अतिरिक्त मूल्य श्रमिक को हासिल और उसके श्रम के उत्पाद में अंतर से जनमता है । श्रमिकों को उनकी श्रम-शक्ति के लिए मजूरी दी जाती है और फिर पूँजीपति उन्हें इस तरह काम पर लगाता है कि वे न केवल अपनी श्रम-शक्ति के मूल्य का पुनरुत्पादन करते हैं, बल्कि अतिरिक्त मूल्य का भी उत्पादन करते हैं । पूँजीपति के लिए श्रम-शक्ति का उपयोग मूल्य यही अतिरिक्त मूल्य पैदा करने की उसकी क्षमता है । इसे हड़पने के लिए पूँजीपति मजदूर के एक-एक क्षण का दोहन करते हैं । ये क्षण ही पूँजीपति के मुनाफ़े के घटक हैं । इसीलिए श्रम प्रबंधन में ज्यादा से ज्यादा समय तक मजदूर को काम में लगाए रखना मुख्य मकसद होता है ।
आगे के दो अध्यायों में मार्क्स अतिरिक्त मूल्य के इस सिद्धांत को स्पष्ट और ठोस बनाते हैं । इसमें वे पहले चल पूँजी और अचल पूँजी के बीच अंतर स्पष्ट करते हैं । अचल पूँजी अतीत का वह श्रम है जो उत्पादन के साधनों के रूप में प्रयोग में आने वाली वस्तुओं में साकार हुआ है और इसका प्रयोग वर्तमान श्रम प्रक्रिया के दौरान होता है । उत्पादन के इन साधनों का मूल्य प्रदत्त है और नई श्रम प्रक्रिया से पैदा होने वाले माल में वह स्थानांतरित हो जाता है । यह मूल्य मशीन या कच्चा माल पैदा करने वाले उद्योगों की उत्पादकता के अनुसार बदलता है इसलिए इसे अचल कहने का मतलब जड़ कहना नहीं है । असल में अतीत के श्रम से निर्मित कच्चे माल, अधबने उत्पादों और मशीनों आदि में निहित मूल्य को वर्तमान श्रम संरक्षित रखता है । इन चीजों से अपने आप मूल्य नहीं पैदा हो सकता । हार्वे के मुताबिक यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अक्सर मान लिया जाता है कि मशीन मूल्य का स्रोत होती है लेकिन मार्क्स ऐसा नहीं मानते । वे कहते हैं कि श्रम प्रक्रिया के दौरान मशीन का मूल्य माल में चला आता है । चल पूँजी मजदूर को किराए पर रखने के लिए चुकाई गई रकम है । अगर यह नहीं हो तो अचल पूँजी का मूल्य शून्य हो जाता है यानी मजदूर मशीन के साथ काम करने से इनकार कर दें तो वे बेकार हो जाएँगी । मजदूर अपनी इस ताकत का इस्तेमाल भी कभी कभी करते हैं । दरअसल अतिरिक्त मूल्य पर मजदूर का ज्यादा अधिकार इस तर्क से बनता है ।
माल का समूचा मूल्य तीन चीजों से मिलकर बनता है- चल पूँजी+ अचल पूँजी+ अतिरिक्त पूँजी । श्रम प्रक्रिया में सक्रिय तत्व केवल चल पूँजी है । मार्क्स श्रम-शक्ति के शोषण की सटीक अभिव्यक्ति के लिए तरह तरह की कोशिशें करते हैं । सबसे पहले वे अचल पूँजी और चल पूँजी के अनुपात पर विचार करते हैं और पाते हैं कि यह श्रम की उत्पादकता का पैमाना है । फिर वे अतिरिक्त मूल्य और चल पूँजी के अनुपात पर विचार करते हैं और पाते हैं कि यह श्रम-शक्ति के शोषण की दर का पैमाना है । अंतत: मुनाफ़े की दर पर वे विचार करते हैं और इसे अचल पूँजी+ चल पूँजी से अतिरिक्त मूल्य के अनुपात के रूप में चिन्हित करते हैं । मुनाफ़े की दर शोषण की दर से अलग है । मुनाफ़े की दर शोषण की दर से हमेशा कम रहती है यानी मुनाफ़ा कम होने से भी शोषण की दर अधिक हो सकती है या होती ही है । मजदूरों के नजरिए से ज्यादा जरूरी शोषण की दर को समझना है । हम जानते हैं कि अतिरिक्त मूल्य का स्रोत मजदूर द्वारा अपने पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक श्रम से अधिक समय तक किया हुआ श्रम है । कोई तरीका नहीं है जिससे जाना जा सके कि काम का कौन सा हिस्सा अतिरिक्त श्रम पैदा कर रहा है क्योंकि मानव श्रम निरंतर जारी प्रक्रिया है ।
यही वह जगह है जहाँ से काम के दिन की लंबाई से जुड़े हुए अगले अध्याय में प्रवेश कर सकते हैं जिसे लेकर दोनों पक्षों में लगातार खींच तान चलती रहती है । इसी अध्याय में पहली बार वर्ग संघर्ष का जिक्र होता है । इस अध्याय की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें सिद्धांत कम, ऐतिहासिक विवरण अधिक हैं । असल में काम के दिन की लंबाई को लेकर चले वर्ग संघर्ष पर मार्क्स की नजर है और वे इसे राजनीतिक अर्थशास्त्र का विचारणीय विषय बनाना चाहते थे । शुरू में ही वे कहते हैं कि मूल्य के श्रम सिद्धांत और श्रम-शक्ति के मूल्य में काफी अंतर है । मूल्य के श्रम सिद्धांत में देखा जाता है कि मजदूर माल में किस तरह सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम काल को जमा देते हैं जबकि श्रम-शक्ति ऐसा माल है जिसके कुछ ऐतिहासिक और नैतिक तत्व हैं । यह अंतर न होने से बुनियादी गलतफहमी हो सकती है । श्रम-शक्ति की खरीद तो बाजार में हुई थी लेकिन काम के दिन की लंबाई तय नहीं हुई थी । इसकी अधिकतम लंबाई की प्राकृतिक सीमा 24 घंटा है क्योंकि मजदूर को बौद्धिक और सामाजिक जरूरतों के लिए समय चाहिए होता है । पूँजीपति का कहना है कि उसने श्रम-शक्ति की कीमत चुकाई है इसलिए वह मनचाहे समय तक इसका इस्तेमाल करने का हकदार है । दूसरी ओर मजदूर का कहना है कि श्रम-शक्ति उसकी संपत्ति है और भविष्य के लिए वह इसका उपयोग सुरक्षित रखना चाहता है, पूंजीपति को हक नहीं कि इसे एक ही दिन में चूसकर उसकी क्रियाशील जिंदगी घटा दे । उसे तो सामान्य लंबाई का काम का दिन चाहिए । पूँजीपति अगर काम का दिन अधिकतम संभव लंबाई का चहता है तो खरीदार के रूप में नाजायज नहीं कर रहा, उसी तरह मजदूर अगर उसे घटाकर सामान्य लंबाई पर लाना चहता है तो विक्रेता के रूप में सही कर रहा है ।
मार्क्स का जोर शायद इस बात पर है कि इसका समाधान सही-गलत यानी अधिकार या कानून से नहीं, वर्ग संघर्ष के जरिए होता है जिसमें निर्णायक तत्व बलहै । आर्थिक सवालों पर श्रम या पूँजी में से किसी एक के पक्ष में खड़ा हुए बिना कोई फ़ैसला संभव नहीं होता । मार्क्स के मुताबिक बलका अर्थ हमेशा भौतिक बल नहीं होता, इस अध्याय में प्रमुखता से राजनीतिक बल की बात की गई है यानी ऐसे राजनीतिक संश्रय और संस्थाएँ बनाने की क्षमता, जो राजकीय मशीनरी को सामान्य लंबाई का काम का दिन तय करने के लिए बाध्य कर सकें । हार्वे ने इस अध्याय के प्रसंग में ठीक ही लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेरको याद किया है जिसमें वर्ग संघर्ष को राजनीतिक संघर्ष के रूप में समझाया गया है ।
काम के दिन की लंबाई पर मार्क्स के जोर का कारण है कि पूँजीवाद के लिए समय ही मुद्राहै (टाइम इज मनी) । काम के दिन के सवाल पर वर्ग संघर्ष का इतिहास इस टिप्पणी के साथ शुरू होता है कि शासक वर्ग के फ़ायदे के लिए अतिरिक्त श्रम और अतिरिक्त उत्पाद का अधिग्रहण केवल पूँजीवादी समाज में नहीं होता, लेकिन इस व्यवस्था के तहत अतिरिक्त श्रम को अतिरिक्त मूल्य में बदल दिया जाता है । इससे महत्वपूर्ण अंतर आ जाता है क्योंकि पहले ही वे बता चुके हैं कि मुद्रा के रूप में मूल्य संचय की कोई सीमा नहीं होती । यह अधिग्रहण चूँकि मजूरी श्रम वाले समाज में होता है इसलिए अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन को मजदूर उसी तरह नहीं महसूस करते जिस तरह भूदास और गुलाम अपने अतिरिक्त श्रम को महसूस करते हैं । उदाहरण के बतौर मार्क्स मध्य यूरोप की कोर्वी प्रणाली का जिक्र करते हैं जो बहुत कुछ बँधुआ श्रम की तरह की थी । इसमें मजदूर एक निश्चित संख्या के कार्य दिवस भूमालिक की जमीन पर काम करता था, इसलिए अतिरिक्त श्रम का अधिग्रहण पूरी तरह पारदर्शी हुआ करता था । जब 1831 में रूस में भूदास आजाद किए गए तो काम के दिन की परिभाषा लचीली बना दी गई जिसके तहत एक दिन का काम असली दिन से नहीं बल्कि निर्धारित काम से नापा जाने लगा । साल के 365 दिन काम के 12 दिनों के बराबर होते थे । काम के दिन की यह धारणा पूँजीमें बार बार सामने आती है । सामाजिक उद्देश्य के तहत समय के पैमाने को बढ़ाया-घटाया जा सकता है । जब वर्ग संबंधों का बुनियादी तत्व अतिरिक्त श्रम-काल का दोहन हो जाता है तो समय की धारणा, उसे नापने वाला और नापने वाले की समझ का विश्लेषण महत्वपूर्ण हो जाता है ।
इस अध्याय में ब्रिटेन में उन्नीसवीं सदी के फ़ैक्ट्री कानूनों पर ध्यान केंद्रित किया गया है जिनका मकसद राज्य द्वारा काम के दिन की सीमा तय करके श्रम-शक्ति के असीम दोहन पर लगाम लगाना था, लेकिन इस राज्य पर पूँजीपतियों और जमींदारों का ही आधिपत्य था । आखिर उन्हीं के शासन में चलने वाला राज्य काम के दिन की लंबाई को कम करने के लिए सहमत क्यों हुआ? अब तक तो मजदूर और पूँजीपति ही दिखाई पड़ रहे थे, उनके बीच जमींदार कहाँ से आया? मार्क्स देखना चाह रहे थे कि जब मजदूरों की सीधी पहुँच राजसत्ता तक नहीं होती तो मौजूदा वर्ग संश्रय कैसे काम कर सकते हैं । उन्नीसवीं सदी में इंग्लैंड के राज्यतंत्र में पूँजीपतियों और जमींदारों का शक्ति संबंध था इसलिए भूमिधर कुलीनता की भूमिका पर ध्यान दिए बिना उस समय की राजनीति का विश्लेषण असंभव था । मजदूर वर्ग आंदोलन की ताकत पृष्ठभूमि में थी । राज्य को चिंता थी कि अगर राष्ट्रीय संपदा के सृजन में भूमि की तरह ही मजदूर भी प्रमुख संसाधन हैं तो अति शोषण से अतिरिक्त मूल्य के लगातार निर्माण की क्षमता कम हो जा सकती है । राज्य की रुचि इसमें भी थी कि मजदूर ऐसे हों जिनसे सैनिक का काम भी लिया जा सके । इसी चिंता के चलते कानून तो बन गए लेकिन उन्हें लागू कराने की जिम्मेदारी कैसे पूरी हो । इस जगह फ़ैक्ट्री निरीक्षकों की भूमिका सामने आती है । ये कौन लोग थे? पेशेवर प्रशासनिक सेवा के इन निरीक्षकों ने राज्य की जरूरत के अनुसार औद्योगिक हितों को नियंत्रित किया । उनकी मौजूदगी के जरिए हम श्रम-शक्ति के मूल्य के निर्धारण में किसी देश में सभ्यता के स्तर के कारक को क्रियाशील होता देखते हैं । उन्नीसवीं सदी के इंग्लैंड में बुर्जुआ सुधारवाद की लहर चल रही थी जिसके मुताबिक श्रमिकों के साथ उस समय के आचरण में कुछ चीजें सभ्य समाज के लिए अस्वीकार्य थीं ।   
फ़ैक्ट्री निरीक्षकों की रपटों के आधार पर मार्क्स ने माना कि हरेक पल मुनाफ़े का कारक होता है । हार्वे कहते हैं कि श्रम प्रक्रिया में मजदूर के समय के हरेक पल पर पूंजीपति कब्जा जमाना चाहता है । वे न सिर्फ़ बारह घंटे के लिए मजदूर की श्रम-शक्ति खरीदते हैं बल्कि उन घंटों का अधिकतम तीव्रता के साथ इस्तेमाल भी सुनिश्चित करते हैं । इसी मकसद से तो तमाम सुपरवाइजर नियुक्त किए जाते हैं । समय के प्रति पूँजीपति का यह बरताव मार्क्स की इस धारणा के मेल में है कि सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम-काल ही मूल्य है । इस अध्याय के तीसरे अनुभाग में मार्क्स ने उन उद्योगों का वर्णन किया है जहाँ श्रम-काल की कोई कानूनी सीमा नहीं थी । इसके जरिए मार्क्स बताते हैं कि जब पूँजी और श्रम के बीच का शक्ति संबंध एकपक्षीय हो जाता है तो इसका नतीजा मजदूरों की मौत में निकलता है । अगर मूल्य गतिमान नहीं है तो पूँजी के रूप में साकार नहीं होता । बेकार पड़ी हुई पूँजी असल में पूँजी की हानि है । इसीलिए उसके लगातार इस्तेमाल का दबाव बना रहता है । भारी अचल पूँजी वाले बड़े उद्योगों में तो उत्पादन प्रक्रिया की निरंतरता बेहद महत्वपूर्ण होती है । इसके कारण चौबीस घंटे का काम का दिन जरूरी हो जाता है । कोई एक मजदूर इतनी देर तक काम नहीं कर सकता इसलिए काम की पाली शुरू की गई । जाहिर है पूँजी के लिए मजदूर के आराम का कोई अर्थ नहीं होता, उसे तो लगातार संचरण में रहना होता है ।
इसके बाद के अनुभाग में काम के सामान्य दिन के लिए होने वाली लड़ाई का जिक्र है । इसके क्रम में वे बताते हैं कि मध्य काल में लोगों को उजरती मजदूर बनाना काफी मुश्किल था । वे घुमक्कड़, भिखारी या लुटेरे हो जाते थे । इसलिए काम के दिन का कानून बनाया गया, भिखारियों और घुमक्कड़ों को अपराधी घोषित किया गया । घुमक्कड़ों को कोड़े लगाए जाते और दिन भर खटवाया जाता । 1349 में काम का दिन बारह घंटे का घोषित हुआ था । उन्नीसवीं सदी और उसके बाद ऐसा चलन उपनिवेशों में कायम रहा । भारत और अफ़्रीका में अंग्रेज अफ़सर देशी आबादी के दिन भर काम न कर पाने की शिकायत करते थे । उनके मुताबिक ये लोग थोड़ी देर काम करते और फिर गायब हो जाते । समय की स्थानीय धारणा घड़ी के मेल में न थी इसलिए औपनिवेशिक अफ़सरान काम का अनुशासन लादने में बड़ी मशक्कत करते थे । समय की आधुनिक धारणा का संबंध पूँजीवाद के उदय से है । घंटा तेरहवीं सदी में प्रचलित हुआ और मिनट तथा सेकंड तो सत्रहवीं सदी में समय नापने के काम आने शुरू हुए । ये प्राकृतिक नहीं, सामाजिक निर्मितियाँ हैं और इनकी उत्पत्ति सामंतवाद के पूँजीवाद में संक्रमण से जुड़ी हुई है । मार्क्स का जोर इस बात पर है कि काम के दिन की समयबद्ध धारणा किन्हीं ऐतिहासिक कारणों से विशेष ऐतिहासिक दौर में सामने आई सामाजिक निर्मिति है, इसमें सामान्य जैसा कुछ भी नहीं है । प्राक-पूँजीवादी समाजों में काम का समय अक्सर चार घंटे का हुआ करता था । शेष समय ऐसी गतिविधियों में बीतता था जिन्हें आज उत्पादक नहीं माना जाएगा ।
अगले अनुभाग में वे बताते हैं कि 1820 दशक के ब्रिटेन में सत्ता पर जमींदारों का ही दबदबा था । लेकिन फिर बुर्जुआजी का उदय हुआ जो बाजार की आजादी और मुक्त व्यापार वाले सिद्धांतों में मजबूती से यकीन करती थी । राज्य मशीनरी में अधिक ताकत हासिल करने के लिए इसने संसदीय सुधारों की माँग की । इसके लिए उन्हें जमींदारों से लड़ना पड़ा और इस लड़ाई में उन्होंने पेशेवर मध्यवर्ग और मुखर तथा शिक्षित शिल्पियों का समर्थन लिया । औद्योगिक बुर्जुआजी ने जमींदारों के विरुद्ध शिल्पी मजदूर वर्ग आंदोलन के साथ संश्रय कायम किया और बड़े पैमाने के आंदोलन के बाद मताधिकार में विस्तार हुआ जिससे इन्हें संसद में अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ । आंदोलन के क्रम में वादे किए गए थे कि शिल्पियों को मताधिकार हासिल होगा और काम के दिन को नियमित किया जाएगा । बुर्जुआजी को तो वांछित मिल गया लेकिन मजदूरों को कुछ नहीं मिला । काम के दिन की लंबाई को नियमित करने वाला 1833 का पहला फ़ैक्ट्री कानून लचर था जिसके विरोध में मजदूरों ने चार्टिस्ट आंदोलन शुरू किया । इस दौरान बुर्जुआजी की बढ़ती हुई ताकत का विरोध जमींदारों ने शुरू किया । इसी विरोध के चलते उन्होंने मजदूरों की माँगों का राष्ट्रीय (सैनिक) हितों के नाम पर समर्थन किया । साथ ही अपने को भले मालिक भी दिखाना उनका उद्देश्य था जो गंदे उद्योगपतियों की तरह लोगों का शोषण नहीं करते । फ़ैक्ट्री निरीक्षकों को इन जमींदारों ने प्रोत्साहित किया ताकि निर्दय औद्योगिक बुर्जुआजी की ताकत पर लगाम लगाई जा सके । जमींदारों और मजदूर वर्ग आंदोलन के इसी संश्रय के दबाव में कड़े फ़ैक्ट्री कानून पेश और पास हुए । इससे पूँजीपतियों को भी फ़ायदा हुआ क्योंकि उन्हें स्वस्थ मजदूरों से ज्यादा काम कराने का मौका मिला । यानी वर्ग संघर्ष कभी कभी पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के बेहतर संचालन में भी मदद कर सकता है । आखिर उसे अपनी सामाजिक वैधता के लिए मजदूर वर्ग आंदोलन को थोड़ी ताकत देनी पड़ती है । हार्वे इसके उदाहरण के बतौर न्यू डील के समय अमेरिका में ट्रेड यूनियनों को अधिकार देने का मामला उठाते हैं जिसने पूँजीवाद को उखाड़ने की जगह उसे स्थायित्व प्रदान किया । मार्क्स द्वारा वर्ग संघर्ष का यह वर्णन इसकी पेचीदगी को उजागर करने के लिए पर्याप्त है ।
हार्वे की समूची किताब का सार प्रस्तुत कर पाना समय के अभाव में संभव नहीं, लेकिन ऊपर का वर्णन पाठक के लिए इस महाग्रंथ में प्रवेश की कुंजी कुछ हद तक दे देता है और हार्वे का यही उद्देश्य भी है । इसमें पूँजीके दसवें अध्याय तक हार्वे की टिप्पणियों की संक्षिप्त रूपरेखा मात्र है । हार्वे का यह अध्ययन एक हद तक पूँजीके प्रति उस आकर्षण का प्रमाण है जो हाल के दिनों में अनेक आर्थिक और अर्थेतर कारणों से पैदा हुआ है । कुछ हद तक इस व्याख्या में फ़्रांसिस ह्वीन की जीवनी में संकेतित पद्धति का उपयोग किया गया है और कुछ विनिमय मूल्य की प्रभुता की मार्क्स द्वारा की गई पहचान और उससे पैदा होने वाले संकट के पूर्वाभास के बारे में मार्क्स के विश्लेषण पर जोर के बढ़ने का संकेत है ।